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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६७० अनुयोगद्वारसूत्रे अंकारान्तः शब्दः 'धन्नं' इति विज्ञेयः । 'अत्थि' इति शब्द ईकारान्तो बोध्यः । 'पीलुं महुं' चेति शब्द द्वयं उकारान्तं बोध्यम् । एते अंकारान्वादयः शब्दा नपुंसकलिङ्गा बोध्याः । लिङ्गत्रये य एते शब्दा उक्तास्ते सविभक्तिकाः प्राकृतशब्दा विज्ञेयाः प्रकृतमुपसंहरन्नाह तदेतत् त्रिनामेति ||० १४८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहते हैं - ( अंकारं धन्नं) अंकारान्त शब्द "धन्नं" हैं । (इंकारंतं नपुं सगं अथ) इंकारान्त शब्द "अस्थि" है (उकारंत पिलं महुं च) और उकारान्त "पीलुं" "महुं" हैं ये अंकारान्तादि शब्द (अन्ता) कि जिनके अन्त में "अं" "" "डं" ये वर्ण हैं वे (नपुंसगाणं) नपुंसकलिङ्ग हैं। तीनों लिङ्गों में जो ये उदाहरण कहे गये हैं वे विभक्तियुक्त प्राकृत शब्द हैं। ( से तं तिणामे) इस प्रकार यह त्रिनाम है। भावार्थ - प्राकृत भाषा में तीन लिङ्ग हैं। उनमें जिन शब्दों के अन्त में "आ ई ऊ ओ" ये चार वर्ण हों वे पुल्लिङ्ग हैं- जैसे "राया " यह शब्द "संस्कृत में "राया" की छाया "राजन् " है । और यह वहां हलन्तपुल्लिङ्ग में नकारान्त शब्द है । "गिरी और मिहरी" ये दो शब्द इकारान्त पुल्लिङ्ग के उदाहरण हैं। संस्कृत में इन की छाया " गिरि" 66 झिंगना (नान्यतर जतिन) होना उहाहर आये छे- (अकारान्तं धनं) "4" 241 आङ्कृत यह अकारान्त नपुंसः झिंगनु यह छे. (इंकारान्तं नपुंसगं अस्थि ) " अस्थि " आ आत यह अरान्त नपुंसि द्विगनुं यह छे. (उकारान्तं पीलुं महुं च ) पीलुं " मते " महुं " मा पहो अन्ते "म, ध, સક લિંગના પટ્ટા છે. જે શબ્દેને (नपुंसगाणं) नपुंस सिजना होय छे, या वात तो पडेसां भावी युद्ध छे. त्रणे सिगोनां (लतिना) या थे यहोना वामां भाव्या छे, ते विलक्तियुक्त आहृत शब्दे । छे. ( से तं तिणा मे ) मा પ્રકારનું ત્રિનામનું સ્વરૂપ સમજવુ', પ્રકટ કરવામાં उठाईरखे। आय અન્ત (1 ભાવા–પ્રાકૃત ભાષામાં ઉપયુક્ત ત્રણ લિંગ હાય છે. જે શબ્દને "" आ, ई, ऊ डे ओ " मा यार वर्षाभांना अर्थ पशु वर्षा होय हे તે પદો પુલ્લિંગ હાય છે જેમ કે આકારાન્ત राया પદ્મ આ શબ્દની संस्कृत छाया " राजन्,' थाय छे तेने गुरुशतीभां " राज्म" हे छे. मा शब्दं भाडाशन्त युब्सि ंगनु उहाहरण छे. " गिरी अने " सिहरी " ये यह ारान्त पुल्लिंगना उहाहरणे ३ये महीं वपरायां छे. "गिरी " मां आद्भुत पहनी संस्कृत छाया " गिरी " थाय छे, " सिहरी" मा पहनी " આ For Private and Personal Use Only ܙܙ अरान्त नपुं उं” छे ते पहा "
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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