Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भनुयोगचन्द्रिकाटीका सूत्र ९६ मनुगमस्वरूपनिरूपणम् कालः अन्तर मागो भावश्चेति । अल्पबहुत्वरूपोऽनुगमस्तु संग्रहनयमते नास्ति, अस्य नयस्य सामान्यवादित्वात् । सम्पति सत्पदप्ररूपणतां प्ररूपयति-'संगहस्स आणुपुब्धी दवाई कि अस्थि नत्थि' इत्यादि । संग्रहसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि
उत्तर- (अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते) अनुगम आठ प्रकार का कहा गया है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं- (संतपयपरूवणया दव्यमाणंच खितं फुसणा य, कालोय अंतरं भाग भावे अप्पाबहु नस्थि ) सत्पदप्ररूपणता १, द्रव्यप्रमाण २, क्षेत्र ३, स्पर्शना ४, काल ५, अन्तर १, माग और भाव८ अल्पबहुत्व अनुगम का प्रकार यहां नहीं है क्योकि संग्रहनय सामान्यवादी है। “सगहस्सआणुपुब्धी दवाइं कि अस्थि णस्थि णियमा अस्थि एवं दोन्नि वि" सत्पदप्ररूपणता के निमित्त सूत्रकार कहते हैं कि इस सत्पद प्ररूपणा में यह प्ररूपित किया जाता है कि जिस प्रकार से शशशृंग आदिपद असदर्थ को विषय करने वाले होते हैं उस प्रकार से ये आनुपूर्वी आदि पद असदर्थ विषयक नहीं है, किन्तु जैसे स्तंभादि पद स्तंभ रूप अपने वास्तविक अर्थ को विषय करते हैं उसी प्रकार से ये आनुपूर्वी आदिपद भी वास्तविक आनुपूर्वी आदि को विषयक करते हैं, इसलिये (संगहस्स आणुपुत्वीदवाइं किं अस्थि ण.
उत्तर-(अणुगमे अदुविहे पण्णत्ते) अनुगम मा ५२ने यो छे. (तंजहा) ते प्रा। नीये प्रमाण है(संतपयपरूवणया, वप्पमाणं च खित्तं फुसणा य, कालो य अंतर भाग भावे अप्पाबहु नत्थि) (१) सत्५४५३५४ता, (२) द्रव्यप्रमा, (3) क्षेत्र, (४) २५शा , (५) , (९) मन्त२, (७) मा भने (८) साप. समत्व રૂપ અનુગામને પ્રકાર અહી નથી, કારણ કે સંગ્રહનય સામાન્યવાદી છે. ( संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाई किं अत्थि णस्थि ? णियमा अस्थि एवं दोन्नि वि) હવે સૂત્રકાર સત્ય પ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપ સમજાવે છે- સત્પદપ્રરૂપણુતામાં એ વાતની પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે કે જે પ્રકારે શશશંગ (સસલાના શિંગડ) આદિ પદ અસદર્થ (અવિદ્યમાન પદાર્થ)નું પ્રતિપાદન કરનારા હોય છે, એ પ્રકારે આ આનુપૂર્વી આદિ પદે અસદર્થનું પ્રતિપાદન કરનારા નથી પરંતુ જેમ સ્તભ આદિ પદે સ્તંભરૂપ પિતાના વાસ્તવિક અને પ્રતિપાદિત કરે છે, એજ પ્રમાણે આનુપૂર્વ આદિ પદ પણ વાસ્તવિક આનુપૂર્વી આદિ सायन विद्यमान पहा नु) प्रतिपान रे . तया (संगहस्स आणुपुथ्वी दवाई कि अस्थि पत्थि ? ) " स य मत मानुषी द्र०य छे नही"
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