Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६६ स्वरोत्पत्तिनिरूपणम्
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काराः || २ || आदिमृदुम् आरभमाणाः समुद्वहन्तश्च मध्यकारे | अवसाने क्षपयन्तः,
जयोऽपि गीतस्य आकाराः || ३| सू१६६ ॥ टीका 'सत्त सरा' इत्यादिएते षड्जादिसप्तस्वराः कुतः संभवन्ति = उत्पद्यन्ते ? तथा गीतस्य का योनयो=जातयो भवन्ति ? तथा गीतस्य कति समयाः कियत्कालप्रमाणा उच्छ्वासा भवन्ति ? तथा - गीतस्य कति वाकियन्तो वा आकाराः= आकृतयः - स्वरूपाणि भवन्ति ? इति चत्वारः प्रश्नाः । उत्तरयति - षड्जादयः सप्त स्वरा नामितो भवन्ति जायन्ते । गीतं च रुदितयोनिकम् - रुदितं योनिः समानरूपतया जाति र्यस्य तत्तथाविधं भवति, गीतं रोदनसमानं भवती स्यर्थः । उच्छ्वासाथ पदसमा भवन्ति । यावता समयेन वृत्तस्य पादः समाप्यते आकार होते हैं। (आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मज्झगारंमि, अवसाणे तज्जर्वितो तिन्निय गीयम्स आगारा) सर्व प्रथम गीत मृदुध्वनिवाला होता है । मध्यभाग में वह तेजध्वनिवाला और अन्त में मन्द्रध्वनिवाला होता हैं ।
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भावार्थ सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा " षड्ज आदि सात स्वर कहां से उत्पन्न होते हैं ? गीत की जातियां क्या है ? गीत के उच्छ्वासों के समय का प्रमाण कितने हैं, और गीत किस आकार का होता है ?-" इन चार प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। इसमें उन्हों ने यह प्रकट किया है कि- ये पूर्वोक्त षड्ज आदि सात स्वर नाभिस्थान से उत्पन्न होते हैं । गीत रोने की जाति के जैसा होता है। यहां योनि शब्द का अर्थ जाति
। छन्द का पाद जितने समय में समाप्त होता है उतना ही समय गीत के ग्राहंसभ उच्छ्वास होय छे. ( गीयरस तिणि आगारा) गीतना शुभांर होय छे. (आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मझगारंमि अवस्राणे तज्जविंतो तिन्निय गीयरस आगारा) सर्व प्रथम गीत भृहुध्वनि युक्त होय छे. मध्यભાગમાં તે તીવ્રધ્વનિ યુક્ત હાય છે અને છેવટે મન્દ્રધ્વનિ યુક્ત હોય છે.
भावार्थ-सूत्रअरे या सूत्र वडे " षड्ज " वगेरे सांत स्त्ररे। ज्यांथी ઉત્પન્ન થયા છે ? ગીતના ઉત્પત્તિ સ્થાનેા કયા છે ? ગીતના ઉચ્છ્વાસાનુ’ પ્રમાણુ उटलु છે ? અને ગીતના આકાર કંઈ જાતના છે? એ પ્રશ્નોના જવામા આપવામાં આવ્યા છે આમાં
ચાર
તેમણે
૫૪
સાત રા
કર્યુ છે કે પૂર્વોક્ત ષડ્રેજ વગેરે નાભિસ્થાનમાંથી ઉત્પન્ન થયા છે ગીતની જ્ઞાતિ રુદન જેવી હાય છે, અહી ચેાનિ શબ્દને
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