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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगवन्द्रिका टीका. १ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम जोशीमदर. चिन-382000 २५ मनःपर्यवज्ञानमिति । अवनम् अवः । 'अव रक्षण गतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमाद्यर्थेषु' पठितोऽस्ति, तत्रावगमार्थमाश्रित्य निष्पन्नः । अव:-अवगमः, बोध इत्यर्थः । परिशब्दः सर्वी भावे, पर्यवः समन्तादववोधः। मनसः पर्यवो मनः पय वः मनोविषयकः समन्तादधबोध इत्यर्थः। मनःपर्यवश्वासौ तज्ज्ञानं चेति मनःपर्यवज्ञानम् । पर्ययः, पर्यायः, एते शब्दा एकार्थवाचः । में समान हैं। अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम ही अन्तरंग कारण है। अतः ऐसा कहने में कि अवधिज्ञानाव णीय कर्म के क्षयोपशम से अवधि--- ज्ञान की उत्पत्ति चारों गतियों के जीवों को होती है इस प्रकार के कथन में कोई विरोध नहीं है। ___ मनःपर्यवज्ञान- पर्यव यह शब्द परि उप र्ग अव धातु से बना है। अब धातु रक्षण, गति, कान्ति, प्रीति, तृप्ति. अगम आदि अर्थों में पठित हुआ है सो यही पर इन में से अवगम अर्थ लिया गया हैं। अवगम का अर्थ बोध है। "परि" का अर्थ सब प्रकार से है । मन की सब पर्यायों का साक्षात् जानने वाला जो ज्ञान है वह मनः पर्यवज्ञान है। पर्यय पर्याय ये सब शब्द एकार्थवाचक हैं। तात्पर्य इसका यह है कि मनवाले संज्ञी प्राणी-किसी भी वस्तु का चिन्त्वन मनसे करते हैं। चिन्त्वन के समय चिन्तनीयवस्तु के भेद के अनुसार चिन्तनकर्म में प्रवृत्त मन भिन्न २ आकारों को धारण करता रहता है। ये आकृतियां ही मन की पर्याय हैं । इन मन की पर्यायों को साक्षात् आनने वाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान हैं द्रव्य मन और (४) मन:पर्यज्ञान-परि+अव्=पर्यव. मा शत 'अव्' धातुने परि' दापायी पियव' ५४ पन्यु छ. 'अव्' धातु २३९. गति, ति, प्रति, तृति, અવગમ આદિ અર્થોમાં વપરાય છે. અહીં તેને અવગમ અર્થ ગૃહીત થયો છે. અવગમ એટલે બે ધ, અને “પરિ એટલે “સર્વ પ્રકારે મનના સઘળા પર્યાને સાક્ષાત્ જાણનારૂં જે જ્ઞાન છે, તેનું નામ મનઃ પર્યાવજ્ઞાન છે.” પર્યય અને પર્યાય આ બનને શબ્દ સમાનાથી છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-મનવાળા છે (સંજ્ઞી છે) કોઈ પણ વસ્તુનું મનની મદદથી ચિત્તવન કરે છે. આ પ્રકારના ચિન્તનકમમાં પ્રવૃત્ત થયેલું મન ભિન્નભિન્ન આકારેને ધારણ કરતું રહે છે. તે આકૃતિઓ જ મનના પર્યાય છે. મનન એ પર્યાને સાક્ષાત્ જાણનારૂં જે જ્ઞાન છે તે જ્ઞાનનું નામ જ મન:પર્યવજ્ઞાન છે, For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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