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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगबारसूत्रे तत्र श्रावकाद्यभेदोपचारात् स्थापनारूपमावश्यकमित्यर्थः । काष्ठकर्मादिषु आवश्यक क्रियां कुर्वन्तो यत् स्थापनारूपाः श्रावकादयः स्थाप्यन्ते चित्ररूपेण तत् :स्थापनावश्यकमिति तात्पर्यम् ! तदाह-जणं' इत्यादि । पत्खलु काष्टकर्मणि वा-काष्ठे समुत्कीर्णे रूपके वा पुस्तकर्मणि वा । पुस्तं वस्त्रं तम्य कर्म-तन्निर्मिता पुत्तलिका तस्मिन् वा। अथवा-पोत्यकर्मणि' इतिच्छाया, पोत्थं-पुस्तक, तच्चेह संपुटकरूपम्, तत्र कर्म-तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकं तन्मिन् वा । यद्वा-पोत्थं-पुस्त-ताडपत्रं, तत्र कर्म-तच्छेदनिष्पन्न रूपकं तस्मिन् वा ।चित्रकर्मणि वा-चित्रलिखिते रूपके वा लेप्यकर्मणि-लेप्यरूपके वा, ग्रन्थिमे वा-ग्रन्थेन निवृत्तं ग्रन्थिम-नैपुण्यातिशयात् ग्रन्थिसमुदाय निष्पादितं रूपकं तस्मिन् वा । वेष्टिमे वा-वेष्टनेन-पुष्पवेप्टनक्रमेण निष्पन्नं रूपकं वेष्टिमं उसका चित्र जो कि ज्ञानादि गुणों से सर्वथा शून्य (रहिन) होता है. वह स्थापनानिक्षेप है उसमें आवश्यक क्रिया को संपादन करने की आकृतिरूप में श्रावक आदि को का फोटो-पत्थर या काष्ठ के पटिये पर बनाया जाता हैं, सो चित्र यही स्थापनारूप आवश्यक है। इसी विषय को सूत्रकार "जण्णं" इत्यादि पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं-(जण्णं कठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा) जो आकृति काष्ठ में उकेरी जावे उसमें अथवा पुस्त-वस्त्र-कपडे पर चित्रित की जावे उसमें अथवा वस्त्र से पुत्तलिका के रूप में बनाई जावे उस में या पोत्यकर्मणि" पुस्तक के बीच में कुची से रंग आदि भर कर बनाई जावे उसमें अथवा ताड पत्र पर छेद करके बनाई जावे उसमें अथवा (चित्तकम्मे वा) चित्र रूप में बनाई जावे इसमें (लेप्पकम्मे वा) अथवा मृत्तिका को गिली करके बनाई जावे उसमें (गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संधाइमे वा) अथवा वस्त्र की गांठों के समुदाय से કોતરવામાં આવેલું તેનું ચિત્ર કે જે જ્ઞાનાદિ ગુણોથી સર્વથા વિહીન હોય છે. તે સ્થાપનાનિક્ષેપ છે. જેમાં આવશ્યક ક્રિયાને સંપાદન કરષાની આકૃતિરૂપે શ્રાવક આદિકનાં ચિત્રો પથ્થર પર અથવા લાકડાનાં પાટિયાં વગેરે પર બનાવવામાં આવે છે, તેને જ સ્થાપના રૂપ આવશ્યક કહે છે. એ જ વિષયને સૂત્રકાર “નuoઈત્યાદિ પદે દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે– (जण्णं कढकम्मे वा पोत्यकम्मे 1) रे भाति । ५२ तरी यामा આવે તેમાં અથવા પુસ્ત પર (વસ્ત્ર પર) ચિત્રિત કરવામાં આવે તેમાં, અથવા વસ્ત્રभांथी दली३पे मनावमा मावतमा अथवा-पोत्थकर्मणि" पुस्तनी हर पछी ५७ २॥ पूरीने मनापामा मा तभी, अथवा (चित्तकम्मे वा) यत्र३५ रनु सन ४२वामां मावे , (लेप्पकम्गे वा)लानी माटीमाथी मनापाममा तभी, (गंथिमे वा, वेढिमे वा, पुरिमे वा, संधाइमे वा) 424 vl distrl समुदायका For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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