Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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- अनुयोगद्वारस तत्र-आगमतो द्रव्यानुपूर्वी यस्य साधोः खलु आनुपूर्वीति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं यावत्-इह यावच्छन्दात्-नामसमं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अत्यक्षरम् अव्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् अमिलितम् अव्यत्यानेडितं प्रतिपूर्ण पति
और दूसरी नोआगम से । आगम को आश्रित करके जो द्रव्य आनुपूर्वी होती है वह आगम द्रव्यानुपूर्वी है। (से किं तं आगमओ व्वाणुपुठधी) हे भदन्त । आगम को आश्रित करके जो द्रव्यानुपूर्वी होती है ? उसका क्या स्वरूप है ? (आगमओ दवाणुपूव्वी) आगम को आश्रित करके जो द्रव्यानुपूर्वी होती है उसका स्वरूप इस प्रकार से है-(जस्स णं आणुपुग्वित्ति पय सिक्खिय) जिस साधु आदिने आनुपूर्वी इस पद वाच्य अर्थ को विनयपूर्वक गुरुमुख से सीख लिया है (ठिय) उसे अच्छी तरह से अपने स्मृति पथ में उतार लिया है (जिय) शन्द और अर्थ की अपेक्षा से जिसने उसे भलि भांति जान लिया है (मिय) उसके पदादिकों की संख्या का परिमाण जिसने भली प्रकार से अभ्यास कर लिया है। (परिजियं) जिसने उसे सब तरफ से और सब प्रकार से परावर्तित करलिया है। वह आगम को आश्रित करके द्रव्यानुपूर्वी है। यहां यावत् शब्द से " नामसम, घोषसम अहीनाक्षर अत्यक्षर अव्या. विद्धाक्षर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्यानेडित, प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोष થાય છે તેનું નામ આગમદ્રવ્યાનુપૂર્વી છે અને તે આગમને આશ્રિત કરીને २ भानुपूवी थाय छ तेनु नाम नामागभद्रव्यानुपूवी छ. (से कि त आगमओ दव्वाणुपुव्वी) १ ३ मावन् ! आमने। माश्रित प्रशन अनुपूी छे તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
(आगमओ व्वाणुपुत्वो) सामने आश्रित शन २ द्रव्यानुपूवी थाय છે તેનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે
(जस्स णं आणुपुल्वीति पय सिक्खियं) ने साधु माहिये “ भानुभूती" . આ પદના વાચ્યાર્થને વિનયપૂર્વક ગુરૂને મુખેથી સારી રીતે શીખી લીધું છે, (ठिय) तर सारी शत पाताना स्मृति५८ ५२ SIN सीधे। छ, (जिय) AM भने अनी अपेक्षा न त सारी शत angleी छ, (मिय) તેના પદાદિકની સંખ્યાનું પરિણામ જેણે સારી રીતે સમજી લીધું છે, (परिजिय) २0 ते मधी तरथी भने सपा सरे पतित ४॥ बाधु છે, તે આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાનુપૂર્વી છે. અહીં યાવત' પદથી " नामसभ, घोषसम, मीनाक्षर, सत्यक्ष२, अन्याविदाक्षर, अमलित,
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