Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भुवोगन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् ___ अथ दर्शनावरणीयक्षयापेक्षाणि नामान्याह- केवलदर्शी-केवलेन क्षीणावरणेन दर्शनेन पश्यतीतिकेवलदर्शी-सर्व पश्यतीति सर्वदर्शी-क्षीणदर्शनावरणत्वात् सकलपदार्थदर्शी । एवं क्षीणनिद्रादीनि पश्चनामानि तथा दर्शनावरणचतुष्कक्षयसम्भवीन्यपराण्यपि क्षीणचक्षुर्दर्शनावरणादीनि नामानि बोध्यानि । तत्र निद्रापञ्चक लक्षणमेवमवगन्तव्यम्ये पर्यायवाची शब्द हैं। फिर भी समभिरूढनय की अपेक्षा से इनके पाच्यार्थ में भिन्नता होने से इनमें भेद है, ऐसा जानना चाहिये। ___अब सूत्रकार दर्शनावरणीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से जायमान मामों को कहते हैं-(केवलदंसी) आत्मा से जब दर्शनावरणीय कर्म सर्वथा निर्मूल हो जाता है, तब वह आस्मा, क्षीणावरणवाले दर्शन से, सामान्यरूप में समस्त ज्ञेयों को देखता है, इसलिये केवलदर्शी पह कहलाने लगता है। (सव्वदंसी) क्षीण दर्शनावरणवाला होने से समस्त पदार्थों का वह दृष्टा बन जाता है। इसलिये वह सर्वदर्शी कहलाता है।
खीणनिहे, खीणनिहानिदे, वीणपयले, खीणपयलापयले, खीणवीणगिद्धी, खीणचक्खुदंसणावरणे, खीण अचखुदंसावरणे, खीण ओहि. दंसणावरणे खीण केवलदसणवरणे अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे) निद्रादर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से वह क्षीण निद्र हो जाता है; निद्रानिठा दर्शनावरणीयकर्म निर्मूल होने से क्षीणनिद्रानिद्र, प्रचला दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से क्षीण प्रचल, સમમિઢ નયની અપેક્ષાએ તેમના વાર્થમાં ભિન્નતા હોવાના કારણે तभनी १२ये लेह (मत२-तशत) छे, मेम समन . .. . - હવે સૂત્રકાર દર્શનાવરણીય કર્મના ક્ષયની અપેક્ષાએ જે નામો નિષ્પન્ન याय छे तभनु जयन ४२ है-(केवलदंसी) मात्मा ५२थी न्यारे ४श ना१२० ક સર્વથા નિર્મૂળ થઈ જાય છે ત્યારે તે આત્મા, ક્ષીણાવરણવાળા દર્શન વડે સામાન્ય રૂપે સમસ્ત ય પદાર્થોને દેખી શકે છે, તેથી તેને “કેવલદર્શી
वामा म छे. (सव्वदंसी) क्षीशनावराणे २४ पान १२ ते આત્મા સમસ્ત પદાર્થોને દ્રષ્ટા બની જાય છે, તેથી તેને “સર્વદશી" કહે. पाभां आवे छे. (खीणनिदे, खीणनिदा निद्दे, खोणपयले, खीणपयलापयले, खीण वीणगिद्धी, खीण चक्खुदसणावरणे, खीण अचक्खुदसणावरणे, खीण ओहिंदणावरणे, खीण केवलदसणावरणे, अणावरणे निरावरणे, खीणावरणे) ते सामान निद्रा વરણીય કર્મનો નાશ થઈ જવાને લીધે તે “ક્ષીણનિદ્ર' કહેવાય છે, તેના નિદ્રાનિદ્રા દર્શનાવરણીય કર્મ નિર્મૂળ થઈ જવાથી તે “ક્ષીણનિદ્રાનિદ્ર કહેવાય છે. તેના પ્રચલા દર્શનાવરણીય કર્મ નષ્ટ થઈ જવાથી તેને “ક્ષણ
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