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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - ૨૨ अनुयोगद्वारसत्र येव' इत्यादिना । तयैव = स्कन्धग्यैव यो देश : = नखदन्तकेशादिलक्षणो भागः अपचितः = जीवप्रदेशे र्विरहितो भवति तथा तस्यैवरकन्धस्यैव यो देश := पृष्ठोदरकरचरणादिलक्षणो भाग उपचितः = जीवा दशैव्यप्तो भवति, सोऽनेकद्रव्यस्वन्धी बोध्यः । अयं भावः तयोर्यथोक्त देशयो विशि टैंकर रिणामपरिण तयो य देहाख्यः समुदायः सोऽनेकद्रव्य स्कन्धः, सचेतनाचेतनानेकद्रव्यात्मकत्वादिति । अयमनेक द्रव्यस्कन्धः सामर्थ्यात्तुरगादिस्कन्ध एव प्रतीयते । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ननु तर्हि कृत्स्नस्त्रन्धादस्य को विशेषः ? इति चे दुच्यते - कृत्स्नसकन्धस्तु शब्दार्थ - ( से किं तं अगद दियख धे) हे मदत ! अनेक द्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है । ( अणे गदवियखंधे) उत्तर - अनेक द्रव्य कंध को स्वरूप जैसा है - वैसा - हम कहते हैं ( तस्स चैत्र देसे अवचिए तरस चेव देसे उवचिए) स्कंध का जो नख केश दन्त, आदिरूप भाग है, वह अपनित - जी प्रदेशों से रहित - होता है, तथा उसी स्कंध का जो पृष्ठ, उदर, कर, चरण आदिरूप भाग है, वह उपचित-जी प्रदेशों से व्याप्त रहता है ( से तं अणेगदवियखधे) वह अनेक द्रव्य कंध है । इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों भागों का कि जो एक विशिष्ट आकार में परिणत रहते हैं. देहरूप समुदाय अनेक द्रव्यस्क है । क्योंकि यह समुदाय सचेतन और अचेतनरूप अनेक द्रव्यात्मक है | यह अनेक द्रव्यद्रस्कध सामर्थ्य से तुरगादिकध - हयादिस्कंध ही प्रतीत होता है। शंका- जब यह अनेक द्रव्यस्कंध हयादिकधरूप प्रतीत होता है तो शब्दार्थ (से किं तं अणेगद वियख दे ?) शिष्य गुउने सेवा प्रश्न रे છે કે હે ગુરૂ મહારાજ! અનેક દ્રવ્યન્કન્ધનું સ્વરૂપ કેવું છે? उत्तर---(अोगदवियख घे) अनंत द्रव्यस्न्धतु स्व३ मा प्रा ह्युं छे(ate चेव देसे अवचिए तस्स चेव देसे उवचिए) अन्धो ? नम, श, हांत આદિરૂપ ભાગ હાય છે તે અપચિત-જીવપ્રદેશેામાંથી રહિત-હાય છે, તથા એજ સ્કન્ધના જે પૃષ્ઠ, ઉદર, હાથ, પગ આદિરૂપ ભાગા છે તેએ ઉપચિત-જીવ પ્રદેશેાથી व्यास-रडे छे. (से तं अगदवियख धे) मा अारनु मनेय द्रव्यसन्धेनु' स्व३५ છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે તે બન્ને ભાગા (અપચિત અને ઉપચિત ભાગે) કે જે એક વિશિષ્ટ આકારે પરિણત થઇને તેમના જે દેહુંરૂપ સમુદાય બને છે તેને અનેકદ્રવ્યસ્કન્ધ કહેવામાં આવે છે કારણ કે તે સમુદાય સંચેતનરૂપ અને અચેતન રૂપ અનેક દ્રવ્યાત્મક હાય છે. આ અનેક દ્રશ્યસ્કન્ધ તુરગાદિકધ (અશ્વાદિસ્ક ધ) સમાન જ લાગે છે. For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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