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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १७ ज्ञायक शरीरद्रव्यावर कनिरूपणम् १२१ - यथा का दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भ आसीत्, अयं घृतकुम्भ आसीत् । तदेतत् ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकम् ॥ सू० १७ ॥ टीका- शिष्यः पृच्छति -- 'से किं तं' इत्यादि । हे भदन्त ! अथ कि तत् ज्ञायक शरीरद्रव्यावश्यकम् ? उत्तरमाह - ' जाणयसरीरदव्वावस्सयं' इत्यादि । ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकं वर्ण्यते इत्यर्थः । आवश्यकेति पदार्थाधिकारज्ञायक स्रआवश्यके तिपदस्य आवश्यक पदवाच्यस्य आगमस्य यः अर्थाधिकारः = अर्थ एव अर्थाधि, कारः तस्य ज्ञायकः=ज्ञाता, तस्य आवश्यक मूत्रार्थं ज्ञातवतः साध्वादे येत् शरीरम् | क्षयोपशम के अनुसार (आवरसएत्तिपर्य) आवश्यक सूत्र वा विशेषरूप से (आध(वि) गुरु से ज्ञान प्राप्त किया था ( पष्णवियं) सामान्यरूप से उसे शिष्यों को समझाया था । (परूवियं) सूत्रार्थ वनपूर्वक फिर उसे शिष्यजनों को . 'पढाया था ( दंसिय) प्रतिलेखनादि क्रियारूप मे उसे स्वयं ने अपनी आत्मा में उतारा था । और बाद में इसी रूप में दूसरों को दिखला था - अर्थात् प्रतिलेखनादि क्रिया के प्रदर्शन से यह प्रकट किया था कि दोनों समय समस्त भेंड पकरणों की प्रतिलेखना करनी आवश्यक हैं। अंगुल मात्र वस्त्र खण्ड मी विना प्रतिलेखना के नहीं रहना चाहिये । ( निदं सियं) आवश्यकशास्त्र के ग्रहण करने में जो शिष्यजन अक्षम थे उनके लिये इसने करुणावश होकर बार २ आवश्यत्र शास्त्रग्रहण करवाया था । ( उवदं सियं) सर्वनय और युक्तियों द्वारा शिष्यजनों के हृदयस्थान में इसे बिना किसी संदेह के इसने जमाया - था अतः वह शरीरज्ञायक शरीरद्रव्यावश्यक हैं । For Private and Personal Use Only आवश्यक सूत्र विशेष३ये ( आघत्रियं) गुरु पासे अध्ययन यु भ्यु" तु. (ष्णरिथं) सामान्यइये तेषु शिष्याने ते सगल सूत्रार्थना प्रथन पूर्व तेथे इरीथी शिष्याने तेनुं अध्ययन पुराव्य तु (दंसियं) પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયારૂપે તેમણે પાતે પેાતાના આત્મામાં ઉતાર્યું હતુ, અને ત્યાર બાદ એજ રૂપે શિષ્યેને ખતાવ્યુ હતું, એટલે કે પ્રતિલેખના આદિ ક્રિયાના પ્રદનથી એ પ્રકટ કર્યું હતુ કે બન્ને સમય સમસ્ત પાત્ર વજ્રાદિ ઉપકરણાની પ્રતિલેખના કરવી આવશ્યક છે. વસ્ત્રના એક ઈંચ જૈટલે! ભાગ પણ પ્રતિલેખના विनानो रहे वो हमे नहीं (निदंसियं) भावश्याशांस्त्रने हुए खाने में शिष्यो અક્ષમ હતા, તેમના પ્રત્યે કરુણાભાવ રાખીને તેણે તેમને વારવાર આવશ્યક સૂત્ર ग्रह उशववानो प्रयत्न ये हतो. ( उवदंसियं) गधा नय भने युक्तियो द्वारा તેણે શિષ્યજાના હૃદયસ્થાનમાં ન્ડિન્શરૂપે તેને અધાણ કરાવ્યુ હતુ તેથી તેનું આ શરીર નાયક શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે. तु-ज्ञान प्राप्त हेतु (परू विघं ) }
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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