Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 848
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७० सलक्षणवीररसनिरूपणम् रौत्यनेनेति करुणास्पदत्वाद् वा करुणः, इत्युभयविधाऽपि करुणशब्दव्युत्पत्तिबोध्या ॥८॥ प्रशान्तःपरमगुरुवचाश्रवणादि हेतुसमुद्भव उपशमप्रकर्षात्मको रसः प्रशान्त रसः। प्रशाम्यति-क्रोधादिजनितचित्तविक्षेपादिरहितो भवत्यनेनेति प्रशान्तशब्दव्युत्पत्तिर्बोध्या ॥९॥ मू० १६९ ॥ ___ एतानेव रसान् लक्षणादि द्वारेण विवक्षुः प्रथमं तावद् वीररसं लक्षणनिर्देशपुरस्सरं निरूपयति मूलम्-तत्थ परिच्चायमि य, तवचरणसत्तुजणविणासे य। अणणुसंयधिइपरकम-लिंगो वीरो रसो होइ ॥१॥ वीरोरसो जहा-सो नाम महावीरो, जो रजं पयहिऊणपव्वइओ। कामकोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ॥२॥सू०१७०॥ ___ छाया-तत्र-परित्यागे च तपश्चरणे शत्रुजनविनाशेच। अननुशयधृतिपराक्रमकारण प्राणी करुणा का आस्पद (स्थान) बनता है, वह रस 'करुणरस' है। करुणशब्द की दोनों प्रकार की यह व्युत्पत्ति संगत जाननी चाहिये। परमगुरूओं के वचन श्रवणादिरूप हेतु से उद्भूत जो उपशम की प्रक तारूपरस है, वह 'प्रशान्तरस है । जिसके द्वारा प्राणी क्रोध आदिसे जनित-चित्त विक्षेप आदि से विहीन बन जाता है ऐसी यह प्रशान्त शब्द की व्युत्पत्ति है । ॥ सू० १६९ ॥ ____ अब सूत्रकार इन्हीं रसों को लक्षणोदि द्वारा कहने की इच्छा से सर्व प्रथम लक्षण निर्देश पुरस्सर वीररस का कथन करते हैं। "तत्थ परिच्चायमि" इत्यादि। शब्दार्थ-(तत्थ) इन नवरसों के बीच में (परिच्चायमि य तव चरणજેનાથી પ્રાણી કરૂણા પૂર્ણ થઈ જાય છે તે રસ કરુણ રસ છે. કરૂણ શબ્દની આ બન્ને પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ યોગ્ય જ કહેવાય પરમગુરૂજાના વચન શ્રવણ વગેરે રૂપ હેતુથી ઉદ્ભૂત જે ઉપશમની પ્રકર્ષતા રૂપ રસ છે તે પ્રશાન્ત રસ છે. જેના વડે પ્રાણુ ક્રોધ વગેરેથી ઉદ્ભવેલ ચિત્તવિક્ષેપાદિથી વિહીન થઈ જાય છે પ્રશાન્ત શબ્દની આ વ્યક્તિ છે. સૂ૦૧૬ - હવે સૂત્રકાર એજ રસને લક્ષણે વગેરે દ્વારા સ્પષ્ટ કરવાની અપેક્ષાથી અહીં સર્વ પ્રથમ વીર રસનું કથન લક્ષણ નિર્દેશ પુરસ્સર કરે છે– " तत्थ परिच्चायमि" त्याह. शाथ-(तत्थ) मा नप सोमा (परिचायमि य तवचरणमत्तुजण अ० १०५ For Private and Personal Use Only

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