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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3D अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७५ अनौपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वी निरूपणम् ३०९ शिकास्कन्धो यावत् दशपदेशिकः आनुपूर्वी बोध्या यावत् संख्यातप्रदेशिक आनु पूर्वी, असंख्यातप्रदेशिकः आनुपूर्वी, अनन्तप्रदेशिकः आनुपूर्वी बोध्या। परमाणुपुद्गलः एकः परमाणुस्तु अनानुपूर्वी बोध्या । परमाण्वन्तरा-संस्पृष्टत्वात् , द्विपदेशिका परमाणुद्वयविभागवान् स्कन्धस्तु आनुपूर्वितया अनानुपर्वित या वा वक्तुमशक्यः, अतः सोऽवक्तव्यकः । यस्मादेवं तस्मात्-त्रिपदेशिकाः सर्वेऽपि स्कन्धा आनुपूर्णं भवन्ति, यावत् अनन्तमदेशिकाः सर्वेऽपि स्कन्धा आनुपूयॊ भवन्ति । पुष्वी संखेज्ज पएसिए आणुपुच्ची, असंखिजपएसिए आणुपुव्वी, अणंतपएसिए आणुपुव्वी) तीन प्रदेशोंवाला व्यणुक स्कंध आनुपूर्वी है चार प्रदेशोंवाला चतुष्प्रदेशिक स्कंध आनुपूर्वी है। यावत् दश प्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है यावत् संख्यातप्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है, असंख्य प्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है। ऐसा जानना चाहिये। ___ (परमाणुपोग्गले आणाणुपुच्ची, दुपएसिए अवत्तब्बए) परन्तु जो एक परमाणु है वह आनुपूर्वी नहीं है। क्योंकि वह और किसी दूसरे परमाणु से संस्पृष्ट नहीं है। द्विप्रदेशवाला जो स्कंध है वह आनुपूर्वी रूप से और अनानुपूर्वी रूप से वक्तुं अशक्य है इसलिये वह अवक्तव्य है। जब ऐसी बात है तो (तिपएसिया आणुपुव्वीओ जाव अणंतपएसि. याओ आणुपुल्वीओ) तीन प्रदेशवाले समस्तस्कंध आनुपूर्वी हैं-यावत् अनन्त प्रदेशवाले जितने भी स्कंध हैं वे सब आनुपूर्वियां है। (परमाणु आणुपुव्वी, संखेज्जपएसिए आणुपुत्री, असंखिज्जपएसिए आणुपुव्वी, अणंत पएसिए आणुपुव्वी) १५ प्रशावाणे या २४५ भानुभूती छ, या२ प्र. શેવાળ ચતુષ્પદેશિક સ્કધ આનુપૂવી છે, દસ પર્વતના પ્રદેશેવાળે સ્કંધ આનુપૂર્ણ છે, સંખ્યાત પ્રદેશેવાળો સકંધ આનુપૂર્વી છે, અસંખ્યાત પ્રદેશેવાળ સ્કંધ આનુપૂર્વ છે અને અનંત પ્રદેશવાળો સ્કંધ આનુપૂર્વી છે, એમ સમજવું (परमाणुपोग्गले अणाणुपुव्वी, दुपएसिए अवत्तव्वए) परन्तु २ ३१॥ એક પરમાણુ છે તે આનુપૂર્વી રૂપ નથી, કારણ કે તે કઈ બીજા પરમાણુ વડે સંસ્કૃષ્ટ હેતું નથી બે પ્રદેશવાળો જે સ્કંધ છે તે આનુપૂર્વી રૂપે અને અનાનુપવી” રૂપે વ્યક્ત થ અશક્ય છે તેથી તે અવકતવ્ય છે. જે એવી વાત छ तः (तिपएसिया आणुपुव्वीओ जाव अणंतपएसियाओ आणुपुत्रीओ) ay પ્રદેશોવાળા સમસ્ત ક આનુપવીએ રૂપ છે, અને અનંત પર્યન્તના પ્રદેશેવાળા જેટલા સકંધ છે તેઓ પણ આનુપૂર્વીએ રૂપ છે. For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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