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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - . अनुयोगदारो पोखरमुरते । इहाप्पादि शब्दः प्रकारवाची। फलस्य प्रकारो भेदः कति अनि बोधयितुमादिः शब्दः प्रयुक्त इति । अत्रापि काणे कार्योपचारात कांस मिति सामानाधिकरण्याम । अब. वृतीय भेदमाह-कीडय पंचषि पण्णत' इति । कीटज पम्वविध प्रज्ञतम्-कीटज-कीटास् चतुरिन्टिग जीवविशेषाजातं स पञ्चप्रकारकं प्रशसं-प्रहपित्त । पचप्रकारस्वमेष स्पष्टयति-त जहा' इत्यादि । तपथा-पई पसनम, पसमोर तिविषये एवं पदसम्माय:-अरण्ये निकुञ्जमध्ये मांसचीडादिरूपामिपपुत्राः स्थाप्यन्ते । तेषां पुजानां पार्थता निम्ना उन्नताथ सान्तस बहवः है। इस कपास के बने हुए सत्र को योण्डज कहा जाता है। यहां आदि शब्द प्रकारवाची है। कपास से फलका भेद है। यह भेद पास है। इस पातको समझाने के लिये यहाँ आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है। यहां भी कारण में कार्य के उपचार से बोण्डज सत्र को कपास वह दिया है। इसलिये समानाधिकरणता बनने में कोई दोष नहीं है। (कीडयं पंचविहं पण्यत्त) कीटज मा पांच प्रकारका कहा गया है। चौइन्द्रिय जीव विशेष नाम कीट है। उस से उत्पन्न जो सूत्र होता है वह पांच प्रकार का होता है। (तंजहा) जैसे-“पढे मलए अंसुए पीपल किमिरागे" पह, मलय, अंशुक चीनांशुक और मिराग । पट्ट से यहां पर सूत्र लिया गया है। इस पत्र की उत्सत्ति के विषय में युद्ध परम्परा से ऐसी बात सुनने में आती है-जंगल में एक निकुंज लतापिहित प्रदेश होता. है । इस में मांसचीडादि रूप अमिषपुंज रख दिये जाते हैंપ્રકારવાચક છે. કપાસ અને કાલા વચ્ચે ભેદ છે. કાલું એક પ્રકારના ફલ રૂપ છે. જ્યારે કપાસ તેમાંથી નીકળતી વસ્તુરૂપ છે. આ વાતને સમજાવવાને માટે અહીં આદિ શબ્દ વપરાયેલ છે. અહીં પણ કહેવામાં આવેલ છે. તેથી સમાનાધિકરણતા ઘટિત થવામાં કેઈ દેષ રહેતું નથી. .. (कीडयं पंचविहं पण्णत्त') 12 सूत्र पांय ५२ ४६i छ. यतुन्द्रय છવિશેષ (રેશમના કીડા આદિ છો)ને કીટ (કી કહે છે, તેની લાળ આદ્ધિ यी बनने सूत्र डाय छे ते 20 सूत्र ४ छ (तंजहा) डीट सत्रना पाय | नीय प्रभा छ (पढे, मलए, अंसुर, चीणंसुए, किमि (१) Yar (२) मन (3) संY, (४) यीनांशु भने (५) भि. .. “ આ પદથી અહીં પટ્ટસત્ર ગ્રહણ થયું છે. આ પટ્ટ સવાલ ઉત્પત્તિના સિયમાં વૃદ્ધ પરમ્પરાની અપેક્ષાએ આ પ્રકારની વાત પ્રચલિત છે–જંગલમાં કઈ એક નજમાં (વૃક્ષ અને લતાઓના સમૂહથી યુકત સ્થાનને નિકુંજ કહે છે) For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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