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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org - अनुयोगचन्द्रिका टीका २९ भावावश्यकपर्यायनिरूपणम् जीवकर्मसंबन्धापनयनानायः-यथाथि प्रत्यार्थिनोयोरपि क्षेत्रधनादिसम्बन्धिकं चिरकालिकमपि विवादं न्यायाध्यक्षदृष्टो यायो रुपनयति, तथैवावश्यकमपि जीतकर्मणारनादिकालिगमायाश्रयि भाव सम्बन्धमपनयतीति-आश्श्य मपि न्याय इत्युच्यते ॥६॥ आराधना-मेक्षिाराधना हेतुत्वाद। श्यकम् आराधना ॥७॥ मार्ग:-तथा मार्गों नगरं प्रापयति, तथैवावश्यकमपि मेक्षिं प्रापयतीति मोक्षरूपपुरप्रापकत्वात् आवश्यकं मार्गः इति ॥८॥ सम्प्रति-प्रावश्यकपदस्य शब्दार्थः सूत्रकारः म्वयमेव प्रदर्शयति-'समणेणं' इत्यादि । श्रमणेन-साधुना नाकेग, चकारस्योपलक्षणत्वात् -श्रमण्या श्राविकया च यस्म त् अहर्निशस्य अहोरात्रस्य अन्ते अरसाने दिवसान्ते राज्यन्ते चे लीन संबन्धको यह दूर कर देता है-जिस प्रकार वादि प्रतिवादी के बहुत समय का भी क्षेत्र, धन आदि संबन्धी विवादको न्यायाध्यक्ष न्याय के बल पर दूर कर देता है-उसी प्रकार आवश्यक भी जीव और कर्म के अनादिकालीन आश्रयाश्रयिभावरूप संबन्धको दूर कर देता है-इसलिये इसका नाम भी न्याय है। मोक्षकी आराधना व रनेका यह हेतु है । इसलिये इसका नाम आराधना है। जिस प्रकार मार्ग पथिकका नगर में पहुँचा देता है उसी प्रकार आवश्यक भी मोक्ष रूप नगर में अपने पथिकका पहुंचा देता है-इसलिये इसका नाम-मार्ग है। आवश्यक शब्दका क्या अर्थ है-इस बातको अब मुत्रकार प्रकट करते हैं (रामणेणं सावएणं य) श्रमण, श्रावक के द्वारा यह (जम्हा) जिस कारणसे (अहोनिसस्स अंते) दिवसान्त और निशान्त में (अस्सकाप होइ) अपश्य करणीय होता है (तम्हा) इसकारण से (आवस्सयं नाम) इसका તેનું છઠું નામ “ન્યાય અથવા-જેવી રીતે ન્યાયાધીશ વાદી અને પ્રતિવાદીના જર, જમીન આદિ વિવાદને ન્યાયને આધારે દૂર કરી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે આવશ્યક પણ જીવ અને કર્મના અનાદિ કાલિન આશ્રયાશ્રયી ભાવરૂપ સંબંધને દૂર કરી નાખે છે. તેથી આવશ્યકનું છઠ્ઠું નામ “ન્યાય છે. (७) 'माराधना-मोक्षनी माराधना ४२वामां आवश्य हेतु३५ (साधन३५) થઈ પડે છે, તેથી તેનું સાતમું નામ “આરાધના” છે. (૮) “માર્ગ–જેવી રીતે માર્ગ પથિકને ગરમાં પહોંચાડી દે છે, એ જ પ્રમાણે આવશ્યક પણ તેને આરાધક જીવને મિક્ષ રૂપ નગરમાં પહોંચાડી દે છે, તેથી તેનું આઠમું નામ માર્ગ છે. આવશ્યક શબ્દને શો અર્થ છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે छ(सवणेणं सायएणं य) श्रमाय भने श्रा१४ ॥ ते (जम्हा) रे ॥२९ (अहो निसरस अंते) पिसने मन्ते भने त्रिने मन्ते (अवस्स कायव्वं हाइ) म१श्य For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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