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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरद्वारनिरूपणम् चागमाविरोधेन भावनीयम् । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु नास्त्यन्तरम्, लोकस्य पतिपदेशे सर्वदा तस्य सद्भावादिति । तथा-नैगमव्यवहारसम्मतानामवक्तव्यकद्रयाणामपि अन्तरविषये पृच्छा-प्रश्नोऽनानुपूर्वीवद् बोध्यः। उत्तरस्तु-एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येने समयमन्तरम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरमिति । अयं भावः-द्विसमयस्थितिकं किंचिदवक्तव्यकद्रव्य परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा ततः पुनर्बिसमयस्थितिकत्वमेव यदा लभते तदा आवे इस प्रकार लगा लेना चाहिये । नानाद्रव्यों की अपेक्षा करके जो अन्तर नहीं कहा गया है उसका कारण यह है कि लोक के प्रति प्रदेश में सर्वदा उसका सद्भाव रहा करता है । (णेगमववहाराणं अवत्त. स्वगदव्याणं पुच्छा) नैगमव्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्यों के अन्तर के विषय में प्रश्न-अनानुपूर्वीद्रव्य की तरह ही जानना चाहिये। ___ उत्तर-उसका इस प्रकार से हैं-(एगं दव्वं पडुच्च) एक अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा करके (जहण्णणं) जघन्य से अन्तर (एगं समय) एक समय का है और (उकोसेणं) उत्कृष्ट से अन्तर (असंखेज्ज कालं) असंख्यात काल का है। तथा (णाणादव्वाइं पडुच्च णस्थि अंतरं) नाना द्रव्यों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि दो समय की स्थितिघाला कोई अवक्तव्यक द्रव्य परिणामान्तर से परिનમાં કોઈ વિશેષ સંભવે નહીં અનેક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અંતરવિરહકાળ- અભાવ કહેવાનું કારણ એ છે કે લેકના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં તેને સદા સદૂભાવ જ રહ્યા કરે છે. प्रश्र-(णेगमववहाराणं अवत्तवगदव्वाणं पुच्छा) नामव्यवहा२ नयस मत અવક્તવ્યક દ્રવ્યોના અંતરના વિષયમાં પણ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના જે જ પ્રશ્ન સમજ. उत्तर-(एगं दर्व पडुच्च) मे गवतव्य द्र०यनी अपेक्षा पियार ४२वामा माव, त (जहण्णेणं एगं समयं) धन्यनी अपेक्षाये मे समय, मन (उकोसेणं असंखेज्जं कालं) 6ष्टनी अपेक्षा असण्यात नुमत२ હોય છે. એટલે કે ઓછામાં ઓછા એક સમયને અને વધારેમાં વધારે असभ्यात मनी पि२९ डाय छे. (णाणादवाइं पडुच्च णस्थि अंतरं) વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે વિરહકાળ રૂપ અંતર અભાવ હોય છે. હવે આ કથનને ભાવાર્થ બતાવવામાં આવે છે, ધારો કે એ સમયની સ્થિતિવાળું કઈ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પિતાના પરિણામને ત્યાગ કરીને કે For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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