SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १४० अनुयोगद्वारसूत्रे नास्ति द्रव्यावः। यकत्वमिति चेदुच्यते-'भूतस्य भाविन का' इत्याद्येव द्रव्यलक्षणं नास्ति, किन्तु-'अप्पाहण्णे वि दव्वसद्दोस्थि' अप्राधान्ये पि द्रव्यशब्दोऽस्ति-इति वचनात् अप्रधानरूपेऽर्थेऽपि द्र० शब्दो वर्तते । मुखबावनादौ मोक्षप्राप्तेरप्राधान्यं च मोक्षकारणभूतभावावश्यकापेक्षया बोध्यम् । यतो मोक्षस्य कारणं तु भावा वश्यकमेव नतु द्रव्यावश्यकम् अतोऽत्र मुखधावनादेरप्राधान्यमिति । ततश्च-द्रव्यभूतानि प्रधानभूतानि-आवश्यकानि द्रव्यावश्यकानीत्यर्थः, एवं च संसारकारणानां राजेश्वरादि मुखधारनादीनामस्त्येव द्रव्यावश्यकत्वम्, इति नास्ति दोषावसरः। मुखकार्यों में नहीं. आसकने से उनमें आवश्यक पर्याय के प्रति कारणता नहीं बन सकती है । इस कारणता के अभाव में उनमें द्रव्यावश्या ता नहीं आसकती है ? उत्तर-शंकाकार को जो इस प्रकार की शंका उत्पन्न हुई है। उसका कारण "भूतस्य भाविनो बा" इत्यादि पद्योक्त द्रव्य का लक्षण है कि इसपर यह कहना है कि द्रव्य का लक्षण इतना ही नहीं है किन्तु "अप्पहाणे वि दव्वसदोत्थि" अप्राधान्य अर्थ में भी द्रव्य शब्द है "इसकथन के अनुसार अप्रधान अर्थ में भी द्रव्य शब्द का प्रयोग हुआ है। इन मुखधानादि लौकिक कृत्यों में मोक्षप्राप्ति की अप्रधानता मोक्ष के कारण भूत भावावश्पक की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि मोक्ष का कारण तो भावाश्यकही होता है, नहि कि द्रव्यावश्क इसलिए यहाँ मुखशवनादि की अप्रधानता है । इसारण द्रव्यभूत-अप्रघानभूत जो आवश्यक हैं वे द्रव्यावश्यक हैं ऐसा अर्थ द्रव्यावश्यक वा लम्य हो जाता है। इस तरह राजेश्वर आदि के संसारवारणभूत मुखधावनादि कार्यों में द्रव्यावश्यकता घटित हो जाती हैं। इन मुखधावनादि कृत्यों में लोकप्रसिद्धिं से भी आगमरूपता नहीं हैं-अतः उनमें आर.म का अभाव होने से नो હોવાથી તે ક્રિયાઓ આવશ્યક પર્યાયના કારણરૂપ બની શકતી નથી. આ કારણુતાના અભાવને લીધે તે ક્રિયાઓમાં દ્રવ્યાવશ્યકતાને સદૂભાવ સંભવી શકતું નથી, उत्तर-21 ४२नारे मा २नी रे शारी छ तेतु ४।२९ “भूतस्य भाविनो वा" त्याहि सुत्रपा द्वारा द्रव्य तक्षय ४८ ४२वामा साव्यु छ, તે લક્ષણવાળા પદાર્થને જ દ્રવ્ય માનવું જોઈએ, એવી જ તેની માન્યતા છે. આ પ્રકારની માન્યતાને કા૨ણે જ આ શંકા ઉદ્ભવી છે. તે તેની શંકાના જવાબરૂપે भारे मेटयु ४९वानु द्र०यनुरक्षा मेटयु नथी, परन्तु "अप्पहाणे वि दासदोरिय" "मप्रधान्यमा १] द्र०य थ६ छ,” २५0 ४थन अनुसार प्रधान અર્થમાં પણ દ્રવ્ય શબ્દનો પ્રયોગ થયો છે. તે મુખધાવન આદિ લૌકિક કૃત્યોમાં જે અપ્રધાનતા (પ્રધાનતાથી રહિતપણું) કહી છે તે મેક્ષના કારણભૂત ભાવાવશ્યકની પેલાએ કહેવામાં આવી છે, તેથી દ્રવ્યભુત-અપ્રધાનરૂપ જે આવશ્યક છે તેમને For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy