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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वारसत्र 'शून्यता, तच्छ्न्यं च वस्तु द्रव्यमेव भक्तीति वाचनादिभिरतत्र वर्तमानाऽपि साधु व्यावश्यकम् । अनुप्रेक्षा तूपयोगपूर्विकैव रं.भवति, उतरतंत्र वर्तमाना · द्रणवश्यकं न भवति । . .. :: . ननु आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमित्यागमरू पमिदं द्रव्यायवश्यकमित्युक्तं भवति, एतच्च युक्तं न प्रतिभाति, यत् आगमो ज्ञानं, ज्ञानं च : भार एवेति कथमस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते ? इतिचेत् उच्यते-आगमस्य कारणमात्मा, तदधिष्ठितो देहः, - शब्दश्वोपयोगशून्यसूत्रोच्चारणरूप इहास्ति, न तु साक्षादागमः। एतच्च त्रितयमागम कारणात् कारणे कार्योपचारादार म उच्यते, कारणं च विवक्षित भावस्य द्रव्यमेव भवतीत्यदोषः । अनुपयोगपूर्वक गृहीत किये गये हैं। भावशून्यता का नाम अनुपयोग है। उपयोग से शून्य द्रव्य ही होता है। इसलिये वह आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता साधु उसमें वाचनादिक से वर्तमान होता हुआ भी उपयोग से शून्य होने के कारण द्रव्यावश्यक है। अनुप्रेक्षा जो होती है वह उपयोगपूर्वक ही हती है इसलिये उसमें वर्तमान साधु द्रव्यावश्यक नहीं है वह तो भावावश्यक हैं।शंका-जब आप आगम को आश्रित करके द्रव्यावश्यक की प्ररूपणा करते हो तो वह द्रव्यावश्यक आगमरुप वहा गरा है मान्ने में आता है। परन्तु यह बात युक्त प्रतीत नहीं होती है क्योंकि आगम जो होता है वह तो ज्ञानरूप होता है। और ज्ञान भावरूप होता है । अतः आगम में द्रव्यता कैसे बन सकती है ? उत्तर-आगम के कारण आत्मा, आत्माधिष्ठित देह, और उपयोगशून्य सूत्र का उच्चारणरूप शब्द ये तीन माने गये हैं। साक्षात आगम नहीं। ये तीन आगम के कारण होने से कारण में आगमम्प कार्य का उपचार किया गया है। इसलिये इन्हें आगमरूप से वहा है। विवक्षित भाव का जो कारण ગૃહીત કરવામાં આવેલ છે. ભાવશૂન્યતાનું નામ અનુપગ છે દ્રવ્ય જ ઉપગથી રહિત હોય છે. તેથી તે આવશ્યક શાસ્ત્રને જ્ઞાતા સાધુ તેમાં વાંચના આદિરૂપે વર્તમાન હોવા છતાં પણ ઉપયોગથી રહિત હોવાને કારણે દ્રવ્યાવશ્યક જ કહેવાય છે. અનુપ્રેક્ષા તે ઉપગપૂર્વક જ થાય છે. તેથી તેમાં (અનુપ્રેક્ષામાં) વર્તમાન સાધુ દ્રવ્યાવશ્યક નથી, પણ ભાવાવશ્યક છે. - શંકા–જ્યારે આપ આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણ કરે છે. ત્યારે એવું લાગે છે કે દ્રવ્યાવશ્યકને આગમરૂપ કહેવાથાં આવ્યું છે, એવું આપ પ્રતિપાદન કરી રહ્યા છે, પરંતુ એ વાત યુકત લાગતી નથી કારણ કે આગમ For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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