Book Title: Adhyatma Darshan
Author(s): Anandghan, Nemichandmuni
Publisher: Vishva Vatsalya Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन [आनन्दधन चौबीसी पर पदमानभाष्य] स्तुतिकार योगीश्वर सत श्री आनन्दघनजी भाष्य-निर्देशक श्रमरणसघीय महामहिम राष्ट्रसत आचार्यप्रवर श्रीआनन्दऋषिजी महाराज भाष्यकार विद्वद्रत्न पं० मुनिश्री नेमिचन्द्रजी म० भाष्यप्रेरक तपस्वीरत्न श्री मगनमुनिजी म० सयोजक प्रवचनप्रभाकर श्रीसुमेरमुनिजी म०, एवं सेवानिष्ठ श्रीविनोदमुनिजी प्रकाशक विश्ववात्सल्य प्रकाशन समिति लोहामण्डी, आगरा - २ ( उ० प्र०) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रन्थराज: अध्यात्मदर्शन - - * विषय . चौवीस सोर्थडरो की स्तुति के माध्यम से अध्यात्म-ज्ञान * स्तुतिकार योगीश्वर सत श्रीआनन्दघनजी * भाप्यकार: ___पं० मुनिश्री नेमिचन्द्रजी * भाष्य-निर्देशक : श्रमसंघीय आचार्यप्रवर श्री आनन्वपिजी महाराज * भाष्यप्रेरक : * प्रकाशक : तपस्वीरत्न श्रीमगनमुनिजी म० विश्ववात्सल्य प्रकाशन समिति * भाष्य-उपप्रेरक : लोहामडी, आगरा-२ (उ०प्र०) सेवानिष्ठ श्रीकुन्दनऋपिजी म० * संयोजक ★ मुद्रक : प्रवचन-प्रभाकर प० सुमेर कल्याण प्रिटिंग प्रेस मुनिजी म०, कर्मठ सेवानिष्ठ राजामण्डी, यागरा-२ श्रीविनोदमुनिजी * मूल्य: * प्रस्तावना-लेखक तेरह रुपये विद्वर्य श्री चन्दनमुनिजी म० * आशीर्वचन : प्राप्ति-स्थान राष्ट्रसत उपाध्याय कविरत | १. विश्ववात्सल्य प्रकाशन समिति श्री अमरमुनिजी म० लोहामंडी, आगरा-२ (उ.प्र.) 1 २ मगल किरण स्टोर्स . * सस्करण : गुजरगल्ली,अ नगर (महाराष्ट्र) प्रथम, सितम्बर १६७६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LALnla तपस्वी श्रीमनम्ननिजी एक परिचय -मुनि हस्तीमल, मेवाडी तपस्वीरत्न मुनि श्रीमगनलालजी महाराज का वीरभूमि राजस्थान के निम्बाहडा के निकट 'राणीखेडा' गाँव मे वि० स० १९६३ फाल्गुन कृष्णा २ गुरुवार को जन्म हुआ। आप ओसवालकुल के अन्तर्गत चौपडागोत्रीय श्रीनथमलजी एव मातुश्री हगामबाई के आत्मज हैं। आपके ज्येष्ठ भ्राता का नाम श्रीरतनलालजी चौपडा है। पिता का लाडला एव माता की आँखो का तारा, जन 2. मन का दुलारा बालक 'मगन' माता की EFITNER . ममतालु गोद मे खेलता-कूदता बढता रहा। दो 12 वर्ष की उम्र मे ही आपके पिताश्री का स्वर्ग१. वास हो गया। दोनो भाईयो के जीवन विकास । . का पूरा दायित्व माता पर आ गया। मां ने साहस के साथ अपने दायित्व को निभाया । दोनो पुत्रो को पढा-लिखा कर योग्य बना दिया और बड होने पर दोनो को व्यवसाय में लगा दिया। समय पर अपने ज्येष्ठ पुत्र रतनलाल की योग्य , कन्या के साथ शादी कर दी। आपको भी विवाह के बन्धन मे आवद्ध करने का प्रयत्न किया, परन्तु आपने विवाह करने से ही स्पष्ट इन्कार कर दिया। माता-पिता के धार्मिक सस्कारो से आपका जीवन सस्कारित था। बचपन जे ही आप मे अद्भुन साहम, निर्भयता, सेवा, कष्टसहिष्णुता और साधु-साध्वियो के प्रति श्रद्धा-भक्ति' थी। साधु-साध्वियों की सेवा मे रहने के कारण मापको शास्त्र-श्रवण, धर्म के स्वरूप तथा जीवन के स्वरूप को समझने का सहज ही अवसर मिल जाता था। आप सन्तो के मुख से वीतरागवाणी मात्र सुन कर . uddindi-AL Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही नही रह गए, उसे जीवन में उतारने का भी प्रयल करते रहे। दमी का परिणाम है, कि आपको मागारिक भागो एव भोगजन्य साधनों में विरक्ति हो गई। आपने अपनी भावना को अपनी ममतानु मा एव ज्येष्ठ भाई तथा परिजनो के मामने रखी। माता एव वटे भाई ने बापमो विभिन्न प्रकार से ममझाया, परिजनों ने भी आपको गृहस्थजीवन में गेफ रखने के लिए मब तरह मे प्रयत्न किए । परन्तु वे मफन नहीं हो सके। जिनके जीवन में मच्चा वैराग्य उद्बुद्ध हो जाता है, आत्मा मे त्याग की ज्योति प्रचलित हो उठती है, उसे कोई भी शक्ति ममार मे रोक कर नहीं रख मफती। सौभाग्य से आपको योग्यतम गुरु मिन गए। स्थानफ्यासी ममाज में आचार्यप्रवर श्रीहुकमीचन्दजी महाराज के पप्ठम पट्टधर युग-पुरुष, युग-द्रप्टा, क्रान्तिकारी विचारक, ज्योतिधर आचार्य श्रीजवाहरलालजी महाराज के सुयोग्य उत्तराधिकारी सरलस्वभावी, पण्डितप्रवर तत्कालीन युवाचार्य गणेशीलालजी महाराज के सानिध्य मे दि० म० १६६६ माघ शुक्मा एकादशी के दिन जावद शहर मे वोराजी की बगीची में मापने भागवती जैनदीक्षा स्वीकार की। दीक्षा के १५ दिन पहले अजमेरनिवासी एका ज्योतिषी ने इस दिन दीक्षा का विघ्नकारक बताया था, परन्तु दीक्षार्थी मगनलालजी ने इसकी परवाह न करके उसी दिन दीक्षा ग्रहण की। चबूतरे के फटड़े पर लगी शिनाएं टूट कर गिर पड़ी, किन्तु शासनदेव की कृपा से किमी के जरा भी चोट न आई । यह अद्भुत चमत्कार घा। आपने पूज्य गुरदेव की सेवा में में रह कर आगमो का अध्ययन किया; और यहनिश सन्तो की सेवा-श्रपा मे सलग्न रहे। अस्वस्थ माधु की परिचर्या करने का आपको अच्छा अनुभव है । आपको नाडी का ज्ञान बहुत अच्छा है। इसलिए रोगो का निदान करने और उसके अनुरूप यायुर्वेदिक औषध बताने मे आप बहुत निपुण हैं। भीनासर (बीकानेर) मे जब ज्योतिर्धर आचार्यप्रवर श्रीजवाहरलालजी महाराज अस्वस्थ थे. तव आपने अस्वस्थ-अवस्था से ले कर मन्तिम सास तक बड़ी लगन, श्रद्धा एव भक्ति से सेवा को। उनके अन्तिम समय से कुछ घंटे पहले उनकी वाणी वद हो गई थी, तब आप उन्हे दवा दे कर होश मे लाए। उन्होंने आपके द्वारा प्रेरणा करने पर सयारा ग्रहण किया, जो ५ घटे तक का आया। रुग्ण, ग्लान, वृद्ध एवं बाल साधुओ की सेवा-वयावृत्य करने में आप सिद्धहस्त हैं और सेवा के Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) कार्य मे आपको आनन्द भी आता है। वर्तमान आचार्यप्रवर श्रीआनन्दऋषिजी महाराज की सेवा का भी आपको लाभ मिला है। आप दीर्घ-तपस्वी भी हैं। आपने अब तक ५१ और ४१ दिन के उपवास किए हैं। ३३ और ३१ दिन की तपः-साधना दो बार की है, १५, ११, ६, १०, ६ एक-एक बार और अट्ठाई, सात, छह, पांच, तैले एव बेले तो अनेक बार किए हैं। आप तप साधना मे केवल गर्मी पानी लेते हैं। तप और त्याग से तपा हुआ आपका सयम-निष्ठ जीवन प्रत्येक साधु के लिए प्रेरणादायक है। आपका विहार (पैदल भ्रमण) क्षेत्र मेवाड, मारवाड, बीकानेर, मालवा गुजरात, महाराष्ट्र, बम्बई एव आन्ध्र-प्रदेश रहा है। कई वर्षों से आप आचार्य सम्राट श्रीमानन्द ऋषिजी महाराज की सेवा मे हैं और आचार्यश्री आपकी सेवा से सन्तुष्ट हैं। मैंने यह अनुभव किया है, कि आप सन्तो की धायमाता के समान हैं। ___ आध्यात्मिक साहित्य के प्रति आपको विशेष अभिरुचि है। आपके हृदय मे आनन्दघन चौबीसी पर राष्ट्रभाषा हिन्दी मे विस्तृत एव सुन्दर भाष्य लिखा कर समाज मे आध्यात्मिक विचारो का प्रचार करने की भावना जागृत हुई। आपने अपने गुरुभ्राता सिद्धहस्तलेखक पण्डितप्रवर मुनि श्रीनेमिचन्द्रजी महाराज को इस ग्रन्थ पर भाष्य लिखने का अनुरोध किया, जिसका फल पाठको के समक्ष है। तपस्वीरत्नश्री के ही प्रबल पुरुषार्थ की देन है, कि 'अध्यात्म-दर्शन' के रूप मे यह 'पदमग्न-भाष्य' उपलब्ध हो सका है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशादाय अध्यात्म योगी सत मानन्द घनजी द्वारा रचित नौवीगी (गतु विनिरि) आध्यात्मिक जगत् में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसमे दर्शन, धर्म, पूजा, भति, धर्मक्रिया, वात्मा के मर्वोच्च गुणो मी भाराधना, वात्मिक चोरता, परमात्मका दर्शन, मन आदि की माधना इत्यादि बाध्यात्मिक विषयों पर नौगोम तीर्थकरो की स्तुति के माध्यम से मरस, सरल, भक्तिम प्रधान गय पदो की सरचना है। इस पर अनेक विनारको एव साधको नेल्यं, भावार्य, विवेचन मादि प्रस्तुत किये हैं, फिन्तु विस्तृत ढग से पदो मे गिरिन तात्तयों को विविध पहलुओं से खोल सके. ऐमी व्याख्या में परिपूर्ण भाष्य हिन्दी भाषा में अब तक प्रकाशित नही हुआ था। हमे प्रसन्नता है कि हमारी प्रागन नमिति में हिंदी मापा मे अध्यात्मदर्शन के नाम से पदमग्न-भाध्य प्रमाणित हुआ है। हम भाष्यकार हैं-प्रवुद्ध विचारक विद्वद्वयं प० मुनि श्रोनेमिचन्दजी महाराज। इसके मार्गनिर्देशक तो गप्टसत आचायश्रीआनन्दपिजी म० रहे, किन्तु मर्वाधिक मम्प्रेरक रहे हैं-तपस्वीरल श्रीमगनमुनिजी महागज, जिनगी मतत प्रेरणा व श्रीकुन्दन पिजी म० को सहस्रेरणा और सर्वाधिक महयोग से यह विशालकाय ग्रन्थराज प्रकाशित हो सका है। इमी प्रकार हम राष्टमर उपाध्याय श्रीअमरमुनिजी म के प्रति अत्यन्त पता है, जिन्होंने अपना आशीर्वचन लिख कर हमे उपकृत किया है, साय हो विद्वद्वर्य श्रीचन्दनमुनित्री म (माहित्य निकाय) के भी हम अत्यन्त आभारी है कि उन्होंने इस अन्य राज पर अत्यन्त भाववाही मुन्दर प्रस्तावना लिख कर इसका समुचित मूल्याकन किया है। श्रीसुमेरमुनिजी एव विनोदमुनिजी ने इस भाप्य को याद्योपान्त अनेक बार पटा, और इसमें उचित सुझाव, सशोधन एव रिवद्धन सूचित करने की महती कृपा की है। पण्डितरत्न विजयमुनिजी मास्त्री एव कलमकलाघर मुनि समदर्शीजी का भी इसमे अपूर्व सहयोग मिला है, एतदर्थ हम इनके प्रति भी कृतज्ञ हैं। __अन्त मे, जिन-जिन महानुभावो का प्रत्यक्ष या परोक्षरूप ने इस ग्रन्धराज मे सहयोग मिला है, तथा जिन-जिन महानुभावो ने उदारतापूर्वक इस ग्रन्धराज के प्रकाशन मे अर्थसहयोग दिया है, उन सबके प्रति हम हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। मुज्ञ सुधीजन इसे पढ़ कर आध्यात्मिक लाभ उठाएंगे तो हम अपना प्रयास सार्थक समझेंगे। -मत्री, विश्ववात्सल्य प्रकाशन समिति, मागरा। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन भारत की सन्त-परम्परा मे समय भारत के प्रत्येक प्रान्त मे अध्यात्मवादी, भक्तिवादी, तथा तत्त्ववादी सन्त हुए हैं। उत्तरप्रदेश की सन्तपरम्परा मे सूरदास तथा तुलसीदास का नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है। ये दोनो सन्त चैष्णव-सम्प्रदाय के थे। परन्तु सन्त कवीए किसी भी सम्प्रदाय मे आवद्ध न हो कर उन्मुक्त विचारक कहे जा सकते हैं , महाराष्ट्र मे सन्त रामदास, सन्त सुकाराम तथा एकनाथ आदि जनप्रिय तथा लोक-प्रसिद्ध सन्त हो चुके हैं। राजस्थान मे मीरा, रैदास और दादू राजस्थानी जनता के मन के कण-कण मे रम चुके हैं। मीरा जैसा पद-माधुर्य तथा भावगाम्भीर्य अन्यत्र मिलना बडा ही दुर्लभ है। यही कारण है, कि मीरा के सगीतमय पद काश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक आवाल-गोपाल प्रसिद्ध हैं। अत. मीरा का जीवन तथा उसके भाव-प्रवण पद भारतीय जन-जीवन को सार्वजनिक सम्पत्ति माने जाते हैं। वीर-प्रसूता राजस्थानभूमि में एक अन्य अध्यात्मवादी सन्त हुआ था, जिसका नाम आनन्दघन था। सन्त आनन्दधन का जन्म जैनपरम्परा के शालीन परिवार मे हुआ था। उसके मज्जागत सस्कार भी जैन-सस्कृति के ही रहे। परन्तु सन्त आनन्दघन के पदो को तथा अध्यात्म-प्रधान स्तुतियो को पढ कर यह निर्णय नहीं किया जा सकता, कि वह जैन-परम्परा मे आबद्ध था। सन्त आनन्दघन ने अपने पदो मे अन्धपरम्परा, रूढि और जडता का खुल कर विरोध किया है। परम्पराप्रेमियो ने उसे परम्परा के जाल में जकड़ने का एकाधिक बार प्रयास किया था, पर स्वतन्त्रविचारक तथा युगस्पर्शी चिन्तन के धनी सुधारवादी सन्त आनन्दघन ने परम्पराप्रेमियो की किसी भी पार्त को मानने से स्पष्ट इन्कार कर दिया था। इसी कारण परम्परा-वादियो द्वारा उन्हे कई बार तिरस्कृत भी होना पड़ा, पर उस मस्त योगी को आदरनिरादर को कोई परवाह नही थी। धर्मध्वजी जडवादी लोगो से जीवनभर वे सघर्ष करते रहे, उनके साथ समझौते के समस्त प्रयास असफल रहे। सन्त आनन्दघन जैनपरम्परा के थे, इसमे जरा भी मन्देह नही है । परन्तु उनके . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मिक काव्य मे सूर जैमा गाम्मीयं, तुलगी जंगी व्यापनना, पीरोमी स्पष्टता एव प्रखरता तथा मोरा जमा माधुयं और तुगाराम जैनी मृदना सर्वत्र छलकती दृष्टिगोचर होती है। यद्यपि उनमे बिहारक्षेत्र मुस्यतया राजस्थान और गुजरात रहे, तथापि उनको फीति और प्रमिद्धि भारत के प्रान्त-प्रान्त में परिव्याप्त हो चुकी थी। सन्त मानन्दधन ने जन-परम्परा-प्रसिद्ध समस्त तीर्थ कगे मी मध्यात्मप्रधान स्तुति-सरचना की है। एक-एक तीर्य कर की एका-एक स्तुति में गायक और श्रोता यात्म-विभोर हो उठते हैं। सन्त आनन्दपन कल्पनाप्रधान नहीं, अपितु सहज भाव प्रधान कवि था। उसकी स्तुति और पदी में मयंत्र मान्तरम छलकता रहता है । उनके पदो का स्थायीभाव निवेद है। माथ्य की कसौटी पर कस कर देखा जाए तो माधुर्य तथा प्रमाद गुण प्रतिपद में प्रतिविम्यित दियाई देते हैं। अलकार-योजना भी यय-तत्र उपलब्ध होती है, परन्तु यह गौन है, मुखर नहीं हो पाई । कवि का उधर ध्यान ही नहीं था, उसका मुख्य लक्ष्य था-एक-मात्र शान्त-रस के परिपाक की ओर। शान्तरस के परिपाक मे तथा उसकी अभिव्यक्ति में आनन्दघन को पूर्णत सफलता मिली है। शान्त-रम के विभाव, अनुभाव, स्थायीभाव तथा संचारी-भाव वही सूवी के साथ रस को अभिव्यक्ति कर देते हैं। शान्त-रस वाच्य नही रहा, वह मवंत्र अभिव्यजित हुआ है। यही कारण है, कि आनन्दधन के अध्यात्मप्रधान काथ्य मे सर्वत्र भावो की मधुरिमा, शैली की प्राजलता तथा भाषा की गरिमा अपनी अभिव्यक्ति पाती रही। मेरे प्रेमी मर्वोदयविचारक मुनि श्रीनेमिचन्द्रजी ने सन्त मानन्दपन को चतुर्विंशति-स्तुतियो पर 'अध्यात्म-दर्शन' नाम से एक भाप्य लिखा है, जिसमें एक-एक स्तुति को स्पष्ट करने का सफल प्रयाम किया है। अभी तक आनन्दघन पर इतना विशद, इतना स्पष्ट तथा इतना मर्मस्पर्शी भाष्य किसी भी लेखक ने प्रस्तुत नहीं किया है। इसका समन श्रेय प्रबुद्ध विचारक गाधीवाद के व्याख्याता, अध्यात्मयोगी मुनिवर नेमिचन्द्रजी को है, जिन्होंने अथक परिश्रम करके अध्यात्मप्रेमी जनता के कर-कमलो मे एक अध्यात्मकमन ममर्पित कर दिया है। जिसे पा कर प्रत्येक पाठक तथा श्रोता को अमित आनन्द की भावानुभूति तथा रसानुभूति होगी। -उपाध्याय अमरमुनि वीरायतन, राजगृह (नालंदा) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L सरल स्वभावी मुनिश्री सुन्दरलालजी महाराज कर्मठ सेवानिष्ठ श्री विनोदमुनिजी ( सयोजक ) कलमकलाघर मुनिश्री समदर्शी है। प्रवचन प्रभाकर प० मुनिश्री सुमेरचन्द्रजी महाराज ( सयोजक) 3 मुनि सन्मतिशीलजी t T rt Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अध्यात्म एक ऐसी भूमिका है, जिसका आनन्द शन्दगम्य नही अनुभव. गम्य है। वह किसी से पाई नही जाती, अपनाई जाती है। वह एक ऐसा सरस रस है, जिसका आशिक स्वाद भी जीवन मे आमूलचूल परिवर्तन ला देता है । मत-सम्प्रदाय की जड धारणाएं, संकुचित बाडावन्दी और अह की भेदरेखाएँ वहां स्वत तिरोहित होने लग जाती हैं। एकात्मभाव की अनुपम अनुभूति सर्वत्र मैत्री की गाथा को मुखरित कर देती है और 'एक एव भगवानयमात्मा' की ध्वनि स्वत गू जने लग जाती है। अहा ! यह एक निराली ही मस्ती है, अनूठा ही फक्कडपन है, विचित्र आत्मदशा है। अध्यात्मयोगी की कल्याणी वाणी कुछ भव्य भावभगिमा को धारण कर लेती है। उसकी दृष्टि कुछ अन्यादृशी सृष्टि के लिये ही अमृतवृष्टि करती रहती है। उसके रोम-रोम मे से अजस्र कल्याण का स्रोत बहता रहता है। स्वनाम-धन्य अध्यात्मयोगी श्रीमानन्दधनजी को जैनजगत् का कोन विज्ञ नही जानता ? उनकी अद्भुत अध्यात्मरस से ओतप्रोत कुछ कृतियां ही उनका यथार्थ परिचय है। मत-सम्प्रदाय की सीमाओ को तोड कर उन्होंने उन्मुक्त मुनिव्रत को स्वीकारा था। दिगम्बर-श्वेताम्बर की सारी उपाधियो को उन्होंने दूर रख दी थी। उसी का ही परिणाम है कि आज सारा जैनसमाज उनकी तात्त्विक कृतियो को ससम्मान आत्मसात् कर रहा है, अपना रहा है और उन्हे गौरव प्रदान कर रहा है। आश्चर्य ही क्या ? गगा का पानी तो सभी के लिये गगा का पानी ही है, उसके नर्मल्य-माधुर्य आदि गुण सभी को एकरूपता प्रदान करते है। जैन हो, चाहे अजैन, हिन्दू हो चाहे मुस्लिम, स्वदेशी हो या विदेशी, गगा का पानी सभी की प्यास बुझाता है, शान्ति प्रदान करता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) आनन्दघन चोवीसी 'जयन्तु ते सुकृतिनः, रससिद्धा कवीश्वरा', नास्ति येर्पा यश काये जरामरणजं भयम् ।" सही कहा है कृतिकार अतीत के गाढ अन्धकार मे विलीन हो जाते हैं, पर उनकी मर कृतियो पर काल का फर कटाक्ष प्रभावी नही बन पाता । युग-युगान्त वे कृतियाँ अखण्ड ज्योति विरोती रहती है, पथ प्रणा बनाती रहती है और गुमराही को सही राह दिखलाती रहती हैं । अध्यात्मयोगी श्रीमानन्दघनजी की चोत्रीमी एक ऐसी ही अनुपम कृति है, अद्भुत देन है या सहज आत्मिक उद्गार है। जिन्हें पहने वाला माधक मस्त हुए बिना नही रह मक्ता, झूमे बिना नही रह सकता ओर कुछ अपने हृदय को छू रहा है ऐसा अनुभव किये बिना नही रह सकता । उनके एकएक पद कुछ अनूठी तात्विकता लिये हुए प्रस्फुटित हुए है । भाषा को सज्जा का वहाँ कोई ध्यान नहीं है । वहाँ तो भावना ही माकार वन कर निखरी है । अपनी अकृत्रिम निराली मस्ती में ही सरस्वती ने पवित्र पदन्यास किया है । सहज सरल शब्द भी अनेक अर्थों के अभिव्यजक बने दिखाई देते हैं । अभिधा लक्षणा के पीछे मानो ध्वनियाँ कुछ अनिभव प्रकाण विमेर रही हैं । स्पों की तो वहाँ भरमार है । प्रथम पद हो अण्ड अनन्त प्रेम का प्रतिनिधित्व करता है । ऋषभ जिनेश्वर को प्रियतम पद पर प्रतिष्ठित करती हुई शुद्धचेतनारूप नन्नारी अपने प्राणेश्वर के प्रेम का वर्णन करती है। देखिये "ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो ओर न चाहूं रे फन्त । रोझयो साहेव संग न परिहरे, भागे सादि अनन्त ।। " उन्होंने सादि अनन्त के भग से अपने देव की प्रीति को पुकारा है, अर्थात् जिस प्रेम की आदि है- प्रारम्भ है, पर अन्त नही है-अनन्त है । अहा ! कैमो अद्भुत एव निराली प्रीति है । जगत् का प्रेम सोपाधिक है, किन्तु यह प्रेम तो निरुपाधिक है । उपाधिजन्य प्रेम तो, यह कुछ मांग रहा है, चाह कर रहा है, वह असली होने न होने पर प्रेम का सद्भाव एव तिरोभाव हो तो प्रेम हो - इस प्रकार प्रेम कहाँ ? मांग की पूर्ति जहाँ हो, वहाँ वास्तविकता' 1 कहाँ ? प्रेम की सच्चाई कहाँ ? श्री आनन्दघनजी इमी स्तवना मे एक वडी क्रान्ति की बात कह ht डालते हैं Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कोई पतिरंजन अतिघणो तप करे रे, पतिरंजन तनताप । ए पतिरजन में नवि चित्त धयु रे, रजन धातु-मेलाप ||ऋषम० ॥४॥ रूढ़िगत तपश्चर्या की सभी साधको मे बडी लम्बी परम्परा रही है। उस पर यह व्यग्योक्ति है कि पति को खुश करने के लिये कुछ अतिघोर तप करते हैं और शरीर को तपाना ही पतिमिलन का हेतु मानते हैं, किन्तु मेरे चित्त मे वह नही रुचा है, मुझे वह उचित नहीं लगा है। पतिरंजन तो धातुमिलाप ही है, पति-पत्नी की एकरसता ही है, तन्मयता ही है। धातु-मिलाप के क्षण ही पतिरजन के क्षण हैं। इस प्रकार परमात्म-प्रेम का अद्भुत विश्लेपण यहाँ पठनीय है। __श्रीआनन्दघनजी अजित-जिन के दर्शनोत्सुक बन कर उनके पथ को निहार रहे हैं, उनकी बाट जोह रहे हैं। परन्तु किस पथ से प्रभु का मिलना होगा? वह पथ कौन-सा है ? उसे कैसे पहचाना जाए? इसी समस्या मे जगत् की उलझन का चित्रण करते हुए आप लिखते हैं "चरम नयणे करी मारग जोवतां रे, भल्यो सयल ससार । नेण नयण करी मारग जोइए रे, नयण ते दिव्य विचार |पथडो॥२॥ पुरुष-परम्पर-अनुभव जोवता रे अन्धो अन्धं पलाय । वस्तु विचारे रे जो आगमे करो रे, चरणधरण नहीं ठाय ॥५०॥३॥ अहा | उस पथ को निहारने के लिये इन चर्मचक्षुओ का काम नहीं है, वहां तो दिव्यनयनो की आवश्यकता है। " कुछ लोग कहते हैं-- 'परम्परागत मार्ग सही है" ऐसी मान्यता वालो पर तीखा कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं कि 'अन्धे के पीछे अन्धे हो रहे हैं।' जो मार्ग दिखाने के लिए अगुआ बना है, वह स्वय अन्धा है-वह स्वय कभी उस मार्ग को देख नहीं पाया है, तो उसके पीछे चलने वाले अन्धानुकरण करने वाले तो मार्ग पा ही कैसे सकते हैं ? इमी पद के उत्तरार्ध मे एक गहरी बात कह देते हैं। यदि वस्तुतया आगमकथनो पर विचार किया जाए तो पर रखने का भी स्थान नहीं है। कहां आगमो की असिधारा--जैसी अत्यन्त तीक्ष्ण एव अहिदृष्टि जैसी सतत जागरूकता की साधना और कहाँ आज के साधको की सुविधा-परक वृत्ति । हा ! कैसे मार्ग पाया जा सकता है ? कही-कही श्रीआनदघनजी की 'अन्तश्चेतनां प्रभु के प्रति अतीव उत्कण्ठित होती हुई अपनी सुमति नामक सखी से कैसे भावभरे शब्दो मे कहती है Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) "देखन दे रे, सप्ती मुने देशन दे, चन्द्र प्रभु-मुगचन्द, सखी । उपशमरसनो फन्द, सखी, गतकलिमल-दुम इन्ह,सखो ॥१॥ अहा । कितनी गहरी भावाभिव्यक्ति है ! सम्बो मुझे देखने दे ! भारता के पीछे कारण है कि भवभ्रमण करते हुए अनन्तकाल में मुझे यह मुबममार प्राप्त नहीं हुआ है। विविध योनियो के मामिक चित्रण का नमूना देगिये -- "सुहम निगोदे न देखियो सखी, गावर अतिहि पिशेष ||सीला पुढवी आऊ न लेखियो ससी, तेऊ आऊ नलेश सावी०॥ वनस्पति, अतिघणदोहा सखी, दौठो नहि दीदार ||ससो। वि-ति-चरिदिय जललोहा, ससो, गतसप्नीपण पार ||सखो०॥ तात्पर्य यह है कि वहां कही मुझे दर्शन का मौका नहीं मिला। फेवल इमी मनुष्यभव मे यह सुअवसर उपलब्ध हुना है, मत मुझे अब देखने दे। प्रस्तावना में कितना विवेचन दिया जाए, प्रत्येक कृति अद्भुत भायों को लिये हुए चली है। मच्चा माधक कभी अपनी कमजोरी नही छिपाता। वह तो रके की चोट सभी के आगे उसे व्यक्त कर देता है। मन की चचलता के आगे हैरान श्री आनन्दघनजी सत्रहवें कुन्थुनाथस्वामी के स्तवन मे गजब की व्याख्या करते हैं "कुन्युजिन ! मनडु किम ही न बाजे, जिम-जिम जतन करी ने रातिम-तिम अलगू भाजे ।" । प्रभो । मेरा मन किसी प्रकार बाज नही आता । इसे वायू करने के लिये ज्यो-ज्यो प्रयत्न करता हूँ, त्यो-न्यो वह दूर भागता है। मन का यह निश्चित स्वभाव है कि जहां जाने के लिये हम रोकना चाहेंगे, वहाँ वह जरूर जायेगा। इसी अनुभवगम्य स्थिति का यह प्रकट दिग्दर्शन है। मन के दौडने की निस्सारता का चित्रण पढिये "रयणी वासर, वसती-उज्जर, गयण-पायाले जाय । साप खाय ने मुखडु चोयु, एह मोखाणो न्याय, हो, कुन्थु ॥ रात-दिन, बसति-उजाड, आकाश-पाताल में यह दौडता रहता है। इतना दौडते हुए भी इसे कुछ प्राप्त नहीं होता। फिर भी मालिक को तो यह भारी बना ही देता है । जैसे-साप काटता है, तो उसका पेट तो नहीं भरता, पर जिसे रंक मारता है, उसे तो विष से व्याकुल बना ही देता है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 13 ) महा | कैसी विचित्र लोकोक्ति का प्रयोग किया है। इसी स्तवन के अन्तिम पद मे तोवे एक असाधारण घोषणा कर देते हैं-'प्रभो । 'अमुक ने मन को जीता, मन को मारा, मन को वश मे किया-ये सव सुनी सुनाई बातें हैं। मैं उन पर कैसे विश्वास करू ? यदि आप मेरे मन को वश मे ला दे, तो मैं उपर्युक्त कथनो को सत्य मान लूंगा।' "आनन्दघन प्रभु | म्हारो आणो तो साचू करी मानू।" वस्तुत मन को मारना कठिन समस्या है। आनन्दघनजी मन को मारने से अधिक सुधारने मे विश्वास करते हैं। इस भांति सारा ही ग्रन्थ बहुमूल्य शिक्षामणियो से एव आध्यात्मिक अनुभूतियो से भरा पड़ा है। बस, कण की परीक्षा से ही मनभर की परीक्षा हो जाती है । मूलकृति एव भाष्यकार यद्यपि आनन्दघन चौवीसी पर आज तक अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं, अनेक व्याख्याए की गई है, फिर भी वे बहुत सक्षिप्त एव शब्दार्थ मात्र जैसी ही हैं। उनसे पाठको की तत्त्वजिज्ञासा यथार्थतया समाहित नही हो पाती। श्रीमद्राजचन्द्र जैसे महान् तत्त्व-मनीपियो ने भी कुछ गीतिकाओ पर ही प्रकाश डाला है, सभी गीतिकाओ पर नही। अत मुमुक्षुओ की माग थी कि कोई अनुभवी साधक इसकी विस्तृत व्याख्या करे । समुद्र की अतल गहराइयो तक गोता लगाने वाला तैराक ही उसकी गहराई को माप सकता है। केवल तट पर घूमने वाले यात्री को उसका कैसे पता लग सकता है? इस अभाव की पूर्ति भाष्य लिख कर मुनि श्रीनेमिचन्द्रजी ने सचमुच मे की है। भाष्यकार ने किस गहराई से तत्त्व को छुआ है और कैसी वास्तविक व्याख्या से समाधान : किया है, यह विशिष्ट वाचको से कदापि छुपा नही रहेगा। इधर-उधर की व्याख्या से व्यर्थ का कलेवर बढाना और बात है और मूल का स्पर्श करना भिन्न बात है। यह मूलस्पर्शी व्याख्या बनी है। ग्रन्थकार के प्रत्येक शब्द के तात्पर्य को पकडने की इसमे विशेष चेष्टा की है। “यह नि सन्देह है कि मूल-मूल है, व्याख्या-व्याख्या है। सैकडो वर्षों का अन्तर चिन्तन के स्तर को बदल डालता है। शब्द भी अपने तात्पर्यों को बदल लेते हैं। वहीं ऐदयुगीन मानव अपनी बुद्धि से अवश्य कुछ जोडना एव कुछ तोडना चाहता है-यह स्वीकरणीय तथ्य है, फिर भी टीका, वृत्ति, भाष्य के Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विना दुमग कोई चारा नहीं है । मूल को कितनी यचाता कौन सा है? यही देखना वहाँ अभीष्ट है। , वैसे ही चौबीमी के पदो में जहां-जहां कुछ शास्त्रीपजीयी भावनाएं हैं, वहां-वहां उन-उन शास्त्रीय प्राचीन ग्रन्यों के पलोक मादि टिप्पण में मप्रमाण दे दिये गये हैं। इससे प्रस्तुत भाग्य की मौलिकता पर और भी चार चांद लग गये हैं। व्याख्या की प्रामाणिकता वही व्याख्याकार अपने और कृतिकार के साथ न्याय करता है, जो अपनी मान्यताओ को प्राधान्य न दे कर कृति के भावों को प्राधान्य देता है, क्योंकि वह वहां अपनी मान्यताओ की व्याख्या नहीं कर रहा है, बल्कि फिमी अन्य व्याख्येय की व्याख्या कर रहा है। इस विषय में भी भाप्यकार विलकुल सरे उतरे हैं। मेरी दृष्टि में यह उनको ग्याल्या की प्रामाणिकता है, जो विशेष श्लाघनीय एव अनुकरणीय है। फूलो की बगिया महक रही है, मौरभ विखेर रही है, कौन उमसे प्रीणित होगा-उसे यह परवाह नहीं है। कलरव के साथ पीतल मधुर पानी का मोता वह रहा है, कौन उस पानी का उपभोक्ता होगा--उसे इसकी चिन्ता नहीं है। मुनि श्रीनेमिचन्द्रजी भी उसी धुन के धनी हैं। ये स्वान्त.सुखाय सतत साहित्यसाधना मे सलग्न रहते हैं। कोन कसा उपभोग करेगा- इस चिन्ता से विरत हैं, फिर भी सौरम व शीतल जल का उपभोग हर कोई करना ही चाहेगा। सस्कृत के एक सुभापित मे कहा है "गुणा कुवन्ति दूतत्वं, दूरेऽपि वसतां सताम् । केतकी-गन्धमाघ्राय, स्वयमायान्ति पट्पदा.॥" -वस इन्ही शब्दो के साथवि० स० २०३३, ज्येष्ठशुक्ला १०॥ बेलनगज, आगरा। --चन्दनमुनि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्ध-सहायकों की सूची नारायणगांव बोरी जुन्नर जुन्नर अहमदनगर सोनई श्रीरामपुर श्रीरामपुर श्रीरामपुर आश्वी आश्वी ५०१) श्रीमती कमलाबाई गेंदामलजी भलगेट ... १५१) सौ. आनन्दीबाई माणकचन्दजी चोरडिया, २५१) श्री सरदारमलजी पोपटलाल सचेती ५१) श्री पन्नालाल धूलचद लूणावत १००) याबूलालजी चुन्नीलालजी धोका १००) चम्पालाल रमणलाल चगेडिया १०५) सो कमलाबाई घेवरचन्द सचेती १०५) श्री मुम्वरलालजी पुनमचन्दजी बाफना ५१) श्री सन्तावाई मिश्रीलालजी भडारी १०५) श्री वसन्तीलालजी केशरचन्दजी बोरा १०५) श्री रतनलालजी नवलमलजी भडारी १०५) श्रीमलजी शान्तिलालजी गांधी २२५) श्री शान्तिलालजी दुलीचन्द रातडिया ३१) श्रीनथमलजी सूरनमलजी चौपडा ३०) श्रीझुमरलालजी कचरदासजी गांधी १०५) श्री रमणलालजी केसरचन्दजी बोरा १६५) सौ. चम्पाबाई शकरलाल गाँधी ३१) श्रीमूलचन्दजी कचरदामजी बोरा ३१) श्री हरकचन्दजी गुलावचन्दजी पटवा १०५) श्री नेमिचन्दनी भागचन्दजी कटारिया १००) छल्लाणी ब्रदर्स, गजवाजार २५१) श्री केवलचन्दजी हरकचन्दजी लोढा ५१) श्री मोहनलालजी शान्तिलालजी गांधी ५१) डॉ कान्तिलाल खुशालचन्दजी बोरा ५१) श्री चम्पालाल नैनसुखजी सिंघी श्रीरामपुर अहमदनगर सोनगांव Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटगी ( 16 ) ५१) श्री अमरलालजी सुशानचन्दजी बोरा মীনার २५) श्री वसन्तलाल पन्नालाल गुगले १५) श्री घेवरचन्द बदनलालजी मेहर ११) श्री मोहनलालजी फिरोदिया १००) श्री मेघराज जैन, रेडीमेट बाजार परमीयरे (कर्णाटक) ७५) श्री प्रकाशलाल चन्दनमल नाहर মিসের १५१) श्री चन्द्रकान्तजी शोभाचन्दजी बाफना घोहनरी १०५) श्री माणकचन्दजी धूलचन्दजी दुग्गर पोडनदी २०१) श्री पुखराजजी हीरालाल जी तातेड २१) श्री मिश्रीलालजी दगदुलालजी मोनी ११) श्री लखमीचन्दजी धीमालाल नाहर २५) श्री राजकुमार आसकरण चढालिया १५) श्री गोकुलचन्द सेमराज मुया घोडनदी २०१) श्री भंवरीलालजी जुगराजजी घनफगर घोहनदी १०५) श्री धनराजनी मोतीलालजी बोरा, आइतवाजार य नगर १०५) श्री भोजराजजी सुरेशकुमार खींवसरा १०१) श्री माणकचन्दजी राजमलजी वाफना वडगांव ५१) श्री मोहनलालजी भगवानदास कोठारी अ नगर ३०१) श्री पन्नालालजो केशरीचन्दजी चगेडिया १०५) श्री उत्तमचन्दजी शान्तिलालजी नाहर घोडनदी १०१) श्री रतनवाई सुखलालजी विनायक ५१) श्री कन्हैयालालजी नेमिचन्दजी भटेवरा घोडनदी १११) श्री उत्तमचन्दजी रूपचन्दजी भडारी (वडालावाला) न नगर १०५) श्री रतनलाल चान्दमलजी पीपलावाला ३१) श्री मोहनलालजी ओस्तवाल, उमराण ३१) श्री धरमीचन्दजी नवीनकुमारजी रायचूर (कर्णा) ५१) श्री शोभाचन्दजी झणकारमलजी चोपडा म गा. रोड, महमदनगर १०५) श्री धनराजजी श्रीमलजी पीतलिया सारडागली, अहमदनगर १०५) श्री फूलचन्दजी हरकचन्दजी बोथरा आइतवाजार, अहमदनगर ...) श्री उत्तमचन्दजी राजमलजी गूगले गजबाजार, पाथर्डी (म न) वीर Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काटेगली ॥ ( 17 ) १०१) श्री मानकचन्दजी फूलचन्दजी, लोढा, दालमडई, अहमदनगर १०५) श्री दानमलजी कचरदासजी नाहर, विनय टेडिंग क तेलीखू ट (अ नगर) १०५) श्री कान्तिलाल घेवरचद सिंघवी दालमडई (अ नगर) १०५) श्री नारायणदास मोहनलाल लोढा ७५) श्री आसराज कन्हैयालाल कटारिया आडतबाजार, अहमदनगर ३१) श्री चुन्नीलालजी लखमीचन्दजी बोरा खिस्तीगली, अ नगर ६१) नाजुवाई हीरालालजी चौपडा १०५) प्रेमलताबाई मुकनदासजी दुगड ३१) सो सरसवाई पोपटलालजी देसरडा (६ उपवास के उपलक्ष मे) पनसरे गली, अहमदनगर ५००) कचरदासजी मोहनलालजी लोढा घासगली, अहमदनगर ७५) मोहनलालजी जुगराजजी दालमडई (अ. नगर) १०५) अमोनकचन्दजी विरदीचन्दजी कटारिया भीकार बाजार, अहमदनगर २५) सौ० सूरजवाई नेमीचन्दजी लोढा बनजार गली, अहमदनगर ३५) वशीलालजी सुवालालजी गुगले जामखेड (अ नगर) ११) नेमीचन्दजी माणकचन्दजी मुथीयान परदेशी गल्ली, अहमदनगर १०५) श्री प्रेमराज पन्नालालजी मुणोत सदाभवन नवीपेठ, अहमदनगर १०००) श्रीनेमीचन्दजी भागचन्दजी कटारिया चाईस, अहमदनगर - १५१) श्री अमृतलालजी वशीलालजी गाँधी नवीपेठ, अहमदनगर . ६१. श्री मनसुखलालजी लूणकरणजी मुणोत वृरडगली, अहमदनगर -, ५१) श्री लालचन्दजी अमरचन्दजी चगेडिया खिस्तीगली, अहमदनगर _ १६५) श्री सुवालालजो वदुलालजी बोथरा आडत बाजार, अहमदनगर । १०५) श्री चान्दमलजी पन्नालालजी डागा आडत व जार, अहमदनगर ५१। श्री बशीलालजी नन्दरामजी पटवा अम्बिकानगर, अहमदनगर । १५१) श्री विजयकुमारजी बाजीरावजी गांधी नवीपेठ, अहमदनगर । ३०१) श्री शान्तिलालजी मोहनलालजी काठेड आइतवाजार, अ. नगर १०५) श्री माणकचन्दजी बनेचदजी खाविया चर्चरोड, अ नगर १०५) श्री कान्तिलालजी ताराचन्दजी मूथा खिस्तीगल्ली, अ. नगर १०५) श्री रतनचन्दजी रामचन्दजी बोरा पनसरे गल्ली , म नगर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) १.५) श्रीमती रतनबाई चुन्नीलालजी कर्णाट c/o इन्द्रभान चुन्नीलाल कर्णावट मारतबाजार, व नगर ३१) श्री गकरलालजी भीमराजजी फटारिया बनजागनी, च. नगर १५१) श्री मनसुखलाल चैनसुखलालजी कोठेर मारमा लेन, अ नगर १०५) श्री शान्तिलालजी वशीलालजी भडारी आरतवाजार, म. नगर ३१) श्री हरकचन्दजी किमनदामजी चत्तर युरुदगल्ली , अ. नगर ३१) यी मूर्यकान्तजी जुगराज जी राका दान मडई, य. नगर १५) श्री मुभापलालजी शकरनालजी गु देना मालीयाटा, अ नगर ५०१) श्री पुनमचन्दजी मोतीलालजी मुनीत दालमटई, अ नगर २१) श्री पोपटलालजी चादमलजी गांधी शहाजीरोह, य. नपर १२०) श्री नवलमलजी शोभाचन्दजी गांधी दालमटई, म. नगर १०५) श्री केशरचन्दजी गुनावचन्दजी मुण्मेत दालमटई, नगर १०५) श्री कान्तिलालजी ब्रजलालजी निवाडीवाला १५) श्री जव गेलालजी किसनदामजी हिरण मनमाड वाला ३०) श्री धनराजजी रमेशलालजी बोरा गजबाजार, अ. नगर ७५) श्री इन्द्रभानजी घेवर चदजी भडारी विस्तगली, म. नगर १०५) श्री कान्तिलालजी भी चदजी लुणावत तावीदास गली, म नगर २५१) सो गुलाबवाई मगनलालजी आश्वीवाला मोचीगली, अ. नगर १०५) श्री मोतीलालजी मुलतानचदजी दोरा ट्रस्ट परदेशीगली, म नगर १०१) नानीबाई रामचन्द गगले कोल्हार १०१) श्री हीरालालजी चन्दनमलजी कुकुमोड़ कोल्हार ५१) श्री मुखलालजी उत्तमचन्दजी राका ३५) श्री शान्तिलालजी नथमलजी गका ३१) श्री मनमुखलालजी नेमिचदजी चोरडिया २१) श्री शान्तिलालजी नैनमुखजी सिंघवी १५) श्री पन्नालालजी गू देचा पानोली ५१) श्री स्वार्थीलाल जो नैन मुखलालजी भटेवरा चाकण ५१) श्री चुन्नीलालजी नेमिचदजी भटेवरा उरलीकाचन ३१) श्री अमोलकचदजी नवलमल गुगलिया घुमरेगली कॉर्नर, अ. नगर १०५) श्री पुनमचदजी दगडूरामजी भटारी कापड बाजार, अ नगर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19 ) ७५) श्री सुवरलाल गनलाल कासवा आढते बाजार, अ. नगर १५) श्री कहैयालाल गांधी अ नगर २१) श्री माणकचदजी गोकुलदास मुनोत विडावाला, अ. नगर २०१) श्री सुरजबाई दौलतरामजो बोरा अ नगर ५०१) श्री केशरचदजी वशीलालजी कटारिया पाडलीकर म. नगर २५१) श्री शकरलालजी मोहनलालजी पोखरणा अ. नगर १०५) श्री मनमुखलाल केशरचदजी चगेडिया सोनई, अ नगर १६५) श्री हरकचदजी रतनचदजी छल्लाणी आडते बाजार, अ नगर ६१) श्री भीकचदजो रामचदजो ल कड वाकुडीवाला अ नगर ५१) श्रीमती रभावाई भगवानदामजी कोठारी सर्जेपुर रोड, अ नार ५५) श्री झुंबरलालजी भगवानदासजी कोठारी सर्जपुर रोड, अ. नगर ६१) श्री माणिकचदजी भिकनदासजी कटारिया सुन्दरनिवास, अ नगर १५) श्री खुशालचद दीपचद बम्ब गजवाजार, अ नगर १०५) श्री हेमराजजी श्रीमलजी गांधी रस्तापुर वाला अ. नगर १५) श्री दलीचद जीवराज गांधी आडते बाजार, अ नगर ३१) श्री गेनमल चन्दनमल गुगले तपकीर गली, म नगर १५) श्री मोहनलालजो हम्मीरमलजी चोपडा तेलोसूट, अ नगर १०५) श्री सुखलालजी चुन्नीलालजी लोढा गजवाजार, अ नगर ६१) श्री माणकचद रतनचद छल्लाणी पारशासूट, अ नगर १५) श्री चदनमलजी शिवलालजो पारख अ नगर ३१) श्री राजेन्द्रकुमार मोहनलालजी मुथा खिस्ती गल्ली, अ. नगर ६१) श्री उत्तमचन्दजी छोगमलजी रातडिया नवा कापड वाजार, अ नगर ३१) श्री पोपटलाल भीकमदाम भलगट गणेश ट्रेडर्स मालीवाडा, म नगर २१) श्री शेषमलजी अमरचन्दजो भडारी - नवा बाजार, अ नगर १५) श्री फूलचद चत्रभुज गांधी जूना बाजार, अ नगर ५५) श्री समरथमलजी कुन्दनमलजी बोरा कपडा वाजार, अ नगर ६० श्री शान्तिलालजी भगवानदासजी गुगले तोपखाना, अ नगर ३१) श्री सजयकुमार गोपटलाल पीपाडा अ. नगर ७५) श्री शान्तिलालजी पन्नालाल चगेडिया भिगार, अ. नगर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) १५) श्रीमती रम्भावाईन हेमराजजी गांधी, कापड बाजार, म० नगर १५) श्री आनन्दरामजी किशमदामजी छाजेड, मु म्हामा भीरामपुर १०१) श्रीमती सूरजबाई मोहनलाल जी, शकर रोट, पूना-६ अर्थमयोगी महानुभावो को यह सूची बहन ही मावधानी के माथ छपवाई गई है, फिर भी किन्हीं महानुभावो के नाम इस सूची में रह गये हो तो ये हैं क्षमा करें। सम्भव है, हमारे पास घोडनदी के अयं सहायको की सूची नहीं पहुंची हो। हम उनसे क्षमाप्रार्थी है। इन मूवी की प्रतीक्षा में ही पुस्तक में छपने में काफी विलम्ब हो गया है। जिन-जिन महानुभावो ने इस विशालकाय ग्रन्थ राज में अर्थ महयोग किया है, हम उन्हें धन्यवाद देते हैं । भविष्य मे हम आशा करते हैं कि वे महानुभाव इस प्रकार के अद्वितीय ग्रन्थराज के प्रकाशन में अवश्य अपना सहयोग देते रहेंगे। मत्री विश्ववात्सल्य प्रकाशन समिति लोहामडी, आगरा-२ पुस्तक-प्राप्तिस्थान (महाराष्ट्र मे) राजेन्द्रकुमार मोहनलाल मुथा अर्वन कॉ-ऑपरेटिव बैंक, गांधी रोड, अहमदनगर (महाराष्ट्र) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ऋषभदेव स्तुति — सच्ची परमात्म-प्रीति (तर्ज - कर्मपरीक्षा करण कुमर चाल्यो "राग-मारु) ऋषभजिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूँ रे कंत । रोइयो साहेब संग न परिहरे रे, भांगे सादि-अनन्त ॥ ध्रुव ॥१॥ अर्थ 4000 मेरे सच्चे प्रियतम ( पतिदेव ) तो रागद्वेष-विजेता ऋषभदेव परमात्मा हैं । मैं और किसी को अपने पति के रूप में नहीं चाहती, क्योकि मेरे परमात्मदेव (पति) यदि एक बार प्रसन्न हो जायेंगे तो वे सादि- अनन्त भग (विकल्प) की दृष्टि से कदापि मेरा साथ नहीं छोडेंगे । भाष्य परमात्म-प्रीति है । परमात्म १ 1 अन्तरात्मा की सर्वोत्तम उपलब्धि प्रीति के सम्बन्ध मे विभिन्न विकल्प है । परन्तु स्तुतिकर्ता श्रीआनन्दघनजी जगत् के किसी भी तथाकथित महान् (धन, सौन्दर्य आदि की दृष्टि से ) व्यक्ति को अपने प्रियतम के रूप मे पसद नही करते । इसीलिए अपनी श्रद्धा नाम की मखी से चेतना ( अन्तरात्मा ) द्वारा कहलाते है - मेरे प्रियतम तो रागद्वेषविजयी ऋषभदेव परमात्मा ( शुद्ध आत्मदेव ) हैं । इन्ही के चरणो मे मैं अपने तन, मन, इन्द्रिय, हृदय, बुद्धि आदि सर्वस्व अर्पण करती हूँ । इन्ही के पास रहने, इन्ही की सेवा में अहर्निण सलग्न रहने की मेरी भावना है । मैं अपने इन्ही पतिदेव को चाहती हूँ । इनके साथ रहने में मैं अपने जीवन की परम सफलता मानती हूँ | ✓ अन्य के साथ क्यो नहीं ? लेती है, उसे अपना सर्वस्व आर्यनारी जिसके साथ एक वार प्रीति जोड समर्पण कर देती है, वही उसका आमरणान्त पति कहलाता है । उसके साथ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मदर्शन मे उमे चाहे जितने कष्ट उठाने पडे, वद परिणरागणा या पनियता ही गती है परन्तु उग प्रीति मे नो प्राय भग होना देया गया । माई कर पति आनी पत्नी को अकारण ही छोड़ देने है कई गरी गन्दी ; अपनी पत्नी की उपेक्षा कर बैठते है, कई मालमृत्य बिन पाने, इसलिए ऐमी लांकिक प्रीति तो अस्थायी और प्राय विपतिकारिणी होती। उमी कारण गुद्धचेतना सनी ऐने फिगी लौगि व गगटेपपगा पनि पिगतम) ने प्रीति जोडना नहीं चाहती। अखण्डप्रोति के धनी परमात्मा शुद्धचेतना को अन्तरात्मा पुकार उठनी है कि राग में अन्यन्त दर परमात्मा (ऋपभदेव) ही अखण्डप्रीति के धनी है, उनके नाय ए बार भेगे प्रीति जुड जाने पर वह कभी टूटेगी नहीं। वे एक वार गुझे, प्रगमनापग अपना लेंगे तो फिर कदापि मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि परमात्मा के गाय ऐगी उलगडप्रीति तभी अविच्छिन्न, स्थायी और अटूट रह सकती है, जब आत्मा (चेतना) भी नतन अपनी शुद्ध स्वभावदशा मे रहे। आत्मा गद्ध स्वभावदना की प्रीति छोर कर यदि मामारिक वस्तुओ, इन्द्रियविपयो या व्यक्तियों के प्रति मोह, आगनि, आकाक्षा या स्वार्थबग प्रीति करने जायेगी तो उसकी वह प्रोति परमात्मा के प्रति अव्यभिचारिणी नहीं रहेगी । अत वे पाहते है-'परमात्माम्मी पति भी नमी प्रसन्न रहेंगे, जब उनके प्रति अनन्यभक्ति, अनन्यश्रद्धा और स्वभाव धारा में मततरमणता होगी और एक बार प्रसन्न (म्वभावनिष्ठ) होने पर वे मेरे हृदयसर्वम्ब कभी मेग परित्याग नहीं करेंगे।' परमात्मा के प्रति प्रीति के स्थायित्व का कारण एक वार परमात्मा के साथ प्रीति होजाने पर वह मदा के लिए स्थायी क्यो हो जाती है, इसके लिए आनन्दघनजी कहते है कि वह प्रीति मादि-अनन्त है। उमनी एक वार आदि (शुरुआत) तो होती है, परन्तु उन प्रीति का अन्त नहीं होता। जिस प्रीति का प्रारम्भ तो हो, पर अन्त हो जाय, वह प्रीति स्थायी नहीं होती, ज्यादा से ज्यादा वह-एक जन्म तक टिकती है। शरीर टूटने के बाद वह भी छूट जाती है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मच्ची परमात्म-प्रीति मग-परिहार बनाम स्वभावदशापरिहार कोई कह सकता है, सग का एक अर्थ आसक्ति है, और वह तो त्याज्य मानी गई है, इसलिए परमात्मा के साथ यह कैसे सगत हो सकता है ? परन्तु यहाँ वीतरागनीति का प्रमग होने से सग का अर्थ आसक्ति नहीं, अपितु स्वभावदशा का साथ है, जिसे परमात्मदेव कभी छोडते नहीं। प्रीत-सगाई रे जगमा सहु करे रे, प्रीत सगाई न कोय । प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय ॥ ऋषभ० ॥२॥ अर्थ जगत् मे प्रीति-सम्बन्ध तो सभी करते हैं। परन्तु ऐसे प्रीति-सम्बन्ध मे कोई दम नहीं होता। ययार्थ प्रीति-सम्बन्ध तो सर्व उपाधियो से मुक्त होता है। उपाधियो से युक्त प्रीति-सम्बन्ध तो आत्मधन को खो बैठता है। भाष्य अखण्ड प्रीति-सम्बन्ध ही आत्मस्वभावरूपी । अखण्डधन का रक्षक होता है, जबकि खण्डित प्रीतिसम्बन्ध आत्मस्वभावरूपी अखण्ड धन को नष्ट कर देता है । इसका मूल कारण उपाधि बतलाया गया है । पूर्वोक्त प्रथम पक्तियो मे अखण्डप्रीति का लक्षण बताया गया है, जबकि इसमे अखण्ड प्रीनि-सम्बन्ध का स्वरूप बताया है। जगत् का प्रेम-सम्बन्ध ... जगत् में अपनी सन्तान, परिवार, जाति, धर्मसंघ, राष्ट्र, प्रान्त आदि से अधिकाश लोग प्रेम-सम्बन्ध जोडते हैं। परन्तु यह सम्बन्ध प्राय चिरस्थायी नही होता, मनुष्य ही नही, पशु-पक्षी आदि समस्त प्रकार के जीव भी परस्पर प्रेम करते हैं, परन्तु दुनियादारी के इस प्रेम मे प्राय देहसम्बन्ध होता है । मासारिक प्रीति-सम्बन्ध के पीछे शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुएँसौन्दर्य, स्वार्थलिप्सा, विविध कामनाएँ, भोगपणा, पुत्रपणा, वित्तषणा, इन्द्रियविपयाकाक्षा, अहपोपण आदि पौद्गलिक उपाधियाँ रहती है। जैसे दूध मे खटाई डालते ही वह फट जाता है , वैसे ही उस अखण्ड प्रीतिसम्बन्ध मे उपाधि रूपी खटाई पडते ही वह टूट (फट) जाता है। उसमे वाह्य धन, गाधन और बल का तो नाण होता ही है, आत्मगुणरूपी धन का सबसे ज्यादा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन नाश होता है। क्योकि मानामि नीद्गाला वन्तु गा पनि गभी नागगन हैं उन्हें अपने मानने पर यानी उनमे अहना-ममता को जगा का आरोप करने पर भी वे जगनी नहीं होनी । उस क्षणागर तुओ पगार पीरिया गम्बन्ध प्रारम्भ में, मध्य में, और अन्त में भी यया पगेगमा नही होना क्योकि वह विविध उपाधियों से घिग होता है। सना प्रीतिसम्बन्ध इमीलिए श्रीआनन्दधनजी नच्च प्रीति-गम्बन्ध का बाप बानि हुए कहते हैं---"गच्चा प्रीतिनम्बन्ध तो निम्पाधिक कहलाता है, जिनमे अनण्हता, अविच्छिनता और उपाधिमुक्तता होती है , उसमे प्रीतिसम्बन्ध. मोनिगम्बन्न वा पात्र एवं प्रीनि-सम्बन्धका तीनों में निम्पाधिकता होती है। न प्रीनिसम्बन्ध के पीछे भी कोई आननि, फलाकाक्षा आदि उपाधि नहीं होती , ना प्रीति-सम्बन्ध जिसके माय जोड़ा जाता है, यह भी राग-द्वेष, मोर आदि उपाधियो से रहित ममदर्शी, विश्ववलन एव नवं भूतात्मभूत होता है, तथा प्रीति-सम्बन्ध जोडने वाला व्यक्ति भी अपने को आगध्यदेव के अनुकूल पूर्वोत्त स्वार्थ, आकाना आदि उपाधियो ने रहित आत्मस्वभावनिप्छ, आत्मपरायण बना लेता है, जिससे उने आत्मधन खोने का कोई खतरा नहीं रहता , बल्कि वह अपनी आत्मशक्तियो को प्रगट कर लेता है, आत्मगुणो का विकास पर लेता है। निरुपाधिक प्रीति का क्रम प्रश्न होता है कि नर्वथा निरुपाधिक प्रीति तो क्षीणमोह नामक वारहवें गुणस्थान पर पहुँचे हुए व्यक्ति ही कर सकते है, उनमे नीचे की भूमिका वाले माधक की प्रीति सर्वथा निम्पाधिक नहीं होती , तब फिर एक परिवार या मघ में रहते हुए देव, गुरू, धर्ममब, देश, किसी नार्वजनिक गम्या व विश्व के साथ या मैत्रीसाधक या वात्सल्यमाधक संगठन के प्रति जो समूहगत प्रीति होती है, उसमें निम्पाधिकता कमे आ सकती है ? उनका समाधान नक्षेप मे श्रीआनन्दवनजी के दृष्टिकोण मे इस प्रकार हे "उपाधि का मूल' अना और ममता है । जितनी-जितनी जिसकी अहता-ममता अधिक तीन्न होगी, उतनी-उतनी उपाधि वदनी जायगी और जितनी-जितनी अहता- ममता मन्द होगी, उननी-उननी उपाधि कम होती जायगी। इसलिए अह्ना-ममता ना Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्ची परमात्म-प्रीति त्याग जितना मंकीर्ण दायरे में होगा, उतना ही उपाधि का दायरा बढता जायगा, और जितना व्यापक विशाल दायरे मे होगा, उतना ही उपाधि का दायरा कम होता जायगा । इसीलिए एक आध्यात्मिक पुम्प ने साधक को परामर्ण दिया है 'यदि अहता-ममता का सर्वथा त्याग नही कर सकते तो अहताममता को व्यापक कर दो, सर्वत्र फैला दो।' अर्थात् -- शरीर, परिवार, जाति, प्रान्त, राष्ट्र आदि पर जो अहता-ममता है, उसे इन सवसे ऊपर उठ कर सारे विश्व के प्राणियो तक पहुचा दो। समम्न प्राणियों को आत्मतुल्यदृष्टि से देखो, सर्वभूतमैत्री और विश्ववात्सल्य की दृष्टि मे व्यवहार करो । निष्कर्ष यह है एक शरीर में रहते हुए भी अपने शरीर आदि के प्रति ममत्त्वदृष्टि से न सोच कर सारी मानवजाति की दृष्टि ' मे और यहाँ तक कि बढ़ते-बढ़ते सर्वप्राणिमात्र की दृष्टि से सोचो, विश्व की समस्त आत्माओं के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखो, विरोधी, दुर्गुणी अथवा पापी आत्माओ के प्रति भी घृणा, द्वेप ईर्ष्या या वैरभाव छोड कर उनमे भी विराजित निरावरण चेतना को देखो और उनके साथ भी समता का व्यवहार करो । अपनी व्यक्तिचेतना को विश्वचेतना मे विलीन करने का प्रयत्न करो। इस प्रकार की विश्ववत्सलना सर्वभूतमैत्री या मर्वभूतात्मभूतदृष्टि रखते हुए जव धर्मसंघ, देश या जाति के प्रति विशिष्ट सामूहिक प्रीति-सम्बन्ध होगा तो उसमे उपाधि का अश बहुत-ही कम हो जायगा।२ । । ___ कदाचित् देहादि-मयोगवश निरुपाधिक प्रीतिसम्बन्ध मे स्खलना आ भी जायगी तो भी वह बहुत सूक्ष्म होगी, उसका परिमार्जन. या शुद्धीकरण भी प्रतिक्रमण, आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप), गर्हणा, प्रायश्चित्त आदि से हो सकेगा। परन्तु इसके साधक को तादाम्य-ताटस्थ्य का तथा अनायास-आयास का विवेक एव अप्रमादयुक्त जागृति रखना बहुत ही आवश्यक है। इस दृष्टि मे सच्चे __ "अहता-ममता-त्याग. यदि कतु न शक्यते । - अहता-ममता चैव सर्वत्रैव 'विधीयताम् ॥" २ विश्ववन्धुत्व आदि प्रशस्त भावनाओ मे यद्यपि प्रशस्तराग का अण मभव है, तथापि अप्रणस्तराग (दृप्टि, स्नेह, और विपय के प्रति राग) की अपेक्षा वह बहुत ही क्षीण होगा। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संध्यात्म-दर्शन मीनिलम्बन्ध मे ध्येयानुयूल-अनुवन्ध जस् । अन्यथा, याष्टिमार कुटुम्ब-वाबीना, जमीन-जायदाद आदि की उपाधि छोले बाता गाधरः रन मम्बन्ध को छोड़ कर भी जिन्य-शिया, गत-गका, म्यान, प्रसिद्धि, आदि मोह्ह्वा हो कर नः उपाधियों गे घिर जायगा और न प्रीनिमम्वन्धवा विषाक्त बना लेगा। कोई कंत-कारण काप्ठभक्षण करे रे, मलशु कंतने धाय । ए मेलो नवि कदीए संभवे रे, मेलो ठाम न ठाय ॥ ऋपभ० ॥३॥ अर्थ कई मोहान्ध विवेकविफल महिलाएं पति के मिलने के लिए काठमग करती हैं (लकड़ियो की चिता पर पति के साथ जीवित जत मरती है), इस इस कारण से कि इस प्रकार करने में पति से जल्दी मिलन हो जायगा। परन्तु ऐसा मिलन किसी भी तरह सम्भव नहीं है, क्योकि मिलने वाले के तया जिससे मिलना है, उसमे मिलने के, किमी स्थान का पता नहीं है, न दोनों का कोई एक स्थान ही निश्चित है। उपयुक्त पक्तियो में श्री आनन्दघनजी प्रीतिसम्बन्ध तो हट करने हेतु विवेकविकार व्यक्तियो के द्वारा अजमाए जाने वाले पनि-मिलन के मिथ्या उपाय बतलाते हुए कहते हैं-"कई मोहान्य एव वित्र नारियों लातुर हो कर आवेगवश, मामाजिक कुप्रथावग अथवा मोहान्यतावश या दिखावे रे लिए प्राचीनकाल में अपने मृत पति के साथ गती हो जाती थी, मुझे अगले जन्म में यही पति मिने', इग लिहाज से वे मृत पनि के माथ चिना में जल मरती थी, परन्तु इस प्रवार वा देहार्पण करके प्रीति वा प्रदान निरर्थक है। यह मान्यता मर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है कि पति के माय जल मरने वाली स्त्री को पति मिल ही जायगा, क्योकि मभी प्राणी अपने-अपने कर्मानुवार विविध योनियो और गतियों में जन्म लेते हैं, पति और उसके माय जल मग्ने वाली पत्नी के कर्म भिन्न-भिन्न है , नलिए उन्हें गति भी भिन्न-भिन्न मिलेगी। कदाचित् दोनो को एक ही गति मिल भी जाय, फिर भी दोनो का एक ही राष्ट्र, प्रान्न, नगर १ किमी किमी प्रति मे 'कहीए' है, उगका अर्थ होता है- 'कहीं भी' । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्ची परमात्म-प्रीति या ग्राम में, तथा एक ही परिवार मे अथवा सममस्कारी कुल या जाति मे जन्म पाना अत्यन्त कठिन है । पतिमिलन के लिए स्वदाहक्रिया : भ्रान्तिपूर्ण इसीलिए अध्यात्मयोगी श्रीआनन्दघनजी का स्पप्ट कथन है कि ऐसी पतिमिलन की मान्यता भ्रमपूर्ण है । यह एक प्रकार की आत्म हत्या है, इस प्रीतिसम्बन्ध की दृढता का मूल वैषयिक आकाक्षा है, जो जैनदृष्टि से निदान ( नियाणा ) है | तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो इस स्वदाहक्रिया के पीछे आत्मदृष्टि की सर्वथा विस्मृति, गति - आगति के कारणो व कर्म के अचल सिद्धान्त का अज्ञान, विश्व-व्यवस्था की अल्पज्ञता तथा प्राय आवेश और अभिमान के पोषण की दृष्टि से एक प्रकार का आत्महनन प्रतीत होता है । कई व्यक्ति अपनी या अपनी जाति की प्रसिद्धि के लिए भी बहुत धन खर्च करते है, कष्ट सहते हैं और प्राण तक अर्पण कर देते है । इसलिए ऐमे आत्मदाह के पीछे प्रसिद्धि की कामना भी हो सकती है । 3 " ७ T लोकोत्तर दृष्टि से भी काष्ठभक्षणक्रिया से मिलन नहीं काष्ठभक्षण का पहले जो अर्थ किया गया था, वह लौकिक पति-मिलन की दृष्टि मे था, लोकोत्तरपति - परमात्मा मे मिलन की दृष्टि से अर्थ होता हैपरब्रह्म परमात्मा को पति मान कर कई लोग उसे प्राप्त करने हेतु प्रीति के आवेग में आ कर पचाग्नि ताप तपते है, यानी अपने चारो ओर आग से तथा सिर को सूर्य के प्रचण्ड ताप से जला कर अपने सारे शरीर को भस्म कर देते है | किन्तु इस प्रकार मूढतापूर्वक जल कर मरने से भी मुक्ति में विराजित परमात्मा से मिनन सम्भव नही है, क्योकि ऐसा व्यक्ति पता नही मर कर किस गति और योनि मे जायगा ! अत परमात्मा के स्थान (मोक्ष) में उसका मिलाप कदापि सम्भव नही है । 1 , 4 पतिमिलन के ये सब मूढतापूर्ण उपाय देहदमन के सिवाय और कुछ नही हैं । इसी प्रकार परमात्मा के प्रति प्रीति बताने हेतु यदि कोई व्यक्ति मूढतावण देहदमन करता है, तो उसे भी परमात्मारूपी पति प्राप्त नही होता, क्योंकि ऐसे अज्ञानक्रप्ट से शुभभावना हो तो कदाचित् स्वर्गादि भले ही प्राप्त हो जाय, परन्तु परमात्ममिलन या मुक्तिमिलन अथवा निश्चयनय की भाषा गे कहे तो शुद्धात्मभाव मिलन कदापि नही हो सकता । कारण स्पष्ट है कि इसके Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन पीछे केवल भ्रान्तिरण देहागणी पिया है, आमम गपूर्वक गुन्द्र पामस्वरूप में रमणना और पाक्षारित त्याग नहीं है। बल्कि या. यानी परमात्ममिलन के लिए भी एन प्रकार के अनतापवंग आरमदानमय तीन आतं-रीद्र ध्यान होने मे नरक और नियंगति की प्रान होने की मी मम्भावना है। इस प्रकार जन्ममरण के चक्कर में कमाने बानी गृटनापूर्ण वा श्री वा दिग्दर्शन कग कर श्रीआनन्दघनजी इसके सम्बन्ध में विशेष पाटीकरण करते हैं कोई पतिरजन अतिघणो तप करे रे, पतिरजन तन-ताप । ए पतिरंजन मे नवि चित्त धयु रे रजन धातुमेलाप ऋषम०॥४॥ अर्थ कई व्यक्ति पति (परमात्मा=नाय) को प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त कठोर तप करते हैं। इस प्रकार का पतिरंजन शरीर को तपाना-कष्ट देना है। मैंने अपने चित्त में इस प्रकार के पतिरंजन (परमात्मा को गश करने के तरीके) को स्थान नहीं दिया। मैं एक धातु से दूसरो धातु के मना (एकमेक हो जाने से होने वाले रंजन को ही परमात्मारूपी पति का रजन मानता है। भाप्य पतिग्जन के लिए मूढतापूर्ण तप परमात्मा की प्रीति-मम्पादन के इच्छुक व्यक्तियो द्वारा परमात्मापी पति को रजन करने के नाना उगायो को बना कर धीआनन्दपनजी अपना निर्णय स्पष्टरूप गे बताते हुए कहते है-जैगे मागारिक जीवन में विविध प्रकार के काम-भोगो की अभिलापिणी स्त्रिया आने पति को युग करने में लिए अनेक प्रकार के तप करती हैं , कई अपने सुहाग को अमर रखने के लिए महीने-महीने तक उपवाग, एकाशन, या चन्द्रायण आदि जनेक कष्टदायक नप करती हैं, सौभाग्यसूचक चिह्न धारण करती है, कई बार रानि-जागरण करती है, भगवान् को मनाने हेतु रात-दिन नाम-जप करती हैं, पति के खानेपीने से पहले म्यय नही माती-पीती , इत्यादि अनेक कष्ट मह कर वे देदमन करती हैं। चंगे ही ई तयााधित गावु-गन्यागी अथवा भत्ता - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्ची परमात्म-प्रीति परमात्मारूपी पति को रिझाने के लिए ६ जगल. मे, गुफाओ मे व एकान्त मे रहते हैं, परमात्मा व आत्मा का स्वरूप समझे बिना. ही कर्त्तव्यविमुख हो कर रात-रातभर जाग कर, जोर-जोर से धुन बोलते हैं, नाम रटते है, कदमूल, फल आदि खा कर निर्वाह करते है , कई पचाग्नि-ताप सहते हैं, कई औघे लटक कर शीर्षासन की तरह उलटे खडे रहते है, कई गीत ऋतु मे ठडे पानी मे घटो खडे रह कर परब्रह्म का जाप करते है, कई महीनो भूखे रहते है या किसी एक चीज पर रहते हैं, कई महीनो तक खडे रहते है, कई एका टांग ऊँची करके खडे रहते हैं, कोई विविध आसन करते हैं । इससे भी आगे वढकर देहदमन के अनेक उपाय परब्रह्म-पति को रजन करने के लिए विवेकविकल लोगो द्वारा अजमाये जाते है जैसे कई लोग भैरवजप का आलबन लेकर पहाड या ऊँचे स्थल मे गिर कर झपापात करते है, कोई हिमालय मे जा कर वर्फ में गल जाते हैं, कोई काणी मे करवत से अपने शरीर को चिरवा देते हैं, कोई जमीन मे मिट्टी में शरीर को दववा कर जीवितसमाधि ले लेते है । ये और इस प्रकार के अन्य देहदमन के उपाय वाल (अज्ञान) तप है और इनके फलस्वरूप ये वालमरण के ही प्रकार हैं। परमात्म-पति का वास्तविक रजन इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने ऐसे तपो को तप नही, तनताप (शरीर को तपाना-कप्ट देना) कहा है। और इस प्रकार पतिरजन के तमाम उपायो को उन्होंने मन से भी नही चाहा, न स्वीकार किया। मतलब यह है कि देहदमन से होने वाले अज्ञानयुक्त निरुद्देश्य वाह्य तप मे और आत्मा की शुद्ध दशा में रमण करने के हेतु होने वाले तप मे बहुत अन्तर है। आत्मशुद्धि (निर्जरी) के हेतु सिवाय इस प्रकार का अज्ञानपूर्वक किया जाने वाला कष्टसहनरूप तप लौकिक पति का रजन कर सकता है, मगर लोकोत्तर पति (परमात्मदेव) का रजन तो मोने और चादी के मिलाप, या मोने के साथ सोने के मिलाप (धातुमिलाप) की तरह एकमेक हो जाने अर्थात् आत्मा के शुद्ध आत्मस्वभाव मे तल्लीन हो जाने से हो सकता है। प्रेम करने वाला १ . रा सम्बन्ध में विशेपं जानकारी के लिए देखिये उववाई मूत्र मे वाल तपस्वियो का वर्णन। .. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन और प्रेमपान दोनों में अभिन्नना, कवावयना या नद्र पना हो जाना दी वाग्नविक लोकोतर पनिरगन है। लोकोत्तर पतिरंजन में सोग्य तप उपयुक गाथा में शुद्धचेतना रा परमात्मचेतना रे गार गाय जाने को ही वास्तविक पनिरजन रहा है, जो गुद्धचेतना की जाटमा नी भावना है, परन्तु इमरे दौरान जो भी वाय या नाभ्यन्तर नप तोगा, यह लक्ष्य की दिशा में ले जाने वाला होगा , जैसे नोना, चादी आदि दी धातुको को एकमेक करने के लिए उसे कदाचिन् ५०० डिग्री नन का नाप देना पड़ना है, वैसे ही परमात्मा के साथ आत्मा स मिलन गारने के लिए मन, बनन, काया की इतनी उत्कट तीन दमा, स्वाभाविक रूप में भूख, प्यास, गर्दी, गर्मी आदि को ममभाव से नहने के रूप में बाह्य तप, तथा अस्मिादि अनगालन के रूप मे ध्यान, कायोत्सर्ग, वयाबृत्य, स्वाध्याय, प्रायश्चित्त , विनय आदि आभ्यन्तर तप करने पड नकते है । लेकिन उन तप को हम चल देताप नहीं कहेंगे , क्योकि वह उत्कृष्ट रमायनपूर्वक आत्मा की परमविणुद्धदमा की प्राप्ति के लिए स्वाभाविक रूप मे होने वाना मोद्देश्य नग है। मासारिका प्रेम को पतिरजन के विषय में निरर्थक बताने के बाद कई व्यक्ति किमी में प्रेम करना या प्रेम प्राप्त करना बिलकुल नहीं चाहते, यह मान्यता भी भ्रान्तिमूलक है, उसे बनाने के लिए आगे की गाथा मे श्रीआनन्दघनजी कहते है कोई कहे लीला रे अलख-अलख तणीरे, लख पूरे मन आस । दोषरहित ने लीला नवि घटे रे, लीला दोष-विलास ॥ ऋषभ०॥॥ ___ अर्थ कोई (वैदिक आदि सम्प्रदाय वाले) कहते हैं कि ईश्वर (परमात्मा) तो लक्ष (जिसके स्वरूप को जानकारी या पहिचान न हो सके, ऐसा) है, इस रे दृश्यमान जगत् को अदृश्यल्प रचना, उसी ईश्वर की लीला है। अत इस ला को जान लेने पर वह अलक्ष ईश्वर मन की सभी माशाएँ पूर्ण कर देता । परन्तु योगीश्वर आनन्दघनजी कहते है कि परमात्मा (बाह्यचक्षुओ से Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्ची परमात्म-प्रीति अलक्ष्य निरजन निराकार जरूर है, मगर वह) तो समस्त पापदोषो से रहित होता है, उसके ऐसी लीला संगत नहीं होती ; क्योकि जगत् की रचनारूपी लोला तो काम-क्रोधादि दोषरूप विलास है। भाष्य परमात्मप्रीति का अज्ञानजनित प्रकार परमात्मा के माथ प्रीति करने का एक अन्य प्रकार मामारिक लोगो द्वारा अपनाया जाता है, जिसका उल्लेख करते हुए आनन्दघनजी कहते हैं--कई लोगो की मान्यता है कि यो व्यर्थ ही तप करके देहदमन करने की या परमात्मपति को रिझाने के लिए जल मरने की आवश्यकता नही ; क्योकि परमात्मा तो अलध्य (अने य-अदृश्य) है , उस विदेह (देहरहित) के साथ हम सदेह का मिलन यो हो नहीं सकता , इमलिए उम अलक्ष परमात्मा की जो लीला (ससार की रचना) है, उसे लक्ष्य में ले लो, यानी उस ईश्वर-लीला को साक्षात् देख लो, और उसकी महिमा का इस रूप में गुणगान करते रहो। निष्कर्ष यह है कि ईश्वर ही हमारे विचारो, भावो और कार्यों का नियता है, उसकी इच्छा पर ही हमारे जीवन का सारा दारोमदार है, इस बात को मान कर उस पर ही मव कुछ छोड दो, हमे कुछ करने-धरने की जरुरत नही, न तप करना है, न कप्ट सहना है, न आत्मम्वरूप मे रमण के लिए ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय आदि करना है, वही प्रमन्न हो कर मव कुछ कर देगा । उसकी इम लीला को देख कर उमी के गुणगान में मस्त रहने से वह प्रमन्न होगा, और हमारे मनोरथ पूर्ण कर देगा। परन्तु यह मान्यता प्रान्तियुक्त है, आत्मा की स्वतन्त्रता को नष्ट करने वाली और स्वपुरुषार्थविघातक हे, स्वरूपरमणता मे विघ्नकारक है, जान-दर्शन-चारित्र की आराधना से आत्मा को हटाने वाली है। । निर्दोष परमात्मा के लिये सदोष लीला सगत नहीं उपर्युक्त मान्यता का खण्डन करते हुए वे कहते है-"जो परमात्मा राग, द्वेष, काम, क्रोध, अन्याय, पक्षपान आदि दोपी से बिलकुल मुक्त है, वीतराग है, अनन्त जान-दर्शन-चारित्र-मुखमय है, उसमे कामनाजनित इच्छा में सम्पृक्त दोपयुक्त नमार की रचनास्प लीला कैसे मम्भव हो सकती है ? संसार के विकारों एवं दोपो-कर्मों आदि मे सर्वथा मुक्त निरजन निगकार होने पर परमात्मा पुन कामना आदि दोपी गे युक्त हो नार उग राग-द्वेगयुक्त समार की Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्गन रचना को अपनी लीला मी दिगारंग गोकि नीरा उनि महोती है, जो ज्ञान एव गुग की परिपूर्णता मे ही गमय । मागीलोरा प्रत्यक्ष दोपयुक्त ही है । परमात्मा जन्म-गरण ह नर में ना पानी पी दोपयक्त प्रवृत्ति मे यो पढेंगे ? अलक्ष्य परमात्मा के लक्ष्यनमको साप प्रोनि उक्त मान्यता बालो का मन है-म मानते है कि परमात्मा को बिनमुन अन्नध्य-अदृश्य, अव्यक्त हैं , गनुप्प की बुद्धि में पर-जगम्य है। पंग परदा का ध्यान करने के लिए भी कई योगी बाग अनय (अनन्त्र की ध्वनि परी) जगाते हैं। अत ऐने अनदय गे गे लक्ष्यम्बका अवतरित होना, होता है। भक्तिमार्गी लोगो ने ऐसे अन्नक्ष्य को ब्रह्मा, विष्णु और महं. इन नीला लक्ष्यस्पो मे वल्पित किया है, यानी उनका कहना है कि ब्रह्मा सृष्टि का उत्पादन करता है, विष्णु उसका भरक्षण करता है और महेश (शिव) उसका महार करता है। रे तीनो परब्रह्म परमात्मा के लक्ष्यरूप है। अनदयमा परमात्मा के इन लक्ष्यम्पों की जव इच्छा होगी, तभी नथ्य के गार हमारी गच्ची मीनि होगी। उन्ही की इच्छा बन्नवान है । परमात्मा गये लक्ष्यस्प ही हमारी आगाओ को पूर्ण करेंगे। इसलिए कुछ करने की जरूरत नहीं। जब ये नया गगवान् तुष्ट होंगे, नभी परमात्मप्रीति प्राप्त होगी। यही पारण कि भक्तिमार्गीय लोगो ने इन लक्ष्यरूप भगवानो को परमात्मा के अवतार, पैगम्बर, चा ममीहा (प्रभुपुत्र) मान कर उन्हें प्रसन्न करने करने के लिए कीर्तन, धुन, नामोच्चारण आदि विधियाँ प्रचलिन की । उनको रिझाने के लिए नृत्य-गीत, वाद्य आदि का आयोजन किया ; परन्तु यह गव भ्रान्ति है, क्योंकि इसके पीछे मवम वढा अज्ञान तो कर्म-सिद्धान्त का है। प्राणी जमा-जमा कर्म करता है, वैस-वैसा ही फल उसे स्वय को मिलता है। पुद के मिवाय दूनग कोई उसके शुभ या अशुभ कर्म को वदलने और अच्छा या बुग फल देने मे समर्थ नहीं है । दूसरी मूल यह है कि जीवन मे हिमा, अगत्य आदि का त्याग या परभावी में रमणता का त्याग किये विना तथा स्वभाव मे तथा हिना आदि आत्मिक गुणो मे रमण किये विना अथवा कर्तव्यकर्म छोड़ पर सिर्फ परमात्मा या उनके लक्ष्यरूप अवतागे के गुणगान करने आदि मे परमात्मा की प्रीति या प्रगन्नना गम्पादन करने की बात व्यर्थ चेष्टा है, वालचेप्टा है। क्या Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्ची परमात्म-प्रीति परमात्मा चाटुताप्रिय है कि उसकी चापलूसी करने से वह उनके पाप माफ कर देगा? परमात्मा के प्रति प्रीति इतनी सस्ती नही है । उसमे तो दो धातुओ के एकरूप होने की तरह अपने अह आदि विकारो को मिटा कर गुद्ध आत्मदशा के प्रति सर्वस्व समर्पण करना पड़ता है। अगर जान-दर्शन-चारित्र मे पुरुषार्थ किये विना केवल ऐसे थोये गुणगानो से ही परमात्मा प्रसन्न हो जाता तव - तो, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करने की जरूरत ही क्या रहती ? अथवा स्वभाव मे रमणता की आवश्यकता भी क्यो होती ? इसीलिए अगली' गाथा 'मे परमात्मप्रीति या परमात्मभक्ति का रहस्य बताते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते है'चित्तप्रसन्ले रे पूजनफल कारे, पूजा 'अखडित एह। कपटरहित थई आतम-अर्पणा रे, आनन्दघन-पद-रेह ।। ऋषभ० ॥६॥ अर्थ आत्मचेतना-अन्तरात्मा की प्रसन्नता को ही परमात्मपूजा का फल कहा है। यही वास्तव मे अखण्डपूजा है। और ऐसी अखण्ड परमात्मपूजा निष्कपट या निःशल्य अथवा कषायरहित हो कर अपनी आत्मा को परमात्मा मे अर्पण कर देने से होती है । यही स्वात्म-अर्पणता आनन्दधन (सच्चिदानन्दमय परमात्मा के) पद (स्थान) की रेखा या मर्यादा है, अथवा निशानी है।' ' भाष्य परमात्मा की पूजा का फल • चित्तप्रसन्नता पूर्वोक्त गाथाओ मे परमात्मारूपी' पति को प्रमन्न करने के विविध अज्ञानमूलक उपायो को श्रीआनन्दधनजी ने भ्रान्त' ठहरा कर परमात्मा के साथ धातुमिलाप की तरह एकरूपता (तदात्मता) को उनकी प्रसन्नता का कारण बताया , अव इस गाथा मे उसकी विशेपता एव फलप्राप्ति की निशानी वताते हुए वे कहते है कि आत्मचेतना की प्रसन्नता ही परमात्मपूजा का फल है। आत्मचेतना की प्रसन्नता द्वैत, कपाय, परभाव, विकल्प या शल्य आदि 'विकारो से रहित हो कर परमात्मा के साथ अन्तरात्मा की एकरपता से होती है। एकरूपता निर्विकारता -स्वच्छता व निर्विकल्पता रखने में होती है। यही अविच्छिन्न-अखण्डपूजा है। जव अन्तरात्मा परभावो मे विरत हो कर सतत Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अध्यात्म-दर्शन परमात्मतत्त्व या शुद्ध ननन्यभाव में लीन हो जाती है, जो अगगुरगनना पी धाग में बहती रहती है, वही परमानगागी विभिदा नापा अर्थ स्वच्छ या निर्मन भी होता है। जैतन्य (Frm) मी निग, गाना है, जब उग पर विना पो, परभावो, नपायी या गागा-fere-imया नग गल्यो की छाया न पटे, या नगे गलिन नी। निकपट अपंणता : परमात्मा की वास्तविक पूगा परमात्मा की भावपूजा ही चाग्नविक पूजा है। पयोगि उनी में पुग्य, पूजक और पूजा का अभेद या एकत्व अविन्दिामए मेर गाना। तभी परमात्मा के गाय तन्मयता या नदात्मता को गाती । और योगी TATTI ' लिए निप्पट अपंणता होनी अनिवार्य हैं। जहां पट आजि लगना में द्वैतभान, म्वायभान या मायादि शल्य या मोहगात आगरा. गमानी । जहाँ अर्पणता मे दम, दिखावा, या छल-प्रपन आ जाता है, वहां अपंगा पाग्नथित नहीं होनी, और न वहाँ मान्मा में आनन्द उत्पन होगा। कई वार वहुत-से लोग परमात्मा की भक्ति का दिखावा करते हैं। बड़े-बरे समारोह करके वे परमात्मा की पूजा यो अदितता बनाने के लिए अगं मीनंग, अखण्ड जप आदि करते है, परन्तु उगनाय गच्चे गाने में अपना नहीं होती, या तो प्रसिद्धि या नामना-सामना होती है या लोकर जन पर परमात्मभत्ति, प्रभपूजा या अखट प्रभुनामकीर्तन की ओट में अपनी विगी म्वार्थसिद्धि यीभावना होती है । अत किसी प्रकार के दम, छनप्रपच, मायाजाल या दिखावे आदि में दूर रह कर निष्काम-नि स्वार्थभाव मे शुद्ध चेतना का परमात्म-चेनना में अर्पिन हो जाना - तल्लीन हो जाना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है। मच्चा गमर्पण 'अप्पाण वोमिरामि' - यानी अपने आत्मतत्त्व से भिन्न परभाव-जिनको अभी तक साधक अपने मानना आया है, उनका व्युमर्ग--अन्न करण ने त्याग करने पर ही आता है। समर्पण मन को मनाने या लौकिक चातुर्य वताने का नाम नहीं है, क्योकि ऐसा करने में महजभाव नहीं रहता । उममे तो परमात्मा (आदर्श युद्धात्मदशा) के लिए सर्वस्व न्योछावर करने, अपने आपको भूल जाने और तद्रूप दृप्टि, तन्मयता, और तदात्मना प्राप्त करने की तडफन चाहिए । ऐमे समर्पणकर्ता को बहिरात्मदशा मे सदा-गर्वदा के लिए गर्वथा मुक्त हो कर Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्ची परमात्म-प्रीति १५ अन्तरात्मदशा में ही सतन विचरण करना पडता है । साथ ही वाह्यभाव का विसर्जन, बुद्धि-विलास पर अकुश, परभाव के त्याग के साथ शुद्धचेतना के पति विशुद्ध परम आत्मा के साथ इतनी एकलयता हो जाय कि ध्याना, ध्येय और ध्यान एक हो जाय, ऐसा आत्मार्पण हो जाना ही वास्तविक परमात्म-प्रीति है । और अध्यात्मयोगी का लक्ष्य सदा इमी प्रीति का साक्षात्कार करना होता है। आनन्दघन-पद का अर्थ आनन्दघन का अर्थ है - सच्चिदानन्दमय । सच्चा और ठोस आनन्द आत्मा को तभी प्राप्त होता है, जब वह विकल्पो, वितर्को, विकारो, पोदगलिक भावो या कपायादि परभावो से शून्य हो । आनन्दघनशब्द का शब्द अर्थ भी (मिद्ध शुद्ध, बुद्ध, मुक्त) आत्मा के आनन्द का समूह भी होता है । गणितशास्त्र मे लवाई, चौडाई और ऊँचाई, इन तीनो के समूह को घन कहते हैं । यहाँ भी आनन्द यानी आत्मा की निर्विकारी दशा और धन यानी उसकी विपुलता, ठोसपन, दोनो मिलकर आनन्दघनपद होना है । रेह शब्द की विभित्र अर्थों के साथ सर्गात H रेह शब्द का अर्थ 'रहना' भी होता है। जिसका अर्थ होता है - 'आनन्दवनमय परमात्मा के स्थान मे रहना ।' अधिकाश विचारको ने इसका अर्थ 'रेखा' किया है । रेखा का अर्थ वह चामत्कारिक मर्यादा है, जिसका उल्लघन नही किया जा सकता । कपटरहित हो कर आत्मसमर्पण करना ही आनन्दघनपद की मर्यादा (रेखा) है । रेखा का अर्थ कई लोग निशानी (चिह्न) भी करते हैं । वे यो अर्थसगति बिठाते हैं कि निष्कपट आत्मार्पणा ही आनन्द घन-पद-प्राप्ति की निशानी है । कई प्रतियों में रेह के बदले 'लेह' शब्द भी मिलता है । जिमका अर्थ किया जाता हूँ--ऐमा निर्व्याज आत्मार्पण ही आनन्दघनपद को उपलब्ध करना है । सारांश श्री आनन्दघनजी ने प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव परमात्मा की स्तुति करते हुए परमात्म-प्रीति का समस्त तत्वज्ञान इसमें बता दिया है । प्रीति के Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याना-दर्शन लिए यथार्य नीति-गाज की परिनान, निगमाया प्रीमिय और गोवा प्रीनि, नीतिप्रीति ग पनि गन मे नि बागा, मान चिषित गष्ट-राहन आदि को नपर बना र नर पतिजन fan जीन का रहस्य, तत्पश्चात अशा प्रभु नी पोनि में विग्ना तो गार हत्यमान ली गीशि गिद्ध करने वालो की अजना बना कर गन्नी प्रोनि के लिए चेतना की मा और निपट आन्मापणना की अनिवागना बनाई गनगन, परमायाप्रीति का रहस्योद्घाटन करने में योगी धीमायाजी मार कर दिवाया है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. श्री.अजितनाथ-स्तुति, परमात्मपथ का दर्शन (तर्ज-पूर्ववत्) परमात्मा से प्रीति के सम्बन्ध मे पूर्व स्तुति मे बहुत ही स्पष्टरूप मे योगी श्रीआनन्दघनजी ने कह दिया कि निष्कपट हो कर आत्म-समर्पण करने से ही परमात्मप्रीति हो सकती है , परन्तु उक्त परमात्मप्रीति या परमात्मप्राप्ति का मार्ग जव तक वास्तविक रूप से जान लिया न जाय, तव तक परमात्मभक्ति अधभक्ति रहेगी , इसलिए अव इस स्तुति मे परमात्मप्राप्ति के मार्ग का दर्शन (निर्णय) करने की दृष्टि से वे कहते है‘पथडो निहालु रे बीजा जिन तणो रे, अजित अजित-गुणधाम । "जे तें जीत्या रे, तेणे हूँ जीतियो रे, पुरुष किस्यु मुझ नाम ॥ पथड़ो० ॥१॥ अर्थ मैं द्वितीय वीतराग परमात्मा श्रीअजितनाथ भगवान् का (उनके पास पहुंचने का) मार्ग अत्यन्त बारीकी से देख रहा हूँ। अजितनाथ परमात्मा मुझ सरीखे व्यक्तियो द्वारा नहीं जीते (साधे) गए सद्गुणो के धाम है। उन्होने रागद्वषादि शत्रुओ को जीत कर जिस मार्ग से कार्य सिद्ध किया था, उस मार्ग को देखते हुए मैं उन्हें कहता हूँ-मेरे परमात्मदेव । जिनको आपने जीत लिया था, उन्होंने आपसे पराजित हो कर अब मुझे जीत लिया है। दूसरो के द्वारा । विजित (पराजित) हो कर भी मेरा नाम पुरुष (पौरुषवान आत्मा) कैसे ठीक हो सकता है ? अत फिलहाल तो आप जिस मार्ग से गये हैं, उस समस्त पथ का अवलोकन करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। । भाष्य ___ परमात्मपथ का निरीक्षण क्यो, कैसे ? परमात्मा (विशुद्ध आत्मा) के साथ प्रीति करने वाले अन्तरात्मा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यान्म-दर्शन के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि परमात्मा गधाम तक गमनक लिए परमात्मा जिन मार्ग से गए है और अपने धाम नर पर हैं, उन मार्ग को पहले भन्नीमानि देश ले, अन्नर में उन पर पायगाना ली दृष्टि से वीतरागभाव अथवा गुदात्मभाष गा पापर अनारामा म परमात्मपथ का दर्शन करने के लिए, पूर्णतगा जन्नुस। जगत् में मिन-भिन धर्मों और पा, मन-मनालगे ममन्द पुरय परमात्म-प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग बनाने ह । नकार गिनानु मारक वाम्नविक मार्ग को छोड कर एक या दूग माग का पता , मान कर जब उद्देश्य से बिन्द्र उमगे नतीन नामन जाते हैं या पीनगाजिक बदले गग, १ प और मोह को भूल नल्या नजर आनी गागिन समय होता है नो माश्रत पश्चात्ताप या Tई बार मानध्यान में जाता ! वार माधब गजगी बुद्धि पी दोर लगा पर कालि द्वारा अपन, नानु प्रगट करके उन] मार्ग (उत्पथ) पर चट गता है, फिर पत्रराता है, उनमें पिंड छुडाने के लिए छपटाता है और मोहनीयानं को प्रवनना कारण वीतराग परमात्मा द्वारा अन्यन्त या प्रापित गन्यग्दर्शन-जान नन्दिप (मोक्ष) मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाता । मान्दिया बुद्धि मीर हृदय पानमा नय करके चलने के बजाय वह केवन बुद्धि पर भरोमा म पर चलता है तिर पतन से मार्ग पर चट जाना है, या ठोकर खा जाता है ! तीनरी वान भक्तिरस की दृष्टि में यह है कि जने प्रेमी या विरहिणी स्त्री अपने पति के आने की बाट जोहती रहती है, इसी प्रकार परमात्मा के माय मच्ची प्रीति करने वाला परमात्मप्रेमी नाधक भी परमात्मा में (उनके स्वधाम में पहुंच जाने के वारण) विरह हो जाने से जन्तरात्मा में उनके पधाने (शुद्ध आन्मभाव के आने) की बाट जोहता= प्रतीक्षा करता रहता। इन सब दृप्टियो ने विशुद्ध आत्मभाव का पथिक साधक नर्वप्रथम पन्मात्मा के उस विशुद्ध और वास्तविक मार्ग को देखने-नानने और भलीभांति हदयगम परने के लिए आतुर-उत्सुक है। वह परमात्म-पथ के दर्शन-चारीकी में अवलो वन, वन्ने, वृद्धि और हदय मे निरीक्षण-परीक्षण गन्ने के लिए नन्न हो कर खडा है । बह जागृत हो कर जन्तरहृदय ने पुकार उठना है-'पथटो निहालु रे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपथ का दर्शन बोजा जिनतपो रे नाथ भगवान् वा मार्ग नीहार रहा हूँ । देखना नही है, अपितु जगत् में प्रचलित 'मैं दूसरे तीर्थकर वीतराग परमात्मरूप श्रीअजितनीहारने का अर्थ सामान्यरूप से ही अनेकविध परमात्मपथो का विश्लेषण करते हुए अन्तर मे डुबकी लगा कर यथार्थ परमात्मपथ को देख जान-विचारसमझ कर हटता से निर्णय करके उनमें तन्मय हो जाना है । इसमें निरीक्षण करने के साथ-साथ उस पथ को अन्तर में उतारने और तदनुनार गति - प्रगति करने का माग हृदय में निर्धारित करने की बात भी गतार्थ है । १६ परमात्मप्राप्ति का मार्ग हे गुट आत्मभाव-प्राप्ति का मार्ग कह या मोक्ष कहे, बात एक ही है। इसलिए केवल जान देना (ज्ञान) ही परमात्मप्राप्ति का मार्ग नही है, दर्शन (हृदय से श्रद्धापूर्वक धारण करना) और चारित्र ( तदनुसार आचरण करना) भी मार्ग है । निष्कर्ष यह है कि भौतिकता की चकाचौध में साधक की दृष्टि आध्यात्मिकता के मार्ग से हट जाती है, वह अपनी नजर भौतिकता में गडा लेता है, इसीलिए अध्यात्मयोगी साधक आध्यात्मिकता की मजिल, अध्यात्म के चरमशिखररूप परमात्मा के समीप जाने के लिए आध्यात्मिकता के मार्ग में अपनी दृष्टि स्थिर करना चाहता है । राग, द्वेष आदि अनेक चोर, 4 शत्रु विजेता परमात्मा के मार्ग मे शत्रुओ मे विजित साधक के अन्तर की पुकार जब परमात्ममाग का पथिक साधक अन्तर मे डुबकी लगा कर परमात्मा के मार्ग का अवलोकन करता है तो उसके अन्तर से पुकार उठती है - 'हे - अजितनाथ ( रागद्वेषादि शत्रुओ से अविजित ) परमात्मन् | आपके पास पहुचने के मार्ग मे तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, , डाकू, लुटेरे, शत्रु के रूप मे आत्मधन का हरण करने के लिए खडे हैं, आपने तो उन सबको जीत लिया है, इसलिए आपका 'अजित' नाम तो सार्थक है, परन्तु वे कामादि शत्रु,, जिन्हें आपने जीत लिया था, वे अब मुझे जीत रहे हैं, या पराजित कर देते है, में जब आपके द्वारा प्ररूपित या अभ्यस्त मार्ग को देख कर चलने के लिए तत्पर होता हूँ तो अनेक शत्रु आ कर उस रास्ते मे खडे हो जाते है । मैं उन सबने हार कर घबरा जाता है । अपनी पुरुषार्थहीनता पर मुझे तरन आती हैं, मैं मोचने लगता हूँ, जब आप पुरुष हो कर वीतरागता Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ চান-টান के मार्ग में बाधा उन ५ मारह दृपो पर नियमनकारा द्वारा विजित (पगजिन) न हो र जनन गुणा यस मुन्य अ पार बन गर अपने नाम को मार्च को है. जयनित मैं सामादिन हो कर उनके गगे घुटने टेर देता है , नवना मन T' नगरी नाम हो सकता है भागमो में नया गान्व-दर्शन में समा मेरा गया है। आत्मा पोन्ययुक्त होने के पुरम २ लान ! TATE अपनी शक्ति को न पहिचान कर विभागे रे मनानामत गना, गादि दूपणो का गुलाम बन जाना है, पीरपटीन व निराम बन बरामद आगे पराजित हो गता है, तब वह परमात्मा के आग पुनार का है.-- 'पुरुष फिस्य मज्ञ नाम । मेग पुप नाम यदा में पॉम्यवान होरर जव विकारो मे अपनी पराजय देखता है, न मुझे रोमा नगता है कि मेरे लिए पुरुप शब्द शोभा नहीं देना । यद्यपि पुरष होते हुए भी मेरी दशा पुरपार्थहीन हो ही है, फिर भी आपने जिन मार्ग का पुग्पार्य किया, उस मार्ग के दान तोर गन्ना देखा होगा तो किसी दिन म गन्ने से जाने का दावा भी हो नरेगा। इनलिए प्रभो । मैं आपके पथ का अवलोकन करने को उद्यन हुआ, और प्राथमिक अवलोकन मे मुझे जो कुछ मालूम हुआ, उमे मैं आपके नामने विनम भाव से प्रस्तुत करता हूँ। __ जैनदर्शन की दृष्टि मे देखें तो काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुम्पार्थ इन पाचो कारणो का समवाय होने पर ही कोई कार्य बनता है। परन्तु इन पाचो कारणो मे पुम्पार्थ को भी विकाममार्ग में स्थान दिया गया है । वास्तव में देखा जाय तो शुभ या अशुभ कर्मों का बन्धन भी आत्मा के वैभाविक , १ अठारह दोष ये है-दानान्तराच, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्त राय, वीर्यान्तराय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, काम, (वेदोदय) अज्ञान, मिथ्यात्व, निद्रा, अविरति, राग और द्वेप। २ 'पुरिमा तुममेव तुम मित्त , पुरिसा अत्ताणमव ममभिजाणह , आचारागसूत्र Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपथ का दर्शन पुरुषार्थ ने होता है । आत्मा जब तीव्र स्वाभाविक पुरुषार्थ करता है, तब इन.. कर्मो पर विजय प्राप्त करके अपने लिए अजर-अमर-अक्षय स्थान, भी प्राप्त कर लेता है। इनी कारण आत्मा पुरुष (युम्पार्थ करने वाला) कहलाता है। वीतराग परमात्मा (अजितनाथ) से चैतन्यमम्पन्न साधक कहता है-आप. तो स्वाभाविक परम पुस्पार्थ करके कर्मों पर विजय पा कर परमपुल्प कहलाए । लेकिन मेरी स्थिति देखते हुए मुझे लगता है कि मेरे लिए पुरुष नाम सार्थक नहीं है। चू नि मैंने वीतराग परमात्मा के आदर्ण को तथा उनको प्रियतम केन ने स्वीकार किया है, नव मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं आपका मार्ग देख कर आपके मार्ग पर आ जाऊँ। जो वीतराग परमात्मा के पैरो तले हैं, उन्हें मैंने सिर पर चढा लिये है , अत आपके सहश बनने का खरा मार्ग यही है कि वीतराग जिन मार्ग मे चले है, उस रास्ते को देखू और उनके पथ का अनुमरण करूँ। इसी प्रकार करने पर मेरा 'पुरुष' नाम सार्थक होगा। इसी दृप्टि ने अन्तरान्मा ने वीतराग परमात्मा (अजितनाथ) के मार्ग के अवलोकन करने का निर्णय किया। ___ यहाँ अवलोकन मे केवल जिनामातृप्ति ही नहीं, अपने पुरपार्थ को अवकाश देने की भी तीव्र इच्छा प्रतीत होती है । इसीलिए अन्तरात्मा वीतराग परमात्मा के आदर्श मार्ग के दर्शन के लिए मुसज्ज होता है , वहाँ कैने-कैसे अनुभव होते हैं, वह स्वय प्रकट करता है ___ मार्ग-अवलोकन में पहली कठिनाई चरमनपरणे करी मारग जोवतां रे, भूल्यो सयल संसार । जेरणे नयरणे करी मारग जोइए रे, नयण ते दिव्य-विचार ॥पंथड़ो॥२॥ . . . अर्थ चमड़े को आँखो मे आपका (बीतराग परमात्मा का) नार्ग देखते हुए तो, सारा ससार भ्रान्त हो गया है ।- अजितनाय परमात्मा जिस मार्ग ने 'अजित' (अजेय) बने हैं, उस मार्ग को जिस नेत्र से देखना चाहिए, वह दिव्यविचाररूपी नेत्र (ज्ञाननेत्र) है। . . . भाष्य - . चर्मचक्षुयो से वीतरागमार्ग के दर्शन अशक्य हैं . न्यूल आँखो से परमात्मा के मार्ग, का दखने वाले लोग उनके प्रतीक के, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन आगे नाचना गाना बजाना गगा रना उनके मित्र पर नो माग डालना न नयी सी भेंट नाना उनमा-मा माग रचना और इसका प्रचार-प्रसार करना गा रद यादव- माना कि करना, प्रबदा उनी निजय बोल र गन-गभर डाग मा चिन नाम-जीतन वयं का उनके गोरे गुणगान करने में मार ने गायन ने सम्यग्दशन-मान-नन्त्र वियर में कोई ग्राम परमान मात्र बाहा मन को ही नाना मन्चा माग गमग लोग भी वाह्य गगगग की भूलभुलैया मे ही अटक कर जाते हैं । परमाना माग का मार्ग दर्शन नर्ग 7 पाने । दूसरी दृष्टि से देगे लो बनमानयाद पाना र धर्मनारमार, मत, पापा दर्गन मामा के मार्ग को मिर्फ चमरे की न पुन आंत्री ने देखने का प्रयत्न करते है। वे प्रार म्यू ष्टि ही भगवान को वाना क्रियामओ या प्रवृत्तियो अथवा बाह्य व्यवहार व आचरण को देन पर उना मार्ग का निर्णय करते हैं। वे इन स्थूल आयो ने प्राय पही दंगा करने हैं कि हमारे पूजनीय आनध्यदेव गृहम्यावस्या में मे ग्नान करते थे? कैसी गाडी में बैठने थे ? उन्होंने विवाह किया या नहीं किया। उनके माता-पिता, भाई-वहन थे या नहीं? वे कौन थे, क्या थे? ये कैमे वस्त्र पहनने ये दीक्षा ली, तब कैसे ठाठवाठ से ली थी। यहां-यहां विहार किया. पिननी बाता तपन्याएँ की? उनका शिष्य-शिप्यानमुदाय दिनना याशिनने अनुमाची ये? केबलमान होने के बाद वे आहार करते थे या नहीं ? वै दम्य रनुते ये या नग्न रहते थे? वे दिनभर उपदेश आदि वाह्य क्रियाएं पाया करते थे? वे रत्नजटिन स्वर्णमय मिहासन या पट्ट पर बैठने थे या शिलापट्ट पर उनके पास देवता, इन्द्र आदि आते थे या नही ? आते थे तो उन पर छय करने , व नमर ढलाते थे या नहीं? वे अतिशयो ने यक्त थे पानही ? और ऐसी ही वाते चर्मचक्षुओ ने देखी जा सकती है। इस प्रकार चमडे की आंखो में इस स्यूलदर्गन को ही परमात्ममार्ग समझ कर मारा तसार भूला हुपा है । वह परमात्ममार्ग के वास्तविक तत्व या हार्द को नहीं समझ पाता। इसी प्रकार कई भ्यूल दृप्टि वाले लोग गाजा, सुलफा, भाग या शगव आदि नशैली चीजो का सेवन करवे परमात्मा के मार्ग को देखने की चेष्टा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपथ का दर्शन करते है। उनका कहना है कि नशे की धुन मे भगवान् मे सूरत लग जायगी, व्यक्ति अन्य म्यूल सासारिक चिन्ताओ से मुक्त हो जाएगा। परन्तु ये भी भ्राति मे पूर्ण बेतुकी बाते है । नशे में चूर होने पर व्यक्ति अपने आपे मे ही नही रहता, वह परमात्मपथ को कैसे जान पाएगा? __वस्तुत मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण व्यक्ति की दिव्यदृष्टि (स्वभावदृष्टि) पर जब पर्दा पड जाता है, तब वह स्थूल दृष्टि से आबद्ध होने के कारण परमात्मा के सच्चे मार्ग को देख नहीं पाता । वह भ्रातिवश विविध धर्मो . पथो, मतो, सम्प्रदायो या दर्शनो की मृगमरीचिका मे फस जाता है। परमात्मपथ के दर्शन दिव्यनेत्र द्वारा ही सम्भव जिस प्रकार एक गाँव से दूमरे गाँव जाते समय भूतल पर सडक या मार्ग स्थूल आँखो से साफ दिखाई देता है, उस प्रकार का वीतरागमार्ग नहीं है, जो चर्मचक्षुओ से दिखाई दे सके। वह स्यूलमार्ग नही, अतीन्द्रिय मार्ग है , जो दिव्यविचाररूपी नेत्र से ही दिखाई दे सकता है। अर्थात्-पारमार्थिक-विचारणारूपी दिव्यनयन के बिना मस्तक मे स्थित चमडे की आँखो से परमात्मा का यह अतीन्द्रिय मार्ग देखा नहीं जा सकता। परमात्ममार्ग का यथार्थ निर्णय करने मे चर्मचक्षु सफल नहीं हो सकते और न ही विभिन्न मनो, पयो को देख कर उनके विश्लेषणपूर्वक वीतराग के यथार्थ मार्ग को पृथक् करने मे चर्मचक्षु समर्थ हो सकते हैं। स्यूलनेत्र आखिर कितनी दूर तक देख सकते हैं ? अन्त में उनकी भी सीमा है। स्यूलनेत्रो से प्रमाणनय के भगजाल का या अगसत्यपूर्णसत्य का अथवा आत्मा के स्वभाव-विभाव का दर्शन नहीं किया जा सकता। इसी कारण वीतराग परमात्मा के यथार्थ मार्ग का निर्णय दिव्यदिचाररूपी नेत्र-अन्तश्चक्षु से ही हो सकता है । साथ ही परमात्ममार्ग और ससारमार्ग दोनो का सम्यक् विश्लेपण 'करना भी चर्मचक्षुओ के बूते से बाहर है। दिव्यविचारचक्षु का अर्थ है---शुद्ध आत्मा का ज्ञान, गहरा आन्तरिक ज्ञान , वही आन्तरिक नेत्र है । वीतराग परमात्मा के पथ को जानने-समझने और निरखने-परखने मे दीर्घदृष्टि या रहस्यज्ञ चक्षु होनी चाहिए । बाह्य प्रवृत्ति पर से बहुत-सी बातें समझ में नहीं आती। पर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. -এমন मात्ममार्ग को जानने-गमान में पहरी गरीर और भान्मा का गाया, स्यपरभाव, कर्म और आत्मा का नम्बन्ध, वगैत अनेक नाना म न जाने है । इनो लिए वन्न वस चक्षी पर्याप्त नही और लोनर दीपं दृष्टि के लिए गहन अभ्यान जम्नीह, जो जीता मुमान की जमा। यह मेरी पहली कठिनाई। 'चरम शन्द पा जयं 'अन्तिम भी होना है यानी निमri-fifrare नम्पूर्ण जानी वे नेत्र। उनकी अर्थनगति का प्रकार होती --अगरत (पूर्ण) ज्ञानी की दृष्टि में इन नमार मोदन नो नाग मनार विविन अटपटी चक्य नदार गनियो या पगटियो में मूला दृया न जाता है। परमात्ममार्ग के दगंन में दूनगे-तीसरी कठिनाई पन्मात्मपथ के यथाव दर्शन में जिन माप्त नहीं दिव्य विचारनभु (अनीकिा नय) अभी तक मुझे पान नही है। इन ठिनाई को देखते हुए अब मुझे परमात्मपथ के दान के अन्य गावी पर दृष्टिपात कर ना जरूरी है , यह नोच कर भगनी माया न पन्मान्मपथ से दगंन का पिपासु माधक कहना है पुरुष-परम्पर-अनुभव जोवता रे, अधो अंध पलाय । वस्तु विचारे रे जो आगमे करी रे, चरण धरण नहीं ठाय ॥ परडो०॥३॥ अर्थ परमात्ममार्ग से अनभिज्ञ किसी रयातिप्राप्त (प्रनिह) पुरुष के अनुभव अथवा सम्प्रदाय-परम्परा से त्रले याते हुए (मार्ग-विषयक) सदिग्रस्त ज्ञान या पञ्चेन्द्रियो को विषयासक्ति से उत्पन्न पराश्रित बोध को दृष्टि से परमात्ममार्ग को देखने जाएँ तो यहाँ अंघो के दल की तरह एक के पोछे एक अन्धानुसरण ही प्रतीत होता है । निर्दोष आप्तपुरषो के वचनसमूह-रूप आगम को दृष्टि से वस्तुतत्त्व (यथार्थ मार्ग) का विचार करें तो आगमोक्त परमात्ममार्ग और उपर्युक्त पुरुष-परम्परा आदि द्वारा बताये-जाने वाले परमात्ममार्ग मे आकाश-पाताल जितना अन्तर दिखाई देता है, अत आचरण के अन्तर को देखते हुए कहीं पर रखने को जगह नहीं रहती। - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपथ का दर्शन भाष्य पुरुष-परम्परा अनुभव से मार्गनिर्णय सभव नहीं ___उपर्युक्त गाथा मे पुरुप, परम्परा और अनुभव ये तीन पद है । तीनो का आशय भी अलग-अलग प्रतीत होता है । पुल्प-परम्परा ने आशय है, वीतराग मार्ग मे अनभिन किमी प्रसिद्ध पुरुप ने कोई परमात्ममार्ग बनाया, उसके पीछे विना मोचे-समझे अन्धश्रद्धावश चले आते हुए मार्ग के ज्ञान को परमात्ममार्ग: मानना । दूसरे परम्परापद से आशय है.--शास्त्रो मे न लिखी- गई वातो को एक के बाद एक गुरु-शिष्य-परम्परा या सन्प्रदाय-परम्परा द्वारा कुरुढिवश प्रचलित मार्ग को परमात्ममार्ग मानना । तथा अनुभव का आशय हैपचेन्द्रियो मे विषयासक्त पुरुप के अनुभव के द्वारा परमात्ममार्ग का निर्णय करना । यानी अपनी गलत समझ से उत्पन्न हुए अनुभव से परमात्म-मार्ग का निर्णय करना। श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि पूर्वोक्त तीनो उपाय अन्धो की टोली मे एक अन्धे के पीछे दूसरे अन्वे के भागने की तरह है। इनसे वीतराग परमात्मा के असली मार्ग का पता नहीं लगता। , वीतरागमार्ग मे अनभिज्ञ किमी प्रसिद्ध पुरुष ने वीतरागमार्ग के नाम से कोई बात चलाई। उसके पीछे आने वाली भीड उस पर कोई पूर्वापर विचार किये विना अन्धश्रद्धावश उसे यथार्थ परमात्ममार्ग के नाम से पकड लेती हैं। अत ऐसे प्रसिद्ध पुरुप की परम्परा से परमात्ममार्ग का निर्णय करना कोरा, अन्धानुकरण हो जाता है । इसी प्रकार शास्त्र मे कई बाते लिखी नहीं होती , कई बाते पूर्वापरविरुद्ध या वीतरागता के सिद्धान्त से असगत भी मिलती हैं, परन्तु गुरुधारणा या सम्प्रदायं-परम्परा के नाम से वे परमात्म-मार्ग के रूप मे चलाई जाती है, मगर ऐसी स्ढ सम्प्रदायपरम्परा पर से भी परमात्ममार्ग का निर्णय करना खतरे से खाली नहीं है, क्योकि ऐमा करना भी लकीर के फकीर बन कर अन्धाधुन्ध चलना है। ' ' ____ अपना या बहुत-से लोगो का पराश्रित अनुभव भी गलत हो सकता है, इसलिए उम पर से भी परमात्म-मार्ग का निर्णय करना गतानुगतिकता को बढावा देना है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धो 'अत्र पसार ना - कि जमा आदनी स्वय माग देव नहीं मानानी स्थिति में वह जिम मार्ग बनाना है, वह भी उमगे बताए अनमा वरती और न होने में पीट पीने नता है। फलत वह मागका मागटाना पा तो उत्पय पर चलना है, अयमा टूनर नार्ग का अनुसरण करता रहता है। अधे मार्गदर्शक के मार्गदशन में अनुगामी पथिक भी जन्य हो तर बनता है। नी प्रकार परम्परा, मम्प्रदाय-परम्परा और पगचित अनुभव-परम्परा सीना ही अन्धानुकरण मात्र हैं, इनस बालविर परमात्ममाग का निणय नहीं हो नाता । ग्णा देने वाला अपन मत, यया अभिनाया न्यायही हो का जय प्रणा लने पान को प्रेरणा देता है नब माय मरदृष्टि छोड देना है, इसलिए परमान्ममार्ग ने बार में उनकी या उसकी परम्परा की बात भी प्रायः पूर्णतया यथार्थ नहीं मानी जा सकती। , आगम से भी मार्गनिर्णय कठिन है परमात्मा के मार्ग निर्णय करने में आगमो-धमशास्त्रों का आधार भी साफी वजनदार माना जाता है। जागग में परमात्मपथ का निर्णय कारन में पहली कठिनाई यह है कि यद्यपि आप्तपुरषो के वचन [अहला प्रनु द्वारा भापित अर्थ एव गणधगे द्वारा ग्रथित (मम्पादित) मूत्र को आगम या शान्त्र कहा जाता है परन्तु प्राय आगम या शास्त्र के नाम में प्रचलित आगमो या गास्त्रो में बताई गई बातो का अर्थ करने वाले मिन्न-भिन्न दृष्टि के होते हैं, वे अपने सम्प्रदाय,मत, पय या गच्छ की परम्परा के अनुनार ही प्राय मर्थ करते हैं , उसी अर्य को यथार्य और दूसरी परम्परा द्वारा कथित अयं १-देखिये 'अन्धो अन्ध पलाय' का मूलसूत्र में निर्देश अघो अघ पह नितो, दूरमद्धाण गच्छति । आवजे उप्पहं जतू अदुवा पंयागुगामिए। स्वकृतागमूत्र शु १ अ १ उ २ अधा आदमी अन्वे को प्रेरित करके ले जाय तो वह विवक्षित मार्ग में पृथक मार्ग पर ले जाता है अथवा अन्धा प्राणी उत्तथ पर जा बहता है, या अन्य मार्ग का अनुसरण करता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपथ का दर्शन २७ को यथार्थ मान कर अपने माने हुए अर्य को ही चाहे वह यथार्थ न हो, यथार्थ स्प मे चलाते रहते है। द्रव्यानुयोग, धर्मकथानुयोग (चरितानुयोग), चरणानुयोग और गणितानुयोग इन चार भागो मे आगमो मे तन्वज्ञान के अतिरिक्त चारित्र, दिया, सम्यक्त्व का म्वरूप, साधुश्रावक के चरित्र एव आचार-विचार का वर्णन गुणस्थानकमारोह, जीवो के भेदाभेद, सात नय, निक्षेप, प्रमाण, नौ तत्व, गणित, विभिन्न धर्मकथाएँ, व्रत, तप आदि की विधियां बताई गई हैं । अत इन मव तथाकथित आगमो में कथित बातो का अर्थ प्रत्येक सम्प्रदाय, मत, पथ या गच्छ आदि अपनी परम्परा के अनुसार करता है और उसी को सच्ची बताता है। उसे ही वीतरागता का शुद्ध व यथार्थ मार्ग कहता है। श्रद्धालु व्यक्ति की बुद्धि परस्परविरोधी बाते देख कर चकरा जाती है। इसलिए आगमो से परमात्म के अमली मार्ग को खोजना वडा दुष्कर कार्य है। ___इसमे दूसरी कठिनाई यह है कि वीतरागप्रभु के मार्ग का आगमो मे अन्वेषण करने वाले साधक प्राय उनके माधु-धर्म पालन के समय आए हुए उपमर्ग और परिपह, उनके तप, त्याग, महाव्रत, पाच समिति, तीन गप्ति तथा निर्दोप मिदाचर्या आदि का वर्णन या साधक के लिए विधिरूप मे कथित मार्ग का वर्णन पढते है तो उनके रोगटे खडे हो जाते है। फलत प्रभ जिस वाह्यचारित्र के पथ मे गए, जो कठोर क्रियाकाण्ड प्रभु ने किए, स्वपरकल्याण के लिए जो घोर कप्ट-सहन प्रभु ने किए, सर्दी,-गर्मी आदि सहन करके जो कठोर साधना उन्होंने की , उम कठोर क्रियाकाण्ड के मार्ग को ही परमात्मा का मार्ग ममझ बैठते हैं । इस प्रकार बाह्य चारित्र में ही प्राय उनकी बुद्धि उलझी रहती है। ऐसे साधक स्वय भी उसी क्रियाकाण्ड-मार्ग का अनुसरण करके अपने को प्रभुमार्ग पर चलने वाले पथिक मानते है। इस कारण भी प्रभुपथ के रूप में प्रभु के द्वारा अन्तरग रूप मे आचरित स्वरूपरमणरूप चारित्र या स्वरूप का ज्ञान-दर्शन उनकी समझ मे प्राय आता नहीं। इसीलिए प्रभुपय का निर्णय आगम से दुर्लभ लगता है। और फिर आगम या शास्त्र का जो लक्षण आचार्यों ने किया है, तदनुसार तो कई आगम आगम या शास्त्र की कोटि मे आने भी कठिन हो जाते है। क्योकि उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार शास्त्र की परिभाषा की गई है.---'जिसके Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-मन द्वारा आत्मपरिबोध हो आमा आँगा पर नयम की गाना TET पवित्रता जी आर गति कर उन नयनान को ना आना। व्यत्ाति के अनुसार आचार्य जिनभद्रगणि मामा ने नाम का जन किया है जिसके मान पधार्य गवना मेवा, जात्मा गाह आत्मा को अनुमानित, गिरित किया गया यर भाग गया गिन एव समन्तभद्र नी जान्न की यह पनारी निश्चित करने ? वीनगरआप्नपुरुपो हाल जाना-परमा गया हो जा चिनी अन्य वनो दाम 7घितहीन (अपदम्य) न फिग वानरे जा प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाती (नर्क एवं प्रमाण) ने टिन नको ना, जापानिमामो व या निमित सार्वजनिक हितोपदेश हो आध्यात्म-नापना के विध जाने वाले पका--- विचारमरणियां का जो विरोध करना हो, वहीं नाचा मात्र है। आप्नयन्त्रन को आगम कहते है, लेकिन आवारं अभयदेवरि को अनुमान आप्नपुरा मला प्रतिपादन करने को लाहित नहीं होने, नोमान या पकने नोट का अग न हो, क्योंकि ऐना कन्नं ने उनकी जानना बोप आता है लन्या यथार्थ उपदेशक आप्त है, जिनको वचन म पूर्वापविरोधा समगनि-विनाति न हो, जिनने वचन प्रत्यक्षादि प्रमाणो ने टिन नती। अन अगल, मा-1 एव आप्न के पूर्वोत लक्षगो के अनुसार वर्तमान में पचनित पारिन नानो के जननार जन पन्मात्ममार्ग का निर्णय माने जाते है तो उनमें कौन-सी १. 'ज सोच्चा पडिवज्जति तव खतिमहिमय'-उत्तनध्ययन ६/८. २ मासिज्जए तेण हि वा नेयमायावतो सत्र-विशेगावश्यक, भाय शासु अनुगिप्टॉ, शास्यने नेयमात्मा । याऽनेनाऽस्मादस्मिन्निति वा । जाम्यम्---टीका ३ आप्तोपज्ञमनुल्लच्यमहटेनविरोधकम् । तत्त्वोपदेशहत् साव शास्त्र कापयघट्टनम् ।।-नकरण्डम श्रावकाचार ४. 'आप्तवचनमागम'-प्रमाणनयतत्त्वानोंक ५ नहि आप्त साक्षात्पारम्पयंण वा यन्न मोक्षाग तत्प्रतिपादयितुमत्तहते अनाप्तत्वप्रसगात् । -भगवतीनूत्रवृत्ति । ६. आप्न खलु माक्षात्कृतधर्मा तयादृष्टस्यार्थम्य निरजापयिषया प्रयुक्त । “उपदेष्टा न्यायदशन, वात्स्यायनभाय । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपथ का दर्शन बात किस'नय की दृष्टि से कही गई है ? पूर्वापरविरोधी बाते किस अपेक्षा से कही गई है ? यह समझ मे नही आता । इसलिए आगम के अथाह समुद्र मे डुबकी लगा कर परमात्मा का मार्ग ढूंढना बडा दुष्कर कार्य है। और फिर आगमो के द्वारा मिर्फ मार्ग का अवलोकन (निरीक्षण) करना हो तो वह प्रचलित आगमो व शास्त्रो के बारबार स्वाध्याय, अध्ययन एव परिशीलन (अभ्यास) से बहुत कुछ सम्पन्न हो सकता है, मार्ग कैसा है ? क्या है ? इसका रहन्य क्या है ? आदि वाते समझ मे आ सकती हैं, लेकिन यहाँ कोरे (वन्ध्य) अवलोकन को परमात्मपथ के नीहारने मे स्थान नही है, ऐसा अवलोकन तो उत्तराध्ययनसूत्र की 'ज सोच्चा पडिवज्जति तव ख तिमहिसय' उक्ति के अनुसार थोथा व निष्फल है। त्यागभाव से रहित ज्ञान, आचरण से रहित ज्ञान वन्ध्य है। परमात्मपथ का निश्चय करने के लिए शास्त्रज्ञान के अनुसार आचरण का कदम बढाना आवश्यक है। इसलिए परमात्मपथ को निहारने का अर्थ-प्रभु मार्ग को देख-समझ-जान कर उस पर चलना है, प्रभुपथ पर चले विना, उसका सम्यग्ज्ञान या अनुभव नहीं हो सकता। 'चरण धरण नहिं ठाय' का रहस्य इसीलिए श्रीआनन्दवनजी ने पूर्वोक्त कारणो को ले कर स्पष्ट कर दिया कि आगम (शास्त्र) के द्वारा परमात्मा के पथ की असलियत का विचार करें तो उस पर चरण टिकाने को या चारित्र का आचरण करने को कोई स्थान ही नही रहता । वह अत्यधिक कठोर लगता है। इस दृष्टि से 'चरण धरण' के तीन रहस्य प्रतीत होते हैं । प्रथम तो यह है कि आगमो मे कथित प्रभु द्वारा आचरित व्यवहार (स्थूल) दृष्टि के चारित्र (क्रियाकाण्ड) को ही प्रभुपथ समझ लेने से स्वरुपरमणरूप निश्चयचारित्र मे स्थिर रहना साधक के लिए कठिन हो जाता है, इस कारण स्वरूपरमणल्प चरित्र पर कदम रखना दुष्कर है। दूसरा रहस्य यह है-शास्त्रो मे कथित बातो मे परस्परविरुद्ध तथा कई जगह असगत वातो को देख कर बुद्धि के चकरा जाने से कौन-सा परमात्म-पथ है ? किसका अनुसरण किया जाय ? इस प्रकार बुद्धिभ्रम हो जाता है और साधक परमात्मा के असली मार्ग को पहिचान ही नही पाता । उस पर कदम रखना तो दूर की बात है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-वगन तीसग रहाय यह कि प्रनाना आगमो र भी जो बात मा पर. मात्मा तक पहुँचने का जो नम्बर मार्ग बनाया है, उनो अनुमार मान युग में पूरी तरह ने भाचरण लग्ना टेली गीर है। पौकिनगुपच कानीमा कोरे पापावलोपन में नहीं हो जाता, उगो सिए प्रभम पात्रतातित चारित्र को जान-जनम का उस पर चलना अनिवार्य, नीलिए कहा गयाउरा प्रभुपच पर कदम रगना- ना--अनिधागान - 27 माना अत्यन्त कठिन है। ___चरण धरण वह ठाय' क नरम्य यर मी तो मानो मेगाथिन प्रभमार्ग-नाग्यिमार्ग-२ मि ते नमरवानी है कि म दास के थियो नाक म्याग वा पोजन न नाचणार पालन) न करे, पाराकिर प्रयोजन न भी आगनमोनि, पारस गमा पद-प्रतिष्ठा की गालमा में निहार नामिना आगमरना दी , केवल आइत्पद (बीतगगता) प्राप्त करने के लिए नाग्नि-पालन TF 'ग दृष्टि मे वीतरागना के पथ पर नलना बडे-बडे नाधकों ने तिरायिन हो जाना है, क्योकि आनार्य हेमचन्द्र को भी कहना पडा---- दृष्टिगग इतना वनवान् और पापिष्ट है कि बड़े-घंटे माधको के लिए उनमो नष्ट करना कटिन होना है।' ७ कानाम्गेहनीय भी इतना प्रबल होता है कि वह नाधनः पी पवित्र दृष्टि पर मोह एव अजान का पर्दा डाल देता है, जिसने उनै परनाला यथार्थ पथ ही दृष्टिगोचर नही होना, इम पथ पर बनने को तो अवश हो कहाँ ? इसीलिए आगम मे पथ के वस्तुतत्व पर विचार कर लेने पर भी पूर्वोक्त कारणो से उस पर चरण (कदम) रखना कठिन हो जाता है या उनके म्वरूपरमणम्प चारित्र पर स्थिर रहने अथवा व्यवहार चाराि रप मे आचग्नि प्रभुपथ गी कठोरता का देख कर उनका आनरण करने की कोई गंजाइश नहीं। १ 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग'-जत्वाचं नूत्र ११२ २ 'न इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, न परलोगट्ठयाए आयारमहिद्विज्जा न कित्तिवन्नसिलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नन्नत्य आरतहि हेहि आयारमहिट्ठिज्जा।' -दशवै० ६/३६ ३ दृष्टिरागो हि पापीयान् दुरुच्छेद सतामपि-आचार्य हेमचन्द्र Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपथ का दर्शन प्रभुपथ के निर्णय मे चोयी और पाचवीं कठिनाई वीतरागामार्ग के निर्णय का पिपासु आशावान साधक अपनी अन्य पठिनाइयाँ पेश करता है तर्क-विचारे रे वाद-परम्परा रे, पार न पहुंचे कोय । अभिमत वस्तु रे वस्तुगते कहे रे, ते विरला जन जोय ॥ . पथडो०॥४॥ अर्थ तर्क यानी अनुमानप्रमाण के द्वारा परमात्मपर का विचार करें तो सिवाय शुष्क वाद-विवाद की लम्बी परम्परा के और कुछ हाथ नहीं आता। ऐसे विवादो की लम्बी कतार से कोई भी जिज्ञासु साधक किसी निर्णय के सिरे तक नहीं पहुंचता । हमारी अभीष्ट और जिज्ञासा के अनुकूल वस्तु का यथार्यरूप से लाभदायक और परिपूर्ण अशो मे कथन करने वाले पुरुष तो इस संसार मे बहुत ही विरले दिखाई देते हैं । भाध्य तर्क द्वारा भी परमात्ममार्ग का निर्णय दुष्कर न्यायशास्त्र मे अनुमान-प्रमाण का बहुत बड़ा स्थान है। जो वात साव्य''वहारिक प्रत्यक्ष या आगमप्रमाण से सिद्ध नहीं होती, वे अनुमान-प्रमाण द्वारा सिद्ध की जाती हैं। सारा जैनतत्त्वज्ञान तर्क के अनुकूल है। जैनदर्शन का समग्र नयवाद, सप्तभगी, स्याद्वाद, आत्मवाद, या तत्त्ववाद आदि अनेक बातें तर्क की कसौटी पर यथार्थ रूप से कम कर निर्णीत की गई हैं। सन्मति-तर्क, म्यादवाद-मजरी, अनेकान्त-जयपताका, स्यादवादरत्नाकर, खण्डनखाद्य, रत्नाकरावतारिका, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्यरत्नो पर विचार करते है, तो ऐमा मालूम होता है, जैनदर्शन ने तर्क द्वारा जवर्दस्त किला फतह किया है । परन्तु तर्क मे वाद-विवाद का कही अन्त नहीं आता। एक प्रवल तर्क पूर्वोक्त निर्वल तर्क को काट देती है। चतुर नैयायिक तर्को का ऐसा जाल विटा देता है कि उसमे मे प्रतिवादी का निकलना तो दूर रहा, उन सबको पूर्वपक्ष के रूप मे समझना भी दुप्कर हो जाता है । इसीलिए कहा है१ वादाश्च प्रतिवादाश्च वदन्नो निश्चितानिव।। तत्त्वान्त नैव गच्छन्ति तिलपीलवद्गती ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-नगन वाद और प्रतिवाद कार माग अपने माने निश्निर और यथावं वात कहते हो, इस प्रकार जोग तेरी पाणी नाग और अमन याने वैल की तरह गोल-गाल कर पाते रहते हैं, वे भी किसी ना मिरा नहीं पाते। इनीलिए कहा है-'तप्रनिष्ठ' ता. विना देद के नारे शानद पर जगह प्रतिष्ठित (यिर) नहीं हो पाता । इसलिए परमा-ममाग का विचार भी केचन तर्ण दाग करने पर निकाय अनुभवहीन या भावहीन गुण वादविवाद के और कुछ पता नहीं पहना । योथी दलीलो, या गप्न तफा में व्यक्ति किसी एक. नतीने पर नहीं पहुँच पाते । यही कारण है छहो दर्शन अपने-अपने मत वो तर द्वाग प्रमागिन करते है, मिन कर समन्वय नहीं कर पाते। चर्चा करने वाले जब अपने-अपने हेतुओ द्वारा अपने मतागृहीत पक्ष को मिद्ध करने का प्रबल करते हैं. नव सत्यगोधन के बदन केवल विद्वत्ता का प्रदर्शन दिया जाना है। नर-विनर वारने वालो मे जिनाना देवदने प्राय विजिगीपा पाई जाती है। क्रियामाग मे भी तत्त्वनान की तन्ह अपनी मानी हुई क्रियाओं को मत्य नया बीनगगमार्गानुकूल सिद्ध करने के लिए तों का बहुत दुपयोग किया जाता है तथा, परन्पर आक्षेप करके जिज्ञासावुद्धि मे प्रष्ट हो कर दूनरो यो नीचा दिखाने वदनाम करने या हराने की दुद्धि मुन्य बन जाती है। मतलब यह है कि सम्प्रदाय-मत-पथ के भेद, खीचातान, दुराग्रह, सत्यान्वेषणवृत्ति के बदले अपने अभिमत को सत्य सिद्ध करने के लिए मानवसुलभ अवृत्ति-पोषण के कारण वर्तमान स्थिति मे सत्यशोधन या वीतराग-परमात्ममार्ग का पर्यवलोपन या निर्णय कोरे तकं द्वारा होना अतीव दुप्कर है। वस्तु का यथार्यत्प मे कयन करने वाले विरले हैं इससे पहले पूर्वोत सभी उपायो द्वारा वीतरागमार्ग के निर्णय के सम्बन्ध मे विचार किया गया, लेकिन ऐसा कोई भी उपाय मफल नहीं मालूम पडना, जिमसे यथार्य निश्चय किया जा सके। अत श्रीआनन्दधनजी कहते है कि अब तो यह इच्छा होती है कि वस्तु जैसी और जिस प्रकार की है, उसे वसी और उसी प्रकार में जो यथार्यरूप में Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-पथ का दर्शन कहे, उनके पास जा कर परमात्ममार्ग का निर्णय करू , मगर ऐसे यथार्थवक्ता महापुन्प तो विरले ही है । जो है, वे झटपट पहचाने नहीं जा सकने । ऐसे महान् पुरुपो का समागम अगक्य नही तो दुर्लभ जरूर है , क्योकि वस्तु के स्वरूप में किसी भी प्रकार की न्यूनाधिकना न करके कहना, अपने रागद्वेष, अपनी माम्प्रदायिक एव परम्परागत मान्यताओ, धारणाओ या अपने निजी स्वार्थो , मस्कागे या अह का कथन मे लेशमात्र भी प्रवेश न होने देना, बहुत ही कठिन है । किनी वस्तु के बारे मे जब हम सत्यता खोजने के लिए किनी महान् मे महान् कहलाने वाले महानुभाव के पास जाते हैं, तो वहाँ उनके तत्त्वप्रतिपादन के समय व्यक्तिगत अभाव, माम्प्रदायिकता का पुट, परम्परागत धारणाओ, मान्यताओ या अपने सम्कारो का समावेश, तथा कई बार 'यह सन्य स्वय को ही उपलब्ध हुआ है' इस प्रकार के दावे ही दृष्टिगोचर होंगे। इस प्रकार के प्रतिपादन ने जिज्ञासु वीतराग परमात्मा के असली मार्ग के सत्यदर्शन के बदले उपर्युक्त भूलभुलैया या अधिक उलझन मे पड जाता है। जगत् में ऐसे लोग इनेगिने हैं, जो किसी वस्तु मे निहित वस्तुतत्व या यथार्थ धर्म का यथातथ्यरूप में कथन कर सके। क्योकि वस्तु का यथार्थ कथन करना इसलिए टेढी खीर है कि ऐसा करने वाले प्राय साम्प्रदायिकता, स्वत्वमोह या कालमोह से ग्रस्त अपने कहे जाने वाले लोगो के कोपभाजन बन जाते हैं, प्राय उन्हें नास्तिक, मिध्यात्वी, कृतघ्न आदि नाना गालियो का शिकार वनना पडता है अथवा उनके पूर्वाग्रह, रूठ मिथ्यामम्कार, अहभाव से लिपटे हुए मत ही उन्हें किमी लागलपेट के विना मध्यस्थभाव मे मत्य प्रतिपादन करने मे वाधक बन जाते हैं । इसलिए अपने पूर्वाग्रहो, रूढ सम्कारो, विवेकविकल मान्यताओ या धारणाओ, या अन्धविश्वासो अथवा देव-गुरु-धर्म एव आगम-सम्बन्धी मूढताओ ने ऊपर उठ कर बीतसगपथ के सम्बन्ध मे निप्काम भाव से मत्य प्रगट करने वाले महापुरुप विरले है। शुद्ध सत्यभाषको की विरतना के कारण परमात्ममाग का निश्चय दुर्लभ है। __ वस्तु को यथार्थ व यथारूप मे कहने वाले व इसमे जरा-मी भी अनिमयोक्ति खीचातान, मनाग्रह या पूर्वाग्रह रखे विना जिनामु के आगे प्रगट करन वाले पुरुषों की विरलता देखनी हो तो किसी भी बड़े से बडे नथाकथिन तत्त्वज्ञानी या महान् कहलाने वाले व्यक्ति के नान्निध्य में कुछ दिन रह कर, उनकी दलीलें, तर्क, साम्प्रदायिक झकाव आदि पर से देखी-समझी जा सकती है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ তামান परमान्मपय के गंन ने छठी माठिनाई इस प्रकार परमात्मपथ के दर्शन में मुय-मुख्य विनायो । पूर्वान गावालों में उल्लेख करके श्रीमानन्दपनगी अन्न परमात्मा के मन में लिए पूर्वोक्त दिनचनम्पी आधार . विषय में दुल मना पारिदन करते है वस्तु विचारे रे दिव्यनयन तणो रे, विरह पडयो निरधार । तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, बामित बोध जाचार ।। पंवडो॥५॥ पदार्य के यथायं स्प का विचार करने में जो दिव्यनेत प्रत्यक्षतानी अतिशयज्ञानी या अतिशय प्रत्यक्ष ज्ञान हैं उनका तो इम (पचम) काल में निचर ही वियोग हो गया है । इमलिये उनके चिन्ह में दमे तो पस्तुतन्त्र के प्रया) ज्ञान का कोई आधार नहीं है। मन-वचन-काया के योगो को तग्रमता बासनाओ (कषायो) को तरतमता के अनुसार होती है। इस दृष्टि से प्रबल वाननाओ (कषायों) से क्रमश मुक्त होने के कारण कई महान् आत्माओं के फपायो के क्षयोपशम की अधिकता होगी, उतनी ही मन बचन-काया के योगों को स्थिरता अधिक होगी । अत ऐसे महापुरुषो के ज्ञान के अधिकाधिक क्षयोपशम से भावित बोघ ही इस काल मे आधारभूत है। भाप्य दिव्यनयन क्या हैं ? उनका वियोग श्यो ? योगी आनन्दधनजी ने परमात्म-पथ के दान के लिए पहले दिव्यनयन की मुख्यता बताई थी। अन्य उपायों से प्रभपथ-दर्गन की दुष्परता का प्रतिपादन के बाद यहाँ वे पुन उसी दिव्यनयन का उल्लेा करते हुए कहते है कि अगर आज इस प्रकार के दिव्यनेत्रधारी या आत्मप्रत्यक्षनान होते तो मुझे प्रभुपथ के दर्शन के लिए पूर्वोक्त कठिनाइयों का सामना न करना पडता । मेरी परमात्म-मार्ग के दर्शन की समस्या बहुत ही आसानी मे हा हो जाती, परन्तु अफसोस है कि आज वे दिवनेत्रधारी महापुरुप इन क्षेन (भन्नक्षेत्र) मे रहे नही अथवा मेरे अपने अदर वे दिव्यनेय (प्रत्यनशान) प्रकट होने दुर्लभ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-पथ का दर्शन ३५ होने से मुझे भी परमात्मा-पय का निर्णय करना कठिन हो रहा है । उनका निश्चय ही वियोग हो गया है। दिव्यनयन-पद से यहाँ इन्द्रियो मे न होकर, जिन्हे सीवे आत्मा से होने वाला ज्ञान प्राप्त हो गया है, वे प्रत्यक्षजानी महापुरुष या आत्मप्रत्यक्षज्ञान विवक्षित है। क्योकि वस्तुतत्व का यथार्य पूर्ण निर्णय तो प्रत्यक्ष ज्ञानी या प्रत्यनज्ञान ही कर सकते हैं। परोक्षज्ञानियो के ज्ञान मै कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। मुख्यतया ज्ञान दो प्रकार के हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रियो और मन की उपस्थिति मे जो ज्ञान होते हैं, वे परोक्षज्ञान कहलाते है। जैनदर्शन की दृष्टि से मतिज्ञान और तनान ये दोनो परोक्षजान है । चूकि अन्य दर्शन इन्द्रियो और पदार्थ के सन्निकर्प से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान मानते हैं, इसी कारण जैन दार्शनिक इमे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष और इन्द्रियो और मन के निमित्त के बिना मीधे ही आत्मा में होने वाले ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहने लगे। पारमार्थिक प्रत्यक्ष हो वास्तविक प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसी को ही श्रीआनन्दधनजी ' दिव्यनयन = आत्मप्रत्यक्ष-ज्ञान कहते हैं। -ऐसे आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान से ही वस्तुतत्व का यथार्थ रहम्य समझा जा सकता है। तभी परमात्मा के मार्ग का सच्चा निर्णय हो सकता है, परन्तु इस पचम काल मे इस (भरत) क्षेत्र मे तो ऐमे आत्मप्रत्यक्षज्ञानी या आत्मप्रत्यक्षज्ञान का मयोग नहीं है, उनका इस समय वियोग है। विभिन्न दृष्टियो से तरतमयोग और तरतम वासना के अर्थ तया तद्य क्त बोध वासना का अर्थ है-कपाय, राग-द्वप, या मोह आदि और योगो का अर्थ है-मन-वचन-काया के व्यापार । ज्योज्यो वासनाओ की तरतमता = न्यूनाधिकता होती जाती है, त्यो-त्यो मन-वचन-काया के योगो की तरतमता होती है। अर्थात जिसमें वासनाओ (कपायो, अभिमान, नामना-कामना, पूजामत्कार-लिप्सा, एव विविधि एवणाओ,) की जिननी और जिस अनुपात में तीव्रता या मन्दता होगी, उतनी और उसी अनुपात मे उसमे मन-वचन-काया - के योगो की चपलता (अस्थिरता) या अचपलता (स्थिरता) होगी और उम Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अध्यात्म-दर्शन उस व्यक्ति रा बोध मो योगी को गमलना या अवमानना , अनुगार आनाउतना अगुद्ध (अनिमंन) या शुद्ध (निर्मल)ोगा। तात्य यह है कि जिस व्यक्ति का बांध जिनना-हिना नीट पणादो प्रार ने रहित होगा, उतना- उनना यह निर्मन, निमंनतर राना मायगा । न रष्टि से प्रबलतर या प्रबल कपायो में मुन्न हाने के पारण ग्नि मागभावो के मनिज्ञान और अनज्ञान विशुद्ध व निर्मन, ऐने बागमन, बहन रिड या गीतार्य महापुग्पो का गुदात्मभावना गे वागिन (नागिन) योग तीनमानवग ने परमात्मपथ दशन से निा आधारभूत है। __अथवा निश्नयनय की दृष्टि मे ना को अपनी मान्मा प्रवनर गा प्रश्न कपायो में मुक्त होगी, तभी उमका भयोपशम तीन होगा और उन नीट भयोपशमभाव ने वानित (युक्त) बोध मे जान पी विशुद्धना होगी, बुद्धि पर अनान, मोह, अभिमान, लालमा, गृहा, न्वार्थ आदि गा भावग्ण सम होगा और तभी मै न्वय परमात्मपथ= शुद्धात्मदशा को पथ का निर्णय पर नगा। अर्थात्-प्रवलकपायों मे रहित मेरी आत्मा शुद्धात्मभावरमणम्प परमात्मपय के प्रत्यक्षदर्शन में अग्रसर होगी। साधारण प्राणी मामाग्कि वामनानी या परभावो की और इतना आसक्त होता है कि सहना उसमे आत्मविकान या स्वभावरमणता की भावना जागृत नहीं होती और उमे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशमभाव उतना नहीं मिलता और न ही तदनुरूप योग =(मयोग) मिलते है। इन दृष्टि में जिस व्यक्ति की जिननी-जितनी शुद्वात्मजान की क्षयोपशमभाव में होती है, उतने-उनने प्रबल व प्रबलनर नयोग (योग) मी उसे महज में मिलते जाते हैं । वानी क्षयोपगमभावो की न्यूनायिकता के अनुनार अनुकूल सयोगो को न्यूनाधिकता होनी है। ___ उदाहरणार्थ-कई माधको का क्षयोपशमभाव नोन होना है तो उन्हें प्रौट आर अनुभवी गुरुओ, तदनुकूल नाधनो, अनुकूल स्थान-नहतार-गत्मग आदि पता नयोग मिलता है, उनकी ब्रहण-धारणा-गत्ति भी तीदतर होती है, जचि कई साधको को तीन और कतिपय गधको को मन्द वा नन्दतः निननी है । न दृष्टिने जिन माधको की भोपामभावना नीटतम होगी उन्हे तदनुपून तीजतन मनोग और नीनतम ग्रन-धारणागक्ति मिलेगे और तदनुसार उनका बोध भी दीनतम क्षयोपशमभावना से गावित होगा। ऐसे व्यक्तियो का Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-पथ का दर्शन ३७ वोध ही वर्तमानकाल मे तो परमात्मपथ के निर्णय का आधार हो सकता है । वर्तमानकाल मे परमात्मपथ निर्णय मे आधारभूत बोध हम बहुत-सी बार यह अनुभव करते हैं कि साधको के बोध मे अनेक प्रकार की न्यूनाधिकर्ता होती है । किसी-किसी साधक का क्षयोपशम इतना प्रबल होता है कि चाहे जैसा नया प्रश्न उसके सामने प्रस्तुत किया जाय, वह अपने विशाल वाचन और व्यापक वोध के आधार पर उसका यथार्थ उत्तर दे सकता है । शास्त्र में ऐसे-ऐसे श्रु तनानियो का उल्लेख है कि वे अपने मतिजान से उसका ठीक उपयोग लगाएँ और उनका वोध स्थिर विशाल और सुदृढ हो तो चाहे जैसे सूक्ष्मभावो के विषय मे केवलज्ञानियो के बराबर यथातथ्य निर्णय दे सकते हैं। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी आत्म-प्रत्यक्षज्ञानियो (दिव्यनेत्रो) के अभाव मे पूर्वोक्त प्रवलतम क्षयोपशमभावना से भावित बोध को इस युग मेपरमात्मपथ-निर्णय का आधार मानते हैं। निश्चयनय की भाषा मे कहे तो अपने मे आत्मप्रत्यक्षज्ञान (दिव्यनेत्र) के अभाव मे अपने उपादान=क्षयोपशमभाव के प्राबल्य से होने वाला (वामित) बोध ही वर्तमानकाल मे परमात्ममार्ग के निर्णय का आधार बन सकता है। ___इस बात को न मान कर यदि यही आग्रह रखा जाय कि जब कभी दिव्यज्ञानी या दिव्यज्ञान का योग मिलेगा, तभी परमात्मपथ का बोध किया जायगा, तो उस साधक को अनेक कठिनाइयो का सामना करना पडेगा, अनेक विघ्न' उसके विकासमार्ग मे रोडा अटकाएंगे, अव तक उसने जो भी प्रगति की है, वह भी ठप्प हो जायगी और आत्मा कर्मों से भारी हो कर जन्ममरण के चक्र में भटकती रहेगी । अन अपने क्षयोपशम के अनुसार जो भी अनुकूल साधन या सयोग प्राप्त हो, उनका अवलम्बन ले कर परमात्मपथ पर प्रगति करते रहना चाहिए । इसी आशय से श्रीआनन्दघनजी ने वर्तमानकाल मे मति-श्रुतज्ञान के उत्कृष्ट क्षयोपशमभाव से भावित बोध से युक्त ज्ञानी या ज्ञान के आधार को योग्य माना है। परमात्मपयदर्शन के लिये श्रेष्ठ आधार : समय की परपक्वता पूर्वोक्त गाया मे दिव्यज्ञान के अभाव में वर्तमान युग मे उत्कृष्ट क्षयो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दन पसमयता नति-ध नजानी या मति में नान -- निमन बांधारभूत बनाया, परन्तु श्रीआनकानजी उन दिन नि : । न मनोय है कि मैं वय बना दिव्यज्ञान मा दियो समान, कन्नु उस समय उनकी उपलधि न होने पर नीना आधार-... मान्मथान के निर, नाग के अन्तिम गाणन :--- काललब्धि लही पंथ निहाजरे, ए आमा अवलम्ब । ए जन जोवे रे जिनजो जागजो रे, आनन्दघन-मत अन्त्र पथड़ो॥६॥ अचं यथार्थ (समावरमगतारप) पुरषाचं प्रते-करते पाल परिपश्य (नमय पक जाने) होने पर तयारूप आत्मलधि (आत्मक्ति) प्राप्त करके मारका (परमात्ना का) पथ देख मकू गा, यह मागा (प्रतीक्षा) ही मेरे लिए अंछ अवलम्बन है । हे वीतरागप्रभो ! इसी जागा के आधार पर मेरे सगेणा व्यत्ति नो रहा है । इसे ही आप आनन्दघन (नच्चिदानन्दरप) के पय का मानवृक्ष या सार समझना। भाप्य काललब्धि को प्रतीक्षा · जीने का प्रप्त आधार श्रीआनन्दघनजी आपावादी (Optimist) है, ३ जनदर्शन की रगो को छूने हए कहते है, जिसमें तन-मन-प्राणं में परमात्मपत्र-मोक्षपथ पाने की तीव्रता है, जो अहनिंग म्वभावरमणम्वरुप मान-वर्णन-चारित्र मे पुरपार्थ करता है, उने एक न एक दिन परमात्मपथ के वान हो पर हते हैं, उनका वह पुम्पार्थ, वह तीन तमन्ना खाली नही जानी, पर नाध्य को उस जमा की प्रतीक्षा करना, उन अवसर के आने क य खना जरूरी है। - खेत मे बीज बोते ही किमान को उनका फल नहीं मिल जाता, उने काफी प्रतीक्षा करनी पड़ती है, धैर्य के माय फ्मल पकने तक इन्तजार करनी पडती है, तव तक उमे उत्साहपूर्वक गोडाई, मिचाई, और सुरक्षा करनी होती है। तभी उसे उमका सुन्दर फल मिलता है। इसी प्रकार परमात्मपथ के दर्शन के लिए भी स्वभावरमणरूप पुरुपार्थ द्वारा आत्मशक्ति प्राप्त होने तक प्रतीक्षा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-पथ का दर्शन करनी आवश्यक है। इसी दृष्टि से योगी श्रीआनन्दघनजी अन्तर से पुकार उठने हैं "वीतरागप्रभो । समय परिपक्व होते ही आत्मशक्ति (काललब्धि) प्राप्त होने पर मैं अवश्य आपके पथ का दर्शन करूँगा, इसी आशा---प्रतीक्षा का अवलम्बन ले कर मैं जी रहा हूँ। वास्तव मे, मेरी आत्मा तो उसी दिन को देखने के लिए उत्सुक है, जिस दिन मुझे परमात्मपथ के दर्शन होंगे, उसी दिन -मेरी यह आत्मसाधना सफल होगी। - काललब्धि का अवलम्बन क्या और कैसे ? जैनदर्शन में प्रत्येक कार्य के लिए काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ, पाँच कारणसमवाय को अनिवार्य बता कर उपयुक्त स्थान दिया गया है, यही वात आत्मविकास के लिए है । इस दृष्टि से आत्मविकास के लिए दूसरे चार कारणो की तरह काल का परिपाक भी होना चाहिए । समय पकने, पर ही अमुक कार्य होता है। आम अमुक समय आने पर ही पकता है । गर्भ नौ महीने का होने पर ही दालक का प्रसव होता है, फसल अमुक समय पर ही पकती है। इसी तरह दिव्यज्ञान के लिए अमुक काल का लाभ या प्राप्ति काललब्धि कहलाती है। स्वभावरमण में पुरुषार्थ करते-करते जिस समय आत्मशक्ति इंतनी वट जायगी कि दिव्यज्ञान-आत्मप्रत्यक्षज्ञान होते देर नहीं लगेगी, उसी समय को काललब्धि१(समय का परिपाक) कहना चाहिये। __शास्त्र मे ५ प्रकार की लब्धियां बताई गई हैं—(१) काललब्धि, (२) 'भावलब्धि, (६) करणलब्धि, (४) उपशमलब्धि और (५) क्षायिकलब्धि । काललब्धि भी आत्मशक्ति-विशेप मे ही प्राप्त होने वाला एक नामर्थ्य है, एक प्रकार की योग्यता है, जिसके प्राप्त होने पर परमात्मपथ का स्पष्ट दर्शन हो जाता है। इमलिए श्रीआनन्दघनजी ने काललब्धि को ही परमात्मपथ-दर्शन की याशा का अन्तिम आधार मान कर उसी के महार जीने व तव तक प्रतीक्षारत रहने की बात-अभिव्यक्ति की है। १-'पाडयमह महण्णवो' मे लब्धि के क्षयोपशम, सामर्थ्य विशेष, अहिना, लाभ, प्राप्ति और योग्यता आदि अर्थ किये गये हैं। - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अध्यात्म-दर्शन दूमगे की आशा और पयदर्शन की आगा में अन्ता 'यो तो 'आशा औरन की यया कीज' पद में श्रीजानन्दजी ने आमारे प्रनि उपेक्षा व्यक्त की है, लेकिन यहाँ आमा सो वढा आगर माना है, परन्तु इस आगा और उस आशा में गत-दिन का अन्नर । यर आमा गई. जिनमें पोद्गलिक बन्नुओ म्यूल या भौतिक पदार्थों का विपकी प्रान की आशा है, उनमे जागा करने वाले या यूछ हिलाने वाले पानीमा गई है। वह लगना पनपदार्थों की गुलामी है परन्तु यती आगा है-~कासनधि प्राप्त होने पर परमात्मपथ के दगंन की जागा, उनमें मिनी में मांग, गलामी या यानना नहीं की गई है, न परपदायों को प्राप्त करने की हजागा यह तो आत्मा का अपने आत्मम्वभाव में पुरुषारं कर काननधि प्राप्त होने पर परमात्मपथदशन की आशा है । उनमे आनादानी के दाम बनने में बात है, जबकि इनमें आगादानी पर विजय प्राप्त करने की बात है । चाननज (आत्मा) को इस प्रकार की आशा के अवलम्बन के सिवाय और कोई नारा ही नहीं है। जीवन का माधार . भौतिक या आत्मिक ? श्रीआनन्दवनजी आने कहते हैं-टनी आशा के आधार पर मुझ मगेना साधकजन जीवन जी रहा है। साधक-जीवन रे निए ममारी जीवो की तरह धन-सम्पत्ति, संतति सुख-मामग्री आदि जीने के आधार नहीं होते, उसके जीन का आधार आध्यात्मिक होता है । क्योकि साधक को जब तक पूर्णमुद आत्मदशा की प्राप्ति नहीं हो जाती, जब तक का जितना कान है, उन फान को वह आत्मशक्ति उपलब्ध करने में विताता है, वह स्वभावरमण मे पुन्पाय करते करते ही अपना जीवन पूर्ण करता है, उनके जीवन जीने का आधार. आत्मिक होता है । आत्मसाधना करना, आत्मस्वरूप जानना आत्मशक्ति प्राप्त करना आत्मशक्ति प्राप्त करने के लिए साधन-मामग्री जुटाना व उमका समुचित उपयोग करना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है। इसी दृष्टि मे श्रीआनन्दघनजी के अन्तर का स्वर गूंज उठना है"ए जन जीवेरे जिनजी! जाणजो रे .. " आनन्दघन-मत-अम्ब के सम्बन्ध मे योगी श्रीआनन्दघनजी ने अपना कोई मत, पथ, मम्प्रदाय या गच्छ नहीं Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-पथ का दर्शन ४१ बनाया और न वे किसी सम्प्रदाय को चलाना चाहते थे, बल्कि उन्होने इसी चीत्रीनी में आगे गच्छ सम्प्रदाय, पथ आदि के प्रति अपनी अरुचि प्रदर्शित की है, इसलिए आनन्दघन-मत का अर्य किसी मत, पथ या सम्प्रदाय का सूचक नही हो सकता। चूकि योगी आनन्दघनजी जिंदगीभर आत्म-शोधन, आत्मचिन्तन-मनन और आत्मविकास के अवलोकन मे रहे हैं, इसलिए आनन्दधनमत का अर्थ यहां आनन्दघनरूप = शुद्धात्मभावमय मत=विचाररूपी आम्रफल अथवा शुद्धात्मभावमय दिचार का सार है। श्रीआनन्दधनजी के कहने का अभिप्राय यह है कि जब मैंने अपने शुद्ध चित्त-क्षेत्र में परमात्म-पथ-दर्शन के प्रति तीव्र आत्मनिष्ठा-रूपी आम की गुठली वो दी है, तब तो एक दिन में उसके स्वभावरमणता मे आनन्द देने वाले आनन्दघनरूप परमात्मा के विचार की शीतल शुद्धात्मदशारूपी छाया वाला आम्रवृक्ष -परमात्मा (वीतराग) अथवा परमात्मपथदर्शनरूपी आम्रफल अवश्य प्राप्त करूंगा। ऐसा मेरा अखण्ड मत=निश्चय है । सारांश अजितनाय भगवान् की स्तुति के बहाने इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने पन्मात्म-मार्ग के दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा बताई है। साथ ही दिव्यज्ञानचक्षु को उसका सर्वोत्तम उपाय बना कर उन्होंने परमात्मपथ के दर्शन करने मे चर्मचक्षु, पुरुष-परम्परा, गास्त्र-परम्परा तथा पराश्रित अनुभव, आगम, तर्क, यथार्थवक्ता एव दिव्यजान का वियोग आदि मुख्य कठिनाइयों बताई है , लेकिन अन्त मे स्वीकार किया है कि उच्चश्रेणी के क्षयोपशम वाले निर्मल श्रुतज्ञानी पुरुष के श्र तज्ञान का वोध वर्तमानयुग मे आधाररूप हो सकता है। लेकिन अन्तिम गाथा मे कालपरिपक्व होने तक परमात्मपथदर्णन की प्रतीक्षा मे रत रहने की आशा का अवलम्बन मान कर उसी के सहारे जीवन जीने का निश्चय किया है। मतलब यह है कि रागद्वेषादि विकारो से रहित शुद्ध आत्मदशा प्राप्त होने पर ही पूर्णरूप से परमात्मपथ का साक्षात्कार हो सकता है, यही सब गाथाओ का निचोड है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ सम्भवनाथ-स्तुति-- परमात्मा को सेवा (तर्ज-रातली रमी ने रिहायो आविया रे, राग-गगिरि) पन्मात्मा के नाय अगण्ट नीति के बाद परमात्मा के मापान व निर्णय कन्ना गन्ममाधय के लिए पनिवार्य होता है मार्ग का निर्णय हो जाने पर ही परमात्मा की मेया भलीभांति हो सकती है। गिर नीमरे तीर्थग बी नम्भवनायभगवान् की स्तुति के माध्यम में परमात्म मेवा र रहस्योद्घाटन करते हा श्रीआनन्दवनजी लाने है--- 'सभवदेव' ते धुर सेवो सवे रे, लही प्रभुतेवन-नेद । सेवन-कारण पहली भूमिका रे, अभय, अद्वेप, अखेद ।। सम्भव०॥१॥ अर्थ परमात्मा (परमशुद्ध आत्मा) की सेवा का गहरा रहस्य ममम कर सभी मात्मसाधक सर्वप्रथम सम्भवनाथदेव (वीतराग परमात्मा) वा योतगरपरमात्मा के देवत्व की सेवा करें। परमात्मसेवा मे कारणभुत पहली भूमिकाअवस्था के योग्य अभय, अद्वेष और अखेद ये तीन वाते हैं। परमात्म-सेवा दयो ? पूर्वोत दो न्तुतियों में जिन प्रकार प्रथम आर द्वितीय तीथकर की न्तुति के माध्यम ने प्रीआनन्दघनजी ने परमात्मप्रीति और परमात्ममार्ग के दशन का रहस्य खोल कर रख दिया है, वैसे ही इन स्तुनि मे नीमरे नी कर श्री सम्भवनाथदेव की स्तुति के माध्यम ने परमात्मा की या परमान्मन्त्र की सेवा सर्वप्रथम क्यो करनी चाहिए ? परमात्म-मेवा क्या है और कैसे करनी चाहिए ? इन नवका विश्लेषणपूर्वक रहस्योद्घाटन किया है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की मेवा ४३ सवाल-यह होता है कि श्रीआनन्दधनजी ने इस स्तुति मे दूसरे सब कार्य छोड कर सभी साधको को सर्वप्रथम परमात्मा की मेवा करने की प्रेरणा क्यो दी? इसका कारण यह प्रतीत होता है कि दूनरी स्तुति की अन्तिम गाथा में उन्होंने यह बता दिया कि मैं परमात्मपथ के दर्शन के विना हर्गिज हटने वाला नही, चाहे कितना ही काल क्यो न व्यतीत हो जाय, नै तव नक धैर्य या प्रतीक्षा करू गा, जब मेरी आत्मशक्ति इतनी वढ जायगी, मेरा क्षयोपशमभाव इतना तीव्रतम हो जायगा कि काल का परिपाक भी हो जायगा और एक दिन वह अवसर भी आ जायगा, जब मैं परमात्मपथ का नाक्षात्कार करके ही दम लूंगा , इसी आशा और विश्वास के साथ में बैठा हूं। अत जव साधक की परमात्मपथदर्शन की इतनी तत्परता हो जाती है, तब उसे अपने आपको परमात्मपथदर्शन के योग्य, समर्थ और कार्यक्षम बनाने के लिए सर्वप्रथम उत्साहपूर्वक परमात्ममेवा करना अनिवार्य होता है। यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी सभी मुमुक्षुओ, किन्तु परमात्मपप्रदर्शन से निराश माधको का व अपने को परमात्मपथदर्शन के योग्य बनाने हेतु पहले परमात्मसेवा -करने का आह्वान करते हैं । परमात्म-सेवा क्या है ? परन्तु नाथ ही वे कुछ साधको तथा म्बय के वेतनराज में चेतावनी के तौर पर कहते है ---परमात्मा की सेवा करने से पहले नेवा का स्वरूप तथा उसका रहस्य समझ लो । परमात्मनेवा का स्वरूप एव रहस्य समझे विना ही दुनियादार लोगो की तरह अगर परमात्मसेवा के नाम से किमी और कार्य को करने लग - जाओगे, या सेवा के साथ किमी प्रकार का राग, द्वेप, मोह, नामना-कामना, भय, लोभ, त्या किसी स्वार्थ को जोड दोगे अथवा सेव्य पुरुषका स्वरूप न समझ कर, जैसे-तैने रागी-द्वेपी, कामी, क्रोधी देव को ही देवाधि देव परमात्मा मान कर उसकी सेवा को परमात्ममेवा मान कर करने लगोगे, या परमात्मा (निरजन-निराकार शुद्ध अनन्तनानदर्शनचारित्रमय आत्मा) के वीतरागत्व या शुद्ध आत्मत्व की उपासना के बदले उनके वाह्यरूप, स्यूलप्रतीक या उनके द्वारा विहित क्रिया कलापो या उनके वाह्य अतिशय, शारीरिक वैभव की ही सेवा करने मे जुट कर उनके योथे गुणगान या कोरे कीर्तन करके ही उसे परमात्मसेवा समझ लोगे , अथवा परमात्मा के नाम से किसी व्यक्ति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খাগ विनय (भले ही वह महान हा) प्रति गग और मोह करके उमनी वायमेवा-म्यूलसेवा (अपनी आन्ना को गगडेप मोह या परभाव में नहटा Fr) कग्न लग जाजोग तो मामा-माया के वास्तविक नाम गेनिन हो जाओगे। परमात्ममेवा का वायविक और गरम नाम कमायो, गग-द्वेष मोह मार्गो में मुकि है । मुक्ति प्राप्न होन की अवधि तक बीच में परमागवानी गाना के वीगन उनी निलमि जो नो यथार्य (कार्यक्षा से सम्बन्धित) गाभव है उनका उल्लेख आगे की मायाम म्पय गरनविना मानगोने. नम) मेवा काग्ने म म मुक्ति के बदले कमवन्धन ही अधिक गम्भव है। माय ही यह विचारणीय है कि यहाँ मम्भवदेव (परमान्मदेव नाही नेवा करने का कहा है । वानी आत्ममाघरु का जादर्श सेव्य पुरुप परमानदेव हैं। परमात्मदेव को मामूली या न्यूनाधिक गुणा गदेवत्व प्राप्त नही हाना । ऐमें देवत्व की प्राप्ति के लिए अनन्न गुणो की परिपूर्णता होनी आव. श्यक है । परिपूर्णता के मिलर पर पहुंचे हुए आन्ना को ही परमानमदेव कहा जा सकता है । वही साधक द्वारा मेवा के योग्य आदगं हो सकता है । यही का है कि किमी किमी प्रति में 'मम्भवदेवत' पाठ मिलता है, उनका अर्थ मम्भव (परमात्म) देव की मंवा के बदले परमात्मा ये देवत्व को मेवा होता है, निश्चयनय की दृष्टि में यह अर्थ अधिक मगत प्रतीत होता है। तात्पर्य यह है कि वीतगग परमात्मदेव जनी किमी प्रातर को मेवा नहीं चाहते, वर्तमान मे वे स्वय प्रत्यक्ष नहीं हैं, इसलिए उनके शरीर मे मम्बन्धित वस्तुओ की सेवा करना भी सम्भव नहीं है , और परोक्ष होने के कारण उनकी आत्मा को हमारी मेवा की अपेक्षा नहीं है। बल्कि वे अपनी आत्मा को परमात्मदेव बनाने के लिए किसी की सेवा या सहयोग की अपना रमे विना स्वयं के शुद्धात्मभावरमण में पुरुपार्य करते हैं। वे प्रत्यक्ष हो या परोक्ष हमारे द्वारा उनके गुणगान या स्तुति करने मे उनको कोई भी लाभ नहीं है। वीतराग होने के कारण हमारे द्वारा सेवा करने या न करने से वे कोई खुश या नाराज नहीं होते, न वरदान या श्राप देते हैं। अत निश्चय हप्टि मे परमात्मसेवा का रहस्य है--शुद्ध आत्मसेवा। वीतराग-परमात्मदेव को आदर्श मान कर अपनी आत्मा को राग, द्वेप, कषाय आदि परभावो से हटा कर गुद्ध स्वभाव में लगाना, अपनी आत्मा को परमात्मा की तरह आत्मगुणों Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा से पूर्ण, व योग्य बनाने का मतत पुरुपार्थ करना-परमात्मदेवरूप आदर्श को न भूलना ही प्रकारान्तर से परमात्म-मेवा है। वस्तुत परमात्मसेवा शुद्ध आत्मभाव का एक आदर्श है । अत साधक के द्वारा परमात्मा के साथ स्वभावस्वल्परमणता के रूप मे अभिन्नता स्थापित करना ही परमात्म-सेवा है। यही कारण है कि जनदर्शन परमात्मदेव-शब्द मे राग, द्वेष, अहकार आदि परभावो में पड़ने वाले, जगत् के नियन्ना-कत्ता-धर्ता-हर्ता, अच्छे-बुरे कर्म के फल प्रदान मे समर्थ किसी तथाकधित देव को आदर्श वा मेव्य नही मानता । परमात्मदेव इन सब मोहमायादि परभावो मे रहित निरजन, निराकार, अनन्तज्ञानादि गुणो मे परिपूर्ण परमगुद्ध आत्मा होते हैं। परमात्मसेवा कैसे ? पूर्वोक्तस्वरूपयुक्त परमात्मदेव की मेवा कमे की जाय ? उन्हें क्या भेट चढाई जाय ? उनकी सेवा के लिए क्या ले कर पहुँचा जाय ? ये और ऐसे प्रश्न सेवक के सामने उपस्थित होते हैं। यह तो सर्वविदित है कि वीतराग परमात्मा किसी प्रकार की वाह्य भेंट या समार का कोई भी पदार्थ दूसरो से नहीं चाहते। परन्तु आत्मार्थी माधक जब वीतरागदेव को आदर्श मान कर उनकी सेवा करने के लिए तत्पर होता है तो परमात्मसेवा के लिए उमे अपनी आत्मा मे वैसी योग्यता प्राप्त करनी चाहिए । विना भूमिका प्राप्त किये ही कोई व्यक्ति वाह्य नाचगान, रगराग या कीर्तन-भजन आदि को ही परमात्ममेवा मान वैठेगा तो वह धोखा खाएगा। परमात्मसेवा केवल 'नाचने, गाने, या रिझाने से नहीं हो जाती , उसके लिए अपनी आत्मा मे वैसी योग्यता प्राप्त करनी जरूरी है। कोई व्यक्ति दशवी कक्षा की योग्यता प्राप्त किये बिना ही प्राइमरी मे सीधा दशवी कक्षा मे बैठ जाय तो वह सफल नहीं हो सकता, वैसे ही परमात्मसेवा की भूमिका या योग्यता प्राप्त किये बिना या मेवा का क ख ग सीख कर बीच की भूमिका पार किये विना सीधा ही परमात्मसेवा की उच्चकक्षा पर पहुँचना चाहे तो वह सफल नही हो सकता। इसीलिए परमात्मसेवा के लिए सर्वप्रथम अपना उपादान तदनुरूप शुद्ध होना जरूरी है। उपादान शुद्ध हुए विना मेव्यपुत्प-परमात्मा के प्रत्यक्ष निक्ट सम्पर्क मे रहने पर भी व्यक्ति उनने कुछ लाभ नहीं उठा सकता, वास्तविक मेवा करना तो बहुत दूर है। और न ही उनसे परोक्ष नेवा हो सकती है। इसीलिए यहाँ सेवा के लिए Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन प्रथम भूमिका प्राप्त कन्ने का अर्थ होना है-मो-गपुरुष के अनुरप अपने उपादान की शुद्धि । 'देवो भूत्वा देव यजेत्' इन च्याप गे अनुसार तीनराग परमात्मदेव की मेवा के लिए अपनी आत्मा (उपादान) के तमनुन्य होने का पुरपार्थ करना आवश्यक है। यहाँ 'सेवनकारण' शब्द है, उसका जथं 'मेवा के लिए अभिम नगर प्रतीत होता है। यदि 'नवनगाण मद में कारण शब्द को निमितका माना जाय तो भूमिका का अयं करना होगा---'चित्त भूमिका' (अगम्या) अयवा 'चित्तभूमि' (मनोभूनि) । क्योकि मान्नया में चित्त की अमुक भूमिका या अमुा प्रकार की चित्तभूमि ही निमित कारण बन सकती है। परमात्मसेवा को प्रथम भूमिका के स्प मे तीन बातें जरूरी परमात्ममेवा की निष्ठा रखने वाले साधक के लिए प्राथमिक भूमिका के स्स में तीन बाने प्राप्त करनी जस्ती है-'अभय, अद्वैप, अखेद । इन तीन की पहली भूमिका मे अनिवार्यता नलिए बताई कि साधारण व्यक्ति या राजा अथवा धनाढ्य की मेवा के लिए भी व्यवहार में नदनूतन योग्यता और भूमिका प्राप्त करनी पड़ती है, तय लोकोनर बीतगग परमात्मा की सेवा के लिए तो काफी ऊंची आत्मभूमिका अथवा चित्त भूमिका का होना आवश्यक है । परमात्मा की सेवा को बहुत-ने अज्ञलोग बहुत आमान नमलते है अथवा बहुत-से नशेबाज या पूर्त लोग साधु-सन्त के वेप मे कुछ मी त्याग करने की बात अथवा आत्मभावो मे रमण करने की बात को तिलाजलि दे कर मिर्फ नशा क के मूरत लगाने या परमात्मा के कोरे गुणगान, कीर्तन-भजन करने मात्र ने उनकी सेवा होना मानते हैं । परन्तु यह इतना मना मौदा नहीं है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी इसी स्तुति की अन्तिम गाथा में कहाँ है-"मुग्ध सुगमकरी सेवन आदरे रे, सेवन अगम अनूप" इसी कारण परमात्मदेव की सेवा की पायता के लिए ये तीन वाते सर्वप्रथम आवश्यक बताई है । यदि साधक को परमान्मम्वरूप का १--योगसाधना मे चित्त की पाच भूमिकाएं बताई गई हैं ---क्षिप्त, मूड. . विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा भय, द्वेष, नदी मेवन (स्पर्श या मिलन) करना हो तो उसके लिए प्राथमिक योग्यता के रूप मे उसमे भयरहितता, द्वापरहितता और खेदरहितता होनी आवश्यक है । इन तीनो के विना आत्मा मे परमात्मदेव की सेवा की योग्यता नहीं आती। किसान नेत मे बीज बोने से पहले भूमि को साफ व समतल करता है, उसमे काटे, ककड, झाडझखाड आदि हो तो उन्हे उखाड फेंकता है, जमीन ऊवडखावड हो तो उने फोड कर दताली से सम बनाता है । इसी प्रकार आत्मस्पी भूमि में सेवारूपी वीज बोने से पहले आन्मभूमि मे रहे हुए भय, तुप, खेद आदि काटे-ककडो को साफ करके आत्मभूमि को समताभाव से समतल बनाना आवश्यक है। तभी परमात्ममेवा का यथार्थ फल मिल सकता है। भय, द्वेष, खेद से ककरीली, कटीली या पथरीली बनी हुई ऊबड़-खाबड (विषम) मनोभूमि या आत्मभूमि मे यदि परमात्मसेवारूपी बीज बो दिया जायगा तो वीज तो निष्फल होगा ही, परिश्रम भी व्यर्थ जायगा । इसीलिए परमात्मसेवा के लिए तत्पर साधक को पहली भूमिका के रूप मे ये तीन बातें अपनानी जरूरी है। आगे की भूमिका के लिए तो इससे भी बढकर उच्च योग्यता की अपेक्षा है, यह बात भी 'पहली' शब्द से ध्वनित होती है। अव आगे की गाया मे श्रीआनन्दघनजी स्वय इन तीनो के अर्थ बताते है'भय' चंचलता (हो) जे परिणामनी रे, 'द्वष' अरोचकभाव । 'खेद' प्रवृत्ति हो करतां थाकिए रे, दोष अबोघ= लखाव ॥सभव०२॥ अर्थ परिणामो (मनोभावो) अथवा विचारो की चचलता (अस्थिरता) ही भय है, परमात्मसेवा के प्रति अरुचि, अथवा मन के प्रतिकूल पदार्थ के प्रति या मुक्ति, मुक्तिमार्ग या मुक्तिमार्ग के आराधक के प्रति घृणा अप्रीति दोष है, इसी प्रकार परमात्मसेवा की या सयमादि धर्म की प्रवृत्ति क्रिया करते हुए ऊव जाना, घबरा जाना, थक जाना या रुक जाना खेद है। परमात्मसेवा मे बाधक ये तीनो दोष अवोध (नासमझी, अज्ञान या मिथ्यात्व) की निशानी हैं ।। शाण्य परमात्मसेवा मे प्रथम विघ्न . भय परमात्मसेवा अन्ततोगत्वा शुद्ध आत्ममेवा मे फलित होती है। अत Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अध्यात्म-गन साधक को मन के विगी भी कोने ग यदि नरमादिपा भय छाया राना, या नरकादिभव-निवार यसो हटिग ही यह परमात्मनया का मार्ग करता है, अथवा परमात्मगवा का तय नन्दादि भर पा मिनी भय के निवारण का है . अथवा किनी अपयश, आग्मात् अपंदना, गुमला, या प्राण अपवा आजीरिका ने जान दर में परमात्मा की जानी है या अन्य किनी ग्वायं में भग पर जाने गे, टर की जानी : तो यह गाप्रेन्नि होने के कारण दीपयत है । मोकिम का अर्थ पग्गिामो में जनता आ जाना है। जब मनुष्य के मन में भय की जाग नगती है तो यह नन ना की लपटे उछालता है और मन मसान्मभावरमानापरमानना हट कर अमुक भय के चिन्तन में चना जाता है, चिन एमाग्र न रह फर हो जाता है। कई दफा मनुप्य परिवार, नमाज, जाति, चौम, नयनर ग या विमी तथानायिन महान् व्यन्फिरमे परमात्ममेवा में लगता। बदमा इनके दवाव मे या निन्दा ने दर ने गद्ध परमात्ममेवा के मार्ग की छट बैठना है। वास्तव मे ये सब, परमात्ममेवा मे नाट करने वाले नया मनोयोग को चचन बनाने वाले होने से विघ्नवान्क हैं । जाम्लों में भय के मुख्यतया ७ कारण बताये हैं-इहलोकमय, पग्लोरभय, जादान (छीन लेने का) अथवा अत्राण (असुरक्षा का) भय, आम्मात् (दुर्घटना हो जाने का) भय, आजीविका का भय, अपयमभय और मरणभय । माधक ने उन ७ भयो मे में कोई भी भय होगा तो वह रजोगुणी बन जागा, अस्थिर हो जायगा उनकी आत्मा शुद्वात्मभावरमणतात्पी परमात्मनेवा ने विमुत्र हो जाएगी। नगरक्त प्राणी कोई भी नत्कार्य नाहनपूर्वक नहीं कर नाता, वह लत्कार्य गन्ने मे दूनरो मे दवना है, सच्ची बात नहीं कह सकता, उनका जीवन नदा गपागम्न बना रहता है, ऐसी स्थिति में पमात्ममेवा के बारे में भी उनकी ममल स्याट नही होती, उसका ज्ञान-दर्शन सम्यक् नहीं होना । परमात्ममेवा मे द्वितीय विघ्न . द्वेष परीमात्मा क गवा का तात्पर्य शुद आत्मा की वा है । जब आत्मभाव मे भिन्न भावो-गरीर और गरीर ने सम्बन्धित वस्तुओ के प्रति गचि, प्रीति और उसका उत्कटस्प मोह या लालना होनी है जब अनगमभापो के प्रति गचि प्रवल होती है तो आत्मभावो की मेवा ( मात्मनेवा) के प्रति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा ४६ । अरुचि या घृणा हो जाती है। मतलब यह है कि जव आत्मभाव-रमणता के प्रति अरुचि होती है तो साधक के जीवन में शरीर से सम्बन्धित पदार्थोंधन, मकान, जमीन जायदाद, सन्तान, जाति अथवा सम्प्रदाय आदि के प्रति आकर्पण, राग या मोह वढ जाता है। क्योकि यह स्वाभाविक है कि जब एक पदार्थ के प्रति राग या मोह होगा तो दूसरे पदार्थ के प्रति अरुचि या घृणा होगी। वही वास्तव मे उप है। शुद्धात्मभाव के प्रति या आध्यात्मिक प्रगति के प्रति ऐसा अरोचकभाव परमात्मसेवा में बाधक है। दूसरी दृष्टि में सोचें तो शुद्धात्मभाव की दृष्टि से स्वरूप मे रमण करने वाला साधक जव किसी जाति, धर्म सम्प्रदाय, वेप, रग, वर्ण, प्रान्त, या राष्ट्र के व्यक्ति या प्राणी के इन वाह्यस्पो-परभावो को देख कर अरुचि या घृणा प्रगट करता है, उसके प्रति अप्रीति पैदा होती है , तब वह उसके अन्दर विराजमान शुद्धात्मतत्त्व को नहीं देखता, किन्तु उसके बाह्य (शारीरिक) रूप, वेपभूषा व रहनसहन को ही देख कर उससे घृणा या अरुचि करने लगता है , यह भी परमात्मसेवा मे विघ्न है। ___अथवा दूसरी दृष्टि से कहे तो शुद्धात्मदगा मे रमणता यानी परमात्मसेवा करने वाले माधक को जीवन मे शरीर और मन के प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति या प्रतिकूल (अनिष्ट) वस्तु या व्यक्ति के प्राप्त होने पर यानी निश्चयनय की भापा मे कहे तो प्रतिकूल परभावो का सयोग उपस्थित होने पर अरुचि, अप्रीति या घृणा होना भी परमात्मसेवा मे वाधक है।। अथवा यो भी कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति परमात्मसेवा (शुद्ध आत्मसेवा) के लिए तत्पर है, उसको अगर सर्व कर्मक्षयकरी मुक्ति के प्रति या मुक्तिमार्ग के प्रति अरुचि है , जो भवाभिनन्दी साधक इन्द्रियों के भोग-विलारा, नाचगान, खानपान आदि मे मस्त हैं, और यह सोचता है कि मुक्ति में तो ये सब चीजें हैं नही , अत उस रुखीमूखी मुक्ति से क्या लाभ ? इस तरह जो व्यक्ति मुक्ति या मुक्तिपथ का नाम सुनते ही मुंह मचकोड कर उसके प्रति घृणा और अप्रीति प्रगट करता है, तो उसका यह अरोचकभाव भी द्वेप है, जो परमात्मसेवा में बाधक है। परमात्मसेवा मे तीसरा विघ्न : खेद आत्मा की शुद्धदशा मे रमण करने की या मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करते Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ग-दर्शी ममय थक जाना, रक जाना, कब जाना लगताइट पंदा होना गंद है, और . वह भी परमात्ममेवा में विघ्न । बहुत-गी वान हम देखने है कि नाधक गरमान्ममैया की माधना गिनाकरता अब जाता है और नाह उठता है-अब नहीं नगा र प्रवृनि यो करें । नने वर्ष तो करते-कग्ने हो गये । गव या तो वर शुसान्मगावरगणना गी या मोक्षमार्ग की प्रवृति को वेगार यमा कर जी-नंग विना गन गाया, अथवा ढुसला कर उने बिननुल ठोट देना है । अथवा चिनी आत्मसाधर को वर्षों तक परमात्ममेवा की माधना करते हो जाते हैं और उगे उगने अनुकूल अभीष्ट फल नहीं नजर आता अथवा प्रतिकून फल नजर आता है, या उसकी उक्त नाधना के साथ सजोची हानीरिक पनाकाक्षा पूर्ण नहीं होती, नव या तो वह उस साधना के प्रति अश्रदा प्रगट करना है, या रोगांन कर वहीं स्थगित कर देता है। जयवा आत्मसाधना या मोभमाधना की प्रवृत्ति करते-करते फल के लिए उतावला हो कर फल के शीघ्र दृष्टिगोचर न होने पर काशील हो कर बिना किसी प्रकार का ममाधान अथवा आत्मनिरीक्षणअवलोकन या अपनी भून का पर्यालोचन-परिमार्जन मिरे विना नना उना प्रवृत्ति करने मेक जाता है। गेमर नेद के ही प्रकार है जो परमानागेवा के मार्ग मे बहत बडे विघ्न हैं। ये तीनो दोष अबोध के परिचायक हैं परमात्मसेवा के मार्ग में वाधक या विघ्नमारक, भय, द्वीप और मेद नामक ये विदोप वात-पित्त-कफ नामक निदोष के समान माधक के अवोध के चिह्न है। ये तीनो दोष आत्मयाधक मे हो तो ममलना चाहिए कि उनमें परमात्मसेवा के बारे में नासमझी है, अज्ञान है अथवा अल्पज्ञान है। उगे पता ही नहीं कि ये तीनो दोप मिल कर उसकी परमात्ममेवा-साधना की जड कैमे काट रहे है। परमात्ममेवा के साधक को अपनी साधना के दौरान जहां - परिणामो मे किसी भी प्रकार की चचलता (अस्थिरता) दिखाई दे, अथवा म्वभावरमणस्प परमात्मसेवा या मुक्तिमार्ग की प्रवृत्ति करते समय किमी व्यक्ति, परिस्थिति, शरीर या शरीर मे मम्वद्ध वस्तु या प्राणी के प्रति अमचि या घृणा पैदा होने लगे, अथवा आत्ममाधना-रूप परमात्मसेवा (मुक्तिमार्ग) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा , की प्रवृत्ति करते समय थकान, अधीरता या झुंझलाहट होती प्रतीत हो तो समझ लेना चाहिए कि यह मेरी किसी नादानी का परिणाम है। मुझे इनसे वच कर तुरत किनाराकमी करनी चाहिए ; अन्यथा मेरी परमात्ममेवा की प्राथमिक भूमिका परिपक्व नही होगी , कच्ची रह जाएगी। इन तीनो दोषो से रहित हो कर परमात्मसेवा की भूमिका तैयार करें निवर्प यह निकला कि किसी के लिहाज, दवाव, या किसी प्रकार की • भीति के शिकंजे मे न आ कर निर्भयता से--अभय वन कर सेवासाधना करे , साथ ही सभी प्राणियो-खामकर मानवो मे निहित प्रतिकूल वेप, जाति, सम्प्रदाय, वर्ण, रग, प्रा.त आदि के प्रति, या प्रतिकूल परिस्थिति अथवा वस्तु के प्राप्त होने पर उनके प्रति घृणा, अरुचि या अप्रीति छोड कर प्राणियो मे निहित गुद्व आत्मतत्व के प्रति रुचि या प्रीति करे, अनिष्ट वस्तु या स्थिति के प्राप्त होने परशुद्ध आत्मभाव की और अपनी लीनता-नन्मयता रखे। इसी प्रकार परमात्मसेवामाधना की किसी भी प्रवृत्ति को रुचिपूर्वक, श्रद्धापूर्वक, धैर्य के साथ विना, थके बिना, ऊवे फनाकाक्षा पूरी न होने पर भी उत्साहपूर्वक सतत करता रहे। परमात्मसेवा के लिए प्राथमिक भूमिका के रूप मे अभय, अद्वप और अखेद इन तीनो को साधक अपना ले, यही श्रीआनन्दघनजी का आशय है। भूमिकापूर्वक परमात्मसेवा के वास्तविक अवान्तर फल पूर्वगाथाद्वय मे परमात्ममेवा का स्वरूप, रहस्य और उसके लिए प्राथमिक भूमिका के रूप मे भय, द्वेप और खेद इन तीनो दोपो का त्याग बताया , परन्तु माधक के अन्तर मे सहज ही प्रश्न होता है कि आखिर परमात्ममेवा की पूर्वोक्त भूमिका और स्थिति कब और कैसे तैयार होती है ? उसे उक्त साधना के दौरान क्या क्या यथार्थ लाभ कर्मक्षय या क्षयोपशम की दृष्टि से मिलते हैं ? इमी जिनामा को शान्त करने हेतु श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा में कहते हैचरमावर्त हो चरमकरण तथा रे, भवपरिणति-परिपाक । दोष टले वली दृष्टि खुले भली रे, प्राप्ति प्रवचन-वाक् ॥सम्भव०॥३॥ अर्थ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-वन जव चरम (अन्तिम) पुद्गलपरात चल रहा हो, यानी भवनमण फा अन्तिम च हो , तथा उसमे भी चरमपरा (नोनों करणों में से अन्तिम करण) हो और जब मवररिणनि (जन्ममरण की स्थिति परम्पग) मा परिपाक = अन्तिम तिरा आ पचा हो, तव कर्ममलरप टोपो का निवारण हो जाता है, तथा उसकी दृष्टि सम्यक् हो पर खुल जाती है, मात्मसम्मा होती जाती है और उगे वीतराग-प्रवचन को मापी मा लान प्राप्त होता है ! भाप्य पूर्वोक्त गाथाद्वय में वताये हुए भय, द्वेष और मेदन तीनो दोपों से चले जाने पर परमात्मगेवा की प्रथम भूमिमा प्राप्त होती है , और नत्र गाय की दृप्ति में में मनामिनन्दिता (मगार में जन्म-मरण के चक्र में जलने गनी बातो मे मनि = प्रसन्नता) मिट जाती है और उसमे मोक्षाभिनन्दिना उत्पन्न हो जाती है। यानी नाधक का मन नगार की गैर मे हट गेनी और हो जाता है। पहली उपलब्धि · चरमपुद्गलपगवतं कमलयस्प मुक्ति की दशा में माधर जपारजन्ममरणा नसारमागर मे मिथ्यात्वाश्रित अनन्तदुखरूप जनन्न पुद्गलपनवों का अनुभव करना हुआ सागर के किनारे लगने की तरह पुद्गलपरावर्त के किनारे लग जाता है। अर्थात् उनका पुद्गलपरावर्तजन्ममरण का तक जन्तिम रह जाता है। परमात्ममेवा के लाभ के रूप में साधक की समारयामा कितनी कम हो जाती है । मोक्ष की दौड मे वह कितना नफल हो जाता है । चरमपुद्गलपरावर्न कोई कम उपलब्धि नहीं है। पुद्गलपरावर्त जैन पारिभाषिक शब्द है । द्रव्य मे मामान्यतया मर्वपुद्गलो का जिगमे ग्रहण और त्याग हो ,वह पुद्गलपगवतं कहलाता है । चरम (अन्तिम) पुद्गलपरावर्त यानी पर्यन्नवर्ती पुद्गलावर्त-- द्रव्यत. सामान्यतया मभी पुद्गलो के गहण और त्यागरूप से प्रवृत्त होने पर होता है । इसका स्पष्टीकरण इम प्रकार है-चौदह रज्जूनमाण नोक मे आदारिक, वैक्रिय, नेजम, कार्मण, भाषा, श्वामोच्छ्वान और मन इन मातो की वर्गणाओ के रूप में सभी पुद्गल भरे हुए हैं। उनका परिणमन करना अर्थात् उक्त प्रत्येक वर्गणा के रूप मे प्रत्येक पुद्गल का परिणमन किया जाय, तब द्रव्य से वादर पुद्गलपरावर्त होता है। इसी तरह एक-एक पुद्गलपरमाण . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा ५३ को पहले औदारिक वर्गणा के रूप मे भोगे, तत्पश्चात् क्रमश : वैक्रियादि छहो वर्गणाओ के रूप में दूसरी वर्गणा के व्यवधानरहित भोगे, इस प्रकार क्रमश सातो वर्गणाओ के रूप मे सर्वपुद्गल भोगे जाय, तव द्रव्य से सूक्ष्म पुद्गलपरावर्त होता है । इममे एक परमाणु औदारिकवर्गणा के रूप मे भोगने पर यदि बीच मे वैक्रियादिवर्गणा के रूप मे उसे चाहे जितनी वार भोगा जाय, वह सूक्ष्म पु० प० मे नहीं माना जाता। लोकाकाश के असख्य प्रदेश है। प्रत्येक प्रदेश का मरण से स्पर्शन किया जाय, तव क्षेत्र से वादर पुद्गलपरावर्त होता है, इसी तरह लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश का क्रमश एक के बाद एक मरण से स्पर्शन किया जाय, तब क्षेत्र से सूक्ष्म पुद्गलपरावर्त होता है । क्षेत्र से सूक्ष्म पुद्गलपरावर्त मे एक प्रदेश मे मरण होने के बाद उसके अनन्तर (उसमे विलकुल सलग्न) प्रदेश मे मरण हो, वही माना जाता है, वीच के काल मे अन्य प्रदेशो मे चाहे जितने मरण हो, वे नही गिने जाते । कालचक्र के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनो के सभी समयो का व्युत्क्रम से (आगे-पीछे) मरण मे स्पर्शन करे, तव काल मे वादर पुद्गलपरावर्त होता है, तथा इसी प्रकार कालचक्र के उत्सपिणी और अवसर्पिणी आरो के समय का मरण मे क्रमश स्पर्शन हो, तव कालसे सूक्ष्म पुद्गलपरावर्त' होता है। उदाहरणार्थइससे पीछे की उत्सर्पिणी के प्रथम समय में मृत्यु होने पर उसके वाद की दूसरी किसी भी उत्सर्पिणी मे दूसरे ममय मे मृत्यु हो, वही काल मे सूक्ष्म पु० प० माना जाता है । वाकी के बीच के मरणसमय की गणना इसमे नही की जाती । कपाय से अध्यवसाय पैदा होते हैं, और उनसे कर्मबन्ध होते हैं। चूंकि कपायजनित अध्यवमाय तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि होने से कर्मबन्ध मे बहुत तारतम्य . (न्यूनाधिक्य) होता है। कषायजनित अध्यवसायो की तीव्रतामन्दता के असख्य स्थान (डिग्रियाँ) होते है, इसीलिए अनुवन्ध-स्थान भी असख्य है। चूंकि वामना अनेक प्रकार की होती है, अत अनुवधस्थान भी असख्य (उतने ही) प्रकार के होते हैं। इन मभी अनुवध- स्थानको को पहले-पीछे मृत्यु द्वारा स्पर्श करके पूर्ण करे, तव भाव से वादर पुद्गलपरावर्त होता है। इसी प्रकार पहले अल्पकषायोदय के अध्यवसाय से मृत्यु पा कर, नत्पश्चात् उसके अनन्तर रहे हुए (लगते) अध्यवसाय-स्थान मे मरण प्राप्त करके क्रमश सर्व अध्यवसायस्थानो का उक्त मरण से स्पर्श .. .... Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ এল-বাল करे, तब भाव से सूक्ष्मपुद्गलपरावनं संता है। बाद बीन में दूसरे अध्यवसाय स्थानो ना मरण में पर्ण गरेनी उंगे गुदग T० नहीं माना जाता। प्राणी ने ऐगे अनन्त पुद्गतगरनन किये । प्रसार पाल अगणित पुद्गलपरावर्ननो से प्रवाह ग वर, अब ना पंदे गाना साया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाप में जो पुद्गरगवतंन पर बताए , वो वादर (म्यूल) परावर्तन वताए है, सूक्ष्म पुद्गनगन नो अनन्त वार लिय होगे। तात्पर्य यह है मूक्ष्म पुद्गल-गवर्तन र विचार करें तो दम कोटाकोटी मागरोपमकान की एक उत्यगिणी ोती है. उगः प्रथम समय में मरण हो, उनके बाद दूसरी उन्सर्पिणी के ठीक गरे नगर में मरण हो, वहीं गिना जाता है । वीच मे व्युत्लम मे जितनी बार मरण हा. वे व्ययं गा । वे सूक्ष्म पुद्गलपरावर्त की गणना में नहीं आते। जग प्रकार, फे अनन्त गुदगनपरावर्त हो चुकने के बाद जब गगार में भट याने भटमरी प्राणी TT निम पुद्गलपरावर्त आए, तब उसे ओघदृष्टि हट कर योगदृष्टि मान होने लगती है। परमात्ममेवा की प्राथमिक भूमिका (योग्यना) हो जाने पर गाधर को उम 'चरमपुद्गलावर्त' का लाभ मिलता है । यह भी पर प्रसार ती 'कालनधि' है। दूसरी उपलब्धि चरमकरण म ससार में उपर्युक्त कयानानुसार अनल गुदगलपगवर्ननमाल नक प्राणी अवोधदशा में भटकता रहता है। वह गगद्वेप में गाट गम्न, मसारगमिका हो कर जनेक प्रकार की स्यूल और मूदम यातनाएं गहता है। गट्ने में मे निकल कर दूगरे में गिरता है। कई दफा देवगनि म जन्म ल बर म्यून मुखो का अनुभव करता है, तथा अनेक वार नरकगति में पैदा हो कर महायातनाएँ महता है। कई बार तो एक बार आख मूद कर चोले, उतने समय मे १६-१६ बार जन्ममरण होता है। परन्तु जहाँ तक नम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं होती, वहाँ तक पीद्गलिक पदार्यो-परभावो मे ही वह आनन्द मानना है , परभावी मे रमण का वह आदी हो जाता है। परन्तु जब किसी जिज्ञासु को यथार्थ मार्ग पर आना होता है तो उसकी ओघदृष्टि नष्ट हो कर योगदृष्टि खुल जाती है । वह चरम पुद्गनपरावर्त तक आ पहुँचता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा और सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले वह धर्ममार्गानुसारी सुनीति, उचित नियत्रण और उचित व्यवहारमार्ग पर चल कर गुणप्राप्ति मे धीरे धीरे प्रगति करता है और व्यवहारकुशल बनता है। जैनदर्शन मे सम्यक्त्व प्राप्त होने से पहले उक्त मार्गानुसारी व्यक्ति को तीन करण प्राप्त होने का विधान है। करण का अर्थ यहाँ एक विशेष परिणाम या अध्यवसाय है। वे तीन करण ये हैयथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । ये तीनो करण सम्यक्त्वप्राप्ति मे कारणभूत हैं। __ययाप्रवृत्तिकरण मे प्राणी की पूर्वकाल मे जैसी प्रवृत्ति थी, वैसी ही बनी रहती है, उसमे जरा भी परिवर्तन नही होता । कई लोग इसे अध - प्रवृत्तिकरण भी कहते है। जिस प्रकार पहाडी नदी का पत्थर नदी मे वारवार इधर-उधर लुढकते-टकराते गोल, चमकदार व चिकना बन जाता है, इसी प्रकार जीव भी मसारसागर मे अनेक दुख सहते-सहते कोमल और शुद्ध परिणामी बन जाता है । उसका परिणाम इतना शुद्ध हो जाता है कि उसके वल पर उसके आयुष्यकर्म के सिवाय बाकी के ज्ञानावरणीय आदि सात कर्मों की (मिला कर) उत्कृष्ट स्थिति १ घटते-घटते पल्योपम के अमख्यातवे , भाग न्यून (जरा-मी कम) एक कोटाकोटी सागरोपमकाल की रह जाती है। इसी परिणाम को शास्त्र मे यथाप्रवृत्तिकरण कहा है। यथाप्रवृत्तिकरण से जीव रागद्वेप की एक मजबूत, कर्करा, गूढ वाँस के समान दुर्भद्य दृढ ग्रन्थी (गाठ) तक आता है, इसी को ग्रन्थीदेश की प्राप्ति कहते हैं । यो तो यथाप्रवृत्तिकरण से अभव्यजीव भी इस ग्रन्थीदेश की प्राप्ति अनन्तवार कर सकते हैं, यानी कर्मो की बहुत बडी स्थिति घटा कर अन्त कोटाकोटी सागरोपमप्रमाण कर मकते हैं, परन्तु वे रागद्वेप की इस दुर्भेद्य निविड ग्रन्थी को तोड नहीं सकते । अत इस ग्रन्थी का भेदन किये विना ही प्राणी वापस पूर्वप्रवृत्ति मे १ कर्मो की उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति ६० कोटाकोटी मागरोपम की है, मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटी सागरोपम की है, नाम-गोत्र कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति २० कोटाकोटी मागरोपम की है , आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति २२ मागरोपम की है। -prmirm anen - ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-नभर लौट जाय तो यशाप्रवृत्तिकारण का कोई नहीं रहा या निन यथाप्रवृत्तिकारण तो प्राणी ने अनेक बार लिया। रित ने अनन्न यथाप्रवृत्तिवरण दिया हुआ भव्यजीव अन्तिम पवाप्रवृति याद गाग नहीं लौटना , ज्यो-ज्यो वह आगे बना जाना है वायो गोपरिणामो मे यथाप्रवृत्तिकरण में भी अधिकाधिक निर्मना (टा) होती जाती है. और एक दिन वह उन विशुद्धनर परिणाम माग गरगनीम और काठोर ग्रन्थी को-जयात गगढेष ने अनिष्टमगारो पो किन-भिन्न कर सकता है। ____ अपूर्वकरण-भव्यजीय पूर्वोन जिन परिणाम में गगद्वैपकी मुर्भेय नयी को लाघ जाता है, उग परिणाम को शाम्ब में अपूर्यकरण रहा है। वपूर्वकरण नाम रखने का मतलब यह है कि जग प्रकार का परिणाग कदाचित् ही होता है, वारवार नहीं होता । उसकारण गे तथा प्राणी ने अपनी ममारयाना में इससे पहले कभी इस प्रकार का प्रन्धीभेद नहीं किया होने में तथा गगट्टेप की पकी गाठ वो तोड टालने का यह पहला ही जबगर होने को गारण आत्मशक्ति के उग अभूतपूर्व उज्ज्वल जीर नाहगा गागं को 'अपूवंगा ' रहा जाता है। इन प्रबर वनग्रन्थी के टूटने मे चेतन गगद्वेग पर कुठार की तरह तीणपरिणामस्पी घाग ने प्रहार करने उक्त ग्रन्थी को शियित पर देता है और अपनी अगूर्व जात्मगक्ति को नमसार को आगे बटाना है, अपनी प्रगति के नये आयाम और नूनन द्वार पोलता है। परन्तु अगुववरण वही कर मकना है, जिनने यथाप्रवृत्तिकरण ल्यिा हो । मगर यथाप्रवृत्तिकरण वाला अपूर्वकरण करे ही, ऐमा एकान्त नियम नहीं है । पर अपूर्वकरण माग्ने । लिए पहले यथाप्रवृत्तिकरण करना अनिवार्य है। दृष्टि में ययाप्रवृत्तिकरण की अपूर्वकरण के पूर्वकरण के रूप में बहुत ही उपयोगिता है। किन्तु यह ध्यान रहे कि पूर्वकरण मे निविड रागद्वेप की गाठ टूटने से रागहेप का मर्वथा नाश नहीं हो जाता, रागद्वेष की जो पक्की गाठ पी, वह खुल जाती है, उमकी पकट ढीली हो जाती है और उमका मर्वथा नाग परने का मार्ग खुल जाता है। . अनिवृत्तिकरण-चरमकरण =अन्तरकरण-अपूर्व (करण) वीर्योत्नान के परिणाम गे प्राणी ग्रन्थिभेद करने के बाद अन्तमुहर्तकाल में अनिवृत्ति Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा करण मे आ जाता है। अपूर्वकरण करते समय प्राणी के परिणामो मे जो निर्मलता (कर्मक्षय के कारण) हुई थी, उमकी अपेक्षा अनिवृत्तिकरण में और भी अधिक निर्मलता होती है। इसे अनिवृत्तिकरण या चरमकरण इसलिए कहा जाता है कि इम परिणाम के बल मे जीव सम्यक्त्व को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सस्यवत्व प्राप्त किये बिना वह निवृत्त नहीं होता, वापिस नही लौटता । इन तीनो करणो का क्रम इस प्रकार है-जव तक पूर्वोक्त ग्रन्थीदेश है, तव तक प्रथमकरण है, ग्रन्थीभेद हो जाने पर द्वितीय करण हो जाता है, और जव जीव सम्यक्त्व को आसन्न (निकट) कर लेता है, या पुरस्कृत (सामने) कर लेता है, तव अनिवृत्तिकरण होता है। अनिवृत्तिकरण की स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, उस स्थिति में से जव कई एक भाग व्यतीत हो जाते है और सिर्फ एक भाग शेष रह जाता है, तब अन्तरकरण की क्रिया शुरू होती है। वह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होती है। चूंकि अन्तर्मुहूर्त के असख्यात भेद है। अन्तरकरण करने पर उस मिथ्यात्वकर्म के एकत्रित कर्मदलो की दो स्थितिया हो जाती है । अन्तरकरण से अधस्तनी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहर्तपर्यन्त रहती है, उतने काल में जितने भोगे जा सके, उतने उसके कर्मदल होते है । और दूसरी स्थिति इसी अन्तरकरण से शेप उपरितनी होती है। प्रथम स्थिति में जीव अन्तिम अन्तर्मुहूंर्तकाल मे मिथ्यात्व-कर्मदलिको को भोग लेता हे , तव तक वह इमलिए मि यादृष्टि ही रहता है। परन्तु अन्तर्मुहूर्त के बाद प्रयम स्थिति, के हटते ही अन्तरकरण की द्वितीय स्थिति के प्रथम समय मे ही औपशमिक मम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। क्योकि उस समय में मिथ्यात्वमोहनीय कर्मदलिको का विपाक और (प्रदेशोदय = वेदन) नही रहता। परन्तु यह औपशमिक सम्यक्त्व उतने काल (अन्तर्मुहूर्त) तक ही रहता है, जितने काल तक के उदययोग्य दलिक आगे-पीछे कर लिये जाते हैं। इसके प्राप्त होते ही जीव को पदार्थों की स्पष्ट या असदिग्ध प्रतीति होती है। जैसे वन मे लगी हुई दावाग्नि पहले जले हुए इन्धन या ऊपरप्रदेश को पा कर दब जाती है, वैसे ही मिथ्यात्ववेदनरूप दावानल भी अन्तरकरण को पा कर दव जाता है। ऐसी स्थिति मे व्यक्ति को औपशमिक सम्यक्त्व का लाभ होता है । तात्पर्य यह है कि अनिवृत्तिकरण गे प्राणी दो कार्य करता है-मिथ्यात्वस्थिति के दो Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अध्यात्म-वर्णन विभाग करो अनरकरण करता है। अन्नगृहतं काल ना का मिथ्यात्वकामदलिक वाला छोटा पुज जो उदय में आता है, उनका क्षय कर देना, और इनके अनन्तर क्षण मे ही बाकी के जो गर्मदनिक उदयाभिमुग्न न हा हा उम पु ज को उपशान्त कर देना है, जिससे उगे २ उगमसम्यवन्य प्राप्त होना है। उस प्रकार के अनिवृत्तिकरण को ही घरमकरण मगसना नाहिए। मिथ्यात्वकर्मदनिको का इस प्रकार अन्तर करना (मेद पालना) ती अन्तरकरण कहलाता है। मिथ्यात्वमोहनीय थे नगदलिको मे जिम नगय इस प्रकार का अन्तर (भेद) किया जाता है, उन गमय प्राणी को जो आनन्द आता है, उसकी तुलना ग्रीष्मऋतु मे रेगिस्तान में दोपहर को चलती हुई लू और कडी धूप मे व्याकुल प्राणी के शरीर पर वावना चन्दन छिड़काने में अथवा रेगिस्तान में किसी हरे-भरे जमीन के टुक्दे को पा कर जो आनन्द जौर मुम्बशान्ति प्राप्त होती है या जो अपूर्व मानन्दमयी परिस्थिति बन जाती है, उगमे की गई है। ठीक इसी प्रकार का आनन्द अनिवृत्तिभरण न अन्त मे और अन्नग्करण के प्रथम समय में प्राणी को होता है । उग नमये उसके गाढ मिथ्यात्वतिमिर की तीव्रता कम हो जाती है, कठोर अनन्नानुबन्धी कपाय हट जाता है, मिथ्यात्व ने उन व्यक्ति को जो गरिनाप दिया था, वह भी मिट जाता है । जिम मिथ्यात्व के जोर में प्राणी नगार में भटकना था, अनादिकाल में उसके जाल में फमा हुआ या, उगनी ममाप्ति होती देख कर उसे बहुत आनन्द का अनुभव होता है, फिर उने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने से उसकी उत्तरोत्तर प्रगति होती जाती है। सचमुच अनिवृत्तिकरण मुमुक्षु के लिए वरदानसा है, गम्यग्दर्शन का द्वार खोलने वाला है। परन्तु यह आनन्दानुभूति, यह अद्भुत उपलब्धि उसी को होनी है, जो रागद्वेप की पक्की बत्रमयी गाठ को तोड कर आगे बट जाता है। जो रागद्वेष की गाठ या चट्टान को देख कर घबरा कर वापिस लौट जाता है या वही १ अन्तमुहूर्त काल का मतलब है-८८ मिनट से जरा-मा कम काल । २ जिसका तत्काल उदय न हो तथा मर्वया नाण भी न हो, जो अन्दर दवा हुआ पडा रहे, उरो उपगमन या उपशम कहते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा ५६ ठिठक जाता है , वह इस आनन्दानुभूति या उपलब्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। इस सम्बन्ध में तीन चीटियो का उदाहरण दिया जाता है-कुछ चीटियाँ ऐसी होती है, जो चलते-चलते कील, चट्टान या दीवार जैसी कोई रुकावट आ जाय तो घबरा कर वही से वापस लौट जाती है। कुछ ऐमी होती हैं, जो माहस करके रुकावट डालने वाली कील, चट्टान या दीवार पर चढ तो जाती हैं, किन्तु वही ठिठक जाती है, आगे नहीं बढ़ पाती। किन्तु तीसरे प्रकार की कुछ चीटियाँ ऐसी भी होती हैं, जो कील आदि को छोड कर आगे बढ जाती हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति दर्शनमोहनीयकर्म के भारी-भरकम पुंज को देखते ही घबरा कर वापस लौट जाते हैं, वे यथाप्रवृत्तिकरणी की कोटि मे आते हैं।' जो उम दर्शनमोहनीयकर्मपुंज से साहम करके भिड जाते है, उसमे निहित रागद्वेष की ठोम और कठोर गाठ को तोड डालते हैं, वे अपूर्वकरणी की कोटि मे आते हैं, परन्तु रागद्वेप की निविडग्रथी का भेदन करके वहाँ से जो आगे बढते है, वे अनिवृत्तिकरण के अधिकारी बनते है । अर्धपुद्गलपरावर्तकाल तक ससार मे स्थिति वाकी रहती है, तब जीव अपूर्वकरण करता है। जवकि चरमकरण में चरमपुद्गलपरावर्त काल तक का ससार-भ्रमण रहता है । इसमे मोक्षयात्रा की ओर जीव की दीड गुरू हो जाती है। तीसरी उपलब्धि : भवपरिणतिपरिपाक साधक को परमात्ममेवा की प्रथमभूमिका प्राप्त होने के बाद जब चरमपुद्गलपरावर्त और चरमकरण की उपलब्धि हो जाती है तो यह स्वाभाविक है कि उसकी परिणति यानी रुचि या आदत परभावो मे रमण के कारण ससार मे-जन्ममरणरूप परिभ्रमण मे, या परभावो-पौदगलिक पदार्थों को अपने मान कर उनमे आसक्त होने, व आनन्द मानने आदि भव यानी सासारिक वाती की ओर से हट कर मोक्ष की ओर हो जाय। क्योकि आत्मा का मूल स्वभाव तो अनन्तज्ञान-दर्शन-चारित्रमय है । रागद्वेप की परिणति (भवपरिणति) के कारण उमका मूल स्वभाव, दव गया है या वह अपने असली स्वभाव मे भटक गया है । परभावरमणता या परपरिणति में दिलचस्पी जीव की समार, यात्रा का दिग्दर्शन है , मगर जव उमे परमात्ममेवा की प्रथम भूमिका प्राप्त Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन हो जाती है तो वह अपने स्व-स्वभाव में रमणना की ओर गम्गा हो जाता है, उग ममय उगकी ममारपरिणति (चि, ग्वभाव या आदन) का अन्न आ जाता है, उमा किनारा आ जाता है । नागाग्गि बन्तुओं में दिलनापी लेने की उगको गीगा आ जाती है । गयोकि अब उसकी भुनियाग हो चुकी गलिए उमड़ी नमाग्याना (भवम्पिनि) की परिणनि पा कर जीर्ण-श्रीगं तो चुकती है। मतलब यह है कि एमे नाप को म प्रकार की मारिणनिता किनारा दिखाई देने लगता है, तब ममार के प्रनि परिणति का अन्त तो आ जाता है, मगर अभी तक ममार का मर्वथा भन्न नहीं आया, उमो अन के लिए तो जब वह मम्यग्दर्गन पाने के बाद 'म्बभागमण' में मनन पुगपा करता है ; नभी आता है। चौथी उपलब्धि : दोप-निवारण यहाँ पच-कारणसमवायो का योग किन प्रकार होता है, यह भी विचारणीय है । पहला चरमावर्त (अन्तिम पुदगलागवनं) कान नाममा पारण का द्योतक है. दूसरा अनिवृत्ति करण पुस्पार्थ नामका कारण या सूचना है, और तीमग भवपरिणतिपरिणाम स्वभाव भवितव्यता और कम नामा कारणो का द्योतक है । अत पांची कारणो के ममबार के होने पर उक्त नीनो उपलब्धियो के माध्यम से उपगमनम्ययन्त्र नक माधन पहुँच जाता है। यहां तमा जब साधक पहुंच जाता है तो समार-मम्मुनता का दोष या मिथ्यारोप हट जाता है , अथवा प्रकारान्तर में कह तो अनन्नानुबन्धी गोध्र, मान, माया और लोभल्प तीव्रतम व कठोरतम कपायदोप मिट जाता है। यह ध्यान रहे कि उन भूमिका में स्थित साधक में अन्य प्रकार ने दोपो का नया नाश नहीं होता , मगर वे दोप दूर हट जाते है। पचम उपलब्धि · सम्यग्दृष्टि का खुलना जब उत्त माधक मे मिथ्यात्व का दोष दूर हट जाता है, हालाकि उसमे अभी सम्यग्दर्शन (क्षयोपशम) के नाव चल, मन, और भगाढ दोय रहते है, तथापि अनिवृत्तिकरण के अन्तर्गत अन्तरकरण करने से उमकी दृष्टि सम्यक रूप से बुल जाती है, उसे वस्तुतत्व का भलीभांति यथातथ्यरूप मे वोध हो जाता है, वह हेय, नेय, उपादेय तत्त्वो को अन्छी तरह जान जाता है, परभाव Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा और स्वभाव का भेदविज्ञान उसके हृदय मे भलीभांति जग जाता है। ओघदृष्टि खत्म हो कर उसे योगदृष्टि प्राप्त हो जाती है, अपने स्वस्वरूपरूप का उसे जान हो जाता है। अब तक उसका दृष्टिविन्दु समारसम्मुख था, अब वह दिशा बदल कर मोक्षसम्मुख होता जाता है । जव इस प्रकार साधक की दृष्टि सम्यक् हो जाती है , तब अभी तक उसमे रहे हुए दुराग्रह, एकान्त अभिनिवेश आदि दूर होते जाते है, ससार के प्रति उसका राग (मोह या आसक्ति) कम होता जाता है, उसके चित्त मे स्थिरता, शान्ति और नम्रता आती जाती है , उसमे स्वकीय-परकीय भावो का विवेक आ जाता है, उसे अपने हिताहित का बोध हो जाता है, ससार से छुडाने वाला और उसमे भटकाने वाला कौन-कौन है ? इसका पृथक्करण करने की उसमे शक्ति आ जाती है। इसी का नाम भली दृष्टि का खुलना है। 'योगदृष्टिसमुच्चय' मे मित्रा, तारा, वला, दीप्ता, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा नामक जिन ८ दृप्टियो का उल्लेख है, यद्यपि उनमे से पूर्व-पूर्व की ४ दृष्टियाँ आत्मा के सम्मुख क्रमण खुलती हुई दृष्टियाँ है, मगर वे चार दृप्टियाँ तो मिथ्यात्वगुणस्थान की भूमिका मे रहती हैं, जबकि यहाँ मिथ्यात्व की भूमिका पार करके साधक चरमकरण की भूमिका पर आ कर सम्यग्दृष्टि का द्वार खोल देता है । इसलिए "मली दृष्टि' से यहाँ प्रमगानुसार सम्यग्दृष्टि अर्थ ही सगत लगता है। कही-कही 'दृष्टि खुले' का अर्थ मार्गानुसारी की दृष्टि खुल जाती है, किया गया है । परन्तु यह अर्थ भी यहाँ सगत नही जचता । क्योकि मार्गानुसारी की भूमिका सम्यक्त्वप्राप्ति से पहले की भूमिका है , मार्गानुमारी की भूमिका के लिए जो ३५ गुण वताए हैं, वे नैतिक जीवन के हैं। आध्यात्मिक जीवन की भूमिका सम्यग्दर्शन-प्राप्ति के बाद शुरू होती है। यहाँ सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रारम्भ की भूमिका मे तो सम्यक् दृष्टि खुलती ही नही है । मार्गानुमारी की दृष्टि तो उक्त साधक की बहुत पहले ही खुल चुकी होती है । अत 'दृष्टि खुले भली' से सम्यग्दृष्टि का खुलना ही सिद्धान्त-सम्मत अर्थ है । छठी उपलब्धि : प्रवचनवाणी को प्राप्ति ऐसे सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधक को अनायास ही प्रवचनवाणी की प्राप्ति । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याता-दर्शन हो जाती है । यह वान स्पष्ट है कि प्रवचन वाणी की प्राप्ति गम्यष्टि को ही हो सकती है, मिथ्यादृष्टि की नी। मिथ्यात्वगन्न व्यशि मेहदय प्रवचन नम्यवस्प मे परिणत न हो कर मिथ्याप मे ही प्राय परिणत होतं? मिथ्यादृष्टि प्रवननवाणी का श्रवण पर गकता है. कणं मुहरों में प्रवचनवाणी के गब्द दाल गकता है, किन्तु प्रवननवाणी की प्राप्ति वह नहीं कर पाता। क्योकि उगे प्रवचनवाणी हृदयगम नहीं होती, उगवी दृष्टि गम्या गुली न होने गे वह दिमाग में जचती नहीं, गले उत्तग्नी नहीं। लिए जो बात गर्ने न उतरे, अनेकान्त के आग्ने मे भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं में गमन में न आए. हृदय और बुद्धि को जचे नहीं, उगे उसकी प्राप्ति नहीं कहा जा गलना। यही कारण है कि अनिवृत्तिकरण पी सम्प्राप्ति रो पहरो मिध्यादृष्टि की भूमिका में व्यक्ति को प्रवननवाणी की प्राप्ति नहीं होनी, जबकि उत्त वरमकरण की प्राप्ति के माथ ही सम्यग्दृष्टि बन जाने गे व्यनि प्रवचनवाणी की प्राप्ति भलीभांति कर लेता है। प्रवचनवाणी की प्राप्ति का अर्थ है-वीतराग-प्रापित निवाल की वाणी की प्राप्ति अथवा मुविहित जिनागमो की वाणी की उपलब्धि । वास्तव में महामूल्य निद्धान्तो के महान् नत्यों को जान लेना, उन्हें व्यवस्थित म्प ने यथायोग्य स्थान पर सयोजन करना प्रवचनवाणी की प्राप्ति है। प्रवचन का अर्थ-जिनदेवप्रणीत सिद्धान्त या वीतराग आप्तपुरपी द्वारा प्ररूपित प्रवचनरूप द्वादशागी (बारह अगो) होता है। प्रबनन वा मघ या चतुर्विध तीर्थ-यहां मगन नहीं है। एमे उत्तम और वीतराग-विज्ञानपारगत आप्न-प्रवचनो की प्राप्ति वहुत बड़ी उपलब्धि है, साधक के जीवन में। ऐमे प्रवननलाभ से साधक रासार और मोक्ष का स्वरूप, हंय-जे य-उपादेय का तत्त्व, स्वपरविवेवा, आदि भलीमांति जान जाता है। शुद्धात्मभाव में रमण या सम्यग्दर्णन-बान-चारिग्रस्त मोक्षमार्ग में प्रयाण को अधिक स्थिर, परिपक्व और निश्चित कर लेता है । उसके हृदय मे ऐसे प्रवचनोक्त वचनो के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि अधिककाधिक बढती जाती है। प्रवचनप्राप्ति मे वह शान्त, धीर, निप्पक्ष और “समतावान हो जाता है, साथ ही इसमे उसमे सहिष्णुता, रहस्यज्ञता, समझाने की चातुरी, प्रत्येक समस्या को आत्मबुद्धि मे सुलझाने की गक्ति, उपकारबुद्धि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा जिनाना और ममता बढ़ती जानी है और आक्षेपबुद्धि, कदाग्रही वृनि, ईर्णा प्रत्येक बान को देहबुद्धि मे गोनने की स्वार्थवृत्ति घट जाती है। म प्रकार पूर्वोक्त छही उपलब्धियां परमात्मगंवा की पयम भूमिका प्राप्त होने पर माधक को लगन हो जाती है। प्रथम-भूमिकापूर्वक परमात्मसेवा मे प्रेरकनिमित्त पूर्वोक्त गाथा में कर्मक्षय एव मोक्षप्राप्ति अथवा स्वभावरमणता से प्रमश मुक्ति की दिशा में प्रस्थान में गम्बन्धित ६ फलो का उल्लेख श्रीआनन्द घनजी ने किया । अब उन फलो की प्राप्ति मे प्रेरक निमित्तकारण के सम्बन्ध मे वे अगली गाथा मे कहते हैं--- परिचय पातक-घातक साधुशुरे, अकुशल-अपचय चेत । अन्य अध्यातम श्रवण-मनन करी रे, परिशीलन नय हेत।। समव० ॥४॥ अर्थ ऐसा होने पर साधक को पापों के नाश करने वाले साधुओ का परिचय होता जाता है। उसके चित्त में अकल्याणकारी अशुभसंकल्पो की कमी होती जाती है और उसे आत्मा के सम्बन्धों मे विचार करने वाले आध्यात्मिक ग्रन्यो के श्रवण एव मनन द्वारा नंगम आदि समस्त नयो, हेतुओं या उपादानादि कारणो का अनाग्रहबुद्धिपूर्वक परिशीलन (बार-बार अभ्यास) करने का योग मिलता जाता है। भाष्य प्रेरक निमित्तो की प्राप्ति जब माधक चरमावर्त, चरमकरण, भवपरिणतिपरिपाक, दोप-निवारण, सम्यग्दृष्टि और प्रवचनवाणी की प्राप्ति, इन उपलब्धियो का अनायास लाभ पा लेता है, तब उसकी आध्यात्मिक प्रगति वटती जाती है, किन्तु सामान्य जनता उनकी आध्यात्मिक प्रगति की परख नहीं कर पाती। वह ऐसे माधक को चुनी या पागल-मा कह देती है। परन्तु श्रीआनन्दघनजी ने ऐसे सम्यग्दृष्टिप्राप्त साधक की आध्यात्मिकप्रगतिसूचक कुछ वातो का निर्देश किया है, जो प्रेरक निमित्त के रूप मे उमे अनायास ही मिलती जाती है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अध्याला-दर्शन . जिन पर में उगे आध्यागिय विकागपति के प ग पहिलाना जा सकता है। प्रथम प्रेरक निमित्त : पापनाशक साध में परिचय ऐमा जाध्यात्मविकानपथिक अतीन जिज्ञासु च नम्र होता है, वह अपने आंगिक ज्ञान के मद मे आ कर अप नही बनता । जन उसे नगे-नय जान की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण में आगे बले. हा पापनाना एवं धर्म (स्वभाव) मे लीन म्बपरमुक्तिगाध्य, माधुओं मे परिनय का योग गिल मिल जाता है, उनका सत्मंग करके वह अपने बाप नान में, नया तन्यो के अनुभव में वृद्धि करना जाता है। जो भी, जहां भी ऐगा ग्यमावरमणमाधक या परमात्मभावलीन रवपर-पायाण साधनः पुम उसे मिल जाने है, उनकी मगति वह अवश्य करता है। वास्तव में, गिमी मी व्यक्तिः गी आध्यान्मिक प्रगति का मापदण्ट बाहावेप या बाह्य प्रियाग नहीं होती, यह होता है-ज्ञान का 'भण्डार भरने अथवा निश्नयदृष्टि में बहे नो अपने सुपुप्त ज्ञान को जागृत व प्रगट करने के उद्देश्य में, किसी प्रकार की न्वाथ भावना या स्पृहा से दूर रह कर अभ्यात्मज्ञान के अनुभवी, शुद्धान्मविज्ञान मे पारगत, अशुभकार्यों या अगुभभावो (पापो) को नष्ट करने वाले गुण का मत्सग, सम्पर्क या परिचय । मिमी व्यनि को मोहवन में ही उसमें अमली जीवन का पता लगाया जा सकता है । 'समान-शीत-व्यसनेषु सत्यम्' इस नीतिसूत्र के अनुसार एक मरीखी आदत, समान पील, स्वभाव और तुल्य न्यमन वालो की ही परम्पर एक दूसरे के साथ पटरी वैनी है। दीर्घ परिचय, चिरकालस्थायी मैत्री, या स्थायी सगति समान भूमिका वाले लोगो की ही निभती है । उक्त सद्गुणी साधुपुरुष का परिचय (लम्बे अर्म तक सहवाम या सम्पर्क-मेलजोल) साधक के आध्यात्मिक विकास का परिचायक होता है। वास्तव में ऐमे पापवृत्तिनाशक सन्तपुरप के नमागम का योग मिल जाने से उसकी पापवृत्ति स्वत नष्ट हो जाती है, वुद्धि की जडता दूर हो जाती है, वाणी मे मत्यता आ जाती है, ऐसे पुरपो के सन्मग से साधक अपनी इज्जत मे चार चाँद लगा देता है, जीवन में उन्नति की राह पा लेता है। चित्त मे आतध्यान-रौद्रध्यान या चिन्ताएं काफूर हो कर प्रसन्नता पैदा होती है, ऐसे व्यक्ति का जीवन सर्वांगीण बनता है। जिसके मन-वचन Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा ६५ काया मे ' एकस्पता हो, जो सरलता और निश्छलता, निस्पृहता और नम्रता की मूर्ति हो, बड़े से बडे पापियो के मन में स्थित पाप जिसके दर्शन से ही दूर भाग जाते हो, वही साधुमना पुस्प है। मतलब यह है कि परमात्म-सेवा की प्रथमभूमिकाप्राप्त साधक को ऐसे महान् साधुपुरुप का सत्सगरुप निमित्त प्राप्त हो ही जाता है । जो आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग पर वढना चाहता है, उसे वैमे निमित्त प्राय मिल ही जाते हैं । दूसरा निमित्त . चित्तवृत्ति मे अकुशलता का त्याग ' आत्मसाधना में प्रगति हो जाने की दूसरी परख यह है कि उक्त साधक की चित्तवृत्ति मे अकल्याणकारी अथवा खराव परिणामो-अध्यवसायो (या सकल्पविकल्पो) का अपचय=क्षय या ह्रास हो जाता है अथवा अकुशल शब्द का अर्थ अशुभकर्म या पापकर्म भी होता है, इसके अनुसार 'चेत' शब्द को छोड कर अर्थसंगति इस प्रकार विठाई जा सकती है कि उसकी आत्मा मे अशुभ=पापकर्म घट जाते है, कम हो जाते हैं अथवा क्षीण हो जाते हैं। ' चित्तवृत्ति या चित्त की परिणाम (अध्यवसाय) धारा अकुशल (अविवेकी या विकृत) कैसे बन जाती है ? और उसका ह्रास कैसे हो जाता है ? कुशल चित्तवृत्ति कैसी होती है ? वह साधक की साधना मे कितनी उपयोगी उपलब्धि है ? इस सम्बन्ध मे विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होगा कि अकुशल चित्तवृत्ति के कारण स्पर्ण, 'रस, घ्राण, कर्ण और नेत्र, इन पांचो इन्द्रियो के अनुकूल विपयो को देख कर वह तुरन्त ललचा जाएगा, उनमे आसक्त हो कर उनके भोग में अनुकूल, किन्तु नतीजे मे भयकर दुखदायी विपयो को भोगने के लिए तत्पर हो जाएगा, हितपी व्यक्तियो के मना करने पर भी वह उनसे विरक्त नहीं होगा, उसका चित्त उक्त विषयो को पाने के लिए तैयार हो जाएगा, उनके वस्तुस्वरूप का सही मूल्याकन वह नही कर पाएगा। मतलब यह है कि जहाँ तक व्यक्ति का चित्त इस प्रकार का अकुशल रहता है, वहां तक उसमे मसार की वासना कम नहीं होती, शरीर अथवा जडवस्तुओ का और चेतन का परस्पर सम्बन्ध कितना, कैसा और कहाँ तक है ? इसका ज्ञान न होने से सिर्फ सुनी-सुनाई बातो से वह थोडा बहुत जानता है, उमे इन्द्रियभोगो मे जीवन की सार्थकता दृष्टिगोचर होती है। जहाँ तक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन अकुशलता होती है, वहां तय गोत्र मान, माया, लोग आदि मानगिक विकारो को उनके अगली रूप में यह पहिनान नही गन्ना, रागग के यथार्थरूप को न जानने के कारण प्रणय (दाम्पत्यप्रेम) साम्प्रदाचित वजानीय मोह नया राष्ट्रान्यता आदि को उपादेश मान लेता है, अतत्वाभिनिवेश का शिकार वन कर मसार के गाउरिया प्रवाह में बह जाता है, ऐसी स्थिति में आनाभिमु उता न हो कर गगाराभिमुखता ही अधिक रहती है। किन्तु जय उक्त अकुगल चित्तवृत्ति मा ह्रास हो जाता है, तो उनके मोह, कपाय आदि का ह्रास हो जाता है, यह शरीर, चित्त, प्रन्द्रियों आदि पर नियन्त्रण कर सकता है, शरीर, पित्त, इन्द्रियो आदि का स्वभावरमणरूप धर्म मे सदुपयोग कर सकता है, वह नर्मक्षय करने मे कारणभून गमताभाव को अपना लेता है ; वन्तु के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है, क्रोधादि रिकारो या रागद्वेपो के स्वरूप ने भनीभांति परिचित हो जाने के कारण, उनमे होने वाली भारी हानि को देख कर वह अपने स्वरूप में रमण करने लगता है। उने आध्यात्मिक विकास में जीवन की सार्थकता प्रतीत होने लगती है। पापम में वह सहना लिपटता नहीं, बल्कि पापकर्म का हात कर देता है । मकुगन चित्त का ह्रास ऐसा प्रवन निमित्त है, जिसके कारण नाधक की म्बन आध्यात्मिक उन्नति होती रहती है। मरे अर्थ के अनुसार अकुशल-अपचय यानी, चेतना (आत्मा) में मे पापकर्मों या अशुभ कर्मों का हान हो (घट) जाता है। अर्थात् जब तक दुरे या अशुभकर्म रहते हैं, तब तक आत्मा की परभावो में, विशेषत. अशुभ परभावो में रमण करने की वृत्ति बनी रहती है , वह पापकर्म करने में ही जीवन का सच्चा आनन्द मानता है। किन्तु आत्मा में कुशलता प्राप्त होने पर वह पापकर्मों को बहुत ही कम देता है, उसके अशुभकर्मो की जडे हिल जाती हैं। उसकी चेतना आत्माभिमुखी. हो कर संसाराभिमुखता या स्वार्थान्धता वे कारण होने वाले पापकर्मों को क्षीण कर देती है। यही उनकी आध्यात्मिक प्रगनि का मापदण्ड है। - - तीसरा निमित्त : आध्यात्मग्रन्यो का श्रवण, मनन और परिशीलन वास्तव मे व्यक्ति के जीवन मे जव आध्यामिक विकास होना है, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा : तव उसकी जिज्ञासा आत्मा के अपने असली गुण=ज्ञान को, जो सोया हुआ है, - जगाने की होती है। वह नाना भिव्यक्ति मे महानिमित्त, ज्ञान के स्रोत आध्या" त्मिक ग्रथो को सुनने, उन पर मनन-चिन्तन करने और विविध नयो और । हेतुओ या उपादानादि कारणो से उसका परिशीलन करके अधिकाधिक हृदयगम " करने की होती है । वह ज्ञान भी उसका वन्ध्य नहीं होता, वह आचरण के ___ रूप में उसे क्रियान्वित करके आध्यात्मिक प्रगति के नये-नये द्वार खोलता मुई रहता है। 4 . आध्यात्मिक ग्रन्थो के श्रवणमनन-पूर्वक परिशीलन पर से साधक की आध्यात्मिक प्रगति का पता लग जाता है । जिस साधक मे आध्यात्मिक विकास अधिक होगा, उसकी रुचि स्वाभाविकरूप से आध्यात्मिक ग्रन्थो के श्रवण और मनन द्वारा उनकी गहराई में डूब जाने और उन ग्रन्थो मे विहित बातो का S अपनी आत्मा के साथ तालमेल विठाने की होगी। वह उन आध्यामिक ग्रन्थो की गहराई में दुबकी लगा कर ज्ञानरत्नो को खोज कर निकाल लेगा, आत्मा मे सुषुप्त शक्तियोरुपी मुक्ताओ को प्राप्त कर लेगा , आत्मा में निहित अनन्त ज्ञानादिगुणो की निधि को हस्तगत कर लेगा। आध्यात्मिक ग्रन्यो के परिशीलन (वार-वार के अभ्यास) से उसमे हेय-ज्ञेय-उपादेय का विवेक आ जायगा । कर्म, शरीर, आत्मा, पुण्य, पाप, धर्म, अधर्म, निर्जरा, वध, मोक्ष, स्वभाव-परभाव, रागद्वेप कपाय आदि परपरिणतियो का आत्मा पर प्रभाव अप्रभाव, आत्मा का स्वरूप क्या है ? वह स्वय अपने कर्मों का कर्ता-हर्ता है जए या और कोई महासत्ता है ? मन, वाणी, इन्द्रिय, काया आदि का आत्मा के म साथ क्या सम्बन्ध है ? ये आत्मा को कैसे गुलाम बना लेते हैं ? इनकी दासता मे ना कैसे मुक्ति हो सकती है ? इत्यादि अनेक वातो के सम्बन्ध मे उसका ज्ञान जा सिद्धान्त सम्मत, परिपक्व और सम्यक् हो जायगा। जीवन और जगत् की धता अटपटी गुत्थियो, मानसिक उलझनों, चिन्ताओ, भयो, पूर्वाग्रहो झूठे आग्रहो या आदि से उसका मानस मुक्त हो कर शान्ति, समता, सहिष्णुता, निष्पक्षता, धीरता, एकाग्रता आदि से युक्त हो जायगा । नि सन्देह आध्यात्मिक ग्रन्थो शि का स्वाध्याय वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म कथा से अनुहोता है। प्राणिन हो तो मानवजीवन का कायापलट हो सकता है, अपने खोये हुए Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्णन जान के गजाने को गाकर आत्मा में अगुय आनन्दको अनुगानि होती है, आत्मा अपने अभिन्न गाणी माग में पा कर उगंग नगर हो जानी है। आध्यात्मिक ज्ञान मे ओत-प्रोत व्यक्ति वाना-गीना, गोना, नवा अन्य भारी गि चिन्नाएं सर्वथा भूल जाना है। आध्यागमन्यो के गाना म्याध्याय से व्यक्ति को मान-समाधि लग जाती है, उसको प्रत्येक यन्तु नूयं के प्रकार नो तरह हम्तागनकालन् गालूम हो जाती है। में कौन हूँ, परमात्मा मौन है? ममार के अन्य प्राणी कीन है। उनके साथ तथा गरोगदि जलपदार्थों या परपदार्थो के माथ मेग क्या और वितना गम्बन्ध है ? कैगे जात्मा पों में। बन्धन में जकड जाता है ? कंगे छूट सकता है? कार्गवन्धन के मिलने प्रकार हैं ? मुक्ति के क्या-क्या उपाय है। जागा की विपरमण मेनिया में मुदृढ हो सकती है ? आत्मा परभावो मे जासक्त क्यो हो जाता है ? आदि तमाम वाले उसके जाननेयो गामने स्पष्ट हो जाती हैं। किन्तु तोतारटन की तरह आध्यात्मिक ग्रन्थों की शब्दावली या पारि भापिक शब्दो को केवल घोट लेने का नाम ही स्वाध्याय नहीं है। और ही अर्थ समझ-बूझे विना किमी ग्रन्य को पट-गुन लेने को ही स्वाध्याय कहा जा सकता है। इसलिए श्रीआनन्दघनी का स्वर गूज उठना है.---'ग्रत अध्यातम श्रवण-मनन करी रे परिशीलन नय हेत', अर्थात् अध्यात्मग्रन्यो पर केवल पढना-सुनना ही नहीं, अपितु नयो और हेतुओ के माय मननपूर्वर .परिशीलन करना ही वास्तविक स्वाध्याय है, और इस प्रकार के स्वाध्याय में साधक की आध्यात्मिक प्रगति की परख हो जाती है। केवल द्रव्य, गुण, पाम का रटन करने वाला या अध्यात्मग्रन्यो को सूने मन से या विद्वत्ता प्रदर्शित करने की दृष्टि से पढने या मुनने-सुनाने वाला, अथवा आत्मा-परमात्मा को लम्बी-चौडी, व्यवहार से विल्कुल असम्बद्ध चर्चा करने वाला, या आध्यात्मिकता में पहले नैतिकता या धार्मिकता की बू द भी जीवन मे न हो और कोर आध्यात्मिक तर्क-वितर्क करने वाला व्यक्ति वास्तविक स्वाध्याय मे कोसो दूर है। . उसे आध्यात्मिक या आध्यात्मिक विकास की पगडडी पर चलने वाल “नही कहा जा सकता। कई दफा तो इस प्रकार के तथाकयित अध्यात्मवा ' अध्यात्मशून्य जीवन बिताते हुए लम्बी चौडी आध्यात्मिकता, तत्त्वज्ञान अ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा स्वाध्याय की डीगे मार कर आत्मवचना और समाजवचना करते देखे ., जाते है। - इसलिये आत्मा से सम्बन्धित उपर्युक्त बाते जिन ग्रन्थो मे निश्चय और व्यवहार दोनो 'दृष्टियो से अकित हो, जो अध्यात्म 'को जीवन मे रमाने और पचाने वाले अनुभवी मनीषियो, चारित्रशील महान् ‘आत्माओ द्वारा लिखे गए हो, जिन ग्रन्थो मे उल्लिखित बातें सर्वज्ञ आप्तवचनो से सम्मत हो, सिद्धान्त, युक्ति, तर्क, प्रमाणो, और नयो से सिद्ध हो, जो अपने पूर्वाग्रह, परम्पराग्रह, साम्प्रदायिक पक्षपात आदि से दूर हो, जो जीवन के उच्च आदर्शों और ध्येय को स्पष्टत प्रतिपादन करते हो, ऐसे ग्रन्थ आध्यात्मिक ग्रन्थ है। ऐसे ग्रन्यो का एकाग्रतापूर्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासन और युक्ति, प्रमाण, नय, हेतु, कारण आदि के विचारपूर्वक परिशीलन करने, और अपनी आत्मा के साथ उन वातो का ताल-मेल बिठाने का अभ्यास करना सच्चे माने मे 'स्वाध्याय' है। ऐसे साधक को अनायास ही इस प्रकार के स्वाध्याय का वातावरण एव प्रवलनिमित्त मिल जाता है, आध्यात्मिक ग्रन्थो की जिज्ञासा और मीमासा-पूर्वक प्राप्त हुआ स्वाध्याय साधक की आध्यात्मिक प्रगति का परिचायक है। दूसरे शब्दो मे कहे तो परमात्मसेवा की प्राथमिक भूमिका प्राप्त करने का फल बता कर श्रीआनन्दघनजी ने वैसी भूमिका प्राप्त करने मे निमित्तकारणरूप ये सब वस्तुएँ बता दी हैं। क्यो अभय, अद्वैप और अखेद-अवस्था के परिपक्व बनाने के लिए पापघातक साधुपुरुप का सत्सग, चित्त मे अकुशलता का ह्रास, एव अध्यात्मग्रन्थो का श्रवण-मननपूर्वक सयुक्तिक अभ्यास बहुत आवश्यक है। इसलिए ये तीनो बाते, पूर्वोक्त तीनो गुणों की प्राप्ति में प्रेरक निमित्तकारण, बन जाती है। इस कार्यकारणभाव सम्बन्ध को न मान कर, जो व्यक्ति परमात्म-सेवारूप कार्य के लिए आध्यात्मिक विकास और उसके कारणो को उड़ाने का प्रयास करते हैं, उन्हे फटकारते हुए श्रीआनन्दधनजी अगली गाथा मे कहते है कारणजोगे हो कारज नीपजे रे, एहमा कोई न वाद। कारण विण पण कारज साघीए रे, ए निजमत उन्माद ॥ सम्भव०॥५॥ . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन अर्थ कारणो के योग से ही कार्य निप्पन्न होता है, ऐसा पायगाम्प्रीय सिद्धान्त है, इसमे विवाद को कोई अवकाश नहीं है । परन्तु जो लोग यह कहते हैं कि हम अनुकूल कारणों के विना हो कार्य सिद्ध कर (बना) लगे; यह उनका मनमाना बकवास है, अपने मत का मतवालापन है । भाष्य कारण और कार्य का अविनामाघी सम्बन्ध यह केवल न्यायगाम की ही बात नहीं, विश्व में प्रत्येक मानव श्री अनुभवसिद्ध बान है कि वारण होने पर ही कार्य सम्पन्न होना है। इसलिए यह निविवाद है । परन्तु कौन-से कारणों का किन-किन कार्यों के होने में हाय है, यह निश्चितरूप में नहीं बताया जा सकता। इसलिए कई ईश्वरवादी, देववादी या अव्यतागक्तिपूजक लोग अयवा प्रकृतिवादी आननी मनुष्य ऐमा कह देते हैं कि हम किसी भी कार्य के लिए कारणो को जुटाने की आवश्यकता नहीं। ईश्वर चाहेगा, अमुक देव की कृपा होगी या फला देवी या अदृश्यशक्ति हम पर प्रसन्न होगी, या प्रकृति हमारे अनुकूल होगी तो कायं अपने आप ही हो जायगा। हमे कुछ करने-धरने की जरूरत नहीं। परन्तु उनकी यह वाते वेमिरपर की हैं । वे स्वय रोटी बनाने का और रोटी मुंह में डालने का क्यो प्रयास करते है ? वहीं उन्हें अपने आराध्यदेव या मान्यशक्ति के महारे को छोड कर समय आने पर, उक्त वस्तु का स्वभाव नद्रप परिणत होने का हो, जपना कर्म भी अनुकूल हो, बैगा कार्य करना नियत भी हो, तो भी स्वय पुष्पार्थ करना होता है। प्रत्येक कार्य में कोई न कोई कारण अवश्य होता है । कारण के अभाव मे कोई भी कार्य नहीं हो सकता । मूल मे कारण के दो रूप होते हैं--उपादानस्प और निमित्तस्प । जो कारण अन्तत स्वय स्वयं कार्य-रूप में परिणत होता है, उसे उपादानकारण कहा जाता है। जो कारण कार्य की सम्पन्नता में अनुकूल (सहयोगी) रहता है और कार्य हो जाने के बाद अलग हो जाता हूँ वह निमित्तकारण बहलाता है। उदाहरण के लिए, कल्पना कीजिए, घडा एक कार्य हे । मिट्टी उममे उगादान कारण है , परोकि मिट्टी स्वय अन्त में घटरूप Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा ७१ मे परिणत होती है , किन्तु घडे के बनने मे कुम्हार, डडा, चाक और डोरी वगैरह निमित्त कारण हैं। निमित्त तीन प्रकार का होता है-सहकारीनिमित्त प्रेरकनिमित्त । और तटस्थ निमित्त । घडे के बनने मे घडा बनाने वाला कुम्हार प्रेरकनिमित्त है । और चाक, डडा, डोरी आदि जो अन्य माधन हैं, वे सहकारीनिमित्त हैं। तथा काल, स्वभाव, नियति (भवितव्यता), कर्म और पुरुषार्थ, तथा आकाश आदि सब तटस्थनिमित्त हैं । जैनदर्शन मे विहित काल, स्वभाव आदि पच-कारणसमवाय भी प्रत्येक कार्य के होने मे अनिवार्य बताये हैं । कोई व्यक्ति उपर्युक्त पच-कारण-समवाय में से पांचो को कारण न मान कर एकान्तरूप से किसी एक या अनेक को कारण माने तो वह यथार्थ नही है। . कारण का लक्षण भी न्यायशास्त्रियो ने यही किया है कि जो कार्य होने के अव्यवहित पूर्वक्षण मे अवश्य हाजर हो । जो कार्य मे साधक हो, जिसके न होने पर कार्य हो ही न सके , उसे कारण कहते हैं ।' . कारण के इस लक्षण की दृष्टि से कार्य की सम्पन्नता के लिए दोनो ही कारण आवश्यक हैं, परन्तु मुख्यता उपादान की है। उपादान के होने पर निमित्त तो कोई न कोई अवश्य रहेगा ही। हां, निमित्तकारण एक के बदले दूसरा हो सकता है, परन्तु तद्रूप उपादान का होना तो अनिवार्य है । इसीलिए अध्यात्मशास्त्र में उपादान की मुख्यता मानी गई है। __जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आदि ६ द्रव्यो मे से जीव और पुद्गल गतिमान और क्रियावान द्रव्य हैं । प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रिया में उपादानकारण स्वय होता है । जीव और पुद्गल मे जो क्रिया और गति होती है, उसका उपादान वह स्वय ही है। उपादान तो एक ही होता है, जब कि निमित्त अनेक हो सकते हैं, उनके सम्बन्ध मे निश्चितरूप से कुछ नहीं जा सकता। यदि उपादान का कार्यरूप में परिणत होने का निश्चित कालक्षण आ चुका है, तो निमित्त भी उसी क्षण आ मिलेंगे। किन्तु यदि उपादान ही शुद्ध नहीं है, तो निमित्त कितना ही शुद्ध क्यो न रहे, उससे किसी प्रकार का परिवर्तन नही होगा । परिवर्तन निमित्त मे नही, उपादान में होना चाहिए । निमित्त बलवान नही, बलवान , तो उपादान है। आकाश में जब सूर्य उदित होता है तो उसका, प्रकाश धीरे-धीरे फैलना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन प्रारम्भ होना है, तब गमन न्या ही गिनने लगते हैं। सूत्र में न तो कमान पुप्प को मिलाया और न उन मुजारा फूलो की अदर उसने ना गाक्षात मीधा परिवर्तन ही किया । पूल का जितना फूल की अपनी फिया । यहाँ सूर्य प्रेरकनिमित्त नहीं नटम्बनिमित है। किन्तु पर पुम्भकार जिग समय घडा बनाता है, तब वह च्यापूर्वर ही बनाना है। अतः यह तदन्यनिर्मित नहीं, प्रेस निमित्त है। मछली नव जन में नरमी है, नो मरने का काम मछली स्वय ही करती हैं। जन तैग्ने की क्रिया का उपादान म्यय मछली ही है, क्योकि उनी में क्रिया हुई। किन्तु मल्य गी तरणनिया में निश्चय में धर्मास्तिकाय और बवहार में जन निमित्त होता है। उपादान और निमित्त की समस्या तनी गहन है कि उसे गमलना उनना आसान नहीं है । फिर भी यदि उपादान को पा लिया जाय तो गमन्या हल होते देर नहीं लगती । सम्यग्दृष्टि आत्मा को मूल दृष्टि उपादान पर केन्द्रित रहती है । यद्यपि वह निमिन का निरस्कार नहीं करता, तथापि वह निमित्त में उलझ कर नहीं बैठ जाता । निमिन तो गदा उन्धित रहना ही है, देर उपादान की ही होनी है। गक्ति बाहर मे नहीं अपने अन्तर में रहती है। जो व्यक्ति अपनी गक्ति को जागृत कर लेता है, वह जगत् में अमाधारण समझे जाने वाले कार्य कर लेना है । अन्दर की गति को जागृत करने का अर्थ है.--उपादान को जागृत करना । जिस बात्मा ने उपादान को गमत लिया, उन आत्मा के लिए कोई भी सावना कठिन नहीं है। प्रस्तुत प्रमग मे परमात्मसेवारूप कार्य है। उसके लिए मादानवारण आत्मा है। अभय, अद्वे प.और असेद ये आत्मा के सहभावी गुण होने से सहकारी उपादानकारण है। किन्तु प्रकारान्तर -से उन्हें परमात्मसवारूप कार्य के अन्तरंग निमित्तकारण कहा जा सकता है । और पूर्वगाथा मे बताए हुए तीन कारणों मे मे अकुशलवृत्ति का ह्रास अन्तरंग-निमित्त व पाप घातक साधुओ से परिचय, तया आध्यात्मिक गन्यो का श्रवण, मनन एव नयहेतु-पूर्वक परिशीलन ये दो परमात्मसेवास्प कार्य के प्रेग्क निमित्तकारण है, जबकि कान, स्वभाव, नियति, फर्म, पुरुषार्थ आदि इसके नटन्य (उदामीन) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा निमित्तकारण है । इसी प्रकार चरम आवर्त, चरमकरण, भवपरिणतिपरिपाक, दोप-निवारण, सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति आदि कार्य (फल) भी कारण की अपेक्षा रखते है। । दूसरी तरह से देखे तो अभय, अद्वेप और अखेद ये तीन परमात्म-सेवा रूप कार्य के लिए अनन्तरकारण है और पापनाशक साधु से परिचय, चित्तवृत्ति या चेतना मे से अशुभ (पाप) कर्मों का ह्रास, तथा आध्यात्मिक ग्रन्थो के श्रवण-मननपूर्वक सयुक्तिक परिशीलन आदि परम्पराकारण है । · सौ वात की एक वात है-परमात्मसेवा के योग्य बने हुए आत्मारूप मुख्य उपादानकारण का तथा अभय, अद्वेष एव अखेदरूप सहकारी उपादान कारणो का कार्य से ठीक पहले क्षण मे होना अनिवार्य है । अगर उपादान कारण जागृत होगा तो पूर्वोक्त निमित्त स्वत उपस्थित हो जायेंगे। ___ शास्त्रो मे वर्णन आता है कि राजा प्रदेशी एक घोर नास्तिक था । वह धर्म के प्रति अश्रद्धालु व धार्मिक पुरुषो के प्रति घृणा करता था । पर जब केशीकुमार श्रमण के सान्निध्य मे आया तो उसकी दृष्टि में अचानक परिवर्तन कैसे हो गया ? जो व्यक्ति अत्यन्त क्रूर और कठोर था, वह अत्यन्त कोमल कैसे बन गया? यह सब कुछ उपादान के परिवर्तन से हुआ। राजा प्रदेशी का उपादान प्रसुप्त पड़ा था, केशीकुमार श्रमण का निमित्त मिलते ही वह जागृत हो गया। इतना जागृत कि उसकी रानी ने धर्मसाधना मे सग्लन राजा को विप दे दिया, तब भी वह शान्त बना रहा। ऐसा परिवर्तन उसकी निजशक्ति-उपादान का था। अर्जुनमालाकार प्रतिदिन सात व्यक्तियो की हत्या करने वाला महापापी बना हुआ था, कोई भी, यहाँ तक कि राजगृही का राजा भी उसे पकडने का साहस नहीं कर सका। उसी अर्जुनमाली को महावीर के दर्शनार्थ जाते हुए राजगृही के निर्भीक थमणोपामक सुदर्शन का निमित्त मिला तो वह एकदम नम्र एवं दयालु बन गया। अत सुदर्शन का निमित्त अवश्य है, लेकिन अर्जुन का उपादान शुद्ध न हुआ होता तो सुदर्शन '(निमित्त) क्या कर सकता था? भगवान महावीर का निमित्त गौतम को भी गिला चौर गौशालक को भी। लेकिन गौशालक छह वर्ष तक उनके Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन माथ रह कर भी | प्ठत्व अजित करने में लिए निफर रहा कि उनका उपादान शुद्ध न था, जबकि गौतम महान् बनने में सफल हो गया था। इसलिए अपनी योग्यता, निजशक्ति (उपादान) को परमात्ममेवा (गुन्द्धआत्म-रमणता) स्प कार्य के लिए जागृत करना आवश्यक है। उपादान जागृत होते ही निमित्त अपने आप उपस्थित हो जायेंग । परन्तु यह बात निविवार है कि परमात्ममेवा-रूप कार्य के लिए उपादानगारण के नाथ-माय पूर्वोक्त निमित्त कारणो का होना अवश्यम्भावी है। कार्य-कारण-सम्बन्ध को न मानने वालो का मत प्रस्तुत परमात्मसेवा के सम्बन्ध में एकान्त भक्तिवादी, या एकान्त निश्चयदृष्टिवादी अयवा अव्यक्तशक्तिवादी वा एकान्त नियति आदि पत्रकारणवादी अयवा एकान्त परमात्मात्रयवादी या इसी प्रकार की मान्यता वाले लोगो का कहना है कि परमात्ममेवारूप कार्य को हम पूर्वोक्त कारणों के विना ही सिद्ध कर लेंगे। हमे उक्त कारणों के झझट में पड़ने या अपनी आत्मा को किसी कप्ट में डालने की जरूरत नहीं, अपने आप परमात्मसेवा का सब काम हो जायगा। एकान्त-भक्तिमागियो का कहना है-न कोई भय, द्वप या गेद छोडने की जरूरत है और न किमी प्रकार का त्याग, तप या स्वभावरमणरूप पुरुषार्थ (नान दर्शन-चारित्र में पुरुषार्थ) करने की ही आवश्यकता है। ये मब स्वकर्तृत्ववाद के झझट हैं । इन बातो के चक कारमें न पड कर मन में दृढ विश्वास कर लो कि परमात्मा जब चाहेंगे, तब अपने आप उनकी मेवा का कार्य हो जायगा। एकान्त निश्चयाभासियो का कहना है,-किसी प्रकार का त्याग, तप या चारिन मे पुरुषार्थ आदि सब व्यवहार की बातें है, असद्भूत हैं, ये सब शरीर से सम्बन्धित वाते है, इनमे परमात्मा की सेवा मे कोई सहायता नहीं मिल सकती । जव आत्मा से परमात्मसेवा होनी होगी, तब अपने आप हो जायगी आत्मा भी अपने आप तदनुरूप शुद्ध हो जायगी। उपादानस्प आत्मा शुद्ध होगी तो निमित्तकारणो की कोई जरुरत ही नहीं रहेगी। परतु व्यवहार का और निमित्तकारणो का यह अपलाप वस्तुत निश्चयनयाभाम ही सूचित करता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा ७५ • अव्यक्तशक्तिवादियो का मत भी लगभग भक्तिवादियो जैसा ही है। वे केवल देवी या अव्यक्तशक्ति अथवा प्रकृति को रिझाने, प्रसन्न करने और उससे वरदान मांगने का प्रयास करते हैं। अपनी आत्मा द्वारा कोई भयादि के त्याग, अहिंसादि के पालन या आत्मरमणरूप पुम्पार्थ की कतई जरूरत महसूस नहीं करते। ' - - एकान्त नियतिवादी भी कालादि अन्य चार कारणो का अपलाप करते हुए या आत्मारूपी उपादानकारण के प्रति उपेक्षा करते हुए कहते हैं-'जो कुछ होना होगा, वह हो ही जायगा। परमात्मसेवा विधाता ने (या भाग्य मे) लिखी होगी तो हो जायगी। हमारे त्याग, तप व्रत, नियम, सयम या स्वभावरमण मे पुरुषार्थ आदि करने से क्या होगा? इन सब चक्करो में पड़ने की क्या जरूरत है ? यही हाल एकान्तकालवादी, एकान्तस्वभाववादी, एकान्त नियतिवादी, एकान्तकर्मवादी, या एकान्तपुरुपार्थवादी (क्रियाकाण्डरत)' लोगो का है। वे भी परमात्मासेवारूप कार्य के लिए अपने एक-एक कारण को ले कर उपादानकारणरूप आत्मा को शुद्ध बनाने या अन्य विभिन्न प्रकार के निमित्तकारणो की आवश्यकता नही समझते। एकान्तपरमात्माश्रयवादी तो लगभग आलस्यपोपक-से होते है । मालसियो का जीवनसूत्र तो यही है, "अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम । दास मलूका कह गये, सबके दाता राम" । स्पष्ट है कि वे भी परमात्मा को ही सव कार्यों का दारोमदार मानते हैं। परन्तु आखिर जव वे अपने ही इस मत के विरुद्ध चलते हैं तो उन्हें घूम फिर कर कार्यकारणवाद की मान्यता पर आना ही पड़ता है। इसलिए श्रीआनन्दधनजी का मुख्य स्वर यही गूंज रहा है कि जो लोग परमात्मसेवारूप कार्य को पूर्वोक्त उपादान या निमित्त कारणो के बिना ही कर लेने की झूठी जिद्द ठानते हैं, या इस मिथ्याग्रह के शिकार है, वे अपनी मान्यता की झूठी दुहाई देते है या उनका कथन महज वकवास है। अथवा 'वदतो व्याघात' न्याय के अनुसार अपने ही मुह से अपनी वान का खण्डन है, या फिर साम्प्रदायिक मत के दुराग्रह का मतवालापन है। कुछ लोग पूर्वोक्त गान्यता के दुरभिनिवेशवश यह कह बैठते है कि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जध्यात्म-दन परमात्मा की गेवा तो बहुत आगान है, तुम लोगो ने मे बहन कठोर और अगम्य बना दी है, ममे त्याग के तल में कुछ भी माना-धन्ना नहीं है, उन्म श्रीआनन्दघनजी असलियत बताते हुए कहते है मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन अगम अनुप । देजो कदाचित सेवक-याचना रे, आनन्दघन-रस-रूप ॥ संभव०॥६॥ अर्थ मुग्ध (अज्ञानी, भोले, वालजीव या अतत्त्वदर्शी, नासमम) लोग परमात्मसेवा को आसान मान कर उसे अपना लेते हैं। मगर परमात्मसेवा अगम्य (प्रत्येक व्यक्ति द्वारा आसानी से जानी न जा सकने योग्य) और अनुपम (वेजोड़) है । आनन्द के घनरसरूप प्रमो ! मेरी आपसे प्रार्थना है कि भविष्य मे कभी मुझे ऐसी अद्वितीय परमात्मसेवा देना । भाष्य मुग्ध लोगो को दृष्टि मे परमात्मसेवा आसान मुग्ध मे यहाँ अभिप्राय है-उन अनत्त्वदर्शी लोगो मे, जो कार्यकारणभाव का गहगई मे कोई विचार नहीं करते, जो लकीर के फकीर बन कर अपनी बुद्धि मे परमात्ममेवा के बारे में नहीं, सोचते, अथवा जाडम्बरपगवण लोगो की चकाचौध मे पड कर भयादि के त्याग, नप या स्वभावरमणस्प ज्ञानदर्शनचारित्र मे पुम्पार्थ करने की मुख्य वात को उडा कर उपेक्षा करके केवल नानने-गाने और कीर्तनजमादि करने की आमान बात पर मुग्व है, या जो नाममस और भोलेभाले लोग है, जिनमे लबी समझ नहीं है, तयाकथित गुरु ने जो भी मार्ग पकडा दिया, उमे परमात्मा की सेवा-भक्ति मान कर च नने वाले बालजीव है। ऐसे विवेकमूह लोग परमात्मसेवा को बहुत ही आसान समझ कर अपना लेते हैं। वे यह नहीं सोचते कि परमात्मभक्ति केवल नाच-गा कर या उनका नाम जोर-जोर से रट कर उन्हें रिझाने का प्रदर्शन करने मे या चढावा चढाने या प्रसाद वाटने या उनके प्रतीक के आगे कोरे हाय जोड देने या उनका गुण गान करने मान गे अथवा उनकी नकल कर लेने से सिद्ध नहीं होती परमात्ग- सेवा के लिए जो वास्तविक कारण है, उन्हे अपनाने पर ही वह सिद्ध Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा ७७ हो सकती है। केवल शब्दादि-विपयो मे आसक्त, सासारिक स्वार्थ मे मग्न, वर्गादि ऋद्धिसिद्धि के लोभ मे डूवे हुए अथवा अपनी नामवरी या प्रसिद्धि के लिए परमात्मा का प्रतीक बना कर उनके मुकुट या अन्य सागारिक पदार्थ चढा देने मात्र से परमात्ममेवा नहीं हो सकती। परन्तु मुग्ध लोग इस परमात्म-सेवा को, जो १ साधारण व्यक्ति की पहुंच से बाहर है, जो ससार मे अनुपम वस्तु है, उसे बिलकुल आसान, सुगम और झटपट सिद्ध होने वाली चीज मानते है और उमी दृष्टि मे परमात्मसेवा के वास्तविक कारणो को तिलाजलि दे कर सेवा के नाम पर सस्ता सौदा अपनाते है, जिसमे 'हीग लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाय' चाहते है। परन्तु परमात्मसेवा को वे जितनी सरल मानते हैं। उतनी सरल नही है, इसमे तो बाह्य (पर) भावो को छोड कर आन्तरिक भावो की गहराई में जाना पड़ता है । सन्त कबीरजी भी यही वात कहते हैं। २ परमात्मसेवा की प्रार्थना : साधक की *ति मय नम्रभाषा इस स्तुति के अन्त मे योगी श्रीआनन्दघनजी ऐसी कठोर परमात्मसेवा की सम्भवदेव प्रभु मे याचना करते है । प्रश्न होता है- साधक को तो स्वय पुरुषार्थ द्वारा परमात्मसेवा सिद्ध करनी चाहिए, उसे परमात्मा से मागने की क्या जरूरत है ? वास्तव मे निश्चयनय की दृष्टि से तो परमात्मसेवा या किसी भी आध्यात्मिक अनुष्ठान के लिए परमात्मा या किसी भी 'अव्यक्त शक्ति से साधक को मागने की जरूरत नहीं होती। और न ही वीतरागपरमात्मा किसी को कोई चीज देते-लेते हैं। मगर व्यावहारिक दृष्टि से आनन्दघनजी अपनी नम्रता प्रदर्शित करने के लिए भक्ति की भाषा मे परमात्मा के सामने इस प्रकार की प्रार्थना कर बैठते है तो कोई अनुचित भी नही है । और फिर श्रीआनन्दघनजी परमात्मा से किसी मासारिक वस्तु या प्रसिद्धि, पदवी, ऋद्धि, सिद्धि आदि की कोई माग नहीं करते, वे तो अध्यात्मयोगी के लिए १ नीतिकार कहते हैं-'सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्य '। मेवाधर्म अत्यन्त गहन है, वह योगियो के लिए भी अगम्य है, साधारणजनो की तो 'वात ही क्या? २ भक्ति भगवन्त की बहुत बारीक है, शीश सौंपे विना भक्ति नाहीं। नाचना, कूदना, ताल का पीटना, राडिया खेल का काम नाहीं । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन परमात्ममेवा अनिवार्य होने से उगी की प्रार्थना करने है । वह भी 'देजी कदाचित्' कह कर उताव नेपन में नही, किन्तु धीरता नाथ, जब कमी अपने वारियमोहनीयकर्म का क्षयोपशमनना नोट तो जाग, मी परमात्मा की शुद्र मेवा चाहते हैं। चूंकि वे परमात्मनेवा को अगम्य और अनुपम वन्तु मह चुके हैं। इस प्रार्थना में वे वर्तमान में अपनी आत्मा का उत्त प्रसार गी अगम्य या अनीन्द्रिय, अनुपम रोचा के योग्य न होना भी नम्रतापूर्वक ध्वनित करार देते हैं। एक बात यह भी है कि वे परमात्मसेवा के ग आग्नेयपथ पर आने गे पहले जो महागुरुप उग कठोरपय पर प्रयाण करकेने पार कर चुके हैं, उनकी प्रेरणा, मार्गदर्शन या दिनानिदान चाहते हैं। क्योति परमात्मसेना जैसे आध्यात्मिक मार्ग में पारगत पुप के निर्देगन में चलने पर ऐरो गहन कार्य मे कही रखनना, आत्मवचना, पतन या ब्रान्ति की संभावना नहीं रहती। । इमलिए ऐसे मेवानिष्णात वीतराग परमात्मा के चरणो मे विनय करके, उनकी आना ले कर उनके सामने सेवक बन कर नम्र प्रार्थना करके मेवा के आग्नेय पथ पर चलने में महीसलामती या आत्ममुरक्षा अधिक है, खतरे की सभावना वाम है। कई लोग गुरु या परमगुरु (परमात्मा) का निथाय (शरण) न स्वीकार करके अध्यात्म के नाम मे उलटे रास्ते चढ जाते हैं, फिर उन्हें उसी पथ का पूर्वाग्रह हो जाता है, वे गलत, मार्ग को भी सही सिद्ध करने की वाशिण करते हैं। इसलिए ये और ऐसे मभावित खतरो मे बचने का उगाय गरणागत वन कर 'अप्पाण बोसिरामि' कह कर प्रार्थना करना है। .. 'आनन्दधन-रसरप' के सम्बन्ध में · आनन्दघनरसरूप-शब्द परमात्मा का सम्बोधन भी सम्भव है। जिसका अर्थ होता है-आनन्द से ओतप्रोत सेवारस आपमे लवालब भरा है, आप आनन्दघनरसमय हैं। 'आनन्दघनरसस्प' सेवा का विशेपण भी बहुत कुछ सम्भव है ; क्योकि परमात्मा की सेवा इतनी ठोस आनन्दरमदायिनी होती है कि उसका अनुमव वही कर सकता है । जिस भाग्यशाली को परमात्ममेवा यथार्थ " रूप मे उपलब्ध हो जाती है, उसको वह सेवा आनन्द से ओतप्रोत लगती है, वाणी से अगम्य होने के कारण वह वाणी मे उसका वर्णन नही कर सकता। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की सेवा अथवा 'मेरी याचना आनन्दघनरसरूप है , यह अर्थ भी हो सकता है। यानी मेरी परमात्ममेवा की याचना आनन्दमगलदायिनी है। मुझे ससार की कोई भी वस्तु परमात्मसेवा के समान आनन्ददायिनी नहीं लगती। यही अनुपम आनन्ददायिनी है। इसी की याचना मै करता हूँ। मुझे इसी याचना में आनन्द है। ... . सारांश इसमे श्री सभवनाथ परमात्मा की स्तुति के माध्यम से श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मसेवा का रहस्य खोल दिया है। प्रारम्भ मे अध्यात्मयोगी के लिए परमात्मसेवा सर्वप्रथम आवश्यक बता कर उसके लिए प्राथमिक भूमिका के रूप मे अभय, अद्वेप और अखेद की साधना करना जरूरी बताया है। चूंकि वीतरागपरमात्मा स्वय' अभय, वीतद्वेप, (वीतराग) और खेदरहितहैं, इसलिए उनकी सेवा के लिए उक्त तीनो गुण प्राथमिक भूमिका के रूप में शुद्धात्मभावरमणकर्ता साधक मे होने आवश्यक है। इसके पश्चात् परमात्मासेवाफल के रूप में चरमावर्त, चरमकरण, भवपरिणति परिपाक, मिथ्यात्त्वदोपनिवारण, सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति, प्रवचनवाणी की प्राप्ति आदि बताए है । तदनन्तर परमात्मसेवा की प्रथम भूमिका प्राप्त करने के तीन मुख्य उपाय , फिर परमात्मसेवारूप कार्य के लिए कारणो की अनिवार्यता बता' कर कार्यकारणभावसम्बन्ध को न मानने वाले तथा परमात्मसेवा को सुगम समझ कर अपनाने वाले मुग्ध लोगो को चुनौती.दी है। और अन्त मे, अगम्य, अनिर्वचनीय, अनुपम परमात्मसेवा प्राप्त होने की प्रार्थना भक्ति की भाषा मे करते हुए प्रस्तुत विषय का उपसहार किया है । सचमुच, इस स्तुति मे परमात्मसेवा का रहस्य अध्यात्मयोगी श्री ने खोल कर रख दिया है। .१ . भयवेराओ उवरए। २ 'खेयन्नए से कुसले महेसी'-(सूत्रकृताग वीरस्तुनि) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . श्रीअभिनन्दन-जिनस्तुति परमात्म-दर्शन की पिपासा (तर्ज--आज निहेलो रे दीमे नाईनो रे, राग-धनानी, सिंधुडो) अध्यात्म के प्रमिक विकास पथ पर आया हआ माधक परमात्मरोवा के बाद परमात्मा के दर्णन का ध्यामा वन कर, अनेक विनवागाजा और गनाटा के बीच भी दर्शनोन्मुक होता है और पुवार उठना है अभिनन्दन जिन दरिसण तरसीए, दरिसण दुर्लभ देव । मत-मतभेदे रे जो जई पूछीए, सह थापे अहमेव ।। अभि० ॥१॥ अर्थ में अभिनन्दन नामक चतुर्य जिनेन्द्र (वीतराग परमात्मा) के दर्शन के लिए तरस रहा हूँ; परन्तु हे परमात्मदेव ! आपका दर्शन बहुत ही दुर्लन हो रहा है। प्रत्येक मत, पथ, सम्प्रदाय और दर्शन के अग्रगण्यो के पास जा कर पूछते हैं कि परमात्मदर्शन कैसे होगा? तव उत्तर मे सभी मत-पंय-सम्प्रदाय वाले अलग-अलग मत (अभिप्राय) मे अपनी-अपनी मान्यता की स्थापना करते हुए कहते हैं ~ "हमारा मार्ग ही प्रभुदर्शन का सच्चा मार्ग है , हम हो परमात्मा का दर्शन करा देंगे।" अथवा प्रत्येक मत-पंय वाले कहते हैं-"यहीं आ जालो । मैं ही परमात्मा हूँ।" भाप्य परमात्मदर्शन क्यों, क्या और कैसे ? परमात्ममेवा की प्रथम भूमिका के द्वारा सम्यग्दर्शन के प्रयम मोपान पर चढा हुआ साधक ठेठ मजिल तक पहुँचना चाहता है, उसे केवल इतने से ही सन्तोप नहीं होता। वह सम्यग्दर्शन के अन्तिम छोर तक पहुँच कर परमात्मा के भलीभांति दर्शन करना चाहता है । और सम्यग्दर्शन के पथ पर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्गन की पिपासा प्रयाण प्रारम्भ होते ही उसका यह प्रश्न उठाना उचित भी है कि "परमात्मा के के दर्शन क्योकर होंगे? गैं उनके दर्शन पाने के लिए बहुत ही उत्सुक हूं। जब मैं वीतराग परमात्मा के दर्शन के सम्बन्ध मे विचार करने लगता हूं तो मुझे उनके दर्शन बहुत ही दुर्लभ, दुष्प्राप्य और कठिन प्रतीत होते हैं। यदि अब भी इतनी उच्चभूमिका पर आने के बाद भी परमात्मा का दर्शन नहीं प्राप्त कर सका तो मेरा जीवन व्यर्थ चला जायगा । परमात्मा का दर्शन प्राप्त किये विना मेरे लिए जगत् मे सब कुछ मिथ्या है, सारा विश्व अन्धकारमय एव दु समय है।" इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते है-'दरसण तरसीए' आपके देवदुर्लभ दर्शन के लिए तरस रहा हूँ। आपके सम्यक् दर्शन के बिना मैंने समार की अनेक परिक्रमाएँ कर ली, अनेक जगह भटका, देवलोक मे भी गया, नरक, तिथंच और मनुष्यलोक मे पहुंचा , मगर किसी भी जगह सुख नहीं मिला । आपके सम्यग्दर्शन के विना सच्चा सुख प्राप्त होता भी कैसे ? क्योकि वहाँ मैं क्षणभगुर वैपयिक सुखो के चक्कर मे फस रहा , आपका सद्दर्शन पा कर शुद्धात्मतन्मयतास्पी आत्मिक सुख प्राप्त नहीं किया। अत में पूर्ण तत्परता के साथ सन्नद्ध हूँ। ___ चूंकि गाथा मे जिन-दर्शन पद है, इसलिए उसका सही अर्थ-वीतराग परमात्मा को आँखो मे देखना नहीं होता, अपितु परमात्मा को अन्तरात्मा से देखना होता है । अथवा दर्गनशब्द दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम या क्षय से होने वाली तन्वरुचि या तत्त्वार्थश्रद्धा के अर्थ मे है । अथवा वीतराग-परमात्मा का जो दर्शन है, उसे प्राप्त करना है यानी साधक को प्राप्त हुए क्षायोपशमिक या औपशमिक सम्यगर्णन से ही सन्तुष्ट हो कर वैठ जाना नहीं है, अपितु अनन्त क्षायिकसम्यग्दर्शन तक मुझे प्राप्त करना है, जो आज दुर्लभ हो रहा है , अथवा परमात्मदर्णन का मतलव शुद्ध आत्मा का दर्शन है। परमात्मदर्शन दुर्लभ क्यो ? आज कर्मों व कपाय, राग-द्वेप, मोह आदि विकारो के कारण शुद्ध (परम) आत्मा पर नाना आवरण आए हुए हैं, इसलिए उसकी झाकी नही हो रही है, उसके दर्शन में अनेक विघ्नबाधाएँ अडी खडी हैं, इसलिए परमात्मदर्शन दुर्लभ हो रहा है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन कोई यह वह सवना है कि जगत में तन धर्मों, गम्पदायों, गों, पंगा या दर्शनो के होने हा भी परगात्मा नो वर्णन गयो दुर्तग हो रहे है। गनी धर्म, मन, पप आदि परमात्मा के दर्शन करने. प्रभु-नाक्षात्कार कराने का दावा करते है, फिर यया कारण है कि परमात्मा के दर्शन इतने दुप्माण हो रहे हैं ? जहाँ हनने धर्म और धर्मो के संस्थापा हो, जहाँ विविध धर्मावना', परमात्मा के पुन, पैगम्बर, मसीहा, या अवतार मौजूद हो, वहाँ भना परमात्मा का दर्णन इतना कठिन क्यों होना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में स्वय आनन्दघनजी इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा कहते है.--' मत मतभेदे रे जो जई पूछोए, सहु थापे अहमेव' इसका तात्पर्य यह है कि चाहे जिग पथ, मत, मम्प्रदाय या दर्शन के केन्द्र या धर्मस्थान मे जा कर पूछा जाय, नवंय प्राय मिथ्या आग्रह, अपनी मान्यता की पकड, अपने मन पर गच्चाई को चाप लगाने का अभिनिवेश दिखाई देगा। इसलिए एकान्तप्टिपरायण, मतानही प्राय यही कहेंगे-हम कहते हैं, वहीं प्रभुदर्शन ना मत्वमार्ग है, हमारे मत, पथ या सम्प्रदाय आदि के सिवाय किमी पथ, मत आदि को सत्य के दर्णन नहीं हुए, न हमारे सिवाय किनी ने आज तक प्रभुदर्शन का रहस्य (या सत्य) प्रगट किया है।' अथवा वे कहेंगे-"हमारे धर्म-सम्प्रदाय या मत-पथ में बनाने गए ईगवर या भगवान् ही परब्रह्म परमान्मा हैं, उनके दर्शन मारे मत, पथ वा सम्प्रदाय मे शामिल होने पर ही होंगे। हमे गुरु स्वीकार कर लो, बम, तुम्हे परमात्मा के दर्णन बहुत जल्दी करा देंगे।" इस प्रकार एक या दूसरी तरह से मभी अपनी-अपनी मान्यताओ को सत्य बता कर जिज्ञासु व्यक्ति के कान, नेत्र, और मुह बद कर देते है, वे न दूसरे की बात सुनने देते हैं, न दुसरो की सत्य वात देखने-समझने देते है, न किमी विषय में तर्क करने देते हैं । इस प्रकार जिज्ञासु एव भद्र परमात्मदर्शनपिपासु व्यक्ति इन सम्प्रदायो या मतपयो के भवरजाल मे फस जाते है। एकान्त आग्रही लोग कोई शका . या तर्क भी प्राय नहीं करने देते, वल्कि शंका या तर्क करने वाले को या तो वे अधर्मी, नास्तिक बनाते हैं, या फिर वे अधर्मी, मिथ्याप्टि या नास्तिक हो जाने का डर दिखा कर चुप कर देते है। अनेकान्तवाद के उपासक भी प्राय मताग्रह या मतान्धता के शिकार बन जाते है, और अपने ही मत को सत्य मिद करने मे एडी से चोटी तक पसीना बहा देते है। विविध्र दर्णन भी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपामा एकान्त आग्रही बन कर अपनी मानी हुई बात को सच्ची और दूसरे की बात को विलकुल मिथ्या सिद्ध करने मे तनिक भी नही सकुचाते। यहाँ तक कि अपनी बात को भगवान् के द्वारा बताई हुई सिद्ध करने का प्रयास करते हैं । अत इन वादो, मतो, पथो या सम्प्रदायो के झझावातो मे साधक सहसा निर्णय नहीं कर पाता कि कौन-गा पथ, मन, या धर्मसम्प्रदाय मुझे परमात्मदर्शन करायेगा ? कौन-सा दर्शन सत्य है ? और कभी-कभी तो वाह्य आडम्बरो या वाक्पटु लोगो के मोहक शब्द जाल मे साधक फरा जाता है, परमात्मदर्शन की धुन में एकान्त और मिथ्या दर्शन के चक्कर में पड़ जाता है, अथवा भोगविलास, रागरंग या हन्द्रियविषयपोपक वातावरण की चकाचौध मे परमात्मदर्शन भूल जाता है, किसी दूसरे वनावट, दिखावट व सजावट से ओतप्रोत अमुक व्यक्ति के दर्शन को ही परमात्मा का दर्णन समझ लेता है, अथवा अनेक मान्यताओ एवं मतो के अन्धड में व्यक्ति भ्रान्तिवश कही का कही भटक जाता है। इसी कारण परमात्मा के दर्णन या परमात्मा का दर्शन बहुत दुर्लभ है। विश्व में प्रचलित विविध दर्शनो को देखते हैं तो वे भी अपनी,अपनी मान्यताबो के एकान्त आग्रह मे फसे हुए है। वे दूसरे दर्शनो के दृष्टिकोणो को समझ कर समन्वय करने या अपने मताग्रह को छोड़ने के लिए जरा भी तैयार नहीं है । यहाँ प्रमगवश आत्मा के सम्बन्ध मे कुछ दर्शनो के एकान्तदृष्टिपरक मत देखिए-साख्य, योग और वेदान्तदर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं । वे कहते हैं कि जैसे ऐरन पर हथौडे की चाहे जितनी चोटे पड़ें, वह स्थिर रहता है, वैसे ही देश, काल आदि के कितने ही थपेडे खाने पर भी आत्मा मे जरा भी परिवर्तन नही होता, वह विलकुल स्थिर रहती है। इस मान्यता मे उपर्युक्त तीनो दर्गन बिलकुल भी परिवर्तन नहीं करने और न ही अपनी जानदृप्टि खोल कर सत्य के दूसरे पहलू को देखने-परखने का प्रयास करते है। इसी प्रकार नैयायिक और वैशेपिक सुख-दुख, ज्ञान आदि को आत्मा के गुण मानते अवश्य है, लेकिन आत्मा को एकान्त नित्य और अपरिवर्तनशील (अपरिणामी) मानते है। . बौद्धदर्शन आत्मा को एकान्त क्षणिक, परिणामी और निरन्वय परिणामो का प्रवाहमात्र मानते हैं। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन हनी प्रकार आत्मा और पुद्गल के, चेतना और मोतिक वस्तु के अयथा पर आत्मा का गरी आत्माओ ने गाय गम्बन्ध ने पिपय में नया बग्न और आ मा का गम्बन्ध टूट जाने के बाद आत्मा बी होने वाली स्थिति सम्बन्ध में प्रत्येक दर्शनकार की मान्यता भिन्न-भिन्न है । प्रत्येका दर्जन प्राय. अपनी ही बात को गत्य मान कर आग्रहपूर्वक पकडे रखता है। परिणामस्वम्प वे परमात्मा (आन्मा) के यथार्थ दर्शन के अन्वेपण की उदान भावना के बदते आत्मा (गरमा मा) के सम्बन्ध में अपनी बात को सच्ची म्यापिन पाने का प्रयास करते है। उमलिए न दशनी के गब्दजालरूप महारण्य में पग पर प्राणी यथार्य (नम्यग् दर्शन नहीं कर पाता ! यही कारण है कि श्रीआनन्दधनजी ने यथार्यदर्शन को दुर्लभ बताया है। अथवा उपर्युक्त पयो, वादो, मतों या दर्शनो का एकान्त आग्रह, नापेक्षना रहित दृष्टि, पूर्वापरविरोध न हो, तभी सापेक्ष दृष्टियुक्त, कान्त-आग्रहरहित, पुर्वापरमगत, विशुद्ध, पक्षपातरहित और अनेकान्तवारविगुद्ध परमात्मदर्शन (तत्त्वज्ञान का शुद्ध श्रद्धान) हो सकता है। परन्तु पूर्वोक्त मतो, पयो या दर्शनी में ये लक्षण न होने से मात्रक के लिए परमात्मदर्शन या तत्त्वार्यश्रद्धानरूप दर्शन अथवा शुद्ध आत्मदर्णन अत्यन्त दुर्लभ है । अथवा आत्मा के द्वारा बार-बार परभावो मे पड जाने के कारण या छही द्रव्यो के यथार्थ वस्तुतन्व (स्वरूप) पर म्वत्वमोह-कालमोह व पूर्वाग्रह आदिवश न टिक सकने के कारण परमात्मा (सत्य) के दर्शन दूरातिदूर होते जाते हैं। इसलिए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अन्तर से स्वर फूट पड़ा"प्रभो । मोह के अन्धकार से मेरे नेत्र आवत हो गए। इसी कारण मैंने आज तक कभी एक बार भी आपका दर्शन नही किया । मैं सोच रहा था कि इग समय मर्मस्थान को बींधने वाले अनेक अनर्थ (अनिष्ट कष्ट) मुझे पीडित कर रहे हैं, अगर आपका दर्शन हो गया होता तो ये मुफे कष्ट देने को उद्यत क्यों १ नून न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो । सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्मावियो विधुरयन्ति हि मामन :, प्रोद्यत्प्रवन्धगतय. कथमन्ययते ॥ -कल्याणमदिर स्तोत्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा होते ?" सचमुच परमात्मदर्शन के बिना बार-बार ससार मे जन्ममरण की अनर्य-परम्पराएँ खडी होती है, अगर एक बार भी सच्चे माने मे सम्यक् वमोह का आवरण हट कर मुझे आपका सस्यग्दर्शन हो जाय तो यह अनर्थपरम्परा भी मिट जाय या इसकी सीमा आ जाय । परन्तु मोहादि विकारो में आत्मा घिरी होने के कारण शुद्धात्मदर्शन नही कर पाती, जो परमात्मा का सच्चा दर्शन है, उसे नही. प्राप्त कर पाती और न ही उन परमात्मा के वताये: हाए सदर्शन (सत्य) पर अविचल, गाढ और निर्दोपरूप से श्रद्धा ही टिक पाती है। चूंकि सम्यग्दर्शनरहित प्राणी की सिद्धि (कर्ममुक्ति) नही हो सकती, न ससार का अन्त आ सकता है, इसलिए दर्शन देवदुर्लभ है, और उसी की हार्दिक तमन्ना है । ___इस गाथा मे बताई हुई योगी श्रीआनन्दघनजी की बात की साक्षी के रूप मे उत्तराध्ययनसूत्र मे स्वय श्रमण भगवान महावीर स्वामी के गौतमगणधर के समक्ष निकाले हुए उद्गार है नहु जिणे अज्ज दोसई, बहुमए दोसई मग्गदेसिए। 'हे गौतम ! तुम्हे आज जिन (वीतराग परमात्मा) का दर्शन नहीं हो रहा है। अनेको मत (मान्यता) वाले मार्गदेशक दिखाई दे रहे है।' बहुत मे मार्गदेशक लोग परमात्मदर्शन (शुद्ध आत्मदर्शन) इसलिए नहीं करा पाते, उसका कारण श्रीआनन्दघनजी ने इसी गाथा के उत्तरार्द्ध मे स्पष्ट दिया है। इसीलिए वर्तमानकाल मे परमात्मदर्णन अतीव दुर्लभ है, जिसको पाने के लिए वे उत्सुक है। इसीलिए अगली गाथा मे दर्शन की दुर्लभता का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं 'सामान्ये करी दर्शन दोहिलु, निर्णय सकल विशेष । मद में घेर्यो रे अंधो केम करे, रवि-शशिरूप-विलेख ?॥ अभिनन्दन ॥२॥ __ अर्थ सामान्यरूप से हो जब आपका दर्शन दुर्लभ हे तो समस्त नयो, प्रमाणो, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्णन निक्षेपो आदि द्वारा सर्व प्रकार से निर्णयस्प आपका विशेष दर्शन तो और ही दुर्लभ है । पयोफि जैसे कोई अन्धा हो और फिर शगत्र आदि के नशे से घिरा हो तो पहले तो वह सूर्य और चन्द्रमा के स्प को ही देख नहीं सपता, तो फिर इन दोनो के स्वरूप का पृथक-पृथक विश्लेषण कसे कर सकता है ? बसे हो विवेकतेत्र से रहित और उनमें भी मत, सम्प्रदाय, पंथ और दर्शन आदि के आग्रहस्प मद से मत बने हए मतपश्चादी सामान्यतया आपका दर्शन प्राप्त नहीं कर सकते तो विभिन्न नयप्रमाणादि द्वारा आपफे (सुद्धात्मा के) विश्लेषणपूर्वक विशेष दर्शन तो प्राप्त ही कमे कर सकते हैं। भाष्य सामान्य और विशेषरूप से दर्शन की दुभता पूर्वोक्त गाथा में परमात्मदर्शन की दुर्न मना गा एक कारण बताया 4-~मतपथवादियों का मतामह । इस गाया में उगी या विजेग- स्पष्टीकरण पिया गया है कि उसका नतीजा गया आता है, परमात्मदर्शन की दुर्लभता यां इममे मामान्य और विशेप दो दृष्टियों में श्रीनानन्दधनजी ने नोना है। यहाँ परमात्मा के दर्शन के दो प्रकार वनाए है-गामान्य और विशेष । सामान्यरूप मे परमात्मा (अभिनन्दन) के दर्शन है वे ही आत्मा , (मरे) दर्शन है। जो मेरी आत्मा के दर्शन है, वे ही परमात्मा केट। मंगे और इनकी आत्मा (द्रव्य) के म्यूल पर्याय में भले ही भिन्नता हो, मामान्यप से स्वरूपदर्शन में कोई भिनता नहीं है। . ____वात्मा और परमात्मा दोनो यो आत्मगुणो- ज्ञानाादाटा या चैतन्यम्वरण मे कोई अन्नर नहीं। यह मामान्य दशन है। इमी दृष्टि से कहा है कि नागान्यरूप में गमम्त गशारी आत्माओं को परमात्मदर्शन या शुद्धात्मदर्शन दुर्लभ है। बहुत-मे प्राणी तो आत्मदर्शन का विचार मी नहीं करते, वे मसार के व्यवनार या अपने मामारित क्रियाकलापो या शरीर, परिवार व गन्तान आदि के भरण-पोगण आदि मानारिख प्रवृत्तियो मे इतने रचेपचे रहते हैं, अथवा विविध व्यसन, निद्रा, गपशप या आलस्य में इतने ग्रस्त रहते है कि उन्हें दर्शन के सम्बन्ध मे मोचने-विचाग्ने तक की फुरगत ही नहीं गिननी, दर्शन प्राग्न गारला नो दूर की बात है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा ८७ अथवा कई लोग ऐसे होते है, जो मतमतान्तर के झगडे मे पड कर अपने पाथिक या साम्प्रदायिक कदाग्रहो, पूर्वाग्रहो, या मिथ्या मान्यताओ, या मिथ्याज्ञान, के चक्कर मे ऐसे फस जाते हैं कि उससे छूटना कठिन हो जाता है। ऐसे, दुराग्रही और आँख खोल कर न दखने वालो के लिए दर्शनप्राप्ति सामान्यरूप से कठिन है। ____इसी प्रकार आत्मा के सम्बन्ध मे ६ स्थान (बाते) बताए गए हैं, जिन्हे मानना या जिन पर सोचना दर्शनप्राप्ति के लिए अनिवार्य है-(१) आत्मा अवश्य है, (२) आत्मा शाश्वत है, अविनाशी है, (३) जीव पुण्य और पाप का कर्ता है। (४) जीव कृतकर्मों का भोक्ता है, (५) योग्य पुरुषार्थ होने पर जीव की मुक्ति होती है, (६) जीत्र की मुक्ति के लिए उपाय भी है । इन ६ स्थानको का विचार, स्वीकार और स्पष्ट जानकारी न हो तो दर्शनप्राप्ति नही होती, दर्शनप्राप्ति के अभाव मे वह जीव ससार मे भटकता रहता है , मगर वह उसका कारण नहीं जान पाता और चक्कर खाता रहता है। इसलिए विभावो या पौद्गलिक भावो मे रमण करते रहने वाले जीवो को सामान्यरूप से दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ है। । व्यवहारनय की दृष्टि से दर्शनप्राप्ति के ३ लिंग (चिह्न) वताए है(१) शुश्रूषा-जिसे दर्शन सम्बन्धी तथ्यो और तत्त्वो को सुनने-समझने की अर्हनिण तमन्ना हो तथा जो दूसरे सब काम छोड कर दर्शन की विचार-चर्चा मुनने के लिए दौड पडता हो, उसमे उसे खूब आनन्द आता हो, वह शुश्रू पालिंगी है । (२) सेवा-जिसे धर्मकरणी या धर्माचरण मे बहुत आनन्द आता हो, ऐसा व्यक्ति सेवा-लिगी है । तथा (३) वयावृत्य-जिसे देव अथवा गुरु की सेवा, परिचर्या, वैयावृत्य करने मे आनन्द आता हो, रोगी, वृद्ध, तपस्वी, आदि की सेवा मे जिसकी दिलचस्पी हो, वह वैयावृत्यलिंगी है। इन तीन लिंगो को प्राप्ति वाला दर्शन प्राप्त होना बहुत कठिन है। क्योकि इन तीनो के लिए अपना स्वार्थ, स्पृहाएँ, व इच्छाएँ छोड कर मानसिक एकाग्रता, अनुशासनशीलता एव इन्द्रियसयम को अपनाना पडता है। ये माधारण प्राणी में होते नही , इमलिए सामान्यरूप से दर्शन की प्राप्ति दुर्लग बताई है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन __ वस्तुतत्त्व का बोध तवा पर मच्ची समजावंगा श्रवा गो जब हम परमात्मा का सम्यग्दर्गन पाहते है, तो इसे प्राप्त करने के लिए भी सामन्यनया व्यवहार. नय की दृष्टि से ४ अगो की प्राप्ति आवायरः बताई • (2) तत्त्वज्ञान का मुदृढ परिचय (२) तत्त्वज्ञान या तत्त्वज्ञानी की गवा (B) व्यापनगुदगंनी या वर्जन (दर्शन'घ्राट जीव का मग न करना) और (1) लिगीमगवर्जन (धर्मविरोधी, धर्मान्ध अथवा अधर्मी व्यक्ति के गग का त्याग) गम्यक्त्व के लिए ये चारो शर्ते बहुत ही कठिन होने से सामान्यतया दर्शन को कठिन बताया गया है। अत, निश्चय और व्यवहार दोनो दृष्टियो मे मामा म्प गे वर्णन ही दुर्लभता का प्रतिपादन यथार्थ है । दर्शनमोहनीय की नीयग्रन्थी का श्रतनानस्पी पनी छनी से जब भदन हो जाता है, तब आत्मा के मर्वप्रथम दिव्यनयन खुलते है। उनमे सर्वप्रथम जो सामान्यज्ञान होता है कि मैं है, वह है, चे है। उस प्रकार के मान को सामान्यदर्शन है कहा जाता है , जो कि अन्यन्त दुलंग है। शास्त्रीय परिभाषा । मे सामान्यदर्शन को उपशमसम्यक्त्व कहा है, जो अनादि मिथ्यान्य के नष्ट होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्तिम दौर में होता है। और उसके आते ही नवंप्रथम अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का उपगमन होता है। जिसे ज्ञान के द्वाग नमस्त पदार्थो का विभिन दृष्टियों, नयो एव हेतुओ से ममतस्प मे विश्लेषण हो गफे तया गम्या निर्णय हो ग, उमे विशेष दर्शन कहते हैं। विशेपदर्शन सामान्यदर्शन से भी दुल भतर नलिए है कि इसमे रम्नु के तमाम पहनुओ का विभिन दृप्टिकोणी गे विचार और निर्णय करना होता है। जो व्यक्ति साम्प्रदायिक, पाथिक या दार्गनिक कदाग्रह, पूर्वाग्रह या अपने माने हुए मत-पथ या मान्यता को सत्य मानने के मद से ग्रस्त है, जो दूनगे के पास या अन्यत्र सत्य सम्भव हे, इगे कनई देगुना-गुनना भी नहीं चाहता , वह अहकार, अन्धश्रद्धा, साम्प्रदायिक कट्टरता, हृदय में अमत्य - जानते हुए भी सत्य सिद्ध करने का हठ, विवेकचक्षु के प्रयोग से इन्कार इत्यादि अनेक उपाधियो से युक्त है, वह विभिन्न नयो (दृष्टिकोणो), पहलुओ और हेतुओं से वस्तुतत्त्व का या आत्मा का विचार या निर्णय नहीं कर गकता। इस कारण विशेपदर्शन की प्राप्ति दुर्लभतर बताई है। कदाचिन् विशेषदर्शन की प्राप्ति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा ८६ हो भी जाय, तो भी आसपास के विरोधी वातावरण के कारण उसके दिल-दिमाग मे यह वात जचनी मुशकिल है कि स्वय के माने हुए मत-पथ-दर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र भी सत्य के अंशो की सम्भावना है, अथवा भिन्नभिन्न दृष्टिविन्दुओ से प्रत्येक वस्तुतत्त्व को देखा जा सकता है । इसलिए निर्णय करना या निश्चय करना दर्गन की प्राप्ति मे भी बढ़कर मुश्किल है। इसी कारण सर्वांगसत्यदर्शन की झाकी होना कठिन है। मामान्य और विशेष रूप से दर्शन की दुर्लभता को स्पष्ट करने के अभिप्राय से श्रीआनन्दघनजी एक उदाहरण प्रस्तुत करते है-"मद मे घेर्यो रे अधो केम करे, रविशशिरूपविलेख" जिस प्रकार कोई व्यक्ति स्वय अन्धा हो, फिर शराव आदि नशैली चीज का सेवन करने से वह नशे में चूर हो जाय तो सूर्य और चन्द्रमा के स्वरूप का विश्लेपण करना तो दूर रहा, उनके रूप का अवलोकन भी नहीं कर सकता। उसी प्रकार जो व्यक्ति पहले तो मिथ्यात्त्वरूपी अन्धकार से ग्रस्त हो, मिथ्यात्व से अन्धा हो, फिर वह अपने मत, पथ, सम्प्रदाय या दर्शन के मद ('मेरा ही सच्चा है' के अहकार के नशे) मे डूबा हो तो, वह नयो, हेतुओ आदि द्वारा विभिन्न पहलुओ या दृष्टिकोणो से विशेष प्रकार से परमात्मा के सत्य का दर्शन करना तो दूर रहा, सामान्यरूप से भी उक्त दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता। व्यावहारिक दृष्टि से सोचे तो जिसे दशनमोहनीय के कारण मिथ्यात्त्वदशा से ग्रस्त होने में सामान्यरूप से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नही हुई, उसे शका, काक्षा, विचिकित्सा, मिथ्याप्टि-प्रशसा, मिथ्यादृष्टिमस्तव, इन सम्यक्त्त्व के ५ अतिचारो (गणो) से रहित विशिष्ट परमात्मदर्शन की प्राप्ति केमे हो सकती है? बहुत-मे तथाकथित पण्टित या विद्वान् विभिन्न प्रकार के नयो, हेतुओ, तर्कों या आगमो द्वारा भी परमात्मा का सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं, इस बात का खण्डन करते हुए श्रीआनन्दधनजी अगली गाथा मे कहते हैं- हेतु-विवादे हो चित्त धरी जोइए, अतिदुर्गम नयवाद। आगमवादे हो गुरुगम को नहीं, ए सवलो विषवाद ॥ अभिनन्दन० ॥३॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन अर्थ हेतुओ (तको) के विवादो (पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष के सगड़ी में) चित्त को दृढ़ता से लगा कर उनके द्वारा परमात्मा का दर्शन करने जाय तो नययाद (विभिन्न दृष्टिबिन्दुओ) को समझना अत्यन्त पेचीदा है। शास्त्रप्रमाण मी सहायता लेने जाय तो शास्त्र की जटिल एवं पूर्वापर-असंगत बातो से जहाँ बुद्धि चकरा जाती है; वहाँ कोई गुरुगम (निप्पस गुरु की धारणा) न होने से परमात्म-दर्शन मे यह सब व्यर्य का विवाद है, बडा झगडा है, प्रपंच है या अत्यन्त खेदजनक है । माध्य नयवाद मे परमात्म-दर्शन दुर्लभ श्रीआनन्दधनजी परमात्मदर्शन की दुनं भता का प्रतिपादन अब अन्य पहलुओं मे करते है। बहुत से लोग परमात्मदर्शनप्राप्ति को बहुत ही मानान समझते है। वे सोचते है कि इतने बडे-बटे विद्वान् दुनिया में हैं, वे किसी भी वन्नु को समझने-समझाने के लिए मूक्ष्म में मूक्ष्म तक प्रस्तुत करते है, विविध दृष्टिकोणो को समझते-समझाते है । परन्तु नकों या हेतुओ से परमात्मा का दर्शन इतना आमान नहीं है । क्योकि नयवाद अत्यन्न दुर्गम्य है। विभिन्न नयो का वर्णन कर देना चा विभिन्न दृष्टिकोणो को प्रस्तुत कर देना गा बात है, और अपना मताग्रह पूर्वागह या पक्षाग्रह अथवा एकासन्य की प्राप्ति को गर्वाण सत्य समझने का अकार छोड कर विभिन्न नयो या दृष्टिकोणो मे मापेक्षतानाम जम्य-अविगेधिता जथवा नगति स्थापित करना और बात है। यह बात बुद्धि की अपेक्षा हृदय में ज्यादा गम्बन्ध रखती है। जब तक हृदय परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के मत्यदर्शन के लिए झुके नहीं, बुद्धि में मे कदाग्रह, मनाग्रह या म्वत्वमद का नशा न उतरे, तब तक हृदय नन और मरन नहीं हो सकना, और हृदय के नम्र व मरल हुए विना नत्यदर्शन होने अतीव दुभ है। जहां वौद्विक पहलवानो द्वागनों के दावीच लगा कर दूसरे को हगने और स्वय के जीतने जथवा अपने बुद्धिबल म 'ब्रान्त न प्रस्तुत करके या तोड-मरोड कर अर्थ करते अपनी मानी हुई वान को मच्ची सिद्ध करने का प्रयास होता है , वहाँ मृत्यनिष्ठा नहीं होती। प्रभुदर्गन की प्राप्ति के लिए आन्तगि निष्ठा के अगार में कोई भी हेतु या नयवाद महाया नहीं हो सकता। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा आगमवाद से भी दर्शनप्राप्ति कठिन अव रही आगम प्रमाणो द्वारा प्रभुदर्शन प्राप्त करने की बात, वह भी व्यर्थ श्रम हे । क्योकि आगमो के पाठो मे परमात्मदर्शन का निर्णय करने मे कठिनाई यह है कि आगमो मे जहाँ भी पूर्वापरविरुद्ध, असगन, अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के मन्दर्भ मे कही हुई वाते आएंगी, वहाँ माधक की बुद्धि की गाडी अटक जाएगी , वहाँ निप्पक्ष गुरु की धारणा की जरूरत पडेगी और निष्पक्ष, सापेक्षवादपूर्वक वस्तुतत्व का यथातथ्य प्रतिपादन करने वाले गुरु वहुत ही विरले हैं। आगम का अर्थ है-वीतराग आप्तपुरुपो द्वारा भापित और गणधरो द्वारा ग्रथित-सकलित मूलसूत्र, जिनमे जैनदर्शन के चारो अनुयोगो के सम्बन्ध मे बाते कही गई हो । आगमो मे बहुत-सी बाते प्रचलित और उपादेय होती है, वहुत-सी हेय और ज्ञेय होती है । कई स्थलो पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अमुक परिस्थिवश उत्सर्गसूत्र के वदले अपवादसूत्र होते हैं, कई जगह विभिन्न आशयो से पृथक्-पृथक् विधान व्यवहारचारित्रपालन के हेतु किये गए हैं, ऐसी स्थिति में सामान्य साधक की वुद्धि गडबड या शका मे पड जाती है और उस समय यथार्थ निर्णय करने के लिए निष्पक्ष, सच्चे गुरु का मिलना भी कठिन हो जाता है। क्योकि आगमो मे बहन-से विवादास्पद स्थलो मे परम्परागत अर्थ या सम्प्रदायगत धारणाएँ चलती हैं, किसी विवादास्पद विषय के बारे मे किमी गुरु मे पूछने पर प्राय वह जिस सम्प्रदाय--परम्परा का होगा, उसे जैसी धारणा होगी, तदनुसार ही प्राय अर्थ करेगा या धारणा बताएगा। ऐसी स्थिति मे परमात्मा के यथार्थ दर्शन की प्राप्नि तो खटाई मे पड जायगी , व्यक्ति एक के बद ने परी परम्परागत वात को ही परमात्मा का दर्शन समझ कर अपना लेगा। इसलिए शास्त्रप्रमाण द्वारा भी परमात्म-दर्शन की प्राप्ति होना कठिन है। अत सापेक्षदृष्टि (अनेकान्तदृष्टि)-प्ररूपक जब वादविवाद के अखाटे मे उतर जाता है, तब उसे परमात्म-(मत्य) दर्शन तो होते नहीं, वह अपने अहकार मे ही सतुष्टि करता है, जो पहले से जाना-माना है, उसी को मत्य ममझ कर परमात्मा के दर्शन के नाम मे चलाता है। वाद-विवादो में अगर विजिगीपाभाव होता है, गिजामाभान नहीं । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन इस कारण 'वादे-वादे जायते तत्त्ववोध : 12 बदले वाद-विवार मगटे, चरविरोध और टेप का म्प ले लेता है । पिर गाहे यह हेतुवाद हो या आगमवाद वे यथार्य परमात्गदर्शन की प्राप्ति मे प्राय बाधा बनते हैं। गुम्गम का अर्थ होता है-निष्पक्ष गुरु की प्रेरणा या मार्गदर्शन । आगमो मे बहुन मी वाने गुरुगम के अभाव में उलटे उप में परिणत या प्रचलित हो जाया करती है। प्रत्येक व्यक्ति में गुरु होने की योग्यना नहीं होती । केवल मस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओ का पण्डिन होने से, माम्यो का अधिक वाचन होने मात्र मे कोई गुरु नहीं हो सकता । मात्र में (धर्मोपदेशक) के सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट बताया गया है - जो अपनी आत्मा को परभावो (दुर्गुणो) मे सदा बचाता हो, इन्द्रियों और मन का दमन करता हो, जिसने चिन्ता-शोक आदि को नष्ट कर 'दिया हो, जो निश्चिन्त व निस्पृह हो, आश्रयो से दूर हो, यही परिपूर्ण (ममी हप्टियो में मर्यागपूर्ण) एव यथातथ्यस्प में शुद्ध धर्म का गथन कर सकता है। जिमका गम्भीर अध्ययन हो, विचागे के अनुरूप आचार हो, भौतिकसृष्टि के बदले आध्यात्मिक दृष्टि मुन्थ्य हो, गुढ आत्मभाव मे निष्ठा हो, जो श्रद्धापूर्वक अहिंमा सत्य-आदि धर्मों का पालन करता हो, जिमने धर्म को जीवन में रमाया हो, वही गुरु कहलाने और शास्त्रों के सम्बन्ध में मार्गदर्शन देने का अधिकारी है। अत. इस काल में निप्पक्ष, निरभिमानी, स्वयप्रेरित, दीर्घद्रप्टा, नवीनप्राचीन युगद्रष्टा, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के ज्ञान में कुशल गुरु का मयोग मिलना बहुत ही कठिन है। यही कारण है कि हेतुवाद, नयवाद या आगमवाद के द्वारा परमात्मा के दर्शन की प्राप्ति होने के बदले विवाद, विरोध, झगडा, या . विपमभाव या सेद चढ़ने की आशका है , जिमका सकेन श्रीआनन्दघनजी ने इस गाथा के अन्त में कर दिया है। "आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । ते धम्म सुद्धमाइक्खंति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥" Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा ६३ परमात्मदर्शन के विषय मे और क्या-क्या विघ्न हैं, उनका निर्देश करते हुए श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे कहते है घाती डू गर आडा अतिघणा, तुझ दरिसण जगनाथ । धीठाई करी मारग संचरूं, सेंगू कोई न साथ ॥ अभिनन्दन० ॥४॥ अर्थ हे जगत् के नाथ ! मेरे देव !, आपके यथार्थदर्शन मे रास्ते मे विघ्नकारक घातीकर्मों के अनेक पहाड अड़े खड़े हैं। साहस करके कदाचित् आपके दर्शन पाने के मार्ग पर चल पडू तो भी साथ में चलने वाला कोई रास्ते का जानकार पथप्रदर्शक भी तो नहीं है ! भाष्य परमात्मदर्शन मे बाधक : घातीकर्मपर्वत परमात्मा के यथार्थदर्शन के लिए आत्मा का भी शुद्ध होना आवश्यक है । चेहरा चचल या मलिन होता है तो दर्पण मे ठीक दिखाई नहीं देता, वैसे ही आत्मा मन-वचन-काया के योगो से अस्थिर और कपायो व कर्मों से मलिन होता है तो परमात्मारूपी दर्पण मे यथार्थरूप मे उसके दर्शन नही हो सकते। यही कारण है कि परमात्मदर्शन के लिए सर्वप्रथम आत्मा के गुणो का सीधी घात करने वाले कर्मों (चार घातीकर्मों ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) को श्रीआनन्दघनजी ने पर्वत के समान बाधक वताए हैं । १. विभिन्न मतो वालो का स्वमत-स्थापना का आग्रह, २ सामान्यरूप से दर्शनप्राप्ति की दुर्लभता, ३ किसी एक निश्चय पर आने की उसमे भी अधिक कठिनता, ४ मत-मद के नशे में चूर मिथ्यात्वान्ध होने के कारण स्वरूपकी अशक्यता, ५ तर्कवाद की जटिलता, ६ नयवाद की दुर्गम्यता, ७ आगम द्वारा दर्शनप्राप्ति मे गुरुगम का अभाव, - ८ सच्चे मार्गदर्शन के अभाव मे झूठे विवाद , इतने प्रभुदर्शनघाती पर्वतो की वात पूर्वोक्त गाथाओ मे श्रीआनन्दघनजी ने की। परन्तु इनसे भी बढकर आत्मगुणघातक ४ मुख्य पर्वत हैं, जो परमात्मा के दर्शन मे रोडे अटकाते हैं। वे एक नही, चार नही, अनेक हैं और ठोस हैं। कर्मों के मुख्यतया दो विभाग किये हैं-घाती और अघाती । घातीकर्म आत्मा के चार मूल अनुजीवी गुणो-ज्ञान, दर्शन, चारित्र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याग-दर्शन और वीर्य वा घात करते है, उनमे विनवाग पहुँचाने। ये है-- भानावरणीय, दांनावरणीय, गोरगीर और अनगन। प्रशारणीर जान का काम या ज्यादा पान करना पता है । यह वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं होने देना। दर्णनावरणीर बन्नु गा गागान्य वोध होने में विन दालना है। जो वृद्धि पो चाकरमटान र गग-देष के आथित बना कर मनोविकार्ग, कपायो व वेदोदय ताग चाग्नि पर प्रभाव डानना है वह चारित्रमोहनीय तथा शद्व आत्मा-परमात्मा के दर्शन में बावर नता है, वह निगोहनीय न में है। जो आत्मा की अनित्यशक्ति, अनन्न बल-वीर्य विकसित नहीं होते देना, वह अन्तरायरम है। इन नारी पानीको की सर्वगुणघाती प्रकृनियाँ २० हैं और देशघाती कर्मप्रगनियाँ २७ है । बागी के ४ (वेदनीय, नाम, गोग और आयु) वर्ग अघाती है। ये आत्मगुणों का सीधा घात नहीं करते। ये प्राय शरीर में ही अधिक सम्बन्धित है। श्रीआनन्दघनजी परमात्मा से प्रार्थना करते है"हे जगन्नाथ ! ये आन्मगुणघाती कर्मपर्वत है, जो आपके दर्शन में अलरायम्प है। ये पहाड जब तक चूर-चूर नहीं हो जायेंगे, तब तक आपके दर्शन होने कठिन है। निश्चयनय की दृष्टि से कहे तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप के दर्शन होने में ये परभावम्प घानीकर्म विघ्नकारक है। ये चारो मिल बार मेरे अनन्तनानगुण, अनन्तदर्शनगुण, अनन्तचारित्रगुण और अनन्नवलवीर्य का हाल कर रहे है. अथवा मैंने इन परभावो को अपने मान कर अपनाए, ये मेरे ही अपनी स्वरूप के दर्शन मे वाधक बन गए हैं। इन्हें कैसे दूर कर ? दर्शन में विघ्न : साथी पथप्रदर्शक का अभाव कोई कह सकता है कि साधक को तो अपनी आत्मा में ही रमण करने मे मतलव है, कर्मों का आत्मा से सम्बन्ध ही क्या है ? ये क्या कर सकते हैं ? परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। साधक वाहर मे शुष्क अध्यात्मवाद के घेरे में पडा-पडा यो कहता रहता है ~~'मैं जाता हूं, इप्टा हूँ, निर्मोही हूँ, अनन्तबली हूँ, परन्तु इस भ्रम में अपने आपका अधिक मूल्याकन करके जब वह परमात्मदर्शन के मार्ग पर आगे बढ़ता है तो उसके पैर लडखटाने लगते है, उसका हृदय कापने लगता है, उसकी गति सासारिक मोहमाया मे ही Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा अधिक लगती है, उसका मन रागद्वेष के द्वन्द्वो, मताग्रहो, पूर्वाग्रहो आदि की और ही अधिक दौडता है, बुद्धि अहकार के पोपण मे ही लगती है, काम-क्रोधलोभ मोह आदि दुर्गुणो की शिकार वन कर आत्मा निर्बल हो जाती है। फिर भी आनन्दघनजी इन घातीपर्वतो की परवाह न करके परमात्मदर्शन के लिए साहसपूर्वक कदम आगे बढाते है, अपनी सारी शक्ति बटोर कर वे चल पडते हैं, या तो कार्य सिद्ध करके छोडूंगा या शरीर छोड़ दंगा , इस प्रकार के दृढसकल्पपूर्वक जब वे दर्शनप्राप्ति के रास्ते पर चल देते है, तो आगे चल कर उन्हे अनुभव होता है कि "अरे । मैं तो अकेला ही चल पडा । मुझे न रास्ते का पता है और न परमात्मा के दर्शन की विधि की जानकारी है , कमे पहुँच पाऊँगा, परमात्मा के निकट ?" अत वह स्वय ही इस कठिनाई को प्रगट करने हैं-'संगू कोई न साय' सेग् का अर्थ होता है-रास्ते का जानकार, रास्ता बताने वाला पथप्रदर्शक । जव अज्ञात देश में कोई व्यक्ति जाता है या अटवी (घोर जगल) के रास्ते से जाता है तो किसी न किसी पथप्रदर्णक-मार्ग के जानकार आदमी को साथ ले लेता है । ताकि वह रास्ता भूले नही, सही सलामत अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच जाए और रास्ते मे डाकुओ, लुटेरो आदि से भी रक्षा हो सके। परमात्मदर्शन का पथ भी बहुत कटकाकीर्ण और अटपटा है । अनजाना आदमी इस पथ पर चलने का साहस करेगा, तो वह कही रास्ता भूल कर परमात्मा के बदले किसी चमत्कारी या प्राणिघातक या स्वार्थसाधक “रागद्वेपपरायण देवी-देवो के चक्कर में फंस जाएगा अथवा परमात्म-दर्शन के नाम से किसी उटपटाग व्यक्ति के दर्शन को ही सच्चा दर्शन मानने लगेगा । उसे परमात्मदर्शन में सफलता नहीं मिलेगी। वास्तव में ऐसे आध्यात्मिक व्या को परमात्मदर्शन के लिए चलना तो स्वय को ही है, उसके बदले दूसरा व्यक्ति चले तो उसे दर्शन नहीं हो सकेंगे । परन्तु कोई सच्चा मार्गदर्शक मिल जाता है, तो उसे रास्ता ढूंढने में कोई दिक्कत नहीं होती और न वह सीधा रास्ता छोट कर या भूल कर उत्पथगामी वनता है। परन्तु श्रीआनन्दघनजी अपनी लाचारी प्रदर्शित करते है कि मैं चला तो था, ऐसे किसी मार्गदर्शक साथी की खोज मे, पर मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नही मिला, जो नि स्पृह, निष्पक्ष और नि स्वार्थ हो कर सही-सही मार्गदर्शन कर कर दे, या मुझे उत्पथ पर जाने से बचा ले, जहाँ मैं रास्ता भूल जाऊ, । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अध्यात्म-दर्शन वहाँ मुझे रास्ता बता दे । परन्तु अफसोस है कि ऐगा कोई योग्य मार्गदर्णक गाथी नहीं मिला। अधकना. उत्पयगामी, मगारपोपा, वासनावदक या स्वार्थी मार्गदर्गव जस नजर जाए, पर उनगे मरा काम बनने के बले ज्यादा विमटता , इसलिए मेरी कठिनाई यह है कि मैं अब बिना रो मिनी मार्गदर्शक साथी के बैठा हूँ। मुझे परमात्मदर्णन की बहन ती तमन्ना है, पता नहीं पव पूरी होगी? इतनी गब कठिनाइयां बता कर अब श्रीआनन्दपनजी परमात्माशंन । अन्य उपायो को निष्फल बताते हुए कहते है 'दर्शन- दर्शन' रटतो जो फिरूं, तो रणरोज-समान । जेहने पिपासा हो अमृतपाननी, किम भांजे विषपान ?" अभिनन्दन ॥५॥ अर्थ अगर मै दर्शन-दर्शन को रट लगाता फिर' तो यह मेरा रटन अरण्यरोदन के समान या मेरा वह भ्रमण जंगली रोज के भ्रमण के समान होगा ! भला जिसे प्रभुदर्शनरूपी अमृत पीने की इच्छा हो, उमफी वह प्यास दर्शनशब्द के रटनरूपी जहर से कैसे मिट जायगी ? भाष्य दर्शन के रटन से दर्शन की प्यास नहीं मिटती श्रीआनन्दघनजी ने दर्शन की दुर्लभता पर विचार करते हुए पिछन्नी गाथाओ मे अपनी उलझन और खिन्नता प्रगट की है। उन्हें मताग्रहवादियो से परमात्मदर्शन -प्राप्ति दुर्लभ लगती है। इसी तरह तर्कवाद, नयवाद और आगमवाद से भी विवाद के मिवाय और कुछ पल्ले नही पटता नजर आता ! स्वय पुरुषार्थ करने जाय तो उन्हे घातीकर्मस्पी पर्वतो का लांघना दुप्कर लगता है और कदाचित् साहम करके परमात्मदर्शन के पथ पर चल भी पटे, तो भी रास्ते मे अनभिन होने के कारण तथा कोई पथप्रदर्शक (Guide) न होने मे कही भटक जाने का खतरा प्रतीत होता है । परन्तु अन्त में उन्हें एक उपाय सूझा कि मैं 'दर्शन-दर्शन' की रट लगा कर लोगो के सामने अपना विचार प्रगट करू , शायद कोई राबर मिल जाय और दर्शन की मेरी प्यास Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा मिटा दे।' परन्तु उय गम्बन्ध में भी वे अपनी निराशा प्रगट करते है कि अगर मै जनता के सामने दर्शन-दर्शन चिल्लाता फिरूं तो मेरी यह पुकार अरण्यरोदन के समान होगी । मुझे ऐमी सम्भावना कम है कि कोई मेरी यह पुकार सुने । क्योकि ससार मे अधिकतर लोग शुष्क अध्यात्मवाद की रटन के द्वारा अपना आत्मसतोप मान लेते है, अथवा सूखा अध्यात्मवाद बधार कर जनता में अध्यात्मयोगी या आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप मे प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, वे अपने जीवन मे प्राय वास्तविक आत्मदर्शन या परमात्मदर्शन न तो स्वयं ही कर पाते है, और न दूसरो को करा सकते है। अथवा मेरा दर्शन-दर्शन की रट लगाते घूमना भी उसी तरह होगा, जैसे जंगल मे रोज (नील गाय) का होता है। बेचारा वह पशु गर्मी में प्यास लगने पर पानी की खोज मे इधर-उधर दौड लगाता फिरता है, परन्तु पास जाने पर दूर से दिखाई देने वाले पानी के बदले मूखी रेत मिलती है। जैसे उसमे उसकी प्यास नही मिटती , वैसे ही परमात्मदर्शन की प्यास बुझाने के लिए दर्शनशब्द की रट लगाता जगह-जगह भटकता फिरू , तो उम आशिक सत्य को ही सवांशसत्य मान लेने, चाहे जिम 'दर्शन' को परमात्मा का दर्शन मान लेने से मेरी भी दर्शन की प्यास नहीं मिट सकती । जिम तरह किसी व्यक्ति को अमृत पीने की इच्छा हो, वह अगर अमृत के नाम पर विप पी ले तो उमकी अमृतपिपासा मिट नहीं सकती, उसी तरह जिमे परमात्मा (वीतराग) के सम्यग्दर्शन की पिपासा हो, उगे अगर सम्यग्दर्शन के नाम से प्रचलित कोई कुदर्शन या अव्यवस्थित एकान्त-दर्शन प्राप्त करा दे तो उसकी सम्यग्दर्शनपिपासा करो मिट सकती है ? बल्कि जैसे पानी के बदले मिट्टी का तेल पी लेने पर प्यास मिटने के बदले अधिक भडक उठनी है, वैसे ही परमात्मा वीतराग के सम्यग्दर्शनरूपी अमृत के बदले कोई कुदर्शनस्पी विप पिला दे तो उससे दर्शन की प्याग मिटने के बदले और अधिक भडकेगी , यानी ऐसे व्यक्ति को प्रत्येक राम्यग्दर्शन को देख कर भी उगमे मिथ्यादर्शन की बू आने लगेगी, वह सच्चे दर्शन को भी झूठा रामझने लगेगा। जैसे दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है, वैसे ही सम्यग्दर्शनपिपासु भडक जाने पर सम्यग्दर्शन को अपनाने मे भी सदेह या वहम करने लगेगा। - - - - - - - - - - - - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-वर्णन यहाँ 'रणरोज' का अर्थ अरारोदन धिमा गगन प्रतीत होता है। उग दृष्टि गे अर्थ होगा--सुदरयात्री ही वन में होने वाली दमा के गमान उक्त अध्यात्मयात्री की दशा ममारस्पी बन ग हो जाती है। घोर अटी पार करके जाने वाला यात्री अगर उग अटबी में पानी-पानी पुकान्ता है तो उनकी प्याम जब नहीं बुजती, तब आखिर वह हार-यक कर पानी ने नाग ने जो भी चीज मिल जाती है, उसे पी कर मन को मना लेना है, मगर उनमें उग यात्री की प्यास बुझती नहीं, इसी प्रकार मसारस्पी धीर भटवी पार कर जाने वाला अध्यात्मयानी भी परमात्मा के सम्यग्दर्शन की पास लगने पर दर्शनदर्गन शब्द की रट लगाता है, और जब उने सन्चा दर्शन नहीं मिलता, तब आखिरकार हार-यक कर वह जो भी 'दर्शन' मिल जाता है, उसे ही मच्चा मान कर मन को बहलाता है, लेकिन उसकी सद्दर्शन की जो प्यान थी, वह मिटनी नहीं । फलन प्यास बनी की बनी रहती है । यह ठीक उसी तरह है, जैसे किमी को अमृत पीने की इच्छा हो, वह अमृत के वदने अमन के नाम गे विपपान कर ले, अथवा गगाजल मे अवगाह्न करने की इच्छा वाला व्यक्ति तलैया के गदे व छिछले पानी में अवगाहन कार ले । या गुलाब के सुगन्धित फूल के बदले गुलाबी रंग के निर्गन्ध टेनू के फूल प्राप्त कर ले । कई वार अशदर्शन (आगिक मत्य) विषपान जैसा बन जाता है, उगी को सवाशदर्शन (मत्य) मान कर प्राणी वही फा जाता है, उसका जागे का विकास या गुणस्थानक्रम रक जाता है । जमल मे जमृत-दर्शन का अर्थ हैअमर होने का दर्शन । वाह्य क्रियाकाण्ड से अनुप्राणित या भौनिक दान अथवा लौकिक सुखो की पूर्ति करने वाला दर्णन अमरता या अमृन का दर्शन नहीं है । उगमे चाहे स्वर्गप्राप्ति हो जाती हो, या मनुष्यगनि प्राप्त हो जाती हो, मगर है यह जन्ममरण का चक्र, समार (मत) की प्राप्ति ही। इगलिए जिस जन्ममरण के चक्र से मुक्त हो कर अमृतत्व के दर्शन पाने या उन परमात्मा के अमृतत्व के दर्शन पाने की इच्छा है, वह स मृतत्व (जन्म-गरण के) चक्र मे फैमाने वाले दर्शन को पकाउ ले तो उसके लिए यह विषपान तुत्य ही होगा। उसकी अमृतपिपासा उस विषपानतुल्य विपरीत दर्शन, समारमार्ग मे भटकाने वाले कुदर्शन या भौतिक दर्शन में कैसे मिट मकती कई वार सामान्य माधक यह मान लेते हैं कि वीतराग देव, पंचमहाव्रती Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगात्म-दर्शन की पिपागा गुरु और वीतरागनाधिन धर्म इन तीनो का पाठ गुरु के मुख से सुन लेने मे और तथाकयिन अमुा वेप व अमुना जिया वाले गुर को गुरु बना लेने मात्र से वीतराग-परमात्मा के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई। परन्तु सम्यग्दर्शन की प्राप्ति इतनी नुलभ नहीं है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए आत्मा की शुद्धस्वस्प और तदनुसार गुद आत्मदणा को प्राप्त देव (फिर उनका नाम चाहे जो हो, वे किनी भी धर्मनीर्य मे हुए हो । अथवा शुद्धात्मदशा को प्राप्त करने के लिए परभावो के प्रति आसक्ति, मूर्छा, मोह, आदि को छोड कर माधना करने वाले (वे चाहे जिम पय, धर्म-सम्प्रदाय या वेप के हो) गुरु या स्वर्गादि प्राप्ति के कराने वाले मोह [य] मार्ग-जन्ममरण के पथ-का छोड कर मोनमार्ग पर ले जाने वाले धर्म को धर्म मानना, विश्वास करना और अपनी आत्मा को इसी शुद्ध आत्मभाव रमण वाले पथ पर ले जाने के लिए अहर्निश प्रयत्न करना आवश्यक है। अन्यथा, वीतराग परमात्मा के सम्यग्दर्शन के बदले अन्धविण्बाग, गुम्टमवाद, जठा सतोप, मच्चे आत्मविकास मे रुकावट आदि चीजे ही पल्ले पटेगी। फिर तो हर कोई पढ़ा-लिखा तथाकथित व्यक्ति वेप पह्न कर भोलेभाले व्यक्तियों के कान मे यह मन्त्र-'देव अर्हन्त, गुरु निर्गन्य (अथवा अमुकनाम वाला) और केवलीप्ररूपित धर्म, ये तीन करो स्वीकार, हो जायेगा वेडा पार" फेंक देगा और लाखो तथाकथित मम्यग्दर्शनी अनुयायी आसानी से बना लेगा। जैगा कि अनेक धर्म-गम्प्रदाय के लोगो मे देखा जाता है। श्रीआनन्दघनजी को इसीलिए कहना पडा--"मत मत भेदे रे जो जई पूछिए सहु थापे अहमेव" । सगी मतपथवादी अपने-अपने मत-पय या अपने नाम की रामकिन [सम्यक्त्व] दे कर वीनगग-परमात्मा के सम्यग्दर्शन के नाम से अपना सिक्का चलाने का प्रयाग करते देखे जाते है और वह तथाकथित सम्यग्दर्शन अमृत के बदले जहर का काम करता है-परम्पर विभिन्न धर्मराम्प्रदायो, पथो, मतो के शगटे बटा कर वैरविरोध फैला कर, राग-द्वेप वढा कर । ऐमे तथाकथित गम्यग्दर्शनियो मे मेरे-तेरे की, अपने उपाश्रयो , मान्यताओ, परम्पराओ, व अनुयायियो के अहत्व-ममत्त्व बढाने और दूसरो को नीचा दिखाने उनके प्रभाव को फीका करने की होड लगती है। इन सारी प्रक्रियाओ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन गे तथारथित राम्यग-दर्शनी या गम्यग्दर्शन पान कराने वारेटार आत्मष्टि की ला गे रख कर या परमात्मा या जागा . तमा नी जोरशोर ग न्ट लगा कर उसकी ओट में प्राय गनरर्रष्ट वन जान है। वे शरीर में नम्बन्धित बानो-बटिया खानपान, गम्मान, प्रतिष्ठा, अनुवापिगेनी वृद्धि गरीरपोषण, अहकारपोगण, या गग-गवर्धक प्रवृत्तियों में ही अधिक गनग्न नजर आते हैं। इसीलिए आनन्दघनजी स नथाकथित लेवल वाले गम्यग्दर्शन मे मतुष्ट नहीं हैं, वे इने अमनपान के बदले विषपान समझते है। बत वै इमे न अपना कर अगली गाथा में परमात्मा के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए कृतमवल्प हो कर पुकार उठने हैतरस न आवे हो मरण-जीवन तगो सीझे जो दरसणकाज । दरसरण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, 'आनन्दघन' महाराज ॥ __ अभिनन्दन० ॥६ अर्थ अगर आपके (परमात्मा) दर्शन का कार्य सिद्ध हो जाय, तो मुम्ने जीवन या मृत्यु के कष्ट को कोई परवाह नहीं है। अथवा यदि आपके दर्शन की प्राप्ति का मेरा काम बन जाय तो फिर मुझे जीवन (जन्म)-मरण के चक्र मे भटकने का त्रास (कप्ट) नहीं रहेगा-सदा के लिए मिट जाएगा । सामान्यरूप से तो दर्शन दुर्लभ है, तथापि आनन्द के समूहरूप आप जिनराज (परमात्मदेव) की कृपा हो जाय तो यह सुलभ भी है। भाप्य दर्शनकार्य की सिद्धि के लिए जीवनमरण को बाजी लगाने को तैयार आध्यात्मिक जीवन में मोक्षयात्री के लिए परमात्म-दर्शन या सम्यग्दर्गन सबने महत्वपूर्ण वस्तु है , यो कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि सम्यग्दर्शन एक का अक है, और ज्ञान, चारित्र, तप, बीय, उपयोग आदि विदिया है । जैसे एक के न होने पर विदियो का कोई मूल्य नहीं होना , वैमे ही सम्यग्दर्शन न हो तो जान, चारित्र, तप, नियम, मयम, वीर्य, उपयोग व Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा आदि की कोई कीमत नही है । सम्यग्दर्शन के अभाव मे ज्ञान, चारित्र आदि सव भवभ्रमण मे वृद्धि करने वाले है, भव मे मुक्ति दिलाने वाले नही। सम्यग्दर्शन के अभाव मे चाहे जिनना तप कर ले, चाहे जितना शरीर को कष्ट दे ले, चाहे जितनी कठोर क्रिया कर ले, चाहे जितना आचार पालन कर ले, वे सब मुक्ति के कारण नहीं बनते, उनमे स्वर्गादि भले ही प्राप्त हो जाय, वे जन्ममरण के बन्धन को काटने वाले नही बनते । उत्तरोत्तर आत्मविकाम भी तभी होता है, जब सम्यग्दर्शन के साथ जान और चारित्र हो । गुणस्थानश्रेणी पर भी जीव तभी चढता है, जब उसमे सम्यग्दर्शन हो। कोरे वेप का, थोथी क्रियाओ का, विद्वत्ता, पाण्डित्य या शास्त्रो के गम्भीर अध्ययन का सम्यग्दर्शन के विना कोई मूल्य नही है। आत्मविकास मे ये वस्तुएँ तभी मदद दे सकती हैं , जव सम्यग्दर्शन इनके मूल मे हो। जिसका दर्शन (दृष्टि) सम्यक् हो जाता है, उसे शास्त्रो की, तत्त्वो की, हेय-ज्ञेय- उपादेय की, वस्तुस्वरूप को समझने की, अध्यात्मदृष्टि से किस वस्तु का, कहाँ, कितना और कैसा उपयोग या सम्वन्ध है ? इन सब बातो की यथार्थ समझ आ जाती • है, आत्मभाव पर ठोस श्रद्धान हो जाता है, समस्त जीवो को आत्मा की दृष्टि से देखने मे वह अभ्यस्त हो जाता है, समस्त शास्त्रो, धर्मों, दर्शनो, मतो, पथो 'धर्मग्रन्थो, धर्मधुरधरो, महापुरुषो आदि तथा ससार के समस्त पदार्थों को वह - आत्मा की कसौटी पर कस कर जांचने-परखने लग जाता है। प्रत्येक वस्तु मे निहित सत्यो व तथ्यो की छानवीन वह कर सकता है। यही सच्चा आत्मदर्शन और यही सच्चा परमात्मदर्शन है। वीतराग का सम्यग्दर्शन भी यही है। इसे पा कर व्यक्ति निहाल हो जाता है, जन्म-मरण के अनेकानेक चक्करो को काट देता है, उसका ससार-परिभ्रमण सीमित हो जाता है । और प्राणी के जीवन में सबसे बडा कष्ट जन्ममरण का है, क्योकि जन्म लेने के बाद मृत्युपर्यन्त प्राणी सम्यग्दर्शन के अभाव मे अज्ञान व मोह के वशीभूत हो कर अनेक अनर्यकर व तीव्र अशुभकर्मबन्धक प्रवृत्तियाँ कर वैठता है, अपने लिए फिर जन्ममरण के चक्र वढाता रहता है । यही दुखो की परम्परा का मूल कारण है। अतएव श्रीआनन्दघनजी कहते हैं कि अगर दर्शन-प्राप्ति का मेरा कार्य सिद्ध होता हो तो में जीवन-गरण की बाजी लगाने को तैयार हूँ। मुझे जिंदगी गे चाहे जितने पाप्ट राहने पडे, मेरी जिंदगी चाहे आफतो गगार Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अध्यात्म-दर्शन पर खडी हो, मुझे मारणान्तिका पाट भी क्यों न गहना पटे, चाहे मेरी मृत्यु ही मामने खडी हो, अथवा चाहे मुझे कई जीवन वयो न धारण करने पहें, गुणों इसका कोई रज नरी, न मुझे जिंदगी या गीत की प्याग है. जिदगी रहे. या जाय, मौत भले ही आज ही जा जाय, मुझे इन पर कोई नहीं आनी , न मुझे जिदगी मे मोह होगा, और न ही मृत्यू में नगन्न । अगर प्रा . गम्यग्दर्शन की उपलब्धि होनी हो ना मै हजार जिंदगियां न्यौछावर करने को नकार है। यह हुआ उन पक्ति का एक अर्थ, जो अधिक गगन बनना। इसका दूगग अयं उग प्रकार भी किया गया है कि अगर वीनगगप्रभु के दर्शन का मेरा कार्य सिद्ध हो जाय तो मुझे फिर उनने जन्म-मरण के वान नहीं रहेगे। यानी मेरे जन्म-मरण के काट कम हो जायेंगे, क्योकि सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर (ममार-जन्ममरण पा चन) परित्त (गीमित) हो जाता है। पहले अर्थ में श्रीआनन्दघनजी की मम्यग्दर्शन-प्राप्ति की तीन तमन्ना, अपूर्व उत्सर्गभावना प्रगट होती है, उसके निए ये जीवन-मरण को बाजी लगाने को तैयार हो जाते है। जिन प्रकार धन या वहुमू य रत्न आदि की प्राप्ति के लिए मनुप्य अनेक प्रकार के यप्ट सह्न करने को तैयार हो जाता है, इतना ही नहीं, अपनी जान हथेली पर रन कर, या गोताखोरो की तरह मरजीवा वन कर अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न करता है, वैसे ही श्रीआनन्दघनजी भी मानो दर्शनपिपानु लोगो को दर्शनप्राप्ति का उपाय बताते हुए कहते है -भव्य जीवो | परमात्मदेव (शुद्ध आत्मदेव) के दर्शन की प्राप्ति के लिए जीवन और मरण पी परवाह मत करो, तन, मन, धन, माधन सभी वस्तुएँ इस पर फना कर दो, इसके लिए जो भी कप्ट आएँ, सहने को तैयार रहो। दूसरे मय के अनुसार श्रीआनन्दधनजी दर्शनकार्यकी सिद्धि या फल बताते है, कि अगर दर्शनकार्य सिद्ध हो जायगा तो जन्म-मरण का त्रास नहीं रहेगा, अपार जन्म-मरण का वह कष्ट मिट जायगा या कम हो जायगा। दुर्लभ दर्शन--कृपा से सुलभ पूर्वोक्त गाथाओ द्वारा श्रीमानन्दधनजो दर्शन की दुर्लभता का विभिन्न पहलुओ से प्रतिपादन कर चुके। दर्शनप्राप्ति के मार्ग में कितनी अडचने हैं ? -र्णनप्राप्ति के लिए व्यवहारिक, मानसिक, आध्यात्मिक आदि दृष्टियों से पीन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा कौन मे उपाय है? यह बात भी उन्होंने इस स्तुति मे दिल खोल कर प्रभु के समक्ष रख दी। परन्तु अन्त मे हार-थक कर वे परमात्मा के सामने घुटने टेक कर कहते है--'आपका दर्शन तो दुर्लभ है, परन्तु हे आनन्दमूर्ति देव । आपकी कृपा से मुलभ भी है। मतलब यह है कि श्रीआनन्दधनजी मानो अपना बौनापन जाहिर करते हुए कहते है-दर्शनरूपी अमृतफल जो परमात्मास्पी तरु मे लगे हुए है, पाने तो है, पर मै तो अभी उन्हे पाने मे अक्षम हूँ, वीना हूँ। मुझ पर परमात्मा की कृपा हो जाय तो दुर्लभ दर्शन भी सुलभ हो सकता है। निष्कर्ष यह है कि श्रीआनन्दधनजी से यह अमृतफल छोडा भी नहीं जाता, किन्तु साथ ही पाने की दुर्लभता भी है,। दर्शन की महत्ता के साथ-साथ उसकी दुर्लभता भी प्रतीत होती है । मगर वे इस दुर्लभता को सुलभता मे परिणत करने के लिए कटिबद्ध हैं, 'परमात्म-कृपा द्वारा । देखना यह है कि वह परमात्मकृपा कैसे प्राप्त होती है ? यह बात आत्म-अर्पण के सन्वन्ध मे की गई अगली (सुमतिनाथ प्रभु की) स्तुति मे स्पष्ट की गई है। आनन्दघन-परमात्मा की कृपा क्या व कैसे ? __प्रभुकृपा से दुर्लभ दर्शन सुलभ होने की बात पर विचार कर लेना आवश्यक है, क्योकि जिस धर्म या दर्शन में ईश्वर को सृष्टिकर्ता माना जाता है, वहाँ ईश्वर-अनुगह या प्रभुकृपा से किसी भी वस्तु की प्राप्ति होने की बात मानी जा सकती है, परन्तु सृष्टि को अनादि मानने वाले जैनदर्शन मे परमात्मा की कृपा को क्या स्थान हो सकता है ? यह विचारणीय प्रश्न है । वीतराग परमात्मा तो पर कर्ता-हर्ता है नही, न कुछ लेते-देते हैं। फिर भी जैन दृष्टि से प्रत्येक कार्य के होने मे निमित्तकारणो मे जो ५ कारण-समवाय आवश्यक माने है, उनके अतिरिक्त भी अनेक निमित्तकारण हो सकते है, वैसे निमित्तकारणो मे से एक कारण 'परमात्मा' हो सकते है। ऐसा मानने मे सैद्धान्तिक दृष्टि मे कोई आपत्ति भी नहीं है । सभी प्राणी एक साथ तो मोक्ष मे जाते ही नही हैं , परन्तु परमात्मा की कृपा तो सवको मोक्ष में ले जाने की है ; और रही है । आवश्यकनियुक्ति मे सिद्धो (परमात्मा) और आत्मा के गुणो का गाश्वतभाव वर्णित है । सिद्ध (परमात्मा) की उपकारकता शाश्वतभाव को ले कर है । इग तत्त्वदृष्टि गे प्रभुकृपा को आगम में अनिगहत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अध्यात्म-दर्शन __मूल मे तो स्वय आत्मा, जो उपादानकारण है, उतनी प्रयत्न होनी चाहिए कि वह परमात्मदर्शन के योग्य बन गरे । उगीतिग निग्नट में वे अपनी आनन्दधनम्प वीनराग गुद्वन्यप जागा को भी सम्बोधिन नान्दा कहते हैं- हे अनन्त आनन्द रे धाम आत्मा, नेरी गापा हो जाय, यानी तू इतनी मशक्त, गमर्थ और कार्यक्षम बन जाय तो तु आगानी गे परमात्मदर्शन या गुदात्म-दर्शन कर सकती है। जब आत्मा शुद्धात्मभाव की आर नीयना ने वढनी है, तो अनावान ही गिद्ध-परमात्मा की गुमा प्राप्त हो जानी है। आत्मा का शुद्धता की ओर बढना ही गन्मान्मा या चानविय दर्शन है, अथवा मम्यग्दर्शन या लाभ है। सारांग इन स्तुति में श्रीआनन्दधनजी ने परमात्मा के दर्शन (सम्यग्दर्गन) की महत्ता और दुर्लभता के विभिन्न कारणो का उल्लेख करते हुए वर्णन किया है। मतपधवादियो का अपने मन की स्थापना का आग्रह, हेतु (नक) वाद नयवाद और नागमवाद, घातीकमगर्वन-निवारण, पथप्रदर्गक का साथ, दर्शन की रट, आदि सभी उपायो मे परमात्मदर्शन की दुभता मिद्ध की है। घातीकर्मपर्वतो को हटाना तथा दर्णनकार्य की गिद्धि के लिए जीवनमरण की बाजी लगाना, ये दो दर्शनप्राप्ति के आदानकारण हैं, जिनके प्रगट होने पर कार्य अवश्य होता है। बाकी के गब निमित्तकारण तो उपादान कारण के शुद्ध और योग्य होने पर प्राय अपने-आप ही अनुकूल बन जाते हैं। सचमुच, परमात्मा के सम्यग्दन के सम्बन्ध में श्रीआनन्दधनजी ने विभिन्न पहलुओ से वर्णन करके कमाल कर दिखाया है। वास्तव में सम्यग्दर्शन का म्वरूप, व्यवहार और निश्चय दोनो दृष्टियो से विचारणीय है । साथ ही सम्यग्दर्शन के प्रकार, इसके गुणस्थान, इसे पुष्ट करने वाले ८ गुण, इसकी प्रगति व फल के सम्बन्ध मे तीन (योग) शुद्धि, शुधूपादि तीन लिंग, शमादि ५ लक्षण, कादि ५ दूपण, ५. भूपण (स्थैर्य, प्रभावना, भक्ति, कुशलता और तीर्थ सेवा), प्रावचनी आदि ८ प्रभावक, रायाभियोगेण धादि ६ आगार, नत्चनान-परिचयादि । गदहणा, ६ जगणा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा १०५ (कुदेव और कुगुरु के साथ वन्दन, नमन, दान, प्रदान, आलाप, सलाप, इस तरह ६ प्रकार का व्यवहार न रखना) ६ भावना (आलकारिक शब्द, मूल, द्वार, नीव, निधान, आधार, भाजन), ६ स्थान (अस्ति, नित्य, कर्ता, भोक्ता, मुक्ति, उपाय), अरिहत आदि १० विनय, इस प्रकार सम्यग्दर्शन के ६७ बोल (अधिष्ठान) विशेष रूप से जानने योग्य हैं। दर्शन आत्मा का मूलगुण है, मोक्ष का द्वार है, धर्म का मूल है। इस पर जितना भी मनन किया जाय, थोड़ा है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ अध्यात्म-दर्शन सगनी तमाम मावा प्रवृत्तियो का गर्वतीभावन उत्सर्ग (त्याग) करने पर. मात्मा के चरणों में जानी बुद्धि, इन्द्रियां, मन, वाणी मादि मवलो ममपणा करना । मुनि बनने के बाद पादाधान के कारण नयम में विचलित होने पर मेधकुमार को जब श्रमण भगवान महावीर ने विभिन पुत्तियो द्वारा समझाया तो उसने अपनी भूल ग्वीकार कर ली और प्रायश्चित्त बारा वात्ममुद्धि करो. प्रभ महावीर के समक्ष पनिना मार ली कि "आज में जीवनपर्यन्त गिफ. बोस के सिवाय, मेरे ममग्न गापाग, गन बुद्धि-सन्द्रियादि मव नागको समपित, ये सब आपती आजा गे वाहर नहीं चलेंग।" आना मे ही धर्म है, नाना मे तप है, इसका भी आगय आत्मसमर्पण गे है। चार गरणी का स्वीकार करना भी आत्ममपंण के अन्तर्गत है। वैष्णव-सम्प्रदाय मे प्रनुभक्ति की दृष्टि मे ममपंग करने को वात का उल्लेख भगवद्गीता एव भागवत आदि धर्मग्रन्यों में जगह-जगह दिया है। वहाँ 'सर्वम्ब अर्पण' का अर्थ यही किया गया है कि नूने जो कुछ सकार्य, सदविचार, मदाचार, सहव्यवहार या मनुष्ठान किये हैं, उन मवको प्रनसमर्पण कर । तेरे बुद्धि मन, इन्द्रियां, वाणी, आदि नव अवयव तया तेरे पास जो कुछ भी अपने माने हुए तन, मन, धन, साधन, परिवार, नन्लान, प्रतिष्ठा सम्प्रदाय आदि है, उन्हे प्रभु के चरणो मे नमर्पण कर दे, और कह दे 'इदं न मम' (यह मेरा नहीं है प्रभु आपका ही है)। ईश्वर-कर्तृत्ववाद की दृष्टि मे समस्त पदार्थ, गरीर, धन आदि भगवान् के दिये हुए माने जाते हैं, इमलिए ममर्पण करते समय भक्ति की भाषा में भक्त यही कहता है-'प्रभो ! आपकी दी हुई वस्तु आपको ही समर्पित करता हूं।" सर्वस्व-समर्पण' मे खाने-पीनेपहिनने ले कर व्यापार, आजीविका, अध्ययन करना, भोजन बनाना, आदि जो भी सत्प्रवृत्तियाँ है, उन सबमै ममत्ववुद्धि का त्याग करना बावश्यक होता है। यदि समर्पण नाटकीय तौर पर न हो तो समर्पणकर्ता यही १ 'आणरए धम्मो, आणाए तवो' । २ अरिहते सरण पवज्जामि, सिद्धसरण पवज्जामि' आदि । ३ 'मर्पितमनोवृद्धि' (मेरे मे मन और बुद्धि को अपित कर) ४. तत् कुरव मदर्पणं (तरै ममम्म कार्यों को गेरे अर्पण कर) ५. त्वदीय वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव रामपंगे। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण १०६ मानता है कि मैने जो भी रात्कार्य किये, वे किसी कामनावृत्ति रो नहीं, केवन निप्कामभाव से अर्थात् प्रभुकृपा गे या प्रभुप्रीत्यर्थ किये हैं, उनके शुभ फल का श्रेय भी प्रभु को हो । इस प्रकार के समर्पण मे भक्त प्रत्येक शुभ कार्य निष्कामभाव से करता है तो अहता-ममता या स्वछन्दता की, वृत्ति किसी प्रकार प्रकार के बदले या शुभफल की आकाक्षा या अपेक्षा नही रह सकती। इस प्रकार के समर्पण मे अहकर्तृत्व, ममकर्तृत्व का त्याग हो जाने से भक्त प्रभु मे तन्मय, तल्लीन और तद्रप हो जाता है। इस प्रकार का तादात्म्य स्थापित करना और नि स्पृह वृत्ति रखना ही समर्पण का कार्य है। आत्मसमर्पण किसको किया जाय ? - आध्यात्मिक साधक के लिए आत्म-समर्पण करने की बात तो समझ मे आती है, परन्तु किसके समक्ष किया जाय? क्योकि जगत् मे देखा जाता है कि साधारण व्यक्ति अपने से विशिष्ट सत्ता, प्रभुता, शक्ति, और वैभव वाले शासक, सम्राट्, पदाधिकारी, शक्तिशाली, या वैभवणाली के आगे समर्पण कर देता है, विजेता के सामने पराजित अपने हथियार डाल देता है, वह स्वय को उन-उन विशिष्ट शक्तिशाली देवो या प्रभुओ के अधीन (Surrender) कर देता है। इसी प्रकार लोकिक व्यवहार भी कई ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि विशिष्ट देवो या दुर्गा, काली, भवानी, चण्डी, चामुण्डा, सरस्वती लक्ष्मी आदि विशिष्ट देवियो के आगे व्यक्ति नतमस्तक हो कर सर्वस्व-अर्पण करता है, नैवैद्य (चढावा) चढाता है। अथवा परमात्मा के नाम से कई रागी, द्वेषी, भौतिक ऐश्वर्य-सम्पन्न प्रभु-को सर्वस्व-समर्पण कर देता है। इसी बात को दृष्टिगत रख कर श्रीआनन्दघनजी आध्यात्म विकास-पथिक साधको के लिए इसी गाथा में आत्मार्पण की बात स्पष्ट करते हैं'सुमतिचरणकज आतम-अर्पणा, दर्पण जेम अविकार, सुज्ञानी ।"--"हे आत्मज्ञानी । अध्यात्म-विकास-तत्पर । दर्पण की तरह निर्मल (निर्विकार) श्रीसुमतिनाथ वीतराग (परमात्मा) के चरण मे आत्म-समर्पण करो।" : यहाँ प्रभुचरण को दर्पण के समान निर्विकार इसलिए बताया है कि जैसे दर्पण Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ : सुमतिनाथ-जिन स्तुति परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण (तर्ज-राग वसत, तथा फेदारो) सुमतिचरणकज आतम-अर्पणा, दर्पण जिम अविकार, सुजानी । मतितर्पण बहुसम्मत जागीए, परिसर्पण सुविचार, सुज्ञानी ।। मुमति० १॥ अर्थ हे सुज्ञानी । इस अवसपिणी काल के पंचम तीर्थकर श्री सुमतिनाथ परमात्मा के दर्पण की तरह निर्मल निविकार चरणकमल (अथवा कमलवत् निलेप चारित्र) मे अपनी आत्मा को समर्पित (अर्पण) करना वास्तव में अपनी बुद्धि को तृप्त (सतुप्ट) करना है। और इस बात को बहुजन-सम्मत (मान्य) समतो । ऐसा करने से आत्मा मे (या जगत् मे) सद्विचारो का प्रचार-प्रसार होगा। भाष्य आत्म-समर्पण क्यों ? पूर्वस्तुति मे परमात्मा के दर्शन की दुर्लभता का वर्णन करते हुए श्रीआनन्दघनजी ने अन्त मे परमात्मा की कृपा में उसकी मुलभता वताई , परन्तु परमात्मा की कृपा नभी प्राप्त हो सकती है, जब नाधक अपनी आत्मा को परमात्मा के चरणो मे 'अप्पाण वोसिरामि' (मैं अपने आपका व्युत्सर्गन्यौछावर वलिदान करता है) कर दे , अपने आपको सर्वतोभावेन समर्पण कर दे । इगलिए श्रीमुमतिनाथ तीर्थकर की स्तुति के माध्यम से इस स्तुति में आध्यात्मिक साधन के लिए परमात्मा के चरणों में अपनी आत्मा को समर्पित करने की बात पर जोर दिया है। कई वार माधक अपनी स्वच्छन्द वृत्ति-प्रवृत्तियो, स्वार्थों, स्पृहाओ या नामना-वागनाओ को छोडे बिना ही पात्गविकाग पो पथ पर आगे बढ़ना Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणों मे आत्मसमर्पण १०७ चाहता है । अथवा तथाकथित प्रभु के आगे नाच-गा कर, उनकी जय बोल कर, उनके गुणगान करके, उनकी चापलूमी करके, बिना कुछ त्याग व पुन्पार्थ किये मिर्फ उनको रिझा कर उनकी कृपा प्राप्त करना चाहता है, अथवा नाटकीय ढग से औपचारिक रूप मे शब्दो मे कहना है-'यह सब प्रभु का है, परन्तु अन्तर मे सभी चीजो पर अहत्व-ममत्व का सर्प फन फैलाए बैठा रहता है , प्रभु की आज्ञा की ओट मे सभी कार्य मनमाने ढग मे करता है, स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है । परन्तु ये सब आत्मा के निजी (अनुजीवी) गुणो के विकास मे वाधक है , इमी दृप्टि गे श्रीआनन्दघनजी को कहना पडा-आत्मसमर्पण, और वह भी निर्दोष, नि स्पृह, निर्विकारी परमात्मचरणो मे किये बिना आत्मविकामेच्छुक साधक की कोई गति नही है । इसके विना उसके सकल्प-विकल्प मिट नहीं सकते, उसकी बुद्धि को सन्तोप नही हो सकता, उसके तन-मन को शान्ति नहीं मिल सकती । और जब तक विकल्प और योगो का चापल्य कम नही होगा, तब तक आत्मविकास होना दुष्कर है , परमात्मभक्ति होनी कठिन है । इसीलिए परमात्मभक्ति १ के लिए आत्म-समर्पण व शीप-समर्पण मत कवीरजी ने अनिवार्य बताया है। आत्म-समर्पण का स्वरूप ___ सर्वप्रथम सवाल यह है कि आत्मसमर्पण क्या है ? इसका स्वरूप क्या है ? जव तक इसे समझ न लिया जाय, तव तक आत्मसमर्पण की बात अधूरी और औपचारिक या शाब्दिक ही रहेगी। __जैनदर्शन मे 'विनय' मे उसका समावेश किया गया है, उसके लिए जैनशास्त्रो मे 'अप्पाण वोसिरामि' शब्द का प्रयोग जगह-जगह किया गया है उसका तात्पर्य है-अपनी अहता-ममता, अपनी लालसा, अपनी इच्छाकामना, वासना, अपनी स्वच्छन्दता, अपना स्वार्थ, अपनी समस्त उहाम एव चचल वृत्तियां, अपने गुप्त मनोभाव, अपने समस्त दुर्विचारो, दुष्कार्यों व "भक्ति भगवत की बहुत बारीक है। शीश सोप्या बिना भक्ति नाहीं।" Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अध्यात्म-मगन पर अच्छी-चुरी राभी वस्तुबो गा प्रतिविम्ब पढना है, लेकिन दर्पण पर उनवा कोई असर नहीं होता, वह स्वच्छ और निर्मन रस्ता है, वैने ही प्रम ना चरण भी निर्मल निर्विकार रहता है, उस पर भी मगार के विकारों का कोई मगर । नहीं होता, उनके ज्ञान में सभी अच्छी धुरी वस्तुओं की पलक पाती है, लेगिन उन पर कोई असर नहीं होता। यहां मुमनिनाथ नामक पात्र तीर्थकर की स्तुति का प्रमग होने से 'नुमतिवरण' कहा है, परन्तु 'दोपरहित जीतराग परमात्मा का चरण' ही समझना चाहिए। चूंकि इन स्तुति में आत्मसमर्पण करने वाला व्यक्ति मुमुक्षु है, अध्यात्म-रमिक है, वीतरागपथ का राही है, इसीलिए 'मुनानी' शब्द से उगे सम्बोधित किया गया है। इग कारण ऊपर वताए हुए किसी भौतिक शत्तिशाली, वैभवशाली, योदा या रागी-नेपी प्रभु के चरणो मे आत्मसमर्पण करने का तो सवाल ही नहीं उठना। जो काम, प्रोध आदि अठारह दोपों से रहित, निविकारी, निस्वायं, निस्पृहा, नमगावी वीतराग परमात्मा हैं , (उनका नाम चाहे जो हो) उन्ही के चरणों में आत्मसमर्पण करना चाहिए। रागी, द्वेपी या लौकिक व्यक्ति या भौतिक शक्ति के आगे नमर्पण करने से सुनानी के आत्म-गुणों का विकास होने के बदले हाम' ही होगा। अध्यात्मविनान का एक सिद्धान्त है कि 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवनि तादृशो', जिसकी जैसी भावना होती है, वमी ही कार्य सिद्धि हो जानी है। जो जिस पर श्रद्धा रखता है, वह वैसा ही बन जाता है । इसके अनुसार अगर कोई साधक भौतिया-शक्तिसम्पन्न देख नार नागी, क्रोधी, विकारी को अपना आदर्श मान कर उसके चरणो मे समर्पण कर देता है, उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है, तो उसके भी वैगा ही बन जाने की सम्भावना है, उससे उनकी आत्मशक्तियां प्रगट नहीं हो सकेंगी, उनके आत्मगुणो का विकास नहीं हो सकेगा। इमलिए आदर्श को छोटा या नीचा कदापि नहीं बनाना चाहिए। यही कारण है कि इस स्तुति में निर्दोप एव निर्विकारी-वीतराग परमात्मा के चरणो मे साधक को आत्मसमर्पण करने का कहा गया है। यानी अध्यात्म १ यो यच्छूद्ध · स एव स --भगवद् गीता । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण १११ साधक को अपना आदर्श, श्रद्वेय या आराध्य निर्दोप, निर्विकारी परमात्मा को मानना है, उन्ही के चरणो मे अपना सर्वस्व समर्पण करना है। परन्तु यह सब कथन भक्ति की भापा मे व्यवहारनय की दृष्टि से है। निश्चयनय की दृष्टि में अर्थ होगा-आत्मा का दर्पण की तरह निर्विकारी (शुद्ध) परम आत्मा (परमात्मा) मे समर्पण करना। अथवा चरण चारित्र को कहते है, इस दृष्टि से इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि वीतराग-उपदिष्ट निर्लेप (कमलवत्) व निर्दोप चारित्र मे अपनी आत्मा को तल्लीनतन्मय कर देना या आत्मा के परमशुद्ध स्वरूप में अपने आपको लीन कर देना । यही कारण है कि 'विनय' के चार भेदो मे ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विनय को अध्यात्म-साधना मे अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है। आत्मसमर्पण से लाभ और उसका महत्व - इस प्रकार के आत्मसमर्पण से अध्यात्मपथिक को भौतिक लाभ तो अनेको हैं। सर्वम्व-समर्पण कर देने से सबसे बडा लाभ तो यह है कि व्यक्ति निश्चित हो जाता है, किसी भी शुभकार्य के हानि-लाभ के समय मन के पलडे पर मानसिक चिन्ताओ का उतार-चढाव नहीं होता, मानसिक सन्तुलन या समन्व बना रहता है, कार्य बिगड़ जाने पर मनुष्य मन कल्पित या अकल्पित निमित्तो को कोसने या उन्हें भला-बुरा कहने की प्रवृत्ति से छूट जाता है, और कार्य भलीभांति सिद्ध होने पर भी अपने या अपनो को निमित्त मान कर मनुष्य अहकार मे. फूल जाता है, प्रतिष्ठा-प्राप्ति और श्रेय के लूटने की धुन मे वह विविध मदो मे झूम कर अपनी आत्मा को नीची गिरा लेता है, अपने विकास का अधिक मूल्याकन करके आगे के विकास से अपने को वचित कर देता है। परन्तु परमात्म-समर्पण करने के बाद दोनो ही अवस्थाओ मे वह अपने समत्व पर, उपादान पर स्थिर रहेगा। इससे उसकी बुद्धि को बहुत मतोप मिलेगा . . भक्तिमार्गीय सर्वस्व-समर्पण की दृष्टि से देखे तो भी कई लाभ प्रतीत होते हैं। क्योकि बहुत-सी बार साधक को फलाकाक्षा यका देती है, वो तक साधना करते-करते वह उब जाता है और झटपट सफलता प्राप्ति न होने पर वह तिलमिला उठता है और झु झला कर सत्कार्य या सत्पथ को भी छोड Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अध्याना-सान बैठना है । रोगी दगा में परमाला-रामपित व्यजि को फलानोक्षा (नाक्षा) गही गताएगी। वह निप्ताक्ष, नि निनजीर निविनिनिय हो कर माधना के पथ, पर अवाघगति मे चलता जायगा । दुमरा लाभ सर्वग्वगमपित व्यक्ति को बदले की भावना से छुटकारे का मिलता है। यानी प्राय माधक किमी नी मेवा, परोपकार आदि सत्कार्य के बदले उस व्यक्ति से प्रनिष्ठा, नामवरी या कुछ भौतिक लाभ चाहता है, इस प्रकार की सौदेबाजी नरके वह साधना की मिट्टी में मिला देता है। परन्तु परमात्मसमर्पित नाधक निःगृह व निस्वार्थ भाव से मत्कार्य या सत्पुरुषार्थ करेगा। इसमें कामामोहनीय गाम में बहुन अशो में वह साधक बच जायगा। ईप्ट के वियोग और अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के सयोग से उसे आतंरौद्रध्यान नहीं होगा, क्योकि वह तो सब कुछ भगवच्चरणो मे मर्पिन कर चुका है। किसी प्रकार का भय, क्षोभ, अरिधरना बा लोग का ज्वार उसे नही दवा सकेगा। क्योंकि समर्पण करने पर उसे वैरागरण अगय का वरदान मिल जाता है। सबसे बड़ा भौनिक लाम सामारिका लोगो को यह है कि वे सच्चे माने में परमात्मा के चरणो मे सर्वकार्यों या इच्छाओं को समर्पित कर देते है तो फिर अकार्य या बुरे कार्य में वे प्रवृन नही हो सकते, दुर्व्यसनो और पापकार्यों से तो उन्हें फिर बनना ही होगा। जैनसाधकों ने लिए तो 'अप्पाण वोसिरामि' करने के बाद समम्न सावध (दोपयुत्त.) कार्यों को छोडना होता है तथा अपने मन-वचन-काया को पापकायों गे हटाना अनिवार्य होता है। समर्पणकर्ता के जीवन में अहकर्तृत्व और ममकर्तृत्व-जो कि समस्त राग-द्वेपो की जड़ें है सभी सासारित झगडो के मूल है-मे भी प्राय पिण्ड छूट जाता है। इन और ऐसे ही दोयो के हट जाने या नाट हो जाने पर आत्मसमर्पणकर्ता को आध्यात्मिक लाभ भी अनेको होते है-'१) आत्मा मोहनीय आदि पातीकमाँ को आते हुए रोक (सवर कर) लेती है , (२) आर्त-रोद्र-ध्यान मे वच कर वर्म-शुक्लध्यान में लग जाती है. (३) परभावो में रमण करने की वृत्ति छोड कर स्त्रभाव में रमण कारने में प्रवृत्त होती है, (८) शरीर और शरीर से सम्बन्धित सभी दुर्भात्रो या भौतिक पदार्थों (परभावोविभावो) के चिन्तन से हट कर आत्म-चिन्तन में अधिकाधिक जुटनी है, (५) आत्मसमाधि प्राप्त कर लेती है। इसीलिए श्रीआनन्दधनजी ने इस नाया मे Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण ११३ इसके मुख्यतया दो लाग तता दिये हैं-गतितर्पण ओर सुविचार-परिरार्पण । अहत्व ममन्व, चिन्ता, काक्षा, स्वार्थ, दोपारोपण, रचत्वमोह आदि मव बुद्धि की उछलकूद का परिणाम है । जब साधक आत्मसमर्पण कर देता है तो वुद्धि की यह गव उछलकूद बन्द हो जाती है, वह स्थिर, शान्त और सन्तुष्ट (तृप्त) हो जाती है कि जब मैने सब कुछ परमात्मा पर छोट दिया है, गव कुछ उन्हे ही मौंप दिया है तो मुझे किमी वात की चिन्ता, फलाकाक्षा, निमित्त को श्रेयअश्रेय देने, मनमाना करने, या अहता-ममता करने की क्या जरूरत है ? आत्मा में समर्पण मे पहले जो दुर्विचारो के बादल उमड-घुमड कर आ जाते थे, समर्पण के बाद वे सब फट जाते है और सद्विचारो का सचार आत्मा मे होता रहता है। अथवा आत्मा परभावो मे सचार करना छोड कर स्वभाव या स्वरूप मे रमणता के सुविचारों मे ही सनार करता है अथवा ऐसे मुविचारो मे आगे बढना है। __ इस प्रकार के आत्मसमर्पण की बात केवरा हम ही नही कह रहे है, इसका महत्व प्रत्येक धर्ममस्थापक, प्रत्येक सम्प्रदाय, प्रत्येक मत-पथ और दर्शन में आंका गया है। बडे-बडे धर्मधुरघरो, आध्यात्म-पथप्रेरको या अध्यात्म-मार्गदर्शको एव भक्तिमागियो ने आत्मसमर्पण को अध्यात्म-पथ पर प्रयाण करते समय आवश्यक माना है। इसलिए आत्मसमर्पण की बात बहुजनसम्मत, अनेक धर्मपुरुप-मान्य और मार्वजनिक है , वोबल हमारी कपोलकल्पित या नई नही है। परन्तु परमात्मा के चरणो में आत्मसमर्पण करने के लिए किस प्रकार की आत्मा होनी चाहिए, इस सन्दर्भ मे श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे आत्मा की तीन मुख्य अवस्थाएँ बताते हैत्रिविध सकल तनुधरगत आतमा, बहिरातम धुरि भेद, सुज्ञानी ! बीजो अन्तर आतम, तीसरो परमातम अविच्छेद, सुज्ञानी ॥ अर्थ समस्त शरीरधारियो के आत्मा तीन प्रकार के होते हैं-सबसे पहला प्रकार बहिरात्मा का है, दूसरा प्रकार अन्तरात्मा का है और तीसरा प्रकार परमात्मा का है, जो अखण्ड, अविनाशी और नित्य है। - । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ उध्यान्म-दान भाग्य आत्मा को तीन अवस्थाओ के कारण तीन प्रकार अध्यात्ममाधक जब संसार की मगन्त आत्माओ , गाय मैत्री, अभिन्नता या सर्वभूतात्मगाव, या आत्मौपम्प बयवा समत्व स्थापित करने जाता है तो उसे गसार के ममन्त देल्धारियों या प्राणियों के कारी चोलो, ढांचो या विभिन्न देशो, वेषों, भापाशी, प्रान्ती, वर्ग-सम्प्रदायों, जातिको या दर्शनो के ऊपरी बावरणो को अपनी विवेकामयी प्रज्ञा से दूर हटा कर सब में विराजमान आत्मा को देखना चाहिए। उसे किसी भी प्राणी का मूल्याकन इन ऊपरी भेदो या आवरणो से न करके आत्मा पर ने करना चाहिए। वैसे तो निश्चय दृष्टि से ममार की सभी जात्माओ व परमात्मा की आत्मा ने कोई अन्तर नहीं है, परन्तु व्यवहारदृष्टि से नात्मा को ले कर विश्लेषण करते हैं, तो जान की न्यूनाधिकता के कारण बाह्य भेद दिखाई देता है। बत समार के समस्त प्राणियो की आत्माओ को देखते हैं तो उसकी मुख्यत तोन कोटियां नजर आती है-(१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा बौर (३) परमात्मा। ये तीनो आत्माएँ उत्तरोत्तर निमंनतर है। मात्म-गुणों के विकास की दृष्टि से उत्तरोतर आगे बटी हुई हैं। इनमे सर्वश्रेष्ठ अखण्ड, निर्मलतम, निर्विकारतम, एव अविनाशी एव सदा एकस्वरूप में रहने वाला प्रकार परमात्मा का है, इससे कम निर्मल व उनम प्रकार अन्तरान्मा गा है और सबमे निकृप्टनम अधिक विकारी प्रकार वहिरात्मा का है। अथवा 'अविच्छेद' शब्द का अर्थ यो भी कर सकते है कि मान्मद्रव्य की दृष्टि से सर्वत्र अविच्छिन्न एक आत्मद्रव्य ही है। ये तीन भेद तो आत्मा के सम्बन्ध मे विभिन्न बुद्धि को ले कर किये गये हैं। आत्मा के ये तीन प्रकार किस कारण से किये है, तीनो के लक्षण क्याक्या है ?, यह वात अगली दो गाथागो में बताते है आतमबुद्ध कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघल्प, सुज्ञानी। कायादिकनो साखीचर रह्यो, अन्तर आतमरूप, सुज्ञानी ॥३॥ ज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो, वजित सकल उपाय, सुज्ञानी।। . अतीन्द्रिय गुणगणमणि-आगरू, इम परमातम साध, सुज्ञानी ॥४॥ K Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणो में आत्म-समर्पण ११५ अर्थ - जो शरीर, या शरीर से सम्बन्धित पदार्थों आदि को आत्म-बुद्धि से ग्रहण करता-मानता है, उसे प्रथम पाप रूप वहिरात्मा का प्रकार समझना । शरीर तथा सर्वपदार्थों या समस्त प्रवृत्तियो मे अपनेपन (ममत्व) की बुद्धि हटा कर सर्वत्र उन सबका साक्षी (ज्ञाता-द्रष्टा) बन कर रहता है, वह अन्तरात्मा कहलाता है। जो ज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण हो, जो परम पवित्र हो, कर्म, कषाय, रागद्वेष आदि सब उपाधियो से दूर हो, जो इन्द्रियो से अगम्य-अगोचर हो, जो अनन्तगणरूपी-मणियो का भण्डार या खान हो, इस प्रकार के स्वरूप वाले को परमात्मा समझो अथवा इस प्रकार के परमात्मपद को सिद्ध करोप्राप्त करो। भाष्य आत्मा का प्रथम प्रकार बहिरात्मा आत्मा के तीनो प्रकारो मे वहिरात्मा सबसे निकृष्ट प्रकार है । बहिरात्मा शरीर को ही आत्मा समझता है। वह यही तर्क करता है कि जैसे पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि (तेज) और आकाश, इन पांचभूतो के सयोग से एक चीज बन जाती है, अथवा गोवर (मिट्टी) के साय गोमूत्र (पानी) वायु, सूर्य की धूप व आकाश के मिलने मे गोबर मे बिच्छू पैदा हो जाते है, वैसे ही उक्त पांच भूतो के मयोग से ही यह शरीर बना है, यही आत्मा है । इस प्रकार वह आत्मा नाम की कोई चीज न मान कर शरीर को ही सब कुछ समझता है। शरीर की राख होने पर आत्मा की समाप्ति मानता है, उसका कथन इसी प्रकार का होता है कि जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके घी पीओ, खूव मीज उडाओ, शरीर के भस्म होते ही सब कुछ ही खत्म हो जाता है, आत्मा नाम की कोई अलग चीज नहीं है, न कोई शरीर के राख होने के बाद लौट कर आता है। ऐसा शरीर व्यक्ति को अपना मान कर यह समझता ह कि यह सदा शाश्वत १. यावज्जीवेत् सुख जीवेत्, ऋण कृत्वा घृत पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत ॥-चार्वाक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अध्यात्म-दर्शन बारहता रहेगा, कभी जीर्ण-शीर्ण नहीं होगा, यह शरीर मेरा है. में गया है। इसी को पुष्ट करने और शरीर के लिए दुनियाभर के उपा-पछार करने म वह लगा रहता ह । शरीर के लिए जरा-सा भोजन चाहिए वह बटिया में बटिया - म्वादिष्ट पदार्थों को जुटायेगा और गगनः करके रोगा, परीर को मुन्दर बनाने के लिए तेल-फूलेल, नीम, पाउडर आदि लगाएगा। शारीर बोकने के लिए साधारण वस्त्र चाहिए, पर शरीरमोही दुनियाभर के वढिया और वारीक वस्त्रो को जुटायेगा, संग्रह करके रखेगा। शरीर को रहने के लिए एक मकान चाहिए, कई मकान बनाएगा, आलीमान बगले राजा-संवार कर रनेगा । इन और ऐसे ही शरीर मे गुम्बन्धित तमाम पदायों पर.उसकी मैं और मेरेपन की बुद्धि होगी, जिसके कारण राग-द्वेप. घृणा, मोह, नागक्ति, ईर्ष्या, वरविरोध, कलह आदि अनेक उत्पात खटे होंगे, जिनमे पाप कर्मों का बहुत वडा पुंज तैयार हो जायगा। मतलब यह है कि बहिरामा जीव अपनी समस्त प्रवृत्तियो में मैं और मेरेशन के कारण इतना नद्र.प हो जाता है कि उसे आत्मा के पृथक् अम्निन्ध ता भान ही नहीं रहता। शरीर ही मैं हूं, ये सब चीजें या ये राव सगे-सम्बन्धी, रिश्तेदार मेरे हैं, यह सब धन, मकान, दूकान, जमीन, जायदाद संच मेरी है, ये सब सत्कार्य मेरे ही किये हुए है, मेरी एज्जत बढे, मुझे ही यश मिले, मेरा नाम रोशन हो, मैं ही सर्वेसर्वा वन जाऊं, मेरी ही यह सब कमाई है। इस प्रकार गतदिन ममत्व के जाल में जो फैमा रहता है, आत्मा को बिलगुल भूल जाता है, जो शरीरादि पर द्रव्यो को आत्मबुद्धि से पकड़ कर अनात्मभूत तत्वा को स्व-स्वम्प मानता है, उन्ही में तदापार हो जाता है, जिसे नाशवान गरीर के लिए दुनियाभर के प्रपच, पापकर्म व 'उधेड़बुन करते हुए कोई सकोच या विचार ही नही होता, एक क्षणभर के लिए भी जो आत्मा के विषय मे सोत्र नहीं सकता। आत्मा के लिए कुछ भी नहीं करता। उसकी गमय चेतना मोह से आवृत होने के कारण उलटी और गडीमत हो जाती है। वह अहर्निश पुनपगा, वित्तपणा और लोकेपणा में रवा-पचा रहता है। इसी कारण वहिरात्मा को पापरूप, अनेक दोपो मे युक्त और अनैनः जाधि-ध्याधिउपाधियो मे युक्त कहा है। आत्मा का दूसरा प्रकार . अन्तरात्मा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण ' अन्तरात्मा बहिरात्मा से बिलकुल भिन्न होता है । वह शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओ (धन, दुकान,मकान,जमीन, जायदाद) तथा परिवार व सगेसम्बन्धी आदि मे, या शरीर से सम्बन्धित प्रवृत्तियो मे ज्ञाना, द्रष्टा और मेरेपन की बुद्धि नहीं रखता, जो शरीर तया गरीर से सम्बन्धित वस्तुओ एव प्रवृत्तियो का ज्ञाता- द्राटा-साक्षीस्प बन कर रहता है, उनके ममत्व मे नहीं फमता, उन्हें अपने नही मानता, यथोचित प्रवृत्तियाँ करते हुए भी वह उन्हे अपनी नही मानता, निलिप्त रहता है। परभावो को आत्मा के नहीं मानता 'जो शरीरादि वाह्यभावो में आत्मवृद्धि छोड कर गूद्ध ज्ञानरूप आत्मस्वरूप का निश्चय करता है, जो विपयादि मे आत्मबुद्धि नहीं करता, विपयो और शरीर 'आत्मा को आत्मा से अलग मानता है । जो शरीर से आत्मा को भिन्न मान कर अपनी आत्मा को गरीर की क्रिया का साक्षी मानता है, उसे परद्रव्य मान कर उससे सम्बन्धित ममत्व मे नही फँसता, इस कारण अहकारवश अपने को उसका कर्ता नहीं मानता, पूर्वोपार्जित कर्मों को भोगते हुए अपने आपको तटस्थ माक्षीरूप मानता है, वह अन्तरात्मा है । रम्सी मे साँप का भ्रम दूर हो जाने पर जैसे व्यक्ति भ्रममुक्त हो जाता है, वैसे ही अन्तरात्मा 'भ्रममुक्त हो जाता है। अन्तरात्मा यो विचार करता है कि आत्मस्वरूप मे अलग हो कर मैंने इन्द्रियो के द्वारा विषयों मे मग्न हो कर अहभाव के कारण आत्मा को 'यथार्थरूप से जाना- समझा नही । जो जो रूप मैं जगत् मे देख रहा हूँ, वह तो पराया है, अपना [आत्मा का रूप तो ज्ञानमय है । वही मेरा असली रूप है, वह इन बाह्य रूपो से भिन्न है, वह इन्द्रियो से अगोचर है। ससार मे मुनाई देने वाले विविध गव्द भी (चाहे वे निन्दा के हो या प्रशसा के हो या और कोई हो) पगये है, आत्मा के नहीं हैं, आत्मा तो इन शब्दो से रहित है । इसी प्रकार रस, गन्ध और स्पर्श के विषय मे वह समझता है कि ये सव पराये है, आत्मा के नहीं है । शरीर वगैरह में मैंने आत्मबुद्धि के भ्रम से पहले अनेक क्रियाएँ कर ली, अब तो मुझे परभावरूप मन, वचन और काया मे आत्मा को भिन्न करना है, ज्ञान मे नही । ज्ञान से तो आत्मा का ही अभ्यास करना है। मुझे आत्मा ज्योतिर्मय ज्ञानरूप दिख रही है। मैने भेदज्ञान होने मे आत्मा का स्वरूप देख लिया है। शरीर वगैरह को परद्रव्य मान लिया, तब मेरे लिए 'भव न तो कोई स्त्री है, न पुस्प है, न नपु सका है, न बालक, या वृद्ध है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अध्यात्म-दर्शन लिंग, सय्या, वर्ग आदि के विकल्पो में मैं मुक्त है। अन्य न मेग कोई गनु है, न मित्र । गब प्रकार की गरीन्चेष्टाए स्वप्न या इन्द्रजान्नवत् है। मैं अभी तक रासार में सनी कारण दुन्न पाता रहा गि: मैने आत्मा-अनात्मा का स्वभाव-परभाव का भेद नहीं समझा । जनानी पुष्प विषयों को अपने मान पर उनी प्रीति करता है, मेरे लिए यह विषय नीति आपनि । का म्धान है । काया पर अनानी जादमी ही आनन होने है. चे अपने शरीर का सुन्दर रूप, वन, आयु आदि चाहने है, पर मुझे अपने को चिदानद में लगाना है, काया की आमनि छोडनी है। आत्मविज्ञान मे रहित पुग्ण अपना दुस नहीं मिटा समाना । मै अपने म्बम्प में रमण करने मे ही भानन्द मानूंगा, अज्ञानी प्राणी अपनी अन्तर्योति रद्ध हो जाने के कारण अपनी आत्मा में भिन्न वस्तु पर मुग्ध- मतुप्ट हो जाते हैं, पर मुझे तो अपनी आत्मा में ही मतुप्ट व मुग्ध होना चाहिए। इस प्रकार अन्तगत्मा यह मानता है कि बम्न के लाल, जीर्ण, मोटे, दृष्ट, लम्बे या नष्ट हो जाने में गरीर लाल, जीणं, हट, मोटा, लम्बा या नष्ट नहीं होता, वैमे ही शरीर के लाल, जीर्ण, मोटे, दृट लम्बे या नष्ट होने में आत्मा लाल मोटी, लवी, दृढ जीर्ण या नष्ट नहीं होनी । इस प्रकार से भेदविज्ञान के सतत अभ्यास से अन्तरात्मा अपने भवभ्रमण को नाश कर देता है। जो आत्मा को नहीं जानता, वह पर्वत, गांव, उपाश्रय आश्रम भादि को अपने रहने का म्यान मानता है, परन्तु जो अन्तरात्मा (ज्ञानी) है, वह सभी जवस्थाओ मे अपनी आत्मा में ही अपना निवाम-स्थान मानता है। अपनी आत्मा ही अपना आत्मीय, वन्धु, शत्रु , या मित्र है, गरीगदि दूसरे कोई अपने नहीं है, इस दृष्टि मे आत्मण अपना ममार भी स्वयं बनाती है और मोक्ष भी स्त्रय ही अपने लिए रचती है । अन्तरात्मा शरीर को आत्मा से अलग मानता है, इसलिए जीर्ण वस्त्र की तरह वह शरीर का भी विना हिचकिचाहट के त्याग कर देता है । अन्ततोगत्वा वह ज्ञानी होता है, वह आत्मा को अन्तरग रूप से और शरीर को वाह्यरूप से जान-देख कर दोनो के अन्तर का पक्का ज्ञाताद्रष्टा वन कर आत्मा के निश्चय से डिगता नहीं। ऐमा व्यक्ति निरन्तर भेदविज्ञान के अभ्यास से आत्मनिष्ठ वन जाता है, आत्मा द्वारा आत्मा मे आत्मा का विचार करना है, और आत्मा शरीर मे भिन्न है मग प्रकार के भेदाभ्यास Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण ११६ से पक्की निष्ठा हो जाने पर गरीर पर से उमका ममत्व छूट जाता है, देहा -ध्यास या देहासक्ति छूटने पर वही शरीर के बार-बार जन्म-मरण से छुटकारा पा जाता है । ऐसा आत्मनिष्ट व्यक्ति स्वप्न मे भी खुद शरीर मे है, या शरीर खुद का है, इस प्रकार शरीर के प्रति आसक्ति या अध्यास नही करता । इसलिए स्वप्न मे भी देह नष्ट हो जाय तो भी उसे रज नही होता। ऐसे आत्मनिष्ठ को गरीर के आश्रित जाति, लिंग, वेप, वर्ण, प्रान्त, देश आदि का अभिमान (मद) नहीं होता । इमप्रकार का अन्तरात्मा जो कुछ भी प्रवृत्ति या क्रिया सोते या जागते करेगा, उसमे उसे पाप-कर्म का बन्ध नही होगा । शुभ और अशुभ दोनो भावो को वह कर्मवन्ध का कारण जान कर जहाँ तक हो सके, आत्मा शुद्ध भाव मे ही रमण करेगा, जहां अशक्य होगा, वहां विना मन से शुभ भाव को अपनाएगा, किन्तु अशुभभाव को तो हर्गिज नही अपनाएगा। इस प्रकार अन्तरात्मा आत्मा को सिद्धस्वरूप अनुभव करके आत्माराधन द्वारा परमात्मत्व को प्राप्त कर लेता है। आत्मा का तृतीय प्रकार : परमात्मा जो आत्मा. अनन्तज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण है , अठारह दोपो से रहित परम पवित्र है, शरीर के अध्यास के कारण होने वाली समस्त उपाधियो से मे रहित हे, जो इन्द्रियातीत ज्ञानादि अनन्तगुणो का भडार है, वही परमात्मा है । उसका नाम चाहे जो कुछ हो । जैनदर्शन इतना उदार है कि वह किसी जाति, देश, वेप, वर्ण, लिंग आदि के साथ परमात्मपद को नही वाधता । किसी भी जाति , देश, वेप, वर्ण, सघ, या लिंग आदि का स्त्री-पुरुष आत्माराधन करके परमात्मा बन सकता है। ऐसा परमात्मा इन्द्रियातीत इसलिए है कि वह इन्द्रियो से परे है, इन्द्रियो का विषय नही है, जहाँ इन्द्रियो का विपय और वल काम नहीं कर सकते, जहाँ विकल्पात्मक बुद्धि कु ठित हो जाती है, वहाँ अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य आदि गुणो की परिपूर्णता से ही परमात्मा परिलक्षित हो सकता है। चू कि पूर्वोक्त गाथा मे समस्त देहधारी आत्माओ के ही ये तीन प्रकार वताए थे, इसलिए यहाँ समस्तकर्म, काया, आदि से मुक्त, सिद्ध निरजन, अगरीरी परमात्मा का उल्लेख न कर देह गे रहते हुए जो देहाध्यास से । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अध्यात्म-दर्शन गर्वधा मुक्त हो कर नार प्राार के पानीका में भी मुक हो चुरो है, ऐना पर. मात्मा ही विवक्षित है । गे परमात्मा चीनगग अनीनकोप हो र प्राय तरते है, और दूगगे को गगार-गागर मे नग्ने ना गागं बनातं ?। ऐगा परमात्म गाय शिगी ने दे दने म नहीं मिलता, और न किसी को पा का फल है यह नो अन्तरात्मा स्वयं पुरमा में, ग्वन प्रेग्नि आन्म. माधना से प्राप्त होता है। गी परमात्मनार पी गिदि पाप्न करना अध्यात्मगाधा के जीवन का लक्ष्य है। श्री आनन्दघनजी ने 'इम परमातम साध' कह कर प्रत्येक मान्मनिष्ठ साधक के द्वारा वीतराग परमात्मा के चरणों में पान्म समर्पण एव तदनुसार आत्म-साधना के स्वय पुरुषार्थ से परमात्मन्य को सिद्ध करने ना निदंग किया है। साथ ही इससे अन्य दर्शनो की जात्मविनान से विपरीत इस मान्यता का निराकरण भी द्योतित कर दिया है कि परब्रह्म परमात्मा कोई एक ही व्यक्ति हो सकता है, या परब्रह्म परमात्मा को आत्मसमर्पण करने के बाद सदा के लिए उसी की गुलामी, जी-हजूरी या उसके सामने स्वयं की लघुना प्रदर्शित करते रहना है और स्वयं मे परमात्मपद प्राप्त बरने की असमर्थता प्रगट करना है । वास्तव में निश्चयदृष्टि से तो परमशुद्ध आत्मा मे सतत रमणता ही आत्मा की परमात्म-गमर्पणता है, और उगमे आत्मा ग्वयमेव परमात्मा हो । जाता है। 'साराग यह है कि इन तीनों गाथाओं में बताए हए। तीन प्रकार की आत्मा की अवम्याओ का ज्ञान परमात्म-समर्पण के लिए आवश्यक है। 'मैं' और 'मेरे' की ममता मे जव नक आत्मा घिरा हुआ रहता है, तब तक वह जीव आत्मा तो है, परन्तु बहिरात्मा समझा जाता है । जब आत्मा अपने को देह से भिन्न मान कर देहाध्यास छोड देता है, परभावो या आत्म-भिन्न सर्व वैभाविक भावो या पदार्थों मे अहना-ममता की मान्यता का त्याग करके शान्न, मयमी, व आत्मनिष्ठ बनता है तब वह अलगत्मा कहलाता है, और जव वह पूर्ण अध्यात्मयोगी वनकर अपनी आत्मा मे मचा लीन हो जाता है, तब उसमे १८ दोप मिट जाते है, वह परम पवित्र, अनन्त गुणो की खान, और नानानन्द बन जाता है, तब परमात्मा बनना है । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण १२१ किन्तु यथार्थ आत्मसमर्पण किस आत्मा की स्थिति मे और कैसे होता है ? इस बात को बताने के लिए श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे मे कहते है बहिरातम तजी अन्तर-आतमा-रूप थई थिर भाव, सुज्ञानी ! परमातमनुहो आतम भाव, आतम-अर्पण-दाव, सुज्ञानी ॥५॥ अर्थ । हे सुज्ञानी ! वहिरात्मभाव को छोड़ कर, अन्तरात्मा के रूप मे भावपूर्वक स्थिर हो कर अपनी आत्मा मे परमात्मत्व अवस्था की भावना करना ही आत्मसमर्पण का सच्चा दावा या उपाय है । भाष्य । आत्मसमर्पण का सच्चा उपाय इस गाथा मे आत्मसमर्पण का सहज स्वाभाविक और यथार्थ उपाय बताया है। सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण ही वास्तव मे परमात्मां बनने का सरल उपाय है। इसमे हठयोग की, जप-योग की, या आसन-प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओ आदि के जटिलतम उपायो की अपेक्षा नही है । कोई भी किसी भी जाति, कुल, धर्म-सम्प्रदाय, देश या वेप का आत्मनिष्ठ व्यक्ति इस उपाय के द्वारा आत्मसमर्पण करके परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। इसमे न कोई बाह्य अध्ययन की जरूरत है और न ही वाह्य भौतिक साधनो या यन्त्र-मन्त्र-तंत्रादि मे पारगत होने की आवश्यकता है। इसमे सबसे बड़ी शर्त है-बहिरात्मभाव छोडने की , जो आत्मा के अपने हाथ मे है । यानी, शरीर, शरीर के अवयव-हाथ, पैर, मस्तक, इन्द्रियाँ, मन, बुद्वि आदि, तथा शरीर से सम्बन्धित कुटुम्ब, परिवार, जाति, देश आदि, एव शरीर के आथित धन, धरा, धाम, जमीन, जायदाद आदि मे जो तेरी आत्म-बुद्धि है, मैं और मेरापन है, आसक्ति है, तू यह मानता है कि ये मेरे हैं, मैं उनमे भिन्न नही हूँ, मैं इन सब वस्तुओ के रूप मे हूँ, इत्यादि प्रकार के अनात्मभाव की मान्यता को १ वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ भगवद्गीतामे भी कहा है जितात्मन. प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । -- शीतोष्णसुखदु खेषु तथा मानापमानयोः ॥ अ. ६ श्लो. ३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अध्यात्म-दर्शन . छोड़ दे और अन्तरात्मा मे हृदय और बुद्धि को एकाग्र कर दे, यानी शरीर, शरीर के अगोपाग, परिवार, धन, जमीन, जायदाद आदि म्यावर-जगग पदार्थ मेरे नहीं है, म उनना नहीं हूँ, मेरे गुण, स्वभाव, कार्ग आदि अनने भिन है, , ये नव पदार्थ या मयोग सम्बन्ध, क्षणिर है. नाशवान है. मैं अपने स्वभावम्प अधिनागी है। शुभाशुभ कर्मो को योग के पारण मेग और इनका मिलन (गयोग) हो गया है। मंग ग्वभाव न नयको जाननेदेखने (ज्ञाता-द्रप्टा) का है। इस प्रकार अन्तरात्मभान में अपने आपको स्थिर कर दे। इस प्रकार अन्तगत्मभाव में एकाग्न होने पर अपनी आत्मा में महनिंग परमात्मत्व का विचार करना चाहिए। जर्थात्-प्रतिदिन यह विचार करे कि मेरी आत्मा ही (शुद्ध होने पर) परमात्मा है। निश्चयदृष्टि से मेरी आत्मा शुद्ध, है बुद्ध हैं, ज्ञाता है, द्रप्टा है, अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखमय है । मैं इन सब बाह्यभावो, अनात्मभावो मे परे है, मेरे अंग, स्वभावज या नहजात नहीं है। ये सव मयोगज है, तेरे से भिन्न है। इस प्रकार परमात्मत्व में आत्मत्व को विलीन कर देना, नद्र प-तन्मय-तदात्मभावी से भावित कर देना ही सच्चे माने मे सर्वांगीण आत्म-समर्पण है । इसमें एकमात्र आत्मभाव ही रहता है, नियालिन आत्मनिष्ठा ही रहती है तात्पर्य यह है कि परमात्मा में अन्नगत्मा का समपंण होने में परमात्मपद मिलता है, सर्वनोभावेन आत्मसमर्पण करने का यही सवम उत्तम फल है । यही आत्मसमर्पण की नर्वोत्तम, मरलतम विधि है । इसी पर मे परमात्मरूपी मैदान में आत्मसमर्पण के खिलाडी का सच्चा दाव लग सकता है । यही परमात्मभावप्राप्ति का मच्चा उपाय है। आत्मा को शरीरादि से भिन्न मान कर पृथक-रूप मे उसको वास्तविक रूप मे पहिचाने विना केवल नाटकीय ढग मे अथवा औपचारिकरूप से किसी भी वीतरागप्रभु के केवल नाम जप. जयकार, या नृत्यगीन-भजन के द्वारा उनने चरणो मे आत्मसमर्पण मानना वुद्धिभ्रम है, ऐमे कच्चे आत्मसमर्पण या गच्ची भक्ति का परिणाम यह आता है कि वाह्यस्प मे आत्मार्पण कर देने पर भी उनमे परिवारिक, सामाजिक, राष्ट्र,राष्ट्र के, जाति-जानि के, धर्मसम्प्रदायो के आपमी अगडे, रागद्वेप, मोह, म्वार्थ और चैरविरोध चलते रहते है, यानी वे अन्तर गे पूरे पहिरात्मा बने रहते है। और इस प्रकार गे वहिरात्गभाव ग Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण १२३ रहते हुए नाटकीय ढग से परमात्मा के चरणो मे समर्पण करने वाला व्यक्ति परमात्मभाव प्राप्त नहीं कर सकता। अब अन्तिम गाथा में परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण का वास्तविक लाभ बताते हुए श्री आनन्दघनजी कहते है-- आतम-अर्पण वस्तु विचारतां, भरम टले, मतिदोष, सुज्ञानी ! परमपदारथ संपति संपजे,-'आनन्दघन'-रसपोष, सुज्ञानी ! सुमतिचरण० ॥६॥ अर्थ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण के वस्तुतत्व का विचार करने से भ्रान्तियाँ, बहम या आशंकाएँ टल जाती है, बुद्धि के दोष (छद्मस्थ अवस्था के कारणरूप) नष्ट हो जाते हैं और अन्त मे,मोक्षरूप परम पदार्थ एवं अनन्तज्ञानादि परम सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है, जो अखण्ड शान्ति, शाश्वत एव परिपूर्ण आनन्द के रस की पोषक होती है। भाष्य आत्मसमर्पण के वस्तुतत्व का विचार वास्तव मे आत्मसमर्पण का मच्चा लाभ साधक तभी उठा सकता है, जव पूर्वोक्त प्रकार मे आत्मार्पण का स्वरूप समझे, उसके यथार्थ तत्व पर मनन चिन्तन करे । आत्मा क्या है ? क्या शरीर आत्मा है ? मन, बुद्धि, चित्त, अहकार, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि आत्मा है या आत्मस्वभाव है ? क्या शरीर के अगोपाग आत्मा है ?, या शरीर से सम्बन्धित परिवार, जाति, धर्मसम्प्रदाय, राष्ट्र, प्रान्त आदि आत्मा हैं ? अथवा धन, धाम, जमीन, जायदाद आदि आत्मरूप है ? अथवा कर्म, राग, ममत्व आदि आत्मा है ? इन सवका भलीभाति विश्लेपण -पृथक करके भेदविज्ञान करना आत्मा के वस्तुतत्व का विचार है और वहिरात्मभाव को,छोड कर अन्तरात्म-भाव में स्थिर हो कर परमात्मतत्व मे लीन हो जाना, तादाम्यभाव से भावित होना समर्पण के वस्तु तत्व का विचार है । इस प्रकार आत्मसमर्पण का यथार्थ तत्व सोचे, विचारे एव तद्रूप ध्यान करे। यथार्थ चिन्तनपूर्वक आत्मसमर्पण से विविध लाभ आत्मसमर्पण गर सागोपाग विचार करने से सब भ्रान्तियां अपने आप Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अध्यात्म-दर्शन काफूर हो जाती है। जैसे पकाण होते ही अन्धकार मिट जाता है, वैसे तो आत्मसमर्पण के पम्मान का प्रकाश होने हो, त्रमा गारा प्रबेरा दरहो जाता है । वे भ्रम गया है ? गरीर जोर र म नम्बद गभी पदार्या में आत्म. बुट्टि या मैं और मेरेगन गागा नम था, जंगे अग मनी मेमोन का नग हो जाता है दूर मे मीप में चादी का भ्रम हो जाना है, उगो पार अनान एव मोह के कारण परपदार्यों में अपनेपन के जो गातो गये थे, वे गर तत्त्वविचारणा से मिट जाते हैं। उसके जनावा आन्मगमगण पर गहराई मे तानिया चिलग रन पर बुद्धि पर कुहामे की तरह जमे हुए नव दोष दूर हो जाते हैं। गंमारी व्यक्ति की बुद्धि पर अनादिकालीन गम्कारवग जो अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व, दुनि दुश्चिन्तन, दुश्चेप्टा, गशय, विपर्यय, बनध्यवनाय, अनिश्चितता, चिन्ता, भय, आशको आदि दोपो की परतो की परतें जमी हुई थी, वे पूर्वोक्त सद्विचार से उखड जाती है, बुद्धि मे निश्चिन्नता व हलकापन महसूस होने लगता है। और श्रुतजान से वढते-बढते जब केवलजान प्रगट हो जाता है, तो छमस्थता के कारण जान पर पड़ा हुआ पर्दा भी हर जाना है , ___इमसे भी आगे चल कर आत्मसमर्पण के साधक को मोक्षरूप परमपदाय एव अनन्तज्ञानादि आध्यात्मिक सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है, उसे शाश्वत खजाना मिल जाता है, वह कृतकृत्य हो जाता है, जन्ममरण के चक ने, रागद्वेपादि के चगुल से छूट जाता है, कर्मो से सर्वथा मुक्त हो जाता है और ऐन अक्षय शाश्वत आनन्द के धाम में पहुंच जाता है, जहाँ पहुँचने के बाद लौटना नहीं होता, वही अखण्ड आनन्द के रस में वह निमग्न हो जाता है । वहाँ किमी का झंझट, चिन्ता, फिक्र, या किसी भी प्रकार की मोह-माया नहीं रहती है। वहाँ एकरम आनन्द रहता है। साराश इस पचम तीर्थकर की स्तुति मे श्री आन-दधनजी ने वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा, इन तीन आत्माओ का स्वरूप बता कर परमात्मा के चरणो में आत्मसमर्पण का वास्तविक उपाय, महत्व और नाम बताया है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : पद्मप्रभजिन-स्तुति- आत्मा और परमात्मा के बीच अंतर-भंग . (तर्ज-चाँदलिया, सन्देशों कहेजे मारा कान्त ने राग मारु व सिन्धुडो) पद्मप्रभ जिन , तुझ मुझ आंत रे, किम भाजे भगवन्त ? , , कर्मविपाके कारण जोईने रे, कोई, कहे मतिमन्त । पद्मप्रभजिन० ॥१॥ अर्थ, ''हे पद्मप्रभ, वीतराग परमात्म देव । आपके और मेरे बीच मे जो अन्तर (दूरी) पड गया है, 'हे भगवन् | वह अन्तर कैसे दूर (नष्ट) हो सकता है ? कर्मफल का ज्ञाता कोई बुद्धिमान पुरुष (परमात्मा और आत्मा के बीच मे दूरी का कारण कर्मों को जान कर) कहता है—कर्मों का परिपाक (कर्मफलभोग) होने पर ही यह अन्तर मिट सकता है । भाष्य - परमात्मा और आत्मा के बीच मे दूरी का कारण . कर्म इससे पहले की स्तुति मे बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का लक्षण बता कर वहिरात्मभाव को छोड कर अन्तरात्मा मे स्थिर होकर आत्मा में परमात्मत्व की भावना करने से परमात्मपद की प्राप्ति वताई गई थी, उसमे स्पष्ट हो गया कि सामान्य जीव जब तक बहिरात्मा बना रहेगा, तव तक उसके और परमात्मा के बीच मे बहुत ही दूरी रहेगी। अत अब इस स्तुति मे उसके सम्बन्ध में दो प्रश्न उठाये गये हैं-नहला प्रश्न यह है कि परमात्मा और सामान्य आत्मा के बीच मे जो दूरी है, वह किस कारण से है ? और दूसरा यह कि वह अन्तर कैसे दूर हो सकता है ? - निश्चयनय की दृष्टि से यह बात तो म्पष्ट है कि "अप्पा सो परमप्पा' .'आत्मा ही परमात्मा है।' और यह वात भी यथार्थ है कि जिस जीवात्मा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अध्यात्म-वर्णन के परिणाम बहिरात्म भाव रो हट जाते हैं और जिगनी परिणति और स्थिरता अन्तरात्मा मे हो जाती है, मा अन्तरागभावरत जीवात्मा ही परमात्मा बनने के लिए उत्सुक और तत्पर होता है। परन्तु, जब वह व्यवहान्दृष्टि से देखता है कि निश्नयष्टि से आत्मा और परमात्मा में नो अन्नर न होते हुए भी वर्तमान मे तो मेरे और परमात्मा के बीच मे तो करोडो नोमो का अन्नर है । मैं मध्यलोक मे है और परमात्मा लोक के अग्रभाग पर है, मेरे से सात रज्जूप्रमाण लोकभूमि पार करने के तुरन्त बाद, ही लोक के शिखर पर हैं। इतना अधिक फामला (Distance) नो मेरे और परमात्माने बीच में क्षेत्रकृत है । कालकृत दूरी भी है, कि भगवान् पद्मप्रभु अवपिणी काल के चौथे आरे मे मुक्त (सिद्ध) परमात्मा बन चुके है और मैं पनग आरे मे है , यानी काल का फामला भी काफी हो चुका है और जागे भी न जाने कितना काल अभी और लगेगा, आपके पास पहुँचने नक मे । द्रव्यकृत अन्तर भी परमात्मा के और मेरे बीच में काफी है। परमात्मा वर्तमान में सिद्ध है, मुक्त है, गति जाति-शरीरादि मे रहित है जीर में वर्तमान में सिद्ध बुद्ध-मुत्त नहीं हूँ। गनिजाति गरीरादि से मयुक्त है, में वर्तमान में मिद्धत्व मे रहित हूं, पर्यायरूप के अशुद्ध हूं। कहाँ वे शुद्धअनन्त ज्ञान-दर्शन-चारिय-वीर्य से युक्त और कहां में अल्पन, अल्पदर्शी, चारित्र और वीर्य में भी बहुत पिछड़ा हुआ । किनना अलर है । और भावकृत अन्तर भी परमात्मा के और मेरे वीच गे नाफी है । वे रागद्वेपरहित महानन्दी गुद्व और निखालिस आत्गभावो गे भरे हुए है, में जभी रागद्वेष-काम क्रोध-लोम-मान-मोहादि कपाय भावो से मयुक्त है। अत मुझे आश्चर्य होता है कि परमात्मा के और मेरे बीच मे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से जो इतना अन्तर (फासला) पड गया है, वह क्यो पा गया है ? जबकि द्रव्यम्वभाव की दृष्टि से मेरी और परमात्मा की आत्मा मे ऐक्य है, समानता है। अत. श्री जानन्दघनजी जिनामाभाव से पूछते हैं कि आपके और मेरे वीच मे जो इतना अन्तर पड गया है, वह किस कारण से है ? व्यवहारनय की दृष्टि से जब उन्होंने सोचा तो उन्हें स्पष्ट ज्ञात हो गया कि परमात्मा के और मेरे बीच में जो इतना द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकृत अन्तर पड़ गया है। उसका मूल कारण है-मेरे वैभाविक गुण का अशुद्ध परिणमन और निमित्त कारण है कर्म । क्योकि परमात्मा समस्त कर्मों से रहित होने के कारण क्षेत्र Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के वीच अन्तर-भग १२७ से भी हमसे बहुत दूर चले गये, काल से भी वे कर्म नष्ट होते ही काफी पहले पहुंच गए, हम वहुत पीछे रह गए । द्रव्य और भाव से भी कर्मों के सर्वथा नष्ट होते ही उनके और हमारे बीच मे इतना अन्तर हो गया कि वे सिद्ध, बुद्ध मुक्त, अनन्तनानदशनमय हो गए, और हम अभी कर्मो से घिरे होने के कारण ही वन्धन मे जकड़े हैं, ससारी है, ज्ञान-दर्शन भी हम में अभी परोक्ष और अत्प हैं। राग-द्वेप-मोह आदि विकार भी कर्मो के ही कारण है, और इनके रहते और नये कर्म भी हम बाध लेते है। परमात्मा और सामान्य आत्मा के बीच का अन्तर जव यह निश्चय हो गया कि परमात्मा और सामान्य आत्मा के बीच मे काफी अन्तर है, और वह कर्मों के कारण है, तव श्री आनन्दघनजी इतने अन्तर को सहन न कर सके । वे परमात्मादर्शन के लिए तो जीवन-मरण की बाजी लगाने को तैयार हो गए और अन्तरात्मा की भूमिका तक आ पहुँचे, तव इस कर्म के अभाव और सद्भाव को ले कर रहे हुए अन्तर को दूर करने के लिए वे परमात्मा के सामने अन्तर्हदय मे पुकार उठे-"पद्मप्रम जिन तुझ मुझ आतरू रे; किम भाजे भगवंत?" परन्तु परमात्मा तो अशरीरी, निरजन, निराकार, सिद्ध (मुक्त) होने के कारण उनकी यह आवाज सुन नही सकते, किन्तु अपने ज्ञान मे इसे जान तो सकते है, मगर ज्ञान मे जान लेने के बावजूद भी वे निराकार, अशरीरी, वाणी रहित होने के कारण उत्तर तो दे नही सकते । अत श्रीआनन्दधनजी की हार्दिक जिज्ञासा को शुद्धबुद्धि वाले गुरुदेव मुन कर बोले-'परमात्मा मे कर्म नहीं है, कर्मविपाक नहीं है, कर्मबन्धन का कारण ही नहीं रहा, इसलिए वे परम शुद्ध, वुद्ध, मुक्त, सहजानदी शुद्धस्वरूपी, सिह परम-आत्मा (परमात्मा) है, तुम मे अभी कर्म है, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय, योग आदि हैं, जिनमे तुम मे कर्म बन्धन का कारण है ! तुम मे कर्म-उपार्जन की क्रिया होती है, कर्म क्रिया से बनते हैं। इसलिए कर्मफलयोग (कर्मविपाक) तुम मे होता है। क्योकि कर्म ही बन्धनरूप वन कर शुभाशुभ फल चखाते है । जव तक ये कर्म फल दे कर (कर्म भोग कर) क्षय नहीं हो जाते, झड नही जाते, तव परमात्मा और आत्मा के बीच मे अन्तर रहेगा। जीवात्मा कर्म के फल भोगने Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अध्याग-शंग (विपाक) वेः रागय में अगर गगनागाव ग या जात्मभावोग मिथर रह नहीं गकता, प्रत्युत राग, द्वेष मोह, लोग आदि करता रहा है। ली कारण आत्मा और परमात्मा के बीच में अन्तर पहा मा । अगर यह अन्तर नष्ट करना हो तो गर्वप्रथम कर्गबन्ध . कारणा-गि यात्वादि को पहले सर्वथा नष्ट कर दो । जव कमवन्ध के कारण नाट हो जायेंगे तो नये कामों ना बन्ध नहीं होगा, तथापि पुराने कर्म, जो गना मे प हैं, वे एक न एक दिन अपने-अपने विपाक (परिपाक) का फल दे कर अवश्य नष्ट हो जाएंगे । अत अगर तुमने इतना सावधानी रखी कि जब कम फल देने- भावे तव (प.लोपभोग र समय) समत्वभाव- आत्मभाव- में स्थिर रहोगे तो तुम्हारे पुराने मृतकर्म नष्ट हो जायग, और नये सिरे से नये कर्म आते हा पहले से ही एक जायेंगे । इस प्रकार कर्मों के समभावपूर्वक फलभोग होने से ही तुम्हारी आत्मा और परमात्मा के वीच मे जो अन्नर है, वह नहीं रहेगा। तुम जार परमात्मा एकमेक हो जाओगे। तुम्हारी आत्मा ही शुद्ध हो कार परमात्मा बन जानेगी। फिर परमात्मा और तुम्हारी आत्मा के बीन में न क्षेत्रकृत दूरी रहेगी, न कालत, .. और न ही द्रव्यकृत अन्तर रहेगा, न भावकृत कोई लन्तर रहेगा। तात्पर्य यह है कि कर्मों को काट देने पर जीवात्मा और परमात्मा के बीच किसी प्रकार का अन्तर नहीं रहेगा। ___कई ईश्वरवर्तृत्ववादी धर्म-सम्प्रदाय ऐगा मानते है कि परमात्मा की कृपा होगी तो कर्म स्वयमेव कट जायेंगे अथवा कम फल देने वाले तो भगवान् हैं, उनसे माफी माग लो, उनकी सेवाक्ति (केवल गुणगान, चापलूमी आदि ) करके उन्हे रिहा लो। वे प्रसत हो कर पाप माफ कर देंगे, तुम्हारे पापकर्म धी देगे, उन सवका खण्डन इस गाथा से हो जाता है। जब शुद्ववुद्धियुक्त गुरदेव या बानी पुग्प से यह रपट उत्तर मिल गया कि परमात्मा के और तुम्हारी आत्मा के बीच का अन्तर मिटाने का अचूक उपाय कर्मों को रागभाव गे भोग कर काटना है । तब श्रीआनन्दघनजी के मन १. देखिए उन्ही के धर्मग्रन्य भगवद्गीता मे। न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । . . न कर्मफलसयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के वीच अन्तर-भग १२६ मे सहसा प्रश्न उठना है कि वे कर्म कितनी किस्म के है ? वे कैसे-कैसे वधते हैं ? कितने-कितने काल तक वे ज्यादा से ज्यादा आत्मा के साथ ठहर सकते है ? उन कर्मो मे तीव्रता-मन्दता आदि कैसे होती है ? जिससे उन्हे भोगते समय अधिक या कम दुख महसूस हो ? ये और ऐसे अन्तर्मानस उठे हुए प्रश्नो का वे अगली गाथा द्वारा सक्षेप मे समाधान करते है - पयई-ठिई अणु भाग-प्रदेशथी रे, मूल-उत्तर बहुभेद । धाती-अघाती हो, बन्धोदय-उदीरणा रे, सत्ता कर्मविच्छेद ।। पद्मप्रभजन • ॥२॥ अर्थ प्रकृति (निश्चित स्वरूप के फल देने के कर्मों का स्वभावरूप बन्ध), स्थिति (कर्मों का आत्मा के साथ कर्मत्वरूप से रहने का कालसीमारूप बंध) अनुभाग (कर्मों की फल देने की न्यूनाधिक, शक्ति) (रसरूप) बन्ध और प्रदेश (कार्माणवर्गणानुसार कर्मपुदलो के न्यूनाधिक जत्यो का नियमनरूप बन्ध) इन चारो प्रकार के बन्धो से, फिर कर्मों की मूल (मुख्य) तथा उत्तर (अवान्तर) प्रकृतियाँ अनेक भेदो वाली हैं, फिर कर्म भी दो प्रकार के है-- घातीकर्म, और अघाती कर्म तथा कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन चारो को समझ कर इन सभी का विच्छेद (विनाश) कर देना ही परमात्मा के और आत्मा के बीच का अन्तर मिटाने का उपाय है। भाष्य चार प्रकार से कर्मों के बन्ध मात्मा के साथ कर्मों के लगने का सारा तत्त्वज्ञान जब तक न समझ लिया जाय, तव तक साधक न तो कर्म-सयोगो को आत्मा से अलग करने की बात सोच सकता है और न ही वह परमात्मा और अपने बीच के अन्तर को तोडने का सही पुरषार्थ कर सकता है। इस दृष्टि से सर्वप्रथम कम के लगने के ५ मुख्य कारण बताए है-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग । इनके अवान्तर भेद ५७ हैं, इन सबको बन्धहेतु कहते हैं। आत्मा के साथ कर्मो का सयोग इन ५७ वन्धहेतुओ मे से एक या अनेक हेतुओ की Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० - अध्यात्म-वर्णन उपस्थिति होने पर हीना है। गवप्रगगनी' बन्ध के हेतुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए। जब विगी कर्म का बन्धन होने लगता है, तब प्रगति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेण, ये नार बाते मुकरं र हो जाती है। आ.।, शारव-प्रसिद्ध मोदक के दृष्टान्न पर गे इमे समझ लें--- प्रकृतिवन्ध---जैसे कोई मोदक वातरोगहर्ता होता है, कोई पिननाशक, तो कोई कफविनामा होता है, और वे उन-उन द्रव्यो गे बनाये जाते है, उनी प्रकार कर्म भी विभिन्न स्वभाव के होते हैं, वे विभिन्न कारणों से अलगजलग प्रकृति के होते हैं, कई कर्म आत्मा की शानशक्ति नो रोकते है, कई दर्शन की शक्ति को, कई गुख या दुख पैदा करने वाले हैं, कई मोहमाया में फंसाने वाले होते हैं, कई शरीर की आयु प्रदशित करने वाले, गाई शरीर की आकृति बनाने वाले, कई जाति में न्यूनाधिकता करने वाले हैं, कई लाभ, शक्ति आदि को रोकने वाले होते है । ग प्रकार पत्येक वर्ग को प्रकृति (स्वभाव) नियत करने व बताने वाला वन्ध प्रतिवन्ध होता है। स्थितिवन्ध---जैसे विभिन्न मादको के अच्छे रहने, बिगड़ने लगने या बिगड जाने की अवधि होती है, वैसे ही विभिन्न कर्मों की आत्मा के साथ स्थिति (टिके रहने की कालमर्यादा) को स्थितिवन्ध कहते है । कर्मो की स्थिति भी शुभ-अशुभ जादि अनेक अध्यवगायो के अनुसार वैधती है। स्थितिवन्ध गे यह मुकर्रर होता है कि अमुक कर्म कव फल देगा, फल देने लगने के बाद कितने समय तक वह फल देगा, अथवा कितने समय तक अमुक कर्म कित्ती प्रकार का फल दिये विना आत्मा के माथ जुडा रहता है ? रस (अनुभाग) वन्ध - जिस प्रकार लड्डुओ के रसो मे भी कोई मीठा, कोई फीका, कोई तीखा, कोई कसैला या स्निग्ध होता है तथा कोई एक गुना मीठा, कोई दो गुना, कोई तीन गुना मीठा, चरपरा आदि होता है। इसी प्रकार कर्मों के रसो मे भी विभिन्नता होती है। रसवन्ध भी मन्द, मन्दतर, मन्दतम, तीव्र, तीनतर, तीव्रतम आदि अनेकविध अध्यवसायपूर्वक की गई क्रिया के अनुसार नियत होता है। किस कर्म की मन्दता या गाढता कितनी है, यह रस (अनुभाग) बन्ध मे ही मुकर्रर होता है । प्रदेशवन्ध-जिस प्रकार लड्डू बांधते समय कोई आधा पाय का, कोई पावभर का, कोई आधा सेर और कोई सेरभर का भी वांधा जाता है, कई Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अन्तर-भंग १३१ कई लड्डू छोटे होते है, कई बड़े होते है । गी प्रकार कर्मों की वर्गणा (संख्या) जिरामे नियत होती है, कि अमुक कर्म कितनी कर्मवर्गणा का बना हुआ है। तद्नुसार एक-दो हजार-लाख वगैरह की राख्या नियत की जाती है। तथा अमुक-अमुक (कर्मप्रदेशो) कर्मवर्गणा के पुद्गलरकन्धो के जत्थो का नियमन भी प्रदेशवन्ध मे होता है। उक्त दृष्टि से प्रत्येक कर्मबन्ध चार-चार प्रकार का समझना चाहिए। प्रकृति-कर्मों की मूल प्रकृतियां ८ है-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (९) नाम, (७) गोत्र, (८) अन्तराय । इन आठो की उत्तर-प्रकृतियां १५८ हैं ...---ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ६, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुप्य की-४, नामकर्म की १०३, गोत्रकर्ग की २, और अन्तरायकर्म की ५। . घाती-अघाती कर्म-इन-आठो कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियो मे से ४ घातीकर्म है और ८ अघानीकर्म है। ' बन्ध-आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसायो अर्थात् भावकों के निमित्त से आत्म-प्रदेशो के साथ कर्मपुद्गलो का क्षीरनीर-न्याय से जुड़ जाने से द्रव्यकर्मदल का ग्रहण होता है और प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप मे वन्धने यानी कर्मो के आत्मप्रदेश के साथ जुड जाने के कारण वन्ध (कर्मवन्ध) कहलाता है। १ से ले कर १४ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान मे कितने कर्मो का बन्ध होता है, इसका विचार भी वन्ध के अन्तर्गत किया जाता है। उदय-जो शुभाशुभ कर्म आत्मा के साथ वन्य (लगे) है, उनका काल जव परिपक्व हो कर कर्मफल देने को तैयार होता है, उस उदयकाल को उदय कहते हैं। किस गुणस्थान मे कितने-कितने कर्म उदय मे आते है, जब कर्म १. चारो बन्धो का लक्षण श्लोक मे देखिए 'प्रकृति , समुदाय स्यात्, स्थिति. कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेय. , प्रदेशो दलसंचय. । २ इसका विशेप विस्तार कर्मग्रन्थ आदि से समझ लेना चाहिए। ' Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अध्यात्म-दर्णन किसी योग्य समय पर फल देते हैं. तव रामसा जाता है कि अमुवा कार्या या उदय हुआ। गार्मोदय के कारण घोंग-बैग पन भोगने पडते? इसका भी पता उदय से लगता है। उदीरणा-जिन कर्मों का उदयकाल अभी तक नही आया, उन उदीरणायोग्य कर्मो को किमी अनुष्ठानविशेप या प्रनग विशेष के निमिन से कर्मफल शीघ्र भोगे जाने की योग्यता पैदा हो जाना और फताभिमुप होने पर उनका भोगा जाना तथा फल दे कर निवृत्त हो जाना चौकी उदीरणा कहलाती है। उदीरणा मे देर में फल देने वाले कर्म बहुत ही जल्दी फल देने योग्य बन जाते हैं। कोन-रो गुणन्यान में कितने गार्मों की उदीरणा होती है इसका विचार कर्मग्रन्य आदि मे इसी के अन्तर्गत बताया गया है। सत्ता-उदयकाल से पहले जो कर्ग आत्मा साथ लगे रहते है, भोगे नही जाते, जो कर्मफल देने ले लिए नाख नहीं जाए। फिर भी उनमे फल देने की शनि है, वे अभी स्टॉक में पटे हैं उन्हें सत्ता कहते है। किस गुण-स्थान में कितने कर्मों की मना है. उमना भी विचार मी के अन्तर्गत है। इस प्रकार कर्मों के वध, उदय, उदीरणा और सत्ता कब, कौनमे गुणस्थान में, और कंगे होते है ? इस विषय में भलीभांति समझना चाहिए। प्रकृतिवन्ध आदि से ले कर सत्ता तक की जो बातें कर्म के सम्बन्ध मे यहां बताई गई है, वे इसलिए कि साधक इस बात को भलीभांति दिल मे विठा ले कि कि इन कर्मों के कारण ही उसके और परमात्मा के बीच में जुदाई है, अलगाव है । अत अव वह आत्मसाक्षी मे सीधा पुस्पार्थ करने लग जाय, इसी से उमके उक्त कर्मबन्धों, मूल-उत्तर कर्मप्रकृतियो, घाती-अघाती कर्मो, वन्ध, उदय, उदीरणा और सत्तारुप कर्मों को काटने का पुस्पार्थ सफल होगा। और १ वन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता इत चारो के विपय मे दूसरे कर्मग्रन्थ, प्रज्ञापनासूत्र, कम्मपयटी, गोमटसार आदि मे विस्तृत चर्चा है । पाठक वही से देख लें। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भग तभी उसके कर्मों का विच्छेद होगा और वह परमात्मा के निकट पहुँचेगा। अव तक वह आत्मभाव की उपेक्षा करके विभाव-भाव मे मग्न हो कर उलटा पुस्पार्थ करता रहा, इसी से कर्मवन्ध हुआ, जिससे परमात्मा से उसका अन्तर पडा। कर्म वांधने का पुम्पार्थ करने वाला भी तू है, तो कर्मों को क्षय करने का पुरुपार्थ करने वाला भी तू ही है। । पूर्वोक्त गाथा से यह स्पष्ट हो गया कि जीव के साथ लगे हुए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप से मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति तथा घाती व अघाती के रूप में जो वन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता के रूप मे स्थित कर्म है उन्ही के कारण ही परमात्मा और जीवात्मा मे अन्तर है । अत कर्मों का विच्छेद होने पर ही जीवात्मा-परमात्मा के बीच का अन्तर टूट सकता है। इतना स्पष्ट कर देने के बावजूद भी यह शका होती है कि आत्मा तो शुद्ध, बुद्ध, निर्लेप है, उस पर कर्म आए ही क्यो ? आए हैं तो वे कव से आए है ? कर्मपुद्गलो के साथ आत्मा का सयोग कब से है ? पहले कर्म था या पहले आत्मा ? यहाँ आत्मा मसारी कव से बनी, कव तक रहेगी ? आत्मा के साथ कर्मों का मम्बन्ध किस प्रकार का है ? इन दोनो का सम्बन्ध कौन जोडता है ? इन सब शकाओ का समाधान श्रीआनन्दघनजी अगली गाया मे करते है कनकोपलवत्, पयड़ी पुरुषतरणी रे, जोड़ी अनादि स्वभाव, अन्यसंजोगी जिहाँ लगी आतमा रे, ससारी कहेवाय ॥ पद्म० ॥३॥ अर्थ अनादिकाल से अपने स्वभाव से जैसे सोने का टुकड़ा और मिट्टी दोनो जुड़े (मिले) रहते है, वैसे ही सोने सरीखी आत्मा जब तक दूसरे (कर्मादि) के साथ जुड़ी हुई है, तब तक वह संसारी कहलाती है। भाष्य - यहाँ मुख्यतया यह बताने का प्रयास किया है कि आत्मा अपने आप मे शुद्ध वुद्ध होते हुए भी जव तक शरीर के साथ सम्वद्ध है, तव तक उसका परमात्मा के साथ मिलना दुष्कर है। दूसरी बात यह बताई गई है कि कर्म और आत्मा का यह मय सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि आत्मा कर्मो के साथ तद्रूप बन गई हो, ऐसा होने पर तो कर्मों का आत्मा मे अलग होना ही असम्भव हो Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अध्यात्मदर्गन जायगा । इमलिए श्रीआनन्दवनजी ने इन दोनो के सम्बन्ध को कना और, उपल यानी सोना और मिट्टी के गम्बन्ध की उपगा दी है । गोगा गिट्टी में मिला है, परन्तु वह कर से उनके गार मिना हुआ? गे टीका मेरा नह। जा सकता । परन्तु यह निश्चित सि मिट्टी मिता या गोना मिट्टी ने एक दिन अनग किया जा सकता है, भले ही वह जनादिकाल मे हो-~उसका काल निश्चित न हो। मिट्टी में गोना अलग होने पर ही अपने पूर्ण शुद्ध ल्प मे आता है इसलिए मिट्टी और गांग का गम्बन्ध मोगलम्बन्ध है। किन्तु मिट्टी का सोने के नाय गयोग किसने किया ? पाव किया ? मिट्टी पहले मिनी थी या मोना पहले मिला था। इन प्रग्ना वा जने कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता, नंगेती जीवात्मा का गार्गों के नाय सयोग के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। व्यवहारनय को दृष्टि में कमों के माथ आत्मा का गम्बन्ध म्बय आत्मा के द्वारा कृत होता है, दूसरा कोई जीव या ईश्वर आत्मा के साथ कर्मों का नयोग मिलाता है, यह बात असंगन प्रतीत होती है, क्योकि यदि ईश्वर ही कामंका गयोग कराता है, तोवर ही कर्म से वियोग (मुक्ति) करा सकता है। यदि ईश्वर के हाथ मे ही जीवो के कर्मों की मुक्ति हो तो किमी भी जीव को मार्मक्षय करने और कर्मों से मुक्त होने के लिए कोई पुरपार्य करने की जरूरत नहीं रहेगी , न व्रत या महानतादि धारण करने की आवश्यकता रहेगी। परन्तु यह वात मानने पर ईग्वर प्रपची, रागी, द्वेपी, अन्यायी आदि ठहरेगा, जने कि उमका स्वरूप कतई नही है। अत पात्मा का कर्मा गाय गयोग-सम्बन्ध स्वयकृत है । परन्तु यह मयोग कवते हे ? एक आत्मा की दृष्टि से प्रवाहरूप से आत्मा और कर्मों का मयोग सम्बन्ध बनादि है । आत्मा गहले कर्मो मे मिली थी या कर्म आन्मा से मिले थे? यह अतिप्रश्न है, जिनका समाधान बीजवृक्षन्याय से दिया जाता है कि वीज पहले या या वृक्ष पहले या ? मुर्गी पहले थी या बंडा पहले था ? दोनो की प्राथमिकता मापेक्ष है। इनलिए इस पर ज्यादा गौर न करके यही मोचा जाय कि आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध प्रवाहरूप से भले ही अनादिकालीन हो, मगर एक न एक दिन उसका अन्त आ सकता है, जिन कारणो से उसका मंयोग हुआ है, उन कारणो को मिटा देने पर आत्मा स्वर्णवत् शुद्ध कर्ममलरहित बन सकती है । जैसे कर्मवन्ध को पुरपार्थ व्यवहारदृष्टि से भात्मकृत है, वैसे ही कर्गमुक्ति का पुरुषार्थ भी आत्मकत है । गहां कर्ग के Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भग वदले 'अन्य' शब्द प्रयुक्त किया गया है, इसलिए कर्म के अतिरिक्त जो भी परभाव (आत्मा से भिन्न भाव) है, उनके साथ सयोग-विच्छेद का पुरुपार्थ होने पर एक दिन उनसे मुक्ति हो सकती है और आत्मा अपने आप मे शुद्ध, बुद्ध मुक्त हो जाएगी और तव आत्मा और परमात्मा के बीच का अन्तर खत्म हो जाएगा, वह परमात्मरूप बन जाएगी । जैसे सोने को मिट्टी से अलग होने के लिए अमुक अमुक प्रक्रियाओ मे से गुजरना पड़ता है, वैसे ही आत्मा को कर्मों या परभावो से अलग होने के लिए भी धर्मध्यान आदि प्रक्रियाओ मे से उसे गुजरना आवश्यक है । जब तक आत्मा का कर्मों या परभावो के साथ बदस्तूर सम्बन्ध न्यूनाधिकरूप मे चलता रहेगा, तब तक वह [जीवात्मा] ससारी कहलाएगा, वह परमात्मा-[शुद्ध] रूप तभी कहलाएगा, जब कर्मों [परभावो] से सर्वथा रहित ही कर शुद्ध, बुद्ध, निरजन हो जाएगा। ... जीव [आत्मा] के मुख्यतया दो भेद है-सिद्ध और संसारी । जब तक प्राणी ससारी होता है, तब तक एक गति से दूसरी गति मे और एक योनि से दूसरी योनि मे वारवार भटकता रहता है । ससार मे भी चारगतियो ओर चौरासी लाख जीवयोनियो मे से वह किस गति और किस योनि मे जा कर पैदा होगा, यह भी शुभाशुभ कर्मों के अधीन है । यद्यपि कर्मवन्ध मनुष्य द्वारा स्वयमेव ' होता है, जिसका कर्मफल भी स्वयमेव भोगना होता है । कई लोग यह कह देते है कि कोई भी प्राणी अपने कृत कर्मों का अशुभ फल स्वय भोगना नही चाहता, इसलिए तथाकथित ईश्वर को बीच में कर्मफल भुगवाने के लिए माध्यम माना गया । मगर जैनदर्शन शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ईश्वर को बीच में नहीं डालता, वह कहता है कि कोई प्राणी चाहे या न चाहे, कर्मों मे स्वत तद्रप परिणमन की तथा फल देने की शक्ति है । जैसे मिर्च खाने पर मुंह अपने आप जल जाता है, उसके लिए किसी दूसरे को माध्यम बनाने की जरूरत ही नहीं होती। कर्म स्वत ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप मे वर्गीकृत हो कर वध जाते है ।- समय पर स्वयमेव फल दे देते है , जिसे प्राणी को भुगतना पडता है । कर्म अपना फल प्राप्त कराने देने मे स्वतत्र है । वे अन्य किसी फलदाता या माध्यम की अपेक्षा नहीं रखते । इमीलिए श्रीआनन्दघनजी ने पाहा--"जहाँ तक आत्मा को गे Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याग-दन लिप्त-कमों से मयुक्त है, तब वह यह गनारी, गिन्न या गुन, नहीं । अन, यदि आत्मा ने परमात्मा नफा अन्नर दूर करना हो तो कर्मों में नबंधा मुक्त शुद्ध, और स्यम्पनिठ होना गावक? । नभी वह गगार्गमिट पर सिद्ध (मुक्त) कहलाएगा । फिर उसने जगमरण का चन भी मिट जाएगा । यहाँ फिर एक नवाल पैदा होता है कि यह नो गमत मे आ गया नाम आदि अन्य के नाप जब तम आत्मा का मयोग है, तब तक वह बन्धन में मुक्त नही हो गगनी. परन्तु पृथक पृथक कर्मों के गाय गयोगाम्बव गे सम्बद्ध करने वाला पानी कमों का वर्गीकरण (Ciassification) करने वाला कोन है जिसमे उनके फल मे अन्तर पर जाना है और क्या उन कर्मों के साथ मयोग होने में आत्मा यो रोका जा सरता है ? यदि रोका जा सकता है तो मे ? और शिमके द्वारा? इन सबके समाधान हेतु अगली गाथा अन्तुत है.. कारण जोगे हो बांधे बंधने रे, कारणे मुगति मुकाय । आश्रव-संवर नाम अनुक्रमे रे, हेय-उपादेय गणाय ।। पद्मप्रभजिन ० ॥४॥ अर्थ अमुक-अमुक कारणो के मिलने पर अमुक-अमुक कमों का बन्ध होता है, अमुक-अमुक करणो के मिलने पर कर्मों से मुक्त हो कर यात्मा मुक्त भी हो सकती है । आत्मा जव कर्मवन्धन करती है, तव कर्मो के उक्त प्रवाह के आगमन को आश्रव और नये कमों के निरोध (रोकने) को संवर कहते हैं, जो क्रमशः हेय और उपादेय कहलाते हैं। भाप्य कारणो से बध और कारणो से मोक्ष आत्मा और परमात्मा के बीच में दुई डालने वाले कर्म है, यह बात निश्चित हो जाने पर सवाल उठना है कि कर्म किन-किन कारणों से बंधने हैं, और किन कारणो मे छूटते है ? पहले मभवदेव परमात्मा की स्तुति में स्पष्ट बताया जा चुका है कि कोई भी कर्म विना कारण के कदापि सम्भव नहीं है। . कर्ता द्वारा कार्य होगा तो उनके कारण होंगे ही । प्रत्येक कार्य मे कई कारण होते है। यहाँ यह भी विताना अभीष्ट है कि नर्मवन्धनरूप कार्य भी किन्ही Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भंग कारणो में होता है, और कर्ममोक्ष भी किन्ही कारणो से । सामान्यरूप से कर्म बन्धन के मुख्यतया ५ कारण शाम्ब मे बताये हैं- १मिथ्यात्व, अविरनि, प्रसाद, पाय और योग । इन्ही पांचो कारणो को आश्रव कहा गया है। और इन्ही कारणो मे मुक्त होने पर आत्मा कर्मों से मुक्त होती है । कर्म मुक्त होने के भी ६ कारण बताये है-५ समिति, ३ गुप्ति १० श्रमणधर्म, २२ परीपहजय, तथा चारित्र-पालन एव १२ प्रकार के तप । इन्हें ही एक शब्द मे मवर कहा गया है। आश्रव और सवर हेय-उपादेय क्यो ? इन दोनो मे आथव त्याय है । यद्यपि कई लोग व्यवहारनय की दृष्टि से ऐसा मान लेते हैं कि शुभ-आश्रव (पुण्य) कञ्चित् उपादेय है, जब तक कर्मों से सर्वथा मुक्ति न हो, तब तक उसे छोडा नही जा सकता, छोडना नही चाहिए । परन्तु निश्चयनय की दृष्टि में यह बात वास्तविक नही जचती है । निश्चयनय की भापा मे यो कहा जा सकता है कि शुभाश्रव (पुण्य) छोडने योग्य ही है। कर्मों से सर्वथा मुक्त होने पर उसे छोडना नही पडता, वह म्वय छूट जाता है। इसी प्रकार शुभकर्मो को ग्रहण करना नहीं पडता, और न ही आत्मा अपने गुणस्वभावो के मिवाय किमी को खीचता है । शुभकर्मो को लाचारी से छोड नही मके, यह अलग बात है। क्योकि अशुभ आश्रव (पाप) से तो सदैव बचना चाहिए । इसलिए अशुभकर्मो (आश्रवो) को छोडने या उनमे बचने के लिए मुख्यतया शुद्ध भावो (म्वगुणम्वभाव) मे प्रवृति हो, अगर शुद्धभावो मे सतत प्रवृत्त न रह सके तो कम से कम शुभभावो (शुभाश्रवो) मे तो प्रवृत्त रहना उचित है । इमी दृष्टि को ले कर व्यवहारदृष्टि से शुभाश्रव कथञ्चित् उपादेय माना जाता है, किन्तु मुमुक्षु के लिए हे वह हेय ही। क्योकि उससे कर्म मुक्ति तो होती नही, कर्मवन्धन ही होता हे, जन्म-मरण की परम्परा ही वढती है । इसी प्रकार कर्ममुक्ति के जो कारण बताये गए हैं, या सम्यग्दर्शन, सम्यग्, ज्ञान, और सम्यक्चारित्र को जो मोक्ष के कारण वताये गये है, वे व्यवहारनय १ मिथ्यात्वाविरति-प्रमाद-कषाययोगा बन्धहेतव । स आश्रव. । २- स समिति-गुप्ति-धर्मानुपेक्षा-परिषहजय-चारित्रः, तपसा निर्जरा च ॥ -तत्वार्थसूत्र Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अध्यात्म-दर्शन की दृष्टि से बताये गये हैं। निग्नयन की दृष्टि में नौ स्वभाव, स्वगुणों या स्वम्बम्ग में गणता ही गर्म मुक्ति पा या उपाय है । वही निनाद से सबर और निर्जगई, जो उपादेय। आधर को नलिए हेय बन रायर गया कि इगगे आत्मा को को चंधन में जकरबर निराल तक मसार के जन्ममग्ण के चक में परिभ्रमण करनी रहती है ।नवर घोटाला जगादेय बताया कि यह आत्मा को पार्मों के बन्धन मे पटनं मे गार अपने न्य स्थिर करता है और चिरकालीन जन्ममरण के चर मे मुक्त करता है। आश्रव और सपर के लक्षण जिस कारण मे प्राणी कर्मों के बन्धन में बंध जाता है, उसे बंध कहते हैं । जीवरूपी तालाब मे कर्मरूपी जल का आना आश्रय है । आयव मे कमों के आगमन के स्रोत (हार) खुले होने है, जबक्ति मंदर में यमो के आगमन के स्रोत (द्वार) वद होते है । जीवस्पी तालाब मे कर्मस्पी जन का आना बन्द हो(क) जाय, उमे मवर कहते हैं । निश्चयनय की दृष्टि से शुद्धभावो के सिवाय आत्मा का गुभ या अगुभ भावो मै बह्ना या प्रवृत्त होना, आश्रव कहनाना है और आत्मा का शुभ-अशुभ भावों में हट कर शुद्ध भावो-~~-आत्मगुणो या स्वम्वरूप में प्रवृत्त होना या स्थिर होना, लीन होना सवर पहनाता है। जिनके नम्बगदर्शन, विरति, अकपाय, अयोग, महाव्रत, जणुव्रत आदि अनेक भेद है। अलग अलग स्वभाव के कर्मों के अलग-अलग कारण मामान्यतया कर्मवन्ध का पारण आयव और माधव के मूत्र ५ कारण बताये गये है, लेकिन शास्त्रों में पूर्वोक्त ८ कर्मों की प्रकृति के रंग में वन्धने वाले ८ कर्मों में से प्रत्येक के बन्ध के पृथक-पृथक कारण भी बताये गये हैं। जैसे ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के ५ कारण मुग्य है-ज्ञान या ज्ञानी के दोष देखना, ज्ञान या ज्ञानी का नाम छिपाना, ज्ञान या ज्ञानी मे टाह करना, ज्ञान ग्रहण करने मे या ज्ञानी के ज्ञान-प्राप्ति मे विघ्न डालना, नान या ज्ञानी की आणातना-अविनय करना । इसी प्रकार के ५ कारण दर्शनावरणीय कर्म के है । तथा वेदनीय, मोहनीय आदि कर्मों के बन्ध के अलग-अलग कारण शास्त्रो मे वता रखे है। । - निष्कर्ष . प्रभुमय बनने के लिए संवर का स्वीकार । यहां आपन और सनर दोनों का म्वरण बना कर, लोगो को कमग हेय Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अंतर-भंग १३८ और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) बताने का प्रयोजन यह है कि अगर तुम्हे वीतराग परमात्मा और तुम्हारे बीच का अन्तर मिटाना हो तो कर्मवन्ध के कारणभूत आश्रव को हेय समझ कर छोडना चाहिए और सवर को उपादेय समझ कर स्वीकारना चाहिए । तभी तुम्हारा मानवदेह सफल होगा और तुम्हारा परमात्म-मिलन का शुभमनोरथ पूर्ण होगा। यही मुक्ति प्राप्त करने का सच्चा उपाय है, यही सिद्धत्व का मार्ग है और यही परमात्ममिलन का सत्पथ है। और कर्मबन्धन के कारणो का स्वीकार और इन्कार तुम्हारे ही हाथ मे है । यदि हाथ में आई हुई इस वाजी को हार गए तो फिर चिरकाल तक समार मे परिभ्रमण करना पडेगा । _ 'कर्मों के वन्ध और मोक्ष का स्वरूप जानते हुए भी आत्मा बार-बार कर्मों से जुड जाता है, उसमे न जुडने का क्या कोई उपाय है ?' इस जिज्ञासा के समाधान-हेतु श्रीआनन्दघनजी अगली, गाथा मे कहते हैयु जनकरणे हो अन्तर तुझ पड्यो रे, गुणकरणे करी भंग। प्रन्थ उक्ते करी पंडितजन कह्यो रे, अन्तरभग सुभंग ॥ पद्मभ०।५। अर्थ हे भव्य । युजनकरण (कर्म के साथ जुड़ने की क्रिया) के कारण तेरा परमात्मा से अन्तर (फासला) पडा है,जो गुणकरण (आत्मगुणो मे रमण करने की क्रिया) के द्वारा भग हो (छूट) सकता है । आगमादि धर्मग्रन्थो के कथन से आगम के अनुभवी पण्डितो ने परमात्मा से आत्मा के बीच की दूरी मिटाने का यही सर्वश्रेष्ठ उपाय बताया है । भाष्य तीन करण और उनका स्वरूप पूर्णगाथा मे कर्मबन्ध और कर्ममुक्ति के कारण क्रमश आश्रव और सवर को हेय और उपादेय बताया, किन्तु केवल कारणो के बताने मात्र से हेय त्यागा नही जा सकता और उपादेय को ग्रहण नही किया जा सकता। मतलव यह १. 'तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायाशादनोपघाता . ज्ञानदर्शनावरणयो' । तत्त्वार्थसूत्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अध्यात्म-दर्णन है कि जब तक किमी चीज को छोडन और गरण करने की प्रक्रिया मालूम न हो, तब तक छोडने योग्य को छोड़ने और ग्रहण करने गोग्य गो ग्रहण करने का पुरपार्थ नहीं हो गकता। इसी कारण उस गाथा मे परमा-मा और आत्मा के वीच मे पडे हुए अनर के कारण प यु जनारण की प्रक्रिया को बनाया है, जबकि उरा अन्तर के दूर करने के कारणम्प गुणकारण की प्रप्रिया को बताया है। सवाल यह होना है कि यु जनकरण और गुणकरण की प्रकिया कोई ट्याग की प्रक्रिया है या सहजयोग की ? काठिनतम किया है पा सरलतम ? इसके समाधान में इतना ही कहा जा सकता है कि योगीश्वर थीआनन्दघनजी म्वय जैनधर्म और जैनयोग के पुरम्पार्ता है. इसन्निए उन्होंने जैनधर्ममान्य महजयोग की ही प्रक्रिया प्रस्तुत की है, हय्योग की नहीं । ये करण-प्रक्रिया उन्होंने अपनी मन परिपन नहीं बनाई है परन्तु आगमो और धर्म-ग्रन्यों के आधार पर अनुभवी विद्वानों द्वारा बताई गई प्रक्रियाए है । जैन-आगमो के अनुगार आत्मा की यह नहज प्रक्रिया तीन करणो मे वर्गीकृत की गई है-यु जनकारण, गुणकरण और ज्ञानकरण । आत्मा की कर्मों के माथ जुड़ने (मयोग] की प्रक्रिया को यु जनकरण कहते है । यह क्रिया जाधवरूप है। म मिया का पता ममारी जीव है । सिद्र परमात्मा के माय ममारी जीव के मिलने मे जन्लराय ना कारण युजनकरण की क्रिया है । दूगग करण, जो ठीक इसके विपरीत है, गुणकारण है। जिसमे आत्मा अपने वास्तविक गुणो-ज्ञान-दर्शन-चारित्र मे रत या बिर हो कर क्रिया करता है, उस क्रिया को गुणकरण कहते हैं। इसी आत्मकिया को मॅवर कहते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा में रहे हुए कर्मबन्ध के कारणभून ससार-योग्यता नामक स्वभाव का प्रगट होना युञ्जनकरण है, यही भाव-आश्रव है और आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने वाले मुक्तियोग्य स्वभाव का प्रकट होना गुणकरण है, । यही भावसवर, निर्जरा और अन्त में मोक्ष है। ये दोनो स्वभाव जीव मे होते है, इनमे से एक । १ हरिभद्रसूरीय योगविन्दु ग्रन्थ मे कहा है आत्मा तदन्यसयोगात् सतारी, तद्वियोगतः। स एव मुक्त एतो च स्वाभाच्यात् तयोस्तथा ॥६॥ अन्यतोऽनुहोऽप्यत्र तत्स्वाभान्य-निवन्धन. ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भग १४१ स्वभाव जव प्रगट होता है तो दूसरा स्वभाव छिप जाना है। इस प्रकार आविर्भाव-तिरोभाव, के रूप मे ये दोनो पर्याये जीव मे पाई जाती है । अभव्य - जीव मे सिर्फ एक ही मसारयोग्यता-स्वभाव होता है । ससारी भव्यजीवो मे दोनो स्वभाव मुन्य-गीणरुप मे होने है। तीसरा करण जानकरण है, जिसका अर्थ है-वस्तु को वस्तुस्वरूप से जानने-पहिचानने की क्रिया। वस्तुत इमका समावेश गुणकरण मे ही हो जाता है। । गुण-करण मे प्रवृत्त होना ही अंतर-भग का श्रेष्ठ उपाय '' पूर्वोक्त दोनो करणो को भलीभाँति जान कर गुणकरणं मे प्रवृत्त होना ही आत्मा और परमात्मा के बीच में पड़े हुए अन्तर (दूरी) को भंग करने का सुअग-श्रेष्ठ उपाय है, रामवाण इलाज है । आत्मा और परमात्मा के वीच की दूरी मिटाने का उपाय आत्मा के सिवाय अन्य किसी का अनुग्रह नही है। क्योकि कर्मवन्ध के सयोग और वियोग दोनो आत्मा के स्वभाव के अनुसार होते है । यदि थोडी देर के लिए ईश्वरकृपा आदि को कारण मान भी लिया जाय, तव भी दोनो स्वगुण-स्वभाव के अनुसार ही होते है। मतलब यह है कि जव आत्मा सवर मे प्रवर्तमान होती है, यानी व्यवहारिक दृष्टि से वह अष्ट-प्रवचनमाता (समितिगुप्ति) का पालन करती हो, वारह अनुप्रेक्षा, क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म मे उद्युक्त हो, परिपह पर विजय प्राप्त करने मे प्रयत्नशील हो, पचमहाव्रत या पचाणुव्रत, नियम आदि मे पुरुपार्थ कर रहा हो, तव वह आश्रवरहित हो जाता है । इससे नवीन कर्मो को आते हुए रोक देता है। यह गुणकरण की प्रक्रिया है, जो आत्मा के स्वपुरुषार्थ से होती है, इस प्रक्रिया से ईश्वरादि का अनुग्रह स्वत प्राप्त हो जाता है। यु जनकरण को रोकने से ही ऐमा गुणकरण होता है, जो पूर्वोक्त अन्तर को मिटाने का सरलतम उपाय है। योगविन्दु, योगशास्त्र, योगद्वात्रिंशिका अथवा योगदृप्टि-समुच्चय आदि किसी भी ग्रंथ को उठा कर देखे तो उसमे आत्मा और परमात्मा के वीच की दूरी मिटाने का सर्वोत्तम उपाय यु जनकरण को रोक कर गुणकरण को अपनाने का बताया गया है । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अध्यात्मान अनादिकान में गगार भ्रमण हा जीन के दाग अगर यह प्रयोग गफल हो जाव तो परमात्मा और जगमी मात्मा रेबीन में पटा हना अन्तर मिट सकता है। अन्तिम गाया गे गी आणा तो ले कर उत्गाहपूर्वक श्रीआनन्दघनजी आनन्द-रग विभोर हो कर झूम उठने है-- तुझ मुझ अतंर-अतंर भाजशे रे, वाजशे मंगलतूर । जीवसरोवर अतिशय वाघशे रे, 'आनन्दधन' रसपूर ।। पदमप्रभजिन ० ॥६॥ अर्थ मेरे और आपके अन्दर का (आन्तरिक) जो अन्तर है, वह अन्त मे अवश्य मिटेगा अथवा मेरा अन्तर (गुणकरण द्वारा) उपत अन्तर को तोड़ कर रहेगा । तब मगलवाद्य बज उठेगे और मेरा जीवसरोवर प्रफुल्लित हो कर अत्यन्त वृद्धिगत हो जायगा एव वह उस आनन्द-समूह के रस से लवालव भर जायगा अथवा यह जीव परम-आनन्दस्पी घन (बादल) बन कर रम की वर्षा करता रहेगा। भाष्य __ अन्तर मग होने का परिणाम श्रीआनन्दवनजी पूर्वोक्त गाथाओ में प्रतिपादित वातो द्वारा इस बात को भलीभांति हृदयगम कर चुके है कि परमात्मा और मेरी आत्मा ने बीन में जो अन्तर है, वह कमॉ के कारण है और कर्मवन्धन मे छुटकारा पाना तथा आश्रवत्याग व गवरग्रहण करना भी मेरी आत्मा के ही हाथ मे है । गेरी आत्मा जब यह कतई नहीं चाहेगी कि वह कर्मवन्धन मे पडे, तव वह प्रतिक्षण सावधान और जाग्रत हो कर कर्मवन्धन को कारणो को मिटायेगी, नये कर्मों को आने से रोकेगी, उदय मे आए हुए पुराने कर्मों का फल समभाव से भोग कर अथवा उदयाभिमुख न हुए हो, उन्हे उदीरणा करके उनको क्षीण करने का पुरुषार्थ करेगी। इस प्रकार गुणकरण द्वारा यानी प्रतिक्षण आत्मा के ज्ञानादि निजगुणो मे स्थिर रह कर युंजनकरण के कारण से परमात्मा और मेरी आत्मा के वीच वटते जाने वाले अन्तर को मैं एकदम काट दूंगा। इस युंजनकरण के कारण मैं मंमारी कहलाता था, लेकिन जने आप यु जनकरण का त्याग करके गुणकरण अपना कर ससारी से सिद्ध-बुद्ध-शुद्ध-मुक्त , वने, वैसे मैं भी यु जनकरण का त्याग करके गुणकरण को अपनाऊंगा, जिससे Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा बीच अतर-भग १४३ म भी एक दिन शुद्ध, बुद्ध, गुक्त परमात्मा बन जाऊँगा। मेरी यह आणा अवश्य ही फलित हो कर रहेगी। जिस दिन यह अन्तर टूटेगा, उस दिन मेरा ह वो का सजोया हुआ स्वप्न साकार होगा। और तब ध्यान करने वाला ध्याता, उसका ध्येय-आप परमात्मा, और उसका परमात्मसम वनने का ध्यान तीनो एकाकार हो जायेंगे। इन तीनो मे जिम दिन ऐक्य-अभिन्नत्व सम्पन्न होगा, उस दिन आपके और मेरे वीच मे पड़ा हुआ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावगत सारा अन्तर दूर हो जायगा, मैं प्रभुमय हो जाऊँगा । । जैनतत्वज्ञान मे यह विशेषता है कि उसके अनुसार योग्य प्रयत्न करने से बहिरात्मा अन्तरात्मा बन कर एक दिन परमात्मस्वरूप प्राप्त कर सकत है। उसके जन्म-मरण के चक्कर मिट जाते हैं, स्वय उसमे परमात्मरूप बन जाने की शक्ति आ जाती है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी उत्साह मे आ कर प्रसन्नता से कह उठते हैं—'प्रभो । मुझे उस गुणकरण के प्रयोग द्वारा अपनी यात्मिक शक्ति अजमा कर मेरा अनादिकालीन ससारीपन मिटाना है । जिस दिन यह ससारीपन मिट जायगा, उस दिन मैं और आप एकमेक हो जायेंगे, मैं परमात्ममय हो जाऊँगा और आपके और मेरे वीच मे रही हुई भेद की दीवार ढह जाएगी।' जिस दिन ध्याता, ध्येय और ध्यान की इस प्रकार की एकता हो जाए उस दिन उक्त ऐक्य के फलस्वरुप अन्तर मे अनहद मगलवाद्य वज उठग जिनसे उस आनन्द को धोतित करने वाले अनाहत-निनाद (शब्द-ध्वनि) सतत मुनाई देगा। जैसे दुनियादार लोग अपनी इच्छितवस्तु का प्राप्ति की खुशी मे मगल वाजे बजाते हैं, वैसे ही साधक को भी जब अपने ईष्ट साध्य की प्राप्ति हो जाती है तो उस खुशी को प्रगट करने से लिए आनन्द के अनाहत मगल-ध्वनिमय वाद्य उसके अन्तर मे बज उठते है। परमात्मा और आत्म की एकता के उस रूप की महिमा गाने मे तीनो लोक मे कोई समर्थ नहीं है और न उसे शब्दो से प्रकट करने में कोई समर्थ है। नेति-नेति' (इसके आगे कुछ नहीं कहा जा सकता) कह कर वाणी भी उस अभूतपूर्व आनन्द का वर्णन करने में असमर्थ हो जाती है। इसीलिए श्रीआनन्द- घनजी जीवात्मा-परमात्मा के ऐक्य के उस नजारे को अपने शब्दो मे सकेत के Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अध्यात्म-यांन रूप में अभिव्यक्त करने हैं कि परमात्मा और आत्मा के बीच मे दूरी डाउन वाले कर्म रज का जव एक रण-भी नहीं रहेगा, तब यह आनन्दमय आत्मा-मरोवर परमशान्त सुधारन ने लवालब भर जायगा। क्योकि अब नक आत्मा को जतृप्नि थी, वह सदा के लिए समाप्त हो कर माश्यत पग्मनृप्नि प्रान हो जायगी। उसके आनन्द का क्या ठिकाना ! जब जीव गुणकरण की प्रक्रिया द्वाग सवरधम के वारण नमश. पानीकर्मों का क्षय कर देना है, तब केवलनान, केवलदर्शन, चलसुन और आत्मानन्द का बल प्राप्त कर ही लेना है। तव उसके केवल नाम-गोवादि चार कर्म वाकी रह जाते हैं, नगर आयुकर्म गे नाम-गोत्र के कगंदल अधिना हो तो उन्हें आयुप्य के बरावर करने के लिए वह केवली-ममुद्घात करना है, जिससे जो जोव एक समय अगुल के जगल्यानवे भाग गरीर में मंद था, वह अब लोकव्याप्त हो जाता है। इसी कारण श्रीआनन्दघनजी को बहना कहना पडा-जीव-मरोवर अतिशय वाधशे रे आनन्दधन-रसपूर। गरोवर में कमल खिले हुए होते हैं, उनका स्वभाव जल की सतह से ऊपर रहने का होता है । जव सरोवर में पानी बढ़ जाता है तो कमन भी बढ जाते हैं, फूल जाते है। यह एक प्राकृतिक नियम है कि ज्यो-ज्यो सरोवर में पानी वटता जाता है, लो-त्यो कमल अपने रूप, रस और रग को न बिगडने दे कर बढना जाना है। इनी प्रकार ज्या-ज्यों गुणकरण द्वारा सवरधर्म-सेवन से परमात्मा और मात्मा के वीत्र का अन्नर टुटना जाता है, त्यो त्यो जीवमरोवर में आत्मज्ञानरूपी जल बढना जाता है और आत्मज्ञानरूपी जन के वृद्धिंगत होने के माय-याय आत्मानन्द-कमल में भी वृद्धि होती जाती है। गुणकरण की अधिकता मे वही जीवात्मा अपने ज्ञान को लोकालोक में व्याप्त कर देता है और वह आत्मा परमात्मा में लीन हो कर सदा के लिए लोक के अग्रभाग पर जा कर विराजमान हो जाती है। और तब वह आत्मा सदैव निजानन्दसमूह के रम ये परिपूर्ण हो कर परम तृप्त हो जाती है। साराश इम स्तुति के आरम्भ मे श्रीआनन्दघनजी ने दो प्रश्न उठाए थे- पर r Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भग १४५ मात्मा और गेरी मामा के बीच में अन्नर क्यो पटा? उस अन्तर को मिटाने का क्या उपाय है ? गले समाधान के रूप में उन्हे ज्ञात हुआ कि अपनी आत्मा का पर (नाम आदि) के साथ यु जनकरण के कारण जो सयोगसम्बन्ध है अथवा हो रहा है, उने गुणकरण द्वारा मिटाना ही परमात्मा और आत्मा के बीच अनादि कर्मों के मयोग के कारण परे हुए अन्नर को मिटाना है। अत वे उक्त उपाय को जजमाने के लिए उधन हो गए और उसके शुभपरिणामो का दिग्दर्शन करा कर परमात्मा गे अपनी जात्मा की एकता स्थापित करने की आशा में प्रतीक्षारत है। वास्तव में, परमात्मा ने आत्मा की इस प्रकार की एकता होगी, तभी सच्ची भक्ति, यथार्थ प्रीनि, यथार्थ मेवा-उपासना, सत्यदर्शन, आदि सिद्ध होगे। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ : श्री सुपाराजिन-स्तुति अनेक नामों से परमात्मा की वन्दना (तर्ज-राग सारंग, मल्हार, ललना की देशी) श्रीसुपार्श्वजिन, वदिए सुखसम्पत्तिनो हेतु, ललना। शान्त-सुधारस-जलनिधि, भवसागरमा सेतु, ललना ॥१॥ अर्थ हे अन्तरात्मारूपी ललना ! (सखी!) आओ, हम श्रीयुत सुपार्श्वनाथ जिन (सातवें तीर्थकर परमात्मा को वन्दन करें, क्योकि वे समस्त प्रकार के सुख और सम्पत्ति के कारण है, अपने स्वरप मे स्थिर शान्त अमृतरस के समुद्र हैं और संसारसागर को पार करने मे हमारे लिए पुल के समान है। भाष्य परमात्मा को वन्दना क्यो ? पूर्वोक्त स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा और आत्मा के वीन अन्तर के कारण और उनको मिटाने के लिए निवारणोपाय वनाए थे। कर्मबन्धनरूप उन कारणो को मिटाने के लिए तथा परमात्मा और आत्मा के वीन सामीप्य स्थापित करने के लिए इस स्तुति मे परमात्म-वन्दना आवग्यक बताई है । श्री सुपाश्वनाथ वीतराग परमात्मा के माध्यम ने इसमे परमात्म-वन्दना का रहस्य बताते हए तीन वाते उन्होंने अभिव्यक्त की है- परमात्मवन्दना पया है ? और किस नाम से, किस स्वरूप वाले परमात्मा को वन्दना की जाय । सर्वप्रथम परमात्मवन्दना क्यो की जाय ? इसका रहस्योद्घाटन श्रीआनन्दघनजी अन्तरात्मास्पी ललना (स्त्री-सखी) को सम्बोधित करते हुए कहते हैंहे अन्तरात्मा-सखी, परमात्मा के पास तो अनन्तनान-दर्शन, अनन्त अव्यावाध मुख और अनन्तवीर्य सुरक्षित है, परन्तु मोह, अज्ञान जौर अशुभकर्मों के कारण मेरा ज्ञानधन अभी तक लुट रहा है । मैं मोहबण एव असातावेदनीय के परि Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक नामो से परमात्मा की वन्दना १४७ णामस्वस्प जगत् के तथा जन्ममरण के अनेक दु खो से ओतप्रोत रहा, अभी तक मैंने इनने-इतने भयंकर दुख सहे, फिर भी ससार-समुद्र के किनारे का पता नही लग रहा है और नये-नये अनेको दुख और आ रहे हैं । तथा मैंने महिकर्मवश तथा वीर्यान्तरायकर्म के फलस्वरूप अपनी शक्ति आत्मा के शुद्धस्वरूप को देखने, जानने और उसमे रमण करने मे नही लगाई, यानी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना मे अपनी शक्ति न लगा सका, और प्राय' विपयो के पोपण बढाने मे और राग-द्वेप-मोह आदि की लीलाएँ करने मे ही लगाई । अत सुबुद्धिरूपी सखी! अव तू इन सवसे हट कर वीतराग परमात्मा के के वन्दन करने मे लग जा। क्योकि प्रथम तो परमात्मा का नाम सुपार्श्व है । लोक्कि लोग लोहे से सोना बनाने के लिए पारसमणि का उपयोग करते हैं, परन्तु हमे तो अपनी आत्मा, जो विपय-कपायो मे, रागद्वे प मे रत हो कर वर्तमान मे जग लगे हुए लोहे के समान वन रही है, उसे सोना बनाना है, इसके लिए सुपार्श्व नामक चेतनपार्श्वमणि का अवलम्बन लेना चाहिए। वन्दना के रूप मे इनके पास आने से यानी इनके अभिमुख होने से आत्मा मे खोई हुई या सोई हुई ज्ञानशक्ति एव दर्शनशक्ति प्रकट हो सकती है । वह पारस तो लोहे के साथ स्पर्श होने पर केवल सोना वनाता है, परन्तु ये सुपार्श्व आत्मा को सोने के समान शुद्ध ही नही, अपने समान बुद्ध और मुक्त (सिद्ध) भी बना देते है। मतलब यह है, हमारी आत्मा मे सोई हुई ज्ञान-दर्शन की विपुलशक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए हमे वीतराग परमात्मा की वन्दना करके उनका सामीप्य प्राप्त करना चाहिए। क्योकि वन्दना करने वाले को वन्दनीय पुरुप के अभिमुख =सम्मुख होना आवश्यक होता है। जव वन्दक आत्मा वन्दनीय परमात्मा के सम्मुख होगी तो स्वभावत उसमे निहित ज्ञान-दर्शन की शक्ति के रोधक कर्मों का पलायन होने लगेगा, ज्ञानदर्शन को शक्ति को रोकने वाले रागद्वेष-मोहादि विकारो की भगदड शुरू हो जायगी और आत्मा की शान-दर्शन शक्ति निर्मलतर और निर्विकार होती जायगी। परमात्म-वन्दना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वन्दना मे चित्त एकाग्र होने पर साधक विषयविकारो से हट कर स्वस्वरूप के दर्शन एव ज्ञान में लीन हो जाएगा। वन्दना से सर्वोत्तम Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अध्यात्म-दर्शन उपलब्धि आत्मादि की प्राप्ति होगी। मोनिका नादिनी उपाधि लिए दुनियादार लोग मनेगा व्यत्तिमा के पास गटात फिरने हैं, जो दि गाभवान है, तब फिर आत्मिक नटि के दादेष्टा, निर्देशना, दाना परमात्मा को वन्दना करने मे आपत्ति ही गया है ? गोकि बगर यह आन्मगति एक बार भी प्राप्त हो गई तो गाधक सदा के लिए अनन्तमान-वर्णन-गुरा-वीर्य को प्राप्त कर आत्गगमाधि में लीन हो जायगा। दुगरी बात यह है कि परमात्मा अनन्तगुण और अनन्त-अक्षयनानादि गम्पत्ति लक्ष्मी की उपलब्धि के कारण है, इसलिए इनको वन्दन करने में माधक अपने आपका अन्तदर्शन कर सकेगा । अपनी आत्मा पर मनन-चिन्तन कर सकेगा कि वह जिनको वन्दन कर रहा है, वे परमात्मा तो उग अनन्तअव्याबाध गुप के धनी बने हुए है, और वह अभी तक वैषयित सुखों को, अथवा वस्तुनिष्ठ सुख को ही मुख मानता रहा । परिणामस्वरप उग धणिक सुखाभास के चक्कर में पट कर उसने अनन्त-अनन्त जन्ग खो दिए, अनेक जन्मगरण के दुख और उन उन जन्मो मे होने वाले अनेकानेर दुग लाचारी में सहे, अव सभल जा, और अनन्तसुखी परमात्मा की वन्दना के माध्यम से उसे अपनी आत्मा में निहित उस अनन्त बाधीन-सुख के राजाने को प्राप्त करना है। उसके लिए तुझे ज्ञान-दर्शन-चारित्रम्प रन्नत्रय की [जयवा निश्चयदृष्टि से स्वस्परमणस्प चारित्र की आराधना करनी लाजिमी है, उसके लिए जो मुखबीजरूप दुख-क्षणिक दुख पूर्वकर्मों के फलस्वरूप गहने पड़े, उन्हें समभाव से सह कर असातावेदनीय कर्म के जाल को बाट दे, और परमात्मवन्दना के द्वारा जानादि अक्षय सम्पत्ति को प्राप्त करना है। इसीलिए परमात्मवन्दना का दूसरा कारण श्रीआनन्दघनजी बतलाते है---'सुख-सम्पत्तिनो हेतु ।' परमात्म-बन्दना का एक तीसरा कारण और है, वह हैशान्तस्वरूपमय शान्तसुधारस को प्राप्त करना । अव तक आत्मा अपने को भूल कर नदी, पर्वत, गुफा, जंगल, तीर्थस्थान, या परिवार, सतान, स्त्री, विपयवासना या भौतिक पदार्थो की प्राप्ति मे शाति मान रहा था, वह अपने शुद्धस्वरूप के आसपास जलती हुई क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मोह, मत्सर रूपी कपायाग्नि को नहीं देख रहा था, परन्तु परमात्म-वन्दना के समयवन्दनीय परमात्मा का रूप देख कर अन्तरात्मा मे अवश्य ही विचार करेगा कि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक नामो से परमात्मा की वन्दना १४६ परमात्मा की आत्मा भी मेरे ही समान हे, फिर ये तो अपने स्वरूप मे स्थिर होने से गात अमृतरस के समुद्र बने हुए है और मैं अणाति के महासागर मे गोते लगा रहा हूं। अत इस प्रकार की मेरी शाति को लुप्त करने या दबाने वाले कपायो, वासनाओ तथा राग-द्वेपो और तज्जनित होने वाले मोह या अतरायकर्मों के बन्धन मे दूर रहूँ, मैं प्रतिक्षण सावधान रह कर नवीन कर्मों के के प्रवेण को रोकू और पुराने कर्मो के उदय मे आने पर उन्हे समभाव से सहूं। और इस प्रकार मैं भी शान्तसुधारस-समुद्र परमात्मा के समीप पहुंच जाऊँ अथवा स्वय भी शातसुधारस का सागर बन जाऊँ । चौथा परमात्मवन्दना का कारण यह बताया है कि वह आत्मा और परमात्मा के बीच में पड़ा हुआ जो अथाह ससारसमुद्र है, उसे पार करने के लिए पुल के समान है। किसी नदी या समुद्र को पार करने के लिए पुल का सहारा लिया जाता है। पुल के सहारे से व्यक्ति अनायास ही उससे पार हो जाता है। परन्तु ससार समुद्र इतना लम्बा-चौडा है कि इस पर पुल बनाने वाले बहुत ही ही विरले लोग होते है । हर एक के वश की बात नही हे यह । परन्तु वीतराग परमात्मा ने तीर्थकर-अवस्था मे ससारी जीवो के तिरने और ससारसमुद्र पार होने के लिए तीर्थ (चतुर्विध सघ-साधु-साध्वी-श्रावक श्राविकारूप) की स्थापना की थी। उसू तीर्यरूपी पुल के सहारे मे अनेक भव्यजीव इस ससारसमुद्र को पार कर गए और अव भी कर सकते है। इसलिए परमात्मवन्दना करने से भव्यजीव सहसा परमात्मा के अभिमुख होगा ही और उनके द्वारा किये हुए कार्यकलापो पर-उनके चारित्राराधन पर तथा तीर्थस्थापन पर अवश्य विचार करेगा। वन्दना के माध्यम से यह स्मरण ही उसे तीर्थ का सहारा ले कर ससारसमुद्र को पार करने में सहायक होगा। अथवा परमात्मवदना ही एक प्रकार से ससारमागर को पार करने मे पुल का काम करती है। क्योकि परमात्मवदना करते समय सहसा विचार होगा कि परमात्मा ससारसागर से कैसे पार हो गए और मैं क्यो पीछे रह गया? इस प्रकार ऊहापोह करने से वह समारसमुद्र को पार करने के लिए परमात्मा द्वारा तीर्थकरअवस्था गे स्थापित तीर्थ का सहारा ले कर ज्ञानदर्शनचाराि की आराधना Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अध्यात्म-दर्शन करने मे प्रवृत्त होना सम्भव है। इसीलिए श्रीमानदानजी परमानगवदना का अन्तिम कारण बताते हैं.---'भवसागरमा सेतु' । कोई कह सकता है कि यह तो अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए उन्हें बदना करना हुना, वदना निवार्य होनी चाहिए। पन्तु यह बात को गागनी होगी कि उच्च ने उच्च स्वार्थ अत मे परमार्थ बन जाता है । जाम मार्ग पर चटने लिए किमी उत्तम मार्गदर्शक में मालूम करने में एक प्रचार का परमार्थ री है। स्वर्गादि मुख या इहलौकिक भौतिक सुखो को पाने की अभिलापा वन्दना का कारण होती तो अवश्य कहा जाता कि यह स्वार्थयुक्त वन्दना है। परमात्म-वन्दना क्या है ? सस्कृतच्याकरण के अनुसार 'वदि अभिवादन-स्तुत्यो' वन्दनक्रिया अभिवादन-अभिमुख हो कर नमन करने तथा स्तुति करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है । वंदना में अपने आराध्य या वन्दनीय प्रभु के प्रति हृदय (मन) मे गुणाकर्षण हो कर प्रसन्नता की उमियां उछलने लगती हैं, यानी हृदय और वुद्धि वन्दनीय प्रभु के प्रति झुक जाते है। वाणी अन्यप्रशंसा या अन्यो के गुणगान से हट कर परमात्मा की स्तुति, प्रगमा अयवा गुणगान मे एकान हो जाती है तथा काया अन्यविषयो से सर्वया हट कर वन्दनीय परमात्मा के अभिमुख हो कर मभी अगों-महित सर्वथा झुक जाती है, उन्ही के ध्यान, नामजप या स्वरूपचिन्तन में इन्द्रियोसहित वह एलान हो जाती है। सामान्यतया वन्दना करने वाला जब वन्दनीय पुम्प के सम्मुख होता है तो अपना नाम भी प्रगट करता है कि मैं (अमुक नाम वाला) आपको वन्दन कर रहा हूँ। इसी प्रकार परमात्मा को वन्दना करने वाला भी जव अपना नाम पुकार कर प्रभु के प्रति वन्दन-नमन करेगा, तब सहमा ही उसे अपने स्वरूप का भान होगा। निष्कर्प यह है कि परमात्मवन्दना वह है, जिसमे मन, बुद्धि, हृदय, वाणी, शरीर, इन्द्रियाँ तथा समस्त अगोपाग वन्दनीय प्रभु के प्रति झुक जाय, उन्ही के गुणचिंतन, गुणगान, गुणाराधन और गुणो मे तन्मयतापूर्वक लग जाय। निश्चयदृष्टि से परमात्मवन्दना का अर्थ हे-आत्मा का अपने शुद्ध म्वरूप नाय प्रभु के प्रति गुणगान, गुणाराधन जाय। निश्चय Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक नामों से परमात्मा की वन्दना मे सर्वतोभावेन झुक जाना, नम जाना, उमी की स्तुति, गुणगान, गुणध्यान एव गुणचिंतन में लीन हो जाना। वास्तव में वन्दना वन्दनकर्ता को वन्दनीय पुम्प के पाम ला कर विठा देती है, उसे वन्द्य के निकटवर्ती बना देती है। वन्दना किस परमात्मा को ? वन्दना किमे की जाय ? वन्दनीय परमात्मा कौन हो सकते है ? इसका रहस्योद्घाटन इस स्तुति की प्रथम गाथा मे तो किया ही है। बाकी की सभी गाथाओ मे वन्दनीय परमात्मा का स्वरूप ही बताया है। प्रथम गाथा मे श्रीसुपार्श्वजिन, सुख सम्पत्ति का हेतु, शान्तसुधारस-जलनिधि और भवसागर मे सेतु (पुल) ये चार विशेषताएँ वन्दनीय परमात्मा की बताई है । ये चारो विशेषताएँ वीतरागता, अनन्तसुखप्राप्ति, अनन्तज्ञानादिसम्पत्ति, परम शाति के अमृतसागर (निर्वाणप्राप्त) इन परमात्मा के चार गुणो से अभिव्यक्त की जा सकती हैं। वास्तव मे वन्दनीय आदर्श भी जब उक्त परमगुणो से सम्पन्न हो, तभी उससे लाभ उठाया जा सकता है, अन्यथा हीनगुणो वाले एव रागी-द्वेपी सासारिक सुखसम्पत्ति या पारसमणि वाले व्यक्तियो को वदना करने से गुणवृद्धि नही हो सकती। हीन आदर्श के प्रति वदना हीन गुणो को प्रगट कर सकती है, सर्वोच्च परमगुणो को नही । यो तो वीतराग परमात्मा के नामो और गुणो का कोई पार नहीं है, किंतु फिर भी मकेत के लिए श्रीमानन्दघनजी अगली गाथाओ मे वदनीय परमात्मा के कुछ विशिष्ट गुणो और नामो का निर्देश करते हैं सात महाभय टालतो, सप्तम जिनवर, देव, ललना ! सावधान मनसा करी, धारो जिनपद-सेव, ललना ॥ श्रीसुपार्श्व ॥२॥ शिव, शंकर, जगदीश्वर, चिदानन्द भगवान, ललना । जिन, अरिहा, तीर्थकरू, ज्योतिस्वरूप असमान, ललना॥ ___ श्रीसुपार्श्व० ॥३॥ अलख, निरंजन, वच्छलु, सकलजन्तु-विसराम, ललना। अभयदानदाता सदा, पूरण आतमराम, ललना ।। श्रीसुपार्श्व०॥४॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अध्यात्म-दर्शन वीतराग-मदकल्पना-रति-अरति-भय-सोग; ललना । निद्रा-तन्द्रा-दुरंदशा-रहित अबाधित योग ; ललना ॥ श्रीसुपाश्च० ॥५॥ परमपुरुष, परमातमा, परमेश्वर, परधान; ललना! परमपदारथ, परमेष्ठी, परमदेव, परमान; ललना ।। श्रीसुपाश्व०॥६॥ विधि, विरंचि, विश्वम्भरू हृषीकेश, जगनाथ, ललना । अघहर, अधमोचन, धणी, मुक्ति-परमपद-साय; ललना। घीसुपाय० ॥७॥ एम अनेक अभिधा धरे, अनुभवगम्य विचार; ललना । जे जाणे तेहने करे, 'आनन्दधन' अवतार; ललना ।। . श्रीसुपार्श्व० ॥८॥ अर्य यह सप्तम तीर्थ कर सात महाभयों का निवारण करने वाले हैं, इसलिए हे अन्तरात्मारूपीसखी ! अप्रमत्तमन से वीतरागपरमात्मा के चरणस्मल की सेवा करो, अयवा चित्त को एकाग्र करके सावधान हो कर उसमे वीतराग परमात्मपद का ध्यान करो। वीतरागपरमात्मा के नाम शिव (कल्याणकारी या उपद्रवरहित), शकर (सुखकर्ता), जगदीश्वर (जगत् के ईश्वर-पति), चिदानंद (अनंतज्ञान और आनंद से युक्त), भगवान् (सनग्न ज्ञान, ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, वैराग्य आदि से युक्त, जिन (राग-द्वेषादि के विजेता), अरिहा (कर्मशत्रुओ का विनाश करके वाले), तीर्थकर (धर्मतीर्थ-मंघ की न्यापना करने वाले), ज्योतिस्वरूप (आत्मज्योतिर्मय) एवं असमान (ससार में अद्वितीय-अप्रतिम हैं। ___ आप अलक्ष (बहिरात्मा द्वारा अगम्य), निरंजन कर्मों के लेप से रहित), वत्सल (प्राणिमात्र के प्रति निष्काम वात्सल्य रखने वाले), समन्त जीवो के लिए विधामरूप, अभयदानदाता, समग्ररूप मे पूर्णता को प्राप्त, और एकमात्र आत्मा मे ही रमण करने वाले है । आप राग, द्वेष, समन्त मदो, विकल्पो, प्रोति-अप्रोति (रचि-अरुचि), भय Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक नामों से परमात्मा की वन्दना शोक, निद्रा, तन्द्रा (एक प्रकार के आलम्य), दुर्दशा (दुष्ट अवस्था) से बिलकुल रहित हैं। ___ आप पुरुषो मे उत्कृष्ट पुरुष है, उत्कृष्ट आत्मा है, परम ईश्वर है, सर्वोत्कृष्ट हैं, संसार के समस्त पदार्थों मे उत्तम पदार्थ है, परमेष्ठी (सर्वोच्च पद पर अधिष्ठित) हैं, देवो मे उत्कृष्ट देव (देवाधिदेव) हैं, उच्च से उच्च सम्मान के योग्य है अथवा समस्त साधको के लिए प्रमाणस्वरूप है। ___ आप विधि (मोक्षमार्ग के विधाता) है, ब्रह्मा (आत्मगुणो की रचना करने वाले) हैं, विश्व के आत्मगुणपोषक अथवा विश्व मे व्याप्त विष्णु हैं, इन्द्रियो के वशीकर्ता हैं, तीनो लोको के रक्षक होने से नाथ है, पापनाशक हैं, पाप से मुक्त कराने वाले हैं, स्वामी (अपने आपके मालिक अथवा विश्व के स्वामी) है, मुक्तिरूपी परमपद को प्राप्त कराने मे सार्थवाह (साथी) है। इस प्रकार आप अनेक नामो के धारक हैं, आपके गुणनिष्पन्न अनेक नाम है, जो स्वानुभव-स्वज्ञान से विचार करके जाने जा सकते हैं। इस तथ्य को जो जान लेता है (जो भव्यात्मा इस तरह से स्वरूप समझबूझ कर परमात्मवदन करता है) उन्हे वे आनन्द के समूह का अवतार (सच्चिदानन्दधनमय) बना देते हैं । इसलिए ऐसे परमात्मा की हम वन्दना-प्रणति-स्तुति-भक्ति करें। भाष्य वन्दनीय परमात्मा के अनेक गुणनिष्पन्न नाम इन गाथाओ मे श्रीआनन्दघनजी ने सप्तम जिनवर श्रीसुपार्श्वनाथ तीर्थकर की स्तुति के माध्यम मे परमात्म-वन्दना के सिलसिले में कौन-मे, किनकिन मुख्य गुणो वाले परमात्मा वन्दनीय हैं, इस सम्बन्ध मे उनके सार्थक नामो का उल्लेख किया है । ये सभी नाम गुण निष्पन्न हैं । इन कुछ परिगणित नामो के अतिरिक्त और भी अनेक नाम हो सकते है, यह भी उन्होने 'एम अनेक अभिधा धरे' कह कर बता दिया है । 'जिनसहस्रनाम' मे परमात्मा के हजार नामो का उल्लेख किया है . इसीलिए कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने वन्दनीय परमात्मा की पहिचान के लिए एक श्लोक में निर्देश कर दिया"जिस जिस समय (युग) मे, जो-जो, जिस किसी भी नाम से पुकारे जाते हो, ने एक ही है, उन गहापुरुष वीतराग भगवान् को नमन-वन्दन हो, बशर्ते कि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन वे समस्त दोपो गे रहित हो।' जैनधर्म किनी विशेष नाग का पक्षपात नहीं करना और अपने ही नाने हुए किसी नाम को वन्दनीय मानने का आग्रत रखना 1 उनकी शिनी भी महान आत्मा को वन्दनीय मानने की गुणनिपम एक ही गाँटी है, और वह है-"राग-गादि भवनमणकारक दोपो का जिनमे अस्तित्व न हो । उनी दृष्टिकोण को ले कर श्रीआनन्दधनजी इन स्तुति ग वन्दनीय परमात्मा के गुणनिष्पन्न नामो का कमा उल्लेख करते है। सात महाभय के निवारक जगत् के समस्त प्राणी अपने शरीर, इन्द्रियों, मन और प्राणों की तथा शरीर से सम्बन्धित राजीव-निर्जीव पदार्थों की रक्षा की चिन्ता में लगे रहते है, वे मुख्यतया सात महाभय हैं । वे मात महाभय इस प्रकार है--(१) इहलोकभय-इस लोक में मेरा क्या होगा? कौन मुझे सकटो मे वचाएगा? कौन खाने-पीने को देगा ? अथवा इन लोक में मेरी इच्छाओ की पूर्ति होगी या नहीं? मुकद्दमे, व्यापार-धंधे, परीक्षा आदि में मुझे सफलता मिलेगी या नहीं ? इस प्रकार की अहर्निश चिन्ता । (२) परलोकमय-पता नहीं, अगले जन्म मे मुझे नरकलोक मिलेगा या तियंञ्चलोक मिलेगा? अथवा मनुष्यलोक मिलेगा? और परलोक मे पता नहीं, कितनी यातनाएं सहनी पड़ेगी ? मनुप्यलोक मिल जाने पर भी शायद मुझे खराव वातावरण व अनेक नकटो से घिरा रहना पडे , इस प्रकार की नाना चिन्ताएँ। (३) आदानमय (माणभय)-अपनी धन-सम्पत्ति, या अन्य किमी ममत्त्वग्रस्त वस्तु के छीन जाने का डर, अथवा आदान यानी किमी से कोई वस्तु लेने जाने पर मिलेगी या नहीं ? इस प्रकार की फिक्र, या किमी भी प्रकार का सकट अथवा पीडा ने वचने की चिन्ता, अथवा किसी सकट के आ पडने पर अपनी या अपनी मानी हुई वन्तु की रक्षा का भय । (४) अकस्मात्भय =आकस्मिक मकट या दुर्घटना के उपस्थित हो जाने की भीति, (५) आजीविकाभय-अपनी जीविका या रोजी यत्र तत्र समये योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । नीतदोष-कतुष.स चेत्, एक एव भगवन् नमोऽस्तु ते ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक नामों से परमात्मा को वन्दना १५५ छूट जाने का डर अथवा मेरा रोजगार-धधा चलेगा या नही, अथवा व्यवसाय नही चला तो क्या होगा? इस प्रकार की रातदिन चिन्ता करना (5) अपयशभय-अपनी या अपनो की अपकीर्ति, अपयश, बदनामी, वेइज्जती या अप्रतिष्ठा होने का डर । फला जगह लोग मेरा अपमान करेंगे या मेरे पर झूठा कल क लगा देंगे तो क्या होगा? इस प्रकार की चिन्ता । और (७) मरणभयअपने अथवा अपने माने हालोगो के प्राणो का वियोग हो जाने का डर। उसके मर जाने पर मेरा क्या हाल होगा? अथवा मेरे मर जाने पर मेरे परिवार आदि का क्या हाल होगा ? हाय ! मैं इतनी जल्दी मर जाऊँगा ? मुझे मौत न आ जाय ? इस प्रकार मृत्यु का नाम सुनते ही काप उठना । एक और प्रकार से भय तीन प्रकार के है-आध्यात्मिकभय, कर्मजन्यभय और भौतिक (पौद्गलिक) भय । निम्नलिखित मातों भय आध्यात्मिकभय के अन्तर्गत हैं-काम, क्रोध, मद हर्प, राग, द्वेप और मिथ्यात्व । ये आत्मा के साथ रह कर आत्मगुणो की हानि करने वाले हैं । कर्मजन्यमय शुभाशुभ कर्मों से उत्पन्न होते है । उपयुक्त (इहलोकभय आदि) सातो भय कमजन्यमय के अन्तर्गत है । भौतिकमय-ये भय पुद्गलो की विकृति के कारण जीवात्मा को होते हैं । ये भौतिक भय सात प्रकार के हैं-रोग, महामारी, वैर, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, स्वचक्रभय, और परचक्रभय । ये भय मोहनीयकर्म के उदय वालो को अत्यन्त भयभीत करते रहते हैं और उन्हे वास्तविक सुखों से वचित कर देते है। इनके निवारण के लिए वे विविध उपाय करते हैं, इन्द्र, चन्द्र, नरेन्द्र आदि की सेवा करते हैं, फिर भी ये उपाय उन्हे भयरहित नहीं बना सकते। वीतराग-परमात्मा इन सभी भयो से रहित निर्भय होते हैं। उन्हे वडे से वडा भय भी विचलित नही कर सकता और न किसी प्रकार का भय उन्हे अपने स्वरूप से च्युत कर सकता है । बडे से वडे सकटो का सामना करने मे वे जरा भी नहीं घवराए । अपनी साधना के दौरान बड़े से बड़े विघ्न, परिपह या उपसर्ग आए, फिर भी वे तनिक भी नही डिगे।। ___ इसलिए श्रीआनन्दघनजी कहते है-भयाकुल आत्मा को पूर्ण निर्भय सुपार्श्वनाथ (वीतराग) परमात्मा की वन्दना और शरण ले कर भयरहित होना आवश्यक है । केवल शरीर और मस्तक को झुका लेना ही वन्दना नहीं है , किन्तु सावधान मन से अप्रमत्त हो कर मन-वचन-काया को एपान करके वीत Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन रागपरमात्मा की नरणमेवा (नवचा परमात्मपद का आगवन) रग्ना ही मच्चे माने में वन्दना है। इसमे मागे की गाथागो में वन्दनीय परमात्मा के गुणानापन नामो वा उल्लेख करते हुए श्रीआनन्दघनजी रहते है-शिवशंकर जगदीश्वरः । परमात्मा शिव है। यानी व किमी प्रकार का गद्रव मनाने वाले या मसार मे प्रलय का ताण्डव करने वाले नहीं है, वे मच्चे जयों में शिव-निगद्रव है। अथवा कल्याणम्प है, या विश्वहिन करने वाले है। अथवा वे ज़मों के उपद्रव के निवारक है। वे किसी का महार करने वाले नहीं है, अपितु महार को रोक कर करयाण करने वाले हैं। परमात्मा कर है, यानी प्रतिदिन मुख के करने वाले आत्ममुखरूप है । परमात्मा स्वर्गलोक, मयंलोक और पाताललोक तीनो लोको मे ऊपर होने के कारण, अथवा तीनो लोकों में उनका आध्यात्मिक आदेश प्रचलित होने में वे जगदीश्वर है। उनका ऐश्वर्य भी ईश्वर के समान होने से वे सच्चे अर्थ में जगदीश्वर हैं। वे ज्ञानानन्दमय होने से चिदानन्द है । ममग्न ऐश्वर्य, धर्म, वैराग्य, यश, श्री, मोक्ष इन छह वातो रो परिपूर्ण होने के कारण वे भगवान् है । अथवा भव (जन्ममग्णरूप नमार) का अन्न दिया है, इसलिए भगवान हैं । राग, द्वेप, पाम, क्रोध, मोह, लोभ आदि पर विजय प्राप्त कर लेने के कारण वे जिन (विजेता) है, आपने कर्मशत्रुओ को दवा दिये है, यानी उन्हें जीन लिये है, इसलिए अरिहा (अरिहत) कहलाते हैं । धर्मतीर्थ (श्रमण-धमणी-श्रावक-श्राविकारप चतुर्विध मघ) की स्थापना करने के कारण आप तीर्थकर हैं। इसी प्रकार आप मुक्त (सिद्ध) हो जाने पर केवल शुद्ध चैतन्य (आत्मा) से मदा ज्योतिर्मय (प्रकाशित) होने से ज्योतिस्वरूप है । आत्मा-परमात्मा की तुलना धर्मोस्तिकायादि पाच द्रव्य नही कर सकते, इमलिए आप असमान हैं, अथवा दुनिया में परमात्मा के मिवाय कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसके साथ आपकी नमानता की जा सके, इसलिए आप (परमात्मा) अममान हैं, अनन्य हैं अथवा फारसी भाषा मे अस्मान आकाश को कहते है, अत आकाश की तरह परमात्मा ज्ञानरूप से व्यापक या अव्यक्त है। । इसी तरह आप अलक्ष्य हैं, अर्थात् मन या बुद्धि से अगम्य हैं, वाणी से . Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक नामो से परमात्मा की वन्दना १५७ अनिर्वचनीय हैं, अक्षर से लिसे नहीं जा सकते, कोई भी अल्पज प्राणी आपको जान-देख या समज नही सका । आप सराार की मोहमाया से, कर्म, काया आदि में बिलकुल निर्लेप होने के कारण निरजन हैं। जो लोग यह मानते हैं कि ईश्वर निराकार होते हुए भी जगत् के दुखो को देख कर दुनिया मे पुन आ कर जन्म धारण करते है, इरा गत का इसमे खण्डन हो जाता है। क्योकि परमात्मा को निरजन-निराकार, अजर-अमर हो जाने के बाद पुन जन्म धारण करने या ससार के प्रपचो मे पड़ने की क्या आवश्यकता है? और जब उनके शरीर ही नहीं है, तव वे कैसे तो जन्म लेगे, कसे वाणी वोलेंगे, कैसे कोई कार्य करेंगे मत मुक्त अशरीरी परमात्मा निरजन होने से किसी भी सासारिक मोहमाया मे पडते नहीं। वे विश्ववत्सल भी है। इसका मतलब यह नहीं है कि वे जगत् के प्रति किसी कामना, राग या मोह से प्रेरित हैं। समभावपूर्वक समस्तप्राणियो का निष्कारण परमहित उनसे होता रहता है । वे जगत् के एकान्त निष्कारण परमहितपी है, आत्मीय है, विश्वमित्र हैं । इसलिए जगत्वत्मल है । जगत् के माता-पिता समान है। साथ ही वे चार गतियो व चौरासी लक्ष जीवयोनियो मे वारवार भटकने के कारण थके हुए जीवो के लिए विश्रामस्थान है, आश्रयस्थान है, पापी से पापी जीव को भी उनके पास बैठने में कोई भय या खतरा नहीं है, बल्कि उनके पास बैठने से क्रूर प्राणी भी शान्त और सौम्य बन जाता है। इसलिए प्रभु समस्त जन्तुओ के लिए विश्रामरूप है तया क्रू रातिक र प्राणी परमात्मा के पास निर्भयतापूर्वक आ-जा व बैठ सकते है, इसलिए उनका सदा अभयदानदाता नाम भी मार्थ है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बलवीर्य, सुख आदि आत्मा के अनुजीवी गुणो से परिपूर्ण होने के कारण परमात्मा पूरण हैं तथा प्रभु स्वय आत्मा मे ही स्थिर रहते हैं, आत्मा मे ही रमण करते हैं, इसलिए आत्माराम भी हैं। - इसके अतिरिक्त परमात्मा के और भी अनेको गुणनिप्पन्न नाम हैं। वे राग (मोह), मद (अष्टमद), सकल्पविकल्प, रति (रुचि), अरति (अरुचि), भय, शोक, निन्द्रा, तन्द्रा, (आलस्य), दुरवस्था आदि दोपो (जो कि छदमस्थ मे Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अध्यात्म-दर्शन होते हैं) से रहित है । उन्हें मन-वचन-लाया में योग कोई बाधा (काप्ट) मदद वीतराग-अवस्था मे नहीं पहुंचाते। विदेह (देहमुक्त) अवस्था मे तो उनमे उक्त योग होते ही नहीं। मननय यह है कि गमारी जीवो को अपने और अपनी लिए वात-वात मे राग (मोह), ममता हो जाती है। धन, बल, जाति, कुल, प्रभुत्व, (सत्ता, पद आदि), रूप, किसी वस्तु का लाग आदि पा कर उन्हें अगिमान (गर्व) हो जाता है, जरा-जरा-गी बातमे वे मकल्पविकल्प में बने-उतराते रहते है, ईप्ट वस्तु के वियोग और जनिष्ट के मयोग में अरनि (अरुचिघृणा) हो जाती है तथा अनिष्ट वस्तु के वियोग और इंप्ट के गयोग मे रति (रुचि हर्प) पैदा हो जाती है, बात-बात मे मार्त-रौद्रध्यान के विकरपणाल गू थने लग जाते हैं। थोडी-थोडी-सी बात को ले कर या जरा-सी अप्रिय घटना की सुराग मिलते ही भय पैदा हो जाता है , प्रियजन या प्रियवस्तु के वियोग और अप्रियजन या अप्रियवस्तु के सयोग मे शोक पैदा हो जाता है, वे हाहा- ' कार या हायतोबा मचा उठते हैं, अयवा रोने-पीटना या विलाप करने लगते हैं। दुनियादार लोगो को चिन्ता के कारण भले ही नींद न आती हो, वैसे ये द्रव्यनिद्रा मे भी वेसुध पड़े रहते है, भावनिद्रा मे तो प्राय मग्न रहते ही है, क्योकि वे आत्मस्वरूप में जागृत नही रहते हैं। साथ ही वे मात्मस्वरुप में रमण करने मे आलसी (तन्द्रापरायण) होते हैं, उन्हे योगो की चपलता प्रतिक्षण खिन्न-क्षुब्ध बना देती है।' उन्हे सासारिका विषयवासनालो में प्रवृत्त करती है । __ इसके विपरीत पूर्वोक कथानानुसार परमात्मा इन सब दोपो से विलकुल रहित है । वे दुनियादारी के इन दोपो से विलकुल अछूते है। क्योकि वे इन तमाम दोपो को नष्ट करके ही वीतराग बने है। राग, द्वेप, मद, करपना, रति, मरति, भय, शोक और दुर्दशा, ये सव मानसिक योग है और निद्रा तया तन्द्रा ये दोनो शारीरिक योग है, ये सब योग प्रभु मे न होने से उनम अवाधित-योगी नाम सार्थक हैं । इन सब दोपो से रहित होने से वे स्वय पुरुपो मे सर्वथा उत्कृष्ट (Superman) है , आत्मिकदृष्टि से महापराक्रमी होने से वे परम पुरुप कहलाने योग्य है । उनकी आत्मा परमात्मत्वपद को प्राप्त होने से वे परम आत्मा=परमात्मा है । तथा सुमतिनाथ तीर्थकर की स्तुति मे परमात्मा के बताये हुए लक्षण के अनुसार वे वहिरात्मा और अन्तरात्मा से आगे बढ़े हुए Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक नामो से परमात्मा की वन्दना १५६ परमात्मा हैं। तथा प्रभु का परमेश्वर नाम भी सार्थक है, क्योकि तीर्थंकर अवस्था मे थे, तव वे सर्वोच्च ऐश्वर्यसम्पन्न थे, सब पर आध्यात्मिक दृष्टि से धर्मशासन करते थे। इसके अतिरिक्त प्रभु पुरुपो मे प्रधान मुख्य भी हैं ; क्योकि आपके नाम की सर्वत्र महिमा है। दुनिया के सर्वोत्कृष्ट पदार्थ होने से अथवा मोक्षरुप उच्चपद ही आपका अर्थ (साध्य) होने से आप परमपदार्थरूप है। इसी तरह आप सबके लिए मनोज्ञ ईप्ट वस्तु को प्राप्त किये हुए । होने से परमेष्टी हैं, अथवा आप परम-उत्कृप्ट ईष्ट ज्ञान (केवलज्ञान) को प्राप्त है, इसलिए परमेष्ठी हैं । आपका एक नाम परमदेव भी है। आप परमदेव या महादेव इसलिए हैं, कि दूसरे देव तो रागी-द्वेपी आदि भी हो सकते है, परन्तु आप तो वीतराग हैं, राग-द्वेपरूपी महामल्लो को आपने जीत लिया है। इसलिए आपका परमदेव नाम सार्थक है । आप ससार के समस्त साधको के लिए प्रमाणरूप है । अथवा प्रभु स्वय प्रमाणभूत हैं, उनके साथ किसी की तुलना नही हो सकती ? __ इसके अतिरिक्त परमात्मा विधि हैं-मुमुक्षु (मोक्षार्थी) के लिए विधिमार्ग कौन-सा है, निषेधमार्ग कौन सा है ? इसका यथार्थ विधान करने वाले है अथवा अपनी आत्मा को शुद्धरूप मे स्थापन करने मे विधाता है। द्वादशागी आगमो की अर्थरुप से रचना (निर्माण) करते हैं--प्ररूपणा करते हैं , इसलिए आप विरचि = ब्रह्मा है । अथवा अपने आत्मगुणो की स्वय रचना करने वाले होने से विरचि ब्रह्मा है । आपका आदेश-उपदेश ससार के लिए आत्मगुणपोपक होने से आप विश्वभर है । अयवा आपकी आत्मा मे सारे जगत् की रक्षा वसी हुई होने से भी आप विश्वम्भर है--विश्व-परिपूर्ण है । प्रभु इन्द्रियो के ईश स्वामी होने से अथवा प्रभु के किसी प्रकार की इच्छा नही है, वे समस्त इच्छाओ के स्वामी होने से हपीकेश कहलाते हैं । ज्ञान द्वारा प्राणिमात्र की रक्षा करने मे कारणभूत होने से आप जगत् के नाथ (रक्षक) है । आप अघ यानी पाप के हरने वाले हैं अथवा आपको वन्दन करने से पाप पलायित हो जाते हैं, इसलिए आप अघहर है। आपमे एकाग्र होने वाले तथा आपका नामम्मरण करने वाले पाप से छूट जाते है, अयवा पापी से पापी व्यक्ति के पाप आपके पास आते ही छूट जाते है, इसलिए आप अघमोचन भी हैं । अथवा स्व-आत्मा को शुभाशुभ अघ=आश्रव से मुक्त करते-कराते है, इसलिए आप Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अध्यात्म-वान अघहर एर जबमोचन है । आप अपने अनन्त आत्मगुणो के धनी है, अथवा जगत् के धणी खामी हैं, मानिक है। तीर्थकगे को सभी लोग स्वामी मानते है । आप मुत्तिरप परमपद मायाह है। सनार के समस्त ताप का शमन करने वाला, एकान्तगुग का धाम मोक्ष है, जहां जनम-जरा-गरण नही, आधि-व्यावि-उपाधि नहीं है, उस परमसुखरूप मोक्ष को प्राप्त करने में आपसार्थवाह की तरह साथ देने वाले-सहायगा है । इस प्रकार पूर्वोन्नत गाथाओ मे वीतराग परमात्मा के 'शिव' गे लेकर 'गुक्तिपरमपदसाय' तक कुल ४५ मुख्य-मुख्य मार्थक नाम वताए हैं, और भी अनेका नाम उनके हो सकते हैं। ' इसलिए श्रीजानन्दघनजी अन्तिम गाथा मे कहते हैं-'एम अनेक अभिधा घरे' यानी हम परमात्मा के नाम यहाँ तक गिनाएँ ? उनके अनेको नाम हो मरते हैं । जो साधक जिम गुण का अपनी आत्मा मे अनुभव करना चाहता है, वह उस गुण से युक्त नाम को ले कर प्रभु का स्मरण करता है-उस, गुण पर विचार करता है तो उसके लिए वह नाम अनुभवगम्य हो जाता है । अथवा परमात्मा का रूप विचारपूर्वक अनुभव से ही जाना जा सकता है। जिस गुग का अनुभव जिसे हो गया है, वह यदि उसे अपना ध्येय बना कर विचारपूर्वक ध्यान करता है तो वह ध्याता आनन्दघनरूप हो जाता है, वह अपने जीवन का अवतरण आनन्दमय बना लेता है, अथवा अपनी आत्मा को आनन्दघनरूप - मांचे में ढाल लेता है। मतलब यह है कि उपयुक्त गुणो से परिपूर्ण प्रभु का जो भलीभांति जानता है, उनका ध्यान करता है, वह तद्रप हो जाता है, सच्चिदानन्दमय बन जाता है। सारांश इस प्रकार इस स्तुति में वन्दनीय परमात्मा के गुणनिप्पन्न नाम बताने के साथ-साथ अन्त मे परमात्म-वन्दना का फन भी बतला दिया है, जिसे भलीभांति जान कर प्रभु की वन्दना-नमन-स्तुति-भक्ति-सेवा करके अपना जीवन सफल करना चाहिए। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ श्रीचन्द्रप्रभजिन-स्तुति परमात्मा का मुखदर्शन (तर्ज-कुमारी रोवे, आनन्द करे, मुने कोई मुकावे, राग-केदारो या गौड़ी) देखण दे रे, सखी मुने देखरण दे चन्द्रप्रभु मुखचन्द, सखी। उपशमरसनो कंद, सखी, गतकलिमल-दुखद्वन्द, सखी० ॥१॥ अर्थ आत्मा की शुद्ध (ज्ञान ) चेतना अशुद्ध चेतना-सखी से कह रही हैहे सखी। मुझे इस अवसर्पिणीकाल के आठवें तीर्थकर श्रीचन्द्रप्रभु [वीतरागपरमात्मा के मुखरूपीचन्द्र के दर्शन कर लेने दे, क्योकि परमात्मा का मुखचन्द्र शान्त (उपशम) रस का मूल है, और वह क्लेश, रागद्वषरूपी मैल (विकार) व समस्त दुःख; से दूर है। भाष्य परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन क्यो ? पिछली स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्म-वन्दना के सम्बन्ध में सागोपागरूप में बताया था, परन्तु वन्दना मे जो अभिमुखता होनी चाहिये, वह तो केवल अमुक गुणनिप्पन्न नाम ले लेने या तदनुसार जप कर लेने से नही हो सकती, वह तो प्रभु के शान्त- अमृतरसपूर्ण, समस्त कलको व मलिनताओ से रहित पूर्णचन्द की तरह मुखचन्द्र के दिखाई देने पर ही भलीभाँति हो सकती है, इसलिए श्री आनन्दघनजी श्रीचन्द्रप्रभु तीर्थकर की स्तुति के माध्यम से परमात्मा के शान्त, निर्मल मुखचन्द्र का दर्शन करने को उत्कण्ठित-परमउत्सुक हो कर आत्मा की एकान्तहितपी शुद्धचेतना द्वारा अपनी अज्ञानचेतनारूपी सखी से कहलाते है कि 'तू प्रभु के मुखचन्द्र को देखने दे।' - यहाँ श्रीआनन्दघनजी ने सखी को सम्बोधन करते हुए प्रभुमुख के दर्शन की जो वात कही, उस पर से प्रश्न होता है कि क्या अब तक आत्मा की ज्ञान Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अध्यात्म-दर्शन नेतना (गक्ति) प्रभु का मुखचन्द्र देखने में पावट डाल रही थी कि उने गम्बोधन करके कहना पडा-सपी, मने देखण दे। __इसके उत्तर गे यही गाहा जा गलना है कि आत्मा अब तक अनेक गतिमा और योनियो में जननबार गरिनमण पर आई, पर नहीं तो जात्मा को शुद्ध (मान) चेतना पर नना गाट आवरण आ गया था कि प्रमुरे, मुखनन मा दान ना दूर नहा, उसकी कामना भी नहीं हो साती थी, कही वरपना तो हो सकती थी. पर उग पर भी आवरण या। वहीं सोडा आवरण था, तो भी मिध्यान्वये गाद तिमिर ने सारण आत्मा रगंन नही कर गकी। पही कारण है कि जब नका आत्मा नी नेतना ही भमुम के दर्शन करने में बाधक बनी रही । अब गनुष्यजन्म में सम्यग्दर्शन प्राप्त हान पर बहन-सगो मे वर अनुकूल बनी है, नीलिए श्रीआनन्दधनजी आत्मा की हिनैपिणी गद्ध (गाग) चेतनास्पी राखी द्वारा जाब-नेतनासती से करलान --गाय तो मुझो चन्द्र-पभु (परमात्मा) ने गुरुवन्दना दान न न द । अब नो दशन म अन्तराग गा टालावत जन्मोनका तुने गरी आमा को जघर मे रखा, उसके ज्ञान नेनो पर पर्दा डाल दिया, जिनगे वह परगात्मा के उज्ज्वलमुखचन्द्र को देख न गयी। अव वीतराग परमात्मा के मुराचन्द्र को दवन की मेरी इच्छा तीन वनी है, और प्रभु ने वातविक गुपचन्द्र पा भलीभांति दर्शन करने मे तू ही बाधक हो रही है। मेरी बाधाला कारण इन वाह्यनेत्रो में मैं अब तक प्रभमुख देगने का प्रयत्न करती रही, परन्तु परमात्मा के असली मुखचन्द्र के दर्शन नहीं कर गयी। अगर मैं इन मनुष्यजन्म मे और इतने उत्तमधर्म, गम्यग्दर्शन एवं समस्त उत्तम निमित्त-एवं अवसर को पा कर भी परमात्मा के यथार्थ मुखचन्द्र को नहीं देख सकी, तो मेरा जन्म वृथा हो जायगा । पता नहीं, फिर ऐना शुभ अवसर मिलेगा या नहीं । अन तु मुझे परमात्मा के मुखचन्द्र के दर्शन इस जन्म मे तो अवश्य करने दे।" यहाँ वार-बार 'देखण दे' गब्द का प्रयोग करना पुनरनिदोप न हो कर कविता का गुण है, यहां बार-बार 'देखण दे' शब्द का प्रयोग परमात्मा के मुन- . चन्द्र के दर्गन की आतुरता, या तीवेच्छा को सूचित करता है। परमात्म-मुखदर्शन की आतुरता क्यो ? सवाल यह होता है कि जगत् मे मातापिता, भाई, परिवार में अपने से Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का मुखदर्शन ज्येष्ठ, अथवा अध्यापक, राष्ट्रनेता या समाजमान्य पुरुप अथवा अन्य किसी वडे माने जाने वाले व्यक्ति के मुखदर्शन की आतुरता न हो कर परमात्मा के मुखदर्शन की ही आतुरता क्यो है ? इसका समाधान श्री आनन्दघनजी प्रभुमुख की दो विशेषताओ द्वारा प्रगट करते हैं-'उपशममरसनो कद तथा 'गतकलिमल-दुःख द्वन्द । तात्पर्य यह है कि सासारिक व्यक्ति, फिर वे चाहे कितने ही महान् क्यो न हो, जब तक छमस्थ हैं, तब तक रागद्वेप आदि विकारो या कर्मरूपी कीचड से मलिन बने हुए हैं, उनके जीवन मे कषायो की आग सुलगती रहती है, चाहे वह धीमी आच मे ही हो । इसलिए उनका मुखचन्द्र अनेक कपायो से सतप्त होने से यणात वना हुआ, कामादिअनेक विकारो या कमों व रागद्वेपादि से मलिन वदु खो से युक्त बना हुआ है, इसलिए उनका मुखचन्द्र भौतिक दृष्टि से भले ही सुन्दर या दर्शनीय हो, आध्यात्मिक दृष्टि से या आत्म-विकास की दृष्टि से उनका मुख दर्शनीय नही कहा जा सकता, जवकि परमात्मा का मुख पूर्णिमा के चद्रमा की तरह निप्कलक एव परिपूर्ण है, वह कपायो से रहित होने के कारण शान्तरस का मूल है, उसमे से शान्तसुधारस टपक रहा है। और उसमे रागद्वप, कामक्रोध आदि विकारो या कर्मों का मैल बिलकुल न होने से वह सभी प्रकार के कलक, क्लेश के मैल , या विकारो की मलिनता से सर्वथा रहित है । चन्द्रमा मे तो फिर भी कलक रह सकता है या उसकी कला मे घट-बढ हो सकती है, लेकिन प्रभु-मुखचन्द्र मे न तो कोई कलक रह सकता है और न ही उनके गुणो मे कोई घट-बढ हो सकती है । यही कारण है कि अन्य सासारिक मुखचन्द्रो को छोड कर यहाँ परमात्मा के शान्त, निर्मल, निर्विकार मुखचन्द्र के दर्शन की तीव्र उत्तष्ठा प्रदर्शित की है। परमात्म-मुखचन्द्र से तात्पर्य यह कहा जा सकता है कि परमात्मा जव निरजन, निराकार एव अशरीरी सिद्ध हो गए, तव उनके मुख ही नही रहा, फिर उनके मुख-दर्शन की वात कमे सगत हो सकती है? वास्तव मे व्यवहार की दृष्टि से १३वे गुणस्थानसयोगीकेवली वीतरागप्रभु शरीरधारी होते हैं , उनके मुखचन्द्र के दर्शन का विधान यहां भूतनगमनय की दृष्टि से समझना चाहिए । निश्चयनय की दृष्टि से तो शुद्ध-सिद्व-स्वरूप, परमात्मा के शुद्धज्ञानरूप मुखचन्द्र का दर्शन समझना चाहिए। क्योकि दूसरे मुख तो सप्तधातु से बने MISTRImgarpramma rgeog rapmmmmm TAMITTINE.mmm Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अध्यात्म-दर्शन हुए, मुखचन्द्र हैं, और वे तो सदा मलयुक्त रहते हैं। 'असुई असुईमम' म शाम्नवचनानुसार शरीर का प्रत्येक अवयव अत्रिमय है, मनिन है। मुक्त परमात्मा का ज्ञानरपी मुवचन्द्र तो सदा गविन और शट्ट रहता है. उसमे विकार या अगद्धता को कोई न्यान ही नहीं है। मष्टिगे यहाँ मिद्ध परमात्मा के ज्ञानम्प मुवचन्द्र का दर्शन ही अभीष्ट है। व्यवहारपिट मे भी गोचा जाय तो वर्तमान में श्रीचन्द्रप्रभु तीर्थकर प्रत्यक्ष नहीं है, वे तो मुक्ति में विराजमान है। बत परीक्षा में उनको मुखचन्द्र के दर्शन कैने किये जा सकते है ? यह एक गवाल है। इसलिए यहाँ भी नयोगीकेवली गरीरधारी वीतराग परमात्मा के मुवचन्द्र के दर्शन से ज्ञानम्प मुठचन्द्र अथवा शद्ध आत्मभावत्पी मुखचन्द्र के दर्शन ही अभीष्ट है, ऐसा प्रतीत होता है । क्योकि वही मुखचन्द्र उपशमरग का कद एव गमग्न क्लेश, मानिन्य एव दुख-दृन्दो से रहित है। माथ ही ऐगे परमात्म-मुखचन्द्र के दर्शन करने का अधिकारी भी ज्ञानचेतनायुक्त मम्यग्दृष्टि आत्मा होना चाहिए, तभी वह परमात्मा के मुत्रन्द्र पर छिटकती हुई उपशमरस की चांदनी देख सकेगा नया गगडे पादि कलिमल और दुख-द्वन्द्व से रहित निर्मलता का निरीक्षण कर सकेगा। ___ इस प्रकार में दर्शन करने वाले को ही मवर-निर्जरारूप महान् धर्म का लाभ मिल सकता है। अन्यथा, शुद्ध आत्मभावरूपी मुखचन्द्र या शुद्धज्ञानमय मुखचन्द्र की उपेक्षा करने केवल मुखचन्द्र के सम्यग्भावनाहीन दर्जन में डरा महान् धर्म का लाभ नहीं हो सकता। इसी दृष्टिकोण मे अगली कुछ गाथाओं में किस-किस गति और जीवयोनि मे कहाँ-कहाँ परमात्मा के उक्त मुखचन्द्र के दर्शन नहीं हो सके, इसका वर्णन श्रीआनन्दघनजी मार्मिक शब्दो मे करते हैंसुहम निगोदे न देखियो, सखि! बादर अति हि विशेष ॥ स० ॥ पुढवी आऊ न लेखियो सखि तेऊ वाऊ न लेश ॥ सखी ० ॥२॥ वनस्पति, अतिघरग दिहा, स०, दीठो नहिं दीदार ॥ स० ॥ बि-ति- चरिदिय-जललीहा, स० ; गतसन्निपरण धार ॥स०॥३॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का मुखदर्शन १६५ सुर-तिरि- निरय-निवासमा, स०; मनुज-अनारज साथ । स० । अपज्जत्ता प्रतिभासमां, सखि०, चतुर न चढ़ियो हाथ ॥ सखी० ॥४॥ इम अनेक थल जारणीए, स०; दर्शन-विणु जिनदेव; स० । आममथी मत जाणीए, स०, कीजे निर्मल-सेव ॥ स०॥५॥ अर्थ हे सखी। मैने सूक्ष्म निगोद (साधारण वनस्पतिकाय) मे परमात्मा के मुखचन्द्र को नहीं देखा, और बादरनिगोद (साधारण वनस्पतिकाय के वादर निगोद) मे भी खासतौर से उनका मुख नहीं देखा। तथा पृथ्वीकाय और अप्काय नामक एफेन्द्रियजीव के रूप में भी प्रभुमुख के दर्शन नहीं किये और तेजस्काय (अग्निकाय) और वायुकाय के भव मे भी मुझे लेशमात्र दर्शन नहीं हए। ॥२॥ प्रत्येक वनस्पतिकाय (वृक्ष आदि) के रूप मे बहुत लम्बे काल (दीर्घकाल) तक रहा, लेकिन हे ज्ञानचेतनारूपी सखी! मैने प्रभु का दीदार नहीं देखा। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियो वाले जीव), त्रीन्द्रिय (तीन इन्दियो वाले जीव, और चतुरिन्द्रिय (चार इन्द्रियो वाले जीव) मे भी रहा, लेकिन वहाँ भी पानी पर खींची हुई लकीर की तरह (दर्शन के बिना) वृथा समय खोया, कुछ भी दर्शन पल्ले नहीं पडा । असजी (द्रव्यमन से रहित) पञ्चेन्द्रिय जीव के रूप मे जन्म धारण करने पर भी यही हाल रहा। ॥३॥ सज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-अवस्था में भी मै सुरगति (भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, इन चार प्रकार के देवो की योनि) मे रहा, तिर्यञ्चगति (कुत्ते, बिल्ली, हाथी, घोडे आदि सज्ञी, तिर्य चपचेन्द्रिय जीवयोनि) मे रहा, तथा नित्य (नरक) गति (सातो ही नरको की नारकमूमियो) मे निवास किया; इसी प्रकार मनुष्यगति, प्रभुमुखदर्शन के योग्य सज्ञोपचेन्द्रिर मनुष्ययोनि) मे आया, लेकिन यहा अनार्यमनुष्यो का सहवास (सम्पर्क) मिला, तथा अपर्याप्त (सातो पर्याप्तियो की पूर्णता से होन) अवस्था मे एव प्रतिभासरूप पर्याप्त-अवस्था मे भी रहा, लेकिन चतुर परमात्मा मेरे हाथ नहीं आए, यानी सोंपञ्चेन्द्रिय की इन जीव-योनियो मे भी प्रभु-मुख के दर्शन से मैं वचित हो रहा । ॥४॥ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याना-दर्शन इस प्रकार समझ लो फि में पूर्वोक्त अनेक स्थानो में श्री वीतराग परमात्मदेव के (मुख) दर्शन के बिना ही रहा । यह ममम्न (पूर्वोक्त) अभिप्राय [विचार] वीतरागप्ररूपित आगमो [शास्त्रो मे हम जान सकते हैं। अतः हे ज्ञानचेतनारूपी सखी ! अब तो मुझे [जबकि में प्रभावदर्शन को योग्यता के लिए सम्यग्दृष्टि पा गया है] प्रभु के मुखचन्द्र का दर्शन करने दे, और आगमो के वर्णन मे समझ कर निर्मल [निवन्ध हो कर] मन-वचन-फाया को एकाग्र करके प्रभु की सेवा-भक्ति कर लेने दे । ॥५॥ विविध गतियो और योनियों में प्रभु मुखदर्शन से बचित रहा इस स्तुति की प्रथम गाथा मे परमात्मा के मुनचन्द्र गा बिम्न. उसके दर्शन का महत्व और दर्शन की नीव्रता बतलाई। परन्तु प्रभुमुख के दान इतने समय नक माधक की आत्मा ययो नहीं कर गकी? क्या कारण था दर्शन के लाभ में वचित रहने का? यह बान नहीं बताई गई थी। अत, गी वान को चार गाथाओ द्वारा श्रीआनन्दघनजी अभिव्यक्त करते हैं। वास्तव में पूर्वोक्त विवेचन के अनुसार नहीं माने में वीतराग परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन सम्यग्दृष्टि आत्मा ही कर सकता है। अपने सिवाय जितनी भी गतियो और योनियो में जीव जाता है, वहां प्रभुमुल का दर्शन तो दूर रहा, उसकी जरा-नी करपना भी नहीं होती, ऐना विचार ही नहीं उठता। दमी बात को श्री आनन्दघनजी क्रमश कहते हैं मेरी आत्मा मूश्मनिगोद नामक माधारण वनम्पतिकाय में रही, जहाँ अगुल के अमख्यातवें भाग जितने एक ही शरीर में (अनन्तजीवो के लिए एक ही शरीर मे, एक ही माथ श्वासोच्छ्वास और जन्म-मरण करते हुए) अनन्तकाल तक रही, परन्तु वहाँ तो अपने ही अस्तित्व का भान न था, वेसुध चेतना थी, वहाँ भला प्रभुमुखदर्शन कहाँ हो सकता था? औरः वादर निगोद वनस्पतिकाय मे भी अनन्तकाल तक रहा, मगर वहाँ भी सूक्ष्मज्ञानचेतना न होने से दर्शन न हो सका। यही हाल पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवो के रूप में रहते हुए रहा । वहाँ स्पर्शेन्द्रिय ही थी, द्रव्यमन या नहीं, जिगमे में चिन्तन कर सकता, और प्रशु Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का मुखदर्शन १६७ मुखदर्शन कर सकता। प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के रूप मे बहुत दीर्घकाल तक (उसकी स्थिति बहुत लम्बी होने के कारण) रहा, लेकिन वहाँ - भी प्रभु के मनोरम शान्त दीदार को व सूक्ष्मज्ञानचेतना और विचार करने के लिए द्रव्यमन न होने के कारण नही देख सका। इसी प्रकार वहाँ से आगे बढ कर मेरा जीव दो इन्द्रियो (स्पर्शन एव रसना) वाले जीवो मे गया, जहां मैं स्वाद तो लेने लगा, परन्तु आँख के अभाव मे प्रभु को देख कैमे सकता था, यही हाल तीन इन्द्रियो (स्पशन, रसना एव प्राण इन्द्रिय) वाले जीवो मे उत्पन्न होन पर हुआ। उसके आगे प्रगति करके मेरा जीव चतुरिन्द्रिय (स्पर्शन, रसना, नाण आर चक्ष इन चार इन्द्रियो वाले) जीवो में पैदा हुआ, वहाँ भी प्रभुदशन के लिए आँख तो मिली, परन्तु अन्तर की आँख न मिलन वहाँ भी दर्शन न हो सके। यहाँ तक आ कर भी मैने पानी पर लकीर खीचने की तरह व्यर्य ही जन्म खोए। मुझे स्पर्शन, रसना, नाण, चक्षु और कर्ण ये पांचो इन्द्रियाँ भी मिली, लेकिन द्रव्यमन नही मिलने के कारण वीनरागप्रभु को प्रभु के रूप मे जाना-समझा भी नही, विचार भी न कर सका। इसलिए अमजी-पचेन्द्रिय जीव के रूप में जन्म लेना भी व्यर्थ गया। इसके बाद मेरा जीव पर्वतीय नदी मे इधर-उधर लुढकने से चमकीले बने हुए गोलमटोल पत्थर की तरह विविध योनियो मे भटकता-भटकता किसी - तरह चार प्रकार के देवनिकायो मे से अनेक देवयोनियो मे पहुँचा। वहाँ पांचो इन्द्रियां, मन आदि मिले, भोगसामग्री भी पर्याप्त मिली, वैपयिक सुख भी पर्याप्न मिला, वैक्रिय गरीर मिला, लेकिन वहां भी मैंने अपना समय प्रभुमुखदर्शन मे न विता कर राग रग, भोगविलास और वैपयिक सुखो और कपायो मे ही विताया। अत वहाँ वीतरागप्रभू को प्रभु के रूप में जानने-समझने का प्रयास भी न किया। कई बार मैं तिर्यच-पचेद्रिय की विविध योनियो मे गया। वहां मैं जलचर, स्थलचर, सेचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के रूप मे विविध स्थानो मे पैदा हुआ, वहा मुझे मन भी मिला, लेकिन विवेक-विकल होने से उसका उपयोग अन्यान्य विषय-कपायो मे ही हुआ, परमात्मा के मुख को देखने का विचार तक मेरे मन में नहीं Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अध्यात्म-दर्णन विचार भी गा कि दुखो बारनाओ माया। हालाकि चाहता तो मैं वैसा विचार कर भरता या। इम रिक्त जातो नरको में मैं अनेक बार जन्मा, बहन नये समय नक वहाँ रहा । वहाँ वनिय शरीर, पांवो इन्द्रियों और मन भी मिले, विभगनान भी जन्म में ही मिला। लेकिन नरको मे अनेक दुगो और यातनाओ को सट्ने-गहने में इतना अधीर नीर बेचैन हो गया कि दुखी और मयों से आयान्त मेरे दिमाग मे कभी यह विचार भी नरी आना था कि मैं परमात्मा के मुगचन्द्र का दर्शन करें। इन सब घाटियो यो पार करने में विशेष पुण्य के कारण मजी-पन्वेन्द्रिय मनुप्य बना। पांचो इन्द्रियां, स्वत विद्यापील मन नया विविध माधन भी मिले, यहां प्रभुमुखदर्शन करने के योग्य शरीर, मन, इन्द्रिय, बुद्धि, साधन आदि भी मिले, लेकिन अनार्यक्षेत्र, अनार्यकुल, बनार्वजाति, मनार्यकर्म एवं अनार्यवातावरण मिला। अनार्य मनुप्यों के सहवास में रात-दिन रहने वाले व्यक्ति के मन में कार्यकर्म की प्रेरणा कैसे हो सकती ची? और आर्यकर्म की प्रेरणा अन्तर्मन मे जागे विना वीतरागमुखदर्शन की लगन कैसे पदा हो सकती थी? यही कारण है कि इतना उत्तम मनुष्यजन्म पा कर भी मैन व्यर्थ खो दिया। यहां भी मूक्ष्मन्नानचेतना-शून्य होने में में प्रभुमुखदर्शन से वचिन ही रहा। यहां मुझे कमी छहो पर्याप्नियां पूरी नहीं मिली, कभी छहो पर्याप्तियां पूरी मिली तो भी शुद्धज्ञानचेनना न होने से चतुर प्रभु मेरे हाथ मे बाए ही नहीं। मैं टुकुर-टुकुर देखता ही रह गया, मगर प्रभुमुखदर्शन न हो सके। इस प्रकार श्रीआनदघनजी अपनी लवी आत्मयात्रा का इतिहास कहते-कहते उपसहार करते हैं- मैं एकेन्द्रिय मे ले कर पञ्वेन्द्रिय नक के अनेक स्यानो मे भटका और दीर्घकाल तक रहा। चार गतियो मे से कोई भी ऐसी गति, ८४ लाख योनियो में से कोई भी ऐसी योनि, तथा पांच जातियों में से कोई भी ऐसी जाति; सक्षेप मे मसारी जीव के सभी प्रकारो मे से कोई भी ऐसा प्रकार नही छोडा, जहाँ मैने जन्म न लिया हो, ' मगर किसी भी जगह मैने - १. न सा जाई, न सा जोणी, न त ठाणं, न त कुलं । , न जाया, न मुआ जत्य, सत्वे जीवा अगतसो ॥-उत्तराध्ययन-सूत्र Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का मुखदर्शन १६६ प्रभुमुखदर्शन नहीं किये। मैं इन सब जगहो मे मारा-मारा भटकता फिरा, लेकिन प्रभु-मुख दर्शन से विहीन ही रहा। । कोई कह सकता है कि श्रीआनन्दघनजी अवधिज्ञानी या केवलज्ञानी, अथवा जातिस्मरणज्ञानी तो थे नही, उन्हे यह सब कैमे मालूम हुआ कि “मै अमुक-अमुक जगह एकेन्द्रिय से ले कर पवेन्द्रिय तक मे गया, लेकिन कही भी प्रभु-मुख-दर्शन नहीं कर सका ?" इसी शका का समाधान करने हेतु श्री आनन्दघनजी नम्रतापूर्वक कहते है-'आगमथी मत जाणीए""" यह बात मैं अपने किसी प्रत्यक्षज्ञान या जातिस्मरणज्ञान के बल पर या कपोलकल्पित व मनगढत नही कह रहा हूँ, अपितु आगम (आप्त वीतरागपुरुषो के वचन) के आधार पर कह रहा हूँ। कोई भी सुविहित सुदृष्टि पुरुप जिनप्ररूपित आगमो से इस (उक्त) मान्यता का मिलान कर सकता है , क्योकि साधु के लिए२ आगम ही नेत्र है। परमात्ममुखदर्शन की तीव्रता श्रीआनन्दघनजी अपनी अन्तर्व्यथा के साथ परमात्ममुखदर्शन की तीव्रता व्यक्त करते हुए कहते है - "इस प्रकार मै अनन्तकाल तक विविध गतियो और योनियो मे यात्रा करता रहा, लेकिन प्रभुमुखदर्शन नहीं कर सका। मुझे पुन मनुष्यशरीर, उत्तम कुल, आर्यक्षेत्र-जाति-कुल-कर्मादि मिले हैं, शुभकर्मों के फलस्वरूप अच्छा वातावरण और उत्तम सत्सग भी मिला, और सम्यग्दर्शनरूपी रत्न भी मिला है, अत अब इसे व्यर्थ ही नहीं खोना चाहिए । अगर इस जन्म मे प्रभुमुखदर्शन का अवसर चूक गया और शुद्धात्मा के दर्शन नहीं कर सका तो पहले की तरह फिर विभिन्न गतियो और योनियो मे भटकने के सिवाय कोई चारा नही है। इतना सारा काता पीजा पुन कपास हो जायगा । इसीलिए शुद्धचेतनाल्पी आत्मा अपनी अशुद्धचेतनरूपी सखी से पुन -पुन कहती है-"देखण दे, सखी | मुने देखण दे।" अत परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन करके अपना मनुष्य-जन्म सार्थक कर लेना चाहिए। पर परमात्म-मुखदर्शन कैसे किया जाय ? इसकी विधि २. 'आगमचक्खू साहू'-प्रवचन सार Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अध्यात्म-दर्शन क्या है ? इसके लिए श्रीमानन्दघनजी यहते है--जिन नापिन आगमो में प्रभु का सच्चा म्बरप ममल कर शुद्ध निर्गल (निस्वार्थ, निकाम, निबंध) चित्त से परमात्मा की सेवा कगे, उनमें ओतप्रात हो जानो, यानी तुम्हारी आत्मा को निर्मल बना कर परमात्मा मलीन करो अपवा परमात्मभाव में रमण करो, जिगसे परमात्मा के यथाय गुवचन्द्र दांग हो जाएगा। जो लोग परमात्मदेव का गच्चा ग्वरूप नहीं गगन र गगार में प्रचलिन विविध नामो वाले रागी, द्वेपी, कामी, कोत्री या विमारी पिसी देवी, देव को या भौतिक शक्तिसम्पन व्यक्ति को भगवान् प्रभु या परमात्मा मान कर उसके मुखदर्शन को ही यथा मुखदर्शन मानते है, उनके उक्त मन का खण्डन भी प्रकारान्तर से इसके द्वारा हो गया । इसी दृष्टि से श्रीमानन्दघनजी परमात्मा के मुखचन्द्र के दर्शन यानी परमात्मा = शुद्धात्मा के गत्म्वरूप के गाक्षात्कार का उपाय अगली गाया में बताते हैं निर्मल साधुभगति लही, स०; योग-अवंचक होय। ससी० ! क्रिया-अवचक तिम सही, स०; फल-अवंचक जोय ।। स० ॥६॥ अर्थ आत्मा निर्मल साधु-साध्वियो की भक्ति प्राप्त करके जय योग-अवंचक बनती है, उसके बाद वह क्रिया-अवचक हो जाती है और अन्त में फलअवंचक वनती है, यानी जय योग, क्रिया और फल तीनो मे आत्मा अवंचक हो जाती है, तब परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन वह बेखटके कर सकती है। भाष्य परमात्म मुखदर्शन का यथार्थ उपाय यथार्थ परमात्ममुखदर्शन के हेतु इस गाथा में साधक के लिए तीन वाते बताई गई हैं-योगाऽवचकता, क्रियाऽवचकता, और फलाऽवचकता । इन तीनो के होने पर ही साधक परमात्मा का सच्चे माने में दर्शन कर सकता है । बस्नुत आत्मग्मगावरूप मोम-(परमालग-पद) के साथ अनुव न्य होना योग पाहलाता है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का मुखदर्शन १७१ पूर्वगाथा मे योगावञ्चकता के लिए सच्चे देव की निर्मलसेवा की बात कही थी, उसी सन्दर्भ मे श्रीमानन्दघनजी इस गाथा मे सच्चे गुरु (निर्मल साधुसाध्वी) की भक्ति की बात कहते है। इसका तात्पर्य यह है कि सच्चे देव, सच्चे गुरु और सद्धर्म के योग (निमित्त) से कदापि वचित न हो, ऐसे अमोघ, या अचूक अवसरो को कदापि न चूके, साथ ही सम्यग्ज्ञानपूर्वक मोक्ष के अनुकूल धर्म क्रिया करने मे जरा भी गफलत न करे तथा मोक्षरूपी फल प्राप्त करने से न चूके । [रागद्वेप, कपाय, कर्म आदि से मुक्ति के जब-जब प्रसग आएँ, उन्हे न चूके, उन अवसरो से आत्मा को कदापि वचित न करे ।] यानी योग, क्रिया और फल के अवमरो से वचित न हो। दूसरे शब्दो मे यो भी कहा जा सकता है, अपनी आत्मा के प्रति वफादार रह कर परमात्मा की साक्षी से अपनी पूरी ताकत लगा कर (भरमक) योग, क्रिया और फल की आराधना से वचित न होने का प्रयत्न करे । अपनी आत्मा को ठगे नही । योग के नाम पर मिथ्यायोगो से न ठगा जाय, आत्मगुण या स्वरूप का लक्ष्य चूके नही। क्रिया के नाम पर फूठी, दभवईक, विकासघातक, परवचक क्रियाओ से ठगा न जाय, इसी प्रकार मोक्षरूपी फल के नाम पर अपने ध्येय को छोटा बना कर इहलौकिक या पारलौकिक सुख-साधनादि-प्राप्तिरूप फन से प्रमावित हो कर ठगा न जाय। मोक्ष के नाम पर विविध आडम्बरो या जन्ममरणवर्द्धक फलो मे लुभा कर आत्मवचना न कर बैठे।' योगदृष्टिसमुच्चय मे इन तीनो योगो का स्वरूप इस प्रकार बताया है-"दर्शनमात्र से पवित्र हो जाय, ऐसी कल्याणकारिणी सम्पत्ति से युक्त सतपुरुषो के सत्सग से, तथा दर्शन से योग (मिलन) होना योगाऽवचक योग कहलाता है। ऐसे सद्गुरुओ, सदेवो आदि को प्रणाम करना तथा अन्य मोक्षदायक अनेक सद्धर्मक्रियाओ या सद्भि. कल्याणसम्पन्नदर्शनादपि पावन । तथा दर्शनतो योग आद्याऽवचक उच्यते ॥ तेषामेव प्रणामादि-क्रिया-नियम इत्यलम् । क्रियावचकयोग स्यान्महापापक्षयोदय. ॥ फलावञ्चकयोगस्तु सद्भ्य एव नियोगत । साऽनुवन्धफलावाप्तिधर्मसिद्धौ सता मता ॥ , -योगदृष्टिसमुच्चय २१७,२१८,२१६ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यारभन्दशन नियमो मे भरमक शक्ति लगाना किमावतकयांग है, जो महापापो के क्षय । मे जागता है। तया सद्गुरों के निमिन (सहयोग) में निर्वाणामा धर्म की प्राप्ति करता है। गतो द्वारा सम्मन इस प्रकार के मोक्षानुवन्धी फन की प्राप्ति होते रहना फलावचकयोग है। निरा गह है कि इन तीनो मे खोटे योगो से वच कर प्रलोभन, भय, स्वार्य या कामना के भावो को छोड़ कर सहदेव, गदगुरु एवं मधर्म की पटरहित होकार निकरणशुद्ध मेवाभक्ति करने से परमात्मा के ययास्वरदर्शन की प्रतीनि हो जाती है, जो बान्तक मे प्रभु-मुख चन्द्रदर्शन है। तया पूर्वोक्त विधि में निकाममाय ने मम्यग्ज्ञानपूर्वक मन-वचन-काया की एकाग्रतापूर्वक मोक्षदायिती धनिया की जाती है तो वह क्रिया अवचक हो जाती है। और उसका फन भी शुद्ध मिलता है, कर्ममुक्तिका फल को छोड़ कर जो किसी सांसारिक प्रतिष्ठा, नामवरी, दम्भ, ईष्या, स्वार्थ या प्रलोभन को ले कर निषा करता है, उसका फ़न भी सांसारिक एपणा से लिप्त होने के कारण वचक है, अबंधक नहीं । अतः अवचकभाव से अवचकक्रिया करके अवंचवफल के रूप मे वीतराग-परमात्मा का साक्षात्कार सम्यग्दृष्टि मात्मा कर सकती है। निश्चयनय की दृष्टि से देखा जाय तो जब निमित्तों को गौण मान कर अपने समक्ष शुद्ध-आत्मभाव मे रमण के योगो के उपस्थित होने पर जब आत्मा से उनका सही शुद्धभाव म उपयोग, आत्मगुण या वन का लक्ष्य होता है, तदनुसार गुद्ध स्वमावरमणस्प क्रिया होती है तथा गुद्धम्वमाव मे मात्मा स्थिर होने के योगो को नही चूकती, तभी वह परमात्मा के शुद्धामचेतनरूपी मुखचन्द्र के दर्शन कर सकती है। अन्यथा गुभ-अशुभभावो में या परभावों मे रमणता और स्थिरता तो अनेक जन्मो और गतियो में की, मगर उससे जरा भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ। किन्तु उक्त तीनो योगो की अवचकना यानी तीनो योगो का अवसर न चूकने की बात प्रमादी व्यक्ति या प्रमत साधक से कामे निम मकती है ? इसक लिए प्रवल आशावान श्रीआनन्दघनजी अन्तिम गाया मे कहते है- प्रेरक अवसर जिनवर, स०; मोहनीय क्षय जाय सखी०। कामितपूरण सुरतरू, स०, आनन्दघन-प्रभु पाय सखी०॥७॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का मुखदर्शन १७३ अर्थ जब प्रेरक (उक्त तीनो योगो मे प्रवृत्त करने का) अवसर आएगा, तब श्रोजिनवर (वीतराग परमात्मा) हो प्रेरणा करेंगे। और साधक क्रमशः अप्रमत्त-गुणस्थान से आगे बढ कर निवृत्तिवादर, अनिवृत्तिवादर, और सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानो को लाघ कर १२वें क्षीणमोहगुणस्थान पर पहुच जायगा, जहाँ उसका सबसे बडा घातीकर्म-मोहनीय सर्वथा नष्ट हो जायगा। और अपने (परमात्मदर्शन के) मनोरथ को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष के समान सच्चिदानन्दमय प्रभु को पा जायगा। यानी उसका परमात्मदशन का मनोरथ पूर्ण हो जायगा । अथवा उस आनन्दमय परमात्मपद को साधक स्वय पा जायगा । भाष्य परमात्ममुखदर्शन के मनोरथ मे सफलता इम अन्तिम गाथा मे श्रीआनन्दघनजी पूर्वोक्त तीनो अवचक-योगो की प्राप्ति के अवसरो को प्रमत्तसाधक न चूक सके, इसके लिए अवसर-प्रेरक वीतराग परमात्मा को ही बता कर उनके चरण-शरण मे जाने की बात पर जोर देते हैं । सचमुच साधक की आत्मा परमात्मा के प्रति पूर्ण वफादार रह कर प्रवृत्ति करे तो उसकी शुद्ध आत्मा ही प्रेरणादायक अवसरो को न चूकने की प्रेरणा दे देती है । शुद्ध आत्मा की आवाज ही परमात्मा की सच्ची प्रेरणा है । परन्तु वहुत-से साधक श्रेयमार्ग को कठिन और दुखमय समझ कर उससे अपने आपको वचित कर देते हैं, प्रेयमार्ग को ही सर्वस्व समझ लेते है, क्योकि उसमे प्राय तात्कालिक फल मिलता है । निश्चयनय की भाषा मे कहे तो शुद्ध आत्मा की आत्मभाव मे रमण की अथवा स्वभाव की प्रेरणा को ऊवा देने या थका देने वाली समझ कर साधक की आत्मा भय-प्रलोभनपूर्ण परभावो या भौतिक भावो अथवा वैभाविक भावो मे रमण की ओर मुड़ जाती है और स्वभावरमण मे प्रमाद कर बैठती है। अत शुद्ध-आत्मभावो मे रमण के अवसरो की सतत प्रेरणा दने वाले परमात्मा- शुद्धात्मा है। उसी प्रेरणा को मजबूती से पकड लेने पर तीनो योगो मे अवचकता से साधक क्रमश उत्तरोत्तर गुणस्थानो को पार करके वारहवें गुणस्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ समस्त कर्मों के मूल Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ সমে -ঘন मोहनीय कर्म का नर्वथा क्षय हो जाता है। यही प्रदान की गर्वोत्तम उपलब्धि है, माधक के जीवन में । श्री आनन्मनजीती जागा गे परमात्मा के विशुद्ध मुखचन्द्र का दर्शन करने में लिए उन्गुर। उनको अन्नगत्मा पुकार उठती है कि मोहनीर कम के आय होते ही पाक मनोवांछित (मोक्षरूपी पान पाने का) पूर्ण मनोरय पारने वाले, कामवृक्षावन आनन्धनमय परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। अथवा प्रभवनमा मनोग्य पूर्ण से सफ्न करने वाले वीतराग-परमात्मा के चरण ही मनोरथपत हैं, वे ही गापवृक्षण है, सच्चिदानन्दमय हैं। मतलब यह है कि परमात्ममुखचन्द्र का दर्णन करने की तमन्ना जिम साधा में होगी, वह तीनो योगो की पूर्ण भरगमा आगधना करने में वीतराग परमात्मा की प्रेरणा उम-उ7 अवगर पर पा ही लेगा, और आगे बटते-बटने वीणमोह-गुणग्यान पर जा पहुँनेगा, जहां उसके उत्त गनोदय के समान होने में कोई सन्देह नहीं है । नयोकि इतनी उच्च-भूमिका पर पहुँचने के बाद जो वह ग्वयमेव पूर्ण गुद्वात्मा वन कर परमात्ममय हो जाता है, ल्वयं कामनापुख कल्पवृक्षरूप व आनन्दवनमय परमात्मपद को प्राप्त कर लेना है। सारांश उस स्तुति मे श्री आनन्दघनजी ने परमात्मा के मुराचन्द्र का स्वरूप एवं उसको दर्शन की तीव्रता बता कर अब तक विभिन्न गतियो और योनियो में प्रभुदर्शन न मिलने का इतिहास बता र जन्त मे प्रमुमुखदर्शन पाने के लिए आत्मा की अवचकत्रय-साधना बताई तथा भवचकता के अवसर के लिए वीतराग प्रभु को ही प्रेरक मान कर क्षीणमोह-गुणस्थान श्रेणी तक पहुँन कर पूर्ण सच्चिदानन्दमय परमात्मपद को प्राप्त करने की माशा व्यक्त की है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : श्रीसुविधिनाथ-जिन-स्तुति परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा (तर्ज-राग केदारो, एम धन्नो धणीने परचावे) सुविधिजिनेसर पाय नमी ने, शुभकरणी एम कीजे रे । अतिघणो उलट अंग धरी ने, प्रह उठी पूजीजे रे ॥ सुविधि ०॥१॥ अर्थ इस अवसर्पिणीकाल के नौवें तीर्थकर रागद्वषविजेता श्रीसुविधिनाथ (परमात्मा) के चरणो मे नमन करके पूण्य-उपार्जनरूप शुभक्रिया आगे बताई हुई विधि से करनी चाहिये । वह शुभ-क्रिया यह है कि हृदय मे अत्यन्त उमग (उत्साह) धारण करके सुबह उठ कर परमात्मापूजा करनी चाहिए। भाष्य परमात्मा की पूजा का रहस्य पूर्वस्तुति मे जैसे परमात्मा के मुखचन्द्र के दर्शन का रहस्य बताया गया या कि सच्चे माने मे अपनी आत्मा मे परमात्मभाव देखना ही परमात्ममुखदर्शन है, वैसे ही परमात्मा की पूजा भी सच्चे माने मे तो अपनी आत्मा को शुद्ध स्वभाव मे स्थिर रखना है । परन्तु यह आत्मा जब तक छमस्थ है, प्रमादी है, प्रमत्तसाधक-अवस्था मैं है, तब तक वह निरतर शुद्धस्वभाव मे स्थिर रह नहीं सकती, वह किसी न किसी वाह्य निमित्त का अवलम्बन ले कर शुद्धात्मभाव मे सदा के लिए स्थिर परमात्मा का स्मरण करना चाहती है और उनके आश्रय से अपने आत्मगुणो का स्मरण करती है । परन्तु यह ध्यान रहे कि आत्मजागृति या आत्मलक्ष्य के विना केवल वाह्यनिमित्त सुखप्रद नहीं होते। इसलिए परमात्मा की पूजा का अवलम्बन भी आत्मजागृति की दृष्टि से लेना आवश्यक बताया गया है। वीतराग-परमात्मा की भावपूजा या द्रव्यपूजा करने से उन्हे तो कोई लाभ T amgh memas-Par - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अध्यात्म-दर्शन (भोतिका या आध्यात्मिक) नही होता, पूजा करने वाला अपो आत्मिक लाभ की दृष्टि से ही उनकी पूजा के माध्यम में अपने जात्मगुणो का स्मरण करने अपनी आत्मा को जगाता है। उस दृष्टि ने देना जाय तो परमात्मा की द्रव्यपूजा भी भावानुलक्षी या भावपूर्वक हो, तमी फनदायिनी होती है। मगर भावना न हो तो वह उक्त उद्देश्य को सिद्ध नहीं करती । दूसरे शब्दों में कह नो अकेली द्रव्यपूजा भावगूजा के बिना मुक्ति-फलदायक जयवा लागावा या आत्मगुणो में स्थिरताप्रदायक नहीं होती। मगर परमात्मा की पूजा भी फिमी लौकिक स्वार्थ, भौतिक पदार्थ-प्राप्ति की लालसा, या यशकीति की इच्छा ने की जाती है तो उपर्युक्त उद्देश्यआत्मजागृति का प्रयोजन-यूरा नहीं होता । वह तभी पूरा हो नकता है, जब परमात्म-पूजा के साथ आत्मजागृति की दृष्टि से निम्नोक्त बातो का विवेक हो-(१) जिसकी पूजा की जा रही है, वह सच्चे माने में वीतराग-परमात्मा के रूप में पूजायोग्य या पूज्य है या नहीं ? (२) परमात्मा की पूजा किसी भौतिक लालसा, कामना, प्रसिद्धि, स्वार्थ या पदलिप्ता नथवा गिसी पोद्गलिक लाभ की दृष्टि से की जा रही है या मिर्फ जात्मविकाम अथवा आत्मगुगो की प्रेरणा या आत्मजागृति की दृष्टि से की जा रही है ? (३) परमात्मप्जा का रहस्य या उसका खास प्रयोजन क्या है ? (४) परमात्मा की भावपुर्वक पूजा या भावना से ही पूजा हो सकती है या दुर्बल आत्मा के लिए और भी कोई पूजा का प्रकार है ? अगर है तो वह कौन-सा है? उसकी पूजा के साथ भावशुद्धि कसे रह सकती है? परमात्मपूजा के सम्बन्ध में इन और ऐसी ही कुछ बातो पर विचार किये विना परमात्मा की केवल म्यूलपूजा (जो कि वर्तमानकाल म अन्यधर्मों की भक्तिमार्गीय शाखाओ मे अपनाई जाती है) को अपना लेना, अथवा अविवेकपूर्वक पडोनी सम्प्रदायो की बाह्यपूजा व वाह्यक्ति का अन्यानुकरण करना आत्मगुणविकास की दृष्टि के लाभदायक नहीं हो सकता। उपर्युक्त वातो के सम्बन्ध मे हम यहां कुछ प्रकाश डालेंगे । यह तो पहले भी कई वार कहा जा चूका है कि पूजनीय व्यक्ति का नाम चाहे जो कुछ हो; अगर उसमे वीतरागता, समता, आत्मस्वरूप में सनत स्थिरता व अनन्तज्ञानादि गुण हों तो वह परमात्मा है, वन्दनीय, दर्शनीय, सेवनीय और पूजनीय है। परन्तु इसके विपरीत जिसमे वीतरागता आदि गुण न हो, सिर्फ वाह्य आडम्बर, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपजानुलक्षी द्रव्यपूजा १७७ जनना की भीड, वाह्य रागरग तथा आकर्पक आभूपण, पोशाक आदि पहनने वाले, बाह्य भोगो व वैभवो की चकाचौंध मे दूवे हुए व्यक्ति को वन्दनीय, दर्णनीय, मेवनीय जोर पूजनीय (आध्यात्मिकदृष्टि से) नहीं माना जा सकता। परन्तु अगर सच्चे अर्थो मे यथोक्तगुणसम्पन्न परमात्मा की पूजा भी अगर भीतिक स्वार्थ आदि किसी दृष्टि से भी की जायगी तो वह भी सच्चे माने मे परमात्मपूजा नही होगी । गच्चे अर्थों मे परमात्मपूजा वही होगी, जहाँ उसे मात्मगुणो के विकान या स्वस्वरूप में स्थिरता की दृष्टि से आत्मजागृति पूर्वक अपनाया जायगा। वास्तव मे परमात्मा (वीतराग हैं, इसलिए उन) को हमारे द्वारा की गई पूजा से कोई मतलव या लाभ नहीं, लेकिन हमे अपनी आत्मा को आत्मगुणो के विकास की पूर्णता की ओर ले जाने के लिए परिपूर्णता के प्रतीक परमात्मा की पूजा करना है । मनुप्य जैमा बनना चाहता है, वैसा आदर्श उसे अपनाना जरूरी होता है । अगर साधक को अपने आत्म-विकास के अन्तिम शिखर तक पहुँचना हो तो उसे आत्मविकास की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए आदर्शपुरुप परमात्मा की पूजा - आदर्शरूप की पूजा करना नितात आवश्यक है । परमात्मा के तुल्य बनने के लिए उसे परमात्मा के आदर्श अपनाने तथा अपने उम निर्णय पर दृढ रहने के लिए परमात्मपूजा अनिवार्य है। परमात्मपूजा का रहस्य भी यही है कि आत्मा परमात्मा की पूजा द्वारा अपने आपको परमात्मा बनने के पथ पर टिकाए रखे, जहाँ आत्मगुणो या आत्मविकाम के विपरीत अथवा स्वरूप या स्वभाव के विपरीत पथ या बात हो, यानि परमात्मपूजा के विपरीत भौतिक या आत्मगुणातिरिक्त विकारो या विभावो की पूजा का का प्रश्न सामने आए, फिर वह सिर्फ धन, यश, वल, रूप, वैभव, कुल, जाति आदि की पूजा का ही प्रश्न क्यो न हो, सम्यग्दृष्टि साधक उसमे नही फसेगा, परमात्मपूजा के असली पथ से विचलित नहीं होगा। परमात्मपूजा से विपरीत स्वार्थपूजा या भौतिकपूजा के चक्कर मे वह नही आएगा। परमात्मपूजा परमात्मा को खुश करने के लिए या पापो से माफी के लिए अथवा पापो पर पर्दा डाल कर धर्मात्मा या भक्त कहलाने के लिए नहीं , अपितु अपनी आत्मा को सर्वांगपूर्ण सर्वगुणसम्पन्न बनाने के लिए है। इस प्रयोजन या उद्देश्य को न समझ कर जो लोग परमात्मा के प्रतीक (मूर्ति) के सामने नाच-गा कर केवल उनको रिझाने का प्रयत्न करते है, उनके प्रतीक के सामने चढावा चढा कर अथवा अमुक लौकिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनकी मनौती करते हैं, अथवा उनके - Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ এসােয়া-গান बिम्ब के आगे बकने आदि पण-पक्षी गी बलि नहान, राव, मान मावि गोय या अभय द्रव्य नटाते है, वे भी परमात्मप्रजा के वास्तविक प्रयोगन मेमनमिन है। वास्तव मे परमात्मा की पूजा भावो गे ही तो रागाती है, उनकी स्तुति का गुणगान के पीछे भी परमात्ममय बनने या आत्म-गुणविशारा की पनकाष्ठा पर पहुँचने का लक्ष्य होता है। वह भी एक एक पकार की भावना ही ।। जयवा पूर्ण न्यागी परमात्मा के गमा हिंसादि-त्याग की पुणाजलि चटाना ही। उनकी पूजा है, जो भावमय है। परन्तु कुछ दुर्वल आत्माओ को ज्ञानयोग का यह मार्ग बहुत कठिन प्रतीत होता है । साधारणतया लोग कटोरमार्गको छोड कर आमान मार्ग पकडते हैं , नयोकि परमात्मा की कंवल भावपूजा करने में ज्ञान, बुद्धिवैभव, या मानसिक चिन्तन, ध्यान आदि की आवश्यकता होती है, जो प्रत्येक व्यक्ति के वश की बात नहीं है। आम जादमी सतत ग्वरूपलक्ष्य या आत्मगुणो के विकास या स्वभाव में स्थिर नहीं रह सकता। इसलिए श्री आनन्दघनजी ने मम्भव है, उस युग मे जाम आदगियों के 'प्रव्यपुजा की ओर वटने हुए लोकप्रवाह को नया मोड देने अथवा उसमें भावा जानुलक्षिता का नया दौर लान अथवा भावपूजा के साथ उस समय के लोक मानस में प्रचलित द्रव्यपूजा का समन्वय करने की दृष्टि से कह दिया हो-'शुभकरणी एम कीजे रे' । तात्पर्य यह है कि या तो अशुभ प्रवृत्ति की ओर बढ़ते हुए लोकमानग को गाम रो कम ऐतिहासिक दृष्टि मे निर्विवाद है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद लगभग १७० वर्ष में आचार्य भगवाह स्वामी हए। उन्होंने चन्द्रगुप्त राजा को उसके १६ स्वप्नी का अर्थबोध देते हए पूर्व स्वप्न मे चैत्यस्थापना तथा उससे होने वाली हानि का सकेत किया है। देखिये व्यवहारमूत्र की चूलिका"पंचमए दुवालसणि सजुत्तो कण्ह अहि दिट्ठो, तस्स फल दुवालसवासपरिमाणो दुक्कालो भविस्सई। तथ्य कालियसूयप्पमहाणि सुताणि वोच्छि ज्जिसति । चेइय ठवावेइ "लोमेण मालारोहण-देवल-उवहाण-उज्जमणजिविवपइट्रावणविहि पगासिस्सति, अविहे पथे पडिस्सई ।... ... इससे योगी श्रीआनन्दघनजी की, उस समय की भावना समझी जा सकती है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १७६ शुभ प्रवृत्ति में टिके रहने के लिए परमात्मपूजा के स्थूलरूप का श्रीआनन्दघनजी ने समर्थन किया हो, अथवा उन्होंने भक्तिमार्गीय धर्म-राम्प्रदायो मे उस युग मे प्रचलित लक्ष्यहीन, भावहीन, बाह्यचमत्कारपरक, स्वार्थलक्ष्यी, आडम्वरयुक्त भक्तिवाद के रूप में प्रचलित तथाकथित भगवत्पूजा को देख कर या परमात्मपूजा के नाम पर विकृतियाँ, आडम्वर, अन्धविश्वास, चमत्कार या रूढिवाद आदि धुसे हुए देख कर उन्हे हटा कर जैनत्व की दृष्टि से अनेकान्तसिद्धान्त के जरिये भावपूजानुलक्ष्यी द्रव्यपूजा का समर्थन किया हो । यही कारण है कि उन्होंने इस स्तुति की प्रथम गाथा में इस बात को स्पष्ट कर दिया है-'अतिघणो उलट अग धरी ने, 'प्रह उठी पूजीजे रे' अर्थात् परमात्मपूजा करो, पर कब और कैसे ? इस वात का पूर्ण विवेक करके करो। 'उलट अग धरी ने' का मतलव है-मन-वचन-काया मे पूर्णउत्साह, उत्कट भावना, शरीर के अग-अग मे पूर्ण स्फूर्ति धारण करके । तथा 'प्रह उठी पूजीजे रे' कहने का यह मतलब है कि प्रात काल उठने ही या सवेरे उठ कर सर्वप्रथम और सब कामो को गौण करके परमात्मपूजा करो । यद्यपि परमात्मा की भावपूजा के लिए कोई विशेष समय नियत नही होता, जिस समय साधक की इच्छा हो, उस समय वह की जा सकती है। फिर भी प्रात काल का समय ब्राह्ममुहूर्त या अमृतवेला कहलाता है, उस ममय तन, मन, वातावरण सब शान्त रहता है, चित्त एकाग्र रहता है, मन अन्यमनस्क नहीं रहता, दिमाग भी ऊलजलूल विचारो मे रहित होता है, तनमन मे स्फूर्ति रहती है। एक लौकिक स्वर्णसूत्र भी है ___ "Early to bed, 'early to rise, Makes man healthy,wealthy and wise" जो व्यक्ति जत्दी सो जाता है और प्रात जन्दी उठता है, वह मनुप्य स्वस्थ, धनाढ्य और बुद्धिमान बनता है। इसलिए आत्मिक दृष्टि से भी प्रात काल : परमात्मा की पर्युपासना के लिए बहुत उत्तम है । परमात्मा के नामजप, भजन, गुणगान, वन्दना; स्तुति, आदि के द्वारा परमात्मपूजा के लिए भी प्रभातकाल . . सर्वोत्तम रहता है। किन्तु इसके पूर्व एक वात प्रभातकाल में सर्वप्रथम करणीय ।' और वता दी है-'सुविधि जिनेसर पीय नमीने' सुविधि (जिन्होंने मोक्षमार्ग' का स्पष्ट विधान किया है ऐसे) वीतरागपरमात्मा के चरणो को नमन करके। इसके दो अर्थ प्रतीत होते हैं- एक तो यह है कि वीतराग-परमात्मा के चरण - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याग-नगन मे नमन र उनकी पूजा करना । दुमग यार यह है पिरमात्मा के पद (नरण या चारित) को नमन करके बता जिस नाग्नि में विधिनाय प्रभु मोक्ष गए है, उस चारित्रवान् आत्मा को शुद्ध पद को नमन करके। निार्य यह है जितीयंकर भगवान न्यून पनीर केही स्थापित उनकी मूर्ति का मालम्बन ले कर उसमे परमात्मा का आरोपण करके 'मृति नी नहीं, मूनिमान-परमात्मा की पूजा कर रहा हग गायना गे उग गुग में जोर-शोर ने प्रचलित मूर्तिपूजा में आए ना विकाग को दूर करने और भावपूजा के लक्ष्य गे द्रव्यपूजा करने का श्रीआनन्दघनजी जग आध्यात्मिक और नि स्गृह सन ने विवेक किया हो, ऐगा प्रतीत होता है। इमी आशय को ले कर वे अगली गाया में कहते हैद्रव्यभाव शुचिभाव धरी ने, हरखे देहरे जइए रे । दह-तिग-पण अहिगम साचवता, एकमना धुरि यइए रे ।। मुविधि० ॥२॥ अर्थ द्रव्य से यानी बाह्यस्प से और भाव से यानी आन्तरिकरूप में शुद्ध--- (पवित्र-दोपरहित) भाव धारण करके (रख कर) हर्षपूर्वक देवालय (मन्दिर) मे जाएँ और द्रव्य-भाव दोनो प्रकार की पूजा करें । मन्दिर मे दश ग्रिकों और ५ अभिगमो का विधिपूर्वक पालन करते हुए मर्वप्रयम एकाग्रनित हो जाएं। द्रव्य और भाव से शुचितापूर्वक द्रव्यपूजा और भावपूजा इम गाथा मे श्री आनन्दधनजी द्रव्यपूजा और भावपूजा दोनो में शुचिभाव शुद्धभाव, दोपरहित भाव की अनिवार्यता बताते हैं । इस गाथा के दो अर्थ निकलते हैं । एक तो यह है कि द्रव्यपूजा मं द्रव्य मे और भाव से दोनो प्रकार मे गुचिता = शुद्धता रखी जाय । दूसरा अर्थ यह है कि द्रव्यपूजा और 'भावपूजा दोनो मे शुद्रभाव, दोपरहित भाव रखे जाय । १ श्री आनन्दघनजी स्वय नि म्ग्रह होते हए भी मूर्तिपूजक-परम्परा के मत ये । इसलिए उन्होंने अपनी परम्परा और धारणा के अनुसार द्रव्यपूजा का समर्थन किया है। यह उनका अपना मत है। उनके द्रव्यपूजा के इस मन से 'भाप्यकार का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १८१ द्रव्यपूजा की दृष्टि से द्रव्यन शुचिभाव का अर्थ है-१शरीर और शरीर के अगोपाग स्वच्छ करके परमात्मपूजा के योग्य बिना मैले शुद्ध साफ वस्त्र पहिन कर तथा परमात्मपूजा के योग्य जो शुद्ध द्रव्य है, उन्हे भी शुद्वरूप मे लेना । मतनव यह है कि ऐसे द्रव्य न लिए जाय, जो वीतरागप्रभु की पूजा के योग्य न हो । जैसे शराव, मास आदि घिनौने द्रव्य या वलि चढाने के लिए कोई पगु या पक्षी आदि जीव ले कर जाय । अथवा वीतराग एव त्यागी महापुरुषो की पूजा के लिए भोग-विलास की सामग्री ले कर कोई जाय तो वास्तव में वीतरागपूजा के लिए ये चीजें उचित द्रव्य नहीं हैं । जो भी द्रव्य ले कर जाय, वह भी ठीक तरह से उचितरूप मे ले कर जाय। जैसे कई लोग पजा की सामग्री इधर-उधर बिखरते हुए, या बारबार जमीन पर या गदे स्थान पर गिराते हुए अथवा कपडे आदि अस्तव्यस्तरूप मे पहन कर या गरीर मे शौचक्रिया (मलमूत्र आदि की क्रिया) की हाजत रख कर जाते है या शराव आदि नशीली चीजें पी कर अथवा मासादि अभक्ष्य वस्तुएँ खा कर अथवा किसी व्यक्ति से लडझगड कर किसी की हत्या, मारपीट आदि करके, किसी पर अत्याचार-अन्याय करके, प्रभु-पूजा के लिए खून से रगे हायो, अथवा गदे शरीर को ले कर जाना भी द्रव्यत अणुचिभाव है। इसी तरह वीतराग-परमात्मा की द्रव्यपूजा करने के लिए वाह्य आडवर रचना. या लोकदिखावा करना, जोर-जोर से चिल्ला कर दूसरे व्यक्तियो द्वारा की जाने वाली पूजा में खलल डालना, आदि सव द्रव्यत अणुचिभाव है । क्योकि परमात्मपूजा दिखावे या प्रदर्शन की चीज नहीं है । वह तो आत्मगुणविकास या स्वस्वरूप मे स्थिर रहने के लिए होती है । इसी तरह द्रव्यपूजा की दृष्टि में भावत शुचिभाव का अर्थ है--चित्त में किसी प्रकार का कालुप्यभाव, किसी के साथ वैरविरोध, होड (प्रतियोगिता), सघर्प, अथवा जयपराजय का भाव ले कर परमात्मपूजा के लिए नही पहुँचना , अथवा पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा, पद, मुकद्दमे मे जीत, प्रसिद्धि आदि किमी सामारिक कामना से १ पहाए सुद्धपावेसाइ वत्थाइ पवर-परिहिए -उपासकदशाग सूत्र म. महावीर के पास आनन्द श्रमणोपासक के जाने के समय का वर्णन । आनन्द श्रमणोपासक ने म्नान किया, शुद्ध और गभा मे प्रवेग के योग्य वरनो को ठीक रूप में पहने। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दान . परमात्मपूजा के लिए नही जाना । लोप पवाद की दृष्टि पजागा पगति का वरप या यथार्य पूजाविधि नगझे बिना अथवा गरीर और पही, मन और कहीं भटक रहा हो, गनी चिगि गे गाना लिा प्रवृत्त सामी भावन अगुचिभाव है । वान्लव ने परमात्मपूजा या अर्थ, वेष, ग्वरूप, निधि आदि समल कर नियामय दोपरहिन भावों में तन-मन की रामनार उत्साहपूर्वक परमात्मपूजा के लिए जाना पगामा की हत्यामा में भावन गुचिभाव धारण करना है। __ क्योकि आचार्य नमि और आत्राय अमिनगति ने द्रव्यभाव-नोंच को परमात्मपूजा और वचनमयम को व हार-गैर पो, मन्ना आदि बगो क नभ्यविधिपूर्वक रीन को द्रव्यमकोच नया विशुद्ध मन प्रनु में जोडने को भावनलोत्र पहा है। पही क्रमशः द्रव्यपूजा और भावपूजा है । जवं मोशए परमात्मा की भावपूजा पन्त भमर द्रव्यत एव सावत शुचिभाव की ओर । भावपूजा को कुट प्रकार आगे उमी स्तुति में बताए जायेंगे। नदनुनार भावपूजा मे प्रवृत्त होते समय अपने शरीर, अगोपाग तथा । कने के आमन, पहिनने के वस्त्रो गदि का शुद्ध होना आवश्यर है। उन समय की जाने वाली शारीरिक चेष्टाएँ भी ठीक हो , उनमे चचलता या अभिमान न हो, व्यग्रता न हो। उस समय गदे स्थान में या अत्यन्त पोलाहलभरी भीडभड़क्के वाली मशान्त जगह में बैठना अयदा गदै वातावरण में, शारीरिक हाजनो को रख कर या उन्न बीमारी या घर में कोई बीमार या अशक्त की सेवा की जिम्मेदारी के समय उसी हालत में परमात्मा की भावपूजा के लिये बैठना ठीक नहीं होता। क्योक्ति उन ममय शरीर और नहीं होगा, मन और कही । दोनों का तार जुडेगा नहीं, परमान्म-पूजा में।' इसी तरह माला के मनके फ्रािने के साथ शरीर और मन को भी एकाग्र करना द्रव्य वचोनिग्रह-संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा हि पुरातनै. ।। अमितगति-श्रावकाचार पूजा च द्रव्यभावसंकोच.) तत्र करशिरःपादादिसन्यासो द्रव्यसंकोच । भावसंकोचस्तु विशुद्धमनसो नियोग.। --पड़ावश्यकवृत्ति, प्रणिपातदण्डका Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १८३ । शुचि मे गुमार है । यह नो हुई द्रव्यगुद्धि की वात । भावपूजा मे भावणुद्वि के लिए पूर्वोक्त प्रकार गे लक्ष्यपूर्वक चित्त की प्रसन्नता, उत्माह और आत्मसमर्पणता रखना है। उग समय चित्त मे किसी प्रकार का गोक, विपाद, घृणा या चपलता नहीं होनी चाहिए । नभी भावपूजा मे भावतः शुचिभाव आ सकता है । अगर भावपूजा भी किसी सौदेबाजी, म्वार्थसिद्धि या लौकिक कामना के अशुद्वभावो को ले कर की जाय, तो वह दूपित हो जाती है, वह पवित्र, निष्काम, निकलुप एव विशुद्ध निर्जरालक्षी या, आत्मगुणविकासलक्षी नहीं रहती। द्रव्यपूजा और भावपूजा कहाँ की जाय ? यद्यपि परमात्मा की पूजा के लिए कोई स्थानविशेप नियत नहीं होता, तथापि सामाजिक दृष्टिकोण से समाज के आम आदमी को वीतरागपूजा की ओर प्रवृत्त करने के लिए श्रीभद्रबाहु स्वामी के बाद के आचार्यगण तात्कालिक परिस्थितियो को मद्देनजर रख कर शुभ उद्देश्य से जैनमन्दिर, चैत्यालय या जिनालय के लिए प्रेरणा देने लगे। इसी परम्परा के सन्दर्भ में श्रीआनन्दधनजी कहते है-'हरखे देहरे जइए रे' अर्थात् परमात्मा-पूजा के लिए हर्पपूर्वक देवालय मे जाना चाहिए। देहरा या देरामर-शब्द देवगृह, देवाश्रय आदि शब्दो का अपनंग है । जहाँ वीतरागपरमात्मा की मूर्ति (प्रतिमा या विम्ब) की स्थापना की जाती है और जिनभगवान् का आरोपण करके द्रव्यपूजा भावपूजानुलक्ष्यी की जाती है । द्रव्यपूजा की दृष्टि मे यह अवलम्बन है। परन्तु जिसे द्रव्यपूजा न करके परमात्मा की सीधी भावप्जा ही करनी हो, उसके लिए देवालय देह या हृदय हो सकता है , वही आत्मदेव विराजमान है। उसमे परमात्मदेव का आरोपण करके परमात्मा की भावपूजा करनी चाहिए। एक आचार्य ने तो स्पष्ट कहा है कि यह 'देह ही देहरासर (देवालय) है । इसी मे विराजमान शुद्ध आत्मदेव को परमात्मदेव मानो और अज्ञानरूपी मैल दूर करके सोऽहभाव से उसकी पूजा करो। अथवा दहराश्रय का मतलव हृदय-मन्दिर भी है । क्योकि परमात्मदेव को १ देहो देवालय प्रोक्त जीवो देव- सनातन । त्येजेदज्ञाननिर्माल्य, सोऽहंभावेन पूजयेत् ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अध्यात्म-दर्शन भी स्वदेहस्थित हृदयमन्दिर में स्थापित करके ही भावना में उनकी पूजा की जाती है । वेदान्त-ग्रन्यो में दहराकार का वर्णन आता है कि आत्मा हृदय मे स्थिन दहराकाग में विराजमान है। जो भी हो, मावाजा के लिए हत्यमन्दिर परमात्मदेव कायालय हो सकता है। परमात्मपूजा के लिए विधि परमात्मपूजा के लिए चैत्यवन्दन भाप्य, प्रवचनमागेहार आदि ग्रन्धी मे परम्परागत कुछ विधियां, मर्यादाएं बनाई गई है। श्रीयानन्दघनजी ने मूनिपूजा की उसी चालू परिपाटी के अनुसार दश प्रकार के निक एर पांच - अभिगमो के पालन का उरलेन यहां किया है, वह द्रव्यपूजा की दृष्टि से इन प्रकार है-~ (१) निसोहिनिक-देवालय (देहरासर) में प्रवेश करते समय तीन बार नैपेधिकी क्रिया करनी चाहिए । यानी में नव प्रकार के गृहकार्यसम्बन्धी या व्यापारसबन्धी वटपट या चिन्ताएं छोड़ (निषेध) करवे प्रवेश कर रहा हूँ. मैं हिंसादि समस्त मानमिक विचारो, बसत्यादि सब बचना एवं जशुभकायादि चेष्टामो को देवालय के बाहर छोड़ कर इसमे प्रवेश कर रहा हूँ पूजा में प्रवृत्त हो रहा हूँ,वन्दन कर रहा हूँ । इस प्रकार नीन बार निसीहि. निसीहि, निशीहि शब्द का उच्चारण करे। (२) प्रदक्षिणात्रिक- पूज्य को दाहिनी ओर रख कर उनके चारो ओर प्रदक्षिणा-परिक्रमा देना । यह पूज्यपुम्प के प्रति बहुमान का सूचक है । . (३) प्रणामत्रिक-तीन प्रकार का तीन वार नमन प्रणामत्रिक कहलाता है। (१) अंजलिवद्धप्रणाम,-दो हाथ जोट कर झुकना , (२) अर्धविनत प्रणाम -जिस प्रणाम के समय आधा झुका जाय । (२) पचाग प्रणाम-दो हाथ, दो घुटने और मस्तक ये पांचो अग नमा कर झुकना। २ मूर्ति मे परमात्मभाव का आरोपण करते समय लोगो की अश्रद्धा न हो, पूज्यभाव बना रहे, लोगो के लिए वह हसी का पात्र न हो, उस दृष्टि से सभव - है, यह विधान हो। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १८५ (४) पूजात्रिक-अगपूजा (जल, चदन, पुष्प आदि से पूजा), अग्रपूजा (धूप, दीप, अक्षत, फल व नैवेद्य आदि से पूजा) और भावपूजा (गीत, मगीत, भजन, स्तवन आदि के द्वारा चित्त एकाग करके परमात्मा का ध्यान करना) अथवा प्रकारान्तर से विघ्न-उपशामिनी, निवृत्तिदायिनी और अभ्युदयसाधिनी ये तीन पूजाएँ भी हैं, जो पूजात्रिक कहलाती है । (५) अवस्थात्रिक-परमात्मा के जीवन के पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपातीत इन तीनो अवस्थाओ की पूजा करते समय कल्पना करना अवस्थात्रिक है । तीर्थकर केवलज्ञान प्राप्त करें, उससे पहले की अवस्था को पिण्डस्थ, उनके सर्वजसर्वदर्शी होने के बाद की अवस्था को पदस्थ और वे समस्त कर्मों से मुक्त, सिह, बुद्ध हो जाय, उस समय की अवस्था को रूपातीत कहा जाता है । (६) त्रिदिशिनिवृत्त-दृष्टित्रिक-परमात्मा (या प्रभुमूर्ति) के सामने ही दृष्टि स्थापित करना। ऊर्द्धव (ऊंची) दिशा, अधो (नीची) दिशा तथा तिर्यग्दिशा (तिरछी दिशा) की ओर दृष्टि (नजर) न करना अथवा अपनी पीठ पीछे की दिशा, अपने दाहिनी ओर की दिशा व अपने वांई ओर की दिशा की ओर न देखना, नजर न फेरना-प्रदिशिनिवृत्त-दृष्टित्रिक कहलाता है। (७) भूमिप्रमार्जनत्रिक-प्रभु को पचाग प्रणाम करते समय, या वन्दन करते समय रजोहरण, प्रमानिका या उत्तरामन से तीन वार भूमि का प्रमार्जन (शुद्धि) करना। (८) आलम्बनविक—प्रभु के समीप वन्दन करते समय जिन सूत्रपाठो का उच्चारण किया जाय, उनमे हम्व, दीर्घ, पदसम्पदा आदि का ध्यान रखना वर्णालम्बन है, उक्त सूत्रपाठो के अर्थ पर विचार करना अर्थालम्बन है और परमात्मा या उनकी प्रतिकृति (प्रतिमा) मे-उनके गुणो का ध्यान करना प्रतिमालम्बन है, इस प्रकार के तीन आलम्बन है। __(8) मुद्रात्रिक-परमात्मपूजा करते समय तीन प्रकार की मुद्राएँ धारण की जाती है-(१) योगमुद्रा-हाथ की दसो उँगलियो को परस्पर एक दूसरे मे मलग्न करके कगल के डोडे की तरह दोनो हाथ रख कर, दोनो हाथ की Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अध्यात्म-दर्शन कुहनियो को पेट पर गाना। (२) जिनमुद्रा-गे गैः गाना बाग के भागो मे ४ अगुल का फाराना तथा पिरले भागोग गगे 'ग फासला रस कार सडा होना । (३) मुक्ताशुक्तिमुद्रा-बाय की अगुनियो को एक दूसरे में मनग्न किये बिना ही मोनो साथ चौटे मारने नलाट पर रखना। (१०) प्रणिधानत्रिक-मन, वचन, काया-इन तीनो योगों का प्रणिधान (एकाग्रता) करना । अथवा 'जावत चेहयाई, जयंति के वि साई' व जय चोयराय ('आभवमखडा' तपः) इन तीन पाठो के उच्चारण के समय सावधान रहना भी प्रणिधाननिक कहलाता है। इन दसो निको का द्रव्यपूजा के गमत्र पालन करने कार्य तो स्पष्ट है। भावपूजा के समय प्रभुमूर्ति के बजाय प्रभु की छवि को जन्तमन में कल्पना करके स्थापित करना तथा पूजायिका मे अगपूजा और अगपूना की भी भावरूप ही कल्पना करना अभीप्ट है। जैसे कि आचार्य हरिभद्रहरि ने पूजाष्टक मे आमा, गत्य, अस्तेय, मैथुनत्याग, मोह (ममत्त्व) वर्जन, गुरुपूजा, तप, और ज्ञान, इन्हे सत्पुप्प कहे हैं। इसी प्रकार धूप, दीप आदि के विषय में समझ लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त पूजाविधि मे देवगुरु के पास जाते गमय '. अभिगम (Rules of decent appronch) (वीतराग-परमात्मा के अनुरूप विशिष्ट मर्यादा) का पालन भी आवश्यक है। वे ५ अभिगमन प्रकार हैं--(१) पूजा करने जाते समय पूजा करने वाले के पास फूल, फल या वनस्पति आदि सजीव (मचित्त) वस्तुओ का त्याग करना, (२) छन, जूते, तलवार, मुकुट या कोई शस्त्र-लाठी आदि अभिमान या वैभव की मूचक या वैभव या मानव (जात्यादि) भेदभावमूचक चीजो का त्याग करना । वस्त्रालकार आदि उचित १ पचविहेण अभिगमेण अभिगच्छति, त जहा-"सचिताण दवाणं विसरणयाए, अचित्ताण दव्वाण अविउसरणयाए, उत्तरासग-करणेण, चवखफासे अंजलिपग्गण, मणसो एगत्तीकरणणं ।। -भगवतीसूत्र २ श्री ज्ञानविमलसूरि ने भी कहा है-देरामरजीमा प्रवेश करता जोडा, (जूते) छत्र, चामर, मुकुट अने फूलहार विगेरे वहार मूकवा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १८७ वस्तुएँ पहनी हो तो वे साफ व सादी हो, (३) बिना मिले हुए एक अखड उत्तरीय बरन (चादर) को मुख मे मयुक्त करना यानी उमे मुख पर लगाना, ताकि मुख का उच्छिष्ट पूज्य पर न पडे । (८) चाहे जितनी दूर से इष्टदेव या गुरु पर दृष्टि पडते ही तुरन दोनो हाथों को अजलिबद्ध (जोड) करके नमस्कार करना और (५) मन को इन्द्रियो के बाह्य विपयो से हटा कर परमात्म देव या गुरु के प्रति एकाग्र करना। इन पात्रो अभिगमो का पालन द्रव्यपूजा की दृष्टि से तो मन्दिर मे प्रवेश करते समय करना आवश्यक हे ही, भावपूजा की दृष्टि मे हृदयमन्दिर मे प्रभुपूजा के लिए प्रवृत्त होते समय भी ये पालनीय हैं । यानी प्रभुपूजा के लिए शुद्ध आसन पर बैठते समय भी पूर्वोक्त पाचो अभिगमो का आचरण करना आवश्यक है। सवसे मूल बात तो यह है कि परमात्मपूजा के समय मन एकाग्न होना चाहिए । इसी बात को श्रीआनन्दघनजी प्रकट करते हैं--"एकमना धुरि थइए रे ।" सी बात की एक बात है कि पूजा के समय सबसे पहले यह अवश्यकरणीय है कि मन को तमाम सासारिक वातो, चिंताओ, व्यापारो व ऊलजलूल विचारो मे हटा कर प्रभु के स्वरूप मे, उनके गुणो के चिन्तन मे जोड देना चाहिए। अगर मन कही और घूम रहा हे और शरीर व वचन मे प्रभुपूजा हो रही है, तो उसमे आनन्द नहीं आएगा। वह एक प्रकार की वेगार होगी। उसमे आनन्द व मस्ती नहीं आएगी। जैसे-तैसे पूजाविधि पूरी कर लेना तो भाडै त लोगो का काम है, अथवा एक प्रकार का दिखावा है, उममे दम भी आ सकता है। इस प्रकार की अन्यमनस्क पूजाविधि से यथार्थ लाभ, या शुभकरणी का मम्पादन नहीं हो सकता | प्रभुभक्ति की मस्ती मे मन इतना तन्मय हो जाय कि वाहर की हलचलो का, यहाँ तक कि अपने शरीर, खानपान, नीद आदि का भान भी न रहे, दुनियादारी की चीजो का मन मे विचार ही न आए, तभी परमात्मपूजा मे एकाग्रता कही जा सकती है। परमात्मा के शुद्ध आत्मभावो, ३ सनातन या वैदिकादि धर्मों में भी सन्ध्यावन्दन या उपासना के समय कुछ मर्यादाओ का पालन अनिवार्य होता है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८% अध्यात्म-दन विशिष्ट गुणो आदि के चिन्तन में मनाने , वानी में नहीं नहीं के का में काग्रता न गाधने में एबमारीर की पर्म नष्टाला यो न गेनोगमारमपूजा प्रायः नाटकीय रूप ले लेती हैं। पनी मानसिक वागतारहित वन न्यपूजा पूजा के अटाटे विधिविधानो या नियाकाणो मे ही अनार र जाती है। पूजक का ध्यान उग ममा प्राय पियाकाण्डको जगे नंगे पग परने की ओर ही रह जाता है। इसलिए श्रीआनन्दधनजी परमात्मपूजा में गम्बन्ध में अनेक गतरों गे मावधान करने और इतनी बारीकी ने द्रव्यपूजार्थी का मुख गावपूजा की ओर मोडने के बाद जगली गाथाओ मे वन्यपूजा की प्रनलित परम्पराओं का उल्लेख करते है-- "कुसुम, अक्षत, वरवास-सुगन्धी, धूप, दीप मनसाखी रे। अंगपूजा पण भेद सुणी इम, गुरुमुख आगम भाखो रे ॥ सुविधि ॥३॥ अर्थ पुप्प, अक्षत (अखण्डित चावल के दाने , उत्तम सुवास वाले सुगन्धित द्रव्य, धूप, दीपक, यो इन पाच द्रव्यो से मन की मानीपूर्वक या मन के भावों के साथ वीतराग-परमात्मा की प्रतिमा की अगम्पर्शी पूजा के पाच प्रकार हैं। ऐतो पंचप्रकारी पूजा मैने अपनी परम्परा के आदरणीय गुरुमो के मुखाविद से सुनी है तथा मागम (अर्थागम) मे कही है। भाप्य परमात्मा को पचप्रकारो द्रव्यत अंगपूजा यद्यपि पूर्वाक्त गाथाओ के अनुसार द्रव्यपूजा भी भावो को उद्बुद्ध करने के लिए है, इसलिए अन्ततोगत्वा वह वर्तमान नैगमनय की दृष्टि में भावपूजा मे ही परिनिष्ठिन होती है, फिर भी उस युग में भक्तिमार्गीय गासामो मे प्रचलित परम्पगओ के अनुमार श्रीआनन्दघनजी ने द्रव्यपूजा का उन्लेख इम गाथा में किया है। द्रव्यपूजा की दृष्टि मे वीतराग-प्रतिमा की अगपूजा के पांच प्रकार है Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा फूल, अक्षत (अखण्डित चावल) श्रेष्ठ, सुगन्धित पदार्थ, धूप और दीप । परन्तु इस अगपूजा के पात्रो प्रकारो के साथ श्रीआनन्दघनजी ने 'मन-साखी रे'२ पद जोड़ा है। इसका मतलब यह है कि वीतराग-प्रतिमा मे वीतराग-प्रभु का आरोपण करके उसके आगे फूल चढाते समय मन मे विचार करना चाहिए कि मैं फूल की तरह कोमल और जीवन मे सुगन्ध भर कर प्रभु के चरणों में अपने को न्योछावर करूंगा। अक्षनो की तरह बुराइयो, वामनाओ एव व्यसनो के सामने क्षत ध्वस्त = पराजित नहीं होऊगा । मै उनमे दबूगा नहीं। श्रेष्ठ सुगन्धित पदार्थों की तरह जीवन को सच्चारित्र मे सौरभमय बनाऊगा, धूप की तरह अपने आसपास के वातावरण को अपने बुरे विचारो से गदा न बना कर अच्छे .. विचारो, सम्यग-दर्शन के प्रचार से मुगन्धित वनाऊगा,और दीपक की तरह अपनी आत्मा को ज्ञानज्योति से आलोकित करूगा । हे भगवन् | मैं अपने इन पाँचो अगो द्वारा आपकी परग शुद्ध, बुद्ध, मुक्त श्रेष्ठ, आ मा की पूजा करके अपनी आत्मा को राग-द्वेप, काम-क्रोध ममत्व, आदि बुराइयो या तज्जनित कर्मो से मुक्त, निष्कलक, अखण्डशुद्धतायुक्त, स्वरुपरमणरूप सच्चारित्र से सुगन्धित, सम्यग्दर्शन की निष्ठा से सुवासित और सम्यग्ज्ञान से प्रकाशित कर रहा हूँ। श्रीआनन्दघनजी इस पचप्रकारी अगपूजा के सम्बन्ध मे स्वमतप्रतिपादन मे तटस्थ रहे है । यही कारण है कि वे अपने अन्तर की वान स्पष्ट कह देते है-'अगपूजा पण भेद सुणी इम, गुरुमुख, आगम-भाखी रे' अर्थात् मैंने ऐसी पचप्रकारी अगपूजा अपनी परम्परा के महान गुरुओ के मुख से और चैत्यवन्दन भाप्य, प्रवचन सारोद्धार आदि अर्थागमो मे कही हुई सुनी है। १ यद्यपि जिनेन्द्रभगवान् सचित्त पुष्प के त्यागी होते हैं, द्रव्यपूजा के समय कुछ मूर्तिपूजक सम्प्रदाय को उन्हे सचित्त पुष्प चढाना असगत-सा लगता है, तथा सचित्तपुष्प की हिंसा होने की तर्क भी दी जाती है, परन्तु लाभालाभ की दृप्टि से सोच कर शुभभावो का पलडा भारी होने मे तथा गृहस्थ सचित्त पुप्पो का त्यागी नही होता, इस कारण से थोटे से सचित्तपुप्पो की हिंसा की क्रिया मे प्रथक मानी जाने से मूर्तिपूजकपरम्परा के कुछ आचार्यों ने द्रव्यपूजा के लिए इमे तथा धूप-दीप आदि को क्षम्य माना है। इसी दृष्टि से सावद्यत्यागी श्रीआनन्दधनजी ने पचप्रकारी अगपूजा के साथ मन के भावो का तार पूर्वोक्त पाचो द्रव्यो मे पूजन के समय जोडना आवश्यका बताया है। --भाष्यकार Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पूर्वोक्त अगपूजा का यह वर्णन गवहारगरी अपेक्षा ग प्रत्यष्टि ने इक्षा। ____ अव निश्चयनय की अपेक्षा ने 'भावपूजा गी दृष्टि गे जब नग जग-पूजा पर विचार करते हैं तो मा मालूम होता है कि वीनगग-पगगाना की अगपूजा के लिए निचयनय की दृष्टि में ये बता गौण है। ये यांनी चीजें जय है उनसे चेतना के महाप्राण की गजा मारमा विग गन्नपूर्ण नही लगना । क्योकि प्रत्येक द्रव्य ग्वनन है। एक द्रव्य गेनो व्य का गुच्छ मना-युग (निश्चय मे) नहीं हो मकना। निश्चयनय की दृष्टि गे पुष्प अक्षत धुप आदि पचद्रव्य परमात्मपुजा के लिए न भी लिये जाय को भी मानसिक चिन्तन के द्वारा प्रकारान्तर में भावपुप्प-ज्ञानदीप आदि हाग मानपूजा का जा सकती है। अत. शुभभावो ने उदवोधन के लिए उन्हें प्रतीक मान कर अपनाये जाय तो भावपूजा की दृष्टि से अगपूजा गफल हा मकती है। जैने पुप्प के सम्बन्ध में जनजगन् के उद्भट विद्वान् आवाचं हरिभद्रमूरि ने अप्टक मे आठ सत्पुप्प बताए है-.-'अहिमा, सत्य, जत्तय, ब्रह्मचर्य, अमगता, गुरुभक्ति, तपस्या और ज्ञान । भगवान् के चरणों में ये फूल चढाइए। इसी तरह वीतराग-परमात्मा की अगपूजा के लिए बात्मा र अखण्ड शुद्धस्वरूपमय शुक्लध्यान में मन्त हो जाइए। सुगन्धित पदाथा से परमात्मा की पूजा करनी हो तो आत्मा के अनुजीवी गुणो स्पी सुगन्धित पदार्थो से कीजिए। धर्मध्यान की धूप दे कर अपने और आमपाग के जीवन और जगत् के वातावरण को सुवामित कर दीजिए। मम्यग्ज्ञान में वृद्धि कीजिए, शास्त्रज्ञान, श्रुतज्ञान एव मतिज्ञान वढाइए। आत्मा को ज्ञानदीप से आलोकित कीजिए। यही दीपकपूजा का तात्पर्य है । आत्मा को स्वरूपनान मे स्थिर करने, स्वभाव मे रमण कराने एवं अपने शुद्धस्वरूप मे श्रद्धा करने का प्रयत्न कीजिए यही निश्चयदृष्टि से पचएका अगपूजा है। श्रीआनन्दधनजी ने जगली गाथा में पूर्वोक्त पन पकारी अगपूजा का फल वताया है १ अहिंसा-सत्यमस्तेय-ब्रह्मचर्यमसंगता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥-हरिभद्रीय अप्टक , Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यप्जा एहनु फल दोय भेद सुणी जे, अनन्तर ने परस्पर रे । आणापालन, चित्तप्रसन्नी, मुगति सुगति सुरमन्दिर रे । सुविधि० ॥४॥ अर्थ इसके दो फल सुनने मे आते हैं, एक अनन्तर [तात्कालिक सीधा Direct] फल और दूसरा पारस्परिक फल । अनन्तर फल तो वीतराग परमात्मा का सालम्बन ध्यान [ साकार उपासना ] करके क्रमश परमात्मभाव प्राप्त करने रूप परमात्मा की आज्ञा का पालन और परमात्मा की प्रतिमा को देख कर चित्त की प्रसन्नता=शुद्धात्मभाव मे चित्त की स्थिरता, है । इसका परम्पराफल हे-मनुष्यभवरूप सद्गति अथवा देवलोक की प्राप्ति और अन्त मे मुक्ति की प्राप्ति , भाष्य परमात्मपूजा का फल वीतराग-परमात्मा की उपासना किसी लौकिक फलाकाक्षा से करना उचित नहीं। उनकी सेवा, पूजा, भक्ति और उपासना अपनी आत्मा को जगाने, अपनी आत्मा को अपने अनुजीवी गुणो की ओर मोड़ने और वासना, कामना, प्रसिद्धि, आसक्ति, ममता आदि बुराइयो से दूर रखने के लिए, सत्असत् का विवेक करने और स्वस्वरूप मे निष्ठा बढाने के लिए है। इसी दृष्टि से श्रीआनन्दघनजी पूर्वोक्त परमात्मपूजा के दोनो प्रकार के फल बताते हैअनन्नरफल और पारम्परिक फल । अनन्तरफल तो तात्कालिक कहलाता है, जो कार्य सम्पन्न होते ही व्यक्ति को मिलता है, जबकि परम्परागत फल दूरगामी होता है, वह कई वार तो इमी एक जन्म में ही मिल जाता है, कई वार भवान्तर (दूसरे-तीसरे आदि जन्म) मे मिलता है । । यह तो निश्चित है कि किसी भी क्रिया का फल तो अवश्य मिलता है । माथ ही यह भी निश्चित है कि प्रत्येक क्रिया का फल कर्ता के भावो पर आश्रित है। एक समान क्रिया होने पर भी कर्ता के भाव अशुभ हो तो उसका फल भी अगुभ मिलेगा, और शुभ होंगे तो शुभ मिलेगा। तथा यदि - - १. 'या या क्रिया सा सा फलवती। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર अध्यात्म-दर्शन उम निया के करते समय निपाग और निमाक्ष भान है, गुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करने का लक्ष्य है तो उन उन शुद्धभावो में फाप उनले कर्ता को शुद्ध फन= कमों गे मुशित [मोसफल की प्राप्ति होगी। परमात्मपूजा के सम्बन्ध में भी यही बात सगजनी चाहिए। यद्यपि आध्यात्मिक माधक को फल की इच्छा नहीं होती, तथापि 'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते' इस न्याय के अनुगार विना प्रयोजन के परमात्मपूजा की प्रवृत्ति भी कोई विचारवान गाधक कौन कर गयाना है? इन दृष्टि में परमात्मपूजा के प्रयोजन और उद्देश्य या कथन फन ते ग म श्रीआनन्दधनजी ने किया है । अत ग पनि के प्रयोजन गौर उद्देश्य के भा में ये दो पन्न म्पष्ट है। __ यदि पजाकर्ता परमात्मपूजा जंगी शुभ प्रवृत्ति के माय नादे-बाजी करता है, दूसरो को धोखा दे कर, वकमे गे माल कर अपने वो भवन ना परमात्मपूजक कहलाने का दिखावा करता है, या दम्म करता है, तो यह पूजा भी अणुभभावो के पारण अशुभफनदायिनी बनती है। यदि पूजाकना शुभभावो के साथ परमात्मपजा फरता है तो उसका जनन्तरफन पुण्यप्राप्ति के परिणामस्वरूप चित्तप्रसन्नता, और परम्परा गे मनुष्यगति था देवगति प्राप्त होती है। परन्तु यदि वह निष्काम एवं निष्कादा नाव मे अपनी आत्मशुद्धि, आत्महित या शुद्धात्मभाव या वीतरागभाव मे रमणना की दृष्टि से परमात्मपूजा करना है तो उसका अनन्तर फल आज्ञापालन और चित्त की गुद्धि [प्रसन्नना है, तथा परम्पगफल कामों से मुक्ति मोक्ष] है। ___वास्तव में, शास्त्रीय दृष्टि में भगवान् की आज्ञा माथव मे प्रवृत्ति करने की नहीं है। उनकी आना आव मे रहित सवर मे या गुद्धस्वरूप मे रमण करने-एकात निर्जरा [आत्मशुद्धि] या आईत्पदप्राप्ति की दृष्टि से कोई भी प्रवृत्ति करने की है। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने बीतरागम्तुति मे कहा है- 'आपकी आज्ञा का परिपालन ही आपकी पूजा है।' यही वात श्री आवारागरन मे भी कही है.२ "श्रीतीयंकर देव ने मोक्षमाधना के १ 'तव सपर्यास्तवाज्ञापरिपालनम्'-अयोगव्यवच्छेदिका । २ आणाए मामग धम्म, एस उत्तर वादे इह माणवाणं वियाहिए। -~-आचा. थु. १ अ. ६ उ. २ . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १६३० लिए मनुप्यो को कहा है कि 'मेरा धर्म आज्ञापालन में है।' तीर्थकरदेव ने दो प्रकार के धर्मों की आचरण करने की आज्ञा दी है-~आगारधर्म और अनगारवर्म । इस विनयमूलक धर्म के आचरण से क्रमश ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों की प्रकृति का क्षय करके मनुष्य लोकान-प्रतिष्ठित सिद्धि [मुक्ति]स्थान को प्राप्त कर लेता है। परन्तु यह धर्माचरण न इस लोक के किसी स्वार्थ या वासना की दृष्टि से धर्म करे, न परलोक के किसी प्रयोजन से धर्माचरण करे, न कीति, वाहवाही या प्रतिष्ठा की दृष्टि से धर्माचरण करे, किन्तु वीतरागप्राप्ति [शुद्धात्मभाव मे स्थिरता] के उद्देश्य से धर्माचरण करे।२ निष्कर्ष यह है कि यदि कोई मुमुक्षु साधक वीतरागता-प्राप्ति की दृष्टि से वर्माचरणरूप आजा का पालन करता है, तो वह वीतराग परमात्मा की पूजा ही है और उसका अनन्तर फल वीतराग की आज्ञा का परिपालन और चित्त की प्रसन्नता [निर्मलता है। जबकि परम्परागत फल [अन्न मे] सिद्धि [मुक्ति स्थान की प्राप्ति है। जव साधक परमात्मा [पद्मासनस्थ जिनप्रतिमा के सान्निध्य में पद्मासन से वैठ कर वीतरागपरमात्मा के ज्ञानादि अनन्तचतुष्टय गुणो का ध्यान करता है तो उसके हृदयपटल मे विकारभावो या वैभाविक गुणो का जाल हट कर परमात्मभाव या शुद्धात्मभाव का आन्दोलन होता है। धीरे-धीरे परमात्मभाव सस्कारो मे जम जाता है। यही परमात्मपूजा का फल है । राचमुच ऐसी परमात्मपूजा आज्ञापालन में शुरू हो कर चित्तप्रसन्नता तक पहुँच कर गुभगति और अन्ततोगत्वा मुक्ति तक पहुँचा देती है। शुद्ध का विवेक करने के लिए ही श्रीआनन्दवनजी ने प्रभुपूजा के द्रव्य और भाव दोनो प्रकार के अनन्तर और परम्परागत फल बताये है, फलाकाक्षा करके पूजा करने की दृष्टि में नहीं। १ इच्चेएणं विणयमूलएण धम्मेण अणुपुटवेणं , अट्ठकम्मपयडीओ खवेता लोयग्गपइट्ठाणा भवति ।--ज्ञातासूत्र अ ५ २ न इहलोगट्टयाए आयारमहि द्विज्जा, न परलोगट्ठयाए आयारमाहिटिज्जा न कित्तिवन्नसिलोगट्टयाए आयारमहिट्रिज्जा; नन्नत्य आरहतेहि हेहिं आयारमहिट्ठिज्जा। -दशवकालिक अ ८-६ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अध्यात्म-दर्शन अगली गाथा म श्रीआनन्दपनजी उन युग में प्रनलिन अप्ठनकारी अग्रपूजा के सम्बन्ध में भी भावो का तार प्रभ ने जोड़ने । लिग कहते हैं--- फूल अक्षत वर धूप पईवो, गंध नैवेद्य फल जल भरी रे। अंग-अग्रपूजा मली अडविधा, भावे भविक शुभगति वरी रे ।। सविधि० ॥५॥ अर्थ फूल, जल, और गंध (केसर आदि मुगधित पदार्थ) इन तीनो मे पूजा करना अगपूजा है, तथा अक्षत. श्रेष्ठ धूप, दीपक, नवेध व फल इन पाचों से पूजा करना अग्रपूजा करना है, दोनों मिल कर आठ प्रकार की पूजा है। भव्यजीव शुम हार्दिक भावो मे उसकी आराधना करके मुगति प्राप्त करते हैं। अगपूजा और अग्रपूजा यो साय नो भावा का तार पूर्वोक्त पनप्रकारी पूजा का वर्णन करते हा श्रीआनन्दघनजी ने जैग मन साम्बी रे' कह कर मन के साक्षित्व मे--माननिय भावो को तार जोड़ कर परमात्मा की पूजा में ओतप्रोत होने का विधान किया था, उसी प्रकार यह भी जप्टनवारी पूजा मे भी गुमभावों का तार जोडने की बात कही गई है। मतलब यह है कि यहा भी पहले की तरह आठ यो गे पूजा करते समय मन मे उन द्रव्यो यो गुद्ध आत्मस्वस्प या आत्मगण की प्रेरणा के प्रतीक मान कर अगपूजा और अग्रपूजा करने से गुभगति की प्राप्ति बताई है। अगपूजा का मतलब है-ऐगे न्यो से पूजा करना, जिनना म्पर्ग परमात्मप्रतिमा से हो तथा अग्रपूजा का मतलब है-उन दगी मे गजा करना, जिनका स्पर्श परमात्मा की प्रतिमा से नहीं होता, निर्फ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष खडे रह कर उन्हे चढ़ाना होता है । इगलिए नहा ह-'अग-अग्रपूजा मली अडविध' यानी फूल, जल और केसर आदि गन्ध , ये तीन अगपुजायोग्य द्रव्य हैं , धूप,, अक्षत, दीप, फल और नैवेद्य ये पाच अगपूजायोग्य द्रव्य है। वर्तमान में प्रचलित पूजा मे द्रव्यो का क्रम यह है--सर्वप्रथम जल का अभिषेक, उनक वाट केसर व अन्य सुगन्धित द्रव्यो के बढाने का रिवाज है। तत्पश्चात् पुप्प, Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १६५ चढाना, चौथी पूजा दशाग धूप की, पाचवी दीपक की, छठी पूजा चावल की सातवी फलो की और आठवी पक्वान्न आदि, नैवेद्य चढाने की प्रथा है। , परन्तु इन दोनो प्रकार की पूजा के साथ भावहीनता हो तो . उसका यथेप्ट और यथोचित फल नहीं मिलता। इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने इस गाथा मे स्पष्ट कह दिया है-'भावे भविक शुभगति वरी रे'। भविकजीव इस अष्टप्रकारी पूजा को भावो से ओतप्रोत हो कर करेगा, तभी सुगति प्राप्त करेगा। पूजायोग्य द्रव्यो को भावो के धागे मे कैसे पिरोएँ ? यद्यपि यह अष्टप्रकारी पूजा भी द्रव्यो का आलम्वन ले कर की जाती है, तथापि इन सवको भावो के धागे मे पिरोने का अभ्यास करना चाहिए। अन्यथा, न तो चित्त मे प्रसन्नता होगी, न पूज्यदेव के साय आत्मीयता होगी और न ही पूजा का उद्देश्य सिद्ध होगा। ऐसी भाववाहिनी पूजा के अतिरिक्त कोरी द्रव्यपूजा यात्रिक, रुढिग्रस्त एव कभी-कभी प्रदर्शन होनी सभव है। इसलिए प्रत्येक द्रव्य के साथ-साथ हृदय के भावो का तार जुडना चाहिये। जैसे पूर्वोक्त अष्टप्रकारी पूजा में क्रमश जल से प्रभुप्रतिमा का अभिषेक करने या जल चटाने का रिवाज है। वैष्णवपूजाविधि मे पाद्य, अर्घ्य, आचमन, और स्नान (अभिषेक) के लिए ४ चम्मच इसलिए चढाए जाते हैं कि हम अपना श्रम, मनोयोग, प्रभाव एव धन इन चारो उपलब्धियो का यथासम्भव अधिकाधिक भाग वीतराग-परमात्मीय प्रयोजन के लिए समर्पित करें । चंकि जल शीतलता, शान्ति, नम्रता, विनय एव सज्जनता का प्रतीक है, । अत मत्त्रयोजनो के लिए मैं समय लगाऊँगा, श्रमविन्दुओ का समर्पण करूंगा। यह तो हुई व्यवहारनय की दृष्टि से बात । निश्चयनय की दृष्टि से जल चढाने के समय यह भाव आने चाहिए कि प्रभो । मैं अब तक यह नहीं अनुभव कर पाया कि मैं शुद्ध, वुद्ध, चैतन्यघन हूँ, ये इन्द्रियो के मधुर विषय विपसम है, यह लावण्यमयी काचनकाया भी क्षणभगुर है, यह सब कुछ जड की क्रीडा है, चैतन्य का इससे क्या वास्ता? इस बात को और स्वय के आत्मवैभव को भूल कर मैं महत्व-ममत्व मे फस गया था। परन्तु अव में आपके सान्निध्य मे सम्यक्-जल ले कर उस मिथ्यामल को धोने आया हूं। इसके पश्चात् चन्दन, n १. 'यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या.' Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन १६६ पेचर या अन्य सुगन्धित द्रध्य नाग जाते है। चन्दन की यह विशेषता है कि उस वृक्ष के कण-कण मे गुगन्ध होती है, यह रामीपवनी रों या लाट-आयादी को भी गुगन्धिन करता है। अपनी जीतनता गंगाप, बिन्द्र जगे विपदंग वाल प्राणियों तक को शान्ति प्रदान करता है। उसकी छाया गे गटने वाले भा गुगन्धभरी गीतलता प्राप्त करते है। उमीलाटी गाट कर बेचने या पन्धर पर घिगने वाले अपकारी भी बदले में प्रतिगोध नहीं, पर ही पान है। नष्ट होते-होते भी चन्दन अपनी लगाटी में भजन या जग नाग्ने गी माला, हवन-सामग्री वान वगैरह दे जाता है। उसी प्रकार पजागा मी यह मानना ग्वे कि मेरी शक्ति या गामर्थ्य का उपयोग भी जीवन के अन्न तव मा प्रकार हो। निरचयनय दृष्टि से चन्दन चटाते ममय यह भावना करे कि प्रभा । जद भीर चेतन की सभी परिणतियां अपने-अपने में होती है। आत्मा के वारतविक स्वरूप में अनगिन वरत गे व्यक्ति बनन्य के लिए जर को अनुकून या प्रतिकूल बताते हैं, पर यह गवगन की भूठी पाना है। मैने चन्दन ने गणा कापरात प्रतिकूल गयोगो मे भी गन को प्रोधी, निलित सग या आध्यानी बना कर गन्ममरण के चक्र को बनाया 1 अन उत्त विकारो मे गनप्त हदय नन्दन का समान शीतल बनाने के लिए आपो पाम आया है। चन्दन के बदले गाई जगह केसर या कु कुम वगैरह चाया जाना है। उग गमय भी ऐगी भावना की जा सकती है। इसी प्रकार अक्षत उपाजिन अन, धन, वैभव, वन आदि का प्रनाक ' उपार्जन को दूसरो में गविभाग न करके अपने आप ही यति रहने वाल न 'चोर' कहा गया है। अन उपार्जन को जपने एव अपने परिवार तक क उपयोग मे मीमित न रख कर उसमे देश, धर्म, समाज, सरफान आदि । '' भाग स्वीकार करना चाहिए। तदनुसार अपनी कमाई का एक बडा जग मित रूप से निकाला जाय, यह व्यवहारनय की दृष्टि से अक्षन-समपण न। प्रेरणा है। - निश्चयनय की दृष्टि मे अक्षत-समर्पण के साथ यह भावना हो कि प्रभो । मेरी आत्मा अक्षत है, उज्ज्वल है, धवल है, परद्रव्य के साथ किञ्चित् भा नही लगी हुई है, फिर भी मैं अनुकूल मनोन पदार्यो पर ममत्व और अभिमान Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १६७ निरन्तर करता रहता हूँ। मेरा चैतन्य जड़ के सामने झुक जाता है, दव जाता है, वह अखण्डित नहीं रह पाता, अन अपने शाश्वत और अविनाशी (अक्षत) आत्मनिधि को पाने के लिए मैं आप (परमात्मा) के चरण-शरण में आया है। इसके पश्चात् पुष्प-मगर्पण के गमय यह भावना करनी है कि जैसे पुष्प कोमल होता है, खिलता-खिलाना है, हलका-फुलका होता है, नम्रतापूर्वक समपित हो जाता है, वैगे ही हग भी कोमल (निरभिमान, मदरहित) हो कर खिलेखिलाएँ (आत्मविकास करे-कराएं), बाह्य चिन्ताओ के बोझ से रहित हो कर अपनी जिन्दगी हलकी-फुनकी विताएँ, विश्वोद्यान को शोभायमान बनाने के लिए अपना जीवन नम्रतापूर्वक कपटरहिन हो कर ममर्पित कर दें । फूल की तरह गर्दन नुचवा कर तथा मर्मभेदी सुई का-सा छेदन मागभावपूर्वक स्वीकार करके परमात्मा के चरणो मे समर्पित हो जाय । निश्चयदृष्टि मे पुष्प-समर्पण के गमय यह भावना करे कि हमारी आत्मा कुटितता (माया, मिथ्यादर्शन) मे रहित हो कर, पुष्प की तरह सुकोमल हो, म्वम्वरूप की सुवारा में रमण करें। स्वम्बरुप का चिन्तन हो, चैमा ही सम्भापण हो, वृत्ति मे भेद न हो । निजगुणो मे स्थिरता हो । दीपक के गमय भावोद्वोधन इस प्रकार करे कि दीपक स्नेह से -चिकनाई से भरापूरा है, वह स्वय जल कर मरो को प्रकाश देता है। इन्ही विशेपताओ के कारण उसे पूजा मे स्थान मिला-हे । इसी प्रकार हम भी अपने अन्त करण मे असीम स्नेह, सद्भाव भर कर परमार्थ के लिए बढ-चढ कर - त्याग, बलिदान करे, कष्ट सहे, स्वय ज्ञान से जाज्वल्यमान हो कर दूसरो को , ज्ञान का प्रकाश दे । जिनकी दृष्टि उत्कृष्ट आदर्शवादी, ऊद्धवगामी है, वे ही जीवन्त दीपज्योति कहे जा सकते हैं । हम भी परमात्मा के आदर्शपथ पर चल ": कर उनके कृपाभाजन वने । धूपवत्तो मे अग्निस्थापना भी प्रकारान्तर से दीपक की आवश्यकता-पूर्ति करती है, उसकी भी यही प्रेरणा है। निश्चयदृष्टि मे दीपक-समर्पण के समय यह चिन्तन हो कि प्रभो ! अव * तक मैंने जग के जड-दीपक को ही उजाला समझा था, किन्तु वह तो आधी - के एक ही झोर मे घोर अधकार बन जाता है। अत प्रभो | इस नश्वरदीप Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९८ सध्यात्मन्दमाग को समपित करके, आपके फेवन-वानन्पी दीपणा की ली ग अपने मात्मदीप को जलाने के लिए लाया है। धूप देते समय अन्तर गे यह भावना हा कि प्रमी । म चुप (वा अगस्वती) की तरह स्वय जन कर दूगरो तो मौरभ पार गणों में अपनी गुकानियो की यश मौरभ चटा दू । धूप की नन्ह निर्गममानभार गे परोपकारी अपने आपको लगा दू। निश्चयदृष्टि में धूप दें गमय विचार यार मेरी गह मिध्या प्रालि रही बिजकर्म मुझे घमाता है, में जब पी परिणति के मनुष्य हो कर अपने को रागीपी बना लेता है। इस प्रकार में गदियों में भावकर्म या भावमरण करता आया ।किन अब जापरे चारणों में आ कर इन धूप मे यह नीख न्हा हूँ कि जगनी आत्मा की रबस्वम्पाचरणम्पी गन्ध को अपनाऊं एव परगन्ध (वैभाविक परिणति) को जला दू।' फल-समर्पण के समय विचार करे कि प्रभो ! मैं अपने प्रत्येक सत्कार्य वा फल आपके चरणो में न्यौछावर कर रहा हूँ। मेरा अपना कुछ नहीं है, तब आपका ही है । मैं स्वय-कन त्व के अभिमान ने रहित हो कर फन की तरह समर्पित हो रहा हूँ । जथवा मुझे जो भी शुभ फल विश्व-उद्यान में मिले हैं, उन्हें मैं विश्व को बांट दू। निश्चयदृष्टि से यह सोचे कि प्रभो। जिन में अपना कहता हूँ, वह मुझे छोड़ कर चल देता है। मैं इससे व्यधित और व्याकुल हो जाता हूँ, जिसका फल व्याकुलता है । अन प्रभो! मैं शान्त, निराकुल चेतन हूँ, मुक्ति मेरी सहचरी है । यह जो मोह-ममत्व है, वह फल की तरह पक कर आत्मवक्ष से टूट पडे और आपके चरणो मे समर्पित हो जाय । इसी मे मेरी साथकता है। नवेद्य (मिष्टान्न आदि पदार्थ) चढाते समय सोचे कि प्रभो । मैं ससार की समस्त वस्तुओ को अपनी मान कर उनमे आसक्त रहता हूं, पर अब पदार्थ के प्रति वह ममता और अहता नाप के चरणो मे नैवेद्य के रूप मे मर्पित कर रहा हूँ। 'निश्चयदृष्टि से यह सोचे कि प्रभो ! अब तक अगणित जडद्रव्यो (परभावो) से मेरी भूख नही मिटी, तृष्णा की खाई खाली की खाली रही, युग-युग से मै इच्यासागर मे गोते खाता आया, आत्मगुणो का अनुपम रस छोड कर पचेन्द्रिय Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १६६ विषयो का रस पीता रहा अत आपके चरणो मे आत्मकथा निवेदन करके इन मब परद्रव्यो का नैवेद्य चढाता हूं। इस प्रकार पूर्वोक्त अप्टद्रव्यो के माध शुभ और शुद्ध भावो का पुट दे कर परमात्मा के गुणो मे तन्मय हो कर भक्तिपूर्वक परमात्मपूजा करके भव्यजीव शुभगति प्राप्त करते हैं। परम्परा मे वे मुक्ति भी प्राप्त कर सकते उपर्युक्त भावनाओ मे अनुप्राणित विधि को छोड कर जो प्रभुपूजा के बहाने सिर्फ गन्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्ण (गद्य-गीत के शब्दो, नर्तक-नर्तकी के रूपो, मिठाइयो, फलो या अन्य प्रमाद के रूप में प्राप्त खाद्य-पेयवस्तु के रसो, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की सुगन्धो एव कोमल वस्तुओ के सस्पर्शी , मे आसक्त और मुग्ध हो कर इन्द्रियो और मन को उच्च खल बना कर भोगो मे तन्मय होते हैं, विलासिता और रागरग मे मशगूल हो कर महफिल का मजा लूटने आते है , वे प्रभुपूजा मे कोमो दूर है। वे ऐमी प्रभुपूजा मे आत्मगुद्धि, चित्तप्रसन्नता और आत्मगुणो मे लीनता के बदले सासारिक विषयवासनाओ मे उलझ कर कभी-कभी आत्मपतन एव आत्मवचना कर लेते है । क्योकि १ शब्दादि-विपय कामगुण है, और मसार के मुल कारण है । जन्ममरण के चक को गति देने वाले है । इसी कारण उस समय के लोकप्रवाह को उलटी दिशा मे बहते देख कर आनन्दघनजी को कहना पडा-भावे भविक शुभगति वरी रे, पूजा के और भी अनेक प्रकार उम युग मे प्रचलित थे, जिनका जिक्र श्रीआनन्दघनजी छठी और सातवी गाथाओ मे करते है सत्तरभेद, एकवीस प्रकारे, अष्टोत्तरशत भेदे रे । भावपूजा बहुविध निरधारी, दोहगदुर्गतिछेदे रे ॥ सुविधि० ६ ॥ अर्थ परमात्मा की द्रव्यपूजा १७ प्रकार की है, २१ प्रकार की है और १०८ प्रकार की है । और भावपूजा अनेक प्रकार को निर्धारित (निदिष्ट) है। जो दुर्भाग्य और दुर्गति को मिटाती है। १. “जे गुणे से मूलठाणेजे, मूलठाणे से गुणे"-~आचाराग य २ उ १ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अध्यात्म-दर्शन भाध्य परमात्मापूजा के विविध प्रकार परमात्मापूजा से अपनी आत्मा को जगाने के लिए और भी अनेकों प्रकार है। श्रीआनन्दघनजी ने उन युग में प्रचगित द्रगपूजा या मातारा जा वे ?', २१ और १०८ उन तीन प्रकारो का उलम पिया है। परन्तु यह द्रव्यमानी तभी नही अर्य मे सार्थक हा सानी है, जब पूर्वाना विधि में इन सबा नार तदनुकूल शुभ या शुद्ध मावो या तार जुडा हो। अन्यथा, वह पता चल स्थूलपूजा या यान्त्रिक क्रिया बन कर रह जायगी। मनन्द प्रसार गरी पूजा उम परम्परा के आचार्या नेग प्रचार बताई है-~-~~-नान (अभियंका था स्नान), २- चदनादि का विपन, वस्त्रयुग त्र-परिधान,' ४-~~वासपूजा (वासक्षेप या सुगन्धित वस्तु, ५--पुप्पपूजा (युन न नहाना) ६-- पुरमाला, ७--पुप्पो की आगी-रचना, ८-चूर्णपूजा, [बरास का चूर्ण], Eध्वज पूजा, १०-आभूषणपूजा, ११---पुष्पगृहपूजा, १२--गुगुममेघ [पुष्पवृष्टि करना), १३-~अष्टमगलपूजा (नश्तरी या हाय में बाट मागनिका को वाम कर खडे रहना), १४-धूप-दीप-गूजा, १५-गीनपूजा, (ताललयसहित प्रभुगुणगान करना) १६ नृत्यपूजा (प्रन की प्रतिमा के आगे नृत्य करना) १७सर्ववाद्यपूजा। । - इसी प्रकार २१ प्रकार्ग द्रव्यपूजा भी उन युग में प्रचलित थी। वह इस प्रकार है- ~-जलपूजा, २-वस्त्रपूजा, :..-चन्दनपूजा, ४-पुष्पपूजा, ५-वासपूजा, ६-चूर्णाचूर्णपूजा (बराम के चूर्ण मे नन्दन टालना), ७--- पुष्पमाला, ८-जप्टमागलिक-पूजा, ६-दीपकापूजा, १०-चूपपूजा, -११---- अक्षतपूजा, १२-ध्वजपूजा, १३-चामरपूजा, १४-~छत्रपजा, १५----मुकुटपूजा, १६-दर्पणपूजा, १७-नैवेद्यपूजा, १५-फूलपूजा, १६-गीतपूजा, २०-नाटकपूजा, २१-वाद्यपूजा । इसी प्रकार प्रभुप्रतिमा के आगे सुन्दर फल व नैवेद्य चढा कर १०८ प्रकार से द्रव्यपूजा करने की परम्परा भी उस परम्परा में प्रचलित है। इसी तरह अष्टोत्तरी, चौमठ प्रकारी या ६६ प्रकारी द्रव्यपूजा भी कही-कही प्रचलित है । १ वस्त्रयुगल के बदले कही-काही 'चक्षुयुगल' मिलता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा परन्तु इन सबके माथ पुर्वोक्त प्रकार मे तदनुकूल भावनाओ को जोडना आवश्यक है। क्योकि इन सब द्रव्यपूजाओ का उपयोग इतना ही है कि ये सब भावपूजा का निमित्त बने । अकेली द्रव्यपूजा दुर्भाग्य और दुर्गति का नाश करने वाली नहीं है । इसी कारण आरम्भ-परिग्रह के त्यागी, अनगार (मुनि) या साधुसाध्विगण द्रव्यपृगा नहीं करते, वे मिर्फ भावपूजा ही करते है । इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने भावपूजा पर जोर देते हुए कहा है-~भावपूजा बहुविध निरधारी, दोहग्गदुर्गतिछेदे रे । ___ भावपूजा पया, केसे और फिसलिए ? वास्तव मे द्रव्यपूजा नो भावपूजा तक पहुँचाने हेतु । गृहस्थसाधको (देशचारित्री) के लिए एक माधन हो सकती है । जैगे-नन्हें गिशु को खिलौने दे कर या चित्र बता कर उनके जरिये विविध पदार्थो का बोध कराया जाता है, परन्तु आगे की कक्षाओ मे पहुंचने पर उसे चिनो या खिलोनो की जरूरत नही पडती, वह उन्हें छोड़ देता है और अपनी भावना और चिन्तनशक्ति के जरिये विविध अनुभव प्राप्त कर लेता है। मभव है, इसी प्रकार आचार्यों ने स्थूलबुद्धि प्राथमिक भूमिका के लोगो के लिए मूर्ति या किसी प्रतीक मे परमात्मा की छवि की कल्पना करके या उगमे परमात्मा का आरोपण करके विविध द्रव्यो से म्यूल पूजा करने का विधान किया हो, परन्तु उनका मूल लक्ष्य और मुख्य प्रयोजन तो भावपूजा तक प्रत्येक जिनामु को पहुंचाने का रहा है। श्रीआनन्दवनजी ने भी इसलिए वारवार भावपूजा की ओर इगित किया है। ___ भावपूजा मे किसी वाह्य वस्तु का आलम्बन नही लिया जाता । उसमे अपने हृदय के तारो को भगवान के गुणो से जोडा जाता है। जहाँ किसी बाह्य द्रव्य का आश्रय न ले कर सिर्फ अपने मनोभावो द्वारा ही पूज्य की पूजा-भक्ति की जाती है, उनके चरणो मे त्याग, बलिदान एव सयम का नैवेद्य चढाया जाता है, उनके समक्ष प्रार्थना के रूप में अपनी आलोचना, गर्हा, आत्म-निवेदन, आत्मनिन्दना (पश्चात्ताप) व्यक्त की जाती है, स्तोत्रो, भजनो, स्तवनो और स्तुतियो के माध्यम से या ध्यान, चिन्तन, मनन, आदि से परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, वहाँ भावपूजा है। ___ इसलिए भावपूजा का कोई : एक ही प्रकार न- बता कर बहुविध प्रकार बताए हैं । चूंकि वीतरागपरमात्मा मे ; अनन्तगुण है, उन समस्त गुणो की Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अध्यात्म-यान प्राप्ति के लिए विविध रूप में अध्ययनाय करना होता है । गनिए भावजा भी असंख्य प्रकार की है। भव्यात्मा जब भी किसी गुण की प्राप्ति के लिए गुज्यचरणों में विगी भी प्रकार में निवेदन गारना है, और सपनुनार नप्रिय होने का प्रयत्न करता है, जब उस भावपूना गे उगमे दीपि, दुख और दुर्गनि नष्ट हो जाते है। जैसे कि एक जैनाचार्य ने कहा है ... 'वीतराग-पन्मात्मा की पूजा करने में उपनगां का भय हो जाता है, विघ्नरपी बेलें कट जाती है, मन प्रसन्नता मे भर जाता है। ____ यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जर मनुष्य किनी चिन्ता, विपत्ति, पष्ट या अनिष्ट वातावरण मे घिरा होता है, तब यदि किनी नर्थ व्यक्ति का उगे आश्वासन मिल जाता है, या वह फिनी समर्थ व्यक्ति की मेगा में मनग्न हो जाता है अपवा किमी उच्चगुणी पर विश्वास रख कर उसकी आगधना करने मे लग जाता है अथवा किसी विशिष्ट गुणी में गुणो को प्राप्त करने की उगे प्रेरणा मिल जाती है और उस पर विश्वास रख कर उनके आदेग-निर्देश में वह माधना करता है, तो स्वाभाविक ही उसकी वह चिन्ता, विपत्ति, पट या अनिष्ट परिस्थिति समाप्त हो जाती है, उनको व्यथित करने वाले जलजलूल विचार ममाप्त हो जाते हैं और उसका मन आश्वल, विश्वस्त और नमाहित एव नमाधिस्थ हो जाता है। नाथ ही परमविस्वन्नपुग्पो पर विश्वाम ग्यु कर अपने पापकर्मों का त्याग करने और और अहिंसा-सत्यादि घमो का आचरण करने से उसके दुर्गति के द्वार बंद हो जात है, भद्गति और मुक्ति के द्वार खुल जाते है। यही बात परमआराध्य वीतरागपरमात्मा की नेवा, भक्ति, उपासना और भावपूजा के सम्बन्ध म समझनी चाहिए। इसी दृष्टि से परमात्मा की भावपूजा में दुर्भाग्य और दुर्गति के नष्ट हो जाने की बात कही गई है । क्योकि कापटरहित हो कर परमात्मा के सम्मुख आत्मसमर्पण करने मे ही परमात्मा की अखण्ड भावपूजा होती है, जिनका तात्कालिक फल चित्त की प्रसन्नता है, यह प्रथम तीर्थकर की स्तुति उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा २०३ मे कही गई है । जत भावपूजा मे चित्त के समस्त विकार, दुश्चिन्ता, दुर्व्यान, आदि काफूर हो कर उसमे प्रसन्नता, स्वच्छता, निर्मलता और पवित्रता पैदा हो जाती है, जिसने दुर्भाग्यदूर हो कर मद्भाग्य मे परिणत हो जाता है, दु स्थिति, दुश्चिन्ता और दुर्गति मिट जाती है और सुस्थिति, निश्चिन्तता और सुगति प्राप्त हो जाती है, परम्परा से कर्मक्षय होने मे मुक्ति प्राप्त हो सकती है । उपर्युक्त नथ्यो वे प्रकाश मे मतरह प्रकार की भावपूजा का अर्थ है--१७ प्रकार का असयम छोड कर आत्मा के शुढ सयमगुणो को अपनाना । इक्कीस प्रकार की भावपूजा का अर्थ है--२१ प्रकार के मवलदोपो का, त्याग करके आत्मा के अनुजीवी गुणो की आराधना करना । इसी तरह १०८ प्रकारी भावपूजा भी पचपरमेष्ठी के १०८ गुणो की आराधना करने से होती है । अथवा १७ प्रकार का मयम-पालन करने का पुस्पार्थ करना तथा बारह प्रकार के तप और नौ प्रकार की ब्रह्मचर्यसमाधि मिल कर २१ गुणो की आराधना करने का पुरुपार्थ करना भी भावपूजा है । पूर्वोक्त गाथाओ मे अगपूजा और अग्नपूजा, यो दो प्रकार की द्रव्यपूजा और अनेक प्रकार की भावपूजा, इस तरह पूजा के तीन प्रकारो का वर्णन किया गया, अब अगली गाथा मे चौथी प्रतिपत्तिपूजा का वर्णन करते है तुरियभेद पडिवत्तिपूजा, उपशम-क्षीरग-सयोगी रे । चहा पूजा इम उत्तरज्झयणे, भाखी केवलभोगी रे। सुविधि ॥७॥ अर्थ परमात्मपूजा का चौथा प्रकार प्रतिपत्तिपूजा है। जो उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली नामक ११वें १२वें और १३वें गुणस्थान मे होती है । यो चतुर्य प्रकार की पूजा श्रीकेवलज्ञानी ने उत्तराध्ययनसूत्र मे बताई है। भाष्य परमात्मपूजा का चौथा प्रकारः प्रतिपत्तिपूजा परमात्मपूजा के तीन प्रकारो का वर्णन पहले की गाथाओ मे कर चुके - - RT ramana Antimom Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अध्यात्म-दर्शन है। यहां श्रीआनन्दघनजी ने चौथे प्रकार गो गूजा--प्रतिपत्तिपूजा बताई है। ___ यहाँ 'चउहा पूजा' का अर्थ चौधी (चतुर्थी) गूजा है, जोकि उत्तराध्ययनमूत्र की वृत्ति में प्रतिपत्ति का उल्लेख है। वहीं अनाणातनाविनय को प्रतिपत्ति कहा गया है। प्रतिपत्तिपूजा की व्याग्या ग प्रकार है उत्तराध्ययनमून की वृत्ति मे विनय के प्रगग गे प्रतिगति सामर्थ अनाशातनाविनय बताया है। ललितविस्तरा वृत्ति नादि में प्रतिपत्ति का अर्थ 'प्रतिपत्ति अविकलाssप्तोपदेशपालना' किया है । यानि आप्तपुरुषो के उपदेश का अखण्ट (अधिरून) रूप से पालन करना प्रतिपत्ति है। यह अर्थ व्यवहारमय की दृष्टि में मगन है। किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से प्रतिपत्ति का अर्थ होता है--परमात्मा को आत्मभाव से अगीकार करना अथवा आत्मा के गुणों का गमयरूप में अनुभव करना, परमात्मा मे स्वस्वन्ग ना गवेदन यथार्थम्प गे गरना परिणत्तिपूजा है। प्रतिपत्तिपूजा के अधिकारी प्रतिपत्तिपूजा भी भावपूजा का विशिष्ट अग है, जिन्तु उगक अधिकारी ११ वे गुणस्थान में स्थित उपगान्लमोही होते है, जिना तमाम नपायभाव उपशान्त हो जाते है, अथवा १२ वे गुणन्यान गे स्थित क्षीणमोती है, जिनके तमाम कंपायभाव क्षीण हो चुके होते है, अथवा तेरहवें गुणन्धान में स्थित : सयोगी-केवली भगवान् है, प्रथम दो कोटि के महान् आत्मा आत्मगुणो का यथार्थरूप से अनुभव कर लेते है, अथवा यथाय्यात-चारित्री होने के कारण वीतरागगरमात्मा के उपदेश का वे अविकलरूप से पालन करते है, अथवा वे पूर्णता के पथ पर होने मे वीतरागपरमात्मा की जरा भी आशातना या आज्ञा की अवहेलना नहीं करते। अन्तिम सयोगी-केवनी तो सदेहमुक्त वीत-राग हो जाते है, और वे आत्मा-परमात्मा के गुणो का साक्षात् अनुभव करते है और यथाख्यातचारित्री होने से वे अविकलरूप मे आज्ञापालन करते है। । इस प्रकार परमात्मपूजा के चार प्रकार श्रीआनन्दघनजी ने इस स्तुति मे बताए हैं-अगपूजा, अग्रपूजा, भावपूजा और प्रतिपत्तिपूजा। किन्तु Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा २०५ जैसा कि पूर्वोक्त गाथाओ के वर्णन में बताया गया है, दो प्रकार की द्रव्यपूजा प्राथमिक भूमिका वालो के लिए है और वाद .. की दो प्रकार की भावपूजा उत्तरोत्तर उच्चभूमिका वालो के लिए है । इसी बात को ललितविस्तरावृत्ति मे स्पष्टस्प से बताया गया है कि पुप्पपूजा ( अगपूजा ), आमीपपूजा (अग्रपूजा) स्तुतिपूजा (वन्दना, कायोत्सर्ग, स्तुति, स्तव, नामस्मरण, जप, गुणकीर्तन, प्रार्थना एव भावना आदि के जरिये भावपूजा) और प्रतिपत्तिपूजा इन चारो पूजाओ मे क्रमश उत्तर-उत्तर (आगे-आगे) की पूजा अधिक महत्त्वपूर्ण है। देशविरति मे उक्त चारो पूजाएँ होती हैं, सराग-सर्वविरति आदि में स्तुति और प्रतिपत्तिरूप दो पूजाएँ होती है, उपशान्त मोहादि-पूजाकर्ता में प्रतिपत्तिपूजा ही होती है। निष्कर्ष यह है कि द्रव्यपूजा से भावपूजा श्रेष्ठ है, और वही उपादेय है । परमात्मपूजा का मुख्य प्रयोजन आत्मस्वरूप में रमण करना और आत्मशुद्धि करके आत्मा के अनुजीवी गुणो को विकसित करना है, जो भावपूजा के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है। इसी कारण श्रीआनन्दधनजी परमात्मपूजा के उद्देोण्य एव फल के सम्बन्ध मे गकेत करते हुए अन्तिम गाथा मे कहते हैं इम पूजा बहुभेद सुरणीने, सुखदायक शुभकरगी रे। भविकजीव करशे ते लेशे, 'आनन्दघन'-पद-धरणी रे॥ सविधि ० ॥८॥ अर्थ इस प्रकार परमात्मपूजा के बहुत-से भेदो को सुन-समझ फर जो भव्यजीव लौकिक और लोकोत्तर सुखदायक शुभकरणी = उत्तम अनुष्ठान (जिनाज्ञावाह्य क्रियाओ का त्याग करके जिनाज्ञायुक्त शुभक्रिया) करेगा, यानी उसे क्रियान्वित करेगा, वह आनन्द के समूहरूप परमपद (मोक्ष) भूमि [मोक्षभूमि सिद्धशिला] प्राप्त करेगा . अथवा मोक्षपद की भूमिका प्राप्त करेगा। पुष्पाऽमीष-स्तुति-प्रतिपत्तिपूजाना यथोत्तर प्राधान्यम् । देवविरती चविधा सराग-सर्वविरत्यादी स्तोत्र-प्रतिपत्तिरूपे द्व । उपशान्तमोहाऽऽदी पूजाकारके प्रतिपत्तिः ॥ १ -ललितविस्तरादि से Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अध्यात्म-दर्शन भाष्य परमात्मपूजा का रहस्य जान कर उसे क्रियान्वित करना है इस नाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मपूजा के बहुन गे प्रकार और उसके रहस्य के ज्ञान पर बहुत जोर दिया है। नाय ही उन लोगो को चेतावनी भी दी है कि केवल पूजा के रहस्य को जान लेना ही पर्याप्त नहीं है, उसमे लौकिक और लोकोत्तर दोनो प्रकार के मुख को देने वाली जिनानायुक्त गुभक्रियाएँ है, उन्हे अवश्य करना है। जिन क्रियाओ से आत्मा अपने गुढ म्यरूप मे रमण कर सके, जो त्रिया आत्मा को स्वगुणो की ओर ले जाने वाली है, आत्मा का विकास करने वाली है, वे ही निया लौकिक और लोकोनर मुख देने वाली है। जिनसे आत्मा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारो की और जाती हो, जिनसे अपना और मरो का अहित होता हो, जो किया मनुष्यजीवन मे वैर-विरोध-बर्द्व क, हिमा, असत्य आदि बटाने वाली हो, वे लोक-परलोक दोनो जगह दु सदायिनी है, लोकोत्तर मुख तो उनमे मितता ही कैसे ? परन्तु जिस करणी से दूसरों को क्षणिक सुख मिलता हो, मगर अपने आप को जन्ममरण के चक्र मे पड़ पर दुख पाना पड़ता हो, अथवा अपने को क्षणिक नुख प्राप्त होते हुए भी दुसरो को दुख में पड़ना पडता हो, (जैसेपूजा के लिए पशुवलि या गराव आदि चटाना) वह करणी उभयतुखदायक नहीं है, इसलिए उसे शुभकरणी नहीं कहा जा सकता । अथवा जिस जिया ने इहलोक मे तो नाशवान ऐन्द्रियक सुखो की प्राप्ति हो जाय, परन्तु परलोक का अथवा लोकोत्तर मुख का मार्ग उमसे अवरुद्ध हो जाय, उमे भी सर्वमुखदायक - शुभकरणी नहीं कहा जा सकता। जिस करणी से कालिक और त्रैलौकिवा गुख की प्राप्ति हो, उगे हम सर्वसुखदायिनी गुभकरणी कह सकते है । ऐसी शुभकरणी से भव्य भक्तजन अवश्य ही मच्चिदानन्दमय पद की भूमिका या भूमि (स्थान) प्राप्त कर सकेगा। ___इस गाथा से यह भी ध्वनित होता है कि प्रभुपूजा के ज्ञाता को केवल जान कर ही नहीं रह जाना चाहिए । अगर वह केवल जान-समझ कर भी चुपचाप बैठ जाता है, अवश्यकरणीय शुभक्रिया में प्रवृत्त नहीं होता, तो वह इस हाय मे आई हुई वाजी या अमूल्य अवसर को खो देगा, इस जिंदगी से Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा २०७ प्राप्तव्य अलम्यलाभ को गवा कर बाद मैं हाथ मल-मल कर पछताएगा। अथवा परमात्मपूजा का यह अवसर बार-बार नही मिलेगा। अगर इसे चूक गए तो परमानन्दपद-प्राप्ति के बदले दुखद्वन्द्ववईक जन्ममरण के चक्र मे भटकना पडेगा । वार-बार जन्ममरण के दुख से बचना हो तो मावपूजा का आलम्बन लेना ही उत्तम है। सारांश इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा के विविध प्रकार बता कर अन्त में भावपूजा और प्रतिपत्तिपूजा पर जोर दिया है, माथ ही पूजा का रहस्य बता कर इसे शुद्ध आत्मस्वरूप के लक्ष्य से करके आनन्दघनमय पद प्राप्त करने का सकेत किया है । इस प्रकार की समझपूर्वक की गई परमात्मपूजा से अन्त में प्राप्तव्य जो लोकोत्तर लाभ-सच्चिदानन्दमय परमात्मपद अथवा उक्त पद का जो स्थान है, वह मिलता है । ., अव आगामी स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी परमात्मपूजा मे पहले के परस्परविरोधी गुणो मे युक्त परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का रहस्योद्घाटन करते हैं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०: श्रीशीतलनाथ-जिन-स्तुति-- परस्परविरोधी गुणों से युक्त परमात्मा (तर्ज-गुणह विशाला मंगलिक माला, राग धन्याधी गोडी) शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी, विविध भंगो मन मोहे रे । करुणा, कोमलता, तीक्षणता, उदासीनता सोहे रे ॥ शीतल० ॥१॥ दसवें तीर्थकर श्रोशीतलनाय जिनेन्द्र परमात्मा की विविध सुन्दरमगियो पर चितन करने पर वे मन को मुग्ध कर देती हैं। वीतराग-परमात्मा में एक ओर अहिंसकमाव होने के कारण फरणा और कोमलता [नम्रता है, तो दूसरी ओर इनसे विरोधी तीक्ष्णता [भरता] और उदासीनता [उपेक्षाभाव] से वे सुशोभित हैं। भाष्य परमात्मा के जीवन के विविध पहलू पूर्वन्तुति में परमात्मपूजा के सम्बन्ध में विस्तृतरूप गे कहा गया , लेकिन सवाल यह होता है कि परमात्मा का वास्तविक बला क्या है ? उनमें कई बार परम्परविरोधी गुणो का निवान भी होता है, जिन्हे देख कर पूजक (भक्त), चाकर में पड़ जाता है कि किग गुण बाते प्रभु गो आदर्ग व पूज्य माना जाय ? जैनधर्म परमात्मा के बाह्य रूप की अपेक्षा आन्तरिक म्प को ही पूज्यता या उसकी पूजा का आधार मानता है । अन्य सम्प्रदायो में जहां आत्मिया गुणो के वैभव की ओर ध्यान न दे कर शारीरिक वाह्यवभव, आभूपण एव पोशाक आदि वाह्य रूपो से ही, स्यूलप्रभुता से ही अपने माने हुए तथाकथित प्रभुओ या भगवानो को पूज्य मान कर उनकी पूजा-भक्ति पर जोर दिया जाता है, वहाँ जैनधर्म वाह्यरूपो, वैभव, पौगावा, आभूपणादि ठाठ-बाठ व बाह्य चमत्कारो पर से ही किमी की पूज्यता का मापदड नहीं मानता, न उसे पूज्य Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा २०६ मानता है, और न उसकी पूजा का विधान करता है, उसे अमुक नामो से कोई पक्षपात नहीं है, किन्तु वह आन्तरिक गुणो आत्मिक वैभव, रागद्वेषरहितता आदि अन्तरग रूप को ही महत्त्व देता है। इसी कारण आप्त मीमासा मे जैनाचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है-१ प्रभो । आपके पास देव आते हैं, आप आकाश में उडते है, आपके पास छप, चामर आदि विभूतियाँ हैं, इनसे आप हमारे लिए महान् (विश्वपूजनीय) नही है, क्योकि ये सव वाह्य वैभव या चमत्कार आदि तो एक जादूगर मे भी पाये जा सकते हैं ।" जैनधर्म तो गुणो का पूजारी है। 'जिसमे वीतरागता के गुण हो, यानी ससार के बीज को अकुरित करने वाले राग-द्वेषादि दोप जिसके नष्ट हो गए हो, फिर वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हर हो, बुद्ध हो, या जिन हो, उसे नमस्कार है।' इस दृष्टि गे परमात्मा की परीक्षा वाह्य स्प, वैभव, विलास व ठाठबाठ या चमत्कार से न करके वीतरागता आदि अन्तरग गुणो की परिपूर्णता मे करनी चाहिए। परन्तु कई वार वीतराग-परमात्मा मे विरोधी गुण देख कर उनसे घबराना नहीं चाहिए, अपितु अनेकात व सापेक्षदृष्टि से विचार करके विरोधी प्रतीत होने वाले जताग गुणो का परस्पर सामजस्य बिठा लेना चाहिए। प्रथम गाया मे श्री वीतराग प्रभु [१० वे नीर्थकर श्रीशीतलनाथजी] के माध्यम ने उनके जीवन मे विविध भागमगियो [दृप्टियो] वाली मनोरम विभगियो का उरलेख करते है। यानी वीतराग प्रभु हमारी पूजा के आदर्श है [फिर भले ही वे चाहे जिस नाम के हो], हमारे लिए पूजनीय हैं। एक ओर उनमे अतरग गुण हैं-करुणा और कोमलता, जबकि दूसरी ओर ठीक इससे विरोधी गुण-तीक्ष्णता और उदासीनता भी हैं। -देवागमस्तोत्र १. देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतय. । मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥ २. भवबीजाकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ॥ - -आचार्य हेमचन्द्र Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अध्यात्म-दर्शन प्रश्न होता है कि जब प्रभु राग ग रहित है, नो उनमे करणा और कोमलता [हृदयद्रावकना] काँगे है ? नोकि जमणा और गोगलता दोनों ही प्राय रागजनित होती हैं, फिर भले ही ये दोनो प्रातरागनिन से तथा उनमें ठीक इन दोनो गुणी गे विपरीत नीटना और उदागीनगा को? क्योकि ये दोनो प्राय पजनिन होनी है। फिर गले तरी या प्रशन ए ही क्यों न हो। ____ मतलब यह है कि ये परस्परविरोधी गुण बीनगगपरमात्मा में गुणोगिन हो रहे है, इसका क्या कारण है ? इसी शका का समाधान तथा पररपर विरोधी गुणों में निवास की मगति अनेकान्तसिद्धात द्वारा अगली गाया मे इग पवार बिठाई गई है सर्वजन्तुहितकरणी करणा, कर्मविदारण तीटारण रे। हानादानरहित परिणामी, उदासीनता-वीक्षण रे॥ गीतल० ॥२॥ अर्थ प्रभु मे जो करणा है, वह सर्वजीवहितकारिणी है, वही कोमतता है; तया उनमे तीक्ष्णता (कठोरता) इसलिए है कि वे फर्नगनुओ का समूत छेदन करने मे कठोर हैं । किमी ईष्ट व मनोज रतु को देख कर उगे रागवश ग्रहण करने के तथा अनिष्ट व अमनोज वन्तु को देख कर उसे छोडने के हेपयुक्त परिणामो से रहित हैं, तया ससार के समस्त पदार्या या जीवो को समभाव मे देखते हैं, इसलिए उदासीनता का गुण भी उनमे दिखाई देता है । भाष्य विश्ववन्ध परमात्मा के चरित्र में परस्परविरोधी गुणो की प्रथम सगति परमात्मा का चरित्र विविध प्रकार से विचारणीय है। केवल विचारणीय ही नहीं, आदरणीय, पूजनीय और उपासनीय भी है, आनन्दजनक भी है। उपर्युक्त गाया मे प्रभु के चरित्र मे तीन परस्परविरोधी गुणो के समावेश की सगति अनेकातवाद की दृष्टि में की गई है। वे गुण है-कणाकोमलता, तीक्ष्णता और उदासीनता। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा २११ प्राय देखा जाता है कि जिसका हृदय करुणा और कोमलता से परिपूर्ण होता है, उसके हृदय मे तीक्ष्णता-कठोरता प्रतीत नहीं होती, और तीक्ष्णता हो तो उदासीनता नही हो सकती, परन्तु वीतरागपरमात्मपद का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर उसमे ये तीनो परस्परविरोधी गुण एक साथ दिखाई देते हैं । वे कसे? परमात्मा के उन-उन गुणो का स्वरूप समझे विना झटपट निर्णय कर बैठे, यह उचित नहीं। अत इसी का समाधान करते हुए, श्रीआनन्दघनजी कहते हैं- सर्वजन्तुहितकरणी करुणा अर्थात् वीतराग तीर्थकर परमात्मा की वृत्ति जगत् के त्रस-स्थावर आदि समस्त प्राणियो का हित करने की होती है । प्रश्नव्याकरण-सूत्र मे तीर्थकर भगवान् द्वारा की जाने वाली प्रवचनप्रवृत्ति का उद्देश्य बताया है कि समस्त ससार के जीवो की रक्षारुप दया के लिए भगवान् ने प्रवचन कहे हैं। 'सवै जीव करु शासनरसी, ऐसी भावदया मन उल्लसी' इस प्रकार सर्वप्राणियो का हित करने वाली करुणा और कोमलता उनमे है। किन्तु पहले अपनी आत्मा की करुणा किये बिना कोई परमात्मा करुणानिधि नही बन सकता । अत. कर्मशत्रुओ या रागद्वेपादिरिपुओ से दबी हुई, रक बनी हुई । अपनी आत्मा पर करुणा करने के लिए वे इन शत्रुओ से जूझते है, इन पर करुणा नही करते, इसीलिए कहा है-'कर्मविदारण तीक्षण रे कर्मों के नष्ट करने मे वे अत्यन्त कठोर बन जाते है। अथवा अपने वृतकों का नाश करने हेतु अपनी वृत्तियो को तीक्ष्ण बना कर परमकरुणाशील प्रभु शुक्लध्यान उत्पन्न करते है । कृतकर्मों को काटने में शुक्लध्यानवृत्ति ही सफल होती है, जिसे तीक्ष्ण गुण कहा गया है। इसलिए तीक्ष्णता भी वीतरागप्रभु की गोभा है। इसी कारण उनका एक नाम अरि [ कर्मशत्रुओ ] के हन्त [नाणक] भी है । उन्हे कर्मों पर दया नही आती कि ये वेचारे कहाँ जायेंगे? इनका क्या होगा? अत जिस समय प्रभु में पूर्वोक्त प्रकार का करुणाभाव होता है, उसी समय उनमे कर्मों को काटने की तीक्ष्णता तीव्रता] भी होती है । परन्तु विचार करने पर यह विरोध नहीं रहता। क्योकि करुणा करने योग्य प्राणी अथवा आत्मा और कर्म विलकुल अलग-अलग हैं। जव परमात्मा वीतराग कर्मरहित हो कर १. 'सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहिय । - । -प्रश्नव्याकरणसूत्र Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अध्यात्म-दर्शन परमशुनन्नध्यानी हो जाते हैं, तब उनगे साधकदशा मिट कर सिद्धमुक्त] दगा प्रगट हो जाती है, और उन्हे जगा समम्न पदार्थ हानागलावत् हो जाते हैं। उस समय ये समस्त पदार्थो को तटम्यरूप-उदासीन माब ने देने हैं उनके लिए ग्राह्य-अयाह्य भाव नहीं रहता। वे न तो किमी अनिष्ट वरतु पर द्वैप करके उस का त्याग करने की प्रवृत्ति करते है और न ईप्ट वस्तु पर राग करके उगे स्वीकार करने की। क्योकि वे रागद्वेष में सर्वथा गहन हैं । इसी त्याग-ग्रहणरहिन परिणाग वाली दृष्टि को उदागीनता कहते है, जो प्रभु के परमपद की प्राप्ति की मुख्य हेतु है। निश्चयदृष्टि मे विचार करें तो वीतराग-परमात्मा मे कारणावृति का गुण केवल परात्महितकर नहीं, अपितु वास्तव में स्वामहितकर होता है । और स्वात्महित वे तभी मानते है, जब कर्मों के बन्धन में आत्मा को बचाएँ । तथा कर्मवन्धन नमी नष्ट होता है, नव औदासीन्यभाव से युक्त माया वी उत्कृष्ट आत्मवीर्य की तीक्ष्णना हो। इस प्रकार ये नीनो परम्पर विरोधी गण वीतराग-परमात्मा मे एक गाथ पाये जाते हैं, जो ये चेतनामीन जाग्रत साधक को प्रेरणा देते हैं। जगली गाया मे इसी विभगी जीन्य प्रकार में गगति बनाने :-~-- परदु खछेदन-इच्छा करुणा; तीक्षण पर दुख रीझ रे। उदासीनता उभय-विचक्षरण, एक ठामे किम सीझे रे ? शीतल० ॥३॥ अर्थ दूसरो के दुखो को मिटाने की इच्छा ही करणा है। पर [परभावो या आत्मा से भिन्न जडपुद्गलो] को दु.खी [आत्मा से हटते देख कर वे प्रसन्न होते हैं, यह उनकी तीक्ष्णता है। तथा करुणा और तीणता दोनो के लक्षणों से विलक्षण माध्यस्थ्यवृत्ति या तटस्थपरिणाम उदासीनता है । जाश्चर्य होता है कि ये तीनो गुण विलक्षण होने से एक जगह कैसे सिद्ध हो (रह) सकते हैं। परन्तु प्रभु मे ये तीनो गुण एक साथ रहते हैं, यही उनकी प्रभुता है। भाष्य दूसरी दृष्टि से विभगी को सगति पूर्वोक्त गाथा मे वीतराग-परमात्मा मे तीन परस्पर विरोधी गुणो की Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा २१३ मगति एक दृष्टि गे की गई थी। इग गाथा मे दगरी दृष्टि मे उन तीनो गुणो की नगति विठाई गई है। अध्यात्मकल्पद्र म' ग-ध में करणा या लक्षण बनाया गया है-परदुख देख कर उसे दूर मा की अथवा दुगरो को विगी प्रकार का दुख न हो, इमे देखने की इच्छा करणा है। व्यवहारदृष्टि में वीतगगप्रभु को परम कागणिक, निष्काम करणाजील कहा जाता है। वे टूमरो को दुखी देख कर उमे उम दुग से छुड़ाने की इच्छा रखने हैं, उमे उक्त दु ख मे छुटकारे का उपाय बताते है । दु य क्यों होते हैं ? उन्हें किगने पैदा किये है ? उनके निवारण के क्या जपाय हैं ? इत्यादि सब बाते वे जगत् के पीडित संसारी जीवो को बताते हैं। इसलिए करणा तो उनमे है ही। परन्तु उनके साय ही जब वे देखते हैं कि मगारी जीव राग, द्वेग, मोह और अज्ञान के कारण या परपदार्थ के सम्बन्ध के कारण दुग पाते है तो अपनी आत्मा के साथ लगे उन परणदार्थों के गम्बन्धो को हटाने में जबर्दस्त तीक्ष्ण वृत्ति भी प्रभु में होती है, वे उन राजीव या निर्जीव परपदार्थों का मोहबन्धन बडी सन्नी मे हटा कर सुण होते है । इगीलिए कहा गया-"तीक्षण पर दुख रीझे रे" यानी बन्चन मे डानने वाले परपदार्यो के जपनी या दूसरो की आत्मा से पृथक् होने गे दु ख में पटे देख कर राजी होते है। वे इन्द्रियदमन मे पुद्गलो को हटाने मे खुग होते हैं। नीमरी ओर वे उदासीन भी रहते हैं। जहां वे देखते हैं कि अनेक प्राणी जानबूझ कर गुभाशुभ कर्म उपार्जन करते हैं, कोई भूठ बोलते है, चोरी, ठगी, बेईमानी, चुगली, माया आदि करते हैं, उन सबके प्रति वे उदासीन रहते है। यानी पापकर्म करने वाले जीवो को देख कर न तो वे उनके प्रति करुणा करते हैं, और न ही उनके प्रति कठोरता (नोध) करते हैं, वे करुणा और तीक्ष्णता से अलग ही उदासीनता या तटस्थता की वत्ति रखते हैं। इस प्रकार परम्परविरुद्ध तीनो बाते प्रभु मे है, विरोधाभास ने युक्त तीनो गुण उनमे एका माथ मौजूद रहते हैं । निश्चयदृष्टि ये देखे तो राग-द्वेप-मोह आदि के कारण दुख पाते हए मासारिक जीवो को देख कर उपदेश, प्रेरणा आदि प्रवृत्ति द्वारा उनके वन्धनमुक्त होने का प्रयत्न वे करते हैं। अथवा परपदार्थो के प्रति आसक्ति के कारण अपनी आत्मा को होने वाले दुःखो के दूर करने की इच्छा चीतराग-परगात्मा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अध्यात्म-दर्शन की सच्ची करुणा है। दूसरी ओर परपदार्थों के नाथ सम्बन्धों को हटाने की कठोरता होने से, परपदार्यों को अपने मे हुआ वियोग-दुध देग कर भगवान प्रसन्न होते है और मामारिक जीवो के शुभाशुभ परिणामो को अपने ज्ञान में देखते ह, पर दर्पणवन् तटस्थ रहते है, ममता रखते है। इन प्रकार वीतराग परमात्मा मे करुणा तीदणता, और उदानीनना इन तीनो परम्पर विरोधी गुणो का गमावेश हो जाता है। अगली गाया मे फिर इन्ही तीन गुणो की तीनरी दृष्टि मे परम्पर मगति विठाई गई है. अभयदान' तिम लक्षरण करुगा, तीक्षगता गुणभावे रे। प्रेरक विरण कृति उदामोनता, इम विरोध मति नावे रे ॥ शीतल ॥४॥ अर्थ इसी प्रकार जीवो को भयरहित करने के लिए जीवनदान (अथवा उपदेशदान) देना परमात्मा मे करुणा का लक्षण है। उनके गुग मे और भावी में तीक्ष्णता है, किसी प्रकार की प्रेरणा के बिना प्रनु मे स्वाभाविकरप से रिया होती रहती है, इसलिए उदातीनता है । इस तरह विचार करने पर विरोधो की तरह दिखाई देने वाले तीनो गुणो मे कोई भी विरोध की बुद्धि नहीं पैदा होती। भाष्य इम गाया मे भी एक अन्य दृष्टि में प्रभु मे तीनो विरोधी गुणों का अस्तित्त्व सिद्ध किया है। जीवमात्र को जन्म, जग, मृत्यु, रोग, शोक आदि का भय रहता है । उस भय मे छुटकारा दिला कर जगय करने का मूत हेतु है-ज्ञान । अभय का ज्ञान देना ही प्रभु की करुणा है। द्रव और भाव ने प्रभु नागारिक जीवो को निर्भयता का दान देते हैं। वे कहते है-किसी सामारिक पदार्य मे डरो मत। तुम्हारी आत्मा स्वय भययुक्त-निर्मय है, इप्स प्रकार मामारिक पदार्थो मे भय न पाने देना-द्रव्य-अभयदान है, और मसार १. किसी-किसी प्रति मे 'तिम लक्षण करुणा' के बदले 'ते मलक्षय करुणा' है। वहाँ 'कर्मरूपी मैल के क्षय का हेतुप उपदेश ही करणा है' यह अर्थ सगाना। . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा २१५ का भय मिटा देना भाव-अभयदान है, अथवा अपनी आत्मा को परपदार्थो से निर्भयता का दान देना प्रकट करना भी अभयदान है, यह निश्चयदृष्टि से अभयदान प्रभु मे करणा का ही लक्षण है। व्यवहारदृष्टि से देखा जाय तो प्रभु के पास जो भी जीव आ जाता है, वह उनकी परम अहिंसा के कारण निर्भय हो जाता है। उमे ऐमी प्रतीति हो जाती है कि मैं अभय हो गया है। अर्हन्त परमात्मा का एक विशेपण 'नमोत्थुण' के पाठ मे आता है'अभयदयाण' और अभयदान परमात्मा की करुणा का द्योतक चिह्न है। ज्ञानादि गुणो पर आजानादि के छाए हुए आवरणो-वैभाविक गुणो को दूर करने के लिए एक तरफ से आत्मा के स्वाभाविक गुणो को प्राप्त करते है, अज्ञानादि को कठोरता से हटाते हैं, दूसरी ओर परभावो (पुद्गलो) को पराया (शत्रु) मान कर बार-बार उन्हे त्याज्य समझ कर छोडने का विचार किया करते है, रवभाव मे तीव्रता से रमण किया करते है। इसके कारण पुद्गलो (परभावो) के प्रति उनकी कड़ी आँप है, जो उनकी तीक्ष्णता का लक्षण है। इसी प्रकार समार के स्वरूप का विचार करते हैं तो मालूम होता है, प्राय सभी कार्य (व्यापार, धन्धा, नौकरी आदि) प्रेरणा पर आधारित है। वे इस स्वरूप को जानते हैं और कोई निन्दा करे या प्रणसा, भला कहे या बुरा, वन्दना करे, या निंदा करे, सभी मे निरपेक्ष हो कर किसी भी प्रेरणा के विना महजभाव से आत्मपरिणतिरूप वृति-कर्तव्य मे निष्ठा रखते है । यह पदार्थ इष्ट, प्रिय या मनोज्ञ है, यह अनिष्ट, अप्रिय या अमनोज है, इस प्रकार की प्रेरणा प्रभु मे नहीं होती। लिए उनमे विना किमी प्रेरणा के स्वरूपरमण क्रिया होती रहती है। यह उनकी उदासीनता का लक्षण है। इस प्रकार वीतरागप्रभु मे पूर्वोक्त तीनो विरोधी गुण एक साथ रहते है, क्योकि उनके पात्र अलग अलग है। अगली गाथा मे वीतरागप्रभु मे अन्य गुणो की त्रिभगियो का अस्तित्व हुए कहते है शक्ति व्यक्ति त्रिभुवन-प्रभुता, निन्थता सयोगे रे। योगी, भोगी, वक्ता, मौनी, अनुपयोगी उपयोगे रे ॥ शीतल०॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अध्यात्म-दर्शन अर्थ प्रभुवीतगग मे अनन्त जात्मवीर्यस्प शाक्ति है, जो कि समस्त आत्माओं मे सामान्यरूप में होती है, फिर भी ज्ञानादि गुणों की अभिव्यक्ति में प्रभु का अपना अलग व्यक्तित्व है । तथा एक ओर उनकी तीनो लोकों के समान प्राणियो पर स्वामित्व (प्रिलोकप्रभुता या त्रिभुवनपूज्यता) है; जवकि मगे ओर वे निर्ग्रन्थ (अकिंचन) हैं । इसी प्रकार प्रभु मोक्ष के माय जोडने (योग करने) वाले गुणो को अथवा मन-वचन-कायास्प रियोग को धारण करते हैं, इसलिए वे योगी है, जबकि इसके विपरीत वे भोगी भी हैं। यानी वे आत्मगुणो का स्वय भोग (अनुगव) करते हैं। एक ओर वे द्वादशागीप प्रवचन करते हैं। इसलिए वक्ता हैं, जबकि दूसरी ओर मीनी भी है सावधभाषा बोलने तथा पापकर्म का उपदेश देने मे वे मौन रहते हैं। वे केवल-दर्शनी हैं, इसलिए निराकार उपयोगी होने से उपयोग नहीं लगा सकते-निरुपयोगी हैं, तवैव केवलज्ञानी होने से साकार उपयोग वाले होने से वे उपयोगी है। साथ ही इन पांचो जोड़ो के साथ सयोग होने से एक-एक भग और जुट जायगा. प्रत्येक को प्रिभंगी हो जायगी। भाष्य परमात्मा मे परस्पर विरोधी पांच गुण-त्रिभंगियां साधारणतया परमात्मा के परम्पर विरोधी को आम आदमी समझ नहीं पाता वह तो उन्हे उलझनभरे और परम्परविरोधी समझ कर छोड़ देता है। माहित्यशास्त्र में इसे विरोधभास अलकार कहा लाता है । जो विचार करने पर ठीक समझ में आता है। परमात्मा मे निम्नलिगित तीन-तीन भग हो सकते है(१) शक्ति, व्यक्ति और शक्ति-व्यक्ति-रहित(२) त्रिभुवनप्रभुता, निर्गन्यता और त्रिभुवनप्रभुता-निर्ग्रन्थतारहित, (३) योगी, भोगी और योग भोग-रहित, (४) वक्ता, मौनी और वक्तृत्व-मान-रहित और (५) उपयोगवान, अनुपयोगी और उपयोग-अनुपयोगरहित । ये पाँचों गुणत्रिभगियां, परस्पर विरोधी हैं, लेकिन इन पर गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक विभगी वीतराग-परमात्मा मे एक साथ रह सकती है। उदाहरण के तौर पर पहली निशगी मे तीन गुण Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परविरोधी गुणो से युक्त, परमात्मा २१७ हैं-शक्ति, व्यक्ति और शक्ति-व्यक्ति-रहित । वीतराग परमात्मा मे अनन्तशक्ति है, अनन्त-वीर्य के धनी परमात्मा अपना अनन्तवीर्य बता सकते हैं । मेरु को उठाना हो तो वे उसे उठा सकते है, भुजाओ से अथाह समुद्र को पार कर सकते है। अपने शुद्धस्वभाव एव स्व-गुण मे लीन रहने की अद्भुत शक्ति प्रभु मे है, यह प्रभु का आत्मिक गुण है। वैसे तो प्रत्येक आत्मा मे अनन्त शक्ति है, यह उसका स्वभाव है। परन्तु सामान्य आत्मा उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती। परमात्मा मे गत्ति का पूर्ण व्यक्तीकरण होता है, परन्तु होता है, वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अलग-अलग गुणो का अलग-अलग । प्रभु मे वैसे तो जानादि मभी-शक्तियाँ पूर्णरूप में है, परन्तु वे चाहे तो एक-साथ उन सबकी अभिव्यक्ति कर सकते है । अथवा सासारिक लोगो की अपेक्षा परमात्मा का अलग व्यक्तित्व होने से परमात्मा उनसे विशिष्ट व्यक्ति है। परन्तु परमात्मा मे दोनो गुणो का एक साथ अस्तित्व होते हुए भी सिद्ध (मुक्त) दशा मे उनमे शक्ति होते हुए भी न होने जैसी है, क्योकि वह शक्ति कुछ कर नहीं सकती, वह अकरणवीर्य होती है । और सिद्धदशा मे अलग-अलग गुणो की अलगअलग अभिव्यक्ति (व्यक्ति) नही होती । अथवा परमात्मा ने शक्तित्व या व्यक्तित्व किसी इरादे से बताने का प्रयत्न नही किया, इसलिए उनमे ये तीनो गुण एक साथ रहने मे कोई विरोध नही है। दूसरी त्रिभगी मे भी तीन गुण हैं—त्रिभुवनप्रभुता, निर्ग्रन्थता और त्रिभुवनप्रभुता-निग्रन्थतारहित । यह बहुत ही आश्चर्यजनक लगता है कि परमात्मावीतराग मे तीनो लोको की पूज्यता-उनमे ३४ अतिशय और आठ महाप्रातिहार्यों के होने से तीनो भुवनो की प्रभुता (ऐश्वर्ययुक्तता) प्रत्यक्ष दिखाई देती है, तथापि स्वय निम्रन्थ होने से उनमे निर्ग्रन्थता है । उन्होंने ससार या सामारिक पदार्थो के साथ कोई लागलपेट, या ममत्वादि की गाँठ नही रखी, दुनिया मे उन्हे कुछ भी लेना-देना नहीं है, उन्हें न कोई वस्तु ईष्ट है, न अनिष्ट है । यही उनकी निर्ग्रन्यता है । यानी त्रिभुवन की वैभव-सम्पन्नता -प्रभुता के होते हुए भी उनमे अकिंचनता (अपरिग्रहवृत्ति) एव निर्लेपता (निर्ग्रन्यता) है। अथवा एक ओर इन्द्र, नरेन्द्र और चक्रवर्ती द्वारा पूजनीय होने से त्रिभुवनप्रभुता होते हुए भी स्वय निर्गन्थता गुण से परिपूर्ण है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अध्यात्म-दर्शन निश्चयनय की दृष्टि से विचार करे तो परमात्मा मे आत्मा के समान गुण विकसित होने में तीनो लोको के समस्त मात्मगुणो के स्वामी होने में उनमे निभवन-प्रभुता है, तथा पचमहावनगाहा नामायिा गहण करना, इमलिए परम त्यागी होने से उनमे निर्गन्यता, परमाता का म्यम्प या परभावो का कार्य उनसे जान मे जलाते हा भी वे उनमा नेप आत्मा पर नहीं होने देते। तीसरा मग प्रभु के रिभुवन-प्रभुना ने एव निग्रंन्धना न रहित होने का है, जो वडा अटपटा है। फिर भी यह गगन है, क्योक्ति गि-यात्वीजीय प्रण को पूज्य नही मानते । गगरगरणादि गया उनके अष्टमहापातिहार्य आदि देख कर आपको त्यागी या निर्गन्ध (अपरिग्रही नहीं मानने, इमलिा चीतगग परमात्मा तीनो लोक के प्रभु नहीं रहे। तथा गिद्धि (मुक्ति प्राप्त नगी जीव समान हैं, वहां न कोई प्रभु है और न ही कोई उसया दाम | यहाँ पूज्च-यूजकभाव विलकुल नहीं है, इसलिए त्रिभुवनप्रभुना से परमात्मा रहिन है तथा प्रभु केवल मात्रु ना वेप धारण किए गदा नहीं फिन्ने, अपना प्रभु ने भी मे भी स्वगुण मे रमणतारुपी ममता है, इसलिए वे निगयता मे रहित भी है। इस प्रकार पूर्वोक्त तीनो विरोधी गुणो का प्रभु मे अन्नित्व है। उनकी सगति भलीभांति समझ लेने पर गुणो मे विरोध नहीं आता। तीसरी गुणविभगी है-योगी, भोगी, और योग-मांग-नहित । लोक व्यवहार मे देखा जाता है कि जो योगी है, वह भोगी नहीं न्द गकता । परपरमात्मा मे मन-वचन-काया को अपने वश मे रखने वाले योगी के नमस्त गुण है। व्यवहारदृष्टि मे वीतराग-अवस्या मे मन-वचन-काया के योगो ने युक्त (सयोगी केवली) है। निश्चयदृष्टि मे रत्ननयी की माधनाम्प योग मे मुक्त होने अथवा मोक्ष के गाथ जुड़े हुए होने मे या परमात्मा के गुणो या शुद्धस्वरूप के साथ युक्त होने से वे योगी हैं। तथापि दूसरी जोर वे भोगी भी हैं। इससे चोकिये नही। परमात्मा विलासी जैसे भोगी नहीं है। वे स्वात्मगुणो के भोगी है, जनुभनी है, अनुभव करते है। अथवा व्यवहारदृष्टि रो वे गोगान्तराय और उपमोगान्तराय कर्म का क्षय कर देने के कारण तीनो Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परविरोधी गुणों से युक्त परमात्मा २१६ लोक के समस्त भोर्गो से भी उत्कृष्ट स्वात्मरमणतारूपी भोगो के भोगी है। जब समस्त कर्मों की क्षय होता है, तब अयोगी-केवली गुणस्थानक मे और मोक्ष जाने के बाद वे न तो योगी रहते है, न भोगी। क्योकि वहा उनके समस्त योग दूर हो जाते हैं और अयोगी-गुणस्थानक मे पाँच ह्रस्व अक्षरो अ इ उ ऋ लु, के उच्चारण में जितना समय लगता है, उस समय न तो वे योगी है और न भोगी है । अव आइए चौथी गुणविभगी पर। इसमे भी तीन गुण है-वक्ता, मौनी और अवक्तामीनी। वक्ता तो प्रभु इसलिए हैं कि वे स्वय द्वादशागी का प्रवचन देते है और परमदेशना देते हैं तथा मौनी उमलिए है कि वे मुनियो के सघ के पति (म्वामी) है। अथवा वे सदा आत्मभाव मे निष्ठ होने से मौनी है। सावध या पापमय, आश्रवजनक उपदेश के सम्बन्ध मे वे वक्ता नही है, तथा वक्ता और मौनी होते हुए भी उस वक्त वे द्वादशागी के सिवाय कुछ वचन नहीं बोलते, इसलिए वे उस समय न तो बक्ता हैं, न मौनी है । अथवा वे अवक्तामौनी यो हैं कि जो जगत् मे है, उसी को वे कहते है, नया कुछ भी नहीं कहते, इसलिए वक्तृत्व से रहित है, तथापि देशना देते हैं, इसलिए वे मौन मे भी रहित है। इस प्रकार यह चीथी गुणविभगी भी प्रभु मे एक माथ अविरोधरूप से सगत हो जाती है । अव पाँचवी गुणविभगी का विचार करे। वह है-उपयोगी, अनुपयोगी और उपयोग-अनुपयोग-रहित । सामान्य छदमस्थ ज्ञान को तो कोई बात कहनी या जाननी हो तो उसके लिए उपयोग लगाना पडता है, परन्तु वीतराग-परमात्मा तो केवलज्ञान के धनी होते हैं, इसलिए विना ही उपयोग लगाए वे वात को जान-देख सकते है, इसलिए अनुपयोगी है, क्योकि उनमे ज्ञान-दर्शन का उपयोग सदा प्रवर्तमान रहता है। किन्तु प्रभु ज्ञान-दर्शन के उपयोगमय होने में उपयोगी है। अथवा आत्मा और उपयोग का अभेद उपचार करने से परमात्मा स्वत अनुपयोगी है। किन्तु योगमन्धन होने के बाद उन्हें ज्ञान का या दर्शन का उपयोग लगाने का कोई प्रयोजन नही रहता। उस समय वे न उपयोगी है, न अनुपयोगी। उनमे ज्ञानदर्शन का उपयोग सदा प्रवर्तमान रहता है, इसलिए वे अनुपयोग-रहित Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अध्यात्म-दर्शन है और उपयोग तो उनमे स्वत प्रवृत्त होता है, उन्हे उपयोग लगाना नहीं पडता, मत वे उपयोगरहित भी है। इस प्रकार पांचवी गुणनिगगी भी चीतरागमभ मे गनी भांति पटिन हो जाती है। उनके सिवाय और भी गम्परविरोधी गुणनिमगिया चीतरागमन में घटित हो सकती है. इग वात को बनाने के लिए अन्तिम गाण में श्रीआनन्दघनजी कहते है-- इत्यादिक बहुभगत्रिभंगी, चमत्कार चित्त देतो रे। अचरजकारी चित्रविचित्रा, आनन्दघनपद, लेतो रे॥ शीतल ॥६॥ अर्थ ये और इस प्रकार को और भी बहुत-मे भगो (भेदो-विकल्पों) वाली विभगियाँ चित्त मे चमत्कार पैदा करती हैं। मामान्य व विशेष दोनो तरह से विचित्र प्रकार की आश्चर्यकारी ये गुणत्रिभंगियों आत्मानन्द-ममूहरूप पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेती हैं यानी इन आत्मस्वरूपमूलका बिनगियो मे मग्न हो जाने से केवलज्ञान प्राप्त हो कर अन्त मे सच्चिदानन्दपद (परमात्मपद) प्राप्त हो जाता है। भाष्य परमात्म-गुण चिन्तन मे आनन्दघनमत-पद की प्राप्ति यहां एक सवाल उठता है कि आखिर परमात्मा मे इन जटपटी गुणत्रिपूटियो का चितन करने का चिंतन करने लाभ क्या है ? इसका कोई प्रयोजन भी तो होना चाहिए। इसके उत्तर में श्रीआनन्दघनजी कहते है.-सवसे पहला लाभ तो यह है कि इन गुणनिपुटियो का चिन्तन चित्त में शुद्ध आत्मा की गुणमयी शक्तियो का चमत्वार पैदा करता है। परमात्मभात १ इस प्रकार हमने अपनी बुद्धि मे इन गुणत्रिभगियो के परस्परविरोधी भाव को दूर करके एक माथ प्रभु मे होने की मगति विठाई है । इनके सिवाय और भी किसी तरह में घटित हो गकती हो तो वहथतज्ञानी के सहयोग मे घटित करने का पाठक प्रयत्न करे। -~भाष्यकार Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा २२१ परमात्मा के इन गुणो पर चिन्तन करते-करते गानन्द आश्चर्य से भर जाता है कि एक ही आत्मा मे इतने गुण कहाँ से आ गए ? छोटी-सी, अव्यवत, अमूर्त, अदृश्य आत्मा मे इतने गुणो के धारण करने की शक्ति कहाँ से आ गई ? दूसरा महत्त्वपूर्ण लाभ सामान्यतया और विशेपतया प्रभुगुणत्रिपुटियो के वार-बार के चिन्तन से आत्मा की अनन्त आश्चर्यकारी ज्ञान-सम्पदा विकसित हो जाती है, आत्मा अपनी सुपुप्त ज्ञान-शक्ति को प्रगट करके स्वय स्वस्वरूप मे या शुद्धरूप मे, अथवा आत्मगुणो मे रमण करने मे एकाग्र हो जाता है, और इस प्रकार के ऊहापोह मे एकाग्र होने से उसे केवलज्ञान प्राप्त हो कर एक दिन आनन्दघनमय परमात्मपद या मोक्षपद प्राप्त हो जाता है। चूंकि स्याद्वाद-शैली के बिना जीवन और जगत् का या आत्मा-परमात्मा का सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान होने का राबूत राम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन मोक्ष की प्राथमिक भूमिका है। जिसे सम्यग्दर्शन हो गया, उसे मोक्षप्राप्ति अवश्य हो जाती है। दूरारे शब्दो में कहे तो इस प्रकार विभिन्न पहलुओ से परमात्मा के गुणो का चिन्तन करने से चिन्तनकर्ता की आत्मा भी स्वत स्वाभाविकरूप से उन गुणो की ओर झुकेगी, और एक दिन वह आश्चर्यकारक विचित्र गुणत्रिभंगी-चिन्तन से आनन्दघनमय प्रभुपद को प्राप्त कर लेगी। इसी प्रकार की अन्यान्य गुणनिपुटियो का चिन्तन करो यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा के जीवन मे उपयुक्त गुणत्रि भगि यो के सिवाय, ऐगी ही अन्य गुण-विभगियो का चिन्तन करने का सकेत शिया है। परमात्मपदप्राप्ति के इच्छुक को और भी गुणत्रिपुटियो चिन्तन करना चाहिए। उदाहरण के तीर पर-वीतरागप्रभु कामी भी है, क्रोधी भी है और अकामी-अक्रोधी भी है। सर्वप्रथम दृष्टिपात मे तो परमात्मा के लिए कामी शब्द सुनते ही व्यक्ति चौक उठता है, परन्तु गहराई मे विचार करने पर उसका यह भ्रम दूर हो जाता है। प्रभु कामी इसलिए है कि वे स्व (आत्म) स्वरूप की कामना वाले होते है । क्रोधी इसलिए हैं कि वे मोह, राग, द्वेप, काम आदि आत्मगुणनाशक अन्त शत्रुओ को कठोरतापूर्वक खदेड देते हैं । किन्तु साथ ही वे अकामी इसलिए है कि वे आत्मा के प्रतिकूल परपदार्थ को ग्रहण करने की कामना नहीं रखते, तथा वे अक्रोधी इसलिए हैं कि Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सध्यात्म-दर्शन परिपह-उपमर्ग (कप्ट) देने वाले देव, मनुष्य गा नियंत्र जादि शिगी पर जग भी, गन से गी क्रोध नहीं करने । इस प्रकार के अनेक जाश्चर्यजनक गुणत्रिपुटिया परमात्मा में घटित हो सकती हैं। इन विनिय-मिग गियो का रहस्य जोर अनुभव अनुभवी बाधन गुरु से जान लेने चाहिए । सारांश श्रीआनन्दधनजी ने श्रीशीतलनाथ तीथकर की स्तुनि के जरिये परमात्मा मे उपतब्ध विविध, विचित्र एब आश्चर्यजनक गुण-विमगियों की सगति विना है, जिसमे आत्मा इन और ऐगी ही अन्य गुणत्रिपुटियो वे चिन्तन-मनन गे परमात्मगुणो की ओर रातन आगापित एव तन्गय हो कर अन्त में आनन्दधनमय परमात्मपद या मोक्षपद की प्राप्ति कर लेता है । मानवजीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि परमात्मा के गुणों में एकागनापूर्वक निन्नन में ही होती है। ८. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ : श्री श्रेयांसनाथ-जिन-स्तुतिअध्यात्म का आदर्श : प्रात्मरामी परमात्मा (तर्ज-अहो मतवाले साजन, राग गौडी) श्रीश्रेयांसजिन अन्तरजामी, आतमरामी, नामी रे। अध्यातम-पद' पूरण पामी, सहज मुगतिगतिगामी रे॥ श्री श्रेयांस ०॥१॥ अर्थ श्री (ज्ञानलक्ष्मी) युत् श्रेयांसनाथ नामक ग्यारहवें तीर्थकर (रागद्वषविजेता) अन्त करण के भावो के ज्ञाता है , आत्मा मे रमण करने वालो मे श्रेष्ठ हैं। अथवा सार्थक नाम वाले हैं, या भावकर्मरूप शओ को नमाने-झुकाने वाले हैं। अध्यात्मपद (ज्ञान) की पूर्णता पहुँच कर अनायास ही मोसगतिगामी बन गये हैं। भाष्य अध्यात्म की पूर्णता पर पहुँचे हुए . परमात्मा पूर्वोक्त स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा के विभिन्न परस्परविरोधी गुणो की त्रिपुटियाँ बता कर उक्त गुणो को प्राप्त करने की बात कही है, इस स्तुति में परमात्मा के उक्त गुणो की पूर्णता तक पहुँचने के लिए अध्यात्मआत्मा के पूर्ण विकास) के हेतु परमात्मा का आदर्श अपनाना आवश्यक बताया है। जब तक आदर्श सामने न हो तब तक कोई भी साधक वहा तक पहुँचने के लिए उत्साहित नहीं होता। अध्यात्म के विपय मे भी यही बात है। जगत् मे विभिन्न धर्मो, मतो, पथो और सम्प्रदायो के लोग अध्यात्म की रट लगाते है । वे आत्मा के वारे मे जरा-सी जानकारी प्राप्त करते ही अपने को अध्यात्मवादी या अध्यात्म ज्ञानी घोपित कर देते हैं। श्रीआनन्दघनजी इस स्तुति द्वारा अभिव्यक्त कर रहे १ कहीं कहीं 'पद' के बदले 'मत' शब्द मिलता है, तव, अध्यातम-मत पूरण पामी' का अर्थ होता है-आत्मविकास के पथ के सिद्धान्त को पूर्णरूप से प्राप्त करके। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अध्यात्म-दर्शन है कि आत्मा के बारे में जरा-गी जानकारी पा लेने गार गे, आमा और जद की पारिभापिक शब्दावली को घोट लेने ने वा अध्याता की चाने वधारने मात्र से ही किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक या आत्मविवार की परिपूर्णता पर पहुंचा हुमा नहीं कहा जा सकता । इलिए एन साधया ने अध्यान्मभानो पर करारा व्यग किया है-कलावध्यात्मिनो भान्ति फाल्गुने बालका यया' इस कलियुग मे आध्यात्मिक होने का दावा करने वाले ऐसे प्रतीत होते है। जैसे फाल्गुन महीने मे होली पर अच्छा वालक हो तो भी अपशब्द बोलने का मजा लूटता है । जिन्हें अध्यात्म का क स ग भी नआना हो, भी थे उच्चस्वर से अपने मे आध्यात्मिकता होने का दावा करते हैं। इसलिए श्रीमानन्दघनजी हमी स्तुति में आगे अध्यात्म क्या है ? गच्चा आध्यागिक कौन है ? इसका पुर्जा-पुर्जा खोल कर वास्तविक रहस्य बताते है। __ मच्चा आध्यात्मिक वनने या अध्यात्म की पुणता तक पहुँचने पे लिए वीतरागपरमात्मा के आदर्श को सामने रखना और वे जिग आत्मविकाग के मार्ग पर चल कर अध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहन है, उनके स्वरूप तया मार्ग को जानना अत्यावश्यक है। क्योकि आत्मोत्थान या आत्मविकास के पथ पर चल कर वे आध्यात्मिकपूर्णता ता पहुँचे है, उन्होंने जात्मविकास का सिद्वान्त को पूर्णतया जाना था। इगलिए वे इन मार्ग के पूर्ण विशेपन है । जो जिस मार्ग का पूर्ण विशेपज्ञ या अनुमवी होता है, वही उस मार्ग को बता सकता है अथवा उनी से उस मार्ग की जानकारी प्राप्त हो सकती है। परमात्मा आध्यात्मिक विकास का श्रीगणेश करते समय आतारामी रहे हैं , यानी वे परभावो, वैभाविक गुणो या परपदार्थों से लगाव छोड कर अपनी आत्मा के गुणो मे या स्वात्मस्वभाव में सतत रमण करते रहे हैं। और सामान्य प्राणियो की आत्मा पर जो परभावरूप कर्म या राग पादि विकार हावी हो जाया करते है परमात्मा उन कमों या विकारो को नमा देते हैं, अपने अधीन कर लेते हैं, उन इन्द्रियो एव मन को अनुशासित कर लेते हैं, उन्हे अपने पर हावी नहीं होने देते, इसीलिए वे अरिहन्त या जिन के नाम से ससार मे नामी (प्रसिद्ध) है। यही कारण है कि वे आत्मज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँच जाने से अन्तर्यामी बन गये हैं । जव ज्ञान इतना निर्मल हो जाता है कि उसमे कोई विकार या सशय-विपर्यय-अनध्यवसायरुप दोप नहीं होता, तब वह केवलज्ञान हो जाता है, जिसके जरिये समस्त चराचर Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म का आदर्श . आत्मरामी परमात्मा २२५ जगत् हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है, उसके लिए कोई भी वस्तु परोक्ष नहीं रहती, उस ज्ञान मे कोई भी अन्तराय, वाधकतत्त्व या क्षेत्र -काल की दूरी की अडचन नहीं रहती। इसलिए इस पूर्णज्ञान के धनी होने से परमात्मा घट-घट के भावो को जानते हैं, वे पारगामी हैं। साथ ही आध्यात्मिकता की पूर्णता पर पहुंच जाने की उनकी निशानी यह है कि उनमे रागद्वे पादि नहीं रहे, उन पर उन्होने पूर्णतया विजय प्राप्त व रली है। इसी आध्यात्मिक पूर्णता के फलस्वरूप वे अनायास ही मुक्तिपदगामी बने हैं, सिद्धपद पर पहुँचे हैं। जैसे फल पक जाने पर विना ही प्रयास के वह पेड से टूट कर नीचे टपक पडता है, वैसे ही आध्यात्मिकता (आत्मस्वरूप मे सततरमणता) परिपक्व हो जाने पर परमात्मा भी परभावो से अलग हो कर अथवा कर्मों से पृथक हो कर स्वाभाविक रूप से अनायास ही-मोक्ष मे जा पहुँचते हैं। निष्कर्प यह है कि विकास या आध्यात्मिकता के चरम शिखर (आदर्ण) तक पहुँचने के लिए आत्मा आध्यात्मिकता के चरम शिखर पर पहुंचे हुए वीतराग अन्तर्यामी आत्मरामी नामी परमात्मा (उनका नाम चाहे थेयामनाथ हो या और कुछ हो) को आदर्शरूप मे सामने रखना आवश्यक है। कोई कह सकता है कि क्या दुनिया मे श्रेयासनाथ जिन के सिवाय और कोई पूर्ण आध्यात्मिक या आत्म रामी नही हुआ? यह तो घर के देव, घर के पूजारी वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। इसका क्या सबूत है कि दुनिया मे और किसी धर्म मे आध्यात्मिक हएही नही ? इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने श्रेयासनाथ की स्तुति के बहाने से इस गाथा मे बताए आध्यात्मिक के विशिष्ट गुणो पर से सभी आध्यात्मिको परीक्षा ले डाली है और आध्यात्मिको की जांच के लिए कुछ कसौटियां भी बता दी है। उन्होंने 'जिन' शव्द से किसी व्यक्तिविणेप का नाम न ले कर जिस किसी नाम के जिन (रागद्वेप-विजेता) हो, उन्हे आत्मरामी, नामी, अध्यात्ममतपूर्णगामी एव अन्तर्यामी बता कर उनके आदर्श को स्वीकार करने की बात कही है। अगली गाथा मे वे आत्मरामी की कसौटी बता रहे हैं--- Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ 'प्रध्याग-दर्शन सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण · आतमरामी रे। मुख्यपणे जे आतमरामी, ते केवल निकामी रे।। श्री श्रेयांस ॥ २॥ अर्थ सतार में रहें हुए अयवा समार के कारणों को सेवन करने वाले (ममार को अपना मानने वाले) जीव पांचो इन्द्रियो के २३ विषयो मे रमण करने वाले (आसक्त ) हैं। अगर कोई आत्मा (आत्मगुणों) में रमण फरने वाले है तो क्षमादि-दश विध मुनिधर्म का पालन करने वाले मुनि है। मुख्यतया केवल वे ही आत्मा में रमण करने वाले हैं, जो कामना [लोग, आमक्ति आदि] अथवा काम (विषयो मे आसक्ति) मे रहित हैं। भाष्य आत्मरामी का मुख्य लक्षण पहने यह बताया जा चुका है कि जो पूर्ण आध्यात्मिक होता है, वह नर्वप्रयम आत्मरामी होता है । परन्तु नवाल यह होता है कि आन्म नमी किये समझा जाय ? बहुत-से आत्मा-आत्मा की रट लगाने वाले जगह-जगह आश्रम बना कर या किसी कुटिया में अपना देग जमा कर लोगों को भुनाव में डाल देते है, बहुत-गे चालाक लोग कुछ हाय की सफाई या वाद्य चमत्कार बना कर अपने को आत्मरागी बताते हैं। बहुत ने लोग भागमणता का प्रदर्शन करने के लिए नृत्य, गीत, गगीत, घुन, कीनन या प्रवचन आदि ने बडे-बटे आयोजन करते है, शाही ठाटबाठ में त्रेपचे रह पार पात्रो इन्द्रियो का विपत्रास्वादन करते हुए अपने को आत्मारामी या पहुचे हुए महान्मा घोषित करते रहते हैं। बहुत-से लोग शरीर मे गख रमा कर, गाजे-सुलफे का दम लगा कर या गराब के नशे में मस्त हो कर अपने को आत्मगमी के रूप में प्रसिद्ध करते रहते हैं, अपने को अध्यात्मयोगी बना कर सभी प्रकार के इन्द्रियविपयो के मुख लूटते रहते हैं, वे ऐश-आराम मे रातदिन मशगूल रहते है । मुखसुविधाओ और भोगो के गुलाम बने हुए ऐसे नकली तथाकथित आत्मारामी लोगो मे मावधान करते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते है--'सयल समारी १ 'गण' के बदले अधिकाश प्रतियो मे 'गुण' शब्द है । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म का आदर्ण आत्मरामी परगात्मा २२७ इन्द्रियरामी' अर्थात्-जिन-जिन तोगो को इन्द्रियविपयो के, भोगो के, या मुखमुविधाओ के गुलाम व आसक्त देखो, उन रावको आत्मरामी नही, इन्द्रियरामी समझो। जो मासारिक विषयसुखो को लात मार कर, इन्द्रियविपयो के प्रति अनासक्त हो कर अदीनभाव से अपनी आत्मा मे या आत्मगुण मे मस्त रहते है, क्षमा, मार्दव आदि मुनिधर्म का पालन करते है, वे मुनिगण ही वास्तव में आत्मरामी है। यह वात श्रीआनन्दघनजी मुनियो के प्रति किसी पक्षपात के कारण नहीं कह रहे है। क्योकि मुनिधर्म किसी भी जाति, धर्म सम्प्रदाय, देश, वेय या पथ की बपौती नहीं है, उस पर किसी की मोनोपोली (एकाधिकार) नहीं है, और न ही किसी एक व्यक्ति या जाति आदि का ठेका है। उसे कोई भी, किसी भी जाति, धर्म-सम्प्रदाय, देश, वेप या पथ का व्यक्ति पालन कर सकता है, बशर्ते कि वह दशविध श्रमणधर्मो से युक्त हो । और जो मुनि इस प्रकार से इन्द्रियविपयो मे रमणता (आसक्ति) से दूर होगा, उसे ही आत्मरामी कहा जाएगा। । क्योंकि मुनि पर किसी की आदि का __आत्मरामी का मुख्य लक्षण यह है कि वह कामना (स्वार्थ, लोभ, प्रसिद्धि आदि की लिप्सा, सुख-सुविधाओ की लालसा) तथा काम (पाँचो इन्द्रियो के विपयो की आसक्ति, गुलामी, मूर्छा) से रहित हो, दूर हो, उसे ही केवल आत्मरामी समझो, जो निप्फाम व नि स्पृह हो। __ जीवो के दो भेद है=सिद्ध और ससारी । जो सिद्ध, बुद्ध, मुक्त परमात्मा हैं, वे तो अध्यात्म के चरम शिखर पर पहुंच चुके है। परन्तु जो ससारी है, वे ससार मे ही सुख मानते है, उसी मे मस्त रहते है, वे एक या अधिक इन्द्रियो के विपयो मे आनन्द मानते है, चाहे जिस उपाय से इन्द्रियसुखो को प्राप्त करने की लालसा रखते हैं। इन्द्रियगुख कम होने पर उससे सन्तोप न मान करवे, येन-केन-प्रकारेण नैतिक-अनैतिक रूप से इन्द्रियो के विपयभोगो को भोगते हैं, रात-दिन उनके गुलाम बने रहते है, इसके फलस्वरूप वे ससार के जन्ममरण के चक्र मे फंसे रहते है, उनके ससार-परिभ्रमण का अन्त आता ही नही। एक गति से निकल कर दूसरी मे, एक योनि से निकल कर दूसरी योनि मे जाते हैं। इस प्रकार वे ससार मे चक्कर लगाते रहते हैं परन्तु कई लोग इस भूमिका से बहुत ऊँचे उठे हुए होते है, वे पर्याप्त सुख मिलते हुए भी उन्हे Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अध्यात्म-दर्शन तिलाजलि दे कर उनसे बिलनुल उदागीन, जनागम या निगा रहा है। जो वास्तविक मुनि या श्रमण है, वे अपने गुणाअगादि दाविध प्रमणमा अथवा नानादि आत्मगुणो-मे रगण करने है। वे गाधुगणो में मस्त रह कर उनको अनुहा ही रावको उपदेश देते है। यद्यपि गुनि भी अगी तागाधा है, वे मिट्ट या मुक्त नहीं हुए, नव ना गराारी है, नयापि चे अपने साम्य पान, निन्तन, शक्ति, वाणी आदि का उपयोग मागिक गुणो-शान, दर्णन, नारित और वीर्य-गे करते है, रागार में रहते हुए भी आत्मिकगुणों (अथवा यनिधर्म) मे रगण गारते हैं। उनमें और गामाग गगारी जीव मे यह अन्तर है। इसके बावजूद भी मुनियो (अथवा साधु-गन्यागियों के वेष) गे भी बहन-गे पुद्गन्नानन्दी, इन्द्रियासक्त होते हैं, उन्हें आत्मरागी मानना यथार्य नहीं है। जिनके मन-वचन-काया के योग इन्द्रियों के अन्दादिविपयो गे निरपेा, अनाक व नि गृह रह कर ग्चरवरून जपया जानादि गुणगय आत्मा गे की गण गरते है, उन्हे ही मुच्यनया आत्गरागी गमाना नागि। पत्र जगली गाया में श्रीआनन्दधनजी परमात्मा मे जो गच्ने जETrr का गुण पूणनया विगिता है, उग अध्यात्म की कगोटी बनाते हैं निजस्वरूप जे किरिया साधे, ते अध्यातम लहीये रे। जे किरिया करी चउगति साधे, ते न अध्यातम कहीये रे ।। श्रीश्रेयांस० ॥३॥ अर्थ जिस क्रिया से सच्चे अर्थ मे निजस्वरूप को प्राप्त करने या स्वरूप मे स्थिर होने की साधना की जाती है, वह अध्यात्म-क्रिया है। परन्तु जिस क्रिया के करने से नरकादि चारो गतियो मे से कोई एक गति मिलती हो, उसे अध्यात्म मत समझो। 'अध्यात्म' की कसौटी वहुत-से लोग 'अध्यात्म' के नाम से अनेक प्रकार की कठोर क्रियाएँ करते हैं, उनकी उन क्रियामओ को देख कर साधारण लोग, यहाँ तक कि Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा २२६ क्रियाकाण्डप्रिय साधक भी वाहवाह कर उठते है, वे उन्हे आध्यात्मिक या आत्मा के खटके वाले माँगने लगते है, और वे स्वयं भी कई बार किसी के द्वारा पूछे जाने पर यही जवाब देते है कि 'हम ये सब क्रियाएँ अपनी आत्मा के लिए करते हैं । परन्तु उनके अन्नर की तह मे आत्मा के लिए वे क्रियाएँ होती नही, वे प्रायः की जाती है-अपनी प्रसिद्धि, किसी पद या प्रतिष्ठा की लिप्सा या किसी स्वार्थलालसा से प्रेरित हो कर । कई साधको के हृदय मे अपनी कठोर नियाओ के फलस्वरूप देवलोक या स्वर्गमुख प्राप्त करने की कामना होती है। अथवा कुछ तथाकथित अध्यात्मिक मनुष्यलोक मे ही लोगो को अपनी तरफ आकर्पित करने के लिए दूसरे साधको को अपने से हीन व निकृष्ट वता कर उनके प्रति लोकमानस मे घृणा फैलाने का काम करते है । अथवा कुँवा-फूंक कर कदम रख कर, मैले-कुचैले फटे-से कपडे, गन्दगीभरा शरीर एव पेरो मे विवाई फट जाने पर भी दवा न लगा कर अपने तथाकथित वाह्य त्याग और वैराग्य की छाप लोगो पर डाल कर आध्यात्मिक कहलाने का प्रयाम करते है। अत श्रीआनन्दवनजी ने 'अध्यात्म' के नाम से दुनिया में प्रचलित वातो मे खरी-खोटी ची वामीटी बता दी कि जो लोग अपने अन्तर मे म्बम्वरूप के लक्ष्य को छोड़ कर सिर्फ स्वर्गादि लक्ष्य की दृष्टि से क्रिया करते है, उनकी वह क्रिया या प्रवृत्ति सच्चे गाने में आध्यात्मिक नही कही जा सकती। स्वर्गप्राप्ति दुनियादार लोगो को आकर्षक लगती है, वे अध्यात्म का सस्ता तुम्खा खोजते फिरते है, इसलिए कई ढोगी साधक उनको चक्कर मे फँसा कर योगादि क्रियाएँ या अन्य उटपटाग क्रियाएँ बता कर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, मगर उनकी वह क्रिया कतई आध्यात्मिक नहीं होती। आध्यात्मिक या अध्यात्म उसे ही कहा जा सकता है, जिसमे तमाम क्रियाएँ या प्रवृत्तियाँ रवरूप के लक्ष्य से की जाती हो । ' अन्य क्रियाएँ और स्वस्वरूपलक्ष्यी क्रिया आध्यात्मिक जगत् मे पांच प्रकार की क्रियाएँ मानी जाती है-(१) विपक्रिया, (२) गरलक्रिया, (३) अननुष्ठानक्रिया, (४) तद्हेतुक्रिया, और अमृतक्रिया । इन पांचो क्रियाओ में विप और गरलक्रिया में किसी न किसी कामना के वशीभूत हो कर गगुप्य निदान करता है , अथवा गिगी को गारने Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन या नुकसान पहुंचाने की दृष्टि से लिए बाहर में अध्यात्मलक्ष्यी दिवाई देने वाली निन्या भी निदान-विप मे दूपित होने कारण अध्यात्म नहीं कही जा सकती। जो क्रिया करने योग्य है, उने न करना जननुप्ठान निया, वह भी किमी अपेक्षा से त्याज्य है, फिसी अपेक्षा में उपादेय है। तथा तदहेतुक्रिया और अमृतक्रिया वे दोनो म्बत्पल यी व आत्मगुण विकासलली होने से सर्वथा उपादेय है, नमादरणीय है, अध्यात्मम है। चाहे जैसी उटपटाग क्रिया को या अमुक ज्ञान की प्राप्ति को अध्यात्म नहीं कहा जा सकता। स्पप्ट शब्दो मे कहे तो जिन किया ने आरम्भ, परिग्रह (अनात्मपदार्थ पर ममता) आदि कार्य-कारणभावयुक्त प्रिया से अथवा इन्द्रियो के शब्दादि विपय, क्रोधादि कपायभाव से युक्त क्रिया में माधक को नरक, नियंच, मनुष्य, देव आदि गतियो मे से कोई भी गति मिले, नद्रूप क्रियात्मक नाधना आध्यात्मिक नहीं समझी जातो। परन्तु निश्चयदृष्टि में निजस्वरप और व्यवहार दृष्टि में अहिंमा, सत्य, जप-तप आदि-महित मन-वचन-नाया की निर्वन्ध निया है, जो निज-पद को माधने में बहुत उपयोगी है। उसी क्रिया को आध्यात्मिक निया मानी गई है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान और सम्यक्चारित्र की ही क्रिया है। तया अप्रमत्तभाव से विषयकपावादि से रहित या अनात्मपदार्थ पर ममता से दूर रह कर किया की जाय, वह भी आध्यात्मक्रिया है। अगली गाथा मे अध्यात्म को चार निक्षेपो से समझा कर हेयोपादेय का विवेक बताते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं नाम अध्यातम, ठवण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम छंडो रे । भावअध्यातम निजगुण साधे, तो तेहशु रढ मडो रे ॥ श्रीश्रेयांस० ॥४॥ १. मालूम होता है श्रीआनन्दघनजी के युग मे चैत्यवाद का बहुत जोर था, या भक्तिमार्गीय सम्प्रदायो मे बाह्याडम्बर, चमत्कार एवं मयादि का जोर था, उन सबकी ओट मे अध्यात्म का नाग लगाया जाता था। इसी कारण श्रीआनन्दवाजी को अध्यात्म का गच्चा अर्थ करना पड़ा। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा २३१ अर्थ नाममात्र (कहने भर) का अध्यात्म, स्थापनाभर का अध्यात्म तथा अध्यात्म के ज्ञाता कामृत शरीर जहाँ छूटा है, वह स्थान-विशेष द्रव्य-अध्यात्म इन तीनो प्रकार के अध्यात्मो को छोड़ो, जिससे निज आत्मगुणो की साधना होती हो, ऐसा भाव-अध्यात्म हो तो उसमे जुट पडो, उसी की धुन मे लग जाओ। भाज्य अध्यात्म . कौन-सा हेय, कौन-सा उपादेय ? श्रीआनन्दघनजी ने इसमे और अगली गाथाओ मे 'अध्यात्म का सागोपाग विश्लेपण करके हेय और उपादेय का विवेक बताया है। जहाँ अध्यात्मशब्द की या आत्मा-आत्मा की केवल रटन हो, उसका कोई अर्थ समझ मे न आता हो, नाममात्र का अध्यात्म हो, यानी 'अध्यात्म' की भावना से रहित किसी जीव या पुद्गल का नाम 'अध्यात्म' रख दिया जाय तो ऐसे नाम-अध्यात्म से आत्मसिद्धि नहीं होती। अत वह त्याज्य है। इसी प्रकार किमी कागज पर 'अध्यात्म' शब्द लिख दिया जाय या अध्यात्म शब्द का कोई कल्पित चित्र या मूर्ति बना कर अध्यात्म की स्थापना कर दी जाय, उसमे अध्यात्म का कोई गुण नहीं होता। ऐसा स्थापनाअध्यात्म भी त्याज्य है। अध्यात्म के नाम से जहाँ हठयोग की रेचकपूरक आदि क्रियाएं करके अध्यात्म का प्रदर्शन किया जाता हो, आत्मा की अन्तरवृत्ति जरा भी सुधरी न हो, वहाँ द्रव्य-अध्यात्म है, अथवा शुष्क आध्यात्मिक ग्रन्थ समझेबूझे विना पढने-बोलने वाला उपयोगशून्य वक्ता भी द्रव्य-अध्यात्म है, अथवा अध्यात्मज्ञाता के मृत गरीर को या जहाँ उसका शरीर छूटा है, उस स्थान को अध्यात्म कहना द्रव्य-अध्यात्म है। यह भी आत्मस्वरूप की साधना मे उपयोगी न होने से त्याज्य है। नाम, स्थापना और द्रव्य, ये तीनो प्रकार के अध्यात्म जानने योग्य है, अपनाने योग्य नहीं, छोडने योग्य है । ये तीनो भावअध्यात्म मे सहायक न हो तो त्याज्य हैं। अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप यह है कि जो अपने आत्मगुणो को प्रगट करे, सावे, वही भाव-अध्यात्म है । 'आत्मानमधिकृत्य वर्तते इत्यध्यात्मम्' इम व्युत्पत्ति के अनुसार जो आत्मा के स्वरूप को ले कर प्रवृत्त हो, वह अध्यात्ग है। ऐगा भावअध्यात्म, जिगगे निजगुणो की साधना हो, भात्मा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अध्याग-दर्शन की सिद्धि हो, उगे साधा जा गो, उमेदारी उगे अपना कर उगमें तत्काल जुट पहो। अपनी आत्मा को उगाने जोरदो! ____ चूंकि पूर्वोक्त नामादि तीन प्रकार मायाम का अपना ई आत्मिक लाभ नही हो, नाला, गसार फे. जन्मगरण : गपूरकर निरजन-निराकार निति उनमें प्राण नहीं तो गनी। गागलय गोवागमन या परमात्मपद-प्राप्ति है, जो भान अध्यात्म अपनाने में जीनामा है। भाव-अध्यात्म माव्याय, ध्यान, नप, मपम तथा जानोगता है, जो मोक्षमार्ग के कारणगून । जनीलिा धीआनानी नाग, स्थापना और द्रव्य-अध्याना को बाहर निर्फ भाव-अध्यानाम वाली नगाने पर जोर दे रहे है, बारतव गे भाव-अध्यात्म ही अन्दर-बाहर गी कि सरीखी रह कर अपने अमिरगुणो में प्रवृनि कग कर ले मागगुणों का प्रगट कराता है। उन्ही गे रगण नाराता है। गीता भाग-नागी उपाय है. उसी मे जीवन की सपाता।। परन्तु यहां एक बात की चेतावनी परिचित होती है कि जो बाहर में भाव-अध्यात्म प्रतीत होता हो, लेकिन जो निजगुण नहीं साध मन, उन्न भाव-अध्यात्म मत रामझो और उग अध्यात्मागास के पीछे मत पड़े। भाव-अध्यात्म की गी, ऊंची-नीची कई धेणियां होती है। उन्न-उस श्रेणी पर गहुँचने के बाद नीचे-नीचे की श्रेणियाँ छोडनी जावश्या जहाँ तक उच्च श्रेणी पर नहीं पहुँचे, वहाँ ना जिग श्रेणी (भूमिका) पर भात्मा स्थित हो, उन श्रेणी की गाधना दृढतापूर्वक पारनी चाहिए, जिससे उगायेगी प्राप्त हो जाय। भाव-अध्यात्म की यथार्थ शुरूआत तो सम्यग्दर्शन की प्राप्नि में ही हो जाती है, परन्तु आरमविकास का उद्देश्य सिद्ध करने के लिए 'पचाऽऽचारचरिया' यानी पाँच आचारो के आचरण मे इसकी शुरूआत मानी जाती है, जिमे एवं भतनय से अध्यात्म माना जा सकता है। मैत्री आदि भावनाओ ने जब मन वासित होने लगे, तव नसूनय से 'अध्यात्म' समझना चाहिए । अन्तिम प्रगलगरावर्तन गे प्रविष्ट आदि धार्मिक जीव गे असुनबंधक या राकृतवन्धक Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा २३३, भाव आने के बाद से नैगमनय से अध्यात्म माना जा सकता है। अप्रमत्त भाव से ले कर १४वें अयोगीकेवली गुणस्थान तक तो परमनिश्चयनय का भाव-अध्यात्म कहा जा सकता है । उसी के उतार-चढाव के ये अनेक भेद है । अब अगली गाथा मे शब्द और अर्थ की दृष्टि से अध्यात्म का विश्लेपण करते है शब्द-अध्यातम अर्थ सुणी ने, निर्विकल्प आदरजो रे । शब्द-अध्यातमभर्जना जारणी, हान-ग्रहण-मति धरजो रे ॥ श्रीध यांस० ॥०॥ अर्थ जय अध्यात्मशब्दमात्र जान कर उसका यथार्थ अर्थ सुनो और फिर समस्त . विकल्प छोड कर भावार्थ का स्वीकार करो। शन्दमात्र-अध्यात्म मे यथार्थता (सत्यता) हो भी सकती है, नही भी हो सकती है। यो समझ कर जिसमे आत्मसिद्धि होने मे शका हो, किसी प्रकार का कल्याण न होता हो, वैसे नामादि अध्यात्म का त्याग करो और जिस भाव-अध्यात्म से अपने निजात्म गुणो मे रमणता होने से स्वरूपसिद्धि होती हो, वहां उसे ग्रहण करो। भाष्य निर्विकल्प शब्द-अध्यात्म ही उपादेय है इस गाथा मे पुन निर्विकल्प भाव-अध्यात्म को अच्छी तरह ठोक-वजा कर अपनाने की बात कही है कि अध्यात्मशब्द को मुनते ही एकदम चौक मत पडो । सभव है, तुम्हे लम्बे-चौडे अध्यात्मशास्त्र के पोथो की अपेक्षा एक छोटे-से वाक्य मे अध्यात्म का सार मिल जाय । परन्तु सुनने के बाद उस पर विचार करो, उसे जाँचो-परखो और उसमे मे शुद्ध आत्मा के अतिरिक्त विकल्पमात्र को दूर करके उसे निर्विकल्पक रूप में अपनाओ। यह जरूर देखो कि उस अध्यात्म के साथ कही आगे-पीछे कोई परपदार्थ का (म्बार्थ, अभिमान दम्भ, द्रोह, मोह कामना आदि का) विकल्प तो नहीं लगा है ? जब तुम वास्तविक अध्यात्म का अर्थ समझ कर उसे अपनाओगे तो तुम्हे सच्चा आनन्द भाएगा, जिगकी तुलना में दुनिया की कोई भी वस्तु नहीं है। परन्तु आयात्म Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 अध्यात्म-दर्शन वे झूटी प्रतिष्ठा ये मोह गेप कर मुठी स्तुको परमाने। और न ही सठी सिद्ध होने वाली बग्नु को पूर्वाग्रहाग सन्नी मिट्ट करने की कोशिण करते हैं। सच्चे आध्यात्मिक पुगपती, नोकिनी गर्ग-निगन या मृताहिजे मे न आ कार, किसी ने गयभीत न होकर का नाम: उने उमी पगे गोगह जामा प्रगट करने। पाहे उन कोई गाल में पूछ लो, चाहे मेरी सभा में पछ नो, ये गोय ही जागा तो, पम्तो गत्यस्वन्प को प्रगट करने में पानी हिचकिचाएंगे नती, न उगे छिपाने का प्रयत्न करेंगे। गच्ने आध्यात्मिा. मग लक्षण के मिया बाती के जी भी'लोग अध्यात्म मा हाल पीटने वाले हैं, या अध्यात्म तीन नगा पर भोली जनता को उलटी-सीधी बात गमता कर आध्यानिमक होने का दावा करते है या आध्यात्मिा के नाम से प्रसिद्ध हो जाते हैं, उन्हे, बाना नमाना चाहिए। किन्तु जो यथार्थप गे वन्नुतत्व का प्रकागन ने है, ये जानन्दमय आत्मा के मत (अध्यात्ग) में म्यायी स्पगे टिक जाते हैं। वे जायात्मिकता गे पनित या गलित नहीं होने, गा के लिए स्थिर हो जाने हैं। सारांश श्रीधेयामनायजिन (परमागा) की स्तुति के माध्यम से श्रीनागन्यमानी ने परमात्मा को पूर्ण आध्यात्मिक और आत्मरामी, नागी, अन्नाती व मोक्षगामी यता पर परमात्मपद-प्राप्ति के लिए उन आदर्श गुनित करणे तत्पश्च त् मात्मरामी एव अध्यात्म का लक्षण, अध्यात्म का विश्लेपण, और अन्त मे मच्चे आध्यात्मिक की पहिचान बता कर अध्यात्मशास्त्र का नवनीत प्रस्तुत कर दिया है। वास्तव में पूर्ण अध्यात्मदशा को प्राप्त करने के लिए मच्चा आध्यात्मिक वन कर आत्मोत्थान के शिखर तकः क्रमश पहचना आवश्यक है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : श्रीवासुपूज्य-जिन-स्तुति विविध चेतनाओं की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान (तर्ज-तुगियागिरि शिखर सोहे, राग-गोड़ी तथा परज) वासुपूज्य जिन त्रिभुवनस्वामी, धननामी 'परनामी रे। निराकार साकार सचेतन, करम-करमफल-गामी रे॥ वासु० १॥ अर्थ श्री वासुपूज्य नामक बारहवें तीर्थकर वीतराग परमात्मा हैं । ऊवलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक, इन तीनो लोको के स्वामी हैं । वे शुद्ध चैतन्य धातुमय या अनेक नामवाले अथवा नित्य हैं , तथा आत्मगुणो के रागादिरूप शत्रुओ को नमाने वाले अथवा परिणामी (रूपान्तर होने वाले) भी हैं । वे प्रभु दर्शनोपयोग के कारण निराकार भी हैं और ज्ञानोपयोग के कारण साकार भी हैं। एवं ज्ञानादिचतुष्टय से ज्ञानचेतनामय, कर्म और कर्म के फल के कामी हैं। भाष्य विविध दृष्टियो से परमात्मा मे निहित गुण पूर्वस्तुति मे वीतरागपरमात्मा को अध्यात्म के चरमशिखर पर चढ़ने के लिए आदर्शरूप मान कर अध्यात्म की एव आध्यात्मिक वनने की प्रेरणा है, किन्तु आध्यात्मिक बनने के लिए शुद्ध (परम) आत्मा में निहित विविध आत्मगुणो का ज्ञान होना अनिवार्य है। ऐसा सोच कर थीआनन्दघनजी इस स्तुति मे परम (शुद्ध) आत्मा के गुणो का वर्णन विविध दृष्टियो से करते है। १ चूंकि भारत के बहुत-से दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते है । बौद्ध १ कही कही 'परनामी' के बदले 'परिणामी' पाठ भी है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अध्यात्म-दर्शन शब्द के मोह में मत फंसना, क्योकि मोह नी जगत् में गाने वाला । अन अध्यात्म शब्द को मुन कर उनकी जो गौटियां पहने बनाई गः -- निजम्वरूप जे किरिया माधे तेह अध्यातम लहिये रे आरि, नागार तथा नाम, ग्थापना और द्रा अध्यात्मा ज्यागो गाने में भाव-अध्यात्म तुम्हारी बुद्धि को जचे, उंगे अपनाओ। नगी अध्यात्म मान्यों में उक्त शब्द-अध्यात्म मे गुण भी हो गकता है. नही भी हो सकता। नमो की सहायता से जहाँ गुण न हा तो, वहा उसे छोटने की और जहां गुण हो, वहाँ ग्रहण करने की बुद्धि रखना। कोरे अध्यात्मशास्त्र के नाम में प्रभावित मत हो जाना । ' अध्यात्मशब्द का प्रतिपादन करने वाले नथाकथित आध्यात्मिक मे सुद मे अध्यात्म है या नहीं? यह देखना । अन्यथा अध्यात्म की कोरी व्याख्या मे तुम झूम उठोगे, पर आध्यात्मिक के जीवन में पूर्वोन आध्यात्मिकता नहीं होगी , तो तुम्हे भी वह कैसे नार मनेगा जब कि वह स्वयं तर नही सका है ? अथवा इस गाथा का यह भी अयं हो सकता है कि आध्यात्मिक भागरूपी गब्द-अध्यात्म मे में उसका विस्तृत अर्थ नुन कर, अन्त मे निर्विकल्पदगा ही अपनाना । चूंकि भाव-अध्यात्म निर्विकल्पदग्गा प्राप्त करने के लिए ही है। शास्त्र तो अमुक हद तक ही सहायक हो गकते हैं। अन्त में तो निर्विकल्प दशा पर पहुंचना है, जहाँ पहुँच जाने पर उदामीनभाव प्राप्त होने से कुछ भी लेना (ग्रहण) या छोड़ना (हान) नहीं होता। अथवा उग गाया का एक अर्थ यह भी है कि शब्दनय की अपेक्षा में अध्यात्म की भावनाओ-अलगअलग कक्षाओ का भेद जान लेने के बाद त्याग या म्वीकार की बुद्धि नहीं रहती। विपयो के प्रति स्वत ही तटस्थता-उदासीन हो जाती है । अव्यात्मसाधना किसलिए करनी चाहिए तथा उसका प्रयोजन और उच्च ध्येय क्या है ? यह बात श्रीजानन्दधनजी ने 'निविकल्प आदरजो रे' कह कर सूचित की है। १ उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है - भणता अकरंता य वधमोक्खपइण्णिणो । वायावीरियमेतण समासासेंति अप्पय ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा २३५ - अध्यात्म का स्वरूप भलीभांति समझाने के वाद अब अन्तिम गाथा मे श्रीआनन्दघनजी आध्यात्मिक पुरुप का लक्षण बताते है अध्यातमी जे वस्तुविचारी, बीजा जाण२ लबासी रे। वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, आनन्दधन-मतवासी रे ॥ श्री श्रेयांस० ॥६॥ अर्थ जो अध्यात्म मार्ग मे लीन हैं, वे वस्तुतत्त्व का विचार करने वाले होते हैं, बाकी के दूसरे लोग तो कोरे लवार है-अध्यात्म की बकवास करते हैं । वस्तु को जैसी है उस रूप मे जो (वस्तुतत्त्वरूप मे) प्रकट करते हैं, यथार्थ, रूप से उस पर प्रकाश डालते हैं, वे ही आनन्द के समूह रूप आत्मा के (अध्यात्म) के मत मे निवास करने (स्थिर रहने वाले है। आध्यात्मिक कौन और कैसे ? श्रीआनन्दघनजी इस स्तुति की अन्तिम गाथा मे आध्यात्मिक की यथार्थ पहिचान बताते हैं और जो आध्यात्म के नाम से थोथी बकवास करते है, उन्हे लवार समझ कर उनका सग छोडने की वात सूचित करते है । वास्तव मे अध्यात्म का विपय इतना गहन है, इतनी चिरकालीन साधना की अपेक्षा रखता है कि राह चलता व्यक्ति आत्मा की दो चार रटी-रटाई वाते कह देने मात्र से आध्यात्मिक नहीं माना जा सकता है। आध्यात्मिक की सच्ची पहिचान यही है कि जो किमी वस्तु पर विभिन्न नयो, पहलुओ एव दृप्टिविन्दुओ मे विचार करते है, उस पर भलीभांति श्रद्धा रखते है, समझते हैं, अध्यात्म के पूर्वोक्त नक्षण के अनुसार वस्तु को सत्य की कसौटी पर कसते है, जो वस्तु गुणो में सही नहीं उतरती, उसे पकटे रखने का मोह नहीं रखते, उसे तुरन्त छोड देते हैं, गुणो मे सही उतरने वाली वस्तु को पकडते है, उसे ही यथार्थरूप मे प्रकाशित (प्रगट) करते हैं। चाहिए। १ किसी किसी प्रति मे 'अध्यातमी' के बदले 'अध्यातम' शब्द है, वहाँ अर्थ होता है-'अध्यात्म मे तो वस्तु का विचार ही होता है , २ 'जाण' के बदगे नाही-नाही 'वधा' शब्द है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अध्याग-पर्णन दगन आत्मा को क्षणिापरिणामी गानता है न मालगा को रागादिमय (प्रनिगय) मानत है और कोई वर्णन यात्मा को सदा-गर्व वा एकाल ज्ञानमय मानता है, कोई कर्ममय और कोई कर्मफलतनागय मानना है। इन मव एकान्तवादी दार्शनिको की एकान्त मान्यता का अम्बीकार करते हुए श्रीआनन्दघनजी अनेकान्तदृष्टि में गापार मे शुट भागात विविध वर्णन परमात्मा की स्तुनि के बहाने करते है। मतलब यह है कि माधारण भव्य आत्मा को अगर परमात्मा से मिलना हो तो उसे सर्वप्रथम यह मोचना होगा कि मैं कौन हैं? आत्मा कान है? परमात्मा कौन व बसे है ? मैं नित्य, कूटस्थ (सदासर्वदा) निन्य है या परिणामी (परिवर्तन-रूपान्तरणीन) भी हूँ? मेरी आत्मा निराकार ही है या वह आकार भी धारण करती है ? वह पचभूनमय अचेतन ही है या शरीर के माय रहते हुए सचेतन भी है ? यदि आत्मा केवल ज्ञानचेतनामय है तो फिर गरीर के साथ उसका क्या लेना-देना है ? और वह इन गति, योनि या टेह मे फैमे आ गई ? यदि कहे कि कर्मों के कारण आ गई , तब क्या आमा कमंत्रतनामय भी है ? यदि कर्मचेतनामय है तो रहे, किन्तु वह तो सभी नगारी जीवों के साथ समानरुप मे है । फिर एक को कम दुख, एक को अधिक, एक मन्दबुद्धि, एक तीवबुद्धि, ऐमा समार में क्यों दिखाई देता है ? ऐमी विविधता है, तव तो कहना चाहिए कि आत्मा कर्मफननेतनामय भी है। इन सब वातो का रहस्य श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा की स्तुति के माध्यम में खोल कर रख दिया है । परमात्मा में निहित शुद्ध आत्मा के गुणो तथा आत्मा के विविध रूपो का ज्ञान हो जाना ही वास्तव में अध्यात्मज्ञान है। ऐमा । अध्यात्मज्ञान हो जाने पर माधक को परमात्मा से मिलने में आसानी हो जाती है। अत इस गाथा मे परमात्मा यानी शुद्ध आत्मा को त्रिभुवनम्वामी कहाँ गया है । आत्मा जव रागद्वेपादि विकारशत्रुओ को जीत कर गुद्वचैतन्य पर अपना आधिपत्य जमा लेती है , तो तीनो लोको मे कोई ऐसी शक्ति नहीं, जो उमे हटा सके, दवा सके , जीत सके। तीनो लोको मे वह आत्मा सवने बढकर शक्तिमान व अनन्तवीर्यमय होने मे वह तीनो भुवन से ऊपर उठ कर तीनो Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध नेतनाओ की दृष्टि मे परम आत्मा का ज्ञान २२६ भवनो की ग्वामी बन जाती हैं । ऐगी शुद्ध-बुद्ध-मुक्त बनी हुई आत्मा फिर कही जन्म-मरण नहीं करती, कोई कमवन्धन नहीं करती, परन्तु साथ ही वह ज्ञानादि मे परिणमन करती है, इसलिए परिवर्तन = (परिणाम) शील भी है । वह एकान्त कूटस्थ नित्य नही है । समारी आत्माएँ भी निश्चयदृष्टि से नित्य एव अविनाशी होते हुए भी विविध गतियो मे भ्रमण करने के कारण परिणमन-परिवतनशील है, अथवा शरीर धारण करने के गाथ-साथ आत्मा के अनेक नाम-स्प हो जाते है । परमात्मा की एक आत्मा के भी जिन, वीतराग आदि या अपम, अजिन आदि, अथवा तीर्थकर जगद्गुरु, केवलज्ञानी, विश्ववत्सल आदि अनेको नाम-स्प हो जाते है । साथ ही पर यानी शत्रु--(आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के गुणो का घात करने वाले) कर्मो या रागद्वेपादिविकारो-परभावो रूपी शत्रुओ को परमात्मा नमा देते हैं। वे उन्हे अपने पर हावी नहीं होने देते । न अपनी आमा को दवाने देते है , इस दृष्टि से वे परनामी हैं। इसी प्रकार ममारी आत्मा भी परनामी बन सकती है , वशर्ते कि वह रागद्वेपादिविकागे या आत्मगुणघातक कर्मो, (जो कि परभाव है, आत्मा के शत्रु हैं) से दूर रह कर स्वभाव मे ही रमण करे । __ परमात्मा की आत्मा जब गुद्ध, बुद्ध, सिद्ध (मुक्त) हो जाती है, तब वह सर्वथा निराकार हो जाती है अथवा निश्चयदृष्टि से समस्त आत्माएँ अपने आप मे अल्पी, अमूर्त होने मे निराकार है, इसलिए परमात्मा भी निराकार है । परन्तु व्यवहारदृष्टि से शरीर के साथ सयोग होता है, अथवा वीतरागप्रभु की आत्मा भी जव तीर्यकर-अवस्था मे देह मे स्थित (शरीरव्यापी) रहती है, तब उनकी आत्मा और समारी आत्माएँ भी साकार सचेतन कहलाती है। अथवा परमात्मा मे साकार (ज्ञान) उपयोग के कारण साकार ज्ञानचेतना और निराकार (दर्शन) उपयोग के कारण निराकार नानचेतना होती है । यही समस्त मसारी जीवो में भी होती है। अथवा वीतरागप्रभु (तीर्थकररूप मे) जव देणना (उपदेश) देते है, तव वे शरारीरी होने से माकार होते है, और जब मोक्ष मे चले जाते हैं, तव निराकार हो जाते हैं । इस दृष्टिविन्दु से आत्मा के दो प्रकार हुए-जो वीतराग प्रभु मे घटित होते है । प्रत्येक आत्मा को इन दो प्रकारो से समझना चाहिए। आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थाओ के कारण उसे साकार और निराकार कहने मे जरा भी विरोध नही है । क्योकि व्यवहारदृष्टि से ये Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अध्याता-दर्शन राब भेर नवग्यागेदो कारण ये । शिनगरि ने आत्माद नहीं होता। मी तरह न्याहारनय की दृष्टि आहमा गाTTIT, और भावार्मफल का कागी (गोक्ता या अभिनापी)। प्रगा पागा जब सना . गगार में रहता है, ना ना वह कम पाता है कि गुजरना है. तो उसे शुभफल और अशुभामं करता है तो अशुभफा गिनता है। वीतराग परगानगा भी जब तक साकार (सदेह), गयोगी बनी है, तब तक उनके भी योगी की चपलता के कारण मर्म होते है, चाहे वे गुम ही हो, और उन कर्मों का फल भी जवश्यमेव नागना पड़ता है, चाहे में ममयमान भी भोगें। किन्तु वीतराग-प्रभु जानते हैं कि जो मैने लिये है, उनका फल म्बय गुरु ही अवश्यमंत्र भोगना है। कर्मफल गोगने नगर वे पवना नहीं। वे कर्मफल भोग कर उनगे गीन ही ट्याग (मुति) 'नो' । गत व शुद्रोपयोगी रट गार कमल मागने के जौपचारित पसे नामी हे जाते है। अथवा उन्होंने येवनानप्राप्ति ने पो जोगी भाभकर्म नि है, उनके फलस्वरुप तीर्थकर नामगोश आदि कर्मफल---उन्ट ही गोगने है, क्योगिन अकाट्य गिद्वान पर उनका गलीमानि विश्वाा होता है कि जो भी कर्म किये है, उनके फल भोग बिना कोई चारा नही है। योकि १ वृनकों का फलभोग अनिवार्य है। जब गमत कर्मफल भोग लिये जायेंगे, तभी मुक्ति होगी। मुक्ति में गये वाद न तो कर्म करना होता है और न कर्म फल भोगना होना है। वहाँ तो कर्म मुक्त हो कर आत्मा निजगुणो मे प्रवृन रहता है, यानी अपने ज्ञान-दर्शन-चारिनादि गुणो म रमण करता रहता है। यहाँ मिट्ट, वुद्व, मुक्त हो कर परमात्मा गुद्ध ज्ञानचेतना में लीन रहते हैं। मतलब यह है कि जैनदर्शन में चेतना के तीन मंद माने गये हैज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। चेतना यद्यपि अपने आप में एक अखण्ड तत्त्व है, किन्तु विभिन्न दशाओ या अपेक्षाओ मे उसके तीन रूप बन जाते है-ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलस्प । यद्यपि तीनो चेतनाओ के क्रम - १. कडाण कम्माण मोक्ख अत्यि। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान २४१ मे पहले कर्मस्प चेतना, फिर कर्मफलरूप चेतना, तदनन्तर ज्ञानरूप चेतना है, तयापि यहां पहले ज्ञानचेतना को प्रस्तुत किया है, तदनन्तर शेप दोनो चेतनाओ को । इन तीनो चेतनाओ के लक्षण कमश आगे की गाथाओ मे श्रीआनन्दघनजी स्वय बतलायेंगे। यहाँ उपर्युक्त तीनो चेतनाओ को परमात्मा मे बताने का अभिप्राय यह है कि आध्यात्म-रसिक साधक कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के समय सावधान रहे, समभावी हो कर चले और अप्रमत्त (जागृत) रहे , ताकि ससार से पराड्मुख हो कर निराकार परमात्मा की तरह अन्तर्मुखी वन कर एकमात्र शुद्ध ज्ञानचेतना की अखण्डधारा की साधना करे। स्वय मे स्व का उपयोग करे, अपने अन्दर अपने स्वरूप का ज्ञान करे। इस प्रकार ज्ञानचेतना की अविच्छिन्न धारा विकमित होते-होते सिद्ध (परमात्म) दशा तक पहुंच जाय। इसी दृष्टि से सर्वप्रथम ज्ञानचेतना के विषय मे अगली गाथा मे कहते निराकार अभेदसंग्राहक, भेदग्राहक साकारो रे । दर्शन-ज्ञान दुभेद चेतना, वस्तुग्रहण व्यापारो रे ॥वासु०॥२॥ अर्थ परमात्मा मे अभेदस्वरूप को ग्रहण करने वाला निराकार (दर्शन = निविशेषसामान्य) उपयोग है , तया भेदयुक्त स्वरूप को ग्रहण करने वाला साकार (ज्ञान-विशेष) उपयोग भी है । वस्तु को ग्रहण करने मे आत्मा के इन दोनो उपयोगो (व्यापारो) को ले कर इनके क्रमश दर्शनचेतना और ज्ञानचेतना ये दो भेद हो जाते है। अर्थात् ये दोनो चेतनाएं ही क्रमश: निराकार और साकार कहलाती है, जो परमात्मा मे केवलदर्शन और केवलज्ञान के रूप मे रहती हैं। भाष्य ज्ञानचेतना : स्वरूप और भेद परमात्मा मे जिस त्रिशुद्ध ज्ञानचेतना का विकास हुआ है, वह दो प्रकार की है-एक सामान्यग्राही है, दूसरा विशेषग्राही है । जीव-अजीव 'मादि ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अध्यात्म-दन रामपदार्थों की सामागस्प या सभेदाप गे हरा निगार जाननेतना है, जिने दर्गन कहते है लौर जीव-अजीव आदि मगन पायोमीनिया मे या भेदरूप से गाहक साधार माननेनना है, जिसे ना हो । प्रनार परमात्मा मे निराकार उपयोग और सावार उपयोग की दिया (आगनापार) प्रतिक्षण होती रहती है। अर्थात् आत्मा परमात्मा के परप को जानने की, जड (अजीव) से भिन्न चैतन्य (आत्मा) पो पहिचानने कोसिया होनी है, वह न दोनो प्रकारों के जरिये होती है। प्रत्येक पदार्थ में सामान्य और विशेष दो प्रकार के धर्म होते है, तो प्रत्येक आत्मा में भी पदार्थ के पूर्वोत्त दो घमाँ (सामान्य विशेष) को जानने की शक्ति होती है , जिने ज्ञानचेतना और दशननेतना पहने है। आत्मा में अगर जानचेतना न होती तो वह यह कैसे जान सकती कि जीवन परा है ? जगन् क्या है ? जगत् मे वितने द्रव्य हैं ? उनके नया-या लक्षण हैं? जीव और अजीव में क्या अन्तर है ? और उनका मापन में क्या सम्बन्ध है? आत्मा मे ज्ञानचेतना (मानशक्ति) होने से ही वह यह नब जान सस्ती है। ज्ञानचेतना के दो भेद तो इसलिए किये हैं कि आत्मा पदार्थों को जान तो अवश्य सकती है, मगर वह किसी भी पदार्य को सहना विपल्म से उसके असली स्वरूप को पहिचान नहीं सकती। वह नमश ही जानती है। किसी चीज को देखते ही या स्पर्ग आदि होते ही पहले क्षण मे, गामान्यरुप से एक ऐसा आभास होता है कि यह कुछ है उसके बाद दूसरे-तीसरे क्षणो मे वह वस्तु किस प्रकार की है ? कैसी है ? क्या है ? आदि विशेष प्रकार गे जानती है। इसी क्रम को निराकार उपयोग (दर्शन) आर साकार उपयोग (ज्ञान) कहा जाता है । सामान्य ने विशेष तक पहुँचने का समग बहुत ही अन्प होता है । यहां जाननेतना द्वारा गुद्ध आत्मा या परमात्मा के विषय में जानकारी करने हेतु स्व का उपयोग स्व में करना होता है । वस्तुन इसी स्थिति का नाम जानचेतना है। ऐसी ज्ञाननेतना वीतरागगाव की या गुद्ध आन्मस्परा की एक पवित्रधारा हे। बानचेतना गे साधा अन्य विनसो को छोट कर मसार से परामुख हो कर यानी बहिर्मुशी न रह कर अन्तर्मुगी बन जाता Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनाओ की हप्टि रो परम आत्मा का ज्ञान २४३ है। और परमात्मभाव - मुक्तिपद की ओर अग्रसर होता है। ज्ञानचेतना की साधना मे स्वय मे स्व का उपयोग, स्व मे स्वस्वरूप का भान करना होता है। यही सबसे बडी साधना है, यही सबसे बड़ा धर्म है। ज्ञानचेतना की अखण्डधारा सम्यग्दर्शन से बढ़ते-बढते परमात्मदशा तक पहुँच जाती है। यद्यपि शुद्ध ज्ञानचेत्ना के साथ भी छद्मस्थ को वीच-बीच मे शुभधारा अवश्य आती है। परन्तु शुद्ध ज्ञानचेतना का अत्यधिक बल होने से वे विकल्प अधिक देर तक नहीं टिक पाते । मन के शुभ या अशुभ विकल्पो को तोडने का एकमात्र साधन शुद्ध ज्ञानचेतना ही है। निश्चयदृष्टि मे एकमात्र आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी अपना नहीं है और वह आत्मस्वरूप की अविच्छिन्न स्थिति ही ज्ञानचेतना है। परन्तु ऐसी जानचेतना अधिक समय तक अविच्छिन्नरूप से सामान्य । साधक मे टिक नहीं पाती, बीच मे शुभ का विकल्प आ जाता है, इसलिए आगे की गाथा मे चेतना के द्वितीय प्रकार-कर्मचेतना के बारे मे कहते है-- कर्ता परिणामी, परिणामो, कर्म ते जीवे करिए रे । एक-अनेकरूप नयवादे, नियते नर अनुसरिए रे ॥वासु०॥३॥ अर्थ परमात्मा शुद्धनय से निजस्वभाव का, तथा अशुद्धनय (पर्यायाथिक नय) की मुख्यता की अपेक्षा से स्वपर्यायो, भावकर्मादि का उत्पादक और विनाशक है। वह स्वपर्यायो का उपादानकारण और परपर्यायो की उत्पत्ति और विनाश का भी कारण (कर्ता) समझा जाता है । ऐसी आत्मा तथा प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील (परिणामी) है। कर्म भी उसका एक परिणाम है। परन्तु वह कर्म तभी बन्धनकारक होता है, जब जीव के द्वारा किया जाता है , यानी जब चेतना के साथ उसका संयोग होता है। वास्तव मे निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा एकरूप है और व्यवहारनय की दृष्टि से अनेकरूप है। यह सब नयवाद की दृष्टि से है । इसलिए हे मुमुक्ष साधक ! अन्त मे तो तुम्हें निश्चयनय से निर्णीत आत्मा का ही अनुसरण करना चाहिए। भाष्य Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अध्यात्म-दर्गेन आत्मा का एक म्प : कर्मचेतना परमात्मा गे निपचयष्टि से तो जाननेतना ही नती: ननि जय तमा वे चार घानीकर्मो से युक्त होने में बना उनमें गाना गी होती है। वीतराग एव सदेहमुक्त होने पर कर्मचाना नहीं होती। मग 7 गनारी जीवो के कर्मचेतना अवश्य होती है। - प्रश्न होता है कि चेतना तो आत्मा का गुण है और यार्म अपने आप में जड है। इन दोनो का मेल कैसे हो सकता है ? जब जड़ चेतन का मेल नहीं, नव उमे कर्मत्रेतना क्यो कहा गया। इसका समाधान यह है कि निश्चयदृष्टि से सिद्धो की आत्मा में कर्मचेतना नहीं होती। व्यवहारदृष्टि ने सासारिक गगपयुक्त मात्माओ के माथ ही कर्मचेतना का सम्बन्ध है । कर्म को, केवल कर्म मन समझो। क्योकि उसके साथ चेतना भी है। इसी कारण से वन्ध होता है । यदि कर्म के साथ चेतना न हो तो बन्ध नहीं हो सकता। जलती हुई अगरबत्ती के कारग सभी की नाक मे भीनी-भीनी मुगन्ध पहुँची और उन्हें आनन्द माया। पया टूट कर नीचे गिर पडा, इससे एक आदमी का निर फट गया , यहां अगरवनी या पखा , इन दोनो मे से किसी को भी फर्म का वन्धन नहीं होता। ग्योकि ये दोनो जड हैं । जड होते हुए भी उनमे कर्म (निया) अवश्य सम्पन्न हुना; मगर वन्धन नहीं हुआ। निष्फर्प यह है कि जड पदार्थ मे कर्म होते हुए भी उगम चेतना न होने के कारण बन्ध नहीं होता । वन्य वही होता है, जहाँ - चेतना होती है । पखे और अगरबत्ती मे कर्म (निया या चेप्टा) तो है, परन्तु -- चेतना नही है, इसलिए न तो पसे को अगुभवन्ध हुआ और न अगरबत्ती को • ही शुभवन्ध हुआ। अत कर्मचेतना का अर्थ यह है कि जहा चेतनापूर्वक कर्म किये जाय, । उसी से ही शुभ या अशुभ बन्ध होता है । चेतनापूर्वक कर्म चेतन मे ही सम्भव है , इसलिए चेतन में ही बन्ध होता है, और चेतन मे ही मोक्ष हो सकता है । चैतन्यशून्य पुद्गल मे कर्म होते हुए भी बन्ध नहीं हो सकता। यही कर्मचेतना का रहस्य है । परन्तु प्रश्न होता हैं कि कर्मचेतना आत्मा में होती किस कारण से है ? Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान २४५ जव हमारे अन्तर मे राग या द्रुप से किसी क्रिया की स्फुरणा होती है, तव भाववतीशक्ति से आत्मचेतना विविध विकल्प करती है । जैसे यह करू या वह कम ? वह करू या न करूं? क्या करू, क्या न करूं ? इस प्रकार के विकल्पो की जो ध्वनि आत्मा में निरन्तर उठा करती है, वही कर्मचेतना का कारण है। ऐमी चेतना (विकल्पो की स्फुरणा) कही बाहर की नही, हमारे अदर की है । वह अन्तर की चेतना ही कर्मचेतना है । भले ही वाहर मे तदनुस्प कोई क्रिया न हो । अध्यात्मजगत् मे मूल प्रश्न कर्म (क्रिया) का नही है, अपितु कर्मबन्ध का है , जो कमचेतना के कारण होता है। इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने स्पष्ट कह दिया कि कर्ता (चेतन या अचेतन। परिणामी परिणमनशील है । परन्तु उन्होंने साथ मे यह भी बता दिया कि 'परिणामो कर्म जे जीवे करिए रे' , कोई भी कर्म जो जीव के परिणामो (चेतना मे उत्पन्न विधिनिषेध के विविध विकल्पो की लहरो) से किया जाता है, उसे ही कर्मचेतना कहते है। कर्मचेतना के समय चेतना के सागर मे विकल्पो का तफान उठता है । तव आत्मा स्वरूप मे स्थिर नही रह पाती । जव आत्मा स्वस्वरूप मे स्थिर नहीं रह पाती, तव कर्मबन्ध के चक्कर मे उलझी रहती है। विकल्पो की लहरें ही कर्मवन्ध का मूल कारण बनती है। यद्यपि आत्मा अपने सहजस्वरूप से शान्तसरोवर के समान स्थिर है , किन्तु जव उसमे कतव्यसम्बन्धी विविध विकलो की उमियाँ उठने लगती हैं, तब वह अशान्त बन जाती है । इस विराट् विश्व मे सर्वत्र लोकाकाश. 'के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त-अनन्त कमवर्गणाओ का अक्षय भडार भरा पड़ा है। जव चेतना मे विविध विकल्पो का तूफान उठता है, तब ये ही. कर्मवर्गणाएँ कर्म का रूप धारण करके आत्मा से बद्ध हो जाती है । अनन्त अतीतकाल में ये कर्मवर्गणाएं कर्म का रूप धारण करती और आत्मा से बद्ध होती आई हैं , भविष्य मे भी ये कम का न तव तक लेनी रहेगी, जब तक भावकर्म का सर्वथा क्षय व हो जाय । चू कि कर्मपरमाणुओ के साथ आत्मप्रदेशो का सश्लेप (कर्म) बन्ध कहलाता है। यही कारण है कि जडकर्मो के साथ चेतन की परलक्ष्यी विकल्प शक्ति रहती है। कोई भी कार्य बिना कारण के हो नहीं सकता, भले ही हमे कारण प्रत्यक्ष न दियाई दे । लेकिन कार्य तो अवश्य ही दिगाई देता है । जनकार्गबन्धम्म कार्य के प्रति चेतना का रागद्वेपात्गक विकल्प ही निमित्त,कारण Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ अध्यात्म-दर्शन है। शास्त्र में जह कर्मी को द्रव्यकर्म और चेतनकों को भापकर्म कहा है। अत भावकर्म से द्रव्यकर्म का और द्रव्यकम मे भावकम का वध होता रहता है। यह निमित्तनैमित्तिक-सम्बन्वर गावकर्ग ही वारना म नना है। इस दृष्टि से जब हम विचार करते है तो फर्म चेतना के भी दो भेद हो जात है-पुण्यकर्मचेतना, और पापकर्म-नेतना । किमी दुनी व्यक्ति को देख कर उसके दुख दूर करने की भावना में जो दान दिया जाता है या गुमक्ति, या सेगा की जाती है, वह पुण्यकर्म चेतना है। जब मात्मा मे शुभकार्य करने का विकल्प __उठता है, तब पुण्यकर्मचेतना होती है। वह चेतना जिममे पुण्य की धारा शुभ दान मे प्रवाहित होती रहती है, वह पुण्यकर्मनना है। इसमे गुम. योग में स्थित आत्मा पुण्यकर्मवन्ध करती है। दूगरी कर्मनतना पापकर्मचेतना है। जो पुण्यकर्मचेतना में विपरीत है, उगमे पार की धारा प्रवाहित होती रहती है। उन समग आत्मा बगुमयोग मे रियत हो कर गारप्रतियो का वन्ध करती है। किसी को काट देने, दुप देने का विचार काम, नोध आदि का अगुभ विकल्प पापकर्मचेनना है । किमी की वस्तु छीनना, किमी के साथ मारपीट करना, किसी को गाली देना बादि पापकर्मचेतना के उदाहरण है। मिथ्यादृष्टि आत्मा ही नही, गम्यग्दृष्टि मात्मा भी जर ऐसी अशुभयोग की क्रियाएँ करती है, तो उगे भी पापप्रकृतियो का बन्ध होना है। आत्मा निश्चयनय की दृष्टि में चैतन्यरूप लक्षण के कारण एक है। साथ ही व्यवहारनय की दृष्टि से जीवात्माएँ अनन्त है। किसी अपेक्षा से ज्ञानात्मा आदि आठ आत्माएँ भी है। इसीलिए श्रीमानन्दधनजी ने कहा'एक-अनेक-रूप नयवादे । निष्कर्ष यह है कि आत्मा के साथ रागद्वेषादि विकलो के कारण कार्माणवर्गणामो का सश्लेप-सयोगसम्बन्ध होता है। इस कारण वे कार्माण-वर्गणाएँ ही आत्मा के साथ चिपकने के समय कर्म कहलाती है। आत्मा कार्माणवर्गणा को कर्मरूप से करता है। वह करने वाला आत्मा का एक परिणाम है। १ कहा भी है-'एगे आया'-~-ठाणागमूय २ 'अणंता जीवा'---गवतीगून Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान २४७ वह भी भावकर्म है, जो आत्मा के रागद्वेपादि परिणाम रूप हैं। वही वास्तव मे कर्मचेतना है। अनुपचारित असद्मूत व्यवहारनय मे आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता कहलाता है। यद्यपि आत्मा चैतन्यरूप के कारण एक ; प्रतीत होती है, परन्तु कर्म के कारण उसके अनेक भेद हो जाते हैं। विविध गतियो और योनियो में आत्मा के परिणमन के कारण उसके अनेक रूप दिखाई देते है। परमात्मा मे कर्मचेतना व कर्मफलचेतना नहीं होती , क्योकि वे घाती कर्मो एव रागद्वेप से रहित होते है। वे शुद्ध ज्ञानचेतना या ज्ञानदर्शन-चारित्ररूप मुक्तिमार्ग मे स्थिर होते हैं। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ,भव्यसाधको से कहते है-'नियते नर । अनुसरिए रे' अर्थात्-साधकपुरुष । कर्मचेतना का स्वरूप समझ कर तथा आत्मा के विविध रूप देख कर विकल्पो के जाल (भले ही वे शुभ हो) मे लुभा मत जाना। तू एकमात्र ध्रुव, शाश्वत आत्मतत्त्व मे या आत्मस्वरूप मे स्थिर हो कर उसका अनुसरण करना। .. चंकि द्रव्याथिक-निश्चयनय के अनुसार आत्मा स्वभावारिणति से निजस्वरूप की अथवा स्वगुणो की ही क्रिया का कर्ता है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-स्वज्ञान से आत्मा स्वपरपदार्थ को जानती है, दर्शन' से श्रद्धा करती है, चारित्र से कर्मपरमाणु रोकने की क्रिया (सवर) करती है और आत्मानन्द-परमानन्द ,स्वभाव को भोगती है, उसमे रमण करती है। अब अगली गाथा मे कर्मफलचेतना के सम्बन्ध मे श्रीआनन्दवनजी कहते हैं। सुखदु खरूप कर्मफल जारगो, निश्चै एक आनन्दो रे। . चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे ।। वासुपूज्य० ॥४॥ अर्थ कर्म के फल सुखरूम भी हैं, और दु खल्प भी हैं, इसे भलीमाति समझ १ कहा है-"नाणेण जाणइ भावे, दसणेण च सरहे । चरितण निगिण्याई, तयेण परिसराई ॥" । । । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अध्यात्म-दर्शन लो। निश्चयदृष्टि मे एकमान आत्मानन्द (स्वस्परमणता का आनन्द) ही आत्मा का फलभोग है । श्रीजिनेश्वरी (वीतरागो) में चन्द्र के समान तोयं करदेव कहते हैं चेतन को चेतनता ही उसके परिणाम हैं, जिन्हे वह पदापि नहीं छोड़ सकता। भाप्य कर्मफलचेतना . म्वरूप और कारण जब आत्मा कर्मफलचेतनारूप होता है तो रागपजनित यमबन्ध का शुभाशुभ फल भी उसे मिलता है। प्राणी सो जव दुख का अनुभव हो, तो उसे भी कर्म फल जानना चाहिए, और मुख का अनुभव हो, तब भी उसे कर्मफल समझना चाहिए। आत्मा के अनुकून (मनोग) वेदन (अनुभव) होना सुख कहलाता है और आत्मा के प्रतिकूल अमनोन वेदन होता है.--दुख । जव कोई रोगी, कगाल या कप्टपीडित होता है तो नहला दुख का अनुभव करता है और जब जीव स्वत्य, धनिया, वैभवविलास से युक्त या माशापालक परिवार से युक्त हो कर मनोन वस्तुओ को पा जाता है तो सुख का अनुभव करता है । परन्तु वै सुख-दु खरूप फल आने हैं-पूर्वकर्मो के फलस्वरूप ही। फिर चाहे वे गुम हो या अशुभ कर्म का फल अवश्य मिलता है। कर्म जव अपना फल देने लगता है, तब उसके साथ अपनी चेतना को अपनी चेतना की परिणति को जोड देना कर्मफलचेतना है। यानी जिसमें जीव अपने शुभ एव लशुभ कर्म के फल का अनुभव करते समय शुभ फल को पा कर प्रसन्न हो उठता है और अशुभ फल को पा कर खिन्न हो उठता है। उसकी दृष्टि प्राय पुण्य, पाप और उसके फल में ही उलझी रहती है। कर्मफलचेतना में जीव को अपने स्वरूप का मान नहीं हो पाता। वह कर्मों के भार से इतना दवा रहता है कि कर्म और कर्मफल के अतिरिक्त अविनाशी शुद्ध आत्मतत्त्व पर उसकी दृष्टि नहीं पहुंच पाती। यह सुख भोग लं, वह सुम्ब 'भोग लूं, यह दुख न भोगू, वह दुख भोगना न पड़े, इस प्रकार भोगने, न भोगने के विकल्पो मे उलझे रहना ही कर्म फलचेतना है। कर्मफलचेतनायुक्त जीव अपने आध्यात्मिक आनन्द को, अपने आतरिक आत्मस्वरूपरमणजन्य शाश्वत अनन्त मुख को भूल जाता है। वह इन्द्रियजन्य भोगो मे सुख मान कर इतना आसक्त हो जाता है कि उसे कर्मपाल के अतिरिक्त किसी वस्तु ना-अपनी आत्मिक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान २४६ स्वरूपनिधि या स्वगुणनिधि का भान ही नहीं रहता कि वह जिस आनन्द या सुख की खोज मे है, वह शाश्वन मुख या आनन्द कही भौतिक पदार्थो या इन्द्रियो के विपयो मे नहीं, बल्कि अन्तरात्मा मे ही है। किन्तु वह बहिर्मुखी होने के कारण सुख और आनन्द की खोज बाहर मे ही करता है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं-निश्च एक आनन्दो रे । कर्मो के शुभ या अगुभ फल जैसे अज्ञानी को भोगने पड़ते हैं, वंसे ज्ञानी को भी भागने पड़ते हैं। लेकिन ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) आत्मा दुखरूप कर्मफल से बेचैनी नहीं मानता । और दुखरूपफल भोगते समय उसकी दृष्टि मुख्यतया घृणायुक्त या द्वेपात्मक नहीं होती। इसी तरह सुखरूप कर्मफल हो तो भी वह हर्षित या आसक्त नहीं होता। वह दोनो स्थितियो को भोगते समय समभाव मे रहता है । निष्कर्प यह है कि वीतराग पुरुप या सम्यग्दृष्टि आत्मा भी पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मो के कारण कर्मफलचेतना से युक्त होते हैं , लेकिन जहाँ साधारण (अज्ञानी या मिथ्याप्टि) आत्मा दुखरूप कर्मफल भोगते समय हायतोवा मचाता है, दूसरो (निमित्तो या मन कल्पित निमित्तो) को कोसता है, अपने उपादान (आत्मा) को नहीं देखता , तथा इस जन्म या पूर्वजन्मो मे स्वय द्वारा हत किन्ही अशुभ कर्मो के ही ये पल है, इस वात को नहीं मानता। वह अन्तर्मुखी हो कर आत्मस्वरूप का चिन्तन नहीं करता। अत यह निश्चित समझो कि शुभाशुभकर्म का सुख-दुखरूप फल निघचयनय की दृष्टि से आत्मा का स्वरूप नही है , वह चैतन्य से भिन्न है । मुख और दुख ये पुद्गलपर्याय की अवस्थाएँ हैं । मन-वचन-काया की योगजन्य क्रिया कर्म का फल है। कर्म या कर्मफल के साथ आत्मा का सम्बन्ध नही। वल्कि निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा ज्ञानदर्शनचारित्रमय या अनन्त-आनन्दमय है और उसी निजम्वरूपानन्द मे मस्त रहती है । आत्मा की निर्गुण क्रिया से तो निश्चय एक आनन्द ही है , जो अनिवर्चनीय, अनन्त तथा अनुभवगम्य है। साधक को आत्मा की निश्चयनय की इस आनन्दमय दशा को ध्यान मे रखनी चाहिए । परन्तु साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि त्रिकाल एकस्वभावी (क्षायिकभावी) आत्मा, चेतन को या चेतनता मे परिणगन को नागी भूलती नहीं। जिमने जगे कर्म बाये होगे, उगगी आत्मा ताप हो जायगी , इगमे Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अध्यात्म-दर्शन वह जरा भी नहीं चूकती , चाहे वह पनिष्ट दु परमानामागे घिरी , चाहे जैसी विचित्र परिणमनमा हो, चाहे वेवन आन्मानन काही अनुभव करती हो । नभी अन्बानो मे, मशाल म र ग ग सातमा अपने चैतन्य को कभी छोड़ नहीं सकती। वास्तव ग वन नीनो कान में चेनग ही रहता है । उमे जो मुखदु सादि होते है, ये तो मिग पा र परिणाम है। आत्मा के ८ रुचकप्रदेश तो हमेगा ने ररने है। उन पर T T कोई अनर नही होता। जन निश्वरनय की दृष्टि ने आत्मा गर्म या कर्मा नहीं है। पर उसे जो मुख-दुख भोगने पड़ते हैं, वे का फल हैं। यह बात वीतराग परमात्मा (जिननन्द्र) करते है । वह रह कर श्रीआनन्दपनजी अपनी नम्रता प्रदर्शित करते है और कहते हैं कि यह बात मैं अपने गा मे कल्पित नहीं कह रहा हूँ , श्री वीतगगयेष्ट परमात्मा इसे कहते है। यहाँ निश्चय और व्यवहार दोनो नयो की दृष्टि से जात्मा के विविधम्पो का प्रतिपादन किया है । अत्र आत्मा की उपयुक्त नीन चेतनाओ ना लक्षण सक्षेप मे बताते हैं। परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान-करम-फल भावी रे। ज्ञानकर्मफल-चेतन कहीए, ले जो तेह मनावो रे ॥वासु० ५।। अर्थ चेतन (आत्मा) विविध अवग्थाओ मे अपनी चेतना परिणमन करता है। इसलिए आत्मा अपने आप में परिणामी है । इसी कारण वह ज्ञानरूप मे, कर्मरूप मे या भविष्यकालिक फर्मफलरूप में परिणत होती हैं। इसी को क्रमश जानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना कहते हैं। इन तीनो चेतनाओ को तुम मनाना, दूसरो को मनाना, अथवा तुम्हारी खुद को आत्मा को, वीतराग परमात्मा की तरह ठीक उपयोग करने हेतु मना लेना । भाष्य चेतना को त्रिधारा और इसका सदुपयोग ___ वीतराग परमात्मा चैतन्यरूप है । चैतन्य में सर्वन सामान्यरूप से अमन्य आत्मप्रदेश व्याप्न हैं । आत्मा परिणामस्वरूप है । वह जब जिग रूप में परि. णमन करती है, नर तदनुरूप या जाती है। ये परिणाम तीन पातर के हे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान २५१ ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप । जव आत्मा का शुद्ध परिणमन, अर्थात् अपने ज्ञानादि गुणों मे परिणमन होता है, तब वह ज्ञानचेतना कहलाती है, जो कि शुद्ध और भूतार्थ है । जव आत्मा कर्म के रूप मे परिणमन करती है, तब वह कर्मचेतना कहलाती है और जब वह कर्मफल के रूप में परिणत होती है, तब कर्मफलचेतना कहलाती है। ये दोनो चेतनाएँ 'पर' के निमित्त मे होती है। इनमें आत्मा रागादिपरिणाम (भाव) वाली हो जाती है। इसलिए ये दोनो चेतनाएँ अभूतार्य अशुद्ध और अनानचेतना है। स्व-स्वरूप के ज्ञान के सिवाय अन्य मे 'यह मै करता हूं' , इस प्रकार कर्म के कर्तृत्व में आत्मा का लीन होना कर्मचेतना है। इसी तरह स्वात्मज्ञान के सिवाय अन्च मे 'मैं इसे भोगता हूं', इस प्रकार कर्म के भोक्तत्व मे आत्मा को तद्रूप बना लेना कर्मफलचेतना है। मगर ज्ञानचेतना की तरह कर्मचेतना और कर्मफलचेतना मे भी चेतन का ही परिणमन है। यह बात अपने आपको और दूसरो को अवश्य समझा लो। यही बात विभिन्न अध्यात्मग्रन्यो । मे वताई है। १. ज्ञानाख्या चेतना बोध , कर्माख्या द्विष्टरक्तता।। जन्तो कर्मफलाख्या सा, वेदना व्यपदिश्यते ॥ -अध्यात्मसार वोध ज्ञानचेतना है, रागद्वेप कर्मचेतना है, प्राणी के कर्मों के अनुसार फन कर्मफलचेतना है , जिमे वेदना भी कहा जाता है। 'परिणमदि जेण दव्य, तक्काल तम्मयत्ति पणत' -प्रवचनसार जो द्रव्य जिस काल मे जिस भाव में परिणत होता है, उस काल मे वह द्रव्य तद्रूप हो जाता है। अप्पा परिणाममप्पा, परिणामो णाण-कम्म-फल-भावी । तम्हा णाण कम्म फलं च आदा मुगेदवो ॥१२५॥ परिणमदि चेयणाएं आदी पूण चेतणा तिधाऽभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥१२३॥ णाण, अछवियप्पो कम्म जीवेण ज समारद्ध । तमणेगविधं भणिद फन ति सोख व दुक्ख वा ॥१२४ ॥--प्रवचनसार अर्य-आत्मा परिणामस्वरूप है परिणाम ज्ञानरूप मे, कर्मरूप मे और कर्मफललरुप मे होने वाले त्रिविध हैं। इसलिए आत्मा को ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप मानना चाहिए। आत्मा स्वचेतना के द्वारा परिणमन करती है । चेतना तीन प्रकार की मानी गई हैं--कपश वह हैज्ञानविपयक, कर्मविपयक और कर्मफलविपयक । समस्त विकरप (वस्तुग्रहण व्यापार) ज्ञान है, जीव के द्वारा प्रारम्भ किये गये कार्य कग है, जो आठ प्रकार के होते है । गुम्ख और दुसम्म कफिन हैं। जिसे अनेक प्रकार का कहा है।" Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अध्यात्म-दर्शन श्री आनन्दघनजी का कहने का आगय यह शिम मानो या न मानो, चेतन का अवश्य ही परिणगन होगा , घोर जब तक जीव गगारी, नय तक गुभ या अशुभ मंबन्धन भी होगा ही , या जिगने जंगे गर्म कि होंगे, उसे तदनुसार पल भी मिलेगा, जो उग अन्य दो भांगना पडेगा। इसम राई रत्तीभर भी फर्क पढ़ने वाला नहीं। सनिा चपनी आत्मा को भलीभांति रामना लो। अन्य लोगों को भी गह बात भी गांति हयगम कग दो। चेतन और अचेतन में यही अन्तर है कि नेतन आत्मा या निजी महभाची गुण है, पुद्गल या जड को या किसी भी जड़दम को यह विज्ञान नहीं मिलता । कर्म के साथ चेतना जुटती है, उस समय जसे अध्यवसाय या परिणाम होते हैं, तदनुसार कर्मवन्ध होता है । चेतन के सम्बन्ध में कोई प्रिय या अप्रिय घटना हो तो समझ लेना चाहिए कि अवश्य ही यह मेरे किसी पूर्वकृत शुभ या अशुभ कर्म का फल है। कर्म करते समय तथा कर्मफल भोगते समय तीर्थकर परमात्मा की तरह राग-द्वेप, आतक्ति, घृणा, द्रोह-मोह आदि भाव नही रखने चाहिए , यही इसका फलिनार्थ है। आत्मा के सम्बन्ध मे वास्तविक ज्ञान और उमने प्राप्त होने वाले अनिर्वचनीय आनन्द के सम्बन्ध मे श्रीआनन्दघनजी अन्तिम गाथा में कहते है आतमज्ञानी श्रमण कहावे, वीजा तो द्रालगी रे। घस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, आनन्दघन-मतसंगी रे ।। वासु० ॥६॥ अर्थ आत्मा के सम्बन्ध मे विविध पहलुओ और दृष्टियो से ज्ञान प्राप्त करने वाला श्रमण कहलाता है। इसके अतिरिक्त और सब केवल मुनिवेषधारी द्रलिंगी हैं । जो वस्तु जिस रूप मे हो, उसे उसी रूप में जानें, समझें ओर प्रगट करे (कहे) वे ही आनन्दघन (सच्चिदानन्द परमात्मा) के, शुद्ध आत्मस्वरूप के अथवा जहाँ आनन्दसमूह है, उस मोक्ष के ज्ञान (मत) के सत्सगी (वादी या प्राप्त करने वाले) हैं। भाष्य Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान २५३ अध्यात्मज्ञा नरसिक ही श्रमण हैं पूर्वोक्त मतानुसार जो अध्यात्मज्ञानी, (विविध पहलुओ रो आत्गा के ज्ञाता) हैं , जो आत्मविज्ञान के रसिक हैं। जो अपने जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति या क्रिया आत्मा को, या आत्मस्वरूप को लक्ष्य मे रख कर करते है। इसके अतिरिक्त जो पेट भरने के लिए अध्यात्मज्ञान वधारते हैं, जो अध्यात्मज्ञान के बहाने शब्दजाल रचते है या आत्मज्ञान की ओट मे स्वार्थमय व्यापार या स्पृहाओ का जाल बिछाते हैं, वे श्रमण के वेप मे नकली श्रमण है, वेपधारी है। वे नकली अध्यात्मज्ञानी हैं, भावपूर्वक अध्यात्मज्ञानी नहीं है। ऐसे लोग साधु, सन्यासी, श्रमण या मुनि का वेप पहिन कर आत्मज्ञान मे पुरुपार्थ करना छोड कर सिर्फ खानपान, ऐश-आराम, शारीरिक सुख-सुविधा, पद-प्रतिष्ठा आदि की लिप्सा मे पड जाते है। वे खाना, पीना और मौज उडाना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते है। देखिये, मुनि का लक्षण ज्ञानसार मे वताया है मन्यते यो जगत्तत्व स मुनि. परिकीर्तित । सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौन सम्यक्त्वमेव च ॥ जो जगत् के तत्त्वो पर भलीभांति मनन करता है, वही मुनि कहलाता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय मे अनुगत जो' सम्यक्त्व (सत्यता) है, वही मौन = मुनित्व है और जो मुनित्व है, वही इस प्रकार का सम्यक्त्व है। जिसमे आत्मा का सम्यक् ज्ञान है, उरामे ही मुनित्व समझो, जिसमे मुनित्व है, उसमे ही सम्प्रग्नान समझो, जो आत्मज्ञान में मस्त हो, जो जडचेतन का भेद, आत्मा का स्वरूप, गुणो और शक्तियो का रहस्य भलीभांति जानता हो, वही सच्चा साधु है । जिसकी दृष्टि मे राजा और रक का, गरीव-अमीर का कोई भेद न हो, समस्त प्राणियो मे निहित आत्मगुण या शुद्ध आत्मत्व (चैतन्य) दृष्टि से जो देखता हो, वही मुनि है, वही श्रमण है, समन है। ऐसी आत्मदृष्टि होने पर उसकी दृष्टि मे जड या पर पदार्थों का 'ज सम्मति पासह, त मोणति पासह , ज मोणति पासह, तं सम्मति पासह ।' —आचारागसूत्र Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ वाध्यात्ममशन लना मूल्य नही होना । दम तालिय. गुरा मैगी मी वान अनिध्यता किया गया है-"जो' आत्गशान-दर्शन से गम्पनी, सयम र प में हैं, जो इस प्रकार के गणो रो नमायक्त हो, उसे गयगी को हो ना हो।" ऐसा आत्मज्ञानी निस्पृह भमण, जो बात गी होगी, ना मान्यता होगा, जैसी देखी-गुनी-गोची-रामती या गनुमान की होगी, उगी रूप में लोगो के सामने प्रगट करेगा। वह भूठे गुलाहिने, तागलपेट, चापलूसी या अपनो के पक्षपात से दूर होगा। ऐमा मुनि ही आनन्दघनमत यानी मोक्षमार्ग का साथी या मागणी है सचिदानन्दघन परमात्मा के मत का संगी-साथी है । श्रीआनन्दघनजी नि गृह माध थे। उन्होंने अपना कोई मत, पंथ या सम्प्रदाय नहीं चला या इसलिए 'मत' का अर्थ यही सिई 'विचार' समझना चाहिए, सम्प्रदाय या परम्परा नहीं । वे योगी एव भौतिक प्रलोभनो से दूर, सच्चे मस्त सत थे। उन्होने आत्मज्ञान को पचा व रमा लिया था। क्योकि अनुभवयुक्त आत्मज्ञान से ही कोई मुनि हो सकता है, केवल अध्यात्म के ग्रन्थो की पारिमापिक शब्दावली रट लेने से नहीं, अपितु समताभाव लो जीवन मे रमा लेने से ही कोई श्रमण हो सकता है। ऐसा आत्मनानी माघ ही वस्तु का यथार्थरूप मे कथन करता है। वह आत्मनान ही उपलब्धि करने, दूसरो को समझाने, आत्मज्ञान को जीवन मे रमाने में और अन्त मे, आत्मज्ञान का वास्तविक प्रतिपादन करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता। प्रवचनसार और ज्ञानसार मे यमणत्व का लक्षण बताया है कि जो दर्शन, "नाण-दसण-संपन्न, सजये य तवे रय। एय गुणसमाउत्त सजयं साहुमालवे ॥" -दश अ ७ दसण-णाण-चरित्तेसु तीसु जगव समझियो जो दु। एग्गगगतोति मत, मामण्ण तरस परिपुण्ण ॥ -प्रवचनसार आत्मानमात्मन्येव यच्छद्ध जानात्यात्मानमात्मना। शेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरच्याऽऽचारकता मुने. ॥ ~~ज्ञानसार Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध चेतनामो की दृष्टि से परग आत्मा का ज्ञान २५५ जान और चारित्र तीनो गे एका साथ एकाग्न व गमुद्यत रहता है, उसका यमणत्व परिपूर्ण माना गया है। निश्चयदृष्टि रो माना गया है कि जो आत्मा के द्वारा आत्मा के सम्बन्ध में शुद्र आत्मा को जानता है, उगे ही मुनि समझो। उसी मुनि के गम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रम्प रत्नत्रय मे यानी श्रद्धा, बोध और आचरण (आचार) मे एकरूपता समसनी चाहिए। सारांश इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा के स्वरूप का भलीभाति गुणचित्रण करके साघकभक्त को ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना रूप चेतनात्रय को आत्मा का अग बना कर आत्मा की शुद्ध ज्ञानचेतना पर चलना तथा कर्म एवं कर्मफलचेतना की केवल जानकारी प्राप्त करना अभीष्ट बताया है। अन्त मे, आत्मज्ञानी की महत्ता बता कर साधक के जीवन मे वस्तुतत्व के यथार्थ प्रकाण (प्ररूपण) और परमात्मा की प्राप्ति को ही सारभूत तत्त्व वतनाया है। SHA Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ श्रीविमलनाथ जिन-रतुति वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार (तर्ज-ईडर आया आवली रे, ईडर दाडिम द्राक्ष, राग-मन्हार) दुःखदोहग दूरे टल्यां रे, सुखसंपदशु मेट; घोंगधणो माथे कियो रे, कुरण गंजे नर-खेट ?। विमलजिन, दीठां लोयण आज, मारा सीध्यां वांछित काज ।। विमलजिन० ॥ अर्थ तेरहवें तीर्थफर श्रीविमलनाय वीतराग परमात्मा को आज मैंने नेत्रों मे देखा , इससे मेरे भूतकाल के सभी दु.पोत्पादक कर्म, वर्तमानकाल मे उन दु खो का अनुभव तया भविष्यकाल की आफतो से भरा दुर्भाग्य, ये सब मिट गये, सुख-सम्पदा के माय भेंट हुई। आज मैंने अपने सिर पर जबर्दस्त स्वामी को धारण किया है, इसलिए कौन दुप्ट (खल) जन मुझे जीत सकता है या फिर कौन तुच्छ मनुप्य के अधीन हो सकता है ? अथवा आत्मगुगो का शिकार करने वाला कौन मिथ्यावादी मनुष्य मुझे हरा सकता है ? इन आस्मिक चक्षुओ से रागढ पविजेता प्रभु को देखने [गम्यग्दृष्टि से मेरे समस्त मनोवाचिन [सम्यग्दर्शनादि] कार्य सिद्ध हो गए। भाप्य परमात्मा का साक्षात्कार क्यो, क्या और कमे? श्रीआनन्दघनजी ने पूर्वस्तुति मे तीन प्रकार की चेतना का वर्णन करके अन्त मे ज्ञानचेतना पर ही स्थिर रहने पर जोर दिया था, परन्तु जो व्यक्ति कर्म और कर्मफल के साथ अपनी चेतना को लगा देता है, वह नानचेतना मे स्थिर नही रह सकना । ज्ञानचेतना मे स्थिर रहने का प्रयोजन यही है कि वह धीरे धीरे क्रमश आगे बढ कर परमात्मसाक्षात्कार तक पहुंचे । अन्तिम ध्येय तक पहुंचना ही ज्ञानचेतना मे दृढतापूर्वक टिके रहने का प्रयोजन है। पर Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २५७ मात्मतत्व का साक्षात्कार करने पर मात्गा रवयमेव परमात्मा बन जाती है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी परमात्मनत्व यानी शुद्ध आत्मा के दर्शन करके स्वय को कृतकार्य मानते हैं। चूंकि परमात्मा वर्तमान में अपने आप मे निरजन निराकार हैं, और अव वे तीर्थकर-अवस्था गे भी प्रत्यक्ष विद्यमान नहीं है, इसलिए उनके दर्शन या साक्षात्कार इन चर्गचक्षुओ गे तो होने असम्भव हैं, तब फिर श्रीआनन्दघनजी ने इस स्तुति मे कैसे कह दिया-विमल जिन दीठा लोयण आज ? इसका गमाधान यह है कि श्रीआनन्दघनजी ने दूगरे तीर्थकर (श्री अजितनाथ) की स्तुति मे बताया था कि 'नयण ते दिव्य विचार' अर्थात्-जिन नेत्रो गे जिन भगवान् (परमात्मा) के दर्शन हो सकते हैं, वे तो दिव्यविचाररूपी नेत्र हैं। यहां भी लोचनो से भगवान को देखने से तात्पर्य है-दिव्यविचाररूपी नेत्रो से परमात्मा को देखना । परमात्मा को देखने या साक्षात्कार करने से वहां मतलब है-शुद्ध जात्मत्व (परमात्न) का विचार करना, परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन-मनन करके उनके तत्त्व का अपने आत्मदेव में विचार करना । यही परमात्मसाक्षात्कार या प्रदर्गन अथवा आत्मल की प्रतीति से तात्पर्य है । यह हुआ निश्चयदृष्टि से अर्थ । व्यवहारदृष्टि से प्रभु को नयनो से देखने का अर्थ है-प्रभु वीतराग की साकार छवि की अन्तर्मन मे कल्पना करवो उनके विमल (कर्मफलरहित) एव रागद्वेपविजेता रूप को नीहारना, अपने हृदय मे परमात्मा की शुद्धात्मगुणो से युक्त छवि को देखना, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानरूप दिव्यनयनो से परमात्मा को हृदय सिहामन पर विराजमान करके उनके प्रत्येक गुण पर गहराई से चिन्तन करना, उनको अपने नाथ या स्वामी मान कर उनके चरणो मे सर्वस्व अर्पणतापूर्वक भक्तिभावना से अपना सिर झुकाना , और उनके गुणो का प्रफुल्ल मन से गान करना। यही दिव्यनेत्रो से परमात्म-साक्षात्कार या आत्मसादालार (प्रभुदर्शन या शुद्रात्मदर्शन) है। __ परमात्मसाक्षात्कार के बाद दु खदौर्भाग्यनाश कैसे ? अब तक आत्मा ने चारो गतियो और विविध योनियो मे दुख ही दुख पाया , क्योकि पूर्वोक्त दिव्यनेत्र नहीं मिले ये, जिनसे परमात्मा के दर्शन कर पाता । देवगतिमे दूसरे देवो का उत्कर्प देख कर ईर्ष्या होती है, च्यवन (अन्त) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अध्यात्म-दर्शन वाल नजदीक आता है, तब देव गट-वियोग के दुख गे पोहित हो कर विलाप और शोक करते हैं। गनुप्यगति गे वैरविरोध, निवा, गय, अटवियोग और अनिष्ट योग में दुख ही दुख होता है। नियंचगति मे विवग और पराधीन हो कर पशु-पक्षी आदि को चुपचाप खूब दुख सहने परते है और नरगति ने दुख का तो कोई ठिकाना ही नहीं है । वहां पारम्परिक दुख के सिवाय क्षेत्रात दुख का भी कोई पार नहीं है। इस प्रकार जारी गतियों और विविध योनियो मे मनान, मोह, और मिथ्यात्व के कारण दुख ही दुख सहे । भूतकाल में भी दुख महे, वर्तमान में भी अज्ञान और मिथ्यात्व के कारण मनुष्य याध्यात्मिक दुख-विषयकपायजन्य जन्ममरणात्मक, माननिका दुरा-प्टपदार्थ की अप्राप्ति और उसके वियोग तथा प्रतिकूल अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति या सयोग से होने वाले मन कल्पित दुख , एव शारीरिक दुस-भूख, प्याम ज्वर, कटमाल आदि रोग, गन्न जादि के घाव से होने वाली पीडा, यों विविध दुःख नहता है । दुर्भाग्य, यमनमीवी, पूटे भाग्य या पुण्यहीनता अगुभनामकर्म का फल है । जिसके भाग्य बुरे होते हैं, उसे भविष्य मे अनेक दुःखो और सक्टो का सामना करना पटता है । दुर्भाग्य के कारण व्यक्ति की बुद्धि भी कु ठित हो जाती है, उसे सच्ची बात मूलती नहीं। परन्तु इन सब दुखो और दुर्भाग्यो का खात्मा परमात्मा के दर्शन (साक्षात्कार होते ही हो गया। इसका रहस्य क्या है? माइए सर्वप्रथम निश्चयदृष्टि से इस पर सोचे-सम्यन्न सम्यानाना दिव्यचक्षु से परमात्मा के अखण्ड आत्मगुणो पर विचार करके जब आत्मा परमात्ममय या परमात्मा मे लीन हो जाता है, जिसे हम पहले परमात्ममाक्षात्कार कह माए है, उसकी उपलब्धि हो जाती है, तब आत्मा को अपनी असलियत का पता लग जाता है । वह सोचने लगता है, कि ये सब सासारिक पदार्थ, जिन्हे मैं अपने मान कर उनमे लुब्ध हो कर पूर्वोक्त सभी प्रकार के दुख पाता था। इनके कारण चारो गतियो में बारबार भटकता था । इनमे कोई सुख नही है, ये तो दुःखस्प है । सच्चा गुख तो आत्मा मे है, परमात्मा के गुद्ध रूप को निहारने में है । अन अब जब कि मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गई है, मुझे परमात्मत्व (शुद्ध आत्मतत्व) मे डूबने पर पूर्वोक्त दुखो का भान भी नहीं होता। मुझे अपनी आत्मा के शुद्धस्वरूप को देख कर सब प्रकार की तृप्ति, Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २५६ शान्ति, सतुप्टि और आनन्द की अनुभुति हो गई।मुझे अब किसी भी परपदार्थ या वाह्यपदार्थ से सुख प्राप्त करने की कोई अपेक्षा नही है । ये पदार्थ अपने आप मे मुझे न कोई सुख दे सकते है, न दुख । ये मणिक सुख या दुख तो तभी देते हैं, जब मैं इन्हे अपने मान कर आसक्तिवश इनमे से ईष्ट के वियोग या अप्राप्त होने पर तडफता हूँ, इसी प्रकार इनमे से अनिष्ट से घृणा और द्वेप करके परेशान होता हूं। अगर मैं इनसे कोई लगाव त रखू, इन्हे अपना न मानूं, सिर्फ शुद्ध आत्मा को ही परमात्मा मे दिव्यनेत्रो से देखू , तो न तो मुझे किसी प्रकार का दुख होगा, न मेरे लिए कोई दुर्भाग्य का अभिशाप होगा। इसी कारण श्रीआनन्दघनजी पूर्वोक्तदृष्टि से परमात्मदर्शन (दिव्यनेत्रो से) होते ही मस्ती मे झूम उठते हैं, उनका रोम-रोम पुकार उठता है—'दुःखदोहग दूरे टल्या रे, सुख-सम्पदशुभेंट ।" आज मेरे तमाम दुःख (मन करिपत या शारीरिक या आध्यात्मिक) दूर हो गये है, मेरा दुर्भाग्म भी मिट गया है ; क्योकि अव्यावाध अनन्तसुख, अनन्तज्ञानादिचतुष्टय से सम्पन्न परमात्मा से मेरी भेंट हो गई है, उनमे मैंने अपनी शुद्ध आत्मा की ज्ञानादि निधि को देखा तो अपनी खोई हुई सम्यग्दर्शन-ज्ञानादि मुखसम्पदा मुझे मिल गई। व्यवहारदृष्टि से इस पर विचार किया जाय तो यह अर्थ प्रतीत होगा कि वीतराग की छवि को अन्तर्मन मे निहारने और भक्तिभाव से उनके दर्शनवन्दन करने से इहलौकिक दुख, दुश्चिन्ताएँ, भय, विघ्न और नाना प्रकार के सकट दूर हो जाते हैं। प्रभुदर्शन-वन्दन-भक्तिजनित पुण्य के प्रभाव से शारीरिक, मानसिक तमाम दुख दूर हो जाना कोई अस्वाभाविक नही है। और साथ ही प्रभुदर्शन से दुर्भाग्य का मूल जो अशुभ नामकर्म है, वह सौभाग्य मे परिणत हो जाय, इसमे भी कोई अत्युक्ति नही है। पुण्यकर्म प्रवल हो जाने पर वाह्य सुख और सम्पत्ति प्राप्त हो जाना भी दुभर नही है। इसी कारण व्यवहारदृष्टि से भी श्रीआनन्दघनजी ने शायद अन्तर के उल्लासपूर्वक कहा हो-दुःखदोहग दूरे टल्या रे, सुख-सम्पदशं भेंट" लौकिक व्यवहार में भी देखा जाता है कि किसी शक्तिशाली या वैभवशाली पुरुष की दर्शन-विनयरूप भक्तिसे दीन-हीन व्यक्ति के दुख और दुर्भाग्य नष्ट हो जाते हैं, उसे सुख-सम्पदा की प्राप्ति हो जाती है, तब विमलनाथ वीतरागप्रभु की उक्त भक्ति से दुखदुर्भाग्य नष्ट हो कर सुख सम्पदाएं हासिल हो जाय , इसमे कौन-सी बड़ी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० मध्यात्म-दर्णन बात है? प्रगु के दर्णन, विनय और भक्तिपूर्वक बसा आदि गे निश्चय और व्यवहार दोनो हटियो ने अनागागी पूर्णता पाल पाल हो जाते है। परमात्मदर्शन के कारण भत्त मे आत्मिक दृटना इतना ही नही, निचयदृष्टि में पूर्वात प्रकार परमात्मसाक्षात्कार के कारण आत्मतत्वन व्यक्ति के जीवन में आत्मवल बन जाता है, और मान चिपगपपायादिजन्य दुश्चिन्ताओ, भयो और विकागे ने यह करना नहीं, हार नहीं खाता, उनके अधीन हो कर वह उनके आगे घुटने नहीं टेक्ला । दुनियादार लोग कहते हैं कि सम्पत्तिवान को अनेक प्रकार का निगोगनिन या दुश्चिन्ता नित भय रहता है, परन्तु जिने परमात्माप (गुद जागनन्य गा) जवन पृष्टमा हो, जिसके गिर पर परमात्मा (शुद्र मात्गनवष्टि) शी बाजाया हो, जिगने परमात्मा जैसे जवर्दम्न नाथ बनाये हो, ओ को राग नहीं पार रायना । जव अनन्तवनी रागद्वेपविजेता परमात्मा (गुद्व आतादेन) गो गने जगने स्वामी बनाये है तो वह प्रतिक्षण मेरे साथ है और साथ रहेग । मुगलो अननचतुष्टयस्प और गम्यग्दर्शनमानस्प आत्मिक गम्पत्ति गिती है, वह गीतिक सुरा गम्पत्ति की तरह नाणवान नहीं है, वह तो नखण्ड और अविनाशी । उनका वियोग कदापि होना सम्भव नहीं है। ऐगी दशा में यदि कोई मि न्याय, अज्ञान, राग, द्वेप, मोह, आदि आन्तरिक शाओ--(जो कि प्रतिक्षण भामगुणों के शिकार करो की टोह गे रहते हैं, जिनका मामा बामगुणो को लात गा नष्ट करने का है) का गी गय नहीं रहा। वे गुरा पर हावी हो जाय और मुझे अपना शिकार बना कर अपने चगुल में फंसा लें, या मुझे हैरान कारें, ऐसी मभा वना नहीं है । इसनिा श्रीआनन्दपनजी दृट आत्मबन के गाथ कह उठने है'धीग धणी माथे कियो रे, कोण गजे नर खेट ?" ___ व्यवहारदृष्टि से इसका तात्पर्थि यह होता है कि जब मैंने वीतराग प्रभु का सान्निध्य प्राप्त किया है, या आधार लिया है उनका ही अर्निण. स्मरण, ध्यान, जप, नवन, गुणगान करके उनके ही आशानुरूप सम्यग्दर्णन-ज्ञान--चारित्रमय वर्म का पालन किया है, तब कोई नी दुप्ट, शत्रु या धोखेबाज मुझे हैरान नही कर सकता, मेरा अहित नहीं कर सकता और न गृझे हरा सकता है । लोकव्यवहार मे जव किसी ग्त्री को पति का, बालक को मातापिता का, नौकर को मालिक का और सेवक को स्वामी का आधार मिल जाता है, तो फिर Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २६१ वह व्यक्ति आश्वस्त हो जाता है । वह किसी से घबराता, डरता, या सकट मे चित्लाता नही, इसी प्रकार यहाँ भक्त को भी परमात्मारूपी नाव (स्वामी) का जबर्दस्त आधार मिन्न जाने पर उसे किसी से डरने, घबराने या चिल्लाने की जरूरत नहीं । और फिर परमात्म मक्ति एव दर्शन से जब व्यक्ति के जीवन मे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत, नियम, सयम आदि चारित्रगुण आ जाते है तो उसे सच्चेझूठे की पहिचान हो जाती है, वह मुदेव, सुगुरु और सुधर्म की प्राप्ति कर लेता है, उसे अच्छे सत्सगी मिल जाते है, परिवार, समाज और राष्ट्र भी उसके अनुयू न हो जाते हैं । व्यवहारिक दृष्टि से सुख और सम्पत्ति मिल जाने पर उसे किसी दीन-हीन या तुच्छ व्यक्ति के सामने हाथ पसारने और उसकी जीहजूरी करने की जरूरत नहीं रहती। परमात्मदर्शन से मनोवाछित कार्यसिद्धि और फिर श्री आनन्दधनजी वस्तुतत्व को जान लेने तथा निश्चयदृष्टि से पूर्वोतरीति से परमात्मदर्गन हो जाने पर और सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूप आत्मिक सुख-सम्पत्ति प्राप्त हो जान पर कृतार्थ हो कर अपनी मस्ती मे बोल उठते है'मारा सोध्या वाछित काज' मेरे मनोवाछित कार्य सिद्ध हो गए। मुझे परमात्मदर्गन के दुष्करकार्य में सफलता मिल गई । जिस आत्मिक गुखसम्पदा को प्राप्त करने का मेरा मनोरथ था, वह सिद्द हो गया । व्यवहारहष्टि से भी परमात्मा के दर्शन एव भक्ति करके उन्हे स्वामी बना लेने के बाद उनकी आज्ञानुसार सम्यग्दर्शन-जान-चारित की आराधना से दुख, दुर्भाग्य, दुश्चिन्ता आदि सब दूर हो कर मुख-सम्पदा मिल जाने से सभी मनोवाचित कार्य सिद्ध हो जाते हैं। अव श्रीआनन्दघनजी परमात्मा के सागोपाग दर्शन के हेतु सर्वप्रथम उनके चरणो के दर्शन की महत्ता बनाते है चरणकमल कमला बसे रे, निर्मल थिरपद देख। समल अस्थिर पद परिहरे रे, पकज पामर पेख । ॥विमल० ॥२॥ अर्थ आपके चरण-चारित्ररूप चरणकमल मे अथवा बाह्यचरणकमल' मे, कमला (ज्ञानलक्ष्मी, आत्मगुणसम्पत्ति अथवा अप्टमहाप्रातिहार्यरूप लक्ष्मी) घातीकर्म --मलरहित (निर्मल) और स्वभाव में स्थिर पद (आत्मस्थान) देख Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अध्यात्म-दर्शन कर बसी हुई है। वह ससार के विषय-करायरूपी पंक में उत्पन्न होने वाले कमल (बाह्य वैभव) को मल (रागद्वेषादि-मलयुक्त), अस्थिर एवं पामरम्बमार वाला देसकर छोड़ देती है । अथवा कमल को मलयुक्त फीचट में पैदा हुए देख कर अपने अज्ञान और ममत्व के कारण नाशवान वाघ सम्पति को ही वास्तविक लक्ष्मी मान कर पामर बने हुए देश कर उस अस्थिरम्यान पो भौतिया लक्ष्मी छोड़ देती है। भाप्य परमात्मा के चरण-दर्शन का प्रयोग वीतराग परमात्मा के पूर्वोत्तरीति से दर्शन के लिए उग्रन नाधक गो मांप्रथम उनके चरण के दर्शन क्यो करने चाहिए? मका प्रयोजन बताते हुए श्री भानन्दघनजी वीतरागपरमात्मा के चरणकमल का महत्व बताने है। निश्चयदृष्टि से परमात्मा का चारियरूपी चरण ययायात होता है, जिसमें रागटेपादि या घातीकर्म आदि किसी प्रकार का मैल नहीं होता और वह चरण (चारित्र) चचल नहीं होता, एक बार प्राप्त हो जाने के बाद फिर वह जाता नहीं है । स्वभाव मे सतत अविछिनम्प से रमण के कारण वह स्थिर होता है। परमात्मा के उम चारित्रल्पो पूर्ग शुद्ध, (ग्गेहादिमलरहित शुद्ध) स्थिर परिणाम वाले, चरणरूपी कमल को देख कर फेवल (अनन्त) ज्ञानादिवतुष्टयरूपी लक्ष्मी वहां सदा के लिए वम गई है । भौतिपालकमी भी अपना बस्थिर और कीचड वाला स्थान तया अपने पर होने वाले अज्ञान, और मोहममत्व के कारण पामर समज कर छोड देती है। ध्यवहारदृष्टि से प्रभु के चरणकमल को निर्मल (पकरहित) मार स्थिर देख कर लक्ष्मी वही निवास कर लेती है । इस कारण प्रभु अपनी नान-दर्शनचारित्र की सम्पदा मे इतने लीन है, कि वह सम्पत्ति आपको छोड़ कर अन्यत्र कही जाती नही । इसी कारण आप सतत आत्मानन्द-मन्त रहते हैं। कई धनवानो के पैर मे पद्म होता है, वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ आनन्द ही आनन्द होता है। यही नहीं, ऐसे व्यक्तियो की महिमा और यशकीर्ति सर्वत्र फैल जाती है । प्रभु वीतराग के चरणो मे भी पद्म होता है। इसलिए उनके लिए भी ऐमा कहा जा सकता है कि उनके चरणो मे लदमी लीला करती है, भाट Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २६३ महाप्रातिहार्यरूपी लक्ष्मी के कारण उनकी यशकीति फैलती है, दिव्यजन उनकी सेवा मे रहते है। यही कारण है कि लक्ष्मी अपने अस्थिर और पकिल (कीचड से गदे) स्थान को छोड कर लक्ष्मीवान और पुण्यवानप्रभु के चरणकमल मे आ कर वसी हुई है, क्योकि उनका चरणकमल निर्मल और स्थिर है । अथवा यह अर्थ भी सगत हो सकता है कि भगवान् वीतराग का निर्मल ययारयातचारिकरुपी चरणकमल स्वभाव से ही स्थिर है, उसे देख कर या अनन्त-ज्ञानादिचतुष्टय लक्ष्मी वहाँ रहती है, उसे देख कर पामर प्राणी अपनी पामरता का ध्यान करता है और हर प्रकार से मोहमल उत्पन करने वाली कमला-भौतिकलक्ष्मी का त्याग करता निष्कर्प यह है कि जहाँ परिग्रह है, वहाँ आरम्भ (हिंसा) है, आरम्भ और परिग्रह मे लीन होने वाले पामर प्रणियो को सुख कहाँ ? मुमुक्षु जव अन्तरात्मा से परिग्रह का त्याग करता है, तभी स्थिरस्वभाव वाला व चारित्रवान बनता है । निर्गल (निरतिचार) यथाय्यातचारित्री होने पर उस आत्मा को अनन्तज्ञानादिचतुष्टय-लक्ष्मी उत्पन्न होती है। साराश यह है कि मुमुक्ष आत्मा भगवान् के चरणकमल को अनन्तपारमार्थिक भावलक्ष्मी का निवासस्थान देख कर स्वय भी भीतिक लक्ष्मी का लोभ सर्वथा छोड कर उनके चरणकमल मे लीन हो जाना चाहता है। इसके अतिरिक्त वीतरागप्रभु के चरणकमल मे और क्या आकर्पण है ? इसे श्रीआनन्दघनजी अपने अनुभव से अगली गाथा मे बताते है मुज मन तुज पदपंकजे रे, लीनो गुण-मकरंद । रंक गरणे मदरधरा रे, इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र । विमल ० ॥३॥ अर्थ आपके दर्शन के बाद आपके चरणकमल का इतना आकर्षण हो गया है कि मेरा मन (ज्ञानचेतनायुक्तआत्मा) आपके गुगो-रुपी पराग से युक्त चरण(आत्मरमणतारूप चारित्र) मे (अब इतना) लीन हो गया है कि स्वर्णमयी मेरुपर्वत की भूमि को तथा इन्द्र, चन्द्र या नागेन्द्र के पद अथवा स्थान (लोक) को भी वह तुच्छ समझता है । उसे आपके (शुद्ध आत्मा के) अनन्त-ज्ञानादिगुणो Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अध्यात्म-दर्शन को सोरम से युक्त चरणकमल (स्वभावरमणचारित्र] मे इतनी लीनता हो गई । है। कि दूमरी मोहक वस्तुओ की तरफ वह जाती ही नहीं है। भाप्य परमात्मा के चरणव मन में लीन होने के बाद । पूर्वगाया मे श्री आनन्दघनजी ने वीतराग-परमात्मा के शरणागल का माहात्म्य बनाते हुए कहा था कि उनमे भायलक्ष्मी गा पिपास होने में यह सर्वतोमुखी आकर्षक है। अत बय ग गाथा में यह बताया कि मेरा मानचेतनायुक्त भावमन (आत्मा) परमात्मा के शरणम को साकार तना आकर्पित हो गया है कि वह अन्य भौतिक गानमारको रमणीग म रमणीय वस्तु या स्थान की ओर जाता ही नहीं। उन्हें अत्यान्य नासता है । परमात्मा के चरणकमल मे क्या नाकर्षण हैं ? प्रश्न होता है कि परमात्मा को चरणयामल में गनीमर यो नाकपित हो जाता है? इसका समाधान इसी गाया में दिया गया है.---'गुणमकरन्द जैसे भौरा कमन की पराग को पा कर तृप्त हो जाता है, यह गुगन्धित पगग मे इतना लोन हो जाता है कि उसे अपने तन की गुध नरी रहती, यामल गो काट कर बाहर निकलने की पत्ति होते हुए भी वह रात को कामकोप में वन्द हो जाता है । इतनी लीनता गीरे में होती है। इसी प्रकार मारे गे एक गुण यह भी होता है कि वह विष्ठा आदि दुर्गन्धयुक्त पदार्यो पर कभी नहीं जाता, तथा सुगन्धित कमल या तापके सिवाय दनिया की चाहे जैसी रगविरगी, सुन्दर, मनोमोहक या आकर्षक जयवा कोमल, स्वादिष्ट पदार्थ या मनोरम सगीत वाला गुरम्य स्थान भी क्यो न हो, वह वहां नहीं जाता और न वहाँ बैठना चाहता, वैसे ही दिव्यनेनो से परमात्मा को दर्शनपिपासु मक्त साधक का मनरुपी (भावमन-आत्मा) मधुकर भी जव परमात्मा के अनन्त-आत्मगुणरूपी पराग से परिपूर्ण परमात्मतरणकमल (आत्मरमणतारूपी चारित्र) को देख कर वही लीन हो जाता है, वही तृप्त हो जाता है। वह आपके गुणपराग से युक्त चरणकमल मे इतना आकर्षित हो जाता है या आत्मा के अनन्तगुणो से से युक्त वीतराग के चारित्र (मागं) का उपासका (सम्यग्दृष्टि) बन जाता है, तब । उमको गन को विश्व के सभी मोहक या रंगीन पदार्थ,तुच्छ लगने लगते हैं । वह Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २६५ ससार के पदार्थो की बिलकुल परवाह नहीं करता, न उसे किसी स्थान या पदविशेप की इच्छा होती है। इतना आकर्षण है परमात्मा के चरणकगल में । ___ ससार की सर्वश्रेष्ठ वस्तुएँ, जो प्रत्येक सासारिक और यहाँ तक कि कभी-कभी साधक को भी लुभायमान करती हैं, वे ये है-रूपवान सुन्दर वस्तुओ मे सर्वोत्तम सुमेरुपर्वत है, जो सारा का सारा स्वर्णमय है । जिस सोने के लिए सारी दुनिया भागती फिरती है, जिसके लिए दुनियाभर के छलबल, हत्याकाण्ट या पाप किये जाते हैं जो सोना मनुष्य को अभिमानी, उच्च पदाधिकारी, सर्वोच्च प्रतिष्ठासम्पन या सासारिक गुख की वस्तुओ से सम्पन्न बना देता है, उस सोने से ही सारा मेरुपर्वत गढा हुआ है। साथ ही वहां देवोपम सुखो से युक्त रमणीय नन्दनवन है, इसलिए भी सासारिक वस्तुओ मे सर्वोत्कृष्ट सुन्दर पाँचो इन्द्रियो के विपयो से वह परिपूर्ण हे । इसके अलावा इन्द्रलोक या इन्द्रपद ये दोनो भी ससार के आकर्पणीय पादर्या मे अद्वितीय है । इन्द्रलोक वह है, जहाँ सभी प्रकार के इन्द्रियसुखो का भण्डार है, जहाँ एक से एक सुन्दर दिव्यागनाएँ सुन्दरतम मुखभोग, मनोरम्य सुगन्ध, मनोहारी गगीत, नृत्य, वाद्य सब प्रकार की मुख-सुविधाएँ, हाथ जोडे हुए आज्ञाकारी सेवक, विनीत देव-देवीगण, एक से एक चढ़कर रमणीय चित्ताकर्षक भवन और प्रतिष्ठित पद है । इसी प्रकार चन्द्रलोक भी विश्व के मानवो के लिए शान्ति दायक स्थान है । कहते है, च द्रमा से अमृत झरता रहता है । जिस अमृत की खोज मे देव, दानव, मानव सभी मारे-मारे फिरते है, । अमृत पा जाने पर मनुप्य को जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि आदि की चिन्ता नही रहती भूख-प्यास सव बुझ जाती है, जिनकी चिन्ता से मनुष्य रात-दिन अशान्त रहता है । अत चन्द्रलोक पाने के लिए मानव-मन इसलिए लालायित रहता है कि उसके पा जानेपर अमृत के भण्डार चन्द्र का सान्निध्य पा कर मानव के मन को शान्ति मिल जाती है । इसके अतिरिक्त मानव-मन के लिए एक और विशेष आकर्पक और गुदगुदाने वाली वस्तु है-नागेन्द्रलोक । यह भी एक प्रकार का देवलोक है, जहा भवनपति देव हैं उनके भी दिव्यसुखो का क्या ठिकाना । दिव्यभवन, दिव्यरमणियां, दिव्य चित्रविचित्र रत्न, सगीत नृत्य, गीत, वाय, सर्वभोग्य Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अध्यात्म-दर्शन पदार्थ आदि की प्रचुरता तालार्य गह है कि मनुष्य के गन पो भापित करने वाले तियंचलोक, ऊबलोक, ज्योतिर्लोक और अघोतोक, उन सबमे जो सर्वोच्च गुख के केन्द्र हैं, लुगावने पद या पदार्थ है, मिथ्याप्टि नागारिक लोगो का मन झटपट इन मे गे किसी के लिए लालायित हो सकता है । 'मदरधरा' गर में यहा तिलोम का गोल है । जहाँ नन्दनवन के या चनारी जादि के सुखा मा आकर्षण है। 'इन्द्र' गब्द से यहाँ ऊर्व लोक का मोत है, जहाँ वैमानिक देवी-देव एव देवेन्द्रो के सुख है । चन्द्रपद से यहाँ ज्योतिर्लोक का मकेत है, जहां सूर्य, चन्द्रमा आदि के लोक या पद का मुख हे । तथा 'नागेन्द्र' शब्द मे अधोलोकवासी भवनपति तथा व्यन्तर देव-देवेन्द्र आदि का गोत है, जहाँ इन दिव्य सुखवैभव है। सामान्य व्यक्ति का मन मसार की इन गुपनम्पन्नतायुक्त प्रेय वस्तुओं की ओर सहमा आकर्षित हो सकता है, परन्तु जिन मात्ममाधक (सम्यग्दृष्टि) का गनरुपी भ्रमर परमात्मा (गुद्ध आत्मा) के गुणोरूपी गुगन्धित पगग गे युक्त चरणकमन (जात्मरमणतारूपी चारिन में लीन हो गया है, उमे ये सब वस्तुएँ तुच्छ व असारप्रतीत होती है । क्योकि वह अपने दिव्य सम्यग्दर्शनज्ञान से यह भलीभांति समझ जाता है अयवा उनके दिल दिमागमे यह बात अच्छी तरह अकित हो जाती है कि मनुष्यो या देवो के जो सुखदायक भोग्य पद, पदार्थ, या इन्द्रियविपय हैं, वे सब पुण्यकर्म से मिलते है। जहां तक पुण्य है, वहीं तक इनका अस्तित्व है। परन्तु ये सव पद, पदार्थ या विपयसुख क्षणिक व नाशवान हैं, सुखाभासदायक है । पुण्यनाश के साथ ही इन सुखाभासो का भी नाश हो जाता है । इस कारण इन सब पदार्थों का वियोग होने मे मतृप्ति रहती है, जो कि दु ख का कारण है , जबकि आत्मा-परमात्मा के गुण तथा उनमे रमण करने से जो मुख-प्राप्त होता है, वह अविनाशी है। उनमे डूब कर आत्मा तृप्त हो जाती है । उस आत्मसुख के सामने इन सासारिक पदार्थों से होने वाले सुख कुछ भी नहीं है, नगण्य हैं, वे किसी विसात मे नही है। यही कारण है कि वीतरागमार्ग के उपासक सम्यग्दृष्टि अध्यात्मरसिक श्रीआनन्दघनजी हृदय से पुकार उटते हैं-प्रभो । मेरा मनमधुकर शुद्ध आत्मगुणोरूपी पराग रो युक्त आपके पादपद्म में इतना तनी हो गया है कि वह Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २६७ शाश्वत स्वर्णमयमुमेरुगिरि की भूमि, इन्द्र-लोक, चन्द्रलोक, या नागेन्द्रलोक आदि सर्वोच्च सुख का आभास कराने वाली वस्तुओ को तुच्छ मानता है, इन्हें जरा भी नहीं चाहता । इन सवका सुख परमात्मपद (शुद्वात्मा) के सुख के पासग मे भी नहीं आता । परमात्मा के चरण मे लीनना का जो असीम सुख है, उसके सामने ये सब गुख निकम्मे या फीके मालूम होते हैं। कमल के सौरभयुक्त पराग मे मस्त बना हुआ भौरा जव तृप्त हो जाता है, तव उसके लिए दुनिया की अच्छी से अच्छी मानी जाने वाली वस्तु भी तुच्छ हो जाती है, वह उनकी ओर आँख उठा कर नही देखता, वही वैठा हुआ अपनी मस्ती मे गुनगुनाता रहता है। वैसे ही परमात्मगुणो से युक्त चरणकमल मे जब मनरूपी भ्रमर मस्त बन कर जम जाता है, अथवा गुद्ध आत्मगुणो की सौरभ से जिस आत्मा का ध्यान सुवासित हो जाता है , तव वह सर्वथा तृप्त हो जाता है, तब उसके लिए भी ससार की अच्छी मानी जाने वाली तमाम वस्तुएँ तुच्छ हो जाती है। वह परमात्मा के चरणो मे लीन हो कर 'तू ही तू ही' की रटन से तादात्म्यसुम्ख का अनुभव करने लगता है। उसके मन-वचन-काया आदि सव आत्मगुणो के प्रगट करने मे लग जाते हैं: यही कारण है कि अगली गाथा मे श्रीआनन्दधनजी आराध्य-आराधक (हत) भाव से परमात्मा को अपनी आत्मा का आधार और मन का विश्रामस्थल बताते हुए कहते हैं साहेब समरथ तु धणी रे, पाम्यो परम उदार । मनविसरामी वालहो रे, आतमचो आधार ॥ विमल०॥४॥ अर्थ हे साहिब प्रभो । आप ही मेरे समर्थ शक्तिशाली स्वामी (मालिक) हैं आप सरीखा अत्यन्त उदार स्वामी (पति) मैने पाया है । इसलिए आप ही मेरे मन (ज्ञानचेतनायुक्तआत्मा) के विश्राम-स्थान हैं, आप ही मेरे प्रियतम हैं, मेरी आत्मा के आधार है। भाज्य आत्मा-परमात्मा का स्वामी-सेवक-सम्बन्ध पूर्वगाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने बताया है कि मुमुक्षु आत्मा का मन परमात्म-चरण में लीन बन कर वयो संसार की रार्वषेष्ठ सुखदायक मानी जाने Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अध्यात्म-दर्शन वाली वन्तुओ मे नही नुभाता? उगके कुछ कारण तो हम पर स्पष्ट कर आए ह. ग गाया मे परमात्मचरण मेनियर गगन मिनिट ताग गाा प्रथम मारण : ममथं चामो परमात्मा परमात्मा के चरण में पिर होने , यहां जो बनाए हैं, उन कारणो को देखने ने आत्मा और परमानगा गं म्यामी-भयक-नन्या प्रतीत होता है । यानी मामा को निम्न जोर परमात्मा को जानन अथवा मात्मा को पहाट की ननस्टी पर डेटा जोर परमात्मा को उनकी चोटी पर बैठे हुए मान कर जात्गमाइक पता अपने आपो उनो नरण गेलीन कर देना है। गेवता बन कर उनकी शरण स्वीकार करता है। प्रश्न होता है कि रक्य मेवा, धन कार परमात्मा Tो यामी चना ने मान गे भक्त को निश्चिन्ता, गावरा, निगंय आर जानन्दित हो गाना है ? इनी का गमाधान माहव समरथ तू धणी रे' पद के अन्तर्गन आ जाता है ! जमे फिमी लीकिय वीर पुप की शरण मे जागे अथवा मिनी बैंगवशाली नगर्थ यक्ति को म्वामी बना लेगे पर उग पर जिम्मेवारीमा जाती है कि शरणागत सेवक पर कोई नकट या आफा, आ जाय या कोई व्यनिहाला करे तो वह जीजान से उनवी रक्षा करे। इसी प्रकार अध्यात्मरमिक नाधक (मानन्दधनजी) ने भी प्रगु की तरण गे जाकर उनको स्वामी बना लिया है, इसीलिए वे भगवान पो समर्थ रवागी बना कर मारवल हो गए हैं कि पशु आग ही गैर समर्थ स्वामी है, इसलिए आप पर (निश्चयदृष्टि में शुद्ध एवं अनन्त शक्तिमान होने से नमर्थ मात्नदेव की शरण मे जाने पर) जिम्मेदारी आ जाती कि वे शरणागतरक्षक के विरद का विचार करो मेरी आत्मा की रक्षा करें। आप जैसे समर्थ पुरुप का मेरे हृदय में ध्यान रहने से मुस पर कोई भी शत्रु (आत्मिक रिपु = रागद्वे पादि) हमला नहीं कर सकते । मेरा कोई कुट भी विगाड नहीं ममता । दुनिया मोहराजा के राग-द्वेप, काम, त्रोध आदि अनुचरो को शत्र-समान और बलवान मानती है, वे इन्द्र, नरेन्द्र आदि को हैरान करते हैं, विविध योनियो मे नाना प्रकार की यातना दे कर सताते है । परन्तु आप जिनके हृदय में विराजमान हैं, उन्हें कोई भी परेशान नहीं कर Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २६६ गाता, उगके जन्ममरण की बृटि भी नही होनी । यह नो कुछ-कुछ निश्चय दृष्टि ने सगत बात हुई। ____ व्यवहारदृष्टि से अर्थ यह है कि प्रभो । मालिक ! आप पूर्ण समर्थ हैं आप मे अनन्त बल है, उगके सागने कोई टिक नहीं सकता । साथ ही आप मेरे नाप है। गुरु पर आप सरोसे ग्वामी की छपवाया है, कृपादृष्टि है, तब दूगरा चया र साना है ? बाम्नतिक दृष्टि गे देखा जाय तो परमात्मा वीतराग होने गे वे दूगरों को प्रत्यक्ष मे को बल देते- लेते नजर नहीं आते। किन्तु जब गेवक समर्पणवृत्ति गे गुदभावत्तिपूर्वक प्रभु के चरण में दृटमकाप करतो अपना जीवन खपाने का हन्ट निश्चय कर लेना है और ध्यानमुद्रा मे बैठ कर प्रभु के गुणों का ध्यान करता है तो उसमे वल और पीरुप रचय स्फुरित हो जाता है, परमात्मा के जनन्तशक्तिशाली स्वरूप का ध्यान करने से आत्मा में भी शनि प्रगट करने का उत्साह जग जाना है। दूसरा कारण परम उदार प्रभु लोकव्यवहार में देखा जाता है कि गेवक स्वामी की सेवा करता है, तो वह खुश हो कर सेवक की तनख्वाह बढ़ा देता है, उसकी लगन देख कर उरो इनाम दे देता है, उसकी पदोनति कर देता है । इसी दृष्टि गे श्रीआनन्दघनजी कहते है'पाम्यो परम उदार' यानी आप परम उदार-चेता है। इसका निश्चयदृप्टि से मगन अर्थ यह है कि परमात्मा (गुद्ध आत्मा) इतना उदार है कि उमकी सेवा (आत्मम्बाव में रमण या आगा के गुणो या आत्मा का गवन) करने से मम्यग्दृष्टि व्यक्ति परमात्मा से यह आश्वासन पा जाता है कि अब तू आश्वस्त हो जा, तेरी दुर्गनि या जन्ममरणवृद्धि तो अवश्य ही नहीं होगी। यदि कोई निर्यन या मनुष्य परमात्मत्त्व (पद स्वभाव या आत्मगगो) की सेवा-ध्यान करता है तो उसकी आत्मोन्नति हुए विना नहीं रहती, पदोन्नति भी हो जाती है। यानी पापकर्मी से भारी बनी हुई आत्मा लकी हो जाती है। इससे पुण्यकर्मों की प्रबलता हो जाने पर उस जीन को परमात्मा की रोवा-गुजा करने के विचार उठते हैं, वह उग पुण्यगणि के फलस्वरूप दुगनि मे न जा कर मनुष्यगनि या दवगति मे जाता है । यह उस जीव की पदोन्नति है । तथा पुण्यपु ज के फलस्वरुप शुभभावो की शृखला शुरू हो जाती है, जिरामे आत्मा पर आए हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है या अशुभकर्म का जोर अत्यन्त कम हो कर गुभ मे बदल जाता है । यह आत्मोन्नति हुई। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अध्यात्म-दर्शन व्यवहारदृष्टि से इसका मगत जयं यह है कि आप ऐसे परम उपारपुरप है कि किसी को भी अपने ने हीन नहीं मानते। लोकव्यवहार में नो स्वामी सेवक को कदापि अपने वरावर का स्वामी नहीं बनाता, भले ही गेवक मालिक की अत्यन्त लगन से विनय-भक्तिपूर्वक सेवा करता हो । किन्तु जब सम्यग्दृष्टि भक्त परमनिर्मलस्प वन कर उदार प्रभु का ध्यान करता है तो उसे शुद्धात्मस्वरप का सानिध्य प्राप्त होता है, गवा करने वाले को प्रभु जगने से भिन्न न रहने दे कर यानी सेवक का सेवकत्व मिटा कर उसे अपने बरावर का परमात्मा बना देते हैं , स्वामी-सेवक का भेद मिटा देते है। इसलिए साधक कहता है-'मैं तो आप जैने परम उतार स्वागी को पा नार धन्य है, कृतकृत्य हूं।' व्यवहारदृष्टि से इसका अर्थ यह भी हो सकता है-प्रभो । आप जैसे परम उदार परमात्मा को पा कर मैं भी अलम्य लाभ से युक्त बना हूँ। क्योकि मुझमे भी आप की तरह अपने मे हीन-दीन या जरूरतमद या दुखी को तनमन या साधन का दान देने या त्याग करने की मावना पैदा हुई । आप परमदानी हैं, यह तो सारा ससार जानता है कि आपने मुनि-दीक्षा ग्रहण करने से पहले एक वर्ष तक प्राय लगातार दान दिया और जगत को दान देने की उदारता गिखाई। तीसरा कारण : साधक के मन के विश्राम इसी कारण को लेकर आनन्दघनजी कहते है.'मन-विसरामी' आप मेरे मन को विश्राम देने वाले हैं । मेरा मन दुनियाभर में कई दफा तो ऊलजलूल वातो मे भटकता रहा, विपयो, कपायो मे व दुर्भावो में मेरा मन भटका, किन्तु अब आपका चरणकमल पकड लिया तो वह इन सब विपयो मे विश्राम नहीं पाता, वह तो एक मात्र आप मे ही निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्मस्वरूप (स्वभाव) मे, च्यवहारणि से परमात्मा (वीतराग) मे ही विश्राम पाता है। उसकी थकान ध्यान करने से ही मिटती है। और जगह तो वह विश्रान्त के बदले श्रान्त हो (यक) जाता है । मेरे मन को प्रसन्न करने वाला आपके सिवाय आराम का स्थान कोई नहीं है। प्रभो । मेरा मन विविध पदार्थों मे भटका, उसने विविधरूप धारण किये, फिर भी इसे तृप्ति न हुई, उसके भ्रमण करने का चचल स्वभाव नहीं मिटा । इस Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २७१ कारण यह थक गया, उगे कही नाराम नही गिला । सद्गुरु की परम कृपा से मुझे आपके गुणो का पता लगा । मैंने उनका महत्त्व समझा । अव आपके सिवाय कोई भी उच्चसुख का या विश्राम का स्थान मुझे प्रतीत नही होता। चौथा कारण प्रियतम वीतराग प्रभु परमात्मा मे मन को रमाने और आश्वस्त-विश्वस्त हो जाने का चौथा कारण श्रीआनन्दघनजी बताते हैं-'वालहो मे परमात्मा अत्यन्त प्रिय हैं। जो अत्यन्त प्रिय या वात्सल्यमय होता है, उसे देखते ही आत्मीयता जागती है, हृदय मे आनन्द की उमियां उछलने लगती हैं, रोमाच हो जाता है, मन मे मानन्द की अनुभूति होती है, चित्त मे आल्हाद उत्पन्न होता है । सचमुच भक्त साधक को परमात्मा का स्मरण करते ही, या हृदय की आंखो से अन्तर मे उसका स्वस्प निहारते ही अयवा उसका भावपूर्वक दर्शन करते ही प्यार उमड पडता है। प्रश्न होता है कि जगत् मे इतने पदार्थ हैं, इतने जीव हैं अथवा अपने सम्बन्धी या मित्र हैं, क्या वे प्यारे नही लगते, जो परमात्मा को ही अतिप्रिय बताया गया है। इस प्रश्न का समाधान श्रीमानन्दघनजी प्रथम तीर्य कर की स्तुति मे 'भागे सादि म नात' कह कर कर आए है । यहाँ एक दूसरे पहलू से परमात्मा के प्रियतम लगने का कारण बताते हैं. प्रभो । मैंने अज्ञानवश ससार के अनेक पदार्थों या सम्बन्धियो या मित्रो को अपने प्रिय माने, परन्तु वे सबके सब प्रिय के बदले अप्रिय, स्वार्थी और धोखेवाज निकले । मुझे भोला समझ कर उन्होंने खूव बनाया। किसी ने मेरा (आत्मा का) महत्त्व नही वढाया। जहाँ मुझे पवित्रता दिखाई देती थी, अपवित्रता निकली। असलियत का पता लगते ही उन सबके प्रति मुझे अरुचि हो गई । अब तो मुझे प्रतीति हो गई कि आप ही एकमात्र परम पवित्र और शुद्ध (आत्म) स्वभाव वाले हैं । इसलिए मुझे आप ही आदि रो ले कर अन्त तक प्रिय-~-प्रियतम प्रतीत हुए। पाँचवॉ कारण आत्मा का आधार परमात्मा मे मन के जम जाने का पांचवां कारण श्रीआनन्दघनजी बताते है- 'आतमचो आधार'। दुनिया मे बहुत से पदार्थों और नाते-रिश्तेदारो को Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अध्यात्म-दर्शन मैंने आधार गूत गाने, किन्तु वे सब गु निराधार छोड़ कर चले गए, किनाराकमी कर गए, नंट के गमय मुझे (गेरी आत्मा को माश्यागन देने वाले, मुझ मे आत्मविश्वास जगाने वाले कोई भी नहीं रहे । इसलिए अत्ततोगत्वा मुझे आपके सिवाय कोई भी आत्मा का आधार नही जवा। आपके आधार पर रहने वाले व्यक्तिः यो माग गाथा ग्यास वा मन तनानादिचतुष्टय का सुरा मिलता ही है। इन गब कारणो को ले कर श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा हो मात्मा ने लिए समर्थ म्यागी, परग-उदार, गन विश्रामी, प्रियतम और आधारभुत बताया। गनमुन, नगार के विविध ताप की ज्वाला में गुलसने ?ए प्राणी के लिए परमात्मा का ही आधार है, वरी सकारण का है, जहनुमा गि, निकाम प्रेरक या मार्गदर्शक हैं, निग्या विश्ववराल है। अब अगली गाथाओ मे परमात्मा के दर्शन के अनेक नाम बताते है दरिसण दीठे जिनतण रे, संशय न रहे वेध।। दिनकर करभर पसरतां रे, अन्धकार-प्रतिषेध ॥ विमल० ॥॥ अर्थ श्रीवीतराग परमात्मा (शुद्धआत्मस्वस्प) के दर्शन होने से किसी भी प्रकार के विरोध या विघ्न की शका नहीं रहती। जैसे सूर्य की किरणो का जाल फैलते हो अन्धकार (रुक नष्ट हो) जाता है। वैसे ही आपके दर्शन होते ही अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। भाष्य वीतरागप्रभु के दर्शन का साक्षात्फल पूर्वगाथाओ मे वीतराग-परमात्मा के दर्शन में पहले की भूमिका के रूप मे उनके चरणकमल मे लीनता और रासार की श्रेष्ठनम मानी जाने वाली वस्तुओ के प्रति उदासीनता का दिग्दर्शन किया गया था, इस गाथा में परमात्मा के दशन का साक्षात्फल बताते हुए गूर्यकिरणो की उपमा दी है। जैसे सूर्य की किरणो के फैलते ही घोर से घोर अन्धकार भी नष्ट हो जाता है, ___वैसे ही प्रभु के दर्शनो की प्राप्ति होते ही मन मे चाहे जितने बहम, शकाएं, . Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २७३ अश्रद्धा, अविश्वास, मिथ्यावासना, अजान, सम्मोह आदि चाहे जितने भरे हो, आपके दर्शन (परमात्मस्वरूपदर्शन) होते ही आत्मविकास मे बाधक ये तमाम विघ्न नष्ट हो जाते हैं। आत्मा स्वाभाविक रूप से निर्मल हो जाती है। उसके लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं करना पडता। सशय अपने आप मिट जाता है और निर्मल सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है। 'संशयात्मा विनश्यति, इस कहावत के अनुसार जो व्यक्ति अधिक शकाशील संशयात्मा होता है, उसका जीवन नष्ट हो जाता है, परन्तु अगर वह वीतराग-परमात्मा का सम्यग्दर्शन (आत्मस्वरूप-दर्शन) प्राप्त कर ले तो उसका तमाम सशय भाग जाता है। उसकी आत्मा मे सम्यग्ज्ञान का प्रकाश हो जाता है । परमात्मा के दर्शन का यह तात्कालिक फल है। चारो ओर से विरोध और अवरोध (विघ्न) पैदा हो रहे हो, वे भी आपके यथार्थ दर्शन से मिट जाते है। वास्तव मे वीतराग परमात्मा के यथार्थस्वरूप का दर्शन ही उनका दर्शन है, उस दर्शन के होते ही, उस पर दृढ आस्था के कारण नि.सशर्य प्रतीति हो जाती है कि' मुझे अवश्य ही परमानन्द-प्राप्ति होगी। निश्चयनय की दृष्टि से प्रभु के और मेरे स्वरूप मे कोई अन्तर नहीं है , इस बारे में परमात्मा के स्वस्पदर्शन होने पर साधक को कोई शका नहीं रहती। यह तो हुई परमात्मा के सूक्ष्म (आत्मस्वरूप) दर्शन के साक्षात्फल की बात । अब अगली गाथा मे परमात्मा के स्यूलदर्शन का साक्षात्फल बताते हुए श्रीआनन्दघनर्जी कहते है अमियभरी मूरति रची रे, उपमा न घटे कोय। दृष्टि सुवारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय ॥ ॥ विमल० ॥६॥ अर्थ अमृत से भरी आपकी आकृति (परम औदारिक शरीरात्मक) (शुमनामकर्म के कारण) रची हुई, है, ससार को किसी वस्तु के साथ जिमको उपमा (तुलना) नहीं की जा सकती। वह रागद्वेष की उष्णता से रहित (शान्त), परमकारुण्यसुधारस से ओतप्रोत है । जिमे चर्मचक्षु या ज्ञानचक्षु से देखने पर तृप्ति हो नहीं होती। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ यध्यात्म-दर्शन परमात्मा के स्यूलदर्शन और उनका माक्षात्कल पूर्वगाथा मे वीतराग परमात्मा के गृष्मदर्शन में ताकानि फन का वर्णन था, इसमे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा के म्यूलदर्शन का मावात्पल बताया है। वीतरागप्रभु के भूदमदर्शन का तत्कालफत नो बहुत ही जनुपम है, किन्तु उनके म्यूलदर्शन का भी पल कम नही है। वीतरागपरमात्मा के स्यूलदर्शन दो प्रकार में हो सकते है-एगा नो उनके जीवनकाल में उनकी औदारिक देहाकृति के वर्णन, दूसरे उनके निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त हो जाने के बाद इस लोक मे उनके स्वलदान की पूर्ति के रूप में (यानी उनकी औदारिक देहाकृति को ऐवज में) उनकी प्रतिकृति (मूनि) को भावपूर्वक दर्शन। यद्यपि परमात्मा के स्थलदर्शन के साथ भी आत्मस्वस्पभाव होना आबश्यक है, अन्यथा परमात्मा की स्यूल देह या उनकी प्रतिमा के देखने पर भी दर्शक का कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। स्थलदर्शन के पहले प्रकार में श्रीआनन्दधनजी (साधक) कहते हैं"वीतराग प्रभो । (विमलनाथ तीर्थ कर) आपकी आकृति ही अमृतरम से लबालब भरी हुई है, जिसे नामकर्मरूपी चित्रकार सबके शरीर को रचता है, परन्तु आपकी देहाकृति परम उत्कृष्ट, शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभरस, शुभस्पर्श, शुभ सहनन-सस्थान आदि मे निमित है, जिसकी उपमा के लायक समार में कोई उपमेय पदार्थ नहीं है। यद्यपि सूर्य, चन्द्र, मेह आदि पदार्थ सुन्दर जरूर हैं, किन्तु थापके साथ इनमे से किसी की उपमा घटित नही हो सकती , क्योकि इनमे से कोई भी पदार्थ शान्तसुधारस का धारण नहीं करते, और अधिक समय तक देखने पर नेत्रो को कप्ट देते हैं। इसलिए उनमे अरुचि पैदा होजाती है, जवकि आपकी देहाकृति मे परमकरुणामय शान्तमुधारस छलक रहा है । इस कारण कोई भी सम्यग्दृष्टि आपको देखता है तो उसकी तृप्ति नहीं होती बल्कि आपके वारवार दर्शन करने वाले को आनन्द होता है। इसी भाव को, द्योतिन करते हुए भक्तामरस्तोत्र मे कहा है-'शान्तरम में रंगे हुए जिन पर१ देखिये 'भक्तामरस्तोत्र' मे ये. शान्तरागरुचिभि. परमाणुमिस्त्व । निमापितस्त्रिभुवनकललामभूत तावन्त एव खलु तेऽप्यणव. पृथिव्यां, यत्त समानपरं नहि रुपमस्ति ॥ न A Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २७५ मा गुओ मे आपका शरीर बना है, वे परमाणु जगत् मे उतने ही थे । अत तीनो भुवन मे एकमात्र सुन्दर हे जिनवर | आपके जैसा किसी दूसरे का रूप नही है । आपका कोई उपमेय ही नहीं है । क्योकि गम्भीरता समुद्र के साथ घटित हो सकती है। स्थिरता- धैर्य मे पर्वत की उपमा दी जाती है । निर्मलता-स्वच्छता के लिए शरदऋतु के दिन की उपमा दी जाती है । मनोहरता की चन्द्र के साथ, विशालता की पृथ्वी के माय, तेजस्विता की मूर्य के साथ एव वलिप्ठता की पवन के साथ उपमा घटित हो सकती है। परन्तु आप (तीर्थकरप्रभु) के अपरिमित माहात्म्य के साथ तुलना की जा सके ऐमा कोई उपमान ही जगत् मे प्रतीत नहीं होता । उपमा समान गुणो वालो की दी जाती है । परन्तु जो गुणो मे हीन हो, वह समान कैसे बन सकता है ? अत आपके साथ गुणो मे समानता (वरावरी) कर सके ऐसी कोई वस्तु दुनिया मे नजर नही आती। तो फिर आपने अधिकता रखने वाली वस्तु जरत् मे और कोई हो सकती है ? नही हो सकती, इसमे कोई आश्चर्य नही । और हीन के साथ तो उपमा दी ही नही जा सकती । इसलिए आप अनुपम है।" इसी भाव को व्यक्त करने लिए श्री आनन्दघनजी कहते हैं.--'उपमा घटे न कोय ।' साथ ही यह भी कह दिया है कि 'निरखत तृप्ति न होय ।' मतलव यह है कि आपकी देहरचना मानो अमृत का सार निकाल कर बनाई गई हो, इस कारण उसे किसी भी पदार्थ से उपमा नहीं दी जा सकती और ऐसा मालूम होता है कि उसे एकटक देखता ही रहूँ । उसे देखते-देखते नेत्रो को तृप्ति ही नहीं होती । शान्तमुधारस से ओतप्रोत आपकी अमृतमयी देहाकृति देख कर तीनो लोक के इन्द्र-नरेन्द्र आदि आपके चरणकमलो मे झुक कर अपने आप मे परमशक्ति अनुभव करते है। स्थूलदर्शन के दूसरे प्रकार की दृष्टि मे इसका अर्थ कई विवेचनकार यो फरने हैं-आपकी मूर्ति (आपके देह की प्रतिकृति) अमृत से परिपूर्ण बनाई गई १ देखिये सिद्धसेन दिवाकरमूरिकृत पञ्चमी द्वात्रिंशिका मे'गम्भीरमम्बुनिधिनाऽचल स्थिरत्वं, शरद्दिवा-निर्मलमिटमिन्दुना। भुवा विशाल, यतिमद् विवस्वता, बलप्रकर्ष पवनेन वर्ण्यते ॥३॥ गुणोपमान न तवान किञ्चिदमेय-माहात्म्यसमञ्जस यत । समेन हि स्यादुपमाऽभिधान, न्यूनोऽपि तेनाऽस्ति कुत समान ॥४॥" Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अध्यात्म-दर्शन है और इतनी मरग बनाई गई है गि दुनिया मे किली (मति) के साथ उसकी तुलना नहीं की जा सकती। उग वीतराग-प्रतिमा की दृष्टि अमृता गे मानो तरबतर है । जिसे देखते हुए नेत्रो को कभी तृप्ति नहीं होती।" मतलब यह है कि आपकी (तीर्थकरदेव की) मृति अमृत मे भगूर बनाई गई है, जिसके हाथ मे हथियार नहीं है, इस कारण रौद्ररुप नही है। जिसे देगले ही शान्ति हो जाती है। दुनिया मे तीर्थकर या वीतराग के निवास पिनी भी देव की गृनि देखें तो आपको प्रतीत होगा कि या तो उनसे हार में कोई भगार शानअम्ब होगा, अथवा उमका रूप भयकर होगा; खल्ली भांग जोर भयायने रूप को देख कर ही मनुष्य घबरा जाता है। आपसी गति तो पर्यवामन में स्थित है, किन्तु कामदेव आदि की मूर्ति के समान आपके बगल मे कोई स्त्री नहीं होती। बल्कि वह शान्तरम मे निमग्न हो, उस प्रकार की भाववाहिनी बनाई गई है । भोज राजा के दरबार में प्रसिद्ध जैनपण्डित कवि धनपाल ने शीर्थकर (देवाधिदेव) की मूर्ति के लिए उद्गार निकाले है प्रशमरस लिमग्न दृष्टियुग्म प्रमन्न, वदनकमलमद्ध. फामिनीसगशून्यः । करयुगपि धत्त शस्त्रसम्बधवाध्य, तदसि जगति देवो वीतरागरत्वमेव ।। ___ अर्थात्--" जिसकी दोनो आवं प्रशमरस में निमग्न हैं, जिनका वदनकमत प्रमन्न है, जो स्त्रीसग से रहित है, हाथ गन्त्र के सम्बन्ध से रहित है, है वीतराग प्रभो । जगत् मे ऐसा वास्तविक देव, तू ही है।" तात्पर्य यह है कि वीतराग देव ही आदर्श एव पूज्य हैं । वहीं अनुपमेय है। मेरी आँखे आपके इस अनुपम को देख कर तृप्त ही नहीं होती। परन्तु ध्यान रहे, स्चूलदर्शन के द्वितीय प्रकार की दृष्टि से यह अर्थ तभी सगत होता है, जब वीतराग-दर्शन के समय सम्यग्दर्शन युक्त भावधारा मन में प्रवाहित हो रही हो। भावधारा के बिना यह अर्थ बिलकुल रागत नहीं हो सकता। अब इस स्तुति का उपमहार करते हुए श्री आनन्दघन जी वीतरागदेव से एक परमभक्त सेवक के रूप मे प्रार्थना करते हैं एक अरज सेवक तणी, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुज दीजिये रे, 'आनन्दघन'-पद-सेव ॥ ॥ विमल० ॥७॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २७७ २७७ अर्थ जिनदेव ! सेवक को सिर्फ एक अर्ज है, जिस पर आप ध्यान दें (लक्ष्य में लें। वह यह है कि कृपा करके मुझे आनन्दघन-परमात्मपद की सेवा दीजिए। आनन्दघनपद-सेवा की प्रार्थना क्या और क्यो ? श्री आनन्दघनजी ने इस स्तुति की पूर्वगाथाओ मे 'साहेब, समरय तु धणीरे' तथा 'धौंगधणी माथे कियो रे' कह कर वीतरागप्रभु को स्वामी व नाथ के रूप में स्वीकार किया है, तब यह स्वाभाविक है कि वह उनके समक्ष सेवक के रूप मे (म्बामी में) उचित याचना या प्रार्थना करे। इसलिए श्री आनन्दघनजी वीतराग परमात्मा से सिर्फ एक अर्ज करते है। कोई कह सकता है कि वीतरागप्रभु तो किसी को कोई पदार्थ देते-लेते नहीं है, वे तटस्थ भाव मे, म्वभाव मे (रागद्वेषरहित हो कर) स्थित हो कर सबका कल्याण चाहते है, फिर ऐसे वीतरागप्रमु से किसी चीज की याचना करना कहां तक उचित है ? क्योकि प्रत्येक प्राणी को अपने शुभाशुभकर्मानुसार ईप्ट या अनिष्ट वस्तु फन के रूप मे मिलती है, परमात्मा या कोई भी देव क्सिी के शुभकर्मों के फल को अशुभ में परिणत नही करते और न ही अशूभकर्मो के फल को शुभ मे बदल मकते हैं। इसका समाधान यह है कि श्रीआनन्दघनजी स्वय आध्यात्मिक माधुपुल्प है, वे कर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली किसी भी वस्तु की याचना वीतरागप्रभु मे नही करते और न ही वीतरागोपासक कोई ऐसी याचना कर सकता है । वे गरीर-सम्पत्ति, पुत्र, परिवार, धन्यधान्य, भूमि, स्त्री, स्वर्गादि की ऋद्धि, मिद्धि, मणि, मत्र या औषध आदि कर्म फलजन्य भौतिक पदार्थो की याचना नहीं करते, वे अन्य सेवको की तरह लोभी नहीं हैं, और न ही मिथ्यादर्शन या अज्ञान से युक्त है । वे वर्तमान में अपनी आत्मशक्ति कम होने के कारण आध्यात्मिक शक्ति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे हुए वीतरागदेव मे सिर्फ एक ही, और वह भी आध्यात्मिक याचना करते हैं कि "प्रभो । इस भव मे तया परभव मे मुझे आप (मच्चिदानन्दघन परमात्मा की पदसेवा -चरणसेवा मिले।" इसे ही वे भक्ति की भाषा मे कह देते है-'कृपा करी Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन मज दीजिए रे इसके लिए वे भगवान मा ध्यान बागम ती अर्ज है, और वह भी आध्यात्मिक है, उस पर तो आपको ध्यानाहीतगा। क्योकि में आपका नेवक बना है। बापो आदेश-नि नार में चलता आया हूँ और चलन का प्रयत्न करूगा । 3 स्मा: '.- परमात्मपद को सेवा । इसी तरह की प्रार्थना अन्य आपायर्याय नाभी की । यह प्रार्थना मिर्फ आत्मविकान की सूचना है। यद्यपि वीनरागप्रभु किसी को कोई आध्यात्मिा शक्कि भी दत नहीं, किन्नु जिमका उपादान प्रथा हो, उसे वे आध्यात्मिा शक्तिशात होने में निमित्त बन सकते है। जैसे गुरु गिप्य में जानने जान उंदैनना नहीं किल योग्य शिप्य हो, जिज्ञासु हो और आराधना-माधना के लिए उबत हो तो गुर उमको जानवृद्धि या ज्ञान की अभिव्यक्ति मे निमिन बन जाते हैं। इसी प्रमान नहीं श्रीआनन्दघनजी की परमात्मा इस आध्यात्मिक शक्ति की याचना के पीछे भी यही रहस्य है कि परमात्मा की चरणगेवा के लिए गुरुपायं तो वे स्वय करेंग ही, इसीलिए इस स्तुनि मे पहले वे परमात्मा के चरणों की भव्यता, निर्मलता एव उनके अनुपमेय व्यक्तित्व की महिमा का कयन कर चुके है । इसी में आरपित हो कर वे समार की ममम्त जाकपंक व मनोज वन्तु मो को तुन्छ और हेय समझ कर एकमात्र परमात्मा के चरण गर्ने का नेवार हुए है। हृदय की प्रबन उर्मियो मे उद्भूत उद्गार है ये । ऐनी प्रयत्न भनिभावना से की गई प्रार्थना सफल भी होती है । परमात्मा जब अपने आध्यात्मरमिक आत्ममाधक भक्त की पुकार को जपने ज्ञान में जानते है तो प्राय उनके निमित्त मे जिनामुनक्त के अतर मे ज्ञान का महाप्रकाश प्रकट हो जाता है । भगवद्गीता की भापा में कह तो यह प्रार्थना एक जानी भक्त की प्रार्थना है, जिसमे भगवान् मे और किसी चीज की याचना न हो कर परमात्मपद (निश्चयदृष्टि ने शुद्ध जात्मस्वरूप में रमणता १- 'मम हुज्ज सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाण' (आपको चरणसेवा मुझे भव भव (जन्म-जन्म) मे मिला करे), 'तन्मे त्वदेशरणग्य शरण्य भूया' (एकमात्र आपकी शरण में आये हुए शरण लेने योग्य प्रभो | आपको शरण (सेवा) प्राप्त हो ), सिद्वा सिद्धि मम दिसंतु। २ क्योंकि पद या चरण कहा जाता है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार २७६ =लीनतारूप चारित्र) की सेवा प्राप्ति की प्रार्थना है । अथवा परमात्मपद (वीतरागपद मुक्तिपद) प्राप्त करने की यह प्रार्थना है । तात्पर्य यह है कि आनन्दघनजी व्यवहारदृष्टि से निरतिचार चारित्र-पालन करके, निश्चयदृष्टि से स्वरूपरमण-रूपचारित्र-पालन करके 'तव सरर्यास्तवाजापरिपालनम्' के अनुसार परमात्मा की आज्ञाराधनारूप सेवा करना चाहते हैं । सारांश विमलनाथ तीर्थकर (परमात्मा) की इस स्तुति मे परमात्मा को स्वामी (आदर्श मान कर दिव्यनेत्रो से उनके सर्वांगीण दर्शन के रूप मे उनके नयन, चरण, मन, दीदार, आत्मा, आकृति आदि समस्त अगो की सेवा करके श्रीमानन्दघनजी एक अध्यात्मरसिक सेवक का दायित्व और कर्तव्य सूचित करते है। इसीलिए अन्त मे परमात्मा की सांगोपाग सेवा प्राप्त होने की याचना करते है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : श्रीअनन्तनाथ-जिन-स्तुति--- वीतराग परमात्मा को चरणसेवा (तर्ज विमल कुलकमलना हस तु जीवडा, राग, कारणा, गमगिरि) धार तरवारनी सोहली दोहली, चदमा जिनतगी चरणसेवा । धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवनाधार पर रहे न देवा पार॥१॥ अर्थ तलवार को धार पर चलना सरल (तु म) है, किन्तु चौदहवें जिन (वीतराग प्रभु) को चरणसेवा दुर्लभ (दुप्फर) है । तलवार को धार पर नाचते हुए कुशल वाजीगर दिखाई देते हैं । किन्तु वीतराग की चरणसेवा की धाग पर भवनपति आदि देव भी नहीं टिक सकते, मनुष्यो का तो कहना ही यया? भाव्य परमात्मा की चरणसेवा का रहस्य तेरहवे तीर्थकर परमात्मा की शुनि के अन्त में श्रीजानन्दघनजी ने प्रभु मे चरणव मल की सेवा की याचना की है, उनमे किली यो शया हो मयती है, कि आखिर उन्होंने ऐसा क्या मांग लिया? प्रभु की मेवा नो मांगे बिना ही मिन नकती है। इस शका के निवारण करने के लिए चौदहवें तीर्थकर की स्तुति के माध्यम मे इस स्तुति में बताया गया है कि वीनरागप्रभु की चरणमेवा आमान नहीं है । वह तलवार की धार पर चलने से भी बडकर दुष्कर है। वीतराग-परमात्मा की चरणमेवा' का अर्थ वास्तव में व्यवहारदृष्टि से मामायिक आदि चारियपालन की आना का परिपालन है। माँग में कहे तो भगवान् की आज्ञा की आराधना ही उनकी मेवा है । स्वय तीर्थकर महावीर १. वीतराग स्तुति करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-'तब सपर्यास्तवाजा परिपालनम्' (आपको आज्ञा का परिपालन हो आपकी सेवा है ) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २८१ ने अतिदुर्लभ चार वातो मे से एक सयम (चारित्रपालन) मे आत्मा के पुरुपार्थ को ' दुर्लभ कहा है। सवाल यह होता है कि ऐसी प्रभु-चरणसेवा इतनी दुष्कर-दुर्लभ क्यो है ? इसका समाधान यद्यपि अगली गाथाओ मे स्वयमेव श्रीआनन्दघनजी ने किया ही है, तथापि सक्षेप मे इसके उत्तर मे यो कहा जा सकता है कि आत्मा अनादिकाल मे आत्मस्वरूप मे रमण (परमात्म-चरण) की धारा पर अखण्डित--अविच्छिन्नरूप से चलने मे भूल करती आ रही है । वह भूल क्यो होती है ? कैसे होती है, इस विषय मे वास्तविक जिम्मेवार तो आत्मा स्वय ही है, निमित्तरूप से जिम्मेवार द्रव्यकर्म, परपदार्थ आदि कारण वताये जाते हैं । जो भी हो, आत्मा के पुरुषार्थ की कमी ही परमात्म-चरणसेवा मे बाधक कारण है । असावधानो (प्रमाद) ही आत्मा को नीचे गिराती है, ११ वें गुणस्थान पर पहुंची हुई उत्तम आत्मा का ठेठ दूसरे गुणस्थान तक पतन होने मे वही कारण है । पूर्णतया आजाराधना-~-यथाख्यातचारित्र मे-वारहवे गुणस्थान मे होती है, वही प्रभुचरणसेवा है, वहाँ तक पहुँचना कितना दुर्लम है? इसे प्रत्येक साधक जानता है । उसके बीच में कभी सम्यग्दर्शन मे, कमी सम्यग्ज्ञान मे और कमी सम्यक्चारित्र-मे अन्तरायभूत कितने ही बाधकतत्व आते है, मोह उन सबमे प्रधान है । राग,द्वेष, काम, क्रोधादि कषाय आदि को जीत कर ही भगवच्चरणो के समीप पहुंचा जा सकता है। इनके जीतने का मार्ग भी पकड लिया, साधक का वेप भी धारण कर लिया, और महाव्रतो का स्त्रीकार भी कर लिया, किन्तु इतने मात्र से इन बाघ कतत्वो को जीता नही जा सकता । इन्हे जीतने के लिए सतत सावधानी, सदा अत्मस्वरूपलक्ष्यी क्रिया, आत्मलक्ष्यी ज्ञान और मोक्षमार्ग या परमात्मतत्व पर अखण्ड अविचल श्रद्धा रखनी आवश्यक होती है । जरा-सा भी चूकने पर झट से ये वाधक तत्व आत्मा को दवा देते हैं , पीछे या नीचे धकेल देते हैं , क्योकि तलवार की धार पर नाचते हुए कदाचित् गिर भी जाय तो उसके हाथ-पैरो को ही चोट १ देखिये उत्तराध्ययन सूत्र मे-- चत्तारि परमगाणि दुल्लहाणीह जतणो । माणुसत्त सुई सद्धा सजममम्मि य चोरिय । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - -- २८२ अध्यात्म-दर्शन पहुँचती है, मगर चारित्र मे बनारूपी असिवाग से गिर जाय यानी आनाविरा. धना हो जाय तो अनन्तदु समयसगार के जन्म मरण प्राप्त होने की पूरी गम्भावना है। यही कारण है कि श्रीआनन्दघन जी अपनी बात स्पष्ट कर देते हैधार सरवारनी सोहली दोहली' . ." मतलब यह है कि यद्यपि नरवार की धार (नोक) पर नाचना अत्यन्त कठिन है । इसमे जरा-सी अनावधानी होते ही प्राण खतरे में पड़ जाते हैं। किन्तु कोई सधा हुआ, कुशल-नटो द्वारा बाजीगरी वी कला मे प्रशिक्षित एव निपुण तनवार की तीक्ष्ण धार पर भी चल सकता है। उसके लिए तव तलवार की धार पर चलना को मुश्किल वात नहीं होती, वह आसान चीज हो जाती है, परन्तु पहले बताए अनुसार वीतरागपरमात्मा की चरणमेवा की धारा पर चलना अत्य न दुप्पर है। वह क्यो दुष्कर है ? यह हम पहले सक्षेप मे कह आए है । मनुष्यो के लिए तो ऐमी चरणमेवा दुष्कर है ही, पर जिन्हें ससार के सभी साधन सुलभ है, उन चारो प्रकार के देवो के लिए भी यह अत्यन्त दुप्फर है । यदि चरण-मेवा का अर्थ धूर, दीप, पुष्प, अक्षत, नैवेद्य आदि द्वारा प्रभु की बाह्य द्रव्यपूजा होता तो यह देवो और मनुष्यो के लिए क्या कठिन या ? और तव श्रीआनन्दघनजी को यह नही कहना पड़ता कि सेवनाधार पर रहे न देवा । इसलिए चरणसेवा का अयं बाह्य द्रव्यपूजा कथमपि मगन नहीं है। हाँ, भावपूजा या प्रतिपत्तिपूजा अर्थ कवचित् मगत हो सकता है। उसी प्रकार चरणसेवा का अर्थ प्रभु के स्यूलचरणो की मेवा भी व्यवहारानुकूल नहीं है । क्योकि वीतराग के म्यूलचरण तो तीर्थकर अवस्था में उनके जीवितकाल में ही प्राप्त हो सक्ने है । और मान लो, कोई तीर्थकर भगवान के जीवनकाल में भी मौजूद हो, और प्रभु के चरणो का छू लेता है या उनके चरण दबा कर उनकी वाह्य मेवा मान लेता है, किन्तु अगर उनकी चारित्रागधनारूप आज्ञा का पालन नहीं करता है, बल्कि उनकी आना ३ विपरीत आचरण, प्ररूपण या श्रद्धान करता है तो उस हालत मे वह चरणो की यथार्थ वाह्यमेवा भी कमे मानी जा सकती है ? और स्मूलमेवा का वह प्रदर्शन (दिखावा) कमे उमका वेडा पार कर सकता है ? इसलिए निष्कर्ष यह निकला कि तीर्थकर-अवस्था मे प्रभु की चरणसेवा भी उनकी आज्ञा के परिपालन से चरितार्थ हो सकती है, अन्यथा नहीं। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा को चरणमेवा २८३ अन्ततोगत्वा चरणसेवा के सब अर्थों का पर्यवसान तो वीतराग के आज्ञानुरूप चारित्रपालन में ही होता है। यही कारण है कि वीतराग पी चरणसेवा देवो के लिए भी दुर्लभ बताई है, नही तो स्यूलचरणसेवा या वाह्य द्रव्यपूजा देवो के लिए क्या दुर्लभ थी ? किन्तु देवो के लिए प्रभुचरणसेवा इसलिए दुर्लभ है कि वे मोक्षमार्ग की आराधना के लिए वीतरागदेव द्वारा प्ररूपित (आज्ञप्त) रागद्वेष, विषय-कपाय यादि को जीतने हेतु व्रत, तप, जप, मयम आदि व्यवहार चारिय तथा आत्मस्वरूपरमणतारूप निश्चय चारित्र का परिपालन नहीं कर सकते । देवता अवती होते हैं । उनमे व्रतनियमो का पालन नहीं हो सकता। इन्द्रियो के वैपयिक सुख मे मग्न देवो के लिए चारित्राराधनरूप आज्ञापरिपालन यानी प्रभुचरणो की सेवा दुष्कर है । इसीलिए कहा है-'सेवनाधार पर रहे न देवा' । अवाचक (मूक) तियंचो के लिए भी चरणसेवा लगभग अशक्य है और नारको के लिए लिए सदंव नाना दु खो मे मग्न रहने के कारण सेवाधार पर चलना अशक्य है । निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त चरणसेवा मनुष्यो मे जो सर्वविरति, आज्ञा के सर्वथा आराधक, अप्रमत्त महामुनि है, उनके लिए सुशक्य है। अव अगली गाथाओ मे बताते हैं कि वीतरागचरणसेवा की धार (आज्ञा-परिपालनके पथ) पर चलना क्यो दुप्कर हैंएक कहे 'लेविये विविध किरिया करी, फन अनेकान्तलोचन न पेखे । फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा रड़बड़े चारगति माहि लेखे ।। ॥धार० ॥२॥ अर्थ कई लोग कहते हैं कि "वीतराग परमात्मा को चरणसेवा (आज्ञापालन) मे क्रिया भी आती है, इसलिए . (भावशून्य या ज्ञानशून्य अथवा विकृतभाव से) । व्रत, जप, तप, अनुष्ठान, द्रव्यपूजा आदि क्रियाएँ करके हम वीतरागप्रभु की सेवा आज्ञा का पालन करते है। परन्तु वे उसका नतीजा, (फल) जो विभिन्न प्रकार का है, आँखो से नही देखते (नहीं सोचते)। वे वेचारे अपनी आशा के अनुकूल अनेक फल की कल्पना करके (अथवा वे अनेक फल देने वाली) क्रिया (अज्ञानवश) करते हैं जिसके कारण वे चार गति मे भटकते हैं, चक्कर लगाते फिरते हैं। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अध्यात्म-दर्शन भाप्य वीतरागवरणमेवा के अज्ञानजनित प्रकार बहुत से लोग ऐमा मोचते है कि वीतरागदेव पी चरणसेवा हमारे लिए कुछ मी कठिन नहीं है। वीतरागप्रभु की आज्ञा जपादि विविध मियाग करने में है। क्रियाएं करने से ही प्रभुमेवा हो जायगी। क्योकि यह एका सिद्धान है-'या या क्रिया सा सा फलवती' जो जो क्रिया होती है, उसका कुछ न कुछ फल होता ही है । ऐसे लोग या तो अज्ञानवश लोक-परलोया की पिनी न किसी कामना के वशीभूत हो कर कोई न कोई अनुष्ठान या क्रिया भगवान् के नाम की ओट मे करते रहते है, अथवा क्रिया का मर्म समझे बिना ही क्रिया के साथ शुद्ध आत्मस्वरूप का लक्ष्य चूक कर शुद्धभाव ने शून्य प्रिया परमात्मा का नाम ले कर करते रहते है । कई दफा तो वे बहुत कठोर (जप, तप, कप्टनहन आदि की) क्रिया करते है, परन्तु उनके पीछे कोई विचार या ज्ञान नहीं होता, वे नियाए केवल वृथाकष्ट बन जाती है। साधक ममलता है कि मैं इन क्रियाओ को भगवान के नाम ने करता हूं, इसलिए भगवान प्रसन हो जाये, इस प्रकार प्रभु की चरणसेवा हो जायगी। परन्तु उन्हें यह समस नहीं कि प्रियाएँ करने मात्र में प्रभुमेवा नहीं हो जाती या निर्धारित अभीप्ट परिणाम । नहीं आ मकना जो क्रियाएँ किसी इहलौकिक या परलौकिक कामना के बम हो कर की जाएंगी, उनका फन तो मिलेगा, पर उन नियाओ जैसा फल नहीं मिलेगा, जो किमी भी म्वार्थ या इहलौकिक परलौकिक कामना मे रहित हो कर की जाती है। वे अनीप्टमोक्षफलदायिनी होती हैं, परन्तु शुभ अथवा अशुभ परिणामी के साथ की जाने वाली नियाएँ समारफलदायिनी होगी। किमी प्रकार का विचार किये बिना अघाच ध अज्ञानपूर्वक भगवान का नाम ले कर यन्नवत् क्रिया करने से भी, जो उन क्रियाओ का अभीष्टफल (कर्ममुक्तिस्प) मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता । उनका अनेकान्त १(व्यभिचारी) फन मिलता है, जो क्रिया के ईष्टप्रयोजन के विरुद्ध होता है, इस बात की वे जानशय क्रियावादी जपनी विवेक की आँखो से नही देखते, यानी वे किया के नतीजे पर सोचे-विचारे विना ही प्रभु का नाम ले कर अधाधु ध क्रियाएँ करते है । ऐसे लोग भगवान् की आनापालन का दम भरते है, लेकिन यथार्थ में वह समार की गेवा होती है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २८५ अथवा अनेकान्त का अर्थ एकान्त न होना भी है। कई बार क्रिया का फल मोक्षमार्ग की प्राप्ति होता है, कई बार ससारवृद्वि होता है। यानी क्रिया का फल एकात (एक ही प्रकार का) नहीं होता। इस बात को त्रिन्यावादी नही देखते नहीं विचारते । कुछ लोग श्रिया के अनेक (विभिन्न) फलो को तो जानते-मानते हैं, पर वे इस भव या परभव मे सुखमुविधाएँ, वैभवादि की प्राप्ति की आशा मे क्रियाएँ करते रहते है । वे क्रिर ए फल तो अवश्य देती हैं, पर उगे हम सच्चे माने मे फल नहीं कह सकते, स्थायी सुख देने वाले फल को ही हम वास्तविक फल वह मकते है । अस्थायी फल वाली क्रियाओ मे तो वे वेचारे एक से दूसरी गति मे, दूसरी से तीसरी गति मे भ्रमण करते रहते हैं। देवगति या मनुष्यगति में मिलने वाले पोद्गलिक सुखरूप फल भी क्षणिक और अस्थायी होते हैं । कई बार तो ऐसा पौदगलिक सुख भी नहीं मिलता। ऐमा क्रियाफल तो चारगतियो मे भटकाने वाला और मसारवृद्धि का कारण है। सम्यग्दृष्टि मात्मा के लिए वह श्यिा उपादेय नही हो सकती। पहले हम पाच प्रकार की क्रियाओ का वर्णन कर चुके है । वे इस प्रकार हैं-विपक्रिया, गरलक्रिया, अननुष्ठान क्रिया, तदहेतु क्रिया और अमृतक्रिया। इन मे मे प्रथम तीन क्रियाएँ चारो गतियो मे भ्रमण कराने वाली हैं । शेप दो क्रियाएँ मोक्षप्राप्ति की कारणभूत है । ज्ञानशून्य क्रियावादी प्रथम की तीन क्रियाओ से देव-नरकादि चारो गतियो मे भटकता रहता है । अत प्रभुचरणसेवारूप क्रिया शुद्धात्मप्राप्ति या मोक्षप्राप्ति का फल देने वाली हो, वही उपादेय है । निष्कर्ष यह है कि संसार मे प्राय एकान्तक्रियावादी लोगो की पूर्वोक्त मान्यता के कारण प्रभुचरण-मेवा दुर्लभ है। अगली गाथा में श्रीआनन्दघनजी तत्त्वज्ञाननिष्ठ लोगो के झूठे ममत्त्वयुक्त व्यवहार के कारण प्रभुचरण-मेवा को दुर्लभ बताते हुए कहते हैं १ अनेकान्त का अयं यहाँ व्यभिचारी हेत्वाभासरुप दोष है, जिसका लक्षण है- माने हुए कारण मे तदनुसार कार्य न होना या माने हुए हेतु के अनुसार साध्य का न होना । यहा कार्य . फल के साथ विमवादी कारण होने से व्यभिचार (अनेकान्त) दोष है । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ अध्यात्म-मशन गच्छना भेद बहु नयण निहालना तत्त्वनी वात करतां न लाजे । उदरभरणादि निजकाज करतां थका, मोहनडिया कलिकाल राजे॥ धार० ॥३॥ अर्थ गच्छो (उपसम्प्रदायो) के बहुत-से भेद प्रत्यक्ष देखते दर भी अफमोम है, इन लोगो को तत्त्व की बातें बघारते हुए जरा भी गर्म नहीं आती। ऐसा मालूम होता है, उदरभरण, वगैरह (वड़िया खाने-पीने, पहनने का सामान और रहने के लिए आलीशान भवन, एवं सम्मान आदि अपने मनमाने (स्वाय) कार्य करते हुए ये यदाग्रही लोग कलियुग मे मोह मे घिरे हुए सुशोभित हो हो रहे हैं। भाष्य तत्त्वज्ञान बघारने वालों को परमात्ममेवा पूर्वगाथा मे ज्ञानहीन क्रियावादी लोगो के द्वारा परमात्मनेवा का निराकरण किया था, इसमे ज्ञानवादी लोगो द्वारा परमात्मनेवा के ढोग की कलई श्रीआनन्दघनजी ने खोल दी है। परमात्मनेवा कितनी दुर्लभ है ? यह गच्छो, पथो और सम्प्रदायो के पृथक्-पृथक भेदो को देखते हुए स्पष्ट मालूम हो जाता है। जिनमे परमात्मसेवा की मच्ची लगन है, उनमे गन्छ, मत, पय और सम्प्रदाय के विभिन्न भेद पैदा करने, भोली जनता के सामने अपने गच्छ, मत, पथ या सम्प्रदाय की बडाई और मच्चाई की डीग हारने और दूसरो के इन गच्छादि की निन्दा और उन्हें मिथ्या कहने और लोगो को अपने गच्छादि मे खीचने का झूठा आग्रह हो ही नहीं सकता। जहाँ इस प्रकार की खीचानान है, मताग्रह है, मेरा ही मत, पय या गच्छ सच्चा हे, हमारे मत, गच्छ, या पथ के माधक भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलते है, हमारा पथ या गच्छ ही प्रभु का पय या गच्छ है, इस प्रकार जाने गच्छ या पयादि की महत्ता जमाने के लिए आकाश-पाताल एक किया जाता है, ऐसे गाधको के मुंह म तत्त्वज्ञान की बातें शोभा नहीं देती। उन्हें शर्म नहीं आती है कि हम एक ओर तो अनेकान्त की बातें बघार कर सब धर्मो, पथो, मतों एव दर्शनो में परम्पर समन्वय, मापेक्षता और सहिष्णुता पैदा करके विरोध मिंटाने और Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा का चरणसेवा २८७ कदाग्रह छोडने की बडी-बडी बाते करते हैं किन्तु दूसरी ओर से हम ही गच्छो, पथो आदि के भेदो से चिपटे हुए है, सम्प्रदायमोहवश एक दूसरे मे परस्पर, भेद डाल कर अथवा अनुयायियो के मन मे अपने से भिन्न मत, पथ, मम्प्रदाय आदि की निन्दा करके घृणा पैदा करते है। जहाँ तत्त्वज्ञान हो, वहाँ ममत्व की वृत्ति शोभा नहीं देती। जहां तत्त्व हो, वहाँ ममत्व नही और जहाँ ममत्व हो, वहाँ तत्त्व नहीं होता। परन्तु इन कलियुगी माधको की तो वात ही निराली है। इनका ऊपर का साधु वेप और वचनाडम्बर देख कर भोलेभाले लोग उनके वारजाल मे फँस जाते हैं, वे इनकी ढोल मे पोल को 'जान नहीं पाते। किन्तु वास्तव मे ऐसे साधक दम्भी हैं, वे थोथे तत्त्वज्ञान द्वारा ही परमात्मचरणसेवा हो जाना मानते है, पर ऐमा मालूम होता है कि ये सब बाते केवल पेट भरने, प्रतिष्ठा पाने, वस्त्रादि अन्य साधन लेने एव अपना स्वार्थ सिद्ध करने की हैं , और इस कलियुग मे वे अन्दर से मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के चगुल मे फंसे हुए हैं , केवल वाहर से शोभायमान लगते हैं, अन्दर से तो मोह की मजबूत गाँठ से जकडे हुए हैं। ___ वास्तव मे श्रीआनन्दघनजी ने आज के तथाकथित तत्त्वज्ञानवादी लोगो को बडी चेतावनी इसमे दे दी है। ऐसे व लियुगी गुरुओ के कारण ही परमात्मा की यथार्थसेवा इस युग मे दुर्लभ हो रही है। आज के युग मे तथाकथित साधक आचार्य, सूरिसम्राट, मुनिपु गव, प्रखरवक्ता, अध्यात्मयोगी, योगीराज, आत्मार्थी आदि बन कर लच्छेदार भाषा मे तात्त्विक बातें बघारते रहते है, परन्तु उनके व्यवहार को देखा जाय तो वे अत्यन्त सकीर्ण, अनुदार, दूसरे सम्प्रदाय, या, पथ (गच्छ) के साधुओ से घृणा, छूआछूत या भेदभाव करने वाने, दूसरो को मिथ्यात्वी समझने वाले प्रतीत होते हैं। मन करिपत क्रियागाड, वेष, पथ, मत, या गच्छ की थोथी महत्ता की डीग हांकने वाले के मुख से आत्मज्ञान या तत्त्वज्ञान की बातें शोभा नहीं देती। मोह के शिकजे में फंस कर ऐसे लोग तन्त्रज्ञान छौ कर पूंजीपतियो को अपने, भक्त वना लेदे हैं, वे इनके वढिया खानपान, आवश्यक्ताओ मानप्रतिष्ठा आदि स्वार्थ की पति कर देते है, ये उन्हे पुण्यवान भाग्यशाली, मेठ, दानवीर आदि विशेषणो से सत्कृत सम्मानित कर देते हैं। इस प्रकार इनके तत्त्वज्ञान का उपदेश परमात्मा की चरणसेवा वा प्रयोजन सिद्ध करने वाला नहीं होता, वह एक प्रकार से मोहलिप्त स्वार्थ सेवा करने वाना हो जाता है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ मध्यान्म-दर्शन ___ आगे की गाथा प्रे परमात्मगेवा की फिर दुलंगता भूचित की हैवचननिरपेक्ष व्यवहार झूठो कहो, वचनसापेक व्यवहार साचो। वचननिरपेक्ष व्यवहार संसारफल, सांभली आदरी कोई राचो॥ धार० ॥४॥ अर्थ जिन प्रवचन (परमामा की आना की, निश्चय दृष्टि में आत्मतत्त्य फी अपेक्षा से रहित, विसंगत व्यवहार (धार्मिक आचार) मिथ्या है, परमात्मवचन से साथ वचन (आत्मतत्त्व) से निरपेक्ष व्यवहार ससारस्प फल का प्रदायक है । ऐसा सुन कर उसे आदर क्यो देते हो ? उममे पयो फंसते हो ? भाष्य वचननिरपेक्ष और वचनसापेक्ष व्यवहार वीतराग परत्मामा के अनेकान्तवाद मे मने व चन या प्रवचन अथवा आत्मतत्त्वलक्ष्यी वचन मे मापेक्ष व्यवहार ही वास्तव में जिनाना का अनुगरणकर्ता होने से मच्चा है। यहां व्यवहार का अर्थ व्यवहारचारित्र यानी धामिक आचारविचार से है ।' जो व्यवहार घाजित एक तत्त्वज्ञपुरुषो द्वारा इहलोक मे सदा आचरित होता है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ साधक निन्दा का भागी नहीं बनता । जैनागमो में पांच प्रकार का व्यवहार बताया है-आगमव्यवहार, श्र तव्यवहार, आज्ञाव्यवहार, धारणाब्यवहार और जीतव्यवहार । ये पांचो व्यवहार जैनसाधुवर्ग के वाह्याचारो तथा विधानो से सम्बद्ध है। ऐमे साध्वाचार-सम्बन्धी विधानो का वर्णन व्यवहार मूत्र आदि में मिलता है। पाचो मे से कोई भी व्यवहार सूत्रचारित्रस्प-धर्म से अनुप्राणित हो वही वचन सापेक्ष व्यवहार कहलाता है, जो व्यवहार जिनप्रवचन, वीतराग-मिद्धान्त या निश्चयनय मे सम्मत न हो, वह निरपेक्षव्यवहार है। समग्र जैनदर्शन नयवाद पर आधारित है। एक बात एक दृप्टिविन्दु मे सच्ची होती है, वही दूसरे दृष्टिविन्दु से बिलकुल उलटी प्रतीत होती है । १ जैसे कि उत्तराध्ययनमूत्र में कहा है धम्मज्जिय च व्यवहार, बद्ध हाऽयरिय सदा। तमायरतो ववहार, गरहं नाभिगच्छई ॥ । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २६६ इस अपेक्षावाद को यथार्थरूप से समझ कर जो आचरण, प्ररूपण व श्रद्धान करता है, उनका वह व्यवहार वचनसापेक्ष होने के कारण सच्चा , व्यवहार (नय) है। परन्तु इसके विपरीत जो अपेक्षा या दृष्टिविन्दु को ठीकतौर से न समझ कर एकान्त एक ही दृष्टि से आचरण, प्ररूपण व श्रद्धान करता है, उसका वह व्यवहार वचननिरपेक्ष होने के कारण मिथ्या है। इस प्रकार का वचननिरपेक्ष व्यवहार अथवा आत्मतत्त्व की अपेक्षारहित परमार्थ मूलहेतुभूतरहित व्यवहार (निश्चय को लक्ष्य में न रख कर की हुई व्यवहारक्रिया) का फल तो चारगति मे भ्रमण-रूप ससार ही है । यहाँ जैसे वचननिरपेक्ष व्यवहार को ससार वृद्धिरूप फलदाता कहा है, वैसे वचननिरपेक्ष व्यवहार को छोड कर एकान्त निश्चय भी उपलक्षण से ससार वृन्निरूप फल दाता समझ लेना चाहिए। निष्कर्प यह है कि योगी आनन्दघनजी उस युग के मतवादी (मताग्रही) गच्छ (पय) वासियो अथवा क्रियाकाण्डियो के मोक्षफल को तथा आत्मज्ञान की अपेक्षा रहित कयन-श्रद्धान-आचरण देख कर या अनुभव करके कहते है, जो लोग मनगढत अटपटी क्रियाओ को धर्म या भगवान् के नाम से पूजाप्रतिष्ठा आदि के ममत्व से सापेक्ष जिनप्रवचन का व्यवहार करते हैं, वे भी एकान्तवादी या अपने ही कल्पित मत को सच्चा मानने वाले साधक समार की वृद्धि करते हैं । जिसे गच्छ, मत, पथ या अपने माने हुए तथाकथित सावध अनुष्ठान का आग्रह नहीं है, जो सम्यक् (आत्म, ज्ञान की वृद्धि की अपेक्षा रख कर जिनप्रवचन-अनेकान्तवाद का व्यवहार करता है; वह आत्मकल्याण की अपेक्षा (मद्देनजर) रखते हुए अनेकान्तवचन बोलता या कहता है, वही समारसागर से पार उतरता है। ___यही कारण है गच्छ-मतादि के आग्रह के कारण जो आत्मस्वरूप-निरपेक्ष आचरण करते हैं, उन्हे देख कर श्रीआनन्दघनजी को व्यथित मन से कहना पडा-'सामली आदरी काई राचो' इस बात को भलीभाति सुन लेने पर भी उसको अपना कर क्यो उसमे मशगूल हुए हो, " . .. , . उसी व्यवहार की ओट मे देवगुरु-धर्म पर श्रद्धा न रख कर जो क्रिया की जाती है , उसके परिणाम को बताने के लिए अगली गाथा मे कहते हैं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अध्यात्म-दर्शन देव-गुरु-धर्मनी शुद्धि कहो रहे केस रहे शुद्धश्रद्वान आणा, शुद्ध श्रद्धानविण सर्वकिरिया फरी, छार पर लीपण तेह जागो।, धार०॥५॥ अर्थ ऐसे निरपेक्षवचनवादी लोगो से देव, गुर और धर्म को शुद्धि (पवित्रता) या शुद्धिभक्ति कैसे सुरक्षित रह सकती है ? और इस तत्त्वत्रयो को शुद्धि या शुद्धभक्ति के बिना शुद्ध श्रद्धान फैसे लाया जा सकता है ? तथा शुद्ध श्रद्धा के विना यह समझ लो कि समस्त क्रियाएँ राख (धूल) के ढेर पर लोपने के समान है। भाष्य देव-गुरु-धर्म पर शुद्ध श्रद्धा से रहित किया का फल बहुत से मत-पथवादी या नास्तिक विचारधारा वाले लोग अपने-अपने पथो, गच्छो, सम्प्रदायो या मतो की विचारधारा का आग्रह रख कर अपनी परम्परा (फिर चाहे वह समार वढाने वाली क्रिया या प्ररूपणा से सम्बन्धित हो) से एक इंच भी इधर-उधर नही हटना चाहते । अपनी लौकिका या भौतिक फलाकाक्षा के वशीभूत हो कर वे अपने माने हुए देवी-देवो या अवतारो को भी उसी रग मे रग लेते है , देवीदेवो या अवतारों को भगवान्-भगवती या विश्वमाता का रूप दे कर उन्ही के नाम से सभी तत्फलावलम्बी क्रियाएँ करते रहते हैं, वैसी ही लौकिक ससारवृद्धि करने वाली प्ररूपणा करते हैं या श्रद्धा रखते हैं, तव जो वीतराग वीतदोप देव है, कचनकामिनी के त्यागी महा व्रती सच्चे गुरु (साधु) हैं, अथवा मोक्षमार्गदर्शक अथवा कर्म मुक्तिदर्शक शुद्धात्मरमणरूप धर्म है, उन पर शुद्ध श्रद्वा कैसे रह सकती है ? या उनकी विचारधारा, श्रद्धा, प्ररूपणा या क्रिया मे जो दोप है, उसकी शुद्धि कैसे होगी? वहुत-से लोग अपने अशुद्ध विचारो का निरूपण करते हुए सच्चे देव, सद्गुरु और सद्धर्म पर आस्या उखाडने की कोशिश करते है। वे सामान्य लोगो को भी इन सबसे ऊपर उठ कर सोचने की, इनको हृदय से निकालने की जोरशोर से प्रेरणा करते है । इसका नतीजा यह होता है कि वे वेचारे या तो चमत्कारो या उक्त विचारको के मायाजाल मे फस जाते है, या लौकिक - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २६१ फलाकाक्षावादी बन कर फिर उन्ही को भगवान् पैगम्बर या गुरु मान बैठते हैं। इस प्रकार न तो वे उच्च भूमिका (गुणस्थान) पर पहुंच पाते हैं, जहाँ देव-गुरु-धर्म की कोई आवश्यकता नहीं रहती। उनमे स्वत. देवत्व, गुरुत्व और शुद्ध धर्मतत्त्व प्रगट हो जाता है । किन्तु वे भोलेभाले लोग तो इतनी उच्च भूमिका को छू नही पाते और न ही सच्चे देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धा रख कर चल पाते है । वे त्रिशकु की तरह अघबीच मे ही लटके रह जाते है। इसलिए परमात्मतत्व को प्राप्त करने के लिए जो बुनियादी तीन तत्त्व हैं-सम्यग्देव, सम्यग्गुरु, और सद्धर्म , उनकी शुद्धि यानी दर्शनविशुद्धि वे नही कर पाते । इसका नतीजा यह होता है कि वे विविधमत-पथवादियो के पास इधर-उधर भटकते रहते है, वाह्य दृष्टि से भी और आत्मिक दृष्टि से भी वे जन्ममरणरूप ससार मे भटकते रहते हैं। वे देवगुरुधर्मतत्त्व की शुद्धि जो सद्व्यवहार की मुख्य आधारशिला है, उसे हृदय मे नही जमा पाते । वास्तव मे उस शुद्धि का आधार शुद्ध श्रद्धा है, उससे भी वे हट जाते है। ___जव व्यक्ति के जीवन मे शुद्ध श्रद्धा (उक्त त्रिवेणी पर) नही होती,,तो वह जो भी श्रद्धा, प्ररूपणा या क्रिया करता है, वह सव राख के ढेर पर लीपने के समान व्यर्थ श्रम होता है। उन क्रियाओ या प्ररूपणाओ से सिवाय ससारपरिभ्रमण के और कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । उन क्रियाओ आदि मे लगाया हुआ समय, श्रम, शक्ति और दिमाग सब कुछ अपने ही हाथो व अपने ही पैरो पर कुल्हाणी मारने सरीखा होता है। साधकजी गये थे मुक्ति की साधना करने और फस गये ससार (भोग) की साधना मे, ऐसा ही कुछ हो जाता है। श्रद्धा, सम्यक्त्व, श्रद्धान, सम्यग्दृष्टि या सम्यग्दर्शन, ये सव एकार्थवाचक हैं । जो वचनसापेक्ष व्यवहार का आदर करना चाहता है, उसे शुद्ध गुरु और सद्धर्म का शरण लेना ही होगा। तभी उसका शुद्ध श्रद्धान टिक सकेगा। यानी उसे व्यवहारदृष्टि से सम्यक्त्व प्राप्त हो कर टिक सकेगा । सम्यक्त्व के विना जितनी भी क्रिया (चाहे वह भगवान् का नामजप, गुणगान या स्तुति अथवा वाह्यपूजा, भक्ति भी क्यो न हो) की जायेगी, भले ही वह वचनसापेक्ष व्यवहारयुक्त हो, तो भी राख पर लीपने के समान निष्फल होगी। मतलव यह है कि सम्यक्त्व के बिना सव वृथा है, एक अक के बिना विदियो के समान Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अध्यात्म-दर्शन है। जैसे गनी, ऊपडनावड, विगही जोर बूढानरंट भी जगह गाजकिय विना उस पर कोई गोबर का लेपन करता है, तो वह फिजूा जाता है, किन्तु साफ की हुई, शुद्ध तगभूमि पर किया हआ लेपन की सार्थक हाता है। वैसे ही श्रद्धा से साफ की हुई मुल आत्मभूमि (पा चिन मि) पर दगुरुधन की लगन में की हुई शोध भी तभी फलित होती है, और नमी आत्मभूमि पर किया हुआ क्रिया का लेपन स्थायी और कारगर होता है। ' इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने एक अध्यात्म मानक को अध्यात्म ' की बुनियाद पक्की करने का स्पंप्ट मकेत दिया है और उनके लिए उसे प्रतिक्षण यह चिन्तन करने के लिए बाध्य दिया है कि विशुद्ध देव-गुरु-धर्म कैसे मिल सकते हैं ? इनकी नेवाभक्ति में कैसे प्राप्त हो मपनी है ? शुद्ध और अशुद्ध देव के, पवित्र और अपवित्र गुरु में तथा सद्धर्म और कुधर्म के क्या-क्या लक्षण हैं ? इन्हे कसे पहिचाने । उनकी शुद्धता और शुद्ध प्रज्ञा कैसे टिक सकती है ? गुरु के लक्षण तो 'आतमनानी श्रमण पाहावे, आदि पदो द्वारा श्रीआनन्दधनजी पहले बना चुके है, देव के विषय में भी आगे एक म्तुति मे विस्तार से कहा जाएगा । ___ अगली गाथा में शुढ चारित की पहिचान के लिए श्रीआनदंघनजी 'निर्भीक हो कर स्पष्ट सत्य कह देते हैंपाप नहीं कोई उत्सूत्र-भाषण जिस्यो, धर्म नहीं कोई जग सूत्रसरीखो। सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहनो सुद्ध, चारित्र परीखो। अर्थ जगत् मे उत्सूत्रभाषण (श्रुत या सिद्धान्त से विरुद्ध प्ररूपण) जैसा कोई भी पाप (अशुभफल) नहीं है, इसी तरह सूत्रानुसार प्ररूपण-आचरण के सरोखा कोई धर्म नहीं है । वास्तव मे सूत्रानुसार जो भव्य साधक क्रिया करता है, उसी का चारित्र शुद्ध समझो। उसके शुद्धचारित्रं की इसी प्रकार परख लो। ' भाष्य साधक के शुद्धचारित्र की परख '' ससार मे वहुत-से साधक ऐसे हैं, जो मृतागही है, पथ-गच्छवादी हैं या सम्प्रदायवादी हैं, अथवा स्वकपोलकल्पित देव-गुरु-धर्म की मान्यता को . . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २६३ प्ररूपणा करते हैं, या फिर वे अपना मनमाना विचार-आचार बना लेते है । ये और ऐसे लोग अपनी मानी हुई बात पर शास्त्र की। छाप लगाते है, शास्त्र की दुहाई देते हैं, शास्त्र का प्रमाण देते हैं और शब्दो की खीचतान · करके अपनी अयथार्थ वात को 'शास्त्रसम्मत सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, ऐसे , महानुभाव उत्सूत्रभापी है, वे सिद्धान्तविरुद्ध, सूत्रो (श्र तो), से विपरीत श्रद्धा, प्ररूपणा और आचरण करते हैं। उनका; यह कार्य पाप हे, जो बहुत ही घोर है जिसका फल भी भयकर अशुभ है। . . . . . . उत्सूत्रभापण का रहस्यार्थ है-सिद्धान्त 'या वीतरांगवचन "(श्रुत) से निरपेक्ष प्ररूपण करना, सूत्रनिरपेक्ष आचरण एवं श्रद्धाने करना। वास्तव मे शास्त्र या सूत्रमाधक के लिए कार्य कार्य का निर्णय देते है। जब साधना मे कोई उलझन, बहम, शका या सशय आ पडे, तब शास्त्र ही उस अधेरे मे प्रकाश का काम करता है । भगवद्गीता में भी कहा है कि तुम्हारे लिए कार्य और अकार्य की व्यवस्था मे शास्त्र ही प्रमाण हैं । जो शास्त्रोक्त विधिविधान को छोड कर अपनी स्वच्छन्दता से मनमामी प्रवृत्ति करता है, वह 'सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। इस दृष्टि से जो व्यक्ति शास्त्रविहित सिद्धान्त-सम्मत बातो की उपेक्षा करते हैं या उनकी मखौल उड़ाते हैं और मनाना प्रचार करते है, 'मनमाना आचरण करते है, वे पाप करते हैं। इसीलिए श्रीआनन्दधनजी सूत्र-सिद्धान्त से विरुद्ध प्ररूपण को पाप' और सूत्रसम्मत प्ररूपण व आचरण को धर्म कहते हैं । प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानो मे सबसे बड़ा पाप', मिथ्यादर्शनशत्य है.। सबसे बडा धर्म सूत्र-चारित्रधर्म है। ..... .. .... .. . .: - __- नयप्रमाणयुक्त जिनप्रवचन सूत्र कहलाता है, जो कथन नयो और प्रमाणो से अनुप्राणित अनेकान्तदृष्टि मे निश्चय-व्यवहार, दोनो को मद्देनजर रख कर किया जाता है, उसे भी जिनवचनसापेक्ष (सूत्रसम्मत) भापण कहा जा सकता है । इस दृष्टि से उक्त गाथा को भावार्थ यह होता है कि जिनवचन , १ तस्माच्छास्त्र प्रमाण ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । य शास्त्रविधिमुत्सृत्य वर्तते कामकारत । .. .. न स सिद्धिमवाप्नोति -- - . Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अध्यात्म-दर्शन निरपेक्ष, नयप्रमाणयुक्तमूत्र मे विरुद्ध, न्यून या अधिक कथन, भाषण या आचरण करने से बढ़कर और कोई पाप नहीं और जिनवचनगापेक्ष नयप्रमाणयुक्त मूत्रानुसार यथार्थ प्ररूपण, कयन या आनरण करने के समान कोई धर्म नहीं है । जो भव्य साधक उपयुक्त विधि से सूत्रानुसार क्रिया करता है, उसी का चारिय शुद्ध समझना चाहिए। उसका तात्पर्य यह है कि जो भव्य जीव वीतराग परमात्मा की आज्ञा (वचन) का अनुसरण करते हुए मिया (धर्माचरण करता है, भानयोग मे समन्वित क्रियायोग की साधना करता हुमा आत्मविकास का पथ तय करता है, उनका चारिश शुद्ध है। इसके विपरीन जो मनमाना चलता है, वह चाहे जितना बडा तपस्वी हो, फियाकाण्डी हो, महत हो, या आडवरो और चमत्कारो से प्रभावित कर देता हो, उनका चारित्र शुद्ध नहीं कहा जा सकता , क्योकि उसका सारा आचरण मूघनिरपेक्ष या आज्ञावाह्य होने से सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण सम्यक्तचारियस्य नहीं है। अव अन्तिम गाया मे वीतरागपरमात्मा को चरणसेवा के लिए बताये हुए उपायो को हृदय मे सजो कर भक्तिभावपूर्वक जो नाधनापथ पर चलना है, उसका फल बताते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते हैंएह उपदेशनो सार संक्षेपथी, जे नरा चित्तमां नित्य ध्यावे। ते नरा दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत 'आनन्दघन' राज पावे । ॥धार०॥७ अर्थ इस पूर्वोक्त उपदेश का सार जो व्यक्ति प्रतिदिन हृदयंगम करके ध्यान मे रखते हैं, वे भक्ति शील व्यक्ति चिरफाल तक दिव्य (देवलोक के) सुखों का अनुभव करके अन्त में अवश्य (निश्चित) ही आनन्दमन (परमात्मा) का राज्य-- मोक्षराज्य प्राप्त करते हैं। भाष्य इस स्तुति मे वीतराग परमात्मा की चरणसेवा के लिए श्रीआनन्दघनजी ने उन सब वाधकतत्वों की ओर से सावधान रहने का सकेत किया है, जो वाहर से तो परमात्मा की सेवा मालूम होती है, परन्तु वास्तव मे सेवा की ओट मे वे ससार मे परिभ्रमण कराने वाली हैं। उनमे से मुख्यतया निम्नलिखित वातें ये हैं-१-क्रिया के विविध ससारपरिभ्रमणजनक फलो का विचार Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २६५ किये विना परमात्मा की सेवाभक्ति के नाम पर नामकामना वश विविध अनुप्ठान करना-कराना। २-किसी लौकिक या भौतिक फल प्राप्ति की माशा से जानबूझ कर भगवान् के नाम की ओट मे त्रिया करना, जो मोक्षप्राप्ति के बदले ससार मे भटकाने वाली हो। ३--गच्छ, मत, पथ, सम्प्रदाय आदि का कदाग्रह, कलह वढाना, जनता मे भगवान् के नाम पर सम्प्रदायपोषण, परस्पर कलह, झगडे, विद्वेष आदि पैदा करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना। ४-तत्त्वज्ञान की बातें बघार कर भोलेभाले लोगो को भगवान् के नाम से सम्प्रदाय, मत, पथ, चला कर उसमें फंसाना, कट्टरता बढाना, और उनसे स्वार्थ सिद्ध करना, अथवा स्वय मोहजाल में फंसना। ५.- अनेकान्तवादयुक्त कथन से ओतप्रोत जिनवचन या कथन की उपेक्षा करके मनमाना व्यहार-धार्मिक आचार-विचार प्रचलित करना, और वह भी परमात्मा के नाम की ओट मे । अथवा ऐसे स्वच्छन्द धर्माचार एव विचार का वीतराग के नाम से पोपण करना, जिससे सिवाय ससारफल के और कुछ पल्ले न पडता हो। ६-देव, गुरु धर्म पर शुद्धश्रद्धा व शुद्ध विचार न रखना, अथवा इनके नाम से मिथ्या देव, गुरु, धर्म को पकड लेना अथवा इन्हे अनावश्यक बता कर स्वच्छन्द जीवी, पुद्गलानन्दी बनना-बनाना। ७-सूत्रविरुद्ध प्ररूपण, श्रद्धान, आचरण एव अनुष्ठान करना-कराना। ये सव बातें परमात्मा की चरणसेवा मे वाधक है, इनसे बच कर मोक्षप्राप्तिजनक नि स्वार्य क्रियाएँ करना, लौकिक फलाकाक्षा से कोई भी अनुष्ठान न करना, न लौकिक फल प्राप्त करने की अभिलाषा रखना एव गच्छ-मत पथादि के कदाग्रह एव झगडे छोडकर, समभावपूर्वक जिनाज्ञानुसार श्रद्धा, प्ररूपणा और सयमसाधना करनी चाहिये । आत्मा एक है, मोक्षमार्ग एक है, मोक्ष भी एक है। भव्यमुमुक्षु के लिए उचित है, कि एकात्मक सुखप्राप्ति के निरवद्य पथ को अपना कर सवर-निर्जरापूर्वक तपसयम की क्रिया करे। विविध भौतिक फल की इच्छा से की गई क्रिया के फलस्वरूप अनेक गतियो मे बार वार जन्म लेना पडता है, Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अध्यात्म-दर्णन उससे आत्मसुख की हानि होती है । अत. गनार की मृलर प क्रियानो का परि त्याग करना चाहिये । मोहमगता के अधीन हो कर या मूग-निद्धान्त के आशय को छोड कर मनमानी देव-गुरु स्थापना, बना, निन्यायाण्ट को ले कर बने हुए गच्छ, या सम्प्रदाय के भेदो की पुष्टि के लिए आदेश-उपदेश करना तथा अपनी सुखमुविधा तथा भौतिक सुख व सम्मान के लिए तत्त्वचर्चा वरना आत्मार्थी के लिए शोभाम्प्रद नहीं है । आत्मधर्म की अपेक्षा ने रहित अगत्य वचनव्यवहार का त्याग करना चाहिए । नूनविन्द्ध प्रत्पण या भी त्याग करना आवश्यक है । साधारण जनता राग-रग के विषयो के प्रति लुब्ध हो कर सयम से त्रलिन हो तथा उसमे मिर्फ धन, पुत्र एव सागारिफ गुस की एपणा बढे, इस प्रकार के उत्सूत्रभाषण का त्याग करना चाहिए। ये और इस प्रकार के उपदेश-वचनो का सार मुन कर जो इनसे हृदय में मादर्शरूप मे धारण करेंगे, उनया वार वार चिन्तन करेंगे, आदरवंश उनका अमल करके जो तन्मय बनेंगे, वे भव्य नर-नारी चिरकाल तवा दिटर- अद्वितीय चित्तसमाधिरूप , सानावेदनीय मुख का अनुभव करने आत्मगुण मे एकरम हो दर निश्चित ही मोक्ष मे जायेगे, यानी सच्चिदानन्दम्पप-मामपद में लीन हो जायेगे । निवर्प यह है कि परमात्मा की चरणमेवा का जो मूल प्रयोजन है, उसे ऐसे मुमुक्षु सिद्ध कर लेंगे। श्रीआनन्दधनजी का वचन उत्तराध्ययन-मूत्र एव सिद्धान्त से पूर्णत सम्मत है कि पूर्वोक्त गाथाओ मे वताए हुए उपदेश के अनुसार चलने से छठे गुणस्थान मे रहे हुए साधक को कभी-कभी सानवा गुणस्थान प्राप्त होने से देवगति का आयुष्य बँध जाता है । वहाँ से दिव्यसुखो का अनुभव करने के बाद च्यव कर मनुष्यगति मे आ कर जाति आदि से समृद्ध कुल मे पैदा होता है, यहाँ उसे १० वोलो की प्राप्ति होती है । तदन्तर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तत्य ठिक्चा जहाठाण, जक्खा आउक्सए चुया । उति माणस जोणि, से दसगेऽभिजायए ॥१६॥ भुच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूपे अहाउय। पुव्व विसुद्धसद्धम्मे, केवल बोहि बुज्झिया॥१६॥ तवसा धम यकम्ते, सिद्ध हवइ सासए ॥२०॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २६७ तप, सवर एव भावनाओ के बल से ससार का उच्छेद करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यानी जमन्य तीसरे भव मे, मध्यम पाच भव मे और उत्कृष्ट आठ भव मे तो उसका मुक्ति-परमात्मपद प्राप्त करना निश्चित है। . सारांश इस स्तुति मे प्रभु की चरणसेवा को तलवार की धार पर चलने से भी दुर्लभ बता कर बीच की गाथाओ मे उसके अनेक कारणो का उल्लेख किया है। यद्यपि परमात्मा की चरणसेवा का तात्पर्य तो शुद्ध आत्मस्वभावरमणरूप चारित्र की माधना मे है, अथवा व्यवहार से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना से है, वि तु बीच मे जो भ्रातियाँ, अटपटी घाटियां, भय, प्रलोभन, स्वार्थ, लोभ आदि के रूप में रुकावटें या देवादि के प्रति श्रद्धा की स्खलना या विकृत श्रद्धा आदि विघ्नबाधाएँ आ जाती हैं, उनसे निपटना टेढी खीर है । इसलिए श्रीआनन्दधनजी, ने प्रत्येक मुमुक्षु साधक को सावधान रहने के लिए सच और साफ-साफ बातें कह दी हैं। और अन्त मे सच्चे माने मे प्रभुचरणसेवा का फल दिव्यसुख-प्राप्ति और अन्त मे मोक्षप्राप्ति बता दी है। ऐसी चरणसेवा परमात्मा के पास पहुँच कर ही की जा सकती है । परन्तु परमात्मा और आत्मा के बीच की दूरी है, उसे काटने के लिए धर्म की आराधना जरूरी है। इस बात को १५वे तीर्थकर धर्मनाथ की स्तुति के माध्यम से श्री आनन्दघत्तजी बताते हैं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५: श्रीधर्मनाथ-जिन-स्तुतिपरमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म (तर्ज-रसिया, सारग, राग गौडी) धर्म जिनेश्वर गाऊं रग शुभग म पडशो हो प्रीत, जिनेश्वर ! 'बीजो मनमन्दिर आरग नहीं, ए अम कुलवट-रीत, जिनेश्वर । धर्म० ॥१॥ अर्थ इस अवसर्पिणी काल के १५ जिनेश्वर श्रीधर्मनाय-स्वामी (परमात्मा) का गुणगान आत्मभाव के रंग मे रग कर करता हूँ। प्रभो । मेरी आपके ताप जो प्रीति है, उसमे भग न पडे, यही चाहता हूँ । मैं आप (वीतराग) के सिवाय अन्य किसी को अपने मन-(मनोयोगरपो) मन्दिर मे प्रविष्ट नहीं कराऊंगा; यह हमारे (सम्यग्दृष्टि के) कुल की कुलीतता (टेक) की रीति (परम्परा) है।। भाष्य परमात्मा के साथ अभिन्नप्रीतिरप धर्म पूर्वस्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने वीतराग-प्रभु की चरणसेवा का व्यवहारधर्म बताने का उपक्रम किया है, इस स्तुति मे उन्होंने परमात्मा के साथ अभिनता स्थापित करने के लिए निश्चयधर्म बताने का प्रयत्न किया है। वास्तव मे आत्मा और परमात्मा के बीच में जो दूरी है, उसे मिटाने के लिए धर्म ही एकमात्र पुल है। परन्तु परमात्मा के साथ सदैव अभिन्नता टिकाये रखने वाला धर्म स्वरूपसिद्धिरूप धर्म है, जिसे परमात्मा के भक्त को अपने जीवन मे अमूल्य रत्न की तरह सुरक्षित रखना है, उसे यात्मस्वरूप के दीपक की लौ सदा प्रज्वलित रखनी है । धर्म गया तो सब कुछ गया। जैसे पतिव्रतास्त्री अपना धर्म अपने प्राणो की तरह सुरक्षित रखती है, समय आने पर वह प्राणो को होम देती है, मगर धर्म को जरा भी आँच नहीं आने देती, वैसे ही परमात्मा का भक्त Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म २६९ अपने अभिन्नप्रीतिरूप धर्म को जरा भी आँच नहीं आने देता, भले ही उसके लिए उसे सर्वस्व होमना पडे । पतिव्रता स्त्री उमग मे आ कर पति के गुणगान अन्तर से करती है, वह किसी के द्वारा गुणगान के लिए मजबूर नहीं की जाती और न ही किसी प्रकार का प्रलोभन दे कर उसे गुणगान के लिए तैयार किया जाता है, उसी प्रकार प्रभुप्रीतिरूपी धर्म का पालक भक्त भी किसी के दवाब, भय, या प्रलोभन मे न आकर स्वत प्रेरणा से उमग मे आ कर प्रभु के गुणगान करता है। जिस प्रकार पतिव्रतास्त्री अपने पति के सिवाय दूसरे किसी पुरुप को (दाम्पत्यप्रेम की दृष्टि से) स्वप्न मे भी मन मे नही लाती, यही उसकी कुलीनता की रीति है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि ज्ञानचेतनावान भव्यात्मा की भी श्रद्धा दृढ ऐसी हो जाती है कि धर्मनाथ सिद्धप्रभु वी और मेरी आत्मा मे तुल्यता है, इसी कारण से प्रभु के साथ मेरी प्रीति जुडी है, उसमे शुद्ध देव के सिवाय दूसरे किसी रागी और द्वेपी देव को मनमन्दिर मे जरा भी नही लाना । जैसे पतिव्रतास्त्री को हरदम खटका रहता है कि कही मेरी और पति की अभित्रप्रीति में कोई भग न पड जाय, कोई विघ्न न डाल दे , वैसे ही सम्यग्दृष्टि साधक मे के मन भी यह खटका रहता है कि मेरे और परमात्मा की जुडी हुई प्रीति मे वीच मे कोई भग न डाल दे। इसलिए मस्त योगी श्रीआनन्दघनजी अन्तर से पुकार उठते हैं-'भग म पड़शो हो प्रीत, जिनेश्वर । स्वरूपसिद्धि मे विघ्नरूप है-अन्त करण मे अन्य रागी, द्वेषी सस्त्रीक देव का ध्यान और बहिर्मुखी बनाने वाले अनात्मतत्त्वो पर राग। परन्तु जब साधक इन दोनो का परित्याग कर देता है, तब साधक कहता है-'मेरा आत्मभाव और परमात्मा का स्वभाव एक है, पृथक् नही है, इसलिए उनका और मेरा कुल एक ही है। जिम मार्ग से प्रभु को मुक्ति या सिद्धि मिली है, उसी मार्ग से मैं भी चलूं और प्रभु के साथ अखण्ड प्रीति के लिए उनका सान्निध्य प्राप्त करू । प्रभु की तरह मुझे भी मोक्ष प्राप्त करना है, इसलिए कर्मों पर विजय पा कर मुक्त या मिद्ध प्रभु का गुणगान करू ।" 'ए अम कुलवटरीत' कह कर तो साधक के द्वारा अनन्य-समर्पण का भाव अभिव्यक्त किया गया है । श्रीआनन्दघनजी ने भक्ति मे मन को एकाग्र करने के लिए Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस धर्म का समर्थन किया गया था, उस धर्म के सम्बन्ध में अगली गाया गे जगत् के लोगो की मन यिति प्रगट करते हैंधरम धरम करतो जग सह फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म, जिनेश्वर । धरम जिनेश्वर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बांधे हो कर्म, जिनेश्वर ॥ धर्म० ॥२॥ अर्थ संसार मे सब लोग अलग-अलग नामो से परुटे हुए विभिन्न तथाकथित धर्मों को धर्म धर्म कह कर पुकारते हैं, परन्तु चीतगग प्रमो ! यही दुग है कि वे धर्म का रहस्य नहीं जानते । आत्मधर्ममय श्री धर्मनाय वीतरागप्रभु ो चरण (आत्मस्वभावरमणरूप धर्म) का ग्रहण कर लेने पर भवन्त्रमण कराने वाले वमों का बन्ध कोई भी भक्त नहीं करता। भाष्य विविध सासारिक लोगों को धर्म की रट कई लोग कहते हैं कि कर्ममुक्त करने वाले (मूत्र-चारियरूप या आत्मरमणतारूप) धर्म का आचरण तो बहुत ही आमान है, इस मे कुछ भी करने-घरने की क्या जरूरत है ? इगी कारण बहुत-से लोग धर्म धर्म चिलाया करते हैं । वे वात बात मे ईमान, धर्म आदि को सौगन्ध जाते है, जब भी कोई दूसरे धर्म का व्यक्ति प्रसिद्धि या तरक्की पा जाता है, तव ऐसे घमंवारी लोग महमा चिला उठते हैं-'धर्म खतरे मे' है । और सिर्फ बाह्यक्रियाकाण्डो या साम्प्रदायिक कदाग्रहो मे रचेपचे लोग अमुक धर्मस्थान मे जा कर क्रियाएँ करके या कुछ पुण्य की प्रवृत्ति करके अपने आपको आश्वासन दे लेते हैं कि हमने धर्म कर लिया।' और इसी धर्म की ओट मे वे दूसरो को ठगते हैं, चकमा दे देते है । परन्तु वीतराग परमात्मा के प्रति जमिनप्रीतिरूप सच्चा वीतरागतारूप धर्म तो आत्मधर्म है, जिसका लक्षण 'वस्तु वा स्वभाव बताया गया है। इसी प्रकार जगत् के प्राय सभी लोग धर्म-धर्म चिल्लाते हैं, कोई कहता है-मैं जैन हूं, कोई कहता है-मैं बौद्ध हूं। कोई अपने को शंत्र बताता है, यो तो प्राय मभी कहते हैं, और ऐसे सम्प्रदायगत धर्म के लिए लडने-मरने को तैयार हो जाते हैं । परन्तु वे प्राय धर्म के मर्म को नहीं जानते, और न वे वास्तविक धर्म की Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूपी धर्म ३०१ आराधना करते हैं। वे यथार्थ धर्म से लाखो कोस दूर हैं । या तो वे लोग धर्म की कोरी बाते करते हैं, या धर्म का दिखावा करते है। आत्मधर्म की बात तो विरले ही जानते है । धर्म की आत्मा को यथार्थरूप से पहिचानना तथा • आत्मिक धर्म कौन-मा है, जो परमात्मा के निकट पहुँचा सके , इसे भी कोईकोई माई का लाल जानता है। खाना पीना, मौज उडाना, इस शरीर के कार्य को ही वे धर्म मानते हैं । आत्मा शरीर से अलग है, इत्यादि वाते वे जब तक नही समझते, तब तक सच्चा आत्मिक धर्म या परमात्मा के साथ अभिन्नतारूपी धर्म को वे नहीं समझते। . धर्म शब्द से यहाँ आत्मधर्म (स्वरूपाचरण-चारित्र) समझना चाहिए। उस चारित्र (धर्म) के वल से व्यक्ति नये कर्मों को नहीं बाधता और उसके पुराने कर्म समय पर परिपक्व हो कर भुगत लेने से खिर जाते हैं । और अन्तिम परिणाम यह आता है कि धर्मनायजिनेश्वर जिम स्वरूप मे स्थिर है, उसी स्वरूपधर्म को वह उपलब्ध कर लेता है। और यह धर्म ही वीतरागपरमात्मा के चरण ग्रहण करने वाला हो जाता है। जब तक आत्मा को यह अनुभव नही हो जाता कि मैं परमात्मा हूँ, तव तक कर्मबन्ध होता रहता है, परन्तु धजिनेश्वर (परमात्मा) के चरण पकडने पर उनकी शरण मे जाने पर यानी परमात्मा के साथ अभेदरूप हो जाने पर अयवा अपनी आत्मा परमात्मस्वरूप प्रतीत हो जाने पर कोई कर्म बाध ही नही सकता, क्योकि कर्मवन्धनो का रुकना ही धर्मप्राप्ति का प्रयोजन या फल है। धर्म के आते ही कर्मवन्ध रुकने लगता है, इस रहस्य को तथाकथित धर्मवादी नहीं जानते। __आगामी गाथा मे यथार्थ धर्म की प्राप्ति से क्या लाभ होता है ? इसे बताते हैं प्रवचन-अजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान, जिनेश्वर ! हृदयनयन निहाले जगधरणी, महिमा मेरुसमान, जिनेश्वर । धर्म० ॥३॥ १ 'वत्थुसहावो धम्मो'-वस्तु का स्वभाव धम है । आत्मद्रव्य का स्वभाव धर्म है। । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ अध्यात्म-दर्शन अर्थ साक्षात् आत्मानुभवी (आत्मस्वरप के यथार्थ ज्ञाता) सद्गररूपी माघ यदि प्रवचन (पारमायिक सर्वहितकारी, नर्व जीवों के प्रति उच्च कोटि फा भावकरुणाल्प उपदेश=भाप्रवचन स्पी दिव्य अंजन ले कर हृदयरपी नेत्रों में आंजें तो शिप्यस्प जिज्ञासु साधक का दर्शनमोह-मिथ्यात्वरूप नेत्रान्धवरोग दूर हो जाता है, और वह परमोत्कृष्ट आत्मधर्मरप या आत्मगुणरत्नो का अविनाशी निधान (धन का खजाना) को प्रत्यक्ष देखने लगता है। साथ ही ऐसे खुले हुए हृदयचक्षु (दिव्यनयन) से मेरुपर्वत जैसी महिमा वाले जगत् के स्वामी--परमात्मा का साक्षात् दर्शन हो जाता है । भाष्य धर्मप्राप्ति का फल • परमात्मसालात्कार इस गाथा मे आत्मधर्म का फल बताया गया है। जो व्यक्ति इस पात्मधर्म को प्राप्त कर लेता है, उनके हृदय की आखो मे यदि आत्मस्वरूप के ज्ञाता गुरुदेव प्रवचनत्पी अजन आज दें तो अपनी आत्मा ही गुणरत्नो की निधि के रूप मे दिखाई दे सकती है। साथ ही मेहगिरि-महम महिमावान् वीतराग भगके भी नाक्षात्कार होने लगता है । मसार में बहुत-से स्यूल वुद्धि वाले लोग परमात्मा एव आत्मा को प्राप्त करने के लिए पहाड, नदी, गुफा, तीर्य आदि में जाते हैं, परन्तु सद्गुन के ससिद्धान्त को हृदयगम किये विना इनके वास्तविक दर्शन प्राप्त नहीं हो सकते, और न ही परमात्मधन मिल सकता है। प्राचीन काल मे तान्त्रिकविद्या के प्रभाव मे भजन लगा कर जमीन में गडी हुई वस्तु या निधि को देख सकते ये, वर्तमान मे भूगर्भवेत्ता जमीन के गर्भ में पानी आदि का पता लगा लेते हैं। इसी प्रकार सद्गुरु भी प्रवचनरूपी अजन हृदयचक्षु मे मोज दें तो उसके महाप्रकाश से साधक भी आत्मा की महामूल्य गुणनिधि तथा तीन लोक के स्वामी आत्मदेव तया यात्म परमात्मधन, एव लोकालोक-स्वरूपयुक्त ज्ञानधन जानदेख सकता है। इस गाथा मे चार वाते सूचित की गई है-(१) समदर्शीसद्गुरु को ढूंढ कर उनकी सेवा करना, (२) निग्रंन्यप्रवचन =आत्मलक्षी आप्तवचन का श्रवण-ममन करना, (३) सद्गुरु के उपदेशरूप अजन से हृदयनेत्र मे दिव्यप्रकाश Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म ३०३ प्राप्त करना, (४) आत्मा-परमात्मा की स्वरूपनिधि का देखना । इन चारो के द्वारा परमात्मप्रीतिरूप धर्म का पालन करके धर्मनाथ भगवान् के साथ अभिन्नता स्थापित करना-परमात्मस्वरूप बन जाना ही इसका वास्तविक फल है। , अब अगली गाथा मे इससे आगे की प्रक्रिया बताते हैं दोड़त दोड़त दोड़त दोड़ियो', जेती मननी दोड़, जिनेश्वर ! प्रेमप्रतीत विचारो, दकड़ी गुरुगम ले जो जोड़, जिनेश्वर ॥ धर्म ॥४॥ अर्थ प्रभु से प्रीति जोड़ने के लिए मैं खुब दौड़ा, खुन दौडा, मन की जितनी दौड़ (पहुँच) थी, उतने तक दौड़ा । परन्तु किसी ने कहा-अपनी बुद्धि के साथ गुरुदेव से मिले हुए निर्धारित मार्गदर्शन (गुरुगम) को जोड़ कर समझोदेखो तो तुम्हें प्रभु के साथ निकट ही प्रीति है इस बात की प्रतीति हो जायगी। भाष्य __ प्रभु से प्रीति जोड़ने का आसान तरीका योगी श्रीआनन्दघनजी ने यहां परमात्म-प्रीतिरूप धर्मपालन के बारे मे साधक की उलझन और उसको सुलझाने का आसान तरीका अभिव्यक्त किया है। क्योकि जगत् मे प्रभुप्रीतिरूप धर्म भव्य प्राणी को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक उसे सद्गुरु का मार्ग-दर्शन न मिले, परमात्मा के प्रति नि स्वार्थ या निष्काम प्रेमभाव से उत्कट श्रद्धा-प्रतीति न हो । तात्पर्य यह है कि जहाँ तक भव्यात्मा को सम्यग्दर्शन और गुरु-मार्गदर्शन, ये दोनो प्राप्त नही, होते वहाँ तक शुद्धात्मा या धर्मदेवरूप परमात्मा के साय सच्ची प्रीति नहीं होती। जिसे ये दोनो प्राप्त हो जाते हैं, वह साधक अपनी जानचेतना के बल से अपना अनुभव प्रगट करता है-"प्रमो ! मैं अपनी बात क्या कहूँ? मैं धर्म-धर्म रटता फिरा, धार्मिक होने का दावा किया, धार्मिक होने का दिखावा या १ कही कही 'दोडियो' का अर्थ किया गया है-दौडना। यानी मन की जितनी दौड है, वहाँ तक खूब दौड लगा लो। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अध्यात्म-दर्शन दम्भ किया, इसके लिए मैं जलती, वृक्षतीर्थ पर्वतनीयं, गति या मन्दिरम्य तीर्थ आदि अनेक स्थानो पर परमात्मा के दर्शन करके परमात्मप्रीतिर धर्माचरण की दृष्टि से बहुत भटका, जहां-जहाँ मेग मन, पहुँच जाता था, वहां-वहां दौड लगाई। अर्थात्-मेरे मन ने जहां जाने का मयत्य विया, वहाँ दोटा गया । सारय, न्याय, मीमामा, वेदान्त आदि दर्शनो में बनाई हुई कल्पनाओ के वश हो कर सभी साधनाएं की। बहुत-सी दफा अमुक तीर्थ में परमात्मा होंगे, यह सोच कर वहां चक्कर लगा आया, और पूर्वोक्त धर्म को भी अनेक जगह व्यर्थ ही खोजा, फिर भी मफनता न मिली। मुझे अन्तर्मुखी हो कर' आत्मतीर्थ में म्वम्वरूपदर्शन में दुबकी लगानी थी, जो कि मेरे पान ही था, मगर वहां नहीं लगाई। जो वन्तु अत्यन्त निकट थी उने पहिचान न सका और जहाँ-नहा दौडधूप की, उसे ढूंढने के लिए आकाश-पाताल छान डाला।" चिन्तु श्रीआनन्दघनजी उक्त जिजागु भव्यप्राणी मे कहते हैं-'इस प्रकार वाहर भटकने की तुम्हें जरूरत नहीं। जिमे तुम बाहर टूट रहे हो, वह विभूति तुम्हारे अपने अन्दर है, तुम्हारे माय है, तुम्हारे पास है, वह तो तुम (स्व-आत्मा) ही हो। अत पहले अपने (आत्मा) को जानो, फिर उसके बारे मे तन्त्रदर्शन करो, तत्पश्चात् आत्मज्ञानी समदर्शी सद्गुन का मार्गदर्शन लो, उनके व आप्तपुरषो के वचनो का श्रवण-मनन और ध्यान करो, गुरु के उपदेश को आत्मा के साथ जोड दो। यही मश. प्रेम, प्रतीत, विचारो' गुरु, गम लेजो, इन पदो के साथ अर्यसवेत है, प्रेम के साय मामायिकादि चारित्र, का प्रतीत के साथ सम्यग्दर्शन का, 'विचारो' के माय सम्यग्ज्ञान या ध्यान का, गुरु के माथ आत्मज्ञानी समदर्शी सद्गुरु का, 'गम के माय जिनप्रवचन के श्रवणमनन या मार्गदर्शन का 'ल जो जोड़' पदो के माय स्वज्ञानम्वदर्शन-स्वचारित्र, और मद्गुरु की सेवा-उपासना करके उनके द्वारा आत्मपरमात्ममिद्वान्त का श्रवण-मनन करके आत्मा मे ही इस उपदेश को जोडो । इसी तरीके से धर्ममय शुद्धात्मा (परमात्मा) से अखण्ड प्रीति होगी। आत्मापरमात्मा की स्वरूपप्राप्ति (अखण्डप्रीति) का असली साधन व आलम्बन - १ कहा भी "इद तीर्थमिद तीर्थ भ्रमन्ति तामसा जना. , आत्मतीथन जानन्ति, सर्वमेव निरर्थकन् ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म ३०५ गुरु, शाम् एव गुरुगम ही है। गुरुप्रेरणा मे परतन्त्रता की कल्पना बिलकुल न करो। गुरुदेव तुम्हे युक्तियुक्त महाव, परामर्श, मार्गदर्शन , कई उलझनो के हल द्वारा तुम्हारी गुत्यियो को सुलझाने की कोशिश करेगे । इसके कारण प्रभुप्रोनिल धर्ग की प्रतीति तुम्हारे लिए अत्यन्त जासान और निकट हो जायगी । इमीतिए कहा-"प्रेमनीन विचारो टू कडो, गुरुगम लेजो जोड ।२ निष्कर्ष यह है कि मुमुक्ष उक्त साधन को छोड कर अपने मन कल्पित साधनो में दीड न लगाए, तया ययार्थ उपासना और यथार्थ ज्ञान से स्वरूपानुसधान करें। परन्तु परमात्मप्रीतिरूप धर्मपालन के लिए श्रीआनन्दघनजी साधक को एकपक्षी प्रीति छोड कर उभयपक्षी प्रीति-सम्पादन के लिए अगली गाथा मे प्रेरणा करते हैंएफपखी किम प्रीति परवड़े, उभय मिल्या हाय सधि, जिनेश्वर ! हुँ रागी, हु मोहे फदीयो, तुनीरागी निरबन्ध, जिनेश्वर ॥ धर्म० ॥५॥ अर्थ जिनेश्वर प्रभो | अब मैं समझा कि एकतरफी प्रीति कैसे पोसा सकती है, सही जा सकती है ? क्योकि मेल (सन्धि-जोड) दो के मिलने पर ही होता है, क्योकि मैं रागी (कषायवान) हूँ, मोह के फदे मे फंसा हुआ हूँ और आप वीतराग (पादिदोपरहित) एव कर्मवन्धरहित हैं । १ जैसा कि आचारागसूत्र में कहा है-'सहसमियाए पयवागरणेण अन्नेसि वा अंतिए सोच्चा। दोडियो का अर्थ दोडना करने पर मतलव निकलता है कि जगन्नाथ परमात्मा को अन्तश्चक्षु मे देखते ही तुरन्त गुरुगम साथ मे ले कर तुम्हारी आत्मा मे जितना विकास हुआ हो, उसके वलानुसार जितने जोर से दौडा जा सके, उतने जोर से परमात्मा तक पहुँचने के लिए दोडते ही रहना, अर्थात् आत्मविकास मे आगे बढ़ते ही रहना। ऐसा करने पर तुम्हारी ओर से परमात्मा मे हुई प्रीति की प्रतीति तुम्हे अविलम्ब ही समझ में आ जायगी। अगर साथ मे गुरुगम नही रखोगे तो आगे चल कर भूल होते ही उनशमयणी के पथ पर चढ जाओगे, जहाँ से वापिस लौटना होगा। अत एक वार अप्रमत्तभाव पाते ही भावमन-आत्मा की जितनी शक्ति और तीव्रता हो, तदनुसार दौड लगाओगे तो याये बढ कर परमात्मपद-प्रीति कर सकोगे, अन्यथा प्रमत्तभाव मे आना पड़ेगा। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ नपारम-वयन भाष्य परमात्मा के साथ अभिन्न प्रीति कसे ? श्रीआनन्दघनजी औपचारिक रूप से परमात्मा के साथ बातचीत करने की रीति प्रगट करते है, क्योकि पूर्वगाथा में प्रभुप्रीति का अत्यन्त आसान और निकटवर्ती रास्ता बताया था, उससे परमात्मा अत्यन्त नजदीक हो जाते हैं। अत मुमुक्षु अपने अन्तर में प्रभु के नाथ बातचीत करता है-प्रभो । घमं जिनेश्वर ! मैं आपके माथ प्रीति तो करना चाहता हूँ, आपमे साथ मेरी प्रीति होगी कैसे ? और होगी तो भी निभेगी कैसे और कितने दिन ? क्योकि प्रीति उभयपक्षी होती है, एकपक्षी नही । दूसरी बात यह है कि समान प्रकृति, एकसरीखे शील, स्वभाव और आदत वालो की प्रीति (मैत्री) जुड़ती है। मेरी और आपकी प्रकृति (स्वभाव) मे व्यवहान्नय की दृष्टि से बहुत ही अन्तर है । मैं रागीद्वपी है, मोहग्रस्त है । मैं बात-बात मे राग, द्वेष, और मोह मे घिर जाता हूँ और आप किसी पर भी, यहा तक कि आपकी वर्षों से सेवा करने, एक मापके प्रति अनुराग रखने वाले पर जग भी राग नहीं करते और न ही आपसे प्रतिकूल चलने वाले दुप्टजन या विरोधी पर टेप या घृणा करते हैं, ससार की किसी भी मनोज्ञ से मनोज्ञ चीज के प्रति भी आपका मोह (आमक्ति) नहीं है। मै अभी तका कर्मबन्ध मे युक्त हूँ, प्रतिक्षण विभिन्न फर्मों से युक्त होता है। जवकि आप कर्मबन्ध से रहित है, मघवा घातीमो मे विलकुल दूर हैं। लत. आपकी और मेरी प्रकृति, आदत और स्वभाव में रात-दिन का अन्तर होने से आपके साथ मेरी प्रीति हो ही कैसे सकती है ?" "माना कि निश्चयनय की दृष्टि से आपके और मेरे स्वरूप, और स्वभाव मे कोई अन्तर नहीं है । परन्तु निश्चयनय तो आदर्श की बात कहता है। आदर्श और व्यवहार मे वहुत बडी दूरी होती है। अगर दोनो मे इतनी दूरी न होती तो प्रत्येक आत्मा परमात्मा के निकट पहुंच गई होती। अत इस अन्तर को दूर करने पर ही आपकी और मेरी प्रीति हो सकती है। यह एक लौकिक तथ्य है कि एक व्यक्तितो दूसरे के साथ स्नेह सम्बन्ध जोडने या रखने के लिए उसके हेतु तन, मन, धन सर्वस्व होमने, यहाँ तक कि पतगे की तरह मर मिटने तक को तैयार है, परन्तु दूसरे की ओर तैयार है, से कोई जवाब नहीं १ 'समान-शोलव्यसनेषु सख्यम्'--नीतिकार Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अमिन्नप्रीतिरूप धर्म ३०७ मिलता, उपेक्षा या उदासीनता ही वरती जाती है । अतः उसके मन मे स्नेह की उमि न हो, तव वहाँ एकतरफी प्रीति कैसे जम सकती है ? इस दृष्टि से मैं आपसे प्रीति करना चाहता हूं, उसके लिए प्रयत्न भी करता हूँ, आप से बातचीत करने का, कितु आप वीतराग होने के कारण कोई जवाव ही नहीं देते, किसी प्रकार का स्नेह ही नहीं दिखाते, आपके मन में भी मेरे स्नेह की कोई कीमत नहीं है, आप उदासीन है, तव आपके और मेरे बीच मे मैत्री कैसे जम सकती है या टिक सकती है ? इसलिए कहा है-'उभय मिल्या होय सधि' दोनो के मिलने वातचीत करने पर ही सन्धि (मेल या सुलह) हो सकती है। अत अब तो मै आपकी सेवा मे जबरन पड़ा हूं, और आपसे बातचीत करने को उत्सुक हूँ। इस प्रकार दौडते-दौडते परमात्मा के निकट पहुंचते ही साधक के मन मे विचार आया--"अब मै आपके स्वरूप को समझ गया हूं कि आप मेरे साथ प्रीति क्यो नही जोडते ?" मै अभी तक राग-द्वेप-मोह के चगुल में फंसा हुमा हूं-मुझे अभी तक सज्वलन कपायो और नोकषायो ने घेर रखा है , जिससे पुराने कर्म तो बहुत ही कम क्षीण होते है, नये अधिक वधते जाते है। जबकि आप राग-द्वेप-मोह से विलकुल परे हैं, किसी भी प्रकार के कर्मबन्धन से जकडे हुए नहीं है । अत अव यदि मुझे आपसे प्रीति जोडना हो तो आपके समान (राग-द्व प-मोहरहित एव नूतन (कर्मबन्धन से रहित) हुए बिना कोई चारा नहीं । परमात्मा के साथ प्रीति मे भग (विघ्न) डालने वाले तो राग-द्वेषादि कपायभाव है, इन्हे मुझे अवश्य दूर करना ही होगा । यही परमात्मा के साथ एकता-प्रीति-मैत्री करने का रामबाण उपाय है।" निष्कर्ष यह है कि श्रीआनन्दघनजी ने इस गाथा मे प्रकारान्तर से परमात्मा के साथ समानता (प्रीति) स्थापित करने के हेतु सूचित कर दिया है कि अभी से निर्भीक और साहसी वन कर व्यवहार से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (तप, जप, व्रत, सयम) के पालन मे या निश्चयनय से आत्मस्वरूप मे रमण का सत्पुरुपार्थ कर, घवरा मत । इसी पर सतत चलते रहने से तेरे रागद्वेषादि भाग जायेंगे और तू स्वय निर्वन्ध हो जायगा। फिर देखना, धर्मजिनेश (परमात्मा) और तुममे समानता आती है या नही ? बस, अप्रमत्तभाव मे प्रवेश कर । सावधान रह कर आत्मदर्शन मे आगे बढ । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ अध्यात्म-दर्शन इसलिए श्री आनन्दघनजी ससार के अधिकाश प्रमादी, सम्यग्दृष्टि की ज्योति से विहीन, असावधान, लापरवाह और अन्धाधुंध चलने वाले लोगों की मनोदशा का वर्णन करते हुए वाहते हैपरम निधान प्रगट मुख आगले, जगत उल्लघी जाय, जिने० ! ज्योति विना जुओ जगदीशनी, अंघोअंध पुलाय; जिनेश्वर !धर्म०॥६॥ अर्य अपने मह के सामने प्रत्यक्ष सर्वश्रीप्ठ महानिधि शुद्ध आत्मा या परमात्मा प्रगट है, फिर भी जगत् के नीव उसे लाघ कर आगे बढ़ जाते हैं, जैसे बंध के पोछे दूसरा अघा दोहता है, वैसे ही अनन्तचतुष्टयवान परमात्मा को ज्ञानर पन्योति के विना जगत् के जीव अन्धे की तरह जगत् के लोगों का अनुसरण व अनुकरण फरते हुए चलते हैं । भाप्य परमात्मज्योति से रहित जीच की दगा खजाना ढूंढने के लिए जैने दीपया या प्रकाश की जरूरत पहनी है. वैसे ही गाढ मिथ्यात्वान्धकार से ढकी हुई महामून्य आत्मनिधि या परमात्मनिधि को देखने के लिए भी परमात्मा की ज्योति (सम्यग्ज्ञान दर्शन की ज्योति) की जहरत होती है। वह ज्योति जिसके पान नहीं होती, वह सामने निकट पड़ी हुई महामूल्य वस्तु (जो कि एकप्रदेशभर भी दूर नहीं है) परमनानादि गुणरत्ननिधिरूप धर्ममूर्ति नात्मा को देख नहीं पाता, वह उसे लाच कर आगे बढ़ जाता है, और दूर-सुदूर वनो, पर्वतो, गुफाओ, जड़तीर्थों या अन्य स्थानो मे ढूंढता फिरता है । "अधेनैव नीयमाना ययान्धा" वाली कहावन के अनुसार परमात्मा की सम्यग्ज्ञानज्योति से विहीन वह व्यक्ति मांसारिक मिथ्यात्वान्ध लोगो के नेतृत्व मे उनके पीछे-पीछे चलता है, उनका अनुसरण करता है । वह यह नहीं जानता कि जिस आत्मनिधिरूप खजाने की वह खोज कर रहा है, वह स्वयं ही है, स्वयरूप है । इसलिए कही भी दूर या परदेश जाने की आवश्यकता नहीं। अखण्ड, अविनाशी, परमजाननिधि आत्मगुणनिधान आत्मधन तो प्राणिमात्र मे ही प्रकाशमान है । वह अत्यन्त निकट है । उसे ढूंटने के लिए किसी स्यूल दीपक की जरूरत नहीं, सिर्फ अन्तरात्मा मे वीतराग परमात्मा के जानरूपी प्रकाश की आवश्यकता है । वास्तव मे जगत्पति परमात्मा की जगमगाती आत्मदर्शनरूपी Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म ज्योति के प्रकाश के बिना यह जगत् मिथ्यात्वान्धकार मे अधा हो कर भटक रहा है । आत्मदर्शन का रहस्य है-स्वयं स्वय को जाने, पहिचाने, अन्दरअन्दर ही जो ज्ञानादि गुणरत्नो का खजाना भरा पड़ा है, जो कि विल्कुल नजदीक है, उसे भलीभाति समझे। जिसे आत्मदर्शनरूपी ज्योति का प्रकाश मिल जाता है, उस ज्ञानज्योति वाले को आत्मधन भलीभांति दिखाई देता है, वह दूसरो को बता भी सकता है, वह इन्द्रियो के विपयो को आत्मा से भिन्न जानता-मानता है। वह आत्मा के अव्यावाध सुख को वैपयिकसुख से बिलकुल पृथक् समझता है। ____ आत्मधन का अभिलापी मुमुक्षु जव आत्मज और सम्यग्दृष्टि निःस्पृह गुरु के पास आता है, तव गुरु उसे अपूर्ववाणी 'द्वारा कहता है-'तू जिसे चाहता है, वह तो तेरे पास ही है । तीर्थ, धाम आदि वाह्य साधनो को छोड कर तू अपने आत्मस्वरूप मे स्थिर हो जा और ज्ञान दृष्टि से देख) तेरी परमनिधि (आत्मनिधि) तेरे पास ही है।' जगदीश (सारे जगत् पर आध्यात्मिक आधिपत्य जमाए हुए परमात्मा) वीतराग ने भी ज्ञानज्योति द्वारा ही अनन्तचतुष्टयरूप परमनिधि प्राप्त कर जड (भौतिक पदार्थ की) उपासना छोड दी और आत्मचेतन की उपासना की एव उन्होंने ज्ञानज्योति से अपने पास ही परमनिधि को देख ली; वैसे ही हे भव्य । तेरे लिए भी यही उपाय है । परमात्मा के लिए जो कार्य-कारण था, वही कार्य-कारण तेरे लिए भी है। श्रीमानन्दघनजी उस युग के मोहान्ध और पुद्गलानन्दी सासारिक जतो की गतानुगतिकता लकीर के फकीर बनने की वृत्ति) देख कर निर्भीकतापूर्वक स्पष्ट कहते हैं-अधिकाश लोग ऐसे लोगो के चक्कर में पड़ जाते हैं, जो बाहर से तो आत्मज्ञानी, आत्मार्थी और मुमुक्षु होने का दभ, दिखावा और डोल करते है, आत्मा-आत्मा की ही रट लगाते हैं, और आत्मा के विषय मे लच्छेदार भाषण एव वाणी-विलास से लोगो को प्रभावित कर देते हैं, परन्तु अदर से वे काले होते हैं- उनमे कपायो की अग्नि प्रज्वलित रहती है, विषयो की आसक्ति मे और भौतिक जड पदार्थों के मोह मे वे जकडे रहते हैं, भोलेभाले जिज्ञासु लोग, भी स्वार्थलिप्सा एव जडासक्तिवश ऐसे लोगो के पास भटकते हैं, जो जडतीर्थों, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० अध्यात्म-दर्शन जडपदार्थों एव भौतिक आडम्बरो से चुन बायपूजा के ननकर में डाल देते हैं। भला, ऐसे लोगो को उन नकली तयारुथित नात्मनानियो, किन्तु जोपामको से क्या मिलेगा, जो न्बय ही आत्मदर्शन के यथार्थ प्रकाश में दचित हैं ? इसलिए वे कहते हैं-'ज्योति बिना जुओ जगदीगनी.” ___आत्मिक प्रकाश और परमात्मप्रकाश दोनों में अभिनना है । एक हो, वहाँ दूसरो का अस्तित्व होता ही है । अत परमात्मप्रीतिरूप धर्मपालन द्वारा परमात्मा के साथ अभिन्नता साधने के लिए पूर्वोक्त प्रकार में आत्मदर्शन (प्रभु. ज्योति) के प्रकाश में उस परमनिधि को ढूंढने का कार्य मर्वप्रथम करना चाहिए । यही इस गाथा का तात्पर्य है । जिन्होंने पूर्वाक्त प्रकार से आत्मदर्शन के प्रकाश द्वारा आत्मनिधि दृस्टिगोचर कर ली है, उनका स्वरूप अगली गाया मे बना कर उन्हे व उनसे सम्बन्धित क्षेत्र-काल-द्रव्यादि को धन्यवाद देते है - निरमल गुणमणिरोहण-भूघरा, मुनिजनमानसहस, जिनेश्वर । धन्य ते नगरी,धन्य वेला घड़ी, मात-पिता-कुल-वश, जिनेश्दर ! ॥ धर्म० ॥७॥ अर्थ प्रभो ! आप रोहणाचलपवंत मे उत्पत्र (जिन भगवान = धर्मजिन या शुद्धात्मा, निर्मल शुद्धरत्नो के समान जिनाज्ञा समतादि गुणरत्नयुक्त हैं, मुनिजनो पालक के शुम मनरूपी मानसरोवर के हंस के समान हैं । वह नगरी (रत्नपुरी या जिनमगवान् की जन्मभूमि) धन्य है । वह समय और घडी जब जिनेश्वर का जन्म हुआ था धन्य हैं । तथा वह माता पिता (सुबना माता और भानुराजा पिता) कुल (इक्ष्वाकु) और वश (क्षत्रिय) भी धन्य है, जहाँ भगवान् ने जन्म लिया था। भाष्य परमात्मा का स्वरूप एव उनके क्षेत्रकालादि को धन्यता । इस गाथा मे महात्मा आनन्दघनजी ने आत्मनिधि का सर्वया साक्षात्कार करने वाले परमात्मा (धर्मनाथ-जिन या प्रत्येक वीतराग) का स्वरूप और उनसे सम्बन्धित क्षेत्रकालादि की महिमा बताई है। जब व्यक्ति आत्मदर्शन करने के Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म ३११ लिए उत्सुक होता है, तब वह यह देखता है कि आदर्श कसा है, बिना आदर्श, के व्यवहार के लिए व्यक्ति तैयार नहीं होता। आदर्श के बिना व्यक्ति निरुत्साहित एव हताश हो कर यो कह कर बैठ जाता है कि ऐसा व्यक्ति तो कोई है नहीं, फिर हम किसके पीछे चलें, किस साध्य को सिद्ध करे या किस ध्येय को प्राप्त करें ? इसलिए श्रीआनन्दघनजी वीतराग-प्रभु के गुणो (आत्मगुणो) का वर्णन करते हुए कहते हैं--प्रभु धर्मनाथ (अथवा कोई भी वीतरागी पुरुष) निर्मल (जिनके ज्ञानादि गुणो मे किसी प्रकार का मल या दोप नहीं है), गुणरूपी रलो के रोहणाचल हैं। कहते है, रोहणाचल नामक पर्वत सिलोन (श्रीलका) मे है, जिसमे अनेक रत्न होते हैं, वह पर्वत ही रत्नमय है। मत जसे रोहणाचर्य अनेक रत्नो का उद्गमस्थान है, वैसे ही जिनप्रभु भी अनेक गुणरत्नो के उदगमस्थान है। तया वे मुनियो एव मुमुक्षुप्रो के शुभ मनरूपी मानसरोवर के हस हैं । जैसे हस मानसरोवर पर आ कर विश्राम लेता है, वैसे ही वीतरागप्रभु परमहस (जलदुग्धवत् हेयोपादेय का विवेक करने वाले) मुनिजनो के पवित्र मनरूपी सरोवर पर आ कर विराजते हैं । परमात्मा का परम ज्ञानप्रकाश मुनिजनो के मानस मे ही स्थिर होता है । अथवा मानसरोवर के हंससदृश मुनियो के पवित्र मन जहाँ क्रीडा करते हैं, वह प्रभु ही मेरे लिए सर्वस्व हैं, वे ही मेरे आदर्श, ध्येय और साध्य हैं । असख्य गुणो और पवित्रता के धामरूप बने हुए प्रभु मेरे आधार हैं । ऐसे परमात्मा के साथ प्रीतिधर्म व सेवाभक्ति के पालन द्वारा अभिन्नता स्थापित करना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। आपमे दानशीलता, निर्भयता, निर्लोभता, नीरोगता आदि अनेक गुण हैं, कितने गिनाऊँ । आपके अनेक गुण ही मुझे वरवस आपसे भक्ति, सेवा, एव प्रीति करके अभिन्न एव तन्मय होने को प्रेरित करते हैं। इसी कारण आपके प्रति भक्तिविभोर बनी हुई वाणी सक्रिय हो उठती है कि वह नगरी, वह वेला, वह घडी धन्य है, जहाँ और जब आपका जन्म हुआ था। वे माता-पिता भी धन्य है, जिन्होने आपको जन्म दिया । वे कुल और वश भी धन्य हैं, जिन्हे आपने पावन किया । व्यक्तिगत दृष्टि से अर्थ करे तो धर्मनाथप्रभु की जन्मभूमि रत्नपुरी (अयोध्या के पास) थी। उनके जन्मसमय ___की वेला व घडी भी शुभ थी। उनकी माता का नाम सुव्रता और पिता का Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ अध्यात्म-दर्शन नाम भानुराजा था । उनका कुल इच्दाकु और वश पिग था। ये मत्र आपके पावन अवतरण से, स्पर्श से धन्य हो । मामान्यतया अर्य करे तो ममी वीतराग परमात्माओ की नगरी, बेला घड़ी, माता-पिता और कुल-नग धन्य हैं। प्रभु (धर्मनाथ) का शरीर रोगरूपी मल मे रहित, निर्मल, मदनवर्ण है। यह दिव्य औदारिक शरीर गेहणाचल पर्वत की जपमा में उपमेय है । तथा वह दिव्यशरीर स्वस्तिक आदि एक हजार लक्षणो रूप मणियो का तथा मौम्यता, आह्लादकता बादि उत्तमगुणो का धाम-~-पवनत्य है । इस गरीर का अधिष्ठाता अथवा साझीघर आत्मा मुनिजनो के मनपी मल को सुशोभित करने वाले राजहस के समान है और प्रसन्नता का कारणभूत है । अथवा शुद्ध शाश्वत वीतरागदेव परमात्मा (मुद्धात्मा) की दृष्टि मे अयं करें तो..-परमात्मा निर्मल-क्षायिकभावी, केवलज्ञानादि गुणमणियो के नाधाररूप है, भव्यात्माओं के हृदयसगेवर मे सम्यग्ज्ञानादि गुणमणियो को उत्पन्न करते हैं, वे अपने स्वभाव से अनल मेरपर्वत नरीने हैं नीर सावद्य निग्रानुष्ठानादि से निवृत्त मेनियो के माननरोवर के राजहन हैं । वे योगी मुनिजन आपके स्वर का मनन करते हैं, उनके अन्तर ध्वनि और विचार उटने है-अह+स या त.+ अहम् = सोऽहम् - हसः । अन्नात् वीतराग प्रभु जना ही में हैं। नगरीपद का रूप 'नकरी' होता है, अन सिद्धत्व की अपेक्षा से न--करीनकरी यानी जो हस्तपादादि शरीरागो से रहित होते हैं। अथवा मितन्यपदपात परमात्मा स्थूलसूक्ष्मशरीर से रहित शुद्धात्मा को नगरी (नकरी) गमना ! वही मात्मा धन्य है । उस वेला व घडी को भी धन्य है, जिस समय पोवनजान-योवलदर्शनरूप आत्मा का प्राकट्य होता है। परमात्मा या शुद्धात्मा की माता अप्ट-प्रवचनमाता है और सायिकमावत्प पिना सर्वथा धन्य है-पगमनीय हैं । अनन्तवीर्यादि गुणसमूह और प्रतिसमय अव्यावाध मात्गमुख पैदा होना, यही गो परमात्मा का कुल और वश है, जो प्रशम्य है। परमात्मा से अभिन्न प्रीतिप्सम्पादन के लिए उनके चरणो मे निवास आवश्यक है, यही सोच कर श्रीआनन्दघनजी अन्तिम गाया में कहते हैमन-मधुकरवर कर जोड़ो कहे, पदफज निकट निवास, जिनेश्वर ! चननामी आनन्दघन सांभलो, ए सेवक अरदाम, जिनेश्वर ! ॥ धम० ॥८॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म ३१३ अर्थ ___मेरा मनरूपी श्रेष्ठ भ्रमर हाथ जोड कर कहता है कि आपके चरणकमल के पास मेरा निवास हो: कर्मशत्रओ को अत्यन्त नमा देने वाले या बहुत ही नामी (प्रसिद्ध) आनन्द के ममूहरूप परमात्मा | सेवक की इस प्रार्थना (विनति) को सुनिये। भाष्य प्रीतिसम्पादनहेतु चरणकमलो के निकट निवास की प्रार्थना इस स्तुति की अन्तिम गाथा मे श्रीआनन्दघनजी परमात्मप्रीतिरूप धर्म का सर्वांशत पालन करने वाले हेतु कहते हैं कि हे प्रभो ! आप तो अनेको को झुका देते हैं या आप अनेक नामो से प्रसिद्ध हैं, आपको किस-किस नाम से पुकारूं ? अभिन्नता के लिए नामरूप (जो भिन्नता प्रगट करने वाले हैं) की आवश्यकता नहीं रहती । अत प्रभो । आपके उत्तमोत्तम गुणो से आकृष्ट हो कर मेरा मनरूपी मधुकर, जो कि शुभभावो से ओतप्रोत है, प्रार्थना करता है, अथवा मेरा मन आपके चरणकमलो मे गुणरूपी पराग का रसपान करने हेतु उत्कृष्ट भाववाला भ्रमर वन कर आपके चरण-शरण मे रहना चाहता है। मेरी आर्तभाव की इस विनति को आप मान ले। जव आपकी मेरे प्रति प्रीति (शुद्ध वत्सलता) होगी, तभी मैं और आप एक बनेंगे । फिर कोई भी विघ्न आ कर हमारी प्रीति मे रोडा नहीं अटका मकेगा , न कोई भी आ कर हमारे बीच मे दूरी पैदा कर सकेगा। प्रश्न है-क्या वीतराग परमात्मा भक्त की इस प्रार्थना को सुनेंगे ? या ऐसी याचना पूरी करेंगे ? वास्तव मे जैनदृष्टि से वीतरागप्रभु के साथ यह बात घटित नहीं होती, मगर भक्ति की भापा मे भक्त परमात्मा को अभिन्न आत्मीय मान कर ऐसा कहता है और आत्मस्वरूपनिष्ठ वन कर स्वरूपाचरण (यथाव्यातचारित्र) रूपी चरणकमल में निवास करना चाहता है तो कोई अनुचित भी नहीं है । तभी परमात्मप्रीतिरूप धर्म का पालन हो सकेगा। सारांश इस स्तुति की सभी गाथाओ मे वीतराग परमात्मा के साथ अभिन्न, निर्वि Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ अध्यात्म-दर्शन घ्न, अद्वैत, प्रीतिल्प धर्म के आचरण (निश्चयनय से स्वस्पाचरण) करने की बात की मग ते इति तक पुष्टि की गई है। साथ ही यह बता दिया है, इस प्रीतिधर्म के पालन में बाधक और साधक तत्व कौन-कौन से हैं ? प्रीति की प्रतीति, एकपक्षीय प्रीति का निराकरम, प्रीति के लिए परमात्मनिधि या दर्शन, उसका स्वल्प, और वैसा क्षेत्र, काल और पात्रता प्राप्त होने पर धन्यता तथा परमात्मचरणो मे निवास आदि बातो का भलीभांति समावेश भी बखूबी से अध्यात्मपयोगी श्रीआनन्दघनजी ने किया है। MAHAROdia E Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : श्रीशान्तिनाथ-जिन-स्तुतिपरमात्मा से शान्ति के सम्बंध में समाधान (तर्ज-चतुर चोमास पडिकमी, राग मल्हार) शान्तिजिन । एक मुज विनति, सुणो त्रिभुवनराय रे ! शान्ति-स्वरूप किम जाणीए, कहो मन किम परखाय रे ? ॥शान्ति० ॥१॥ अर्थ । सोलहवें तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथ जिन (परमात्मा) | मेरी आप से एक विनति है, हे त्रिभुवन के राजा ! उसे सुनिये वह यह है कि शान्ति का स्वरूप क्या है ? उसे कैसे जाना जाय ? और यह भी बताइए कि उस शान्ति की परख मन से कैसे हो सकती हैं ? भाष्य शान्ति के सम्बन्ध मे प्रश्न क्यो ? यह स्तुति वीतराग शान्तिनाथ परमात्मा की है। प्रभु का नाम शान्तिनाथ है, इसलिए श्रीआनन्दघनजी को शान्ति का स्मरण हो आया और उन्होंने इस स्तुति से माध्यम से शान्ति के विषय मे विविध प्रश्न उठा कर उनका समाधान ढूंढने की कोशिश है । श्रीआनन्दघनजी आध्यात्मिक साधको के प्रतिनिधि है । जगत् मे समस्त प्राणी शान्ति चाहते हैं। मनुष्यो मे सभी वर्ग और कोटि के लोग अपनी-अपनी भूमिका और कल्पना के अनुसार शान्ति की चाह रखते है। कई लोग इष्ट भौतिक पदार्थों या इन्द्रियविषयो की प्राप्ति मे शान्ति मानते हैं, परन्तु आगे चल कर जव उनका वियोग हो जाता है या प्राप्त होने पर भी इन्द्रियो की शक्ति क्षीण या दुर्बल हो जाती है तो शान्ति दूरातिदूर होती चली जाती है, या अमुक इष्ट वस्तु स्वय को न मिल कर दूसरे को मिल जाती है, या दूसरे को उपभोग करते देखता है तो मन ईर्ष्या और द्वेप से अशान्त हो जाता है, इसलिए कभी आधिदैविक, कभी आधिभौतिक और कभी आध्यात्मिक इन Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ सध्यात्म-दर्शन तीनो दु खो मे से किसी भी प्रकार के दुप से, विपनि मे, चिन्ता से मन अशान्ति के भूले मे भूलता रहता है। अत वस्तुनिष्ठ शान्ति,की मिथ्या मान्यता के कारण सामान्यसाधक ही नहीं, बड़े-बडे साधक अशान्त होते रहते हैं । ____इसीलिए श्रीमानन्दघनजी सभी माधयो की ओर ने शान्ति के सम्बन्ध में विविध प्रश्न पूछते हैं । बहुत से साधक भौतिक सम्पनि मे सम्पन्न होते हुए भी शान्ति मही पाते, वे सासारिक स्वार्थो, लालसाओ, पुन, धन एवं लोक की एपणाओ से लिप्त हो कर बेचैन रहते है। बाहर मान्ति की ललक होते हुए भी उनके अन्दर अशान्ति की आग धधकती रहती है। अध्यात्म-साधक के जीवन में उमके तन, मन, नयन पर अशान्ति की जरा भी छाया नहीं होनी चाहिए, कोई भी कष्ट, आफत, विपम प्रसग, इष्टवियोग अनिष्टसयोग हो, फिर भी साधक मस्त, शान्त और कर्तव्यपरायण होना चाहिए। साधकजीवन के किसी भी क्षेत्र मे, किसी भी कोने में अगर अशान्ति होगी तो उनकी नारी साधना गडबड में पड जायगी , माधना का मजा किरकिरा हो जायगा, प्रभुभक्ति और प्रभुप्राप्ति के लिए किया गया धर्माचरण बेकार हो जायगा । इन्ही सब कारणो को ले कर साधक के जीवन मे कैसी शान्ति होनी चाहिए ? उस शान्ति का स्वरूप क्या है ? उस शान्ति की पहिचान क्या है ? शान्तव्यक्ति के मन की परख कैसे हो सकती है? ये सत्र गान्तिविपयक प्रश्न गान्तिनाथ प्रभु के सामने श्रीआनन्दघनजी ने प्रस्तुत किये हैं। शान्तिनाय भगवान के सामने ये प्रश्न क्यो ? प्रश्न होता है कि शान्तिनाथ प्रभु से ये प्रश्न क्यो पूछे गगे ? उत्तर में निवेदन है कि जो जिस बात का विशेपज्ञ, अनुभवी, अभ्यासी या अधिकारी हो, वही दूसरे अनभिज्ञ, जिज्ञासु और उत्सुक व्यक्ति को उय सम्बन्ध मे बता सकता है । एक तो शानिनाथ प्रभु का नाम ही शान्ति का नाथ-शान्ति के स्वामी है । दूसरे, शान्तिनाथ प्रभु अपनी माता अधिरारानी के गर्भ मे थे, तभी उस सारे प्रदेश मे महामारी का उपद्रव चल रहा था। आपकी माताजी ने आपका स्मरण व ध्यान किया, जिससे समग्र प्रदेश मे शान्ति हो गई । सारा उपद्रव समाप्त हो गया । इसी कारण जन्म से पहले ही आपके माता-पिता ने आपका नाम शान्तिनाथ रखा था । अतः शान्तिनाथ प्रभु के सामने सर्वागपूर्ण शान्ति Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३१७ के विषय मे जिज्ञासा प्रस्तुत करना स्वाभाविक ही है। शान्तिनाथ प्रभु ससार के अकारण, निस्वार्थ व निष्काम वन्धु है, वे शान्तिमत्र के विशेषज्ञ, विश्वशान्ति के पुरस्कर्ता और अनुभवी है, अत. उनके सामने शान्तिविषयक प्रश्न प्रस्तुत करना चाहिए, यह सोच कर ही इस स्तुति मे ये प्रश्न प्रतुत किये गये है। शान्तिनाथ प्रभु यद्यपि वीतराग एव सिद्ध-बुद्ध मुक्त-निराकार होने के कारण किसी जिज्ञासु साधक मे मीधी बातचीत नहीं करते, तथापि जिज्ञासु औरभावुकहृदय आत्मसाधक मुमुक्षु जव शुद्ध अन्त करण से शान्ति से सम्बन्धित किसी प्रश्न पर शान्तिनाथ प्रभु के आदर्श को समक्ष रख कर तथा उनके जीवन के शान्तिप्रदायक मधुर सस्मरणो से प्रेरणा ले कर गहराई से विचार करता है तो उसके शुद्ध और सम्यग्दर्शनयुक्त मानस मे यथार्थ समाधान अंकित हो जाता है, उसका भावविभोर अन्त करण शान्ति के सभी पहलुओ पर समाधान पा जाता है। इसी दृष्टि मे श्रीआनन्दघनजी ने शान्तिनाथ (शान्तिमय वीतराग) प्रभु के समक्ष विनति की है। निश्चयनय की दृष्टि से देखे तो अनन्तशान्तिमय शान्ति के नाथ आत्मदेव के सामने उनके द्वारा प्रस्तुत यह शान्ति-विषयक प्रार्थना है। शान्तिनाथ प्रभु (अयवा शान्तिनाथ आत्मदेव) को 'त्रिभुवनराय' इसलिए कहा गया है कि ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, और अधोलोक यानी त्रिभुवन के सभी जीव उन्हे अपने कल्याणकर्ता मानते हैं, शक्रस्तव में लोगनाहाण' इत्यादि विशेपण इसी बात को सिद्ध करते हैं। अगली गाथा मे श्रीमानन्दघनजी शुद्ध आत्मलक्षी बन कर शान्तिनाथ भगवान से उपयुक्त प्रश्नो की जिज्ञासा के विषय मे आश्वासन एव धन्यवाद प्रस्तुत कराते है धन्य तु आतम जेहने, एहवो प्रश्न-अवकाशरे। धीरज मन भरी सांभलो, कह शान्ति-प्रतिभास रे ॥ शान्ति॥२॥ अर्थ हे आत्मन ! तू धन्य है, जिसे इस प्रकार के प्रश्न करने का अवकाश मिला, विचार आया । अत अब तुम इन प्रश्नों का उत्तर मन मे धैर्य धारण करकेसुनो । मैं तुम्हे शान्ति का प्रतिभास-स्वरूप-प्रकाश या उपाय कहता हूँ।", Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यात्म-दर्णन हे आत्मन् की इच्छा हुई । तुम्हाहो कि ऐसा गम्भीर भाष्य प्रग्नकर्ता को धन्यवादनापन धर्मशान्यो या आध्यात्मिक गन्यो की विशिष्ट नीति है-जिनामु का आदर करना, जिसने धर्म और धर्मी का महत्व बढे, विशिष्ट ज्ञानप्राप्ति के लिए जिज्ञासु प्रयत्नशील हो। यहाँ भी उमी नीति का अनुसरण किया गया है। हे भात्मन् । तुम धन्य है कि तुम्हे शान्तिनाथ भगवान की आदर्श शान्ति का स्वरूप जानने की इच्छा हुई । तुम्हारे मन में ऐसा प्रश्न उठा, यह भी मौभाग्य की बात है । तुम बडे भाग्यशाली हो कि ऐसा गम्भीर सवाल तुम्हें सूझा । जो आत्मा भव्य और सम्य दृष्टि होता है, अथवा अध्यात्मरनिक तत्वजिज्ञासु होता है, या जिम शान्ति प्राप्त करनी होती है, उसके मन में ही ऐने प्रश्न उठने है । बहुत से लोग जिज्ञासु बन कर कोई शंका उठाते है, उन्हें कई अध्यात्मज्ञान से अनभिज या मात्मिक चारित्र दौर्बल्वयुक्त व्यक्ति सहसा दबा देते है, उसे नास्तिक, काशील या अज्ञानी कह बैठते हैं, और उसको अध्यात्मज्ञान में वचित कर देते हैं । परन्तु सम्यग्दृष्टि, तत्वत्र एव समत्वयोगी पुरुप जिज्ञासु की जिज्ञासु को प्रोत्साहन देते हैं, कि तुमने बहुत ही अच्छा सवाल उठाया । वे मानते है कि इससे हमारे ज्ञान में वृद्धि ही होगी, दूसरे व्यक्ति भी इस ज्ञान मे लाभान्वित होगे । ऐने जिज्ञासु अपने मन मे अनेक प्रश्नो को स्थान देते है। जिज्ञासु श्रोता के दो गुण : एकाग्रता और धैर्य आध्यात्मिक दृष्टि मे शान्ति के विषय मे जो सुनना चाहता है, उस जिज्ञासु श्रोता मे दो गुण होने आवश्यक है-एकाग्रता और धैर्य । वक्ता जब कोई वात कहता है या किसी गम्भीर विपय का प्रतिपादन करता है, तव श्रोता मगर एकाग्रता पूर्वक न सुन कर अन्यमनस्क हो कर सुनता है तो वह विपय को भलीभांति ग्रहण नहीं कर सकता, न समझ सकता है । अधूरी ममझ से कई वार श्रोता उटपटाग बातें कह कर या तर्क-वितर्क करके भ्रान्ति फैलाता है या मनगढत बातें करता फिरता है । श्रोता का दूसरा गुण है- धैर्य । यदि श्रोता मे किती प्रतिकूल वात के सुनने का धैर्य नहीं होता तो वह वीच मे Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ही उखड जायगा, अधूरी वात सुन कर निन्दा करेगा, लोगो मे गलतफहमी फैलाएगा, खण्डन के लिए प्रवृत्त होगा ।अत इन दोनो दुर्गुणो से श्रोता और वक्ता दोनो की मानसिक वाचिक शान्ति खत्म हो जायगी ! इसीलिए श्रीआनन्दघनजी शान्तिमय आत्मदेव (शान्तिनाथजिनदेव से कहलाते है----'धीरज मन घरी सामलो' तुम मेरी बात को धर्य और एकाग्रचित्त हो कर सुनो। शान्ति-प्रतिभास क्या और कैसे ? श्री शान्तिनाथ भगवान् ने जिस रूप मे शान्ति प्राप्त की थी, उसी शान्ति का प्रतिभास (झलक, स्वरूप-प्रकाश या उपाय) सुनाने-समझाने के लिए वे प्रवृत्त होते हैं। शान्ति-प्रतिभास का अर्थ----शान्तिनाथ-प्रभु की झलक भी होता है, आत्मशान्ति की प्रतीति या उपाय भी होता है, अथवा शान्ति-स्वरूप प्रतिभास या झलक भी होता है । जो भी हो, अब क्रमश शान्ति के सम्बन्ध मे अगली गाथाओ मे कहते है-- भाव अविशुद्ध सुविशुद्ध जे, कह्या जिनवरदेव रे। ते तेम अवितत्थ सदहे, प्रथम ए शान्तिपदसेव रे ॥शान्ति०३।। अर्थ वीतराध-देव (शान्तिनाथ) परमात्मा ने औपशमिक आदि भाव, जो शुद्ध नहीं हैं अथवा जो भाव शुद्ध हैं, उन पर उस-उस प्रकार से उस उस रूप मे वे ! जैसे हैं, वैसे (यथातथ्य) ही श्रद्धा करे, सर्वप्रथम यही स्थान या पद शान्तिनाथ भगवान् के चरणकमल की अथवा शान्ति की आराधना व सेवा है। भाष्य शान्ति का प्रथम सोपान : यथार्थ श्रद्धा कई वार व्यक्ति किसी वस्तु का केवल बाह्यरूप देख कर उसके अन्तरगरूप की उपेक्षा करके वस्तु को या तो विपरीत रूप में मानता है, गलत वस्तु को, जिसका परिणाम भयकर है, आपात रमणीय देख कर उसे बढिया अथवा मनोज्ञ मान कर उसके वियोग मे दुखी हो कर हायतोवा मचाता है, उसके कारण (यानी इष्ट वियोग-अनिष्ट सयोग को कारण वह व्यक्ति अशान्त हो जाता है । अत सर्वप्रथम जिस वस्तुका जैसा स्वरूप, स्वभाव या परिणाम है , Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० अध्यात्म-दर्शन उसे उसीरूप मे उसी स्वभाव या परिणाम वाला माने, उगके वियोग या अनिष्ट सयोग में मेरी आत्मा का कुछ भी बिगटने वाला नहीं, हम प्रकार की दृढ़ श्रद्धा यथार्थ विश्वास, वीतराग-आप्त- वचन पर पूर्ण आस्था रख कर चलें ; तभी शान्ति-मानसिक शान्ति हो रावाती है । अन्यथा, श्रद्धा मानव को बेचन कर देती है । अश्रद्धा से मानव-मरितप्क मे ऊनजन्नूल विनागे के तूफान उठने हैं। अथवा निश्चयदृष्टि में इसका अर्थ है-औपमिकादि जो भाव विशुद्ध नहीं है , तथा जो भाव (पदार्थ या तत्व) विशुद्ध बताये है । यानी अच्छे और बुरे जो भाव (तत्व या पदार्थ ) जिग जिस रूप में आप्त वीतरागदेव ने कह है, उन्हें उसी स्प मे ममझे, उन पर श्रद्धा रखे और मे ही हैं, यो जाने, यह मबरी पहली शान्तिपद-प्राप्ति की शर्त है । तीर्थकरदेव द्वारा प्रस्पित भाव वीतराग अर्हदेव भाप्तपुरुष है, वे राग, द्वेप एव मोह, पक्षपात आदि दोपो से रहित होने के कारण वस्तु का स्वत्त विपरीतरूप मे वताएँ, ऐसा असम्भव है। अत ' जीव, अजीव, पुष्प, पाप आदि नो तत्व जीव को सम्बन्ध में विचार, तथा दूसरे अनेक भाव या पदार्थ, पड् द्रव्य आदि तीर्थकरदेवो ने मूनसूत्रो मे बताये है, वे उसी रूप में यथार्थ हैं, इस प्रकार की श्रद्वा उन पर रखें। वस्तु को अपने असली स्वरूप मे-अन्तरग-बहिन्ग दोनो स्पों में देखना और उस पर विश्वास जमाए रखना, शान्तिप्राप्ति की पहली शन है । वीतरागप्रभु ने आगमो में कई जगह खराव भावो का भी वर्णन किया है। पापी जीव कर्म के किस-किस प्रकार के फल भोगते हैं, उनके चरित्र भी बताए है। कर्मों के अच्छे-बुरे फल भी मिलते हैं, मृपि कर्ता ईश्वर या और जीवाजीवा य वधो य, पुण्णं पावासवो तहा । सवरो निज्जरा मोक्खो, सतेए तहिया नव । तहियाणं तु भावाण सभावे उवएतणं । भावेण सद्दहतस्स समत्त त वियाहिय ॥ ससारत्या य सिद्धा य इमे जीवा वियाहिया । रुविणो चेवारूवी व अजीवा दुविहा विय ॥ इम जीवमजीवे य सोच्चा सद्दहिऊण य । सद्धाणनाणमणमए रमेज्ज सजमे मुणी॥ -उत्तरा० Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान कोई है या नहीं ? इस पर भी मूलमूत्र मे स्पष्टीकरण दिया है कि समस्त पदार्थ जिनदेव ने कहे हैं उन्हे नि सकोच वैसे ही रूप में माने। 'पुरुषविश्वासे वचनविश्वास.' इस न्याय के अनुसार उन पदार्थों या भावो के मूल वक्ता आप्तपुरुप पर विश्वास हो, तो उनके द्वारा कथित या प्ररूपित वचनो पर भी श्रद्धा या विश्वास जम जाता है । इस प्रकार देव (वीतराग) तत्त्व के सम्बन्ध मे उसके मन में जरा भी शका-कुशका नहीं रहती। यह शान्तिस्वरूप की पहली शर्त है। ऐसी श्रद्धा रखने वाला ही वास्तविक धर्म और शान्ति, को प्राप्त कर सकता है। बहुत-सी बाते अतीन्द्रिय तथा अमूर्त होने के कारण अदृश्य होती है, अनिर्वचनीय भी होती हैं, जैसे लोक-अलोक भी जो दूर हैं, वे नहीं दिखाई देते , देवलोक या नागलोक दूर है, वे दृष्टिगोचर नहीं होते। मगर ये सब उसी प्रकार हैं, जिस प्रकार से भगवान ने वताए हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण-देव को देव के रूप मे जाने, देवकथित वात को भी उसी रूप मे समझे व कवूल करे, यह शान्ति की प्राथमिक भूमिका है। , - निश्चयनय की दृष्टि से स्वभाव-परभाव अथवा स्वभाव-विभावरूप आत्माअनात्मा आदि का जैसा रूप है, अच्छा या बुरा, उसे वैसा ही, उसी रूप मे माने। अव शान्ति के दूसरे सोपान के बारे मे कहते हैं आगनधार गुरु समकिती, किरिया संवर सार रे ! सम्प्रदायी-अवंचक सदा, शुचि अनुभवाधारं रे ! ॥शान्ति०॥४॥ ___ अर्थ जो आगमो का ज्ञाता (धारक) हो, सम्यग्दृष्टि हो, संवरप्रधान शुद्ध धर्मक्रिया करने मे तत्पर हो, सम्यक् विचार और आचार का मार्गदर्शन देने वाले धर्मसगठन का सदस्य हो, अवचक = निष्कपटभाव से प्रवृत्ति करता हो, सदा पवित्र अन्त करण वाला हो, शुद्ध आत्मानुभवी हो, ऐसे गुरु का आधार शान्तिपद के लिए आवश्यक है । यह शान्ति की दूसरी शर्त है । भाष्य ... योगाऽवचक गुरु का योग : शान्ति का द्वितीय सोपान Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ अध्यात्म-दर्शन पूर्वगाथा में शान्तिपद के लिए शुद्ध देव के प्रतिक्षा आवश्यक बनलाई, अब पवित्र गुरु के प्रति श्रद्धा की जावश्यकता का नपेन करणे गुण का लक्षण बताते है । वास्तव में शान्ति का ग्बर और शान्ति के लिए मार्गदर्शन हेतु 'गुरु' की महती आवश्यकता है, परन्तु भूमण्डल में जान अनेया नामधारी गुर घूम रहे है । ये शिष्य को ननमार्ग विधाना तो दूर रहा, उन्ट मार्ग पर चहा देते हैं , जिस पर चल कर वह अपने जीवन का नारा कर लेता है, जानि में वदले अशान्ति के गर्न में गिर जाता है, कर्म-मुक्ति को बदले पामबन्धन करके नाना योनियो और गतियो मे भटकता रहता है । मी कारण बहुत-से लोग तो यहांतक कहने लगे-"ऐसे कुगुरओ से तो गुरन बनाना अच्छा है ।" परन्तु सभी गुरु ऐसे नहीं होते और सभी लोग गुरु के विना रह नहीं गफाले । सदगुर ने वचित रहना एक अलभ्य लाभ को खोना है । इसी दृष्टि ने शान्तिप्रदायक या शान्तिस्वरूपदर्शक सच्चे गुरु की पहिचान के लिए श्रीआनन्दघनजी गतके लक्षण बताते हुए कहते है-'आगमधर गुर० · · सद्गुर के लक्षण आगमधर गुरु-सद्गुरु की पहिवान के लिए सर्वप्रयम यह देखना चाहिए कि वह नागमो व सिद्धान्त का ज्ञाता हो, ज्ञाता ही नहीं, भागमो के गूढ रहन्यो, पूर्वापरविरुद्ध वातो, उत्सर्ग-अपवाद के मो एव द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव के अनुसार युगानुकूल सयोजन करने का अनुभवी हो । क्योकि जिसको शास्त्रो का रहस्यपूर्वक ज्ञान होगा, वह कमी मी परिस्थिति के समय आत्मसमाधि मे स्थिर रह सकेगा, दूसरो को भी शास्त्रज्ञान दे कर समाधिन्य कर सकेगा। पाप एव प्रमाद से बचने के लिए आगन दीपक के समान है। दशवकालिक सूत्र में कहा है कि 'शान्त्र (सूत्र) ज्ञान से चित्र एकाग्र होता है, उसकी आत्मा स्वय स्वधर्म-स्वभाव में स्थिर हो कर दूसरो को सूत्रज्ञान से स्वधर्म मे स्थिर करती है सूत्रो (श्रुतो) का अध्ययन करके साधक श्रुत १. देखिये दशवकालिक सूत्र (अ ८ उ ४) का वह पाठ 'नाणमेगग्गचित्तो य ठिओ य ठावई पर । सुयाणि य अहिज्जित्ता रओ सुयममाहिए ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान समाधि में रत (लीन) हो जाता है । वहुत से साधक आगगो की बात तो दूर रही, सामान्य नीतिधर्म के जान से भी रहित होते है, वे सिर्फ वेपधारी या व्यमनी होते है। सम्यक्त्ववान गुर-बहुत से लोग अक्षरज्ञान या भाषाज्ञान के पण्डित होते हैं, वे प्रत्येक शास्त्र की व्याख्या बहुत ही बारीकी से कर सकते है, परन्तु उनके अन्तर में सम्यग्दर्शन नहीं होता, वे या तो पैसा या प्रसिद्धि कमाने के लिए शास्त्रज्ञान करते-कराते हैं, या दूसरो के साथ साम्प्रदायिक सघर्प मे उतरने के लिए ऐसा करते हैं। ध्यान रहे, मिथ्याण्टि भी पूर्व से कुछ कम तक का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अत गुर का सम्यग्दृष्टि होना वहत यावश्यक है । गुम मम्यग्दृष्टि होगा तो वह मिथ्यानो या पूर्वापरविरुद्ध वातो मे से भी अपनी ममन्वयी अनेकान्ती एव सापेक्ष दृष्टि मे तत्त्व निकाल लेगा , शास्त्रो, धर्मो, एव क्रियावाण्डो के कारण होने वाले झूठे सघर्षों को वह मिटा सकेगा , उनमे परस्पर सामजस्य स्थापित कर सकेगा। इस प्रकार सम्यक्त्वीगुरु पारस्परिक सघर्पो एवं विवादो को मिटा कर शान्ति स्थापित कर सकता है। संवरनधान क्रियावान् गुरु-जो समिति-गुप्ति एव सवर मे युक्त क्रिया करता है, वह गुरु प्रत्येक क्रिया में ध्यान रखेगा कि वह ससारवृद्धि की कारण न हो । बहुत से गुरु अपनी महिमा बढाने के लिए मंसारवर्द्धक (आश्रवपोपक) क्रिया करते-कराते रहते हैं, उन क्रियाओ मे आत्मस्वरूप या कर्म-मुक्ति का लक्ष्य कम होता है, आडम्बर या शुभाश्रव का भाग ज्यादा होता है । इसलिए क्रियाविधिज्ञ एव सवरप्रधान (कर्मो को आते हुए रोकने की) क्रिया करने वाला होना चाहिए। अन्यथा, बहुत-से ऐसे गुरु होते हैं, जो आरम्भ-समारम्भ से ग्रथित सावद्य क्रियाकाण्डो के भवरजाल में स्वय भी फैसे रहते हैं, अनुयायियो को भी फँमा देते हैं। परन्तु क्रियावान गुरु प्रत्येक क्रिया मोक्षदायिनी करेगा, इहलोक-परलोकलक्षी नही, तथा उसके साथ उसे कर्तृत्व का अभिमान नहीं होगा, उसकी क्रिया स्वेच्छाचारी नही होगी, अपितु शास्त्रानुसार निरवद्य होगी। इस प्रकार की निरवद्य क्रिया करने कराने वाला गुरु ही शान्तिप्रदाता हो सकता है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨૪ यध्यात्म-दर्शन सम्प्रदायी गुरगम्यक विचार जोर आचार का मार्गदर्णन देने वाला धर्म-सगठन सम्प्रदाय है । गुरु ऐगे तम्प्रदाय में गम्बर होना चाहिए । एने सम्प्रदाय मे रहने वाला मुगुरु स्वय आत्मानुशामित दाता? और नर को भी अनृणामन मे ग्यता है । सम्प्रदायी गुर गनमाने का मानने वानाचाचारी नही होगा। परन्तु गम्प्रदायी का यह मतलब नहीं हैं कि वह गम्प्रदान के मोह मे या नाम्प्रदायिकता से ग्रस्त हो कर नम्प्रदाय में बनने वाली गलत बातो का नमर्थन करेगा या अपने अनुयायियों को उजना पर दूसरे माप्रदायो मे लडायेगा-गिडायेगा या नवर्प करायेगा। वह गम्प्रदायी गुरु गदाग्रही होगा, दुराग्रही नहीं, वह द्रव्य-क्षेत्र-कान-भाव को देख पार युगानुकूल नाति (परिवर्तन-राशोधन) करेगा। चूंकि सम्प्रदाय मुन्दर मनकारी में जीवन का निर्माण करता है, व्यक्ति को अनुशासित रखता है, उन्म त नहीं होने देता , अत सम्प्रदाय मे रहना बुरा नही, गाम्प्रदायिकता या सम्प्रदाय-गोह से ग्रस्त होना बुग है। गुरु पूर्वोक्त व्याग्यानुसार नम्प्रदायी होगा। वह गरलमना, मरल स्वभावी, चालतात, व रहनसहन मेनन और दम्भ, धूर्तता, वचकना या ठनी से बिलकुल दूर होगा, जो बात जैमी होगी वैसी ही कहेगा, या करेगा । अन्दर-बाहर एक होगा, धर्म-जीपन मे वह दूर होगा । वह प्रभु की साक्षी से गुरु के मार्गदर्शन में अपनी आत्मा की वफादारीपूर्वक धर्माराधना करेगा । अथवा स्वम्पलक्ष मे वचित नहीं होने वाला गुरु हो । शुचिगुरु--वह पवित्र स्वभाव, पवित्र, निष्पाप, निष्कलुप, कपाय माव की क्लिप्टना से दूर एव मर्यादित वेपभूपाघारी होगा। पवित्र गुरु से ही जनता शान्ति का पाठ सीख सकती है । अनुभवाधार गुरु-आत्मगुण तथा व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक अनुभवो का आधाररूप गुरु ही स्वय तर सकता है, दूगरो को तार सकता है । अपने अनुभव के सहारे वह अशान्त वातावरण को शान्त वातावरण में बदल सकता है । अथवा निश्चयष्टि से वह शुद्ध आत्मानुभवी हो। अत शान्ति का स्वरूप जानने का या शाति-प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति उपयुक्त सातो गुणो से युक्त साधक को ही अपना गुरु बनाए, उसी का आश्रय ले, जैसे-तैसे ऐरेगैरे को गुरु बनाने में तो शान्ति के बदने अशान्ति ही पल्ले Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान । ३२५ पडेगी। सद्गुरु ही शान्नि का स्वरूप प्राप्त करा सकता है। इस कारण श्रीआनन्दघन जी ने योगाऽवत्रक गुरु के योग को शान्ति का स्थान बताया है । सद्गुरु का योग पाने के बाद सद्धर्मप्राप्ति के हेतु शुद्ध आलम्बन शान्ति के लिए आवश्यक है, इमी बात को अगली गाथा मे श्रीआनन्दघनजी वताते हैं - शुद्ध आलम्बन आदरे, तजी अवर जजाल रे। तामसी वृत्ति सवि परिहरे, भजे सात्त्विक साल रे ॥ शान्ति० ॥५॥ अर्थ शान्तिकाक्षी साधक अन्य सभी प्रपच-जाल (खटपट) या रागीद्वषी देव-गुरु का जाल छोड़ कर शुद्ध (शास्त्रोक्त) या आत्मस्वरूप के आलम्बनो को अपनाए । तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, तप, दम, ईर्या, छल, स्वार्थ, इन्द्रियविषयासक्ति आदि समस्त तामसीवृत्तियो का त्याग करे और सात्त्विक ज्ञानयुक्त आनन्ददायी वृत्ति धारण करे । भाष्य सद्धर्मप्राप्ति के लिए शुद्ध आलम्बन शान्ति का कारण देव और गुर के योग के बाद सद्धर्मप्राप्ति के लिए क्रियाऽवचक योग वतलाया गया। क्रियावचकयोग मे पुष्ट और शुद्ध आलम्बन प्रहण करना चाहिए। प्रश्न होता है कि गुद्ध आलम्बन किसे कहा जाय ? जो आलम्बन शुद्ध स्वरूपलक्ष्यी, परमात्म लक्ष्मी या मोक्षलक्ष्यी हो, उसे ही शुद्ध आलम्बन कहा जा सकता है। जिस आलम्बन से साधक दुर्गतियो मे भटकता हो, जिससे । जीवन पतन की ओर जाता हो, अथवा जो आलम्बन मनुष्य को सदा परावलम्बी बनाए रखता हो, उम आलम्बन को शुद्ध आलम्बन से कहा जा जा सकता है ? शुद्ध आलम्बन में किसी प्रकार का आडबर, अपच, स्वार्थसाधन, धोखा या मायाजाल नही होना चाहिए। वह आलम्मन राग, द्वेप, काम, क्रोध आदि के परिणामो से रहित होना चाहिए। अत निश्चयदृष्टि Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ अध्यात्म-दर्शन में तो गुह आलम्बन एकमात्र शुदम्बस्गलक्ष्यी आत्मा ही हो सकता है, जिसमे अन्य विकलो वा जान न हो। वह बालम्बन गदा अग्रण्ट आत्मस्वरूप मे गणस्प चारित्र, आत्मनान और आत्म-वरूपवर्णन हो मरता है। वहीं म्वावलम्बन है। उस दृष्टि में किसी दूगर का, यहाँ तक कि देव, गुरु और धर्म का भी आलन्दन पराग्वन है। आत्मा का मालम्बन लेने में किसी दूसरे मे याचना करने की, दूसरे को रिसाने की दृष्टि मे गुणगान करने की जरुरत नहीं रहती। परन्तु जहाँ तक शरीर गाय में है, वहां ता किसी न किसी दूसरे का आलम्बन लेना पटता है। और यो देखा जाय तो मालम्बन शब्द ही परमापे-पक्षित है। आत्मशक्ति बी पता ही मालम्बन की अपेक्षा सती है। साध्य मे जब तक अपूर्णता है, जब तक संसारसमुद्र से वह पार नहीं हो जाता, तव त्या उमे नीका की तरह शरीर, मंघ, देव, गा, धर्म शास्त्र आदि का आलम्बन लेना ही पड़ता है। आलम्बन मनुष्य तभी तक लेता है, जब तक वह पूर्णता के शिखर पर नहीं पहुंच जाता। शास्त्र में बताया गया है कि' धर्माचरण करने वाले माधु के लिए पांच ग्यानो (आघारो) के निधाय (आलम्बन) वताए है.---राघ, धर्माचार्य, गृहस्थ, छह काया (सनार के प्रत्येक कोटि के जीव), और गासका। यह तो हुई व्यावहारिक और मामाजिक दृष्टि से आलम्बन की बात। व्यवहान्दृष्टि से शुद्धदेव, सद्गुरु और सद्धर्म का आलम्बन लेना अपूर्णसाधक के लिए आवश्यक होता है। परन्तु दन और रोने ही अन्य आलम्बनो को ग्रहण करते नमय यह विवेक करना होगा कि मैं जिन देव-गुरु-धर्म आदि का जानम्वन ले रहा हूं, वे वीतरागभाव-पूर्णशान्ति-शुद्वात्मगाव की ओर ले जाने वाले हैं, या परम्पर साम्प्रदायिकता, सम्प्रदायमोह, कदाग्रह, राग-द्वेष, कपाय, संघर्ष जादि बढाने वाले है ? अगर वे आलम्बन तथाकथित देव-गुर-धर्म के नाम से झगडे, उपद्रव, सिरफुटीबल, छल छिद्र, दम्भ आदि पैदा करने वाले हो तो उन्हे व्यवहारदृष्टि से मी शुद्ध आलम्बन वाहना अनुत्रित है । इसी प्रकार व्यवहारदृष्टि से मोक्षलक्ष्यी आलम्बन के स मे व्यवहार सम्यग्दर्णन, १. धम्मस्स ण चरमाणस्स पच ठाणा निस्सिया पण्णत्ता-छकाया, गणे, राया, धम्मायरिए, गाहावई। -स्थानांगसूत्र पचम स्थान हावा - Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा मे शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३२७ सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ग्रहण किये जाते है , लेकिन वे भी वीतरागता और समता के पोपक हो, तभी उपादेय हो सकते हैं। यदि तथाकथित सम्यग्दर्शन के नाम से कलह कदाग्रह, एकान्त एव अधश्रद्धायुक्त मिथ्या मान्यताएँ आलम्बन के रूप मे स्वीकार करने का कोई कहे, सम्यग्ज्ञान के नाम से उन्मार्गगामी, अन्धविश्वासयुक्त, अथवा भौतिकज्ञान या मिथ्याज्ञान अथवा अनिष्ट सावद्यमार्ग पर ले जाने वाले विषमतावर्द्धक ज्ञान या शास्त्रो को आलम्वन के रूप मे थोपना चाहे अथवा सम्यक्चारित्र के नाम से कोई युगवाह्य, निरर्थक,सवर प्रतिपक्षी, सद्धर्म से विपरीत, वृथाकष्टकारी क्रियाएँ आलम्बन के रूप मे लादना चाहे तो वह शुद्ध (व्यवहारदृष्टि से) आल म्बन नहीं हो सकता। यद्यपि पूर्णत शुद्ध एव उपादेय आलम्बन तो आत्मस्वरूपलक्ष्यी स्वरूपरमण ही हो सकता है, क्योकि वही नित्य है, शुद्ध और अभिन्न आलम्बन है। इस प्रकार का प्रतिपादन स्वय आनन्दघनजी अगली गाथाओ मे करेगे। किन्तु जब तक शरीर है, तब तक व्यवहारदृष्टि से जल सन्तरण के लिए नौका की तरह सुदेव, सुगुरु या सद्धर्म आदि मोक्ष, परमात्मा या शुद्धस्वरूप की ओर ले जाने वाले पुष्ट या पवित्र आलम्वन भी कथचित् शुद्ध एव उपादेय हो सकते हैं। परन्तु वे आलम्बन नदी पार होने के बाद नौका को छोड देने की तरह वीतरागधारित्र की भूमिका पर या उच्च गुणस्थान मे आरूढ हो जाने पर त्याज्य होते है। जैसे एम० ए० पढ़े हुए विद्यार्थी के लिए उससे पहले की कक्षाएं या पाठ्यपुस्तके छोड़ देनी होती हैं। वैसे ही उच्चश्रेणी पर पहुंचे हुए माधक को नीची श्रेणी के रामय लिये जाने योग्य आलम्बन छोड देने चाहिए। इसीलिए श्रीआनन्दधनजी ने स्पष्ट कहा है-'शुद्ध आलम्बन आदरे, तजी अवर जजाल रे' । तात्पर्य यह है कि आलम्बन के नाम से प्रपचमय, रागद्वेपवर्द्धक, मायाजाल में फंसाने वाले, वीतरागता से विमुख करने वाले आलम्बन, चाहे जितने पवित्र नाम से कोई थोपना चाहे, उन्हे जजाल समझ कर छोड दो । अथवा शुद्ध आलम्बन का व्यवहार दृष्टि से यह अर्थ भी हो सकता हैशुद्धरूप से आलम्बन यानी देव, गुरु, धर्म आदि भी सच्चे हो, लेकिन उन्हे गलत रूप से, स्वार्थ, दम्भ, छल छिद्र, आडम्बर एव यशोलिप्सा, पदलिप्सा TopHONromparm anenerawan Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ अध्यात्म-दर्शन आदि किपी विपरीतभाव मे, या गोध-द्रोह प्या-अमिमानवश रहण करना अशुद्ध आलम्बन है। शुद्धमा गे इन चार बानो के नाय देवगुरुधर्म यादि का आलम्बन लेने मे ४ मिनियां आती हैं-~-इच्छा, प्रवनि, न्ययं और मिद्धि । निश्चयदृष्टि से आत्मस्वरूपलक्ष्यी शुद्र आत्मा का आलम्बन भी पूर्वोक्त अशुहस्प रो न ले कर शुदरुप से लेना भी शुद्धालम्बन का अर्थ हो सकता है। तामसीवृत्ति छोड़ कर मात्त्विावृत्ति का आश्रय अशुद्ध आलम्पनरूप प्रपच छोड कर शुद्ध आलम्बन लेना शान्तिप्राप्ति का मूल कारण है, परन्तु माथ ही व्यवहारदृष्टि गे देवगुर आदि पवित्र आलम्बनो के लिए पवित्र वृत्ति मी होनी आयश्या है। आलम्बन तो व्यवहार के नाम मे तथाकथित शुद्व अपना लिए, लेकिन वृत्ति अभी तक तामसी बनी हुई है, मिथ्यात्वग्रस्त है, अज्ञानान्धकारमयी है, वह शरीर को ही आत्मा समझ कर उसी का पोषण करने, उमी को स्वस्थ रखने आदि की चिन्ता करता है या उमी को आत्मा समझ कर उसके चिन्तन में इवा रहता है । अथवा रागी-द्वेपी, मोही, तर, शस्त्रपाणि, मदिगपायी, मासाशी अथवा श्राप दाना देव, भगेडी-गजेडी, दुय॑मनी अयवा मिथ्यादृष्टि गुरु एव वामाचार मार्ग-प्रेरक व्यभिचारोत्तेजक धर्म में उनी नामगी वृत्ति गे ओतप्रोत रहे तो वह उसके लिए शान्तिदायक या शान्तिम्वरूप का परिचायक की हो सकेगा। इसीलिए श्रीआनन्दघन जी को कहना पडा-"तामसो वृत्ति सवि परिहरी, भजे सात्त्विक साल रे।" सात्त्विका मे--ममता, दया, क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुना, लघुता, सत्यता, सयमपरायणता, तश्पचर्या, ब्रह्मचर्य अकिंचनता, त्याग आदि का समावेश हो जाता है। संक्षेप मे, आत्मघम या मुन-चारित्ररूप धर्म मात्त्विक वृत्ति में आ जाता है। इसीलिए साधक को भ-महावीर ने निर्देश किया है-१ धैर्यवान, धर्मसारथी. इन्द्रियरूपी अश्वो का दमन करने वाला एव धर्मोद्यान में रत भिक्ष धर्मस्पी वगीने में विहरण करे, ब्रह्मचर्य-आत्मम्बा मे रमण-विचरण करना ही उसके लिए समाधि है।" १ . धम्माराम चरे भिक्खू घिइम धम्मसारही । घम्मारामरए दते, बंभचेर-समाहिए ।। --उत्तराध्ययन अ. १६ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३२६ इस प्रकार शुद्ध आलम्बन ले कर मात्विक वृत्ति से युक्त होने से साधक आध्यात्मिक शान्ति को पा लेता है, शान्ति उसकी सहचरी बन जाती है, शान्तिस्वरूप को वह हृदयगम कर लेता है और दूसरो को भी शान्ति प्रदान करता है। अब इसमे आगे के शान्ति के सोपान के बारे मे कहते हैफल-विसंवाद जेहमा नहीं, शब्द ते अर्थ-सम्बन्धी रे। सकलनयवाद व्यापी रह्यो, ते शिवसाधनसन्धि रे। शान्ति ॥६॥ अर्थ जिसके मन मे मोक्षरूप फल [कार्य] के सम्बन्ध में कोई विसवाद [दुविधा नहीं है, जिसके कहे हुए शब्द और उसके अर्थ के सम्बन्ध में कोई विरोध नहीं है, जिसके वचनो मे सर्वत्र समस्त नयवाद [सापेक्षता] व्याप्त है, ऐसे आप्तपुरुष के वचन मोक्षप्राप्ति की साधना मे कारणरूप हैं। भाष्य शान्ति-सहायक मोक्षफलावञ्चकयोग आप्तवचन पूर्वगाथा मे शुद्ध आलम्बन की बात कही गई थी। परन्तु शुद्ध आलम्बन तभी शुद्ध रह सकता है, जब ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि के पालन से विषय मे नि शक, निर्विवाद, सापेक्ष, सार्थक-शब्दयुक्त आप्तवचनो का आलम्बन लिया जाय । वही शान्तिदायक, शान्तिसचारक हो सकता है। शान्ति के लिए फल के प्रति अविसवादिता आवश्यक ज्ञानादि की अयवा आत्मम्बम्पलक्ष्यी जो भी साधना की जाय, उसमे फल के प्रति शका या असगति मन में नहीं होनी चाहिए। जहाँ फलाकाक्षा या फन के विषय मे शका या भ्रान्ति मन में होती है, वहाँ साधना का रस खत्म हो जाता है, साधना के साथ जो श्रद्धा, भक्ति का आनन्द है, उसका स्थान बेगार ले लेती है । अत शान्ति के अभिलापी साधक को यह णका नही होनी चाहिए कि इस माधना का फल मिलेगा या नहीं, फल नही मिला तो Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० अध्यात्म-दर्शन क्या होगा? क्योकि फन तो निगम के अनुसार मिलना ही है । 'या या त्रिन्या गा सा फलवती', जैसी कारण-गामगी होगी, वैसा ही फल होगा, वैमा ही कार्य होगा, परन्तु जैसा फल सोचा हो, सा फल न आए तो यपने गारण के साथ फल वा अविमवाद कहलाता है। मलिए गान्तिकाक्षी के मन में फल पी को अमगति या णका नहीं होती कि गान्ति की गाधना का फल मिलेगा पा नही? शान्ति के लिए आत्मार्थप्राप्तिसूचक सापेक्ष वचन आप्तपुरप के मापेक्षा (नयवाद मे युक्त) वचनो मे शाति के इच्छुक व्यक्ति को का नहीं होती, या उसके भावार्य के सम्बन्ध मे उमे शका नहीं होती, उसके मन में ऐसी गवा नहीं होती कि ऐमा अर्थ होगा या दूनरा होगा? आप्तपुम्प के जो वचन (शब्द) होते है, उनका जो सर्थ होता है, यह उगे विना विमी विरोध या आपत्ति के समझता है और स्वीकार करता है। उन पाब्दो के मयं के सम्बन्ध में उसके मन में जरा भी उलान नहीं होती। ऐसा साधक' नयवाद (मागेक्षत्व) की दृष्टि के परस्पर अविरोधीरूप से नि.णक हो कर समाधान कर देता है , क्योकि वह पान्दो में विरोधता जानता है । इसलिए उसके निर्मल मन में शका वुशका को स्थान नहीं होना। उस प्रकार का निर्गन अन्न करण शान्ति के उपायक का होता है। वह शन्दो का उदाहरणाथ-मोक्षस्पफल में भी विविध गयो की अपेक्षा गे धर्मस्प साधन की व्यवस्था (सधि) इस प्रकार होती है-नंगमनय की अपेक्षा से जो जीव मोदक्षपद मे अवश्य जाएगा, उगमे निहित तथारप भव्यता को अथवा अपनबन्धकमाव को धर्म कहा जा सकता है। सग्रहनय की अपेक्षा मे मोक्ष के लोटे-बडे ओक का णो को धर्म कहा जा सकता है। व्यवहारनय की अपेक्षा में तमाम धार्मिक अनुष्ठानो को धर्म कहा जा सकता है। आजसूत्रनय की अपेक्षा मे देशविरति-सर्वविरति को धर्म कहा जा सकता है। शब्दनय की अपेक्षा से उच्चदशा की निर्विकला अवस्था को धर्म कहा जा सकता है। गमिर ढनय की अपेक्षा से सयोगी केवलज्ञानी अवस्था को बम वहा जा सकता है। एवभूतनय की अपेक्षा से शैलेशीकरण की अवस्था को घग कहा जा सकता है, जिसके बाद तत्काल ही मोक्ष प्राप्त हो जाना है।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३३१ अपेक्षावाद (नयबाद) की दृष्टि से रहस्यार्य समझता है, कि अमुक पदार्य का अमूक अपेक्षा से अस्तित्व भी है, अमुक अपेक्षा मे नास्तित्व भी है। इस प्रकार के सापेक्ष वचन ही मोक्ष (शान्तिल्प) की साधना के कारण हैं । ऐसा शान्तिमाधक पृयक् पृयक दृष्टिबिन्दुओ को समझता-नमझाता है । इस प्रकार यह फलावचकयोग रूपशान्ति हई । शान्ति के लिए किन चीजो का ग्रहण और किन चीजो का त्याग करना चाहिए ? इस सम्बन्ध में श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे कहते है-- विधि-प्रतिषेध की आतमा पदारथ अविरोध रे। गहराविधिश महाजने परिग्रहो इस्यो आगम-बोध रे॥ शान्ति० ॥७॥ अर्थ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, समाधि, समता, वैराग्य, भक्ति-क्षमा आदि आत्मप्राप्ति के या आत्मा में घटित होने वाले साधनो, गुणो, स्वभावो या धर्मों आदि का निरूपण (विधि) तथा मिथ्यात्व, मिथ्याग्रह, काम, क्रोध, हिसादि प्रमाद, स्वच्छन्दता, इन्द्रियविषयो मे प्रवृत्ति, आसक्ति वगैरह आत्मगुण के घातक या या आत्मा मे घटित न होने वाले गुणो, अमावो या विभावो आदि का प्रतिषेध निपेध, त्याग या प्रत्याख्यान) है । आ-मा को इस प्रकार विधि-निषेधरूप (करणीय कार्य को विधिरूप व अकरणीय को निपेधरूप) वायय द्वारा यथार्थ एव अविरोधरुप से जान कर महापुरुषो (ज्ञानीजनो) ने उन्हे जानने (ग्रहण करने) की योग्य पद्धति से आत्म-पदार्थ का स्वीकार किया (अपनाया) । आगमो [शारो] मे इस प्रकार का बोध है, जो शान्ति का कारण है। भाष्य शास्त्रयोग से आत्मा का विधि-निषेध रूप मे ग्रहण . शान्ति का सोपान आत्मप्राप्ति के साधन के रूप मे अमुक कार्य, जो कि आत्मगुणो, आत्मस्वभावो, या आत्मधर्मों के लिए अनुकून है, इस रूप में करना चाहिए, यह शास्त्रोक्त विधि है, तथा इसके विपरीत आत्म-गुण के घातक व अमुक दुर्गुणो, विभावो, Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ अध्यात्म-दान अधर्मो या अभावी का द्योतक काय है, उमा घाग, प्रत्यावान, या निव करना चाहिए, यह गायोक्त प्रतिषेध है । यानी (आत्मदृष्टि में) अगुवा कार्य करना और अमुक नहीं करना चाहिए, उस प्रकार के विभिनिरोध में उग अपेक्षावाद के कारण जरा भी विरोध नहीं दिखाई देता । पालिवान्यानाधक की कुणलदृष्टि विधि का म्वीकार करती है और निषेध का त्याग करनी है। उमे विधि-निषेध मे गृयवा-पृयका दृष्टिमिन्दुक ज्ञान के कारण जग भी उलझन नहीं होती। ___ आगमो मे भले ही अनेक पदार्यों, नन्चो या अनुयोगो का वर्णन ग निस्पण हो, लेकिन प्रत्येक का अन्तिम तात्पर्यार्थ-मतावापयार्ग आत्मा पदार्ग का मोक्ष (शाश्वत शान्ति, के लिए निरूपण करना है । इस दृष्टि से आगमो में दो प्रकार गे बोधनिम्पण हैं --- विधिवाक्य और निपंधवानय । जात्मा विमा. वदशा मे रह कर आत्मगुणवाधक तत्वों का ग्रहण करके अपना मूल-वस्य भूनी, जिससे वह शान्ति-म्वरुप गे वनित रही। राग-द्वैप, काम, नोप, लोग, मोह, माया आदि सब पुदगल'भावो की ओर ले जाने वाली किसानो को प्रनिषेध कहा जाता है, इन क्रियाओ का कर्मा आत्मा है, जो उन वैमानिक निगारो के कारण अशुद्ध बना हुआ है, इसी कारण वह योग-आत्मा या कपायात्मा के नाम से पुकारा जाता है। उन्ही क्रियाओ के कारण आत्मा को इम अगान्त - दुन. मय वातावरण में बारबार परिभ्रमण करना पड़ता है । जब यही लात्मा म्ववोध या सद्गुरु या आगम के बोध गे सगावदशा मे मा कर आत्मगुणगायक विधितत्व को ग्रहण करना है, तब यह गुद्धात्मा बनता है, जिनसे उमा मन्यदर्शन-ज्ञान-चारिन तथा वैराग्यादिभावो मे स्थिरता आती है। इसलिए आत्मा के दुरा और जणान्ति के कारण रूप प्रनिपेवक (बाधा याघाना) तत्वो को दूर करना-उन का त्याग करना और अन्त गुख तथा शान्ति के कारणरूप विधितन्व का पालन करने वा अपनाने के लिए तत्पर रहना, यही है शान्ति प्राप्त करने का राजमार्ग, जिम जागमो मे यत्र-तत्र वोध (उपदेण या प्रेरणा या आजा) के रूप में बताया है। जिन्हे पूर्वका न मे सपन-देव से ले कर भ महावीर तथा उनके सामाचिगो अयवा विश्व के समष्टि मतपुरुपो ने भी इनी रूप मे विधि मे शुद्ध आत्मपद या परमात्मपद ग्रहण किया है। न्यायशास्त्र में विधि यानी अन्वय और निषेध यानी व्यतिरेक का उपयोग किया Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान जाता है । जहा विधि-(अन्वय) तत्त्व से ग्राह्य विषय आता है, वहाँ निषेध (व्यतिरेक) तत्त्व से अबाह्य विपय अपने आप हट जाता है । जैसे शास्त्र वाक्य हैउपशम से क्रोव-विजय होता है, यह अन्वय वाक्य है, उपशम के अभाव (क्रोध) से क्रोधविजय नहीं होता, यह व्यतिरेकवाक्य हुआ।' नौ तत्त्व, द्रव्य-क्षेत्र कालभाव, द्रव्य-गुण-पर्याय, सात नय, पच अस्तिकाय, पाँच ज्ञान, उत्पाद-व्यय ध्रौव्य, क्षायिवादि पाँच भाव, सूत्र -अर्थ, पट् द्रव्य, निश्चय-व्यवहार, उत्सर्ग-अपवाद, कर्म और उसके भेद आदि जो कुछ बोच आगमो मे है, उम सबका मुख्य तात्पर्य पात्रजीवो को आत्मा का स्वरूप समझाना है, क्योकि जानने का फल आत्मा को ही मिनेगा, अन्यथा जानने की जरूरत क्या थी । विभिन्न प्रकार से अन्वयव्यतिरेक से आत्मा का स्वरूप समझाना ही शास्त्रो का मुख्य कार्य है। इसीलिए महापुरुपो ने आत्मपदार्थ को भलाभाति समझ कर उसका जिस रूप मे जो स्वरूप है, उसका यथार्थरूप मे आगमो मे सग्रह किया है। अत आगमो के द्वारा आत्मा को अविरोधरूप से वास्तविक रूपमे समझ लेना ही शास्त्रयोग है, जो एक तरह में शान्ति का कारण हे । आत्मा गुण नही, क्रिया नही, कल्पना से कल्पित वस्तु नहीं, अभाव-रूप पदार्थ नही, तथा सायोगिक पदार्थ नहीं, अपितु वह साक्षात् भावरूप अमूर्त, अविनाशी पदार्थ है, इस प्रकार विधि-निषेधरूप से प्रमाणल्प मे (गतानुगतिकता से नही) आत्मा का विधिवत् स्वीकार करना भी शान्ति का कारण है । १ देखिये आगमो मे विधि-निषेधक विभिन्न पाठ -- (अ) अप्पणा सच्चमेसेज्जा मित्ति भूहि कप्पए '-उत्तराध्ययन (आ) कोह माण च लोभं च माय च पाववड्ढण । वमे चत्तारि दोसा उ, इच्छतो हियमप्पणो ॥-- दशवकालिक (इ) अप्पा चेव दमेयन्बो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दतो सुही होई अस्सि लोए परत्थ य ।। -उत्तराध्ययन ई) न लोगस्सेसण चरे'-आचारांग [3] सुयाणि य अहिज्जित्ता, तओ झाइज्ज एगओ। -उत्तरा० Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ अध्यात्म-दर्शन आनागी गावाओं में माध्यामिक गान्ति की प्राणिनिए विविध उपाय बताए है दुष्टजनसंगति परिहरे, भजे सुगुरासन्तान रे। जोग सामर्थ्य चित्तभाव जे, धरै मुतिनिदान रे ॥ शान्ति ॥८॥ अर्थ मात्मशान्ति मे विघ्न डालने वाले मिथ्याग्रही, अभिनिवेशो, मियामापी, मियादृष्टि, निर्दय आदि दुष्ट दिचार-आचार से दूपित) लोगों अयवा मिच्यास्व, कषाय, विषयमक्ति आदि दोपों का ससर्ग छोड कर निष्पक्ष चानी जात्माओं गुरु अथवा उनके निग्राय मे रहे हुए शिप्यो को मग ति पारे। इस प्रकार जो मुमा मुक्ति [गान्ति] के कारणरूप सामध्यंयोग [मात्मवीर्य ] को चित में भावोल्लामपूर्वक [या आत्मा के उच्चस्वभावपूर्वक] धारण करता है, वह मोक्षसिद्धिशान्तिलाम प्राप्त करता है । भाष्य दुष्ट-तगतिवर्जन शान्ति के लिए जरूरी मुमुक्षु और शान्तिन्वल्पप्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति को दुराग्रही, दुप्टस्वभावी एव वितण्डावादी' दुर्जन लोगो की मोहबत से दूर रहना चाहिए, क्योकि 'ससर्गजा दोषगुणा भवन्ति' इस न्याय से हलकी एव नीच प्रकृति के लोगो के साथ रहने से लाभ के बजाय हानि ही अधिक होती है। उनके दोप मद्गुणी आत्मार्थी साधक मे आने सम्भव हैं । ऋ र कदाग्रही आदि दुष्टो या दोपो की सगति १ ते मन मे सक्लेश पैदा होता है, अगान्ति और बेचैनी बढ़ती है। सुगुरु-सन्तान की सेवा मे रहे अगर नगति करनी ही हो तो सद्गुरु -(निस्पृह, अनासक्त, त्यागी, एव आत्मार्थी गुरु) की सेवा मे रहे। ऐसा करने में आत्मविकास की सुन्दर प्रेरणा मिलेगी, आत्मकल्याण का उपदेश मिलेगा, कपाय-रुचि और विपयासक्ति मन्द होगी। अगर वे मद्गुरु महापुरुपो की शिप्य-पर १. कहा भी है 'खुडेहि सह ससग्गि, हास कीड च वज्जए' -~-उत्तरा, १ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध में समाधान म्परा के होगे तो ब्रह्मचर्य के उत्तग अस्कारो मे ओतप्रोत गुरुकुल मे रह कर उन्होंने अपना जीवन-निर्माण किया होगा; इसमे गव्य जिज्ञासु को शान्ति की प्राप्नि अनायास ही होगी। मतलब यह है कि कुमग का त्याग और सुमग का आश्रय लिया जाय, जिसमे शास्त्रयोग प्राप्त हो, सिद्ध और सफत हो । सामर्थ्य-योग का धारण . शान्ति का कारण इसी प्रकार शान्तिवाञ्छुक साधक ऊपर चढता-चढता सामर्थ्य- योग चित्त मे धारण करे, जो मुक्ति का प्रबल कारण है। सामर्थ्ययोग का अर्थ हैआत्मा मे इतनी शक्ति (सामर्थ्य) प्रगट करे, जिससे अप्रमत्त माधक हो कर आत्मा मे असख्यकाल से निहित विपयकपायादि दुष्ट भावो को छोडे । यही कारण है कि सामर्थ्ययोग उच्चगुणस्थानो मे प्राप्त होता है । इसके मुख्यतया दो भेद-धर्मसन्यासमामर्थ्य योग और योगसन्याससामर्थ्ययोग। ७वाँ गुणम्थान छोडने से ८वा गुणस्थान प्राप्त होने पर धर्मसन्यास-सामर्थ्ययोग आता है, जिसमे सातवे गुणस्थान तक करने के वाह्य धर्मानुष्ठानं छोड देने होते हैं, जबकि योगसन्यासमामयंयोग मे १३ वे गुणस्यान का अन्तमुहर्न काल वाकी रहता है, तब मन-वचन-काया के-निरोध करने की क्रिया शुरू होनी है । वहाँ से ठेठ शैलेशीकरण के अन्तिम समय तक की अवस्था होती है । अथवा यहाँ 'योगसामर्थ्य' शब्द भी हो तो उसका अर्थ होता है--- मन, वचन, काया के योगो पर काबू करना या इन तीनो का सामर्थ्य वताना । अपने सयोग, सामर्थ्य, उत्साह और आरोग्य को देख कर साधक जितना हो सकता है, उतना आत्मशक्ति प्रगट करने मे तत्पर होता है । १ वसे गुरुकुले निच्च (सदा गुरु के निकट निवास करे)-उत्तरा० १० २ कहा भी है वल थामं च पेहाए सद्धामारुगमप्पणो । खित्त काल च निन्नाय तहप्पाण निउजर-दश ० अ० ८ जोग च तमणधम्मम्मि जुजे अगलसो धुव । जुत्तो अ समणधम्मम्मि अटु लहइ अगुत्तर ।। दश० अ८ साधक अपना वल, उत्साह श्रद्धा, आरोप, क्षेत्र और काल देव कर अपनी आत्मा को माधना में जुटा दे। सापक आनन्धरहित हो कर स श्रनग धर्म मे अपने योग को लाए। धनगधर्म में लग हुए मारक की जात्मा अश्य ही अनुतर मुख (शान्ति) रूप अर्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करती है । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन योगसामर्श का एक अर्थ यह भी है कि गुपुर गाव ः अपने मन को व्यर्थ के अनिष्ट चिन्तन मे, व वन को वृथा विवाद मे, निन्दा-चुगली कारों में तथा काया को व्यर्थ की चेष्टामो या फिजूल कामो मे अथवा दुगगे के साथ लडाई-झगडे मे न गा कर शुद्ध आत्म-चिन्तन गे, आत्मगुण नी चर्चा मे, अथवा परमात्म गुणानुवाद ग, तथा दूमरो की सेवाशुश्रूगा, त्याग आदि में लगाए । अपने समय का दुपयोग न करें, अपितु समय का अच्छे विचार, वचन एव कार्य में नदुपयोग अयवा स्वय को जो समय या माधन प्राप्त हए हैं, उनका उपयोग अच्छी प्रवृत्ति में करे। इस प्रकार के योगमामय में स्वन ही शान्ति प्राप्त होती है, आत्मा मे समाधि रहती है। अगली दो गाथाओ मे महाशान्ति के लिए गमतायोग के विषय में कहते है मान-अपमान चित्त सम गरगे, सम गणे पानफ-पापाण रे । वन्दक-निन्दक सम गणे, इस्यो होय तुं जाग रे ।।शा०६ ॥ सर्व जगजन्तु ने सम गणे, सम गणे तृण-मणि भाव रे । मुक्ति-ससार नेऊ सम गणे, मुणे भवजलनिधिनाव रे ॥शा० १०॥ अथ शान्तिवाञ्छुक साधक का कोई सम्मान करे या अपमान करे, दोनो अवस्थाओ को मन मे सम समझे (दोनो मे सम रहे) । सोना और पत्थर दोनो को समान समझे, तथा उसकी वन्दना (भक्ति -पूजा) करने वाले गौर उसकी निन्दा (आलोचना) करने वाले दोनो को सम समझे । जब तू इस प्रकार का समभावी हो जायगा, तभी समझना कि मैं मुमुक्ष या शान्तिपिपासु हूँ। जगत् के समस्त प्राणियो को आत्मद्रव्य की दृष्टि मे समान समझे, तिनके और मणि दोनो को पुद्गल की दृष्टि से समान माने, मुक्ति (कर्मों से मुक्ति) में निवास हो या ससार मे, प्रतिबद्ध [वीतराग] भाव से दोनो को समान समझे, इस प्रकार की समतारूप शान्तिवृत्ति को वह साधक ससारसमुद्र तरने के लिए नौका समझे। भाष्य समतायोग : महाशान्ति का कारण पूर्वगाथाओ मे बताये हुए शान्ति के उपायो से आगे की भूमिका के रूप मे श्रीआनन्दधनजी ममतायोगः बनाते हैं, जो शाम्नयोग, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ज्ञानयोग, क्रियायोग और सामर्थ्य योग से भी उच्चकथा का है। क्योकि १ शास्त्र का ज्ञान तो समता की ओर दिशासूचन ही कर सकता है, वह समता के सागर मे ठेठ दूर तक नहीं ले जा सकता, मगर सामर्थ्ययोग नामक स्वानुभव समतासागर के सामने वाले किनारे तक आत्मा को पहुंच सकता है, बशर्ते कि समतारुप नौका पर आत्मा आरुढ हो जाय । बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा जब देश-सर्व विरति की भूमिका से आगे निविकल्पदशा की उच्चभूमिका (सातवा गुणस्थान) पर पहुंच जाता है, तब वह इस प्रकार का समतायोग प्राप्त करता है। इस प्रकार का सामर्थ्य योगी धर्मसन्यस्त होने से परम तृप्त हो कर परम निश्चय मे स्थित हो जाता है। वह रत्नत्रयी का आत्मा के साथ अद्वैत-अभेद करके केवल आत्मद्रव्यमय स्वानुभवमय पर्यायदृष्टिरूप विकल्प से रहित निर्विकल्प ध्यानस्थ (समाधिस्थ = कूटस्थ बन जाता है । वह आत्मस्वभाव का ज्ञाता, आत्मरमणकर्ता आत्मार्थी पुरुप जब सामर्थ्य योग के वल से समता में प्रवेश करता है, तब यदि कोई गुणग्राहकतावश कल्याणकारी, धर्मदेव, ज्ञानी इत्यादि शब्दो द्वारा उसकी प्रशसा करता है, उसका सत्कारसम्मान करता है अथवा कोई द्वेप या पूर्वाग्रहवश उसका अपमान, तिरस्कार या निन्दा करता है, कोई उसका विरोध करता है तो कोई समर्थन, वह दोनो स्थितियो मे हर्प-शोक या तोप-रोष नहीं करता, अपितु दोनो को पौद्गलिक भाव मान कर समता और आत्मशान्ति मे स्थिर रहता है। आत्मार्थी पुरुप तो केवल आत्मगुण मे ही रमण करता है, वह महानिर्जरा करता रहता १. अध्यात्मसार मे कहा है दिड् मानदर्शने शास्त्रव्यापार : स्यान्न दूरगः ।। अस्या. स्वानुभाव. पारं सामर्थ्याख्योऽवगाहते ॥२८॥ २- गीता मे कहा है-समत्व योग उच्यते- समत्व को योग कहा जाता है। जितात्मन प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित । शीतोष्णसुखदुःखेष तया मानापमानयो ॥७॥ ज्ञान-विज्ञानतृप्तात्मा फूटस्यो विजितेन्द्रिय । युक्त इत्युच्यते योगी, समलोष्ठाश्मकाचन : ॥८॥ सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थ प्यबन्धुषु । साधुस्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिण्यते ॥६॥ भगवद्गीता अ. ६ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ अध्यात्म-दर्शन है, वह जानता है कि सम्मान या अपमान से मेरे आत्मगुण में कोई बृद्धि या हानि होने वाली नही है । इसलिए किसी के द्वारा बन्दन या सम्मान करने में वह प्रसन्न या तुष्ट नहीं होता, तवैव किसी के द्वारा निन्दा या अपमान करने से वह खिन्न या रुष्ट नहीं होता। अलबत्ता, गुणग्राहकताव पादन, सम्मान करने वाले को शुभ- पुण्य अवश्य मिलता है, तया अज्ञान या द्वे पवण अपमान निन्दा या तिरस्कार करने वाले को अणुभ- पाप लगता है । किन्तु जानी आत्मार्थी सम्मान या अपमान तथा वन्दना और निन्दा दोनो ही अवस्थाओ मे समतारस के सागर पर तैरता रहता है। क्योंकि ऐसा समतायोगी मम्मान और अपमान के नमय दानान्तराय का उदय और उपशम तथा वन्दक और निन्दक के समय उपभोगान्त राय का उदयउपशम समझ कर दोनो ही अवस्थाओ मे मतुलित रह सकता है। इस प्रकार से शान्ति रखना बहुत ही कठिन है । यह कहना जितना भातान है, उतना करना आसान नहीं । बडे-बडे साधक इसमें हार खाजाते हैं। यो कहने का दिखावा तो प्राय. सभी करते हैं, पर जब हजारो आदमी आ कर उनकी प्रशंसा करते हैं, तो मन गुदगुदाने लगता है और जब वे ही उनकी निन्दा करने लगते है तो मन तिलमिला उठता है । प्रशसा और निन्दा सुन कर वे एकरस नही रह सकते । भगवान् पार्श्वनाथ पर एक और कमठ मूसलधार पानी बरसाता है, दूसरी ओर धरणेन्द्र उन पर छन धारण करके उनकी सेवा में हाजिर रहता है, ऐसी स्थिति में दोनो को समान मानने की वृत्ति वनाना बहुत ही कठिन है । परन्तु परम शान्ति के लिए ऐसा अत्यन्त जरूरी है । कई लोग ऐसा कह देते है कि जब वन्दक और निन्दक, सम्मानकर्ता और अपमानकर्ता दोनो को जो एक सरीखा मानते है, वे दोनो के साथ एक सरीखा व्यवहार क्यो नही करते? बात यह है कि वे तो अपनी आत्मा मे रमण करते है , ज्ञानी होने से वे दोनो के वस्तुस्वरूप को अवश्य जानते हैं, मगर दोनो मे से किसी के साथ बर्ताव नहीं करते, इसलिए समदर्शी के लिए तद्योग्य बर्ताव या व्यवहार करने का तो सवाल ही नहीं उठता। विद्याविनयसम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता, श्वपाक (चाडाल), इन सबके प्रति पण्डित (ज्ञानी- समतायोगी) समदर्शी होते है, समवर्ती नही। कुत्ते को अपने आत्मतुल्य मान कर क्या ज्ञानीपुरुष कुत्ते के साथ भोजन करने बैठ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध में समाधान जाएगा? या गाय को आत्मतुल्य मान कर उसका दूध नही दूहेगा या पीएगा? इसी प्रकार समतायोगी आत्मार्थी को ऋद्धि-सिद्धि आदि अनेक लब्धियाँ प्राप्त होना सम्भव है, वह परन्तु आत्मगुणलीन के लिए तो सोना और पत्थर दोनो समान हैं । वह वस्तुस्वरूप जानता है कि सोना पृथ्वी का शुभविकार है और पत्थर पृथ्वी का अशुभ विकार है । अत ज्ञानी की दृष्टि मे दोनो एकसरीखे है। इसी तरह तिनका, जो एक तुच्छ नगण्य चीज है, उससे घृणा नही होती, और रत्न, जो बहुमूल्य पदार्थ है, उसे देख कर मोह-ममता नहीं होती । ज्ञानी की दृष्टि मे दोनो पोद्गलिक है । इससे भी एक कदम और आगे बढती है कि वह शत्र मित्र पर ही नही, ससार के समस्त प्राणियो के प्रति आत्मौपम्य भाव आत्मतुल्य दृष्टि रखता है। आत्मद्रव्य के एकत्व की दृष्टि से वह समस्त आत्माओ को अपनी आत्मा के समान एकसरीखे मानता है। इससे भी आगे बढकर आत्मार्थी ज्ञानीपुरुप समता की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। २ उसकी दृष्टि मे मुक्तिनिवास या ससार निवास दोनो बराबर हैं। क्योकि वह समझता है कि मैं मुक्ति मे रह कर जो स्वरूपरमण वहाँ रखू गा वह स्वरूपरमण यहाँ (ससार मे ) रह कर कर भी रखूगा। इसलिए मेरे लिए कोई फर्क नही पडता- मुक्ति और ससार का । साधक कई वार मुक्ति के लिए उतावला हो उठता है, कई कच्चे साधक तो सांसारिक पद-प्रतिष्ठा, सम्मान-सत्कार एव बढिया खानपान एव विषयसुखो मे प्रलुब्ध हो कर मुक्ति की साधना छोड कर ससारनिवास की कामना करने लगते हैं । परन्तु समतायोगी साधक ज्ञानदशा में रहना है, इसलिए वह न तो शीघ्र मुक्तिप्राप्ति की १. इसीलिए गीता में कहा है विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्यणे गवि हस्तिनि । शूनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ निममो निरहकारो नि सगो चत्तगारवो। समो य सन्वभूएसु तसेसु थावरेसु य ।। लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा । समो निदापसंसासु तहा माणावमाणओ।।-उत्तराध्ययन-२८ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० अध्यात्म-दर्शन अभिलापा करता है और न ही ममारपालि की इच्छा करता है, क्योंकि इच्छा, कामा, अभिनाया भोर नालसा ये मर मोहनीयवाजनित है। इसलिए वह किसी भी प्रकार की इच्छा, वासना या ममिलापा, यहाँ तक कि मोक्ष की इच्छा को मी त्याज्य समझता है । भानी आत्मा गमागमुद्र पार करने हेतु समता को नौका मान कर मोक्ष-सिद्धस्वरूप (गुद्वात्मस्वरूप) प्राप्त कर। का सतत पुण्यार्य करता है । उसके लिए व्यवहारदृष्टि से तप, सयम, स्वाध्याय, ध्यान आदि का मालम्बन लेता है। इमीलिए शास्त्र मे कहा है-' पटकाय के रक्षक, परमशान्त महपि पूर्व कर्मा का रायम नीर तप से क्षय करके, समस्त दुखो को क्षीण करने के लिए आत्मभावरमण का पुरुपार्य करते हैं । इस प्रकार यात्ममिति प्राप्त करके वे अनादि-अनन्त शान्तिस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार का समतायोगी जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तो उसकी सर्वस्व स्वभावनिष्ठा आत्मा मे ही परिनिप्टिन हो जाती है। मात्मा के सिवाय उसके समक्ष कोई भी द्रव्य नहीं रहता, कोई भी विकल्प नहीं रहना, एकमात्र आत्मा, आत्मैकत्व, उसके समक्ष रहता है, इसी बात को आगामी नाया मे बताते हैं आपणो यातमनाव जे, एक चेतनाऽऽधार रे। अवर सवि साथ सयोगथी, एह निज परिकर सार रे॥ शान्ति० ॥११॥ अर्थ अपना (स्वय का) सक्रिय शुद्ध आत्मभाव (आत्मत्व) ही शुद्ध चैतन्यस्वरूप १-खवित्ता पुवकम्माइ सजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुपत्ता ताइणो परिणिन्डा ।। -दशवकालिक अ ३ (सव्वदुक्खपहीणट्ठा पक्कमति महे सिणो) -उत्तरा० अ २८ २. एगे आया-ठाणाग सूत्र 'आया सामाइए आया सामाइयस्स अट्ठ-भगवतीमूत्र एक आत्मा है । जगत् में समस्त प्राणियो की एक सरीखी आत्मा है । आत्मा ही सपा =मामाविक है सामायिक द्वारा प्राप्त अर्थ है । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३४१ की प्राप्ति का आधार है । आत्मा के सिवाय सभी अनात्म (कर्म आदि) पदार्थ मात्मा के साथ संयोगसम्बन्ध से जुड़े हुए हैं। वास्तव मे आत्मा का चेतना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र सुख आदि ही निजपरिकर (अपना आत्मसम्बन्धी परिवार) है, वही सारभूत एव शाश्वत है, साथ मे आने वाला है। भाष्य शुद्ध आत्मभाव ही परमशान्तिरूप है शुद्ध आत्मा अमूर्त और निराकार होने से मनुष्य अपने आसपास के दृश्यमान जगत्-शरीर, स्वजन, सम्बन्धी, मित्र, परिवार, समाज, सम्प्रदाय, मकान, धन, धान्य आदि को अपना मान कर उनसे ममत्व करता है, और इष्ट-अनिष्ट के वियोग-सयोगो मे दुाखी और अशान्त हो जाता है। परन्तु उसे यह पता नही कि ये सव पदार्य परभाव हैं, इनसे ममत्वसम्बन्ध बाधने से अशान्ति ही बढती है। स्वचेतनाधारक आत्मत्व अथवा चैतन्यगुण का आधारभूत आत्मद्रव्य का आत्मभाव ही परमशान्तिरूप हैं। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए श्री आनन्दधनजी कहते हैं-'आपणो आतमभाव जे. . ' इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा ने विभावदशा मे अज्ञानदशा से औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्माण आदि शरीर धारण किये हैं। इसी प्रकार शरीर से सलग्न वाल्य, यौवन, बुढापा, रूप, कान्ति, नाम, आकार आदि तथा शरीर से सम्बन्धित एव शरीर के उपभोग मे आने वाले अन्न, जल, धन, मणि, माणिक्य, सोना-चांदी, मकान, दूकान आदि एव माता-पिता, भाई-भगिनी, पत्नी, पुत्र आदि परिवार, ममाज, राष्ट्र, सम्प्रदाय, नौकर-चाकर आदि सव सयोगो से उत्पन्न या प्राप्त है । इसी प्रकार काम, क्रोध, मान, माया लोभ, हास्य, रति आदि और अष्टकर्म की मूल प्रकृति आदि सब अनात्मपदार्थ है, ये सब सयोगजन्य है । इनके सयोग से आत्मा को पूर्ण शान्ति न तो हुई, न होगी और न ही होती है । सामायिक पाठ मे बताया गया है सयोगतो दुखमनन्तभेद यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी। ततस्त्रिधाऽसौ परिवर्जनीयो यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ।। अर्थात् जन्मरूपी वन मे आत्मा सयोग के कारण अनन्त प्रकार के दुख भोगता है। इसलिए अपनी परमणान्ति प्राप्त करने के अभिलापी आत्मा को मन-वचन-काया तीनो से सयोग का त्याग करना चाहिए। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪૨ अध्यात्म-दर्शन __ अत पूर्णशान्ति के लिए आत्मा के नाय इस दृश्यमान जगत् का सयोग छोडना अनिवार्य है। उसे छोडे विना वास्तविक एव न्यायी शान्ति की सम्भावना नहीं है । अत पूर्ण शन्ति के उच्टक मुमुश के लिए अपना चेननात्मक आत्मभाव ही आधार है। आत्मा का परिवार चेतना, मान, दर्गन, आदि आत्म-गुणो को ही समझो, अन्य कोई परिवार मात्मा का नहीं है । आचारांग मूत्र, में बताया है-'अप्पा तुममेव तुम मित्त कि बहिया मित्तमिच्छसि ? अर्थात् हे आत्मन् । तू ही तेरा मित्र है। बाहर के मित्र की अपेक्षा क्यो रखता है ? वास्तव मे बाहर का परिवार तो आकस्मिक गयोगजन्य है, इम जन्म या इस शरीर को ले कर है। उगे तो एका दिन छोड कर चलना होगा, अतः आत्मा या आत्मगुण ही एकमात्र मात्मा का परिवार है । 'आत्मा ही आत्मा का नाथ है, आत्मा ही आत्मा का मित्र और शत्रु है, आत्मा का आत्मा ने ही उद्धार करे किन्तु उसका पतन न करे। इसी बात्मकत्वमावना को ले कर चलने से पूर्ण शान्ति का साक्षात्कार साधक के जीवन में हो सकता है। दगदै कालिक सूत्र मे कहा है-'शरीरादि के साथ सम्बन्ध को त्याज्य समक्ष कर छोरने वाले साधक को शाश्वत शान्ति का स्थान-मोक्षपद प्राप्त होता है।' इस प्रकार शान्ति के उत्तरोत्तर क्रमश उत्कृष्ट उपाय एवं सोपान बताकर अव उपसहार करते हैं प्रभुमुखथी एम साभली, कहे आतमराम रे। ताहरे दरिसरणे निस्तर्यो, मुज सिवां सवि काम रे ॥शान्ति॥१२॥ अर्थ वीतराग प्रभु 'शान्तिनाथ' के मुख से नि.सृत वाणी सुन कर मेरा आत्माराम (आत्मारूपी वगीचे मे विहरण करने वाला) कहता है कि आपके शान्तिरूप प्रभु) के दर्शन-स्वरूप पा कर मेरा ससार-सागर से निस्तार हो चुका है और मेरे सभी कार्य सिद्ध हो गए हैं। १ अत्ता हि अत्तनो नायो • धम्मपद । अप्पामित्तममित्त च दुप्पट्टिओ सुपट्ठिओ । उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् आत्मवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन ॥ --भगवद्गीता २ "त देहवास अतुइ असासय सया चए निच्चहि अद्विअप्पा । छिदित्त जाई-मरणस्स बंधण, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध में समाधान ३४३ भाष्य परमात्मा के प्रति कृतज्ञता-प्रकाश श्री आनन्दघनजी ने शान्ति प्राप्त करने के विविध उपाय जो श्रीशान्तिनाथ, प्रभु के द्वारा प्राप्त हुए, उनका उल्लेख अब तक की गाथाओ मे किया । किन्तु अब वे आत्माराम की ओर से उल्लासपूर्वक कृतज्ञतप्रकाशन करते हैं-'ताहरे दरिसणे .......' वास्तव मे पिछली कुल ६ गाथाओ मे अतिसक्षेप मे श्रीआनन्दघनजी ने आध्यात्मिक दृष्टि से शान्तिस्वरूप और शान्ति के उपायो पर प्रकाश डाल कर कमाल कर दिखाया | आध्यात्मिक शान्ति के विषय मे शास्त्रो मे वहुत ही विस्तार से कहा गया है, जैसा कि वे स्वय उल्लेख करते हैं, परन्तु उन बातो का सार ले कर वहत ही सक्षेप मे कहना रचनाकार की अत्यन्त कुशलता का परिचायक है। यह तो थोता पर निर्भर है कि वह सक्षेप मे कथित बात को विश्लेपणपूर्वक व्यौरेवार समझे। जिज्ञासु साधक का यह कर्तव्य है जब उसकी उलझनें सुलझ जाय, मन मे उठते हुए विविध प्रश्नो का समाधान प्राप्त हो जाय, अन्तर मे ज्ञान का प्रकाश जगमगा उठे, बुद्धि को तृप्ति और सतुष्टि हो जाय तो आह्लादपूर्वक वक्ता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे । इसी दृष्टि से श्रीआनन्दघनजी शान्तिसाधक आत्माओ की ओर मे कृतज्ञता,विनम्रता एव भक्ति प्रदर्शित करते हैं। शान्तिप्रभु के सिद्धान्त से अविरुद्ध वाणी प्रश्न हो सकता है कि यहाँ तो श्री शान्तिनाथ प्रभु ने कोई बात अपने मुख से कही नही, फिर यह कैसे कहा गया कि 'प्रभुमुख थी एम साभली ' इसका समाधान यह है कि जैनशास्त्रो की रचना के विषय मे एक सिद्धान्त है कि अर्थ (मूलवचन) के रूप मे पहले अर्हन्त भगवान् तीर्थकर देशना या उपदेश देते हैं। फिर गणधर उसे सूत्र का रूप देते हैं, उस भगवदुक्त वाणी का व्यवस्थित सकलन करते है। इस दृष्टि से हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि यहाँ शान्ति के विषय मे जो कुछ भी बाते कही गई हैं, वे तीर्थकर के वचनो से कही भी विरुद्ध नहीं है। हाँ, यह बात जरूर है कि 'तीर्थकर भगवान् १ 'अत्थ भासइ अरहा, सुत्त गु त्यइ गणहरा' Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ अध्यात्म-दर्शन की वाणी विविधसूत्रो मे यत्र-तत्र विद्यारी हुई मिलती है। परन्तु परमात्मवाणी सिद्धान्त मे अविरुद्ध है , और उन्ही के मुग से नि मृत बचन । यही कारण है कि इन्हें सुन कर आत्माराम अत्यन्त भावुतावा हो पर यान्निनाय प्रन के प्रति आभार प्रकट करता है। क्योकि उगे यह जारभ्य नाग मिला, जो सैकडो जन्मो मे भी नहीं मिल सकता। शान्तिनाय प्रम फो शान्ति के दर्गन से निस्तार पहला आभारवचन मात्मा मे रमण करने वाला आलायर्थी एवं मानवी यह प्रगट करता है कि शान्तिनाय प्रमो । जाप के नाम में ही कोई जादू है, जिसने मेरी आत्मा (भावान्त करण) मे गालि के विविध उराय मधुरित हुए। मेरी बुद्धि आपको शान्तिस्वरूप का नम्यग्दर्शन पा कर नृप्त ही उठी । मेरी मात्मा वर्षों से शान्ति के सम्बन्ध में मिथ्यादर्शन से ग्रस्त थी, नासारिक पदार्थों या विविध कामनाओ की पूर्ति में ही शान्ति की इतिश्री मानती आ रही थी, परन्तु वह कल्पित शान्ति मिथ्या, क्षणिक और आभासमाय निकली। उससे अगान्ति ही वढी। किन्तु अब आपने जो बाध्यात्मिक शान्ति के भून दिये हैं, उनमे मुझे कही धोखा होने वाला नहीं । ये शान्ति के ठोस एव ग्यायो उपाय है। अत शान्तिनाथप्ररूपित शान्तिदर्शन पा कर मैं वास्तब मे ममारमागर ते तर गया समझो । जव किसी कठिन कार्य का सही उपाय मिल जाता है, तो आमा कार्य तो वहीं हो जाता है, फिर तो बम सक्रिय होने की देर होती है किट से काम बन जाता है। यही बात यहाँ आध्यात्मिक शान्ति के विषय मे है । शान्ति के जो नुस्खे वताये हैं, उनसे अब चटपट कार्य हो सकता है, सिर्फ गान्ति के उपाय के लिए जुटने की देर है । शान्तिदर्शन हो जाना भी बहुत दुष्कर कार्ग था, वह अत्यन्त आमान हो गया, इसलिए एक बहुत ही पेचीदा प्रश्न हल हो गया। शान्ति दर्शन में कार्यसिद्धि दूसरा अम्ल्य लाभ गान्तिनाथ प्रभु के चरण में वह हुआ कि शान्ति के कारण पहले सारे किये कराये काम बिगड़ जाते थे । कार्य बनने में देर लगती है, विगडने मे नही । जितने भी सासारिक या तथाकथित शान्तिवादी मिलते ये या मिले, वे सब ऊपर-ऊपर मे शान्ति का रास्ता बता देने थे, जो आगे चल कर वद हो जाता। क्योकि उस तयाकथित मार्ग में अनेक कठिनाइयां, विघ्न अडचने और सासारिक स्वार्थ आ कर मड जाने और वे सान्ति को चौपट कर, Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३४५ देते, लेकिन प्रभु द्वारा उक्त शान्ति का मार्ग ठोस, निर्विघ्न, स्थायी और अद्वितीय है। इसलिए अब मुझे इतनी तमल्ली हो चुकी कि जो काम कई वर्षों मे क्या, कई जन्मो मे नही हो पाए, वे आपसे शान्तिमार्ग सुन कर सिद्ध हो गए । एक अटपटा प्रश्न हल हो जाने से कई कार्य हो जाते हैं, इसी प्रकार एक बडी उलझन मिट जाने से मेरे सभी कार्य सिद्ध हो गए। मैं कृतकृत्य हो गया। मैं निहाल हो गया।' यह सव भक्ति की भापा मे निकाले हुए हर्षोद्गार हैं । इसी कारण 'ताहरे दरिसणे निस्तों, मुझ सिध्या सवि काम रे' इन दोनो वाक्यो मे भविष्यकालीन प्रयोग के बदले भूतकालीन प्रयोग हुए हैं। मैं ससार-सागर से पार हो जाऊँगा और मेरे सब काम सिद्ध होगे' ये ही उन दोनो के उपचार से अर्थ हैं। पहले आत्मभाव को ही एकमात्र आधार मान कर महाशान्ति का एक मात्र कारण उसी को ही मानना, उसी में रमण करना और उसी के गुणो को प्रगट करना बताया है, जव साधक ने इस बात को हृदयगम कर लिया और निश्चयदृष्टि से एकमात्र शुद्ध आत्मा ही आराध्य रहा, यह याद आते ही अत्यन्त प्रसन्नता से वह झूम उठा और अगली गाथा मे उसकी वाणी फूट पडी अहो अहो हु मुज ने कहूँ, नमो मुज नमो मुज रे। अमित फल दान दातारनी, जेहने भेंट थई तुजरे ॥ शान्ति ॥१३॥ अर्थ ओहो । मेरे अतहदय मे शान्ति का अपूर्वमत्र-'आत्माराधन' जम गया, अत अब मैं अपनी अन्तरआत्मा से कहता हूँ, मुझ आत्मा को नमस्कार है, मुझे नमस्कार है, जिसे आप सरीखे असीम फल (नाश्वत शान्तिरूप फल) के दाता से भेंट हुई। भाष्य आत्मा को आत्मा के द्वारा नमन जब मनुष्य को किसी अलभ्य या दुर्लभ वस्तु के लिए जगह-जगह भटकना पडता है या जगह-जगह खुशामदी या जैसे तैसे व्यक्ति को वन्दन-नमन करना पडता है, तो उसकी आत्मा का स्वत्व, तेज या स्वबल मर जाता है, किन्तु अव जवकि आपके शान्तिदर्शन को पा कर म धन्य हो उठा। मेरे जन्म-जन्म के Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૬ अध्यात्म-दर्शन बंधन कट गए। और मुझे आश्चर्य हुआ कि मुझे विश्व का सर्वोत्तम बहुमूल्य आत्मशान्तिरूपी धन आत्मा मे ही असीम-फलदाता आप सरीखे समर्थ दानी प्रभु से मिल गया, तब मैं अपने आपको ही नमन करता है, जिसकी आप जैमे परम शक्तिमान पुरुष से भेंट हुई । वास्तव में देखा जाय तो निमित्त अच्छे से अच्छा, ऊंचे मे ऊंचा मिल जाने पर भी उपादान (स्वय की आत्मा) यदि शुद्ध या या अनुकूल न हो तो कोई भी कार्य नहीं हो सकता । शान्तिस्वरूप के प्रम्पक शान्तिनाथ तीर्यकर से होते हुए भी जिज्ञासु, विनीत, कृतज्ञ और स्वरूपग्राहक आत्मा न हो तो यथेष्ट फल नहीं मिलता । इसी दृप्टि मे यहां अपनी आत्मा को प्रफुल्लित हो कर साधुवाद दिया है कि उसने शान्तिस्वरूप की चाबी पा ली। इसलिए वह स्वय को ही नसन करता है, भाग्यशाली एव कृतकृत्य मानता है । अपरिमित फल वास्तव मे मोक्षरूप फ्ल है, मसार से मुक्ति है , जिसे पाकर कुछ भी पाना वाकी नहीं रहता। वास्तव मे परमात्मा कोई मोक्षरूप फल उठा कर हाथ मे नहीं देते । वे तो मार्ग बता देते हैं, उपादान को शुद्ध जोर ग्रहणशील रखना अपनी मात्मा का काम है, यह वहा कठिनतम काम है। इसी प्रकार साधक आत्मा को ही नमन करता है। परमात्मा के साथ आत्मा का इस प्रकार का द्वैत व्यवहारनय मे होता है । निश्चयनय की दृष्टि से स्वय आत्मा स्वय को समझने वाले अन्तरात्मा को ही नमस्करणीय समप्त कर वार. वार नमन करता है। वास्तव मे तत्वज्ञ की दृष्टि मे आत्मा-परमात्मा दोनो अभिन्न होने से दोनो ही नमस्करणीय है । जव आत्मा मे बहिरात्मभाव मिट कर अन्तरात्मभाव प्रगट होता है, तब स्व-आत्मा पर ही निम्नोत्तरूप से पटकारक घटित हो सकते हैं १ कर्ता- मेरे आत्मगुणो का कर्ता मैं ही हूँ। २ फर्म- मेरे स्वाभाविक गुण-कर्म की क्रिया-(कर्म) का कर्ता मैं ही हूं। और वैभाविक कर्म का विच्छेद करने की क्रिया (कर्म) का कर्ता भी ३ करण- मेरे स्वाभाविक ज्ञानदर्शन-चारित्र द्वारा मेरे से ही आत्मस्वरुप प्रगट होता है। अहमेव मयाऽऽराध्य -यह भी कहा है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३४७ ४ सम्प्रदान • मेरे लिए मेरा आत्मा ही नमस्करणीय है, मैं अपने को ही नमस्क र करता हूं। ५ अपादान-मेरे विभाव से मेरे स्वभाव मे आने वाला मैं ही हूँ। ६ अधिकरण - मेरी आत्मा के अत्यन्त गुणो का स्थान (आधार) मेरा आत्मा ही है। इस गाथा मे 'तुज' और 'मुन' आत्मा हैं, वे दोनो अन्तरात्मा को अन्तरात्मा के सम्बोधन के सूचक हैं। यव उपस हार करते हुए श्रीआनन्दघनजी अपनी बात कहते हैंशान्तिस्वरूप संक्षेपथी, कह्यो निज-पर-रूप रे । आगममाहे विस्तार घणो, कह्यो शान्तिजिन-भूप रे ॥ शान्ति०॥१४॥ अर्थ इस स्तुति मे आध्यात्मिक शान्ति का स्वरूप अत्यन्त संक्षेप मे बताया है। निज (प्रवचनकर्ता) और पर (श्रोता) दोनों ही भन्यप्राणियो के स्वभाव (रूप) को ले कर अयवा पररूप दोनो की अपेक्षा से शान्तिनिजराज और तीर्थंकरो द्वारा उपदिष्ट आगमो मे इसका शान्तिस्वरूप बहुत विस्तार से वर्णन किया है। भाष्य शान्तिस्वरूप वर्णन . स्वपररूप से इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी स्वय अपनी ओर से कहते हैं कि शान्तिनाथ भगवान द्वारा स्व और पर दोनो अपेक्षा से प्ररूपित शान्ति का स्वरूप मैंने अकित किया है । अथवा निज=आत्मा का रूप, पर=परमात्मा के रूप मे अथवा आत्म-रूप की प्राप्ति के लिए तथा पर=परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए शान्ति का स्वरूप कहा है । यद्यपि आगमो मे बहुत ही विस्तृतरूप से शान्तिजिन-राज एव अन्य तीर्थकरो द्वारा आत्म-वर्णन है । इसमे दो बाते विशेषरूप से फलित होती हैं--एक तो यह है कि वाचनाभेद होते हुए भी तीर्थकरो के आगम (सिद्धान्त-ज्ञान) समान होते हैं, क्योकि प्रत्येक की सर्वज्ञता एकसरीखी होने से सर्वज्ञो का ज्ञान एक सरीखा होता है । जगत् मे मोक्षमार्ग अनादिसिद्ध होने से प्रत्येक तीर्थकर इसी का उपदेश देते हैं । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ अध्यात्म-दर्शन इसलिए विभिन नीर्य करो के तीर्थ अलग-अलग होते हुए भी उन्हें संयं तीर्थकगे के कहने में कोई जापत्ति नहीं । इनके अनुसार वर्तमान बागम को श्री शानिन्गय प्रभु के द्वारा उपदिष्ट कहने में कोई विरोध नहीं है। दूसरी बात यह है कि यद्यपि शान्ति म्वरप का वर्णन नागमो में बहुत ही विस्तृतरूप में किया है, यहाँ तो मक्षिप्त वर्णन है। जिन्हे अत्यन्त बिस्तार में पढ़ना हो, इस विषय मे पूर्णरूप से अवगाहन करना हो, उन्हे मून मागम-गन्य पढ़ने चाहिए। और वहाँ ने शान्ति का विवरण प्राप्त करके उसे समझना, फिर तदनुसार आचरण करना आवश्यक है। ___ इस स्तुति में सक्षेप में शान्तिम्वरूप बताने का उद्देश्य यह है कि नक्षेप मे कथन ने मनप्य को उसमे रचि रहती है और विस्तार से पढने की रुचि भी जागती है , जिसमे ज्ञानवृद्धि हो सकती है। श्रीआनन्दघनजी इस गाथा के अन्त में अपनी नम्रता प्रगट करते हुए करने है कि-'कहो श्रीजातिजिनभूप रे ' अर्यत्-मैं इस शान्ति का स्वरूप अल्पज्ञ होने के कारण पूर्णतया यहने में समर्थ नहीं है, यह को शान्ति-स्वरूप का वर्णन किया है, उसे आगमो मे शान्तिजिनेश्वर ने कहा है। शान्तिनाथ भगवान् ने अपने आत्मस्वरूप का माक्षात्कार किया, जिनागम मे उनका अनेक प्रकार से वर्णन हैं। जैना उनमा शान्तस्वरूप है, वैमा ही प्रत्येक (शुद्ध) आत्मा का है। श्रीशान्तिनायप्रभु ने ममताभाव का त्याग करके समताभाव को ग्रहण किया और तपसयम की निरवच करणी या स्वल्परमण के सातत्य मे शान्तम्वरुप प्राप्त किया, उसी मार्ग का आगमों में विस्तृत वर्णन है । इस स्तुति मे तो उसका बहुत ही सक्षिप्त कथन है । शान्तिस्वस्य भलीभांति जान कर उस पर चिन्तन करके आचरण करना चाहिए, अन्यया अनुभवहीन शुष्क ज्ञान से मति-भ्रम पैदा होगा, विसगनि एव उलझन होगी। इस दृष्टि से धीआनन्दघनजी अन्तिम गाथा मे कहते हैं शान्तिस्वरूप एम भावशे, घरी शुद्ध प्रणिधान रे। 'आनन्दघनपद' पामशे ते लहेशे बहुमान रे ।। शान्ति० ॥१५॥ d अर्थ इस (पूर्वोक्त) प्रकार ने शुद्ध प्रणिधानपूर्वक जो शान्ति के सदस्प पर विचार Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ૩૪૬ करेगा; यानी उसके पालन से भावित करेगा, सस्कारो मे सुदृढरूप से जमा लेगा, वह आनन्दधन (परमात्मा) का पद प्राप्त करेगा और जगत् मे बहुत ही बहुमान प्राप्त करेगा। भाष्य शान्ति पर मनन, प्रणिधान और आचरण का सुफल : परमात्मपद इस गाथा मे शान्तिस्वरूप के पूर्वगायाओ मे वतार हुए उपायो और सिद्धान्तो पर मनन, चिन्तन और शुद्ध प्रणिधान के लिए जोर पर दिया गया है। चूंकि बहुत से लोग किसी महत्वपूर्ण बात या सिद्धान्त को पहले तो सुनते ही नही, सुनते भी हैं तो सूने मन से सुनते हैं, जिससे उस सुने हुए पर वे कोई चिन्तन मनन नही कर सकते। जब चिन्तन-मनन नही होता है तो उस बात मे कई प्रकार की भ्रान्तियाँ और गलतफहमियाँ होती है। यह भलीभांति श्रवण-मनन न करने का ही परिणाम है कि इतने-इतने सम्प्रदाय खडे हो गए। फिर उनकी अपनी-अपनी मान्यताओ की खीचातान, शब्दो की अपने-अपने दृष्टिकोण से अर्थवटना, कदाग्रह और अन्त मे सघर्ष | इसीलिए श्रीमानन्दघनजी शान्तिस्वरूप के श्रवण या पठन के बाद उस पर भावन - चिन्तन-पदन, चर्चाविचारणा, और अन्त मे उसके अर्थ को हृदयगम करने पर जोर दे रहे हैं । क्योकि धर्माचरण की कोई भी बात तभी गले उतरती है, या सस्कारो मे बद्धमूल हो सकती है, जब उस पर मन-वचन-काया की एकाग्रता (प्रणिधान) पूर्वक चिन्तन-मनन-निदिध्यासन किया जाय । तभी उसका यथेष्ट फल आ सकता है । यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी शान्तिस्वरूप (पूर्वोक्त प्रकार से) पर मनन-चिन्तन करके सस्कारो मे भावित करने का कहते हैं; वह भी शुद्धप्रणिधानपूर्वक । शुद्धप्रणिधान के तीन अर्थ होते है= १-शुद्ध आलम्बन मे मन-वचन-काया की एकाग्रता, २-मोझ, मोक्ष-साधक, मोक्ष के साधन उपादेय हैं, इनके सिवाय सर्व हेय हैं, ऐमा निश्चय, ३-स्वय आध्यात्मिक विकास की जिस भूमिका पर चल रहा हो, उस भूमिका मे रह कर उसके योग्य कर्तव्यो का एकाग्रतापूर्वक पालन करना। शान्ति के परम दर्शन की वात कोई उपन्यास या कहानी नहीं है कि झटपट पढी और फैक दी, इसे तो एकाग्रतापूर्वक पढ-मुन कर चिन्तन-मननपूर्वक जीवन मे Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० अध्यात्म-दर्शन पचाने और उतारने से ही लाभ होगा । वह नाम कोई सासारिक लाम नहो, अपितु आनन्दधनम्प परमात्मरद को प्राप्त और जगदवन्दनीयतापूजनीयता, तीर्थकर के नमान उत्कृष्ट नम्माननीय पद गे सम्मानित होने की सम्भावना भी है। साराश इस स्तुति मे श्री आनन्दघनजी ने वीतराग श्रीशान्तिनाथ प्रभु से पान्तिस्वरूप के जान, एव उसकी पहिचान के बारे में अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करके प्रभु के श्रीमुख से (नि मृत आगमो द्वारा) सक्षेप मे शान्ति का समग्र दर्शन ६ गाथाओ में प्राप्त किया है । वल्कि यो कहना चाहिये कि उनकी अन्तरात्मा मे शान्ति का समग्र स्वरूपदर्शन अन्त स्फुरित हुआ है अन्त में, कृतज्ञताप्रकाशन के बाद उन्होंने परमात्मा के साथ बहत स्थापित करके परमशान्ति के अधिष्ठान स्वात्मा को नमस्कार किया है और अन्तिम गाथा में उसका फल बताया है-शान्तिस्वरूपदर्शन पर चिन्तन, मनन, शुद्धप्रणिधान करके जो उसे संस्कारबद्ध कर लेगा, उसे परमात्मपद-प्राप्ति तथा बहुपूज्यता प्राप्ति होगी। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७: श्रीकु थुजिनस्तुति मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना (तर्ज-अंबर देह मुरारि! हमारो "राग-गुर्जरी व रामकली) कुंथुजिन | मनडु किम ही न बाझे हो, कुंथुजिन, मनडु जिम-जिम जतन करीने राखु, तिम-तिम अलगुभाजे हो।कुथु०॥१॥ अर्थ हे कु थुनाथ (१७ वें तीर्थकर) परमात्मन् ! मेरा मन किसी भी उपाय से वश (कावू) मे नहीं आता, एकाग्र हो कर एक विषय मे नहीं लगता। इसे ज्यो-ज्यो प्रयत्न करके इसे वश मे रखने जाता हूँ, त्यो-त्यों यह दूरअतिदूर भागता है। भाष्य प्रभु के समक्ष मनोवशीकरण का निवेदन पूर्वस्तुति मे शान्ति के स्वरूप और उपायो का सागोपाग विश्लेपण किया गया था, परन्तु इस प्रकार की आध्यात्मिक शान्ति के पथ पर पैर रखते ही, तथा शान्ति के लिए समता, स्वरूपरमणता एव आत्मा-परमात्मा की अद्वैतसाधना करने के लिए प्रवृत्त होने ही मन सामने आ कर विघ्नरूप मे खडा हो है । मन किसी भी तरह शान्ति के पूर्वोक्त उपायो को अजमाने नहीं देता। शान्ति प्राप्ति के लिए आवश्यक आत्मवल को मन निर्बल कर देता है, जिसके कारण साधक कषाय, मोह एव प्रमाद के वश हो जाता है । साधना के उच्च शिखर पर उसका पहुँचना बहुत ही कठिन हो जाता है। साधक जव-जब आत्मस्वरूपलक्ष्यी साधना करने लगता है, तब-तब मन उसमे विघ्न डाल देता है । वह इन्द्रियो को साधक बनने के बजाय वाधक वनने को यानी उलटी दिशा मे प्रेरित कर देता है । इसी कारण साधक कई वार स्वय भी भ्रम मे पड जाता है या दूसरो को 'भ्रम मे डाल देता है कि वह आत्मा-परमात्मा की इतनी बाते करता है, शास्त्रो का अहर्निश स्वाध्याय Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ अध्यात्म-दर्शन करता है, विविध निधाएँ करता है, नान वधारता है और यह गमन लेता है। कि मैं महान् पुरुष हो गया, जनता भी उगे महायुग्ण ममलने लगती है। किन्तु वाहर मे महापुरुष दिखाई देता हुआ भी मन में यह बटन ही निकट दशा में होता है। उसका मन इतने निम्नम्तर का हो जाता है कि पोई वपना भी नही कर सकता कि वह इतना कापायाविष्ट या इन्द्रिय-विषयामत कांसे हो गया? वस्तुत बात यह है कि पहले गुणस्थानक में रहा हुआ चरमावर्ती पानी सम्यक्त्व प्राप्त करने की भूमिका तक पहुँचा हुआ जीव, अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणो को करता है और इससे प्रथम ममय मे उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करता है। उसके बाद सातवें गुणस्थान के अन्त करने पर चारितमोहनीय कर्म के उपगम करने की शुरूवात होती है। इस प्रकार उशम करते-करते वह दशवै गुणम्यान के मिरे तक आ कर तमाम मोहनीय कर्मों के उपशान्त हो जाते ही उपशान्तमोह नामक ११ वें गुणस्यान को प्राप्त करता है। जो प्रवल (मनोबल) आत्मा होती है वह तो वें गुणस्यान से सीपी क्षपाणी प्रारम्भ करती है, जो नीचे केवलज्ञान प्राप्त करके (क्षीणमोह नामक १२ ३ गुणस्थान पर पहुंच कर) नीधी मोक्ष पहुंच जाती है, परन्तु निर्वल (मनोवल मे मन्द) वात्मा उपगमश्रेणी का प्रारम्भ करती है तो वह ११ वे गुणस्यान तक पहुंच कर अवश्य ही नीचे गिर जाती है। क्योकि ११ वें गुगम्यान में मोहनीय कर्म का उपशम होता है, क्षय नही। उपशम अन्तर्मुहूतं से अधिक नहीं टिकता। कारण यह है कि नीचे दबा हुआ मल (मोहनीय कर्मजनित कपायादि) ऊपर आए बिना रहता नहीं। उसके ऊपर (उदय मे) आते ही आत्मा आध्यात्मिक भूमिका पर से क्रमश नीचे (छठे, पाँचवें, चौथे गुणस्थान पर अथवा चाय से दूसरे हो कर पहले तक आ जाती है, अथवा दशवे, नौवें यो क्रमश नीचे) उतर जाती है। इस प्रकार उच्चभूमिका से नीची भूमिका तक पतन होने मे मुख्य कारण तो मोहनीय कर्मों का उदय है। इसमे व्यवहारदृष्टि से जीव जब तक ममारी है, तव तक अशुद्ध आत्मा (योग आत्मा और कपायात्मा) मानी जाती है, योग और कपाय की क्रिया मे मोहनीय कर्मबन्धन होता है। खासतौर से मोहनीयकर्म का उदय अपना प्रभाव मन द्वारा ही (व्यवहारदृष्टि से) बताता है। इसलिए मन Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना को सर्वप्रथम साध लिया जाय तो ये सभी सध सकते है, इसी दृष्टि से कु थुनाथ परमात्मा (जो मनोविजेता हो गए ये, इसलिए रागद्वेष, कपाय या तज्जनित वन्ध का नामोनिशान नही था) के समक्ष श्रीआनन्दघनजी प्रार्थना करते है-"प्रभो! यह मन इतना चचल है कि यह किसी भी तरह से पकड मे नहीं आता। मेरी तमाम की-कराई वर्षों की साधना को क्षणभर मे मटियामेट कर देता है। मन मे शान्ति हो, तभी आमा मे शान्ति हो सकती है। मन पर विजन हो, तभी इन्द्रियो पर विजय हो सकती है, इन्द्रियाँ जीत लेने पर कर्मो का क्षय हो सकता है और कर्प नष्ट होते ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है, आत्मा परमात्मा वन कर सिद्ध परमात्मा के साथ एकरूप हो सकती है, परमशान्ति के धाम मे आत्मा पहुँच सकती है। इसलिए मन का वशीकरण करना अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु यह वश में ही नहीं होता, किसी भी तरह।" सैद्धान्तिक दृष्टि से विवार करते हैं तो आत्मा के पतन का मुख्य कारण मोहनीय कर्मों का उदय होता है । परन्तु कर्मवन्धन का कारण कपाय है । उस कषाय की चाबी मन के हाथ मे है । २'कपायो या विपयो के साथ मन का योग होने पर जीव कर्मयोग्य पुद्गलो का ग्रहण करता है, तभी कर्मवन्ध होता है।' इसीलिए कहा है कि मन चाहे तो कषायो से आत्मा को बाँध भी सकता है और मन चाहे तो कवायो से मुक्त भी करा (छुडा) सकता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि बाहर से बडे भद्र, शान्त, उत्तम और ध्यानक्रिया में लीन उच्च साधक दिखाई देते थे, किन्तु उनके मन में जो भयकर युद्ध का दौर चल रहा था, जिसके कारण विकट मोहनीयकर्मों के वन्धन का चलचित्र तेजी से घूम रहा था, और जिस समय सम्राट् श्रेणिक विम्बसार ने भ० महावीर से उस उत्तम मुनिवर की आय के बारे में प्रश्न किया और उसका उत्तर जब उन्हे सातवी नरक में गमन का मिला तो वह आश्चर्य मे डब १ कहा भी है 'मणमरणेदिय मरण, इदियमरणे मरति कम्माइ । कम्ममरणेण मोक्खो, तम्हा य मण वशीकरण ।' २. 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त, स बन्ध.' Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अध्यात्म-दर्गन गया। लेकिन प्रमन्त्रचन्द्र राजपि में मनोभावो की धारा एमादम बाली और कुछ ही क्षणो में उगे मार्थमिद्ध देवलोग में पहुँचने योग्य बना दिया । और एक ही झटके में उनके मन ने तमाम पानीकगों का धय पारणे फेवलज्ञान पा लिया। यह मारे ही वन्ध और मोटा का मुल मन-मदारी के हाथ में था। इसलिए मन ही कर्मों के नाटक का मूत्रधार बनता है। मन, वचन और काया का योग कापायजन्य पुन है, योगी और कपायो (पिता-पुत्र) की क्रिया ने कमबन्धन होता है और कपाय मे योग व योग से कपाय, इस प्रकार मर्म जनित ममारचन चलता रहता है। इसी कारण जीव को जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, आधि-व्याधि आदि फप्ट नहने पडते है। मन, वचन और काया इन तीनो योगी को मुमुक्ष शिप्य जव गुरुचरणो में समर्पित कर देता है, तभी उने विशेष लाभ होता है । लेकिन मुमुक्षु शिप्य जव देखता है कि उसका फाययोग तो उनको कहे अनुमार (जबरन भी) गुरुसेवा मे लग जाता है, वचनयोग को भी वह जबरन गुरुस्तुति में लगा सकता है, लेकिन मन इतना भोला और निवल नहीं है। वह मुमुक्षु की आत्मा (चेतन) की आज्ञा का पालन नहीं करता । बडा चचल है, नटखट है, इधर से उधर कूदफाद करता रहता है । वह साधक को वारपार हैरान कर बैठता है। वह शरीर और वचन की तरह गुरु या भगवान के चरणो में झटपट नहीं लग जाता। और जब तक मन परमात्मा में लीन या स्वल्पसाधना में एकाग्र नहीं हो जाता, तब तक किसी भी व्यावहारिक या पारमार्थिक कार्य की सिद्धि नहीं होती। इसीलिए कर्मयोगी श्रीकृष्ण के समक्ष एकदिन अर्जुन जैसे साधक को भी कहना पडा-'हे कृष्ण मन अत्यन्त च चल है, जबदस्त है, वलवान है और सुदृढ है। उसका निग्रह तो में वायु की तरह अतिदुष्कर मानता हैं।२ इसीलिए श्रीआनन्दधनजी जैसे मुमुक्ष साधक को कहना पडा-'मनडु किम ही न वाझे हो, कु थुजिन "प्रभो ! इस मनको मैंने देव-गुरु-धर्म तीनो मे 'मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोभयो.' चचल हि मन कृष्ण ! प्रमायि बलवद् दृढम् । तस्याऽह निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। -भगवद्गीता Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३५५ लगाना चाहा, आपके तथा निजात्मा के स्वरूप मे भी लगाना चाहा, लेकिन किसी भी तरह न लगा। मैने इसे स्वाध्याय, शास्त्रचिण्तन, जप, ध्यान आदि साधना में लगाना चाहा, पर यह इनमे किमी तरह भी एकाग्र न हो सका। इमी प्रकार मैने धर्माचरण, विविध स्तुतियो, विविध धर्मक्रियाओ वगैरह मे लगाने का प्रयत्न किया, लेकिन वहां से भी वह उखड गया, मौन रह कर या कायागप्ति से शरीर को कायोत्सर्ग से निश्चेष्ट बना कर भी देख लिया, मगर वहाँ से भी मन भाग छूटा । मेरे सामने एक ओर गुरु का आदेश था, पर दूसरी ओर मन किसी भी तरह काबू मे माने से इन्कार कर रहा था। इसीलिए मुमुक्ष साधक घबरा कर कु थुनाथ के समक्ष उपर्युक्त आत्मनिवेदन करता है । दयालु प्रभो । मैंने चाहे जितने प्रयत्न कर लिये, परन्तु मन एक जगह किसी भी पदार्थ मे एकाग्र होता ही नहीं। यह एक नटखट वालक की तरह किसी एक वस्तु मे अपने को सलग्न नही कर सकता। इधर-उधर दौडधूप किया ही करता है। ऐसे तूफानी शैतान मन को कैसे वश मे करूं ? आप मेरे स्वामी है, परमात्मा है, मुझे आप में अपने मन को एकाग्र करना चाहिए, आपका ध्यान करना चाहिए, उसमें स्थिर होना चाहिए, आपकी सेवाभक्ति करनी चाहिए, परन्तु मेरा यह मन आप मे या कही भी एकाग्र नहीं होता। मैं ज्यो-ज्यो उसे एक जगह बाँध कर रखने का प्रयत्न करता हूं, त्यो त्यो उल्टा वह दूर भागता जाता है, यह मेरे हुक्म मे जरा भी नही चलता, मे ी सभी प्रयासो को निष्फल बना देता है । जब भी मैं इसे एकाग्र करने का प्रयास करता हूं, तब भी यह शैतानी करके दूर चला जाता है । मैं जानता हूं कि आप मेरे तारक है, उद्वारक है, इसलिए आपके सामने यह प्रार्थना कर रहा हूँ,--मन की शिकायत के रूप मे । यहां मन को वश मे करने के माध्यम से मोह, कपाय विषय, रागद्वेष आदि को वश करने की बात लक्षणा से गतार्थ हो जाती है । साधारण जनता इन सबको मन का ही पारिवारिक विकार समझती है, इसलिए मन शब्द का प्रयोग किया गया है। साथ ही मन कु थुआ जैसा वहुत ही वारीक हैं। जन'- दर्शन मे इमे शरीरव्यापी परमाणुओ के जत्ये के रूप में माना गया हैं, जबकि विश्व के नैयायिक आदि अन्य दर्शन या मत मानते हैं कि अणु-परमाण जितना सूक्ष्म मन अपने विषयो की मोर सर्वव्यापक आत्मा मे दौडवूप करता रहता है । अणु जितने मन की उपमा कुन्थु नामक सूक्ष्म जन्तु के साथ की गई है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ अध्यात्म-दर्शन कुन्यु शब्द मे श्लेपालकार का योजन करके कवि ने कुध के समान मन के पति (स्वामी) कु थुनाथ (१७ वें तीर्थकर) के ममक्ष मन को वश करने में। सहायक होने की पुकार की है। श्री आनन्दघनजी को मन ने किन-किन प्रकार ने परेशान कर डाना, यह वे अगली गाथाओ में वीतराग प्रभु के समक्ष निवेदन करते है - रजनी, वासर, वसति, उजड़, गयण, पायाले जाय । सांप खाये ने मुखडु योयु , एह उछागो न्याय हो, कुथु०॥२॥ अर्थ रात हो, चाहे दिन हो, मनुप्यो की बस्ती में हो, निर्जन वीरान प्रदेश में हो, आकाश मे हो या पाताल में, यह सर्वत्र चला जाता है। जैसे सांप जिस फिसी भी भक्ष्य को खाता है, उसे उसमे किसी प्रकार का स्वाद नहीं आता । उसका मुह फोका का फोका (योया) ही रहता है, वैसे ही मन सब जगह भटकता है फिर भी उसके हाथ मे कुछ नहीं आता । अथवा सांप जब पित्तो को खाता है तो उसका मह तो योया का थोया ही रहता है, उसके मुंह पर तून का एक भी दाग नहीं लगता, मन भी 'सांप खाए और मुह थोया' को कहावत की तरह अतृप्त है, वह भोगो से तृप्त नहीं होता। भाष्य मन की दौड़धूप इस गाथा मे श्रीआनन्दघनजी मन की सर्वत्र अवाधगति का अनुभव बताते हुए प्रभु से निवेदन करते हैं कि प्रभो | आर सोचते होगे-मन दिन-दिन मे ही विचरण करता होगा, रात को तो विश्राम ले लेता होगा, यह ऐसा पाजी , है कि रात और दिन का विचार किये विना भटकता रहता है। इसके लिए तो अवेरी रात और उजला दिन एक सरीखे हैं । कुछ लोग दिनभर के काम से थक कर रात को विश्राम ले लेते हैं, पर मन रात को भी विश्राम नहीं लेता । यह तो किसी समय शान्त व स्थिर होकर बैठता ही नही । यह तो मुझे यही .. छोड कर किसी भी वस्ती या उजडे निर्जन प्रदेश में भी घूम आता है । क्षणभर में अमेरिका मे और दूसरे ही क्षण सहारा के रेगिस्तान में घूम आता है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३५७ __एक पल में यह आकाश मे (स्वर्ग मे) चला जाता है, दूसरे ही पल पाताल - (अधोलोक नरक) मे दौड जाता है । अथवा लक्षणा से यह अर्थ भी हो सकता है कि क्षणभर में यह उच्चविचार पर आरूढ हो जाता है और दूसरे ही क्षण यह नीच से नीच विचार करने पर उतारू हो जाता है । मैंने मन की गति का अनुभव कर लिया कि यह रात मे, दिन, में, वस्ती मे जगल में स्वर्ग में या पाताल मे, पर्वतशिखरो पर या जल-स्थल-नभ मे सर्वत्र बेखटके भटकता रहता है । इसके लिए कही रोकटोक या किसी भी देश, काल, क्षेत्र या पात्र का प्रतिवन्ध नहीं है । यह सर्वत्र अप्रतिवद्धविहारी है। यह अपनी कल्पना के वल से नाना प्रकार की भोगोपभोग-सामग्री में ललचाता रहता है। इसे किसी भी जगह तृप्ति हुई हो, ऐसा मैंने देखा-जाना नहीं। दुनिया में एक कहावत प्रचलित है कि किसी मनुष्य को सांप ने काट खाया। तब सांप ने कहा कि "मुझे वयो बदनाम करते हो ? मेरा मुह तो जैसा का तंसा खाली है, जरा-सा भी खून का दाग नहीं लगा।" अथवा कई लोग कहते हैं-'जिसे साँप काट खाता है, वह मर जाता है, परन्तु साँप को तो उससे कुछ भी लाभ नही हुआ। इससे उसकी भूख तो मिटती ही नहीं। उसका मुंह तो खाली का खाली रहता है। मेरा मन भी सांप के मुख की तरह जैसा था, वैसा ही अतृप्त रहता है । भोगो से कथमपि तृप्त नहीं होता। न वह आपके चरणो मे लगता है। इतनी जगहो पर यह दौडधूप करता है, मगर किसी भी तरह तप्त नहीं होता, भूखा का भूखा रहता है। बडे-बडे मुमुक्षुजनो एव तपस्वियो के काबू मे भी मन आता नही, मेरी तो विमात ही क्या है ? इसी बात को बताने के लिए अगली गाथा मे कहते हैं मुगतितणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान ने ध्यान-अभ्यासे । वैरीडु कांई एहवु चिते, नाखे अवले पासे; हो कुथु० ॥३॥ अर्थ __ मुक्ति के अभिलापी, तपस्वी, ज्ञानाभ्यास मे रत साधक, ध्यान के अभ्यासी ये सब उच्चसाधक अपनी-अपनी साधना मे प्रवृत्त होने के लिए जब प्रयत्नशील होते हैं तो यह महाशत्र कुछ ऐसा हलका (नीच) चिन्तन करता है कि उन्हे चारों खाने चित्त कर देता है । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ अध्यात्म-दर्शन भाप्य वढे साधक को मन पछाड़ देता है मोक्षमार्ग के अगिलापी जन अपने मन गो एकाग्र करने के लिए मास्त्रों का । स्वाध्याय अध्ययन एव चिन्तन मनन, चर्चा विचारणा करते है। कई लोग भगवान् के भजन मे समय निकालने का अभ्यारा करते हैं। ऐमे शानी और ध्यानी ज्ञान मे तथा ध्यान मे मगगृल रहने का प्रयत्न करते है, वे नमलते हैं कि ज्ञान -ध्यान मे तथा ईश्वरप्रणिधान मे, भजन-पूजन मे तथा तपश्चरण में समय व्यतीत हो जाय तो अच्छा । परन्तु वे ज्यो ही ज्ञान, ध्यान, तपजप का अभ्यास करने के लिए प्रवृत्त होते हैं, त्यो ही मनस्पी दुश्मन कुछ ऐसा विचार करने लगता है कि बडे-बडे ज्ञानी और ध्यानी-जनो को चारो खाने चित्त कर देता है । ज्ञानी ज्ञान मे मस्त होने लगते हैं, या ध्यानी ध्यान मे एकात्र होने लगते हैं, तभी वैरी मन चाहे जहां चला जाता है, जानियो और ध्यानियो के हालवेहाल कर डालता है । ऐसे ही मोक्षमार्ग के अभ्यासी और तपस्वी साधको को । मनरूपी शत्रु बचाता नही, प्रत्युत उन्हें पछाट देता है और इधर-उधर . भटका करता है। भगवन् । आप जानते है कि मेग मन ऐमा है। दूसरो को तो उनका मन भटकाता है सो भटकाता है । मुले भी अपना मन बहुत ही उलटे मार्ग मे भटकाता है । जहाँ सुख की गन्ध भी न हो, वहाँ यह भटका करता है । मैं चाहता हूं कि मुझे मोक्ष मिले, इसके लिए मैं जान, दर्शन, चारित्र और तप की साधना करता हूं, पूर्वगचित पापो को भम्म करने के लिए-निर्जरा के लिए-मैं ज्ञान, ध्यान, और योग का अभ्यास करता हूं, बाह्य-आभ्यन्तर तप भी करता हूं, परन्तु मेरे से ही बना हुआ, मेरे साथ ही रहने वाला मेरा मन कुछ ऐसा खराब चिन्तन करने लगता है, जिसमे मेरा सन्मार्ग टूट जाता है, में दुखमय ससार मे धकेल दिया जाता हूँ। मैं तो मन को अच्छा मानता हूँ मगर यह तो मेरा बैरी बन गया है । मानो, मेरे साथ वैर लेने की इच्छा ते ही मुझे चतुगतिस्प ससार मे भटकाया करता है। यह तो मैंने अपने साथ मन की शत्रुता की बात कही, परन्तु यह किसी को माय रियायत नहीं करता वडे-बड़े ज्ञानियो, ध्यानियो, और तपस्वी माधको के साय भी यह ऊपर कहे अनुसार दुश्मनी करता है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३५६ प्रभो ! ऐसे मन को कैसे वश मे करूँ ? कैसे उसे आप में एकाग्र करू ? यही मैं रह-रह कर विचार करता हूँ। अभी तो मैं और अधिक वर्णन करके मन की कहानी बताऊँगा। मैं सोचता था कि सामान्य साधको के काबू मे यह नही आता होगा, परन्तु यह तो विशिष्ट और उच्च साधको के भी काबू मे नही आता, इसी बात को धीआनन्दघनजी अगली गाया मे बताते हैं आगम आगमधर ने हाये, नावे किण विध आंकु। किहां करणे जो हठ करी हटकु , तो व्यालतरणी पेरे वांकु , हो । कुन्यु० ॥ मनडु०॥४॥ अर्थ नाथ ! यद्यपि पूर्व या चारागादि आगम-सूत्रग्रन्य वडे-बड़े आगमधरो (या पूर्वधारियों) के हाथ मे हैं, तथापि यह मन किसी भी तरह से उनके अंकुश मे नहीं आया । [पूर्वधारी या आगमधारी आगमावि सूत्र पढ़ कर बड़े आगमधर होते हैं, तथापि उन जैसो के हाथ मे किमी भी तरह से यह मन नहीं आता, इसे कैसे अंकुश मे लाऊँ ? अथवा मन की आक-याह किसी भी तरह नहीं मिलती यदि मैं तप-जप आदि के स्थान पर आग्रह (हठ) करके इसे जबरन धकेल देता हूं (या रोकता हूँ) [किमो समय हठ करके तान कर रखता हूँ] तो यह सर्प की तरह टेढा हो कर निकल जाता है (सॉप की तरह वक हो जाता है, उलटा फल देता है, ठिकाने नहीं आता), ऐसा यह मेरा मन है । भाष्य आगमधरो के भी वश मे मन नहीं आता यद्यपि मन को वश मे करने के लिए आगमो=आचाराग आदि ११ अगो, औपपातिक आदि १२ उपागो, उत्तराध्ययन आदि ४ मूलसूत्रो, दशा तस्कन्ध आदि ४ छेदसूत्रो, इनसे भी आगे बढकर १४ पूों का अध्ययन आगमन मुनिवर एव आचार्यादि साधक करते है, ऐसे बहुश्रुत विद्वान् आगमो मे मन का अधिकार पढते हैं, उनके हाथ मे विविध आगम (प्रवचन) हैं, फिर भी यह मन उनके भी (दशपूर्वधारियो तक के मी) अकुश मे नही आता । आगमधर आगमो मे मन को वश मे करने के अनेक उपाय पढते हैं, विविध उपाय वे Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० अध्यात्म-दर्शन अजमाते भी हैं, फिर भी यह मन उनके हाथ में नहीं आता। बटे-बडे बागम- .. घारी आगम (में मन का वर्णन) पढ कर भी इस मन की किसी भी तरह थाह नही पाते । अथवा आगमधारी पुरष आगम ले कर मेरे पास में (हाथ-बगल में) बैठे हो, फिर भी मेरा मन अंबुश मे नही याता। सामान्य व्यत्तियों की तो बात ही क्या, वटे-बटे आगमधारी या दशपूर्वधारी तक भी मन पर अकुण नही लगा सकते, जबकि मन पर काबू करने के अनेक उपाय उनके हाथ में होते हैं, उनवे वण्टन्थ भी होते हैं, तथापि मन उनके अनुहा (वश) में नहीं आता। मैं इसे कह कह कर थक गया कि ऐसे मागमधारी पूज्य माधको की उपस्थिति में तो हे मन | तू मेरे काबू में आ जा, परन्तु यह मेरा बहना नहीं मानता। ग्यारह अग के पाठक अनेक माधुसाध्वी तक भी मन को अंकुश ने न रख सकने के कारण पतित हुए हैं। राजीमती साध्वी के रूपलावण्य को देख कर रचनेमि जैसे उच्च साधक का मन टांवाडोल हो गया था, वह सयम से 'भ्रष्ट होने को उद्यत हो गया था, किन्तु साध्वी राजीमती को युक्तिसंगत वाणी सुन कर वह पुन यथापूर्वस्थिति मे आया, परन्तु एक बार तो मन अकुश से बाहर हो ही गया था। पूर्व विद्या के धारक अनेक उच्च साधको के मन ने भी उन्हें पटाढा है । इतने-इतने भागमो के पाठ भी मन के निरकुश हो जाने पर उनके काम नहीं आए, अकुश करने में मददगार नही बनें। आचार्य रत्नाकर ने आलोचना करते हुए अपने मन की बात खोल कर रख दी- चचलने वाली नारियो के मुख को देख कर मानस मे राग का जो अश लग गया, वह शुद्धसिद्धान्त (आगम) रूपी समुद्र मे धो लेने पर या अवगाहन करने पर भी नही गया, हे तारक प्रभो | क्या कारण है इसमे ?" पण्डितराज जगन्नाय जैसे उद्भट विद्वान् भी मन के आगे हार खा कर कहते हैं- "उपनिपदो का अमृतपान जीभर कर लिया, भगवद्गीता भी बुद्धि मे जमा ली, तथापि वह नन्द्रवदना मेरे मानमत्पी सदन से नहीं निकलती। "२ मतलब यह है कि हाथी पर अकुश १ लोलेक्षणावत्र-निरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्न । न शुद्धसिद्धान्त पयोधिमध्ये, धोतोऽप्यगात् तारक ! कारणं किम् ? -रत्नाकर-पचविंशति , उपनिषद परिपीता, गीताऽपि च हन्त मतिपथं नीता। , तदपि सा विधुवदना, नहि मानस सदनाद् वहिर्याति ॥-भामिनीविलास २. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना लगा कर उसे वश मे करना सरल है, किन्तु मन पर विविध अकुश लगाने पर भी उसका वश मे होना कठिन है। मन के साथी जबर्दस्ती करने पर भी छिटक जाता है कोई कह सकता है कि आसान तरीको से अगर मन वश मे न हो तो हठयोग या कठोर उपाय से जबरन उसे वश मे करना चाहिए। उसे जरा भी ढील नहीं देनी चाहिए । जरा-सा भी मन को पपोला कि वह सिर चढ़ जाता हैं, इसके उत्तर मे श्रीआनन्दघनजी कहते है-किहाँ कणे जो हठकरी हटकु, तो व्यालतणी पेरे वाक ० अर्थात्-मन को हगग्रह पूर्वक यदि किसी जप, तप, भजन, सामायिक, स्वाध्याय, ध्यान आदि उत्तम क्रियाओ में रोक देता हूं या किसी समय उसे जबर्दस्ती खीवातानी करके काबू में करने की कोशिश करता हूं, यानी मन के साथ जोर अजमाई करता हूँ तो वह सांप की तरह चट से टेढा हो कर सरक जाता है, अथवा जैसे दवाया हुआ सर्प हाथ से छटक कर टेढा-मेढा हो कर झटपट भाग जाता है, वैसे ही यह भी चट से भाग छूटता है । अथवा पहले तो मेरा मन ही वक्र है, सर्प की तरह छेडने या उत्तेजित करके काबू में रखना चाहूं तो यह और ज्यादा वक्र हो जाता है। कुत्ते की पूछ को कितने ही वर्षों तक तेल लगा कर सीधी करने का प्रयत्न करने पर भी वह टेढी की टेढी ही रहती है, वैसा ही हाल मन का है। जितना-जितना मैं इसे एक स्थान पर स्थिर हो कर बैठने की बात कहता हूं, उतना उतना तेजी से यह उद्दण्डता (वक्रता) करके भागने की कोशिश करता है। हर प्रयत्न का उलटा फल आता है, मन किसी तरह ठिकाने नहीं आता। किसी गृहस्वामी ने मन को एकाग्र करने के लिए सामायिक की । सामायिक मे माला के मन के घूमा रहा था, पाठ भी कर रहा था, परन्तु उसका मन मोचीवाडे मे अमुक मोची के यहाँ कर्ज की वसूली के लिए चला गया था। किसी ने उसकी पुत्रवधू से पूछा-"मेठजी कहाँ गए है ?" पुत्रवधू ने अपने ससुर के मन की गतिविधि को भांप कर कह दिया-'वे तो मोचीवाडे में गये हैं। सेठ ने सुना तो मन मे फिर उथल-पुथल मची । सामायिक पूर्ण होते ही सेठ ने अपनी पुत्रवधू से पूर्वोक्त जवाब के लिए स्पष्टीकरण मांगा तो उसने ससुरको उनके मन की गतिविधि का विवरण दिया। इसी प्रकार मन को किसी भी अनुष्ठान, धर्मक्रिया या साधनामे जबर्दस्ती रोकने पर भी वह छिटक जाता है। बडे-बडे Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ अध्यात्म-दर्शन आगमबलियो की भी यह परवाह नहीं मारना, तो सामान्य साधको की बात ही क्या ? आर्द्र कुमार, नन्दीपेण, आपाभूति आदि मुनियो की जीवनी इस वात की साक्षी है। इनी कारण उपाध्याय बमोविजयजी को भी पहना पदा कि ५ "मनरूपी चचल बदर चारित्र नार योगरूपी घलो योगदम उलटा करके सारा का सारा शमस्पी रस नीचे गिरा देता है, तब बचाग मुनिन्पी समतारसवणिक क्या कर सकता है ? वह भी मन के आगे लाचार बन जाता है। मीलिए तो अगनी गाया मे श्रीमानन्दधनजी मन की चाह न पा सकने की अपनी आप बीती सुनते हैं जो ठग कहूँ ता ठगतो न देखू, शाहूफार पण नाहि । सर्वमाहे ने सह थी अलगु, ए अचरज मन माहि, हो। कुन्यु० ॥ मनडु०॥५॥ अर्थ अगर मन को मे [किनोवक्त ] ठग या धूर्त वहूं, तो इसे पिसी को ठगते हुए देखता नहीं, परन्तु जहां तक मेरा अनुभव है, यह ईमानदार साहकार भी नहीं है । माश्चर्य है यह सब बातों में अपनी टांग अडाता है, परन्तु रहता है सबसे अलग, अयवा प्रत्येक कार्य मे भाग लेता है, परन्तु अलग का अलग है । अथवा जैनतत्त्वज्ञान की दृष्टि से नन श्रोनादिक सभी इन्द्रियों मे है और इन सभी इन्द्रियो से अलग भी है , ऐसी विरोधी । तिविधि देख कर मेरे मन मे आश्चर्य होता है , मन की परस्पर विरोधी आश्चर्यजनक गतिविधि पूर्वगाथा में मन के वशीकरण की बात बडे-बडे थ तधरो के लिए अशक्य बता कर यह शका पैदा कर दी कि आखिर मन ऐना कौन सा पदार्थ है, जो १. चरणयोगघटान् प्रविलोठयन् शमरस सकलं विकिरत्यघ । चपल एव मन पिरुच्चक रसवणिक् विद्धातु मुनिम्तु किम् ? "-अध्यात्मसार Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना वश मे होना दुप्कर है। इसी बात को इस गाथा मे प्रस्तुत की गई है। मन की थाह पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। अगर मन को ठग, लुच्चा या धूर्त कहूं तो उस पर यह सहसा आरोपण उचित न होगा, क्योकि स्यूल आँखो से तो यह किसी को ठगता देखा नही गया, इसलिए इसे लुच्चा, लफगा या ठग कसे कहा जा सकता है ? किसी को आँखो से भलीभाँति देखे बिना ही उस पर मिय्या-आरोप लगाना नही ; क्योकि खुल्ले रूप मे तो सभी काम इन्द्रियाँ ही करती हैं, मन खुल्ले रूप में कोई काम करता देखा नही जाता । अत मन को ठगाई करता प्रत्यक्ष न देख लू, तव तक इस पर झूठा इल्जाम कैसे लगाया जाय ? यह ऐमी सिफ्त से पर्दे के पीछे काम करता है कि इसे ठग नह। कहा जा सकता । तव यह प्रश्न उठता है कि जब मन ठग नहीं है, तव इसे साहूकार कहना चाहिए, क्योकि ठग और साहूकार के बीच मे और कोई विकल्प नही है । इसके उत्तर मे कहते हैं-शाहकार पण नाहि । यानी इस मन को साहूकार, ईमानदार सख्स भी नहीं कहा जा सकता। ईमानदार साहूकार तो इसे तव कहा जाय, जब यह प्रामाणिक साहूकार की तरह एक बात पर दृढ रहे । पर मन अपनी बात का धनी नहीं है। एक क्षण मे तो यह फूल के घोडे पर बैठ कर महाज्ञानी महात्मा बन जाता है, और दूसरे ही क्षण अधम मे अधम विकल्प कर 'बैठता है । तथा जो साहूकार होता है, वह उलटे रास्ते मे या खतरनाक स्थिति मे पडे हुए को वचा लेता है , परन्तु मन के कारनामो को देखते हुए इसे ऐसा साहूकार नही कहा जा सकता। वेचारे नेतनराज के शुभ अध्यवसायरूप और श्रेष्ठ पुरुपो की सगति से पाये हुए जप-तप-ज्ञान भक्ति-रूप खजाने को यह ठग मन लूट लेता है या चौपट कर देता है । बेचारे जीव की पुण्यरूपी पूंजी को यह 'मन सफाचट कर देता है । वताइए, ऐसी हालत मे विश्वासघात करने वाले तथा अदर ही अदर इस प्रकार की ठगी करने वाले मन को माहकार कहने का साहम भी कंसे हो सकता है ? यो देखा जाय तो मन का स्थान हृदय (अन्त करण) में है। दूसरी तरफ से देखें तो यह सारे शरीर में व्यापक है । इन्द्रियो का म्यान तो निश्चित रूप ,, से मुख आदि पर दिखाई देता है। इन्द्रियो और मन के स्थान अलग-अलग Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन होने के साथ इनके कर्तव्य भी अलग अलग हैं। इस तत्व पर विचार करते हुए तो मन को सहसा ठग नहीं कहा जा सकता; किन्तु जब हम देखने है कि मन धूर्त की तरह इन्द्रियो को उलटे रास्ते ले जाता है विपरीत और अहितकर पथ की ओर प्रेरित करता है या गुमराह कर देता है वठे-बढ़े साधको को, तब इने साहुकार को कोटि में भी नहीं गिना जा सकता। तव यह सवाल होता है कि मन को किस कोटि मे समझा जाय? इसका स्थान कहाँ माना जाय ? इसी का रहस्योद्घाटन श्रीमानन्दघनजी करते हैं-'सर्वमाह ने सहुयी अलगु, आश्चर्य इस बात का है कि मन के लिए कोई खास विशेषण प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। यह नव मे है और सव से दूर भी रहता है । यह इन्द्रियो द्वारा सब काम करता है, इसलिए सर्वत्र सव मे है, और वैसे किसी में प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। यही इनकी विचित्रता है। कई व्यक्ति ऐसे होते हैं कि उन्हें पूछे वगैर या उनके हुक्म के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, परन्तु वे अपने आढतिये या एजेंट के द्वारा ऐसी सिपत से काम लेते हैं कि यह पता नहीं लगता कि अमुक नाम उसने किया है। इसी प्रकार मेरा मन भी ऐसा ही युक्तिवाज है कि वह इन्दियो द्वारा सब काम करा लेता है, पर खुद अलग का अलग रहता है। नाम इन्द्रियो का होता है, काम होता है, सव मन का। अमुक वन्तु मीठी है या नहीं? अमुक पदार्थ दर्शनीय है या नहीं ? अमुक चीज कर्णप्रिय या सुगन्धयुक्त है या नहीं ? इन मवका निर्णय मन करता है, पर काम सब इन्द्रियो के मारफत लेता है। इसीलिए मद को तत्वज्ञो ने 'नो इन्द्रिय' कहा है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि विपयो में मन सभी इन्द्रियों को प्रेरित करता है। जब इन्द्रियाँ शब्दादि काम-मोगो का उपभोग करती हैं, तव मन उनके साथ मिल कर उनका अनुभव करता है। ज्योज्यो मन अनुकूल विषयो का अनुभव. क्षणिक रसास्वाद लेता है, त्यो त्यो इन्द्रियो को अधिकाधिक प्रेरणा देता रहता है । यो इन्द्रियों के साथ मिल कर मन चेतन को हेगन कर देता है। इसीलिए कहना कि मन सव मे है, फिर भी सवसे दूर रहता है, ठीक है। आश्चर्य होता है कि मन सभी इन्द्रियो का प्रेरक भी बना रहता है और सबसे अलग भी है। यानी यह प्रत्येक कार्य में भाग लेता है, फिर भी सबसे अलग रहता है। इसलिए मन को क्या कहा जाय ?, इसके सम्बन्ध में कौन-से विशेषण Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना का प्रयोग किया जाय ? इसकी भी कोई सूझ नही पडती। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी प्रभु के दरबार में मन की शिकायत करते हुए अगली गाथा में कहते हैं जे जे कहूँ ते कान न धारे, आप मते रहे कालो। सुर-नर-पडितजन समजावे, समझे न मारी सालो, हो । कुन्यु०॥ मनडु ० ॥६॥ अर्थ मै (किसी समय) जो जो (भक्ति, वैराग्य, या परमात्मसाधना को) बातें कहता हूँ, उन्हे यह कान मे ही नहीं पड़ने देता, सुनता ही नहीं और अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से मतवाला (मस्त) बना रहता है । अथवा कुविकल्प करने से काला (मलिन = दूषित) बना रहता है । हे नाथ ! इस मन को देवता, मनुष्य या पण्डितजन या विद्वान और भक्तजन (अथवा देवों के पण्डित, मनुष्यों के पण्डित) समझाते हैं, पर मेरा साला (कुमतिरूपोस्त्री का भाई) कुछ समझता ही नहीं। (अथवा महाक्रोधी मेरा मन समझता ही नहीं), मेरे सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। भाष्य प्रभु से मन की उद्धतता की शिकायत श्रीमानन्दघनजी ने मन की गतिविधि का रहस्य न समझने की बात कही थी। किन्तु जो ठग भी नही है और साहकार भी नही है, वह सुधर भी सकता है, इस शका का समाधान करते हुए श्रीआनन्दधनजी कहते हैं-कि मन को सुधरने के लिए, उसे अपनी आदत बदलने के लिए जो जो बातें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, जप, तप, परमात्मपद-साधना या आत्मस्वरूप रमण आदि के सम्बन्ध मे' कहता हूँ या समझाता हूँ, उसे वह सुनी-अनसुनी कर देता है, इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देता है। शास्त्रो में कहा है-"एकाग्रतारूप शुद्ध मन, वचन, और काया आदि कारण से (तीनो की एकता से) निश्चय ही परमात्मपद प्राप्त होता है, और ये तीनो जब अशुद्ध बन जाते है, तव अवश्य ही दुर्गति भी प्राप्त होती है। ये बात मन को समझा Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ अध्यात्म दर्शन कर जब मै उसे शुद्ध, एकास, परमात्मपद में तन्मय बनने को करता है, तब वह उन्हें एक दम करा देता है। नत्र में उसे यह शिक्षा ताफिन मुसे सहायता कर, अपने दुविर प छोर दे, और मुबिकापी कां ग्यान दे, मुझे अपने साधम स्थिर होने दे, परन्तु ऐसी बातो में तो यह जग भी ध्यान नहीं देता, व िक मदा-मवंदा से प्रचलित अपनी बदद मति-प्रकृति (आदत) के अनुसार चलता है। उसके मामा हिम को हजारों बाते कहता है, किन्तु वह अपने वज्रमय ही स्वभाव को छोडता नहीं, अपने ही मत में काला (कुविकल्पो मे कानुपित) अथवा मस्त (मदमत्त) या मुन्ध रहता है। वह अपना मनमाना करता है, मेरे, अभिप्राय की जरा भी परवाह नहीं करता। इसे समझाना कोई बच्चो का खेल नहीं है। कोई कह सकता है कि साधारण आदमी मन की भापा और प्रकृति न जानता हो, इस कारण मन शायद न समझता हो, किसी विद्वान् या देवता द्वारा समझाने पर कदाचित् मान जाय, इसी गका का समाधान करते हुए श्रीआनन्दधनजी कहते है-'सुर-नर-पण्डितजन समझाये, समझे न मारो सालो' अर्थात् मन को रेने ही नही, बड़े-बड़े देवो ने, मनुष्यो ने, पण्डितो ने भक्तजनो ने, समज्ञा कर देख लिया, लेकिन यह मेरा साला समझता ही नहीं, इनको दढे-बडे आदमियो ने ठिकाने लाने का प्रयास किया, लेकिन यह किसी को भी नहीं मानता, नही सुनता । सभी इसे समझा-समझा कर थक गए। यहाँ श्रीआनन्दघनजी ने 'साला' शब्द का प्रयोग किया है, वह भी विशिष्ट अर्थ का द्योतक है । जीवात्मा की दो स्त्रियां मानी गई हैं-एक सुमति और दूसरी कुमति । अथवा निश्चयदृष्टि से आत्मा की दो चेतनाएं-स्त्री के रूप में मानी गई हैं-शुद्धचेतना और अशुद्धचेतना। कुमति का भाई कुमन है, जो कुविकल्प से काले पारकर्म करने के कारण काला है । अथवा मन अशुद्धचेतना का भाई है । इस दृष्टि से मन जीवात्मा का ताला हुआ । इसी कारण यहां उसका प्रयोग किया गया है । यहाँ साना शब्द का प्रयोग तिरस्कारसूचक है। बड़े-बडे पण्डित, ज्ञानी, विद्वान्, भक्त और देव भी इसे समझाते हैं कि तू हठ १ कहीं कहीं 'माहरो सालो के वदने 'महारोमालो' पाठ भी मिलता है इसका अर्थ होता है-महाकोवी। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३६७ मत कर, जीवात्मा के अनुकूल रह कर मोक्षसाधना मे सहयोगी बन, परन्तु कुमतिस्त्री का भाई यह मन (साला) सारी समझाहट पर पानी फिरा देता है। यहां फिर एक शका होती है कि मन ऐसा कौन सा जवांमर्द है, जो वडोवडो को पानी पिला देता है, इसी शफा को ले कर श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे कहते है में जाण्यु ए लिंग नपु सक, सकल मरदने ठेले । बीजी बाते समरथ छे नर, एहने कोई न झेले हो०॥ ___ कुन्यु० ॥मनडु ०७॥ अर्थ मैंने तो समझा था कि मन नप सकलिंग (नामर्द) है, परन्तु यह तो सारे मर्दो को पोछे ठेल देता है । मनुष्य और सब बातो मे समर्थ है, पर इस मन को कोई समर्थ पुरुष भी पकड़ है नहीं सकता। नपु सक होते हुए मर्दो को मात कराने वाला मन पूर्वगाथा मे मन के आगे सभी हार खा जाते हैं, यह बात बताई थी, लेकिन श्रीआनन्दघनजी को फिर खयाल आया कि मन तो सस्कृत और गुजराती दोनो भाषामो मे नपु सकलिंग है, इसमे क्या ताकत होगी, नामर्द जो ठहरा । नपु सक व्यक्ति सबसे गयावीता और कायर होता है, वह कोई भी साहस का काम नहीं कर सकता। न वह किसी मर्द से भिड सकता है | उसमे दमखम नही होता । वह तो एक ही धक्के से गिर जाता है। इतना सब कुछ होते हुए भी आखिर मन नपु सरु है, इसलिए मर्दो को यो ही बदरघुडकी दे रहा होगा कि "मैं यो कर दूंगा, त्यो कर दूंगा।" परन्तु जब इसकी ताकत का अनुभव किया तो मेरा अन्तर भी कह उठा-नपु सकलिंग मे इसका प्रयोग भले ही होता हो, परन्तु ताकत में यह नपु सक नहीं है, और न किसी मर्द से पीछे हटने वाला है, बडे-बडे ज्ञानियो, ध्यानियो तक को यह चेलेंज देता है, वटे-बडे पुरुषो को यह बात की बात मे छठी का दूध याद दिला देता है। चाहे जैसे वहादुर आदमी को मन मिनटो मे हरा सकता है। इसलिए मुझे मन की खासियत का Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ अध्यात्म दर्णन अब पता लगा कि व्याकरण की दृष्टि से भले ही इसका प्रयोग नगलिग मे होता हो, लेकिन यह नपु सक किसी भी तरह नहीं है, यह मर्दो का भी मरे है । मेरी जानकारी मन के बारे में यथार्थ न थी, मेरा अनुमान गलत निकला। मैं नासमझी से हमे कमजोर समझ रहा था, लेकिन अब ममल में आया कि जिन वीरनरी ने बडे-बढे पहाडी से मार ली, नदियों को प्रवाही को हाथ से रोक लिये, कुश्ती मे वडे-बटे पहलवानो को हरा दिया, अगले ने बड़ी से बनी पत्रसेना को पराजित कर दिया, वे ही नरवीर बलिप्ट मन के गुलाम बन गए। यह इतना जबर्दस्त है कि वडो वड़ो की पकड़ में नहीं माना । और सब बातो मे समर्थ मनुष्य मन के नागे हार खा जाता है । यह किमी की गिरफ्त में नहीं आता । कदाचित् योडी देर के लिए कोई इसे वहला कर पकड़ भी ले नो भी यह झट छटक कर चला जाता है । क्रिकेट के खेल में जैसे अमुक खिलाडियों के हाथ मे आया हुआ वॉन छटक जाता है, वैसे ही मन भी छटक कर दौड़ जाता है। अत हे भगवन् । जिन महापुरुपो ने मन को जीता है, उन्होंने आपके बताये हुए मार्ग से ही जीता है, अथवा आपने जिन जिन उपायो से मन को जीता था, उन्ही उपायो से वे महापुरुष इस काले मन से मुक्त हुए हैं। इसीलिए मैं आप से पुकार-पुकार कर कहता हूं कि मैं इस मन को कैसे जीतू ? अत श्रीआनन्दघनजी निराश हो कर नन्त में अपने अनुभव का निचोड़ अगली गाथा मे अकित करते हैं -- मन साध्यु तेरणे सघलु साध्यु , एह बात नहिं खोटी। एम कहे साध्युते नवि मानु , एक ही बात छे मोटी; हो। कुन्यु० ॥मनडु ॥८॥ अर्थ जिसने मन को साध लिया, उसने सब कुछ साध लिया, विश्व मे प्रचलित यह कहावत गलत नहीं है। यह एक अटल सत्य है । फिर भी मन को साघे बिना ही कोई यों दावा करे कि मैंने मन को साध लिया है , में उसकी बात मानने को तैयार नहीं । क्योकि एक (मन को वश मे करने की बात ही सबसे बड़ी (दुर्गम) बात है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना भाष्य मन को साधने से समस्त साधनाएं सफल दुनियां के सभी धर्म, सभी दर्शन, मम त विचारधाराएँ समस्त मनोवैज्ञानिक, सकल मत, इस बात को एक स्वर से स्वीकार करते है कि 'जिसने मन को साध लिया, उसने सब कुछ साध लिया।' इसीलिए एक विचारक ने कहा है -'मनोविजेता जगतो विजेता' जिसने मन को जीत लिया, उसने सारे जगत् को जीत लिया । क्योकि मन को एकान कर लेने पर सभी साधनाएँ आसान हो जाती है । सभी धर्मक्रियाएँ मन को वश कर लेने पर सीधी और आसान हो जाती उनमे जान आ जाती है। मन की एकाग्रता से बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त हो जाती है । जिसने मन-रूपी भुजग को वश मे कर लिया, मानो परमात्मपद तो उसके सामने हाथ जोडे खटा है । अष्टसिद्धियां और नौ निधियाँ मन के विजेता के सामने चेरी बन कर खडी हो जाती है। व्रत, नियम, सयम, जप आदि सब मन पर विजय प्राप्त करते ही सिद्ध हो जाते है। ___ कोई कह सकता है कि मन को जीतने की क्या जरूरत है ? उच्चक्रिया या तप करते जाओ, उसी से हो सब कुछ हो जायगा, परन्तु आध्यात्मिक जगत् में ये बाते मिथ्या सिद्ध हो चुकी हैं। मनुष्य चाहे जितनी क्रिया करे, ग्रीष्मऋतु में भयकर आतापना ले, शीत-ऋतु में ठड सहन करे, काय नेश करे अथवा विविध प्रकार के तप या जप करे, मन पर काबू किये विना ये सब निष्फल हैं। चाहे जितने रजोहरण, मुखबस्त्रिका या अन्य वेष धारण कर ले, परन्तु मन को वश मे नही किया तो ये सब निरर्थक हैं। उसी की साधना, या क्रिया सफल होती है, जो मन को वश में कर लेता है । मन को जीते विना ये सब कोरी कष्टक्रियाएँ हैं । इसलिए यह वात सत्य से परिपूर्ण है कि जिसने अपने मन को नियत्रण मे कर लिया, उसने सब कुछ साध लिया । इसीलिए श्रीआनन्दवनजी कहते हैं-'एह बात नहिं खोटी'। जगत् मे मन को वश मे करने की बात सबसे बडी है कई लोग झूठमूठ दावा करते हैं कि 'मैंने अपना मन वश मे कर लिया है।' परन्तु उनकी कोरी बातो पर से सच नहीं माना जा सकता । यो तो कोई भी रास्ते चलता आदमी कह देगा-'अजी | मन को वश करने में क्या धरा है ? Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० अध्यात्म-दर्शन थोडी-सी योगक्रियाएँ करो, वह वश मेहमा हो गया है।" पर इस दावे फो सत्य नहीं माना जा सकता। क्योकि ऐसे दादेशार लोग एक और मन को वश में करने का दावा करते हैं, दूसरी ओर कावनिया का पन भी चाहते हैं। फल के विना बेचैन हो उठते हैं। इस प्रकार ये वदनी व्यापात' जमी परस्पर विरोधी वात करके ही अपनी बात को मिथ्या सिद्ध करते है। यह उनका कोरा वकवास है। जिनकी रीति, नीति, जादेण, उपदेश-गम्बन्धी प्रवृत्तियों प्रत्यक्ष राग-द्वेप से भरी दिखाई देती है, उनकी चान में कोई नत्यता नहीं है । वास्तव मे जिन्होंने मन को जीत लिया हो, वे अपने मुंह से कदापि नही कहते हैं कि 'मैंने मन को प्रश में कर लिया है, मेरे में राग-द्वेप नहीं है।' मन को साध लेने वाले की तमाम प्रवृत्तियां जगत् के हित के लिए होती हैं। मत श्रीआनन्दघनजी अन्त में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे है-'एक ही बात छे मोटो' ससार में और सब बातें आसान हैं, मन को गाधना ही सबसे दुष्कर, कठिन और दुर्गम है । अत जगत् में सबसे बडी बात में मानता हूँ, वह एक ही है, वह है-मन को वश में करना । इनी के लिए माधक का विशेष प्रयत्ल होना चाहिए । यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी अब अपने मनोविजय के बारे में ही प्रभु से प्रार्थना करते हैं - मनडु दुराराध्य में वश आण्यु, आगमयो नति आणु । 'आनन्दघन' प्रभु माहरू आणो, तो साचु करी जाणुहो० ॥ कुन्यु०॥ मनुडु ० ॥६॥ __ अर्थ ऐसे दुराराध्य (मुश्किल से अधीन किया जा सके, साधा जा सके, ऐसे) म्न को आप (भु) ने वश मे किया यह बात में आगमो (मूलसूत्रो) से जानता हूँ,' स्वीकार करता हूँ । परन्तु हे आनन्द के समूह | वीतराग प्रभो! आप मेरे मन को काबू (वश) मे करा दें (ला दें), [मेरे मन को वश में करने के लिए आप सहायफ बनें] तमी इस बात को सत्यरूप मे मान सकता हूँ। भाप्य प्रभु से मनोवशीकरण की प्रार्थना श्रीआनन्दधन जी ने इस स्तवन के प्रारम्भ मे एक बात बार-बार प्रभु Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३७१ के समक्ष निवेदन की हे- 'कुथुजिन | मनहुँ किम हि न बाझे।' और उसके बाद मन के सम्बन्ध में ऊहापोह करने के पश्चात् अन्त मे प्रभु के सामने वे फिर वही पुकार करते है । वे कहते हैं, मन अत्यन्त कठिनता से वश मे आता है, यह बात हम अनुभव और महापुरुषो के वचनो पर मे जानते हैं। इसी स्तुति की पूर्वगाथाओ मे मन की दुराराध्यता का वर्णन भी कर चुके है। परन्तु हे प्रभो । आपने तो बडी मुश्किली से वश में हो सकने वाले मन को अपने काबू मे कर लिया है, यह वात मैं अपनी मन कल्पित नहीं कह रहा हूं। मैने आगम पढे है, और उन आगमो से तो यह बात मैंने बुद्धि मे उतार ली है, जान ली है । अर्थात् आपने अतिदुर्गम्य दु साध्य मन को साध लिया है, इस बात को मैंने आगमप्रमाण से तो जान ली है, किन्तु प्रत्यक्षप्रमाण से भी जानना चाहता हूँ कि आपने मन को वश मे कर लिया है या नहीं। आगमो के प्रति मेरी श्रद्धा है, क्योकि सम्यक् वी को आगमो की बात पर श्रद्धा अवश्य होनी वाहिये। इसलिए आगमो के अध्ययन, पठन, श्रवण एव चिन्तन पर से तो मैं इतना मानने को तैयार हूं कि आपने अपने दुराराध्य मन को जीत लिया है । आपका जीवन चरित्र सुनने से यह बात सत्य प्रतीत होती है कि मन को वश मे करना आवश्यक था, अत आपने अपने मन को वश मे कर लिया, परन्तु हे आनन्द के घन । मैं इस बात को प्रत्यक्ष प्रमाण से तभी सच्ची मानू गा, जब कि आप मेरे मन को काबू में कर देंगे, यानी मेरा मन मेरे वश मे कर देंगे। आप चाहे जिस उपाय से कृपा करके मेरे मन को मेरे अधीन बना दे, तो प्रत्यक्षप्रमाण से भी आपके द्वारा मन को वश मे करने की वात सिद्ध हो जाय और ऐसा होने से मेरा काम भी सिद्ध हो जाय । वीतराग प्रभु से अपने मन के वशीकरण की प्रार्थना का रहस्य यहाँ प्रश्न यह होता है कि वीतराग प्रभु न किमी का मन विषयो मे भटकाते है और न किसी के मन को वश मे कर देते हैं। वे तो निरजन निराकार परमात्मा है, उन्हे किसी से लागलपेट (राग) या (हप) नही है। तव फिर योगी आनन्दघनजी ने वीतरागभ से ऐसी प्रार्थना की, उसके पीछे क्या रहस्य है ? इसका समाधान यह है कि श्रीआनन्दधनजी तत्वज्ञ ये, और वे इस बात को भलीभांति जानते थे कि वीतरागप्रभु किसी से कुछ लेते देते नहीं , वे रागढप ने, मासारिक मोहमाया से बिलकुल रहित है, परन्तु भक्ति Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. अध्यात्म-गर्जन बाद में इस भापा को क्षम्य माना जाता है। जब अपना कोई बस नहीं चलता है, तो भक्त प्रभु का ही आश्रय लेना है। यह जानता है कि वेमे प्रभु दूसरो के कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं बनने, किन्तु अगर मेरे पुष्प प्रबल हो, मंग शुभ कर्मोदय हो तो कदाचित् प्रभु प्रबल निमित्त उन सकते हैं । मनको वा में करने का पुग्पायं मुझे ही करना है, मेरे बदले प्रभु पुरचार्य नहीं करेंगे, न मेग हाथ पकड़ कर प्रभु मेरा मन वश में सरायगे, लेकिन में जो कुछ पुन्चार्य करू उसमे वे प्रवल निमित्त, प्रेरक एव महायक तो बन ही मरते हैं। क्योंकि प्रम अनन्तशक्तिमान है, आनन्दघनमय है, इसलिए प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा तो दे ही सकते हैं, मेरे अन्दर अन्त म्फुरणा तो जगा ही गाते हैं। मेरे परोक्ष सहायक तो वन ही सकते है, मेरे प्रवन पुरुपायं में प्रोत्साहनल्प आशीवाद तो उनकी अन्तरात्मा से मिल सकते हैं। इसलिए व्यवहारदृष्टि से इस पक्ति की अर्यनगति यो की जा सकती है कि मेरे मन को वश (अधीन) करने में आप सहायक बनें, प्रेरक वनें, मुझमे इस प्रकार की आत्मशक्ति जगा दे कि मैं अपने मन को वश मे कर सकू । अयवा में अपने मन को मापने स्वल्प मे लीन करना चाहता हूँ, आप कृपा करके मेरे अन्दर कोई अन्त स्कुरणा या आत्मशक्ति जगा दे कि मेरा मन नापके स्वल्प मे लग जाय, जिससे मेरा जन्ममरण का चक्कर समाप्त हो जाय । निश्चयदृष्टि से इस प्रकार की अर्थमगति हो सकती है-'हे लानन्दघन प्रमो । मेरा चचल मन नापके शुद्धस्वरूप में लग जाय और मैं भी आत्मानन्द परमानन्दघन वन जाऊ और सदा-सवंदा अनन्त आनन्द [ख] मे रमण करता रहूँ ! आपकी कृपा से या मेरे पुरुपायं से) मंरा आत्मलक्ष्य न छूटे, आपके स्वरूप में लगा हुआ मेरा मन विपयो में इधर-उधर न भटके, वह मेरी आत्मा में ही लीन हो जाय, तभी यह प्रत्यक्ष प्रमाणित हो जायेगा कि मैंने आपकी आराधना की और दुराराध्य मन को भलीभाँति साध लिया । वस्तुत निश्चयप्टि से ऐमा निवेदन अपनी आत्मा के प्रति अतीव मगत है कि श्रीआनन्दवनजी अनन्तशक्तिमान अपनी आत्मा से प्रार्थना करे कि 'आत्मा । तू अनन्त शक्तिमान है, आनन्दघन है, इसलिए अपनी आत्मशक्तियो के पुज पर विचार करके समस्त पोद्गलिक आसक्ति का त्याग कर अपने दुराराध्य मन को अपने वश मे करके बता। तभी तेरा अनन्तशक्तिमत्ता को मैं प्रत्यक्ष जान सकू गा, आगमप्रमाण से तो मैं तेरा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३७३ अनन्तशक्तिमत्ता को जानता ही हूँ। मन को वशमे करने का उपाय अब तेरे ही हाथ मे है । अपने आपको इतना सक्षम, इतना शक्तिशाली, आत्मवली बना कि मन तेरे आगे स्वयमेव झुक जाय, तेरा दास बन जाय, तेरे इशारो पर चले ।' . सारांश . . . . . . . इस महत्वपूर्ण स्तुति मे श्रीकुन्थुनाथ वीतरागप्रभु से मनोविजय के लिए लिए प्रारम्भ से ले कर अन्त तक जोरशोर से प्रार्थना की गई है। शुरूआत मे मन की शिकायत प्रभु से की है, अपने साथ मन के होने वाले विविध सघर्षों का बयान किया है- रात-दिन, आकाश-पाताल, बस्ती उजाड सर्वत्र मन की अवाघगति है । बडे बडे मुमुक्ष साधक, तपस्वी, ज्ञानी, ध्यानी मन को वश मे करने के लिए पच पच कर थक गये, परन्तु मन किसी के काबू मे नही आता। यहां तक कि वडे बडे आगमवली भी मन को अकुश मे न ला सके, जबरदस्ती करने पर भी मन काव मे नही आता, न किसी भी, वात को सुनतामानता है, यहां तक कि देव, मानव, पण्डित सभी ने समझा लिया, फिर भी स्वच्छन्दकारी मन किसी की एक नही मानता, नपुसकलिंगी , होते हुए भी वडे-बडे जामर्दो को यह पछाड देता है, अन्य वातो मे समर्थ भी मन के आगे असमर्थ हो जाते हैं। इसलिए अन्त मे वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सर्वप्रथम और सबसे बडी बात है- मन को साधना । इसको साध लेने से सभी वाते सध जायेगी । अत वे वर्तमान स्थिति मे मन को वश में करने मे अपने आपको दुर्वल जान कर प्रवल अनन्तशवितधर वीतराग प्रभु से प्रार्थना करते है कि आपने अपने मन को पूर्णतया वश मे कर लिया, आगम-प्रमाणित यह बात तभी सच्ची मानी जा सकती है, जब मेरे मन को वश मे ला दें, या वश करने मे आप प्रवल निमित्त बन जाए। इस प्रकार आध्यात्मिक साधना मे सर्वोपरि मनोविजय पर श्रीआनन्दधनजी ने जोर दिया है और इसके लिए प्रबल पुरुषार्थ करने की बात भी ध्वनित कर दी है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ : श्री अरहनाथ-जिन-स्तुति - वीतराग परमात्मा के धर्म को पहिचान (तर्ज- ऋषभनो वश रयणायरो, राग-परज या मार) धरम परम अरहनाथनो किम जाणु भगवंत रे। स्व परसमय समझावीए, महिमावत महंत रे । घरम०॥१॥ अर्थ हे भगवन् ! में श्री अरहनाय नामक वीतराग-परमात्मा का जो उत्कृष्ट (स्वभावस्वरूप) धर्म है, उसे किस प्रकार समझू कैसे जान सकता हूँ? उसके लिए महामहिम महान् प्रमो । आप मुझ पर कृपा करके स्वसमय (स्वधर्म) और परसमय) परधर्म या केवलज्ञान से पहले की निविपल्प ध्यानस्य आत्मा की दशा=स्वसमय और • ससे अतिरिक्त दशा- परसमय अयो आत्मा का जिनेश्वरो द्वारा प्रकाशित निर्गन्य सिद्धान्त एव निथेतर सिद्धान्त, दोनो के वारे मे समझाइए। सर्वोत्कृष्ट वीतरागधर्म की जिज्ञासा पूर्वस्तुति में मन को वश में करने की प्रार्थना परमात्मा में की थी, किन्तु मन को वश में करने का एक कारण धर्म है। धर्म को भलीभांति जाने समझे विना उसमे प्रवृति नहीं हो सकती और प्रवृत्ति के बिना सफल परिणाम नहीं आ सकता। इसलिए श्रीआनन्दघनजी वीतराग परमात्मा के धर्म को जानने-समझने की दृष्टि से कहते हैं-'धरम परम अरहनाथनो किम जाणु भगवन्त रे ।' ससार मे अनेकविध धर्म हैं । कई धर्म तो परस्पर इतने विरोधी है कि उनमे पता लगाना कठिन हो जाता है कि कौन मा धर्म ययार्थ, सच्चा, हिनकारक और सुम्ब्रदायका या तारक है और कौन-मा अन्यया, वर्तमान मे अहित कर, व क्षणिक सुखदाता है ? समार मे धर्मो का जगल इतना लवा-चौडा है कि उसमे पता लगाना कठिन हो जाता है कि कौन-सा धर्म औपधरूप है, सजीवनी Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३७५ बूटी के समान सयमायु की वृद्धि करने वाला है, चारित्ररूपी प्राणो को धारण कर सकता है ? दुर्गति मे गिरती हुई आत्मा को बचा सकता है, उत्तम सुख मे या सुगति मे आत्मा को पहुंचा सकता है ? क्योकि जब तक धर्म की यथार्थ पहिचान न हो, जीवनयात्रा मे धर्म के उपयोग की सही जानकारी न हो, वीतराग-परमात्मा के द्वारा बनाये हुए या पाले हुए धर्म का यथार्थ ज्ञान न हो, तव तक धर्म का शुद्ध आचरण नहीं हो सकता । जिस व्यक्ति को धर्म का शुद्ध ज्ञान नही होगा, वह धर्म के नाम पर विविध धर्म-सम्प्रदायो मे प्रचलित युगवाह्य क्रियाकाडो, कुरूढिपोपक आचारो, विकासघातक परम्पराओ, दम्भ. वर्द्धक विधि-विधानो, हानिकारक कुरूढियो और समाज की अकल्याणकारी कुप्रथाओ को ही प्राय धर्म समझ कर उन्ही का पालन करने मे धर्मपालन की इतिश्री समझ लेगा। ऐसी स्थिति में वह यथार्थ धर्म को भी सीधे रूप मे न पकड कर उलटे रूप मे ही पकडेगा, जिससे विकास के बदले उसकी आत्मा का पतन एव ह्रास ही अधिक होगा । ऐसे व्यक्ति की स्थिति भ महावीर की दृष्टि मे विपरीत हो जाती है-'जिस प्रकार कोई कालकूट विप को पी कर जी नही सकता, उलटे रूप में पकडा हा शस्त्र उसे पकडने वाले को ही मार डालता है, किसी को वैताल लग जाने पर वह उसके प्राणो का नाश कर डालता है, वैसे ही विपयो या विषमरूप से युक्त धर्म को स्वीकार कर लेने पर वह आत्मा का विनाश कर डालता है।"१ कई बार यह देखा जाता है कि गुरुपरम्परा या सम्प्रदायपरम्परा से प्रचलित किसी रीति-रिवाज या व्यवहार अथवा घातक गतानुगतिक प्रथा को ही धर्म समझा जाता है। जैसे अमुक समाज मे शराव पीना, मासाहार करना, स्त्रियो का पर्दा रखना, अमुक ढग से चौकेबाजी करना, जनेऊ या चोटी रखना, अमुक तरह का तिलक लगाना आदि को धर्म समझा जाता है, जयवा अमुक मनमाने आचार-विचार को या विकासघातक क्रियाकाण्डो के पालन को धर्म समझा जाता है। यह तो दूर रहा, जो सच्चा और व्यापक धर्म माना जाता है. वीतरागता, अनेकान्त, समता एव सरलता को १-विसतु पीय जह कालकूड, हणाइ सत्य जह कुग्गहीय । एसो वि धम्मो विसओ (मो) ववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो । -उत्तराध्ययन० अ० २० गा ४४ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ अध्यात्म-दर्शन धर्म का प्रधान अग समझा जाता है, उसी धर्म के अनुयायी-गण सम्प्रदायभेद, परम्पराभेद, या आचार-विवार के जरा से भेद को लेकर दूसरे में लाने सगडने और गालीगलौज करने लग जाते है, एकात आग्रही एव आचार-विचार मे गया असहिष्णु बन कर एक दूसरे पर मिथ्या-आरोप लगाने लगते हैं, मरलना को ताक में रख कर कुटिल राजनीति का आश्रय ले लेने है, समना के बदले जाति, वर्ग, रग, राष्ट्र, सम्प्रदाय आदि के नाम पर वे विषमता फैलाने लगते हैं, जराजरा सी बात से उनके व पाय और गग-द्वेष का पारा चढ जाता है, वे स्वय विषम बन जाते है, उनके वीतराग-विज्ञान का मिहान्त उम ममय न जाने कहां गायब हो जाता है ? उग समय ये आत्मा और शरीर पे भेद-विज्ञान के वदले शरीर व शरीर मे सम्बन्धित कपायो व राग-द्वेप आदि विकारो को ही मानो अपने मान कर अपना लेते हैं । ऐगे गोरखधे मे माधारण व्यक्तियो को पता ही नहीं चलता कि कौन-सा वीतराग-परमात्मा का धर्म है, कौन सा पर धर्म है ? बहुधा धर्म के नाम में भक्तिवाद के नशे मे या सम्प्रदायवाद की धुन मे अथ घा गुरु-परम्परा की ओट में आमजनता विविध आडम्बरो की चकाचोध मे सच्चे मार्ग से भटक जाती है। वह वई दफा ऐसा गलत रास्ता अपना वैठती है, जिसे बाद मे हुडाना अत्यन्त कटिन हो जाता है। और इनके जैसे अन्य कारणो को देख कर श्रीआनन्दघनजी स्वय सच्चे धर्म की जिज्ञासा को ले कर वीतराग-परमात्मा के गामने उपस्थित हुए हैं कि वीतरान-परमात्मा (धोमरहनाथ) का उत्कृष्ट और यथार्थ धर्म कौन-सा है ? कौन-सा यथार्य धर्म है, जो जीवन और जगत् के लिए परमकल्याणकारी, आत्मविकासक, स्वहितकर, चार गतियो और ८४ लक्ष जीवयोनियो गे छुटकारा दिलाने वाला, व कर्मों को निर्मूल करने में समर्थ है ? धर्म को जिज्ञासा का दूसरा पहलू धर्म के विपय मे जिज्ञासा का एक और पहलू है । वह यह है कि आत्मा के लिए कौन-मा धर्न उत्कृष्ट है, और कौन-मा निकृष्ट है ? कौन-सा आत्मा का धर्म है, और कौन-सा अनात्मा= आत्मा से पर मन, बुद्धि, इन्द्रिय तथा पुद्गलो का धर्म है ? अथवा कौन-रो आत्मा के निखालम धर्म' हैं यानी आत्मा के अनुजीवी (निजी) गुण (धर्म) है और कौन-से आत्मा मे पर के, किन्तु आत्मा के साथ संयोग-सम्बन्ध से सश्लिष्ट होने से आत्मा के वैभाविक गुण (काम Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३७७ कोधादि धर्म) हैं ? अथवा निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से जब हम इम प्रश्न पर विचार करते है तो श्रीआनन्दघनजी वीतराग-परमात्मा के सामने सीधा ही प्रश्न पूछते हैं-प्रभो ! मैं तो अज्ञान हूं, ससार मे फंसा हुआ हूँ, मैं स्पष्टरूप से जान नहीं सकता कि आपका अपना (आत्मा का) धर्म कौन-सा है ? और परकीय धर्म कौन-सा है ? अथवा निश्चयदृष्टि से आत्मा का शुद्ध धर्म कौन-सा है, व्यवहार दृष्टि से कौन-सा धर्म है ? इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने भगवान से प्रार्थना है कि 'स्वपरस-समय समझावीए' प्रभो | आपकी महिमा अपार है। आप अणिमा-महिमा आदि योगसिद्धियो से सम्पन्न हैं, आप महान त्यागीमहनीय-पूजनीय पुरप हैं । अत आप मुझ पर कृपा करके समझाइए कि स्वधर्म क्या है, परधर्म क्या है ? अथवा स्वसमय= स्वसिद्धान्त और परसमय पर सिद्धान्त (पूर्वोक्त अर्थों के अनुसार) क्या है ? अथवा इन दो वाक्यो को एक करके ऐसा अर्थ भी घटित हो सकता है कि-'महिमामय प्रभो । स्वसमयपरसमय की दृष्टि से यह समझाइए कि वीतराग परमात्मा का धर्म कौन-सा है ? - जैनधर्म मे तत्वज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रश्नोत्तर-शैली प्रसिद्ध है। भगवतीसूत्र मे गणधर गौतम द्वारा महावीर से पूछे गये ३६ हजार प्रश्न और उत्तर है। अगली गाथा. मे इसी प्रश्न का समाधान किया जाता है- . शुद्धातम अनुभव सदा, स्वसमय एह विलास रे। परबड़ी छांहडी जे पड़े, ते परसमय-निवास रे॥धरम०॥२॥ अर्थ जहां पर्यायाथिक नय की गौण रखकर द्रव्याथिक नय की मुख्यता से शुद्ध आत्मा का सदा साक्षात् अनुभव हो, वहा स्वसमय (मेरा धर्म) है । वहा स्वात्मा का ही विलास (स्वात्मरमणता) है । जहां कभी-कभी वार त्यौहार पर देर से छाया पडती हो, उसका आत्मानुमव हो, वहां परसमय (मेरे सिवाय पर का धर्म) है, अथवा पर= आत्मा से पर अनात्मभाव वाली - बहिरात्मभाव वाली जो आत्मा की बड़ी छायामात्र जिन जिन ग्रन्थो मे पडती है, वहा परसमय =अन्यतीर्थीय सिद्धान्तो का निवासस्थान हे । अथवा पर की - अन्य आत्मा की या दूसरे द्रव्यो को, द्रव्य के सिवाय गुणो या पर्यायो की प्रतिच्छाया जहाँ जहा पड़ती है, वहां वहां परसमय का रथानक है । अथवा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ अध्यात्म-दर्शन की दृष्टि से विचारणा हो, वहाँ शुद्ध स्वसमय तथा परद्रव्य की या पर्यायाधिक नय की दृष्टि से विचारणा हो, उसे परसमय ममयो । भाष्य स्वसमय-परसमय का लक्षण और रहस्य पूर्वगाथा मे परमात्मा के धर्म को समझने के लिए स्व-परसमय की जिज्ञासा प्रस्तुत की गई थी। इस गाथा मे उसी का समाधान किया है । वास्तव मे 'समय' शब्द अनेकार्थक और रहस्यमय है। अमरकोप के अनुसार 'समया शपथाचारकालसिद्धान्तसविदः' समय का अर्थ शपथ, आचार,काल (समय या प्रसग), काल का एक सूक्ष्मविभाग, सिद्धान्त एव धर्म तथा द्रव्यात्मा (आत्मा) इत्यादि है । यहां प्रमगवश तीन अर्थ 'समय' के हो सकते हैं- आत्मा, सिद्धान्त (आगम) और काल । इन तीनो की पृथक पृथक व्यापया इस प्रकार से है-विशुद्ध (कर्ममल से रहित) आत्मा का जहाँ अनुभव होता है, जिमगे आत्मानुभव की वाते की गई हैं। यानी आत्मा निश्चय से कर्म रहित, परभाव से रहित, अपने गुणो से परिपूर्ण, अनादि अनन्त, प्रक्ट ज्ञायक ज्योतिस्वरूप, एक, नित्य, सम्पूर्ण ज्ञानधन है, इस प्रकार शुद्ध आमा का अनुभव जहाँ होता हो, वहाँ स्वसमय समझना । इसे विस्तृतरूप मे यो कहा जा सकता है कि मोक्ष में आत्मिक दशा कमी होती हैं ? अर्थात आत्मा मोक्ष मे अपनी असली स्थिति मे कैसा रहता है, इसके अनुभव करने की जो बाते हो, वे सब स्वसमय की बाते हैं । यानी आत्मा का स्वभाव ऊध्र्वगामी होने से वह वान उसके अनुभव की होती है । आत्मा की अलग-अलग कौन-कीन मी दशाएँ होती हैं ? वह मूल स्वभाव में वसा रहता है ? ये उन्नतगामी (ऊध्र्वगामी) सब वाने स्वसमय की हैं । इसकी मूल विशुद्ध अवस्था में यात्मानुभव कैसा होता है ? उसका जहाँ। जहाँ वर्णन किया जाय, वहा-वहाँ स्वसमय की बात है, यह समझ लेना चाहिए। शुद्ध निर्मल आत्मा के गम्बन्ध में जितनी भी बात कही जाती हैं, वे मव १-किसी किसी प्रति मे 'पर परिछायडी' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है- जहा पर की प्रतिच्छाया (परछाई पड़ती है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३७६ स्वसमय की बातें हैं । आत्मा कर्ममलरहित दशा मे कैसा निर्मल होता है ? यह कैसे रहता है ? इस सम्बन्ध मे हुई अनुभव की बातें जहां हो, वहाँ स्वसमय (स्वधर्म=परमात्मा का धर्म) है, यह जान लेना चाहिये । मतलब यह है कि आत्मा का मूल स्वभाव ऊर्ध्वगामी है और पुद्गल का स्वभाव है-अधोगामी। जहां आत्मा के मूल गुणो का अनुभव होता हो, यानी आत्मा निर्मल हो, तव कैसा होता है क्या करे ?) ये सब बातें स्वसमय की है। इस प्रकार के शुद्ध द्रव्याथिक नय की दृष्टि से विचार या कथन स्वममय हैं । तथा शुद्ध आत्मा का सदा के लिए जो साक्षात् अनुभव हो, वही स्वसमय है, वही स्वात्मा का अपना विलास है, आमोद-प्रमोद है, मौज है । कारण यह है कि शुद्ध आत्मानुभवरूप = आध्यात्मिक विकासरूप महाधर्म की सम्भावना आत्मा मे ही हो सकती है आत्मार्थियो के लिए उसी की विचारणा आवश्यक है, अन्यथा विचारणा करने की आवश्यकता ही क्या है ? (२) ऐसा ही आत्मकथन करने वाला शास्त्र स्वसमय= स्वशास्त्र स्वसिद्धान्त कहलाता है, (३) समस्त परद्रव्यो से निवृत्त हो कर आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अपने स्वभाव मे एकत्वरूप से जिस समय प्रवृत होता है, उसे भी स्वसमय कहते हैं । (आ) १ आत्मा के अतिरिक्त जो परवस्तु, पुद्गल या भौतिक सुखो का जिसमे विधान हो, अथवा आत्मा से भिन्न दूसरे द्रव्यो की या द्रव्य मे अतिरिक्त गुणो या पर्यायो की (पर की) प्रति छाया (परछाई) जहा पडती हो, अर्थात् अनादि अविद्यारूप लता के मूलमोह के उदय से आत्मा आने ज्ञानदर्शनादि स्वभाव से च्युत हो कर मोह-राग-द्वं प आदि परभावो में एकत्वरूप से प्रवृत हो, उसे परसमय कहते है । अथवा परद्रव्य की पर्यायाथिक नय की दृष्टि से विचारणा हो, वहा परसमय का निवास है। (२) ऐसे शास्त्र जिसमे आत्मा के अतिरिक्त वहिरात्मभाव की लौकिक बातें हो, ऐसे सिद्वान्त या शास्त्र परसमय कहलाते है, इनमे पर्व या किसी विशिष्ट दिवस या प्रमग पर कभी कभी छाया की तरह आत्मानुभाव की बातें आ जाती हो या की जाती हो, वहां परसमय का निवास समझना चाहिये । परसमय या परधर्म मे आत्मानुभव की बात कभी कभी होती हैं, उसमे पोद्गलिकभाव की वाने ही अधिक होती हैं । मतलब यह है कि जिनमे मुख्यतया आत्मानुभव की वाते नहीं होती, कमी कभार जरा आत्मानुभव की बात आ जाती है, उस सिद्धान्त, शास्त्र या धर्म को परसमय ही समझना चाहिए, जैसे वृहस्पति जैसे Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० अध्यात्म-दर्शन चार्वाक परलोक को नहीं मानते, उसमे आत्मम्वभाव से विपरीत चाते है। (३) आत्मा जिस समय परभाव मे एकत्वरूप में प्रवृत्त हो, उस समय - को परसमय कहते है। इस प्रकार इन तीन अर्थों के अनुसार स्वसमय-परसमय को पहिचानने की कु जी प्रस्तुत गाथा मे वता दी है । परममय को जाने विना चममय की विशुद्ध जानकारी नहीं हो सकती और जब तक स्वसमय का विशुद्ध ज्ञान न हो, तव तक माधक स्वसमय में प्रवृत्त नहीं हो सकता। अमुक तत्त्वज्ञान स्वसमय है या परसमय, इसके जानने का तरीका इसमे बताया गया है, वह दोनो मुख्य नयो की दृष्टि गे है, इसलिए नयो का ज्ञान भी होना आवश्यक है। इसलिए अगली गाया मे प्रसगवश स्त्रसमय :- विशुद्ध यात्मा के अनुभव की वात विविध नयो की दृष्टि से कही जा रही है - तारा नक्षत्र ग्रह चंद्रनी ज्योति दिनेश मोक्षार रे । दर्शन-ज्ञान-चरण थफी, शक्ति निजातम धार रे॥घरम०॥३॥ अर्थ जिस प्रकार तारो, मगल आदि ग्रहो, अश्विनी आदि नक्षत्रो और चन्द्रमा की ज्योति (कान्ति) सूर्य (सौरमण्डल) मे अन्तर्भूत हो जाती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र, इन सबकी शक्ति अपनी आत्मा मे जानो। भाष्य शत्ति का केन्द्र . आत्मा पिछली गाथा मे स्वसमय और परसमय का अन्तर बता कर स्वसमय को अपनाने की बात ध्वनित कर दी है। इस गाया मे प्रकारान्तर से स्वसमय की बात की पुष्टि की गई है । सूर्य की उपमा दे कर इस बात को सप्ट किया गया है कि शुद्ध आत्मा (परमात्मा) मे स्वधर्मरूप अनन्त शक्ति छिपी हुई है, पर वाहर मे वह अलग-अलग रूप मे दृष्टिगोचर होती है, मगर है वह शुद्ध आत्मा की ही, और उसी मे वह अन्तहित हो जाती है । जगत् मे ऐसी प्रसिद्वि है कि तारा, ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा वगैरह प्रकाशमान पदार्थो में सूर्य का ही प्रकाश सत्र म्ति होता है । जब सूर्य प्रकाशित होता है, तो इन Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३८१ सबका प्रकाश सूर्य मे समाविष्ट हो जाता है । वर्तमान विज्ञान का भी यह मत है कि ग्रहो और चन्द्रमा का प्रकाश स्वतत्र नहीं है, वे सूर्य के प्रकाश के बल से प्रकाशित होते है । यही कारण है कि सूर्य के उदय होते ही इन सवका प्रकाश फीका पड़ने लगता है। इसीलिए कहा गया-जिस प्रकार आकाश के ग्रह, नक्षत्रादि की ज्योति सूर्य के प्रकाश में है, उसी प्रकार सामान्य ज्ञानरूप दर्शन (अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानरूप दर्शन), विशेषज्ञानरूप ज्ञान और सामायिकादि चारित्र, सबमे आत्मा की शक्ति ही है। इन सबकी शक्ति का समावेश भी यात्मा मे हो जाता है। निश्चपनय की दृष्टि से देखे तो ज्ञानदर्शन-चारित्र भी आत्मा से अभिन्न हैं, ये सब आत्ममय ही हैं, एक आत्मा ही भासमान होता है। मतलब यह है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र वगैरह के अनेक पर्याय होते हैं । दर्शन से निराकार ज्ञान होता है, 'यह मनुष्य है या पशु ?' वगैरह विशेष बाते ज्ञान से जानता है । सामायिक चारित्र से ले कर यथाख्यातचारित्र तक अनेक पर्याय जानता है । परन्तु वे सब एक ही आत्मद्रव्य को बताते है, उसे ही उद्देश्य करके होते है। जैसे पर्याय अनेक हैं, आत्मिक द्रव्य एक ही है । उसी के ज्ञान-दर्शन-बारित्र आदि अनेक पर्याय होते हैं । वे अन्त मे एक आत्मा मे ही समा जाते हैं । ये सब एक आत्मिक द्रव्य के ही परिणाम हैं, आत्मा के गुण है, आत्मा के ही ये सब पर्याय है, यह भलीभाति जान लो। आत्मा न हो तो उसके पर्याय भी नहीं होगे, यो समझ कर एक आत्मिक द्रव्य की महत्ता समझ लो। जैसे सभी प्रकार के तेज-फिर वे चाहे तारो के हो, चन्द्रमा के हो, सूर्य के तेज मे समा जाते हैं, वैसे ही ज्ञानदर्शन-चारित्र के अनेक पृथक्-पृथक् पर्याय होते हैं, पर उन सबका समावेश एक आत्मानुभव मे हो जाता है । इससे यह भी घोतित हो जाता है कि ज्ञानदर्शनचारित्र की शक्ति शुद्धात्मानुभव -स्वसमय मे समाविष्ट हो जाती है, किन्तु अपरज्योतिरूपपरसमय का उसमे समावेश नहीं होता। पर्याय चाहे जितने हुआ करे, पर वे मूल द्रव्य एक आत्मा से सम्बन्धित हैं, यह वात भनी माँति हृदयगम कर लेनी चाहिए । आत्मा एक है, पर्याय अनन्त हैं । आत्मा के अनन्त पर्याय होते हुए भी उसे एक ही द्रव्य समझना, यही आत्मानुभव (स्वसमय) की, आत्मा को भलीभांति पहिचानने की कुंजी है । अगली गाथा मे इसी बात को और स्पष्ट कर रहे है Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ अध्यात्म-दर्शन भारी पोलो चीक णो कनक, अनेक तरंग रे । पर्यायष्टि न दीजिए एक ज कनक अभगरे ॥ धरम० ४ ॥ अर्थ वजन मे भारी-रग मे पीला, गुण से चिकना (स्निग्ध) नोने के ऐसे अनेक प्रकार दिखाई देते हैं, परन्तु पर्यायाथिक नय की दृष्टि न दें। द्रव्यदृष्टि मेंदेखें तो वह अभग (अखण्ड = अदस्प) द्रव्याप में एक नोना ही दिवाई देता है। मोना एक : प्रकार अनेक पूर्वगाथा में कही हुई बात को दूगरी तरह से सोने का दृष्टान्त दे कर आनन्दघनजी समझाते हैं- सोने के माय पर्यायरूप मे तीन गुण निहित हैभारीपन, पीलारग और चिकनापन । मत नब यह है कि सोना तीन में वजनदार धातु होता है। सोने की यह विशेपता है कि वह दूसरे धातुओ की अपेक्षा वजन में भारी होता है। उसका रंग भी विशिष्ट प्रकार का पंला है, जो दूसरे किसी धातु से मिलता नही है । और वह दूसरे धातुओ की अपेक्षा चिकना भी अधिक होता है, सोना दूमरे धातुओ के बजाय नरम और लचीला होता है । इसी कारण उसके परमाणु एक दूसरे से चिपक जाते हैं, जल्दी टूटने नही । एक ही सोने के हार, करधनी, ककण जादि अनेक आभूपण बनाये जाते है। जिनके नाम और आकार भिन्न-भिन्न होते है, परन्तु उन मत्रमे जो सोना होता है, उसे देख-परख कर ही सबकी कीमत आंकी जाती है। सोने के व्यापारी की सोने के विषय मे द्रव्याथिक दृष्टि है, मगर आभूषण बनाने वाले सुनार या उन्हे पहनने वाले की दृष्टि मे आभूपण मुख्य होने में पर्यायायिक दृष्टि होती है । कुम्मार घडा, कोठी, सुराही वगैरह बनाने के लिए जगल मे मिटटी लेने जाता है, तब वह घडे, कोठी आदि को मिट्टी ही देखता है, मिट्टी ही उसके खयाल मे वसी रहती है । मगर कुम्हार के यहाँ से बर्तन खरीदने वालो की दृष्टि मे मिट्टी नहीं आती, घडा आदि वर्तन ही आते है। इसलिए कुम्हार की दृष्टि द्रव्याथिक होती है, जबकि ग्राहक की दृष्टि पर्यायायिक होती है । इमलिए पर्यायष्टि को छोड़ कर एक और अबण्ड सोना ही है, इसके भेद Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिवान ३८३ नहीं हो सकते । सोना तीनो काल मे सोना ही रहता है । अत. सोन मे भारीपन, पीलेपन या चिकनेपन अथवा विभिन्न गहनो की कल्पना करना पर्याय दृष्टि है । पर्यायदृष्टि को गौण कर दे, उसका इस समय उपयोग न करें तो वही मोना मबमे एकरूप अभेदरूप प्रतिभासित होगा । पदार्थ के असली स्वरूप को समझने की कु जी किसी भी पदार्य के वास्तविक वस्तुस्वरूप को समझने के लिए द्रव्याथिक नय की दृष्टि को मुख्य रखे तो उसके पयिो की दृष्टि गौण हो जायेगी। ऐसा करने मे पर्याय भी उस द्रव्य मे समाविष्ट हो कर द्रव्यरूा ही गिने जायेंगे। इसी प्रकार पर्यायायिक दृष्टि को मुख्य रख कर देखें तो द्रव्य गौण हो जायेगा, वह प्रतिभासित नहीं होगा। ऐसा करने से द्रव्यत्व भी पदार्थ के एक प्रकार के पर्यायरूप मे गिना जायेगा। द्रव्याथिक दृष्टि को सामान्य, शक्ति, द्रव्य, अभेद इन शब्दो से समझा जाता है, जब कि पर्यायाथिक दृष्टि को विशेप, व्यक्ति, स्वभाव, गुण, धर्म, पर्याय, भेद आदि शब्दो से समझा जात है , भारीपन, चिकनापन या पीलापन सोने से अलग वस्तु नही है। कोई सोना खरीदता है तो उसके साथ उसके ये गुण आ ही जाते हैं । यह सोने के विषय मे स्वसमय है। सोने के तौल, रग, गुण की दूसरे के गुणो के साथ तुलना करते समय सोना गौण हो जाता है। परन्तु सोने के गुण मुख्यतया ध्यान में रखे जाते हैं । पर्यायाथिक दृष्टि की मुख्यतया के समय द्रव्यार्थिक दृष्टि गौण होती है, परन्तु उपचार से उसमे गौणरूप से द्रव्याथिक नय की दृष्टि भी होती है, इसी तरह द्रव्याथिक नय की दृष्टि के समय गोगरूप से उपचार से पर्यायाथिक नय की दृष्टि मुख्य होती है। अगर ऐसा न हो तो वे दोनो नय एकान्त होने से नयाभास वन कर मिथ्या सावित हो जाते हैं । अत एक नय मे गौण रूप से उपचार से दूसरा नय होता ही है, तभी नय की सापेक्षता टिकती है और वे सुनय वनते है । इस प्रकार आत्मार्थी को द्रव्यदृष्टि और पर्यायष्टि भलीभांति समझ लेनी चाहिये । आगे की गाया मे इसी विपर को आत्मा पर घटाते हुए कहते है - दर्शन-ज्ञान चरण थकी अलखस्वरूप अनेक रे। निर्विकल्प रस पीजिये, शुद्ध निरजन एक रे॥ धरम०॥५॥ । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याग-दर्शन अर्थ उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र को प्टि से आत्मा को देखें तो उसके लक्ष्य मे न आ सकें, ऐसे (अलक्ष्य) अनेक स्वरूप प्रतीत होते हैं, क्योंकि आत्मा के अनन्त गुण है । द्रव्य-पर्याय के भेदरहित (अभेद) रूप में देखें तो गवं विकल्पो का विलय हो कर आत्मा का ज्ञानादिक भेदरहित, एक, असुण्ड, शुद्ध, निलेप, निरंजन, चैतन्य रूपमे अनुमत्र होता है। आत्ता के सिवाय दूसरा कुछ भी द्वतरूप भासित नहीं होना, ऐसे आत्मा का शान स्मन र निविकर परस पीजिए। भाप्य पर्यायदृष्टि से अनेक आत्मा, द्रव्यदृष्टि से एक पूर्वोक्त गाथा मे सोने का दृष्टान्त देकर द्रव्याथिक और पर्याथिक नय का तत्व समझा गया है । उमी वात को अत्मा पर घटित किया है, जैसे सोने के अनेक प्रकार (तर गें) होते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से अलक्ष्य (अरूप) आत्मा के अनेक तरंगे =पर्याये होती हैं । सामान्य उपयोग से वह जातियो को देखता है। उनमे वह तन्मय हो जाता है, वही उमका दर्शन वन जाता है। उसमे वह मनुष्यो, जानवरो या पक्षियो को एव सुम्बु-दुख को सामान्य प्रकार से देखता है । फिर जरा ज्ञान-उपयोग होता है, तब वह अधिक व्योरेवार तथ्यो को देखता है। मनुष्य के नाम, उनका रग, उनकी जातियाँ और अनेक विवरण उसके जानने में आता है । यह सब ज्ञान का परिणाम है । इसी प्रकार चारित्र मे उपयोग लगाता है, उनकी चर्चा करता दिखाई देता है, वह सामायिक मे स्थिर होता है तो उसमे तथा यथाख्यात आदि चारित्र मे रमण करता दिखाई देता है। इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र की विविधता मे वह जैसा उपयोग लगाता है, वैसा उसका पर्याय दिखाई देता है । यानी आत्मा जव ज्ञान क्रिया मे होता है, तब वह ज्ञानात्मा है, जब दर्शनक्रिया मे होता है, तब वह दर्शनात्मा है और जब वह चारित्रक्रिया मे होता है, तब चारित्रात्मा है। उसी प्रकार आत्मा का शुद्ध पर्याय सम्यग्ज्ञान-दर्शन आदि हैं। उनके क्रियाकारण ही भले ही भिन्न-भिन्न प्रतीत हो, परन्तु एक ही शुद्ध आत्मद्रव्य का कार्य तो एक ही सिद्ध होता है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३८५ एक तरह से शुद्ध पर्याय की दृष्टि से अलक्ष्य, अरूपी, निरजन, निराकार आत्मा के दर्शनोपयोगयुक्त, ज्ञानोपयोगयुक्त और चारित्रोपयोगयुक्त आदि अनन्त आत्मगुण के विकल्प से आत्मा का ज्ञानावधान करने से वह अनेक प्रकार का अनत पर्याय वाला है, इसके उपरान्त कर्मों के सयोग से अनेक अशुद्ध पर्याय होते हैं। उसके एकेन्द्रिय से ले कर पचेन्द्रिय तक की प्राप्ति तथा देव, मनुष्य तिर्यञ्च, नारक आदि गति की प्राप्ति आदि अनेक पर्याय होते हैं। इसी अलख आत्मा को जब निर्विकल्पभाव से देखते हैं, शान्तभाव से निहारत हैं। तो सोने की तरह अकेला ही प्रतीत होता है । आत्मा के ज्ञानादिभाव से या कर्मसयोग से अनेक पर्याय हो सकते हैं, पर सकल्प-विकल्प छोड कर शान्तभाव से अकेले आत्मा को देखें तो निरावरण ही दीखेगा। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने कहा-"निर्विकल्प रस पीजिये, शुद्ध निरंजन एक रे" अर्थात जब अकेले द्रव्य का ही ध्यान करना होता है, एक निर्विकल्प आत्मा के ध्यान का अमृतरस पाना होता है, उसका आनन्द भी अनोखा होता है। उस समय आत्मा एकरूप शुद्धरूप एव निरजनरूप प्रतिभासित होता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने पातजल योगदर्शन पर टिप्पणी मे भी यही लिखा है-निर्विकल्पध्यान मे शुक्लध्यान के दूसरे पाद में एक स्वात्मद्रव्य का पर्यायरहित द्रव्य का शुद्ध ध्यान होता है । और वह इसलिए वह स्वसमयनिष्ठा है । उस अवस्था मे द्रव्याथिक प्रधान शुद्धनिश्चयनय की मुख्यता होती है। अगली गाथा में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनो दृष्टियो से आत्मा का कथन स्पष्ट करत है परमापथ-पंथ जे कहे, ते रंजे एकतंत रे। व्यवहारे लख जे रहे, तेहना भेद अनन्त रे॥ घरम०॥६॥ अर्थ परमार्थरूप (निश्चयात्मक आत्मद्रव्य की सिद्धि के) मार्ग का जो कोई सत्पुरुष कथन करता है, वह (निश्चयदृष्टिप्रकाशक वक्ता या श्रोता) एक निश्चयात्मक तत्त्व की विचारणा करके (या एक ही तन्त्र मे)-प्रसन्न होता है। किन्तु जो व्यवहारनय की दृष्टि से लक्ष्यरूप-आत्मा में रहते (रमण करते हैं, .. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ अध्यात्म-दर्शन उनको दृष्टि मे आत्मा के अनन्तपर्यायो को अपेक्षा से अनन्तभेद प्रतिभामित होते हैं। भाष्य निश्चयष्टि और व्यवहारष्टि से आत्मा का कयन पूर्वगाथा मे भी आत्मा के अनेक और एक भेद बता कर अन्त में निर्विकल्पदशा प्राप्त करके आत्मा के आत्मत्त्व का ध्यान करने और उसे प्राप्त करने की बात पर जोर दिया गया है। उससे यह भी ध्वनित हो जाता है कि आत्मा के ये जो अनन्त पर्याय इस समय दिखाई दे रहे हैं, इन्हें दूर करके इनकी असली स्थिति से निरावरण, एकाकी आत्मा म ही सोने की तरह विचार करना और अन्त में उसे ही प्राप्त करना चाहिए । अब इस गाया मे पुन दोनो दृप्टियो मे आत्मा का प्रतिपादन करते हैं। वास्तव में निश्चय और व्यवहार दोनो अपनी-अपनी जगह पर ठीक है। कोरे निश्चय से मी काम नहीं चल सकता , क्योकि माधक को चलना व्यवहार की धरती पर है। निश्चय के आकाश में उड़ने के लिए व्यवहार की धरती पर पहले पैर जमाना नावश्यक है। निश्चय के पर्वत-शिखर पर चढने के लिए व्यवहार की तलहटी से ही आगे कदम वढाना होता है। इसलिए निष्कर्ष यह निकला कि साधक की आंखें निश्चय की ओर टिकी हो, और उसके पैर टिके हो-व्यवहार की धरती पर । एकान्त निश्चय की ओर देखते रह कर व्यवहार को दृष्टि से ओझल नही करना है, तयैव एकान्त व्यवहार की धरती पर चलते रहने की धुन मे निश्चय को आँखो से ओझल नहीं करना है। साधक जब तक ससारदशा मे है, तब तक दोनो दृष्टियो का उसे उपयोग करना है, किन्तु प्रगति की दिशा में आगे बढने और आध्यात्मिक गगन मे ऊँचे उडने के लिए उसे निश्चयदृष्टि को मुख्यता देनी होगी, क्योकि वास्तविक सद्भूतार्थ मार्ग निश्चय की पगडडी को पकडने से ही प्राप्त होगा। वास्तविक दृष्टि से आत्मा एकरूप भी है और अनेकरूप (अनन्तरूप) भी है । परन्तु परमार्थदृष्टि के साधक उसे एक रूप में देखते हैं, वे उसे एकतन्त्र मे-आत्मा के एकत्व मे-देख कर प्रसन्न होते हैं, जबकि व्यवहारदृष्टि के साधक उसे अनन्तरूप मे देखते हैं । परमार्थपथ (निश्चयनय) के साधक विकल्प Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३८७ रहित शुद्धस्वरूपी अनन्तगुण सम्पन्न आत्मा को एकरूप मे प्रतिपादन करते हैं, जबकि व्यवहारमार्गी लोग आत्मा के अनन्त विकल्पो को ले कर अनन्तभेद बताते हैं । एक दूसरे की दृष्टि में एक दूसरा नय गौण होता है। अपेक्षावाद (स्यादवाद की दृष्टि से दोनो मार्ग अपने-अपने ध्येय के अनुसार ठीक हैं। एकान्तरूप से निश्चय का कथन करना और व्यवहार का निषेध (अपलाप) करना ठीक नहीं, तथैव निश्चय को बिलकुल जनुचित मान कर एकान्तरूप मे व्यवहार का आग्रह रखना भी ठीक नहीं। सात नयो मे से भी प्रथम के तीन या चार नय व्यवहारनय के नाम से परिचित हैं, तथा पिछले तीन नय पारमार्थिक रूप के प्रतिपादनकर्ता होने से निश्चयनय के नाम से प्रसिद्ध हैं। किन्तु एक बात निश्चित है कि उच्चभूमिका पर आरूढ जीवो का विकासक्रम परमनिश्चयनय की मुख्यता (व्यवहारनय की गौणता) से ही आगे बढता है । उपाध्याय नगोविजय जी ने 'अध्यात्मोपनिषद्' तथा 'अध्यात्मसार' मे इसी बात की ओर अगुलिनिर्देश किया है.--१ "जो पर्यायो मे ही रत हैं, वे परसमय मे स्थित हैं, और जो आत्मम्वभाव मे लीन हैं, उनकी स्वसमय मे ही निश्चलतापूर्वक स्थिरता होती है ।" २ "इस प्रकार शुद्धनय का अवलम्बन लेने से आत्मा मे एकत्व प्राप्त होता है, क्योकि पूर्णवादी (परमार्थवादी) आत्मा के अशो (पर्यायो) की कल्पना नहीं करते । (पर्याय जितने जानते हैं, उतनो से पूर्णद्रव्य ज्ञात नही होता । सिर्फ अश ही प्रतीत होते हैं।)स्थानाग आदि सूओ मे 'एगे आया' (एक आत्मा) के कथन का जो पाठ है, उसका आशय भी यही माना गया है।" अत जव व्यवहास्नय का आश्रय ले कर कोई बात करता है तो आत्मा के अनन्त भेद हो जाते हैं, यह हम सोने के दृष्टान्त पर से पहले जान चुके हैं। सोने की जैसे अनेक चीजें बनती हैं, वैसे ही व्यवहारनय से हम प्रत्येक वस्तु के ये पर्यायेषु निरतास्ते ह्यन्यसमयस्थिताः । आत्मस्वभावनिष्ठानां वा स्वसमयस्थिति ॥२६॥ -अध्यात्मोपनिषद् इति शुद्धनयात्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि । अंशादिकल्पनाऽप्यस्थ, नष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥३१॥ एक मात्मेति सूत्रस्थाऽप्ययमेवाऽशयो मतः ।। --अध्यात्मसार Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ अध्यात्म-दर्शन अनेक प्रकार जानते हैं । परन्तु वस्तु (आत्मा) तो मूल में एक ही है, ये नत्र उसके अलग-अलग रूप है । जव आत्मा के विषय मे शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से कोई बात करता है, तो आत्मा के विभिन्न पयायो और विकल्पों को गौण करके मुख्यतया एक शुद्ध निरजन आत्मतत्व को ही देखता है। अगर कोई व्यक्ति एकान्त एक ही दृष्टि का आग्रह रख कर दूसरे का बिलकुल निषेध करता है, वहां ययार्यनय नही, नयामान है, यह बात छह अन्त्रो के दृष्टान्त पर से समझ लेनी चाहिए। अन्धो ने हायी कभी देखा नहीं था, अत जिसके हाथ मे कान आए, उसने घट कह दिया-हाथी नूप जमा है, जिसके हाथ में सूड आई, उसने दूसरे को मूग कह कर कह दिया-हायी मूसल जैसा है, तीसरे के हाथ मे पेट आया, तो उसने कहा-"हायी तो कोठी जैसा है। चौथे के हाथ मे पर आए तो वह वोला-हाथी तो स्तम्भ जैसा है। पाचवें के हाथ मे हाथी के दात आए तो उसने कहा-"हायी भुंगले की तरह है, छठे के हाय मे पूछ आई तो उसने कह दिया हायी तो रस्मे जैसा है । इस प्रकार रहो अपने-अपने आग्रह पर दृढ थे, सभी दूसरो को झूठे व अपने को सच्चा बता रहे थे । इसी प्रकार जो एकान्तरूप से एक बात को ही पकह कर जिद्द ठान कर बैठ जाय, दूसरो को झूठा वताए, वह नयाभानी है, वह दूसरे का निषेध करता है। परन्तु जो पूर्णाश को बता कर एकरूप को गौण रखता है, अथवा एकरून को वता कर अनेक पर्यायो को गौण रखता है, वह सापेक्षवादी यथार्थनयवादी है। इस प्रकार निश्चयनय और व्यवहारनय की उपयोगिता पात्र के भेद से अलग-अलग समझनी चाहिए । इतनी वात स्पष्ट होने के बाद अब निश्चयनय और व्यवहार नय के लाभालाभ के विषय मे श्रीलान्दघनजी कहते हैं . व्यवहारे लख दोहिलो, कांई न आवे हाथ रे । .. शुद्धनय-थापना सेवतां, नवि रहे दुविधा साथ रे ।। धरम०॥७॥ अर्थ व्यवहारनय का आश्रय लेने पर लक्ष्यस्वरूप को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३८६ हो जाता है, क्योकि इसमे कुछ भी हाथ नहीं आता ; जवकि शुद्ध (निश्चय) नय की स्थापना (अभेदस्थापना) के नेवन करने से (आत्मसाक्षात्कार हो जाता है), किती प्रकार की दुविधा मशय) (कर्ममलरहित) आत्मा के साथ नहीं रहती। भाष्य व्यवहारनय और निश्चयनय से लाभालाभ पूर्वगाथा में व्यवहारनय और निश्चयनय दोनो के पात्र कौन-कौन हैं तथा वे इनका उपयोग किस-किस तरह से करते हैं ? दोनो की अपने-अपने स्थान मे गोण-मुख्यरूप मे क्या उपयोगिता है ? यह घोतित किया गया है, लेकिन दोनो नयो से क्या-क्या लाभ-अलाम हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान नही हुआ, वह इस गाथा द्वारा किया गया है । वस्तुत गम्भीरता से सोचा जाय तो व्यवहारनय का अवलम्बन लेने पर साधक नाना पर्यायो और विकल्पो मे इतना भटक और वहक जाता है कि मूल लक्ष्य छूट जाता है, साधक आत्मा के विविध पर्यायो के भवरजाल में फंस कर आत्मा के अभेद-एकत्व को पाना ही भूल जाता है। न ही वह आत्मा को व्यवहारनय के द्वारा पूर्णरूप से साध पाता है। उसके पल्ले केवल ऊपर के छिलके ही हाथ आते हैं, आत्मारूपी फल का जो असली तत्व या सारभून पदार्थ है, वह हाथ नहीं आता। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी जैसे अध्यात्मयांगी को कहना पडा-"व्यवहारे लख दोहिलो" अर्थात् व्यवहारनय का आधार लेने पर लक्ष्य मिलना दुर्लभ हो जाता है। व्यवहारनय से शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात्कार व कर्मपरमाणु से रहित आत्मा की सिद्धि नहीं होती । व्यवहार से चाहे जितनी क्रियाएं की जाय, चाहे जैसा वेश पहना जाय, चाहे जितन कर्मकाण्ड किये जाय, उसमे आत्मल य सिद्ध नहीं होता। कारण यह है कि व्यवहारदृष्टि में मन, वचन, काया के योगो की चपलता रहती है, और योग कर्मबन्ध का कारण है , इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लेने वाले आखिरकार अपने आप को केवल शारीरिक कष्ट में ही डालते हैं, क्योंकि उससे कर्मवन्ध सर्वथा समाप्त न होने से भले ही देवलोक आदि सुगति में मनुष्य गया, उनमे उसे अनेक सुखसुविधाएँ मिली, खूब ऐश-आराम मिला, लेकिन उससे जन्म Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० अध्यात्म-दर्शन मरण का चक्कर मिटा नही । केवल एक खड्डे में में निकल कर दूसरे खड़े मे पडने सरीखी वात हुई । यो तो व्यवहारचारिग्रपालक साधक ने मनपर्दत जितने रजोहरण-मुखवस्त्रिका, पात्र आदि ढेरो अपना लिए, परन्तु उससे कोई वास्तविक लाभ-जन्ममरण से मुक्तिल्प फल नहीं मिला। इसीलिए कहा गया-"काई न आवे हाय रे" व्यवहारनय की दृष्टि में चाहे जितनी क्रिया की जाय, आत्मसाक्षात्कार नहीं होता, कुछ पल्ले नहीं पडता । मलबत्ता, उसे सातारिक लाभ तो मिलता है, अच्छी गति और सुखनुविधाएं मिल जाती हैं, पर उसे जो पारमार्थिक लाम मिलना चाहिए, उसके अनुपात में तो यह लाभ बिलकुल नगप्प है। कोई भी दीर्घद्रप्ता मनुप्य ऐसे तुच्छ लाभ के लिए काम नहीं करता, वह तो किनी म्थायी लाभ के लिए ही प्रयास करता है। जैसे किसी मजदूर को सारे दिन मेहनत करने पर एक पंता मिले, वैने ही वात सारी जिंदगीभर विना समझ के क्रिया करने की है। इस तरह तो एक नही, अनेकों जिदगियां बीत जाँच, फिर भी कुछ वास्तविक लाभ नहीं होता। यही कारण है कि न्यवहार के आश्रय से लदय-शुद्ध वात्मा का साक्षात्कारप्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। क्योकि जब तक मात्मा के साथ कर्म का एक भी परमाणु होगा, तब तक आत्मा संसारी कहलाएगा, इन परमार्थ को लक्ष्य में रख कर कहा गया है, 'व्यवहारे लख दोहिलो' । नितर्प यह है कि व्यवहार से द्विधाभाव मिटता नहीं लक्ष्य-आत्मा का लक्ष्य पाना कठिन हो जाता है । जवकि शुद्धनय=निश्चयनय की स्थापना को स्वीकार करने पर किसी प्रकार की दुविधा नहीं रहती, आत्मदशा-स्वस्वरूप का मेवन करने से आत्मा का नाक्षावार हो जाता है, आत्मा कर्मपरमाणु से रहित हो कर सदा के लिए शुद्ध वन जाता है। हूँ तपन या भिन्नत्व जरा भी नहीं रहता, जहत या एकत्व का अनुभव होता है। फिर यह सवाल नहीं रहता कि पौदगलिक भाव और आत्मिक भाव दोनो मे मे किमको स्वीकार किया जाय । निश्चयनय के आश्रय मे ही माधक मोक्ष के समीप हो सकता है। इस गाया के परमार्थ पर विचार करने वाले मुमुलुओ को आगम-प्रतिपादित धर्म-शुक्लध्यान पर विचार करना चाहिए। शुल्लध्यान के चतुर्थ भेद के विषय में कहा है-'समुच्छित्रक्रियानिवृत्ति' अर्थात् जब 'आत्मा केवल Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३६१ आत्मस्वरूप धान मे आरूढ हो जाता है, तब शरीर की श्वास-प्रश्वास क्रिया आदि सूक्ष्मक्रिया भी बंद हो जाती है । इस दशा को परम निर्विकल्प भी कहते हैं, क्योकि इस दशा में कोई भी भूल, सूक्ष्म, कायिक, वाचिक या मानमिक क्रिया नहीं की जाती। इस आत्म-स्थिति को प्राप्त कर लेने के वाद उनका परिवर्तन नहीं होता। सम्भव है, इत्ती अर्थ का अनुसरण करते हुए इस गाथा मे कहा गया है-'शुद्धनयन्त्यापना सेवता नवि रहे दुविधा साथ रे' निष्कर्ष दोनो का उपयोग परन्नु मात्रक जब तक ससारी है, अयवा इतनी उच्चभूमिका तक नहीं पहुंचा है, वहानक वह व्यवहार को विलकुल फैक नही देगा। उने अपनाये बिना कोई चारा ही नहीं है, परन्तु कोरे व्यवहार को पकड कर चलेगा तो उससे कोई लाभ नहीं है, जब साधक (छमस्य) शुद्ध निश्चयनय को ले कर चलेगा तो उसे यह निर्णय करना पडेगा कि आत्मा का मोक्ष (कर्मबन्धन से छुटकारा) कंमे हो', और उसी प्रकार का व्यवहार अपनाना पटेगा। 'ज्ञानक्रियाभ्या मोक्ष' इस सूत्र के अनुसार समझ-(ज्ञान) पूर्वक जो क्रिया मोक्षसाधक होगी, मसारपोषक नहीं होगी, उसे ही अपनाएगा । अन्यथा, बिना ज्ञान के केवल क्रियाएँ करने से समार मे जन्ममरण का चक्कर नही मिटेगा। मतलब यह है कि केवल व्यवहार की रक्षा के लिए चाहे जितनी क्रियाए की जाएँ. उनमे वास्तविक प्रयोजन मिद्ध नही होता । आत्मिक दृष्टि से यथार्थ एव म्यागरी लाम नहीं होता । वह तो ज्ञानपूर्वक क्रिया की जाय, तभी मिलता है । अत शुद्ध निश्नयनय और व्यवहारनय दोनो का समन्वय करना चाहिए । इन प्रकार आत्मम्वरूप का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए निश्चयदृष्टि के साथ ज्ञानपूर्वक व्यवहार का मयोजन कर लेना चाहिए। पौद्गलिकभाव और आत्मिक भाव इन दोनो में अन्तर को ध्यान म रखते हुए निश्चयनय से सिर्फ आत्मिकभाव ही उपादेय समझना चाहिए, ताकि किमी प्रकार की दुविधा या गडवड न रहे मोर अन्त में अपना कार्य सिद्ध हो । इस पर से श्रीआनन्दघनजी अन्त मे प्रभु मे शुद्ध निश्चयदृष्टि की प्रार्थना करते हैं एकपखी लख प्रीतनी, तुम साथे जगनाथ रे। कृपा करी ने राखजो, चरणतले यही हाय रे ॥धरम०॥८ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ अध्यात्म-दर्शन अर्थ हे जगन्नाथ प्रभो ! आपके साथ मेरी प्रीति का वर्तमान मे लक्ष्य एकपक्षीय (एकतरफी) है, व्यवहारनय तफ है; अथवा आपके साथ मेरा प्रेम एकतरफी है, इसे देख कर भी मुझ पर कृपा करके मेरा हाथ पकड़ कर आप अपने चरणकमल के नीचे रखना, अयवा आप अपने चरण (सामायिक आदि चारित्रभाव) मे पकड कर रखना, वहां से जरा भी खिसकने न देना। भाष्य परमात्मा के साथ एकपक्षीय प्रीति श्री आनन्दघनजी पूर्वगाथा मे निश्चयनर का लाभ समझने के बाद निश्चयनय के साक्षात्प्रतीक वीतराग प्रम के साथ एकत्व साधना चाहते हैं, लेकिन अपनी निवलता को भी वे प्रकट कर देते हैं कि श्रीअरहनाथ प्रभो | मेरी प्रीति तो आपके साथ एकतरफी है । उसका कारण यह है कि आपके और मेरे बीच मे काफी अन्तर है । मैं निश्चयदृष्टि को मानता हुआ भी व्यवहारदृष्टि को मुख्यता देता हूं, जबकि आप तो एकमात्र निश्चयनय के मूर्तिमान प्रतीक हैं, व्यवहार से विलकुल दूर, अतिदूर | इमलिए आपको और मेरी प्रीति कैसे टिकेगी? 'समानशीलव्यसनेषु सख्यम्' इस नीतिसूत्र के अनुसार आपकी और मेरी मंत्री या प्रीति टिकनी कठिन है। क्योकि समान शील और समान स्वभाव वालो मे आपस मे मैत्रीभाव शोभा देता है, और मैं अपनी बात आप से क्या कहूं ? आप तो जानते ही है कि मैं अभी तक रागी-द्वेषी हूं, आप वीतराग, द्वेषरहित हैं। मैं हास्य-रति आदि में फंसा हमा हूँ, आप इनसे बिलकुल रहित हैं, मैं वेदी है, आप निर्वेद हैं, ऐसी परस्परविरुद्ध मेरी आपके प्रति प्रीति है। इनके बावजूद भी मैं आपके प्रति चाहे जितना प्रेम करूं', फिर भी वह एकपक्षीय है, क्योकि आप तो राग-द्वे परहित होने के कारण किसी के प्रति प्रेम करते नही, इस दृष्टि से भी आपके प्रति मेरी प्रीति एकपक्षीय है, मैं व्यवहारदृष्टि से आपके व मेरे बीच मे कई पर्यायो व विकल्पो का फासला देख रहा हूँ परन्तु आप चाहे जितने बड़े जगत् के नाथ हो, निश्चयनयदृष्टि ने तो मैं भी आपके जैसा ही हूँ, शुद्ध-बुद्ध है। इसलिए आप मेरी एक प्रार्थना अवश्य स्वीकार करना- "हे जगन्नाथ (अरहनाथ) भगवन् । आप जगत् के प्राणिमात्र के हितकर्ता हैं, सवका क्षम-कुशल करने वाले हैं, Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३६३ आपका धर्म, आपका स्वरूप आदरणीय है, क्योकि निर्दोष और परम उदार स्वामी का शरण किसे प्रिय न होगा? मैं सद्गुरु की कृपा ने स्वसमय-परसमय का एव परमात्मा के धर्म का मत्तत्व समझा है। इसीलिए मैं आपके साथ प्रीति करता हूँ। यद्यपि मेरी प्रीति एकपक्षीय है, तथापि मुझे विश्वास है कि मैं आपके आदर्श का सेवन कर रहा हूँ, वह वारवार मुझे मिला करे, इस प्रकार की कृपा करना । 'मम हज्ज सेवा भवे भवे तह्म चलणाण' ~आपके चरणो की मेवा मुझे भव-भव मिला करे। निश्चयष्टि में मैं आपके जैमा शुद्ध आत्मा हूँ, इसलिए मापसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने चरणकमलो की सेवा अवश्य दें, मेरे जीवन को अपने चरणो (चारित्रगुणो) मे लगाए रख । मैने जव आपको आदश, आपके परमधर्म का स्वीकार किया है , और आपके आदर्श के अनुरूप होने का निश्चय किया है। मैं अभी तक सिद्धदशा मे नहीं आया, साधकदशा मे ही हैं। अत उससे मेरा पतन न हो, इनलिए आप मेरा हाथ पकड कर अपने चरणो मे रखने की कृपा करे, ताकि भविष्य में मैं परमार्थ प्राप्त कर सकें । अगर आप सरीखे समर्थ पुरुष मेरा हाथ पकडेंगे और आपकी चरणसेवा का लाभ मिला करेगा, तो जो इस समय मेरी एकपक्षीय प्रीति या सेवा है, उसका लाभ मुझे जरूर मिलेगा और सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे। परमात्मा के प्रति एकपक्षीय प्रीति क्यों? कोई यहां सवाल उठा सकता है कि जब परमात्मा किसी से प्रीति नही करना चाहते, तव एकपक्षीय प्रीति करने से क्या लाभ है ? इसका समाधान यो किया जा सकता है कि वर्तमान मे साधक भले ही रागद्वेषादि से लिपटा है, लेकिन अगर वह दोषी वत्ति वालो के साथ ही प्रीति करता रहेगा तो उसके दुखो का कभी अन्त ही नही आएगा । उसके विभावभाव मे परिवर्तन नही होगा, न कभी स्वभावभाव का अनुभव होगा और न आत्मानन्द का ही। काम, क्रोधी, लोभी, रागी और दृषी देवादि के माथ तो इस जीव ने अनन्तवार प्रीति की है, उन्हे अपने वामी माने, लेकिन इससे उसका दुख वटता ही गया, जन्ममरण कम न हुआ। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी पहले अपने आपकी असलियत को स्पष्ट कर देते हैं Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ अध्यात्म-दशन 'एकपखी लय प्रीतनी तुम साये जगनाय रे । अर्थात् यद्यपि आप वीतराग हैं, मैं रागद्वे पवान हूँ, यानि एक वस्तु अवश्य विचारणीय है कि मैं आपके साथ जो प्रीति कर रहा हूं, एकपक्षीय होते हुए भी उसे हरा करके आपको निभानी है । क्योकि भक्त के हृदय में जब भावभक्ति जागृत हो जाती है, तव - भगवान् स्वयं भक्त का हाथ पकड़ कर अपने चरणकमल में रख लेते हैं । मौर आपके चरणकमल मे रहने वाले में रागद्वेष की वृत्तियां रहेगी ही कहाँ ? दुर्वृत्तियां तो अपने आप भाग जाएंगी। राग-द्वेष या तो रागी द्वेषी की सोहबत से बढते हैं या राग द्वेष के कार्यो से बढ़ते हैं । आपके पास तो रागट्टेप का अश भी नही है, और रागद्वेप बढाने वाला कोई पदार्थ भी नही, आप तो परम वीतरागी है, तब रागद्वेप बढेगा ही कैसे ? आपके पास तो निर्फ आत्मानन्द है | भक्त जब वारवार इसी का लक्ष्य रख कर आपके चरण (सामायिकादि चारित्र) का सेवन करेगा तो वह अवश्य ही आपके जैसा बन जाएगा । इसलिए मैं अन्तकरणपूर्वक आपके साथ प्रीति करने की भावना प्रगट कर रहा हूँ । नत हे जगत्पति ! आप मुझे हाथ पकड़ कर अपने चरणकमलो में रख लें. मैं इनसे अवश्य ही कृतकृत्य हो उदूंगा । इसलिए एरपक्षीय प्रेम होते हुए भी निश्चयनव की दृष्टि से शुद्धात्मा का शुद्ध वात्मा के साथ प्रेम है, और वह उचित भी है, वही अन्ततोगत्वा, मेरा कार्य सिद्ध कर सकेगा ।" ? अन्तिम गाया ने श्री आनन्दवनजी परमात्मा का व्यवहारिक रूप कैसा है इसे बताते हुए उनके परम धर्म के सेवन का फल बताते हैंचक्री धरमतीरथतणो, तीरथ फल ततसार रे । तीरथ सेवे ते लहे, 'आनन्दघन' निरधार रे ॥ धरम | ०ई ॥ अर्थ आप तो धर्मतीर्थ के बडे चकवर्ती है। आपके तीर्थ का सर्वकर्म-क्षयरूप मोक्षफल या फल तो सर्वश्रेष्ठ तत्व के साररूप अनन्त चतुष्टय या आत्मस्वरूप की प्राप्ति है । ऐसे सच्चे तीर्य की कोई भक्तिभाव से सेवा करता है, वह आनन्दघनरूप ( आत्मानन्द समूहरूप ) निर्वाणपद को अवश्य ही प्राप्त करेगा । भाष्य वीतरागप्रभु के धर्म को प्राप्ति कैसे और क्यों ? पूर्वगाथाओ मे वीतरागप्रभु श्री अरहनाथ के परमधर्म की प्राप्ति की Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३६५ जिज्ञासा के सन्दर्भ मे स्वसमय-परसमय, द्रव्याथिकपर्यायाथिक व निश्चयव्यवहार की बातें समझाई थी । अत उसी सन्दर्भ मे यहाँ व्यवहारनय की दृष्टि से प्रत्यक्ष मे वीतरागप्रभु के धर्म का दर्शन और उनके स्वीकार का फल बताया गया है । वास्तव मे परमात्मा का धर्म निश्चयनय की दृष्टि से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे सकता, निश्चयदृष्टि मे तो अमूर्त एकत्वस्वरूप अखण्ड अरूपी आत्मा का केवल कथन हो सकता है, या आत्मस्वरूपरमण की बात कही जा सकती है। उसका आचरण तो व्यवहारनय की दृष्टि से प्रत्यक्ष होने पर ही हो सकता है। हा तो, इसी दृष्टिकोण से यहां परमात्मा के तीर्थंकररूप का वर्णन किया गया कि 'चक्रो धरमतीरथतणो ।' वीतरागप्रभु श्रीअरहनाथजी सिद्ध हो गए, तव तो उनके परमधर्म को कोई जान नहीं सकता, सिद्धत्वदशा प्राप्त किए बिना, उस आदर्ग के सम्बन्ध मे यथार्थ कल्पना तो हो सकती है, अनुमान एव आगम प्रमाण से भी वे जाने जा सकते हैं, किन्तु प्रत्यक्षरूप मे नही । प्रत्यक्ष साकार एव सदेहरूप मे भगवान् को जानने के लिए उनका तीर्थकर या उससे पहले का रूप जानना-देखना आवश्यक है। तीर्थकर पद से पहले का उनका गृहस्थजीवन या चक्रवर्तीजीवन खास प्रेरणादायक या धर्म के आदर्शरूप मे प्राय अनुकरणीय नही होता । इसी हेतु से यहां १ धर्मतीर्थ के चक्रवर्ती के रूप में भगवान का निरूपण किया है । यद्यपि दीक्षा लेने से पहले श्रीअरहनाथ प्रभु चक्रवर्ती (राजराजेश्वर) थे, किन्तु उसका इतना मूल्य नही, जितना धर्मचक्रवर्ती का मूल्य है । आप स्वसमयरूप परमधर्म की प्राप्ति जगत् के भव्यजीवो को कराने और उन्हे नसारसागर से पार उतार कर मोक्षप्राप्ति कराने के लिए धर्मतीर्थ के चक्रवर्ती बने । धर्मतीर्थ एक ऐसा तीर्थ है, जो जीव को नरकादि दुर्गति से बचा कर सद्-गति प्राप्त कराता है, अथवा जन्म, जरा, व्याधि और मरणरुप भय से सर्वथा मुक्त करके अजर-अमर सिद्धत्व (मोक्ष) पद को प्राप्त कराता है । धर्मतीर्थ का मतलब ही होता है जो तारे, सामने वाले किनारे जाने का रास्ता बताए, वह तीर्य कहलाता है । भगवान् ने सभी भव्य. जीवो को ससारसमुद्र से तारने के लिए धर्मतीर्थ (धर्ममय सघ) की स्थापना की। धर्म का आसानी से आचरण कर सकने के लिए उसे सघबद्ध किया। १- 'धम्मवर-चाउरत चक्कवट्टी'- नमोत्युण-शक्रस्तव Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ • अध्यात्म-दर्शन साधु-साध्वी, श्रावक बोर धाविका, इन चारो धर्माचरण करने वाले माधकों । के सघ (नमूह) को धर्मतीर्थ माना गया । नदी या तालाव आदि पर बंधे हुए घाट को भी तीर्थ कहते हैं । घाट वा जाने पर प्रत्येक व्यक्ति नदी या तालाब के पानी का आसानी से उपयोग कर सकता है, उसमे तर भी सकता है। उमी प्रकार धर्म का वाट तीर्थ कर द्वारा बांध दिये जान पर उन धर्मतीर्थ के के माध्यम से प्रत्येक भव्यजीव धमल्पी जल का आमानी से सेवन, आचरण और उपयोग कर सकता है और उस परमधर्म के द्वारा तैर भी सकता है इमोलिए नापने केवल अपना ही जात्म-कल्याण नहीं किया, केवल स्वय ही नही तिरे, जगत् के जिनामु भयजीवों का भी इस धर्मतीर्थ की स्थापना करके कल्याण किया और उन्हें भी मनारमागर से तारा । इसी प्रकार भगवान् ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। धर्मचक्र ने सूर्य के चक्र से दसगुनी भव्यता होती है। तीर्थकर भगवान के मुक्ति पधारने के बाद भी उनका धर्मचक्र ममार के लिए आदर्श होता है वह धर्मचक्र अपनी शरण में आने वालो को चारों गतियो का अन्त कर देता है। धर्मतीर्थ के आश्रय का फल प्रभो । आपके तीर्थ के अस्तित्व का फल जगत मे सारभूतरूप उत्तमतत्व का प्राप्त होना है जयवा तीर्थ का आश्रय करने का फल नारभूत तत्वो का वोध होना है। जीव, अजीव आदि नी तत्वो का ज्ञान जोर उनमे से हेय और उपेक्ष्य का त्याग, और उपादेय और ज्ञव का स्वीकार, तथा उपादेय एव शेयर तत्वो पर श्रद्धा रखना, यही तीर्थ प्राप्त करने का उत्तम फल है। और परम्परागत फल ससार-सागर के पार हो कर मोक्ष प्राप्त करना है माधु साध्याश्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध तीर्थ का आप जैसे महापुरुष भी 'नमो तित्यस्त कह कर नमस्कार करते हैं, ऐसे नीर्थ को मैंने प्राप्त किया है, इसे नमवार । करके उसकी सेवा कर सकं, वही मेरा जहोभाग्य होगा। ऐसे तीर्थ कावा- '' कार करने के बाद तो बापधी को मैं अपने आदर्श नाय (स्वामी) के रूप मे स्वा. कार करू', उसका अनुसरण कहें और आपके परमधर्म को प्राप्त करके आत्मा. १ 'धम्मतित्ययरे जिणे-लोगस्ससूत्र १ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३६७ मन्दधन प्राप्त करूँ, यही मेरी जिज्ञासा है । और मेरा निश्चय है कि मैं अवश्य आनन्दघनमय मोक्षपद या आत्मानन्दमय सिद्धपद प्राप्त करूंगा। इस गाथा में एक वात स्पष्ट ध्वनित कर दी गई है कि जहां तक सर्वोच्च भूमिका प्राप्त न हो जाय, वहां तक व्यवहार-दृष्टि मे तीर्थ का आलम्बन लेना और तीर्थसेवा करना मुख्य आधार है। तीर्थ-निरपेक्षरूप मे बाहुबलिमुनि की तरह चाहे जितनी साधना की जाए, फिर भी तत्व प्राप्त नहीं होता। प्रत्युत कई बार तो विपरीत भाव या तीर्थ या तीर्थंकरो अथवा महापुरुषो या माधको के प्रति घृणाभाव पैदा हो जाने से मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का बन्ध हो जाता है। स्वय तीर्थकर भगवान् भी अपने कल्प का अनुसरण करते हुए तीर्थसापेक्ष होकर प्रवृत्ति करते हैं । सभी भूमिका वाले साधको के लिए जैनशामन मे तीर्थ का आलम्बन लेना आवश्यक होता है । यही कारण है कि श्रीआनन्दधनजी जैसे उच्च आध्यात्मिक साधको ने अपना नया मत, पथ या सम्प्रदाय नहीं चलाया, बल्कि अन्त तक तीर्थ (सघ) का ही आश्रय लिया, तीर्थपति के ही चरणो मे अपना सर्वत्र समर्पण करके अपनी साधना का विकाम किया। इसमे फलित होता है कि साधको को सर्वोच्च भूमिका पर पहुंचने से पहले तक निश्चयदृष्टि को आखो से जरा भी मोझल नही होने देना चाहिए, माथ ही व्यवहारदृष्टि को भी सर्वथा नहीं छोडना चाहिए। - निश्चयनय और व्यवहारनय से सिद्ध आत्मधर्मों का विचार दो तरह से करना चाहिए -~-एक तो ज्ञानदृष्टि से, दूसरा चारित्रदृष्टि । से ज्ञानहष्टि वस्तु का सिर्फ ज्ञान कराने में मुख्य होती है, जबकि चारित्रदृष्टि आचरणप्रधान होती है। किसी जीव के कितने ही कर्म ज्ञानवल से टूटने योग्य होते हैं, जबकि कितने ही कर्म आचरण करने से, तपस्यादि करने से टूटने योग्य | होते हैं । अत ऐसे कर्मों को तोड़ने के लिए आचरण करना पड़ता है । और वह क्रमश ही हो सकता है । प्राथमिक क्रम व्यवहारनयसिद्ध आचरण का आता है, और फिर निश्चयनय सिद्ध आचरण का आता है। इसमे धर्मध्यान और शुक्लध्यान-निर्विकल्प (असग) ध्यान मे समताभाव की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए चिदानन्दमय यात्मा के अनुभव आदि का समावेश होता है। उस स्थिति मे व्यवहारनय की क्रिया छोडनी होती है, जिसे धमसंयाग्ससामर्थ्य योग कहते हैं और वह ८ वे अपूर्वकरण नामक गुणस्थान से ही प्राप्त हो जाता है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ अध्यात्म-दर्शन इससे यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि कोई भी जीव व्यवहारमार्ग में क्रमशः ही आगे बढ़ सकता है । किनी जीव की अनादिका तीन तयाभव्यता ऐसी होती है कि व्यवहारनयसिद्ध माग मे उसे बहुत ही कम चलना परता है, वह सीधा निश्चयनयसिद्ध मार्ग पर चढ जाता है और तुरन्त मोक्ष में चला जाता है। जैसे-मरदेवी माता । भरतवक्री आदि ने तो पूर्वभव में सवविरतिचारित्र की आराधना की हुई थी, इसलिए वे नो घ्यवहारमार्ग से गुजरते-गुजरते ही निश्चय-मिद्ध लाचरण के मार्ग पर आ कर केवलज्ञान प्राप्त कर सके हैं। मगर वीच की भूमिकाएं पार किय विना नीचे निश्चयनय की भूलिका पर जास्तु होने वाले जीव बहुत ही थोडे होते हैं। अधिकमज्यक जीवो की तथाभव्यता क्रमश चढाने की होती है, इसलिए अपुनर्वन्धकभाव की अवस्था में ले कर । ठे सर्वविरति-अवस्था तक में चलने वाले बहुत जीव होते हैं। प्रत्येक ग्राहक । प्रत्येक किस्म के माल को नही खरीदना, परन्तु दुकानदार को तो सभी किस्म का माल रखना पड़ता है। इसी प्रकार घम-(शासन) तीर्य को भी भिन्न भिन्न कोटि के धर्मनिष्ठ जीवो को लन्य में रख कर आत्म-विकाम के छोटे-बडे तमाम साधनो का प्रचार और सुविधा जुटानी पड़ती है। इसीलिए जिनशासन मे व्यवहार और निश्चय दोनो नयो की दृष्टि से पहले से ले कर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवो को स्थान है। गौतमादि गणधर भी मघशासन के अनुशासन में रहते थे । जो व्यक्ति नीची भूमिका का हो, उसे का निश्चयनय की ऊँची भूमिका की बात कह कर हटाना ठीक नहीं और न निश्चय की उच्चभूमिका की योग्यता हो, उसे नीची भूमिका पर आना है। परन्तु उच्चभूमिका वाले मे नोची भूमिका वाले जितनी चारित्र की मात्रा (नैतिक भूमिका) तो होनी ही चाहिए। किन्तु नीची भूमिका वाले उच्च- । भूमिका के अयोग्य व्यक्ति मे बुद्धिभेद पैदा करके इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्ट करना विलकुल अनुचित है, पाप है । यही निश्चय और व्यवहार का रहस्य सारांश इस प्रकार इस स्तुति मे निश्चय और व्यवहार दोनो नयो की दृष्टि से : 'परमात्मा के परमधर्म की जिज्ञासा प्रकट की है। परन्तु आगे चल कर यह बताया गया है कि द्रव्यदृष्टि से आत्मानुभव एक वस्तु है, इसी आत्मा के अनन्त : Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३६६ पर्याय हैं। पर्यावदृष्टि से अनेक रूप धारण करते हुए भी आत्मा तो सोने की तरह एक ही है । अत. जैसे सोने के विविध गुण और पर्याय सोने से अलग नहीं हैं, उनी ने समा जाते हैं, वैसे ही आत्मा के दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि गुण या देव-मनुष्यादि पर्याय आत्मा से अलग नहीं है, उसी मे समा जाते हैं। अत निष्कर्ष यह है कि आत्मा को द्रव्यदृष्टि से एक और नित्यरूप में देखने और निजस्वरूप सिद्ध करने का यह सव प्रयास है। इसी प्रकार पर्यायदृष्टि (व्यवहारनय) को छोड कर द्रव्यदृष्टि से देखने का भी मुख्य सकेत यहाँ किया गया है । जहाँ तक पर्यायदृष्टि नहीं छूटेगी, वहाँ तक ससार-परिभ्रमण है, व्यर्थ प्रयास है। अत निश्चयदृष्टि से आत्मा को अनन्त, नित्य, अव्याबाध, रत्नत्रयमय जान कर ही निर्विकल्प रस पीने पर आनन्दघनपद की प्राप्ति हो सकती है। निश्चय को मद्देनजर रखते हुए जानपूर्वक जो व्यवहार हो, तीर्थसेवा हो, उसमें पीछे नहीं रहना चाहिए, तभी वीतराग-परमात्मा का परम धर्म हस्तगत हो सकता है। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९: श्रीमल्लिनाथ जिन-स्तुति-- दोषरहित परमात्मा की सेवकों के प्रति उपेक्षा (तर्ज-काफी, सेवक किम अवगणीए,देशी) सेवक किम अवगणिये हो, मल्लिजिन ! ए अव शोमा सारी। अवर जेहने आदर अति दीये, तेहने मूल निवारी, हो॥ मल्लि ० ॥१॥ अर्थ हे मल्लिनाय तीर्थकर प्रभो । आप (मापकी आत्मा को अनादिकाल से सेवा करने वाले) इन सेवकों (काम, क्रोध, रागद्वेषादि) को अवगणना (उपेक्षा) क्यों कर रहे है ? दूसरे जीव जिन काम-क्रोधादि) को बहुत ही आदर देते हैं, उन्हें आप तो जड़मूल से नष्ट कर रहे हैं । क्या इस समय यह सब आपके लिए शोभास्पद है । (व्यग मे) माज्य मधुर उपालम्म पूर्वस्तुति में वीतराग परमात्मा के परम धर्म को जिज्ञासा की वात घी, इसमे वीतराग परमात्मा की उन सेवको के प्रति उपेक्षा के लिए श्रीमानन्दघनजी भक्ति के आवेश मे आ कर मधुर उपालम्भ देते हैं कि आपतो वीतराग हो गए, जो लोग आपके स्वसमय या स्वधर्म के अन्तर्गत आ गए, उनके प्रति तो आपका कुछ लगाव प्रत्यक्ष नही तो, परोक्षरूप से है ही, वे लोग तो आपको अपना ही । मानते हैं, इसलिए उन्हे आपके द्वारा नहीं तो, आपके भक्त कहलाने वाले लोगो । द्वारा आदर-सत्कार मिलता है, लेकिन जो लोग आपके स्वधर्म या स्वसमय के अन्तर्गत नहीं आए, उनके प्रति आपका भी उपेक्षाभाव है और आपकी देखा देखी मापके भक्तो और अनुयायियो का भी उपेक्षाभाव है ! अत हे रागद्वेषरहित प्रभो | आपको न तो किसी के प्रति जरा-सा भी राग (लगाव) होना चाहिए और न किसी के प्रति उपेक्षा या घृणा (ष) का भाव ! आपको तो समभाव होना चाहिए । परन्तु मैं मानता हूं कि आपको वीतराग हो जाने के वाद न तो भक्तो के प्रति राग है और न अभक्तो के प्रति द्वेष, मगर वे लोग या हम लोग आपकी तटस्थता और उदासीनतारूप समता को देख कर यह ! Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४०१ अनुमान लगा लेते हैं कि आप बिल्कुल चुप हैं या विल्कुल मकेतरहित हैं,, इसलिए आपका उन सेवको के प्रति वर्तमान मे उपेक्षाभाव है, जिन्होने लाखो करोड़ो वर्षों तक आपकी सेवा की थी, आपकी सेवामे वे रात-दिन रह रहे थे,, आपको एक क्षण भी अकेला नहीं छोडते थे । मेरा सकेत उन सेवको के प्रति है, जिनसे आपने अब एकदम मुख मोड लिया है ? आप बडे आदमी है, महान् पुरुष हैं, क्या आपके लिए अपने सेवको को एकदम छिटका देना, और अपने भक्तो को भी उनके प्रति तिरस्कार करने की प्रेरणा करना शोभास्पद है। जो (रागद्वेपादि) आपके अत्यन्त निकटवर्ती थे, उन्हे बिलकुल दूर ठेल देना और जो आपसे दूर-दूर रहते थे, उन्हे अपने नजदीक ले लेना, उनसे आत्मीयता स्थापित करना, क्या आप जैसो के लिए न्यायोचित है ? माना कि आप महापुरुष हो गए और वे वेचारे एकदम नीची कोटि के रह गए, पर उन्हें ठुकराना तो नहीं चाहिए था, उन्हें उचित स्थान तो आपको देना ही चाहिए था? परन्तु आपने उन्हे उचित स्थान देना तो दूर रहा, उन्हें अपने पास भी नहीं फटकने दिया, आपने तो उनकी जहे ही काट दी, उन्हे अपने पास से हटा दिया सो हटाया ही, अपने भक्तो को भी हिदायत दे दी कि वे भी उन्हें किसी प्रकार की तरजीह न दें, किसी प्रकार से अपनाएँ नही, जो उन्हे अपनाएगा, वह मेरे तीर्थ या धर्मचक्र का अनुयायी नहीं रह सकेगा, रहेगा तो भी उसका स्थान और दर्जा नीचा होगा ! आप जानते ही हैं कि जो सेवक वेदिल हो जाता है, वह दुश्मन का-सा काम करता है, आपके वे पुराने तथाकथित सेवक अब आपके शत्रु बन गए और आपके भक्तो या अनुयायियो ,को सता रहे हैं, आपके साथ वैर का बदला उनसे ले रहे है। एक वात और है, आपने जिन सेवको को उपेक्षित समझ कर निकाल दिया, उन्हें दूसरे सामारिक जीव या मिथ्यादृष्टि देव बहुत ही आदरसम्मानदेते हैं, मगर आपने तो उन्हे जडमूल से नष्ट कर दिया और कह दिया, 'तुम्हे कही स्थान नहीं मिलेगा ।, क्या वर्तमान मे आपके ऐसा करने से, आपकी सुन्दर शोभा होती है ? अथवा वर्तमान स्थिति में उनके प्रति ऐसा करने मे ही आपकी सारी शोमा है ? पहले उन्हे आदर देने में ही आपकी सुशोभा थी, अब उन्हे सर्वथा छुट्टी दे देने मे ही आपकी सारी शोभा है ? यह सच है कि पुराने से पुराने सेवक होते हुए भी यदि वे अपना' अहित करते हो, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ नध्यात्म-दशान गुनहगार सावित हो, उन्हे अपनाने से दापरूप परिणाम ही आता हो तो उन्हें निकाल देने मे सच्ची शोभा है । 'सेवक किम नगगीए' के बदले यहाँ 'सेवक किम अव गणीए' यो पाठ हो तो उसको अर्थ सगत हो जाता है ।क दोपी सिद्ध हो जाने के बाद अब सेवक कैसे गिना (समझा जा सकता है ? __ अथवा इस गाथा का एक और पहलू रो भो अर्थ किया जाता हैहे मल्लिनाथ भगवान् । मैं आपका मेवक हूँ। आप मेरे स्वामी हैं, फिर भी आप मेरे प्रति उपेक्षा क्यो करते हैं ? आप जैसे सुज्ञ पुरुप मुझ सरीखे सेवा करने वाले की अवगणना क्यो करते हैं ? क्या इसमे आपकी कुछ शोभा या महत्ता वढ जाती है ? मैं जानता हूँ कि आप महान् विजेता हैं, क्योकि आपने ससार के सभी दुखो को देने वाले राग-द्वेपादि शत्रु ओ को जीत लिए हैं और उन राग-द्वे पादि के नीचे दबी हुई अपनी अनन्त चतुष्टयरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर ली। आपको इस प्रकार की शोभास्पद एव सर्वोच्च होते हुए भी आप मेरे सरीखे एक सेवक की अवगणना करे, उपेक्षा करें, क्या आपके लिए यह मोभारूप है ? यह तो सर्वविदित है कि स्वामी को जब विशेष लाभ या जय मिलता है तो सेवक को कुछ इनाम मिलता है, परन्तु आप तो सेवक की अवगणना (निरस्कार) कर रहे हैं ? इस गाथा के प्रारम्भ मे 'सेवक किम अवगणोए, के बदले जब 'सेवक किम अब गणीए पंढते हैं तो इसका समाधान हो जाता है, शायद धीमानन्दघनजी उसी बात को हृदय मे रख कर कहते हो कि 'भगवन् ! आप ऐमे सेवक को कव सेवक गिन (समझ) सकते है, जो आपके शत्रुओ को अपनाता हो, आदर देता हो ? आपके प्रति भक्तिभावना से मुझे अपनी एक भूल नजर आती है कि आपने जव अनन्त काल के सायी वैभाविक गुणो-राग-द्वेष, कान, क्रोध, तृष्णा आदि को निर्मूल कर दिया है, उन्हीं राग-द्वैपादि को मैंने अपना रखे हैं, उन्हे मेरे जैसे अनेक जीवो ने आदर दे रखा है, दे रहे हैं, तब उस नामधारी तथाकथित सेवक (मेरे जमे मेवक) को आप कैसे आदर दे सकते है ? जहां तक अज्ञानी जीव मे इन दुर्गुणो के माय मेल रहे, वहां तक आप सरीखे पूर्ण गुणी के साथ उनका मेल कैसे बैठ सकता है ? इस प्रकार भक्ति के आवेश मे श्रीमानन्दघनजी द्वारा वीतरागप्रभु Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४०३ को मधुर उपालम्म पहले लाखो करोडो वर्ष पुराने राग-द्वेपादि तथाकथित सेवको को ले कर, और दूसरे अर्थ की दृष्टि से स्वय को ले कर दिया गया उसका वे स्वयमेव समाधान पा लेते हैं । वास्तव में तीर्थकर मल्लिनाथ सम्यग्दृष्टि बनने से पहले राग-द्वषादि को अपने आत्मीर मानते थे, बाद में ममझ आने पर एक मल्ल (पहलवान) की तरह मारम' का अहित करने वाले, की-कराई साधना को चौपट करने और चारगतियो मे भटकाने वाले उन रागद्वेषादि को शत्र-सा कार्य करने वाले समझ कर उनमे भिड पडे और उन्हे बिलकुल पछाड दिया, जडमूल से उखाड़ कर फेंक दिया। उन पुराने तथाकथित सेवको के उन अपराधो-दोषो को देख कर वीतराग भगवान उनकी सेवको मे गणना कैसे कर सकते थे? उन्होंने अवगणना की और अपने तीर्थ के अनुयायियो को भी उनसे सावधान रहने का निर्देश किया। उनका यह कार्य शोभास्पद ही है। ____ इगोलिए उन पुराने तथाकथित १८ सेवको (वैभाविक गुणो और आत्मा के महित करने वाले दोपों) गो चुन-चुन कर वीतराग प्रभु ने फेंक दिये, उनके पैर उखाड दिये, अपने पास तक नही फटकने दिये । ____ भगवान् ने उन अठारह दोपो को किस प्रकार, किस क्रम से और कैसे निकाल दिये ? उनके निकालने पर क्या प्रतिक्रिया हुई ? इसका विवरण श्री आनन्दघनजी ने इस स्तुति मे दिया है। सर्वप्रथम आशा-तृष्णा का त्याग श्र आनन्दघनजी ने 'अवर जेहने आदर अति दीए, तेने मूल निवारी' इस पद मे यह वीतराग ,परमात्मा के द्वारा आशा-तृष्णा-त्याग का भाव द्योतित कर दिया है। दूसरे (छमस्थ) लोग जिस आशा - (तृष्णा) को अत्यन्त आदर-सत्कार देते हैं, उसे आपने मूल से ही रोक दी, अपने पास तक फटकने नहीं दी । आपको किसी भी सासारिक वस्तु या व्यक्ति के प्रति आशा, स्पृहा या तृष्णा-लालसा नही रही । यहां तक कि आपने मुक्ति तक की आशा छोड दी थी। वीतगगप्रभु के जिन १८ दोपो का त्याग इस स्तुति मे वताया गया है, उनमें आशा का त्याग सर्वप्रथम दोष का त्याग है । पराई आशा हमेशा निराशा में परिणत हो जाती है। हममे जो कुछ सत्त्व हो, उसी Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ अध्यात्म-दर्शन से पूरा-पूरा जी-तोड पुरुषार्य करके काम लेना चाहिए, परन्तु दूमरा मेरा काम कर देगा, यह सोचना ही गलत है। इसी कारण वीनरागप्रमु ने आशादासी का जडमूल से त्याग कर दिया, वह यहां तक कि जब वे १२ वें गुगस्थानक पर चढ़े, तव तो आपने मोक्ष की आशा भी छोड़ दी। इस प्रकार आप मूल से आशा के त्यागी हैं, इस पर जव मैं सोचता हूँ और अपनी ओर या दुनिया की ओर देखता हूँ तो मुझे माप मे एक प्रश्न पूछने का विचार हो उठता है कि आप इस सेवक की अवगगना क्यो करते हैं ? कहाँ तो आपका आशा-त्याग का गुण और कहां लोगो की आशा ? इन दोनो का मेल कहाँ ? इसलिए नाशा पर आपकी विजय मुझे आश्चर्यचकित कर देती है कि आपकी शोभा मेरे जैसे नम्र सेवक का त्याग करने में नहीं, किन्तु उसे अपने बराबर बनाने मे है। जन श्रोआनन्दयन जी प्रभु से अपने हृदय की बात निवेदन करके चुप हो जाते है और आगे किन दोषो (तथाकथित सेवको) का कैसे कमे त्याग किया यह बताने में लग जाते हैं ज्ञानस्वरूप अनादि तमारूं ते लीधु तमे तारणी। जुओ अज्ञानदशा रिसावी, जातां काण न आरपी, हो ॥मल्लि०॥२॥ अर्थ प्रभो । मापका मनादिकाल से ज्ञानमय (ज्ञानचेतना) स्वरूप था। (परन्तु अजनदशा के कारण वह दबा हुआ था) उसे अपने केवलज्ञान प्राप्त करके खों व लिया (ऊपर ले लिया । उसके कारण, देखिये, जो आपकी अज्ञानदशा [अज्ञानपन मे जो अवस्या] यी, उसे आपने इतना अधिक रुष्ट (फद्ध) कर दिया कि वह रुष्ट हो कर सदा के लिए चली गई, फिर आपने उसके जाने का कोई अफसोस [शोका नहीं किया । वास्तव मे सर्वज्ञता प्राप्त होते ही आपकी अज्ञानर्दशा का चले जाना, पूरा शोभारूप था । भाष्य ___ . अज्ञानरूप दोष का त्याग श्रीआनन्दघनजी इस गाया मे बताते हैं कि प्रभु दूसरे दोष अज्ञानदशा का त्याग किस तरह करते हैं और उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है ? प्रभु ने जव यह देखा कि यह 'अजान' मेरे साथ बहुत बहुत समय से लगा हुआ है और Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४०५ इसी कारण मैं जीवादि तत्त्वो के यथार्थ वोध नहीं कर पाता । अतः उन्होने मज्ञानदोप को, दूर करने का प्रयत्न किया। ___ वास्तव मे आत्मा के साथ लगा हुआ यह अज्ञानदोष अनादिकालीन है। उसके रहते आत्मा क्या है ? शरीर क्या है ? ये सुख-दुख किन कारणो से आते हैं ? प्राणी शरीर के कारण, कुटुम्ब के दुख को देख कर दुखी होता है; सुगुरु, सुदेव और सुधर्म को क्रमश कुगुरु, कुदेव और कुधर्म मान कर तथा पाँचो इन्द्रियो के विषयों में लुब्ध हो कर दुख पाता है । धन, कुटुम्ब आदि जो पर-वस्तुएँ हैं, उन्हें अपनी मान कर दुख पाता है, वह कर्म क्या हैं, वे क्यो और कैसे उदय मे आते हैं ? उन्हे कसे काटा जा सकता है ? प्राणी इन सब बातो के अज्ञानवश अनेक बुरे (पाप कर्म करते हैं, पटद्रव्य को न पहिचानने के कारण स्वपर का भेदज्ञान नहीं हो पाता। इस प्रकार अज्ञानदशा से ग्रस्त जीव अनादिकाल से ससार मे परिभ्रमण करता आ रहा है। इम अज्ञानदशा का सर्वथा त्याग करके ज्ञानगुण का स्वीकार करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है । ज्ञान से लोकालोक प्रगट हो जाता है, और जो विचार केवलज्ञानी प्रगट कर सकता है, वही श्रु तज्ञान से श्रुतज्ञानी कह सकता है। ज्ञान से जीवाजीवादि पदार्थों का, ययार्थ बोध हो जाता है । ज्ञान आत्मा का लक्षण है, अनुजीवी गुण है। जहां तक आत्मा अपना स्वरूप नही जानता, वहाँ तक उसे बारवार मसार मे ठोकरें खानी पड़ती है, इसी कारण जीव ज्ञामावरणीय कर्मप्रकृति का सचय कर लेता है। जब आत्मा अपना ज्ञानस्वरूप धर्म समझ लेता है, तब ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृति से अपने आप छुटकारा पा लेता है । इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं-'ज्ञानस्वरूप अनादि तमारू, ते लीध तमे ताणी।' अर्थात् आपने अपना जो अनादि-स्वरूप स्वभाव, अज्ञानदशा के नीचे दबा हुआ था, अज्ञान की एडी तले कुचला जा रहा था, उसे जान कर ऊपर खींच लिया। मतलब यह है कि अज्ञान के चगुल से ज्ञान को आपने छूडा लिया और अनान को छुट्टी दे दी। जब वह आपका अनादिकालीन साथी अज्ञान रूठ कर चला जा रहा था, तब भी आपने उसे मनाया नही । आप विचार तो करिए । अज्ञानदशा को आपने रुष्ट कर दिया। वह आपसे रुष्ट हो कर सदा के लिए चली गई, फिर भी आप उसके लिए अफसोस नहीं करते । अपना कोई स्नेहीजन किसी को छोड कर चला जाता हो, तो Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ अध्यात्म-दर्शन लौकिक व्यवहार में उसके वियोग मे लोग अश्रुपात करते हैं, शोक मनाते है, छाती कूटते है, पर आप तो फिनी प्रकार का शोक करते ही नहीं, क्योकि शोक आदि सब अनान के कारण होता है, आपने ममान को समूल नष्ट कर दिया है, और केवलज्ञान को अपना लिया, इसलिए शोरु मदि का तो कोई सवाल ही नहीं है। आपने बज्ञानदशा का त्याग करके ज्ञानदशा अपनाई, यह भी मामूली काम नहीं है। आपने ज्ञान से स्वय को और ससार को प्रकाशित किया, महापुरुष बने, परन्तु इन सेवक की अवगणना क्यों कर रहे हैं ? भूल क्यो रहे है ? इमे भी अपनाइए, यह प्रार्थना है । आपकी यह गुणसरगी देख कर मुझे आनन्द होता है । निद्रा सुपन जागर उजागरता, तुरीय अवस्था आवी। निद्रा सुपन दशा रीसारणी, जाणी न नाथ ! मनावी, हो । म०३ ॥ अर्थ निद्रावस्था, स्वप्नावस्था, जागृत अवस्था और उजागरता-सदा जागृतअवस्था (केवलदर्शनमय अवस्या), इन चार सवस्याओं में से आपको तुरीय (केवलदर्शनमय-उनागर) अवस्था प्राप्त हुई, (इसे देख कर निद्रावस्था और म्वप्नदशा और उपलक्षण से जागृत अवस्था ये तीनो आपसे विलकुल नाराज हो गई । आपने उन्हे रुष्ट होते जान लिया, "फिर भी नाम आपने उन्हें मनाई नहीं। भाष्य निद्रा और स्वप्न दोनो दोषो का त्याग वीतराग सदा जागृत रहते हैं। उनमे द्रव्य और भाव दोनो प्रकार से सतत जागृति रहती है। इसीलिए श्रीआनन्द धनजी ने इस गाथा मे स्पष्ट कर दिया कि-'निद्रा सुपन जागर"..."" " " तुरीय अवस्था भावी' वीतराग प्रभु के ज्ञानवरणीय कर्म के साथ-साय दर्शनावरणीय कर्म भी नष्ट हो जाता है । दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियां होती है-(१) निद्रा, () निद्रानिद्रा, (३) प्रचला (४) प्रचला-प्रचला, (५) स्त्यानद्धिनिद्रा, (६) चक्षुदर्गनावरणीय, (७) अचक्षुदर्शनावरणीय, (८) अवधिदर्शनावरणीय और (E) केवलदर्णनावरणीय । इनमें से प्रथम निद्रारशा है, जिसमे ५ प्रकार की निद्रा का समावेश हो जाना है । निद्रा सरलता से प्राणी जागृत हो Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४०७ जाय, 'वह निद्रा है, निद्रानिद्रा-जिसमे प्राणी बहुत ही हिलाने, झकझोरने या जोर से आवाज देने पर जागे, उसे निद्रानिद्रा कहते हैं, प्रचला-उठते बैठते नीद आए, उसे प्रचला कहते हैं,प्रचला-प्रचला-चलते फिरते नीद आए, उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं। और स्त्यानद्धिनिद्रा-दिन को विचारा हुआ काम रात को नीद ही नीद मे कर ले, उसे स्त्यानद्धिनिद्रा कहते है। निद्रा की ही दूसरी अवस्था स्वप्नदशा है, जिसमे विचित्र-विचित्र स्वप्न अाते हैं, यह भी नीद की ही एक दशा है । इसमे भी निद्रादशा की तरह दर्शन एक बिलकुल जाता है । यह निद्रा भी खराब है। निद्रा लेने और जागने के सम्बन्ध मे तीसरी जागृतदशा है । मनुष्य जागता हो, तव तो सभी चीजो को देख सकता है । उसका दर्शन भी उस समय जागृत रहता है। यह जागृतदशा निद्रारशा से विलकुल उलटी है। और चौथी तुरीय अवस्था होती है। इस दशा मे सतत जागृति होती है, सर्वदा सतत दर्शन भी उपस्थित रहता है। चारो दशाओ मे से किसकी कौन-सी दशा होती है ? यह विंशतिका में बताया है १ मोह अनादिनिद्रा है, भव्यबोधि परिणाम स्वप्नदशा है । जागृतदशा अप्रमत्तमुनियो की होती है। और उजागरदशा- वीतराग को प्राप्त होती है। तीर्थकरो और सिद्धो को उजागरदशा हमेशा रहती है। वे नीद चाहते ही नही । रातदिन सतत जागृत रहते हैं । यहाँ श्री मानन्दघनजी प्रभु को मीठा उपालम्भ देते हुए कहते हैं-"नाथ | आपने जब उजागरदशा (केवलदर्शनमय अवस्था) अपना ली तब आपकी चिरसगिनी निद्रादशा और स्वप्नदशा ये दोनों आपसे पूरी तरह रुष्ट हो गई, उनके साथ आपको चिरकालीन परिचय होते हुए भी आपने उन्हे मनाने का प्रयास भी नहीं किया । मतलव यह कि जीव की जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया, इन चारो अवस्थाओं में से जागृत मे व्यक्ति चर्मयक्षुओ से तमाम पदार्थों को यथार्थ (यथावस्थित) रूप मे देख सकता है, स्वप्न मे जागृत अवस्था मे देखी हुई वस्तुओ को देखता है, सुपुप्ति दशा मे व्यक्ति गाढ निद्रा का अनुभव करता है, देखीसुनी हुई किसी चीज को निद्रा मे नही देख पाता और चौथी तुरीयावस्था होती है, जिसे केवलावस्था या समाधि-अवस्था भी कहा जाता है । इसमे समस्त १ "मोहो अणाइनिद्दा, सुवणदशा भव्ववोहिपरिणामो। अपमतमुणी जागर, बागर उजागर वीयराउत्ति ।" Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ अध्यात्म-दर्शन मासारिक भाव नष्ट हो कर मात्मभाव को जागृति हो जाती है। तभी इम अवस्था का अनुभव होता है । इस अवस्था मे तमाम वस्तुओं के गुणदोप देने जा सकते है, इसलिए वस्तु के अवश्य मूलस्वरूप की ओर उसकी दृष्टि रहती है, यही अवस्था गाक्षात्कार की है। इस तुरीय अवस्था के समय जीव की जागृत और स्वप्नदशा चली जाता है। आत्मा तव केवलज्ञान-दर्शन का साधात्कार कर लेती है। तब उसका अनादि अनात्म-स्वभाव निद्रा-स्वप्न आदि प्रकृति नष्ट हो जाती है। इन दोनो अवस्थाओ के चले जाने पर फिर आत्मा उनको मनाने और वापिस मोड कर लाने का प्रयास नहीं करता। त्याज्य अठारह दोपो मे मे तीसरे दोष-निद्रादशा और चौथे दोप स्वप्नदशा के त्याग की बात आती है । वीतरागप्रभु इन ने दोनो दोपो का त्याग करके दो गुणो को अपनाया तो उपर्युक्त दोनो दोप रुष्ट हो कर चले गए। आपने उन्हें मनाने का प्रयास नहीं किया। आपके लिए यही शोभास्पद है। समकित साथे सगाई कोधी, सपरिवारशु गाढ़ी। मिथ्यामति अपरावण जागी, घरथी बाहिर काढी, हो । म०४ ॥ अर्थ आपने तो परिवारसहित शुद्ध सम्यकत्व के साथ गाढ सम्बन्ध (सगाई) कर लिया, यानी शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) और उसके परिवार के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध जोड़ लिया। इस कारण मिथ्यामति (सत्य को असत्य मानने वाली बुद्धि) को अपराधिनी (गुनहगार) जान कर घर (मात्मरूपी गृह या मनमन्दिर) से बाहर निकाल दी। 'भाष्य प्रभु ने मिथ्यात्वदोष कसे निवारण किया.? प्रभो ! अपने पांचवें मिध्यात्वदोप का निवारण कमे किया ? इसकी कहानी भी आश्चर्यजनक है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के साय मोहनीयकर्म अवश्य होता है, जिसकी मूल प्रकृति दो हैं-मिथ्यामति और मिथ्याविचारणा । प्रभु (शुद्ध आत्मा) जब आत्मभाव मे . स्थिर होते हैं, तब म्वपर की यथार्थ प्रतीति होती है, और तभी से वे अपने कुम्बियो के साथ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४०६ - " सम्बन्ध जोडते हैं एव दुःख तया व्यामोह उत्पन्न करने वाले परस्वभावी सम्बन्धियो से सदा के लिए नाता तोड़ देते हैं-सम्बन्धविच्छेद कर लेते है। आत्मा की आत्मीय सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि का परिवार है-~-शम, सवेग, निर्वेद, अनुकम्मा, आस्तिक्य और भेदविज्ञान, विवेक आदि । अथवा सम्यक्त्व के ६७ बोलो का समावेश भी परिवार में शुमार है। भगवान् मल्लिनाथ जब वीतराग हो कर स्वरूप मे स्थिर हुए, क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया, तब क्षायिक सम्यक्त्व और उसके समस्त परिवार के साय उन्होने ऐमा गाढ सम्बन्ध जोडा कि फिर वह कभी टूट न सके । सादि-अनन्त भग की दृष्टि से उन्होंने जव, अटूट सम्बन्ध जोड लिया तो मिथ्याबुद्धि (मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्व) ने आपत्ति उठाई, और अपने हक का दावा करने. लगी। किन्तु जब तक, क्षायिक सम्यक्त्व नही था, तब तक तो वह चुपकेचुपके घुस जाती और अपनी मोह माया को फैला कर आत्मा, को चक्कर मे डाल देती थी, लेकिन जब भगवान ने क्षायिक सम्यक्त्व पा-लिया तो उसकी पोलपट्टी का पता लगा, आत्मा के अहित करने वाले विविध अपराधो का भी पता चला ! अन वीतराग परमात्मा ने कुदृष्टि (मिथ्यामति) के कारण वारवार होने वाले आत्मगुण के अवरोधो को दूर करने हेतु उसे अपराधिनी सिद्ध करके उसमे सदा के लिए - सम्वन्ध-विच्छेद कर डाला और उसे अन्तरात्मारूपी घर से बाहर निकाल दी। मतलब यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होते ही भगवान् ने मिथ्यादृष्टि का आत्यन्तिक क्षय कर डाला। बाद मे उसकी कोई परवाह नही की। इससे प्रभु के स्वभाव का पता लग गया कि वे गुणो का आदर और अवगुणो का अनादर करते हैं। मिथ्यात्व के द्वारा होने वाले अपराध मिथ्यादर्शन (दृष्टि) आत्मा का विविध प्रकार से अहित करता है । शास्त्रो मे मिथ्यात्व के अनेक भेद बताए गए हैं-धर्म को अधर्म और अधर्म कोधर्म मानना, साधु को असाधु और असाधु को साधु मानना, मोक्षमार्ग को ससार का मार्ग और ससार के मार्ग को मोक्षमार्ग समझना, आठ कर्मो से मुक्त को अमुक्त और अमुक्त को मुक्त समझना, जीव को अजीव और अजीव को जीव मानना, ये सव मिथ्यात्य हैं, जो आत्मा को वस्तु का असली स्वरूप समझने-मानने Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० अध्यात्म-दर्शन नही देते । बरे को खोटा और खोटे को खरा मानना ही वस्तुतः मिथ्यात्व है। इसी प्रकार मिथ्यात्व के मुख्य ५ एव २५ भेद हैं। " भेद इस प्रकार हैं-आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, साशयिक एव अनाभोगिक मिथ्यात्व । (१) आभिग्रहिक - कुदेव को सुदेव, कुगुरु को मुगुरु एव कुधर्म को सुधर्म माने, पकटी हुई जिद्दछं डे नहीं, वहीं यह मिथ्यात्व है । (२) अनाभिग्राहकसभी देव, सभी गुरु और सभी धर्मों को बिना सोचे-समझे एक सरीखे माने, वहां यह मिथ्यात्व होता है । (३) आभिनिवेशिक---सन्चे देव आदि को न माने, पर वाप-दादो ने जो किया, उमे ही किया करे, गतानुगतिक हो, वहाँ यह मिथ्यात्व होता है। (४) सांशयिक-वीतराग आप्तपुरुषो के वचनो पर कुशका करे, सशय-निवारण न करे, वहां ऐसा मिथ्यात्व होता है । (५) अनामोगिक मिथ्यात्व--मूठता और बौद्धिक जड़ता के कारण अच्छे-बुरे का या हिताहित का भान न हो, धर्माधर्म का भी कुछ पता न चले; जहाँ एकेन्द्रियादि जीवो की तरह मोघसज्ञा से प्रवृत्ति हो, वहां यह मिथ्यात्व होता है। मिथ्यात्व के इन प्रकारो को देखते हुए सहज ही यह पता लग जाता है कि मिथ्यात्व आत्मा का सबसे ज्यादा महित करता है, वह सारी साधना को, सद्ज्ञान को, सद्बुद्धि को चौपट कर देता है, आत्मा जिन अच्छे विचारो को कार्यरूप मे परिणत करना चाहती है, मिथ्यात्व' उन सब कार्यक्रमो को उलटा कर देता है । यही कारण है कि वीतराग प्रभु इमे अपराधी एव अहितकर समझ कर सर्वथा बहिष्कृत कर देते हैं। अब अगली गाथा मे भगवान् ने हाम्यादि ६ दोपो का कैसे निवारण किया, इस विषय मे कहते हैं हास्य, अरति, रति, शोक, दुगछा, भय पामर करसाली। नोकपाय गजश्रेणी चढतां, श्वानतणी गति झाली, हो ॥म०॥५॥ अर्थ हास्य, अरति (चित्त का उद्वेग), रति [पाप मे प्रीति], शोक [अनिष्ट के सयोग और इष्ट के वियोग से होने वाली ग्लानि], दुग छा (जगुप्सा घणा, मानसिक ग्लानि), भय इन ६ पामर एवं कर्म की खेती करने वाले कृषक Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४११ अथवा कर्मों को बटोर कर संग्रह करने वाली दंताली (करपाली) रूप नोकपायों (आत्मा को थोड़ी मात्रा मे बिगाडने वाली कषायभावना) के क्षय करके आत्मगुगो पर आरोहण कराने वाले क्षाकणीरुपी हाथी पर आपके चढते ही इन सब नोरुपायो ने फुत्ते को चाल पका ली । यानी उस क्षपकश्रेणीरूपी हायो को देख कर भौंकने लगे और जब वह नजदीक आया तो दुम दवा कर भाग गए। भाष्य हास्यादि पड्दोषो के निवारण के बाद अप्रमत्त-अवस्था मे प्रभु मे ये ६ दोष थे । परन्तु जब उन्होंने देखा कि इन नोकपायरूपी (हास्यादि ६, और ३ वेद) कुत्तो को ज्यो-ज्यों पुचकारते है, त्यो त्यो नजदीक आते हैं, और जब इ.हे दुत्कारते हैं तो ये भौकने लगते हैं। अत आपने इन ६ को आत्मा के प्रनि गैरवफाद र देख कर इन्हें दूर करने का प्रयत्न किया । जव तक आपको वृत्ति और आत्मस्वभाव मे रमणता का मुझे पता न था वहां तक मे अपने मन में यह समझना था कि हास्यादि नौ नोकषाय मापके सेवक होंगे, मैं भी हास्यादि मे सुख मानता था, लेकिन जब से आपके वास्तविक स्वरूप और सुख को मैंने समझा, मुझे असलियत का पता चल गया कि नौ नोकपायो मे सुख मानता तो पामलपन है, ये तो कपाय के ही छोटे भाई हैं, मोहनीय कर्म के बेटे हैं, इसलिए बडे भयकर हैं, ये सुन्न के ही नही, आत्मगुणो के घातक हैं। और मैंने देखा कि जब से आपने अपना स्वरूप सभाला, उग्र तप सयम द्वारा आपने क्षपकोणी पर चढ़ना शुरू किया, तब मुझे ऐसा लगा मानो कोई विजयी पुरुष हाथी पर चढा जा रहा है, और उसके पीछे कुत्ते .भौक रहे हैं । सचमुच जव आप क्षपकवेणीरूपी हाथी पर चढ़े तो ये हास्यादि छह कुत्तो की तरह भौकने लगे, परन्तु आपने उनकी ओर देखा तक भी नहीं, आप तो चुपचाप मोक्षपुरी के दरवाजे के सामने पहुंच गए। वेचारे कमजोर हास्यादि नोकपायो की जब दाल नही गली तो चुपचाप दुम दबा कर भाग गए। किन्तु इन सबका स्वभाव कुत्ते की नाई खिंच आने का (करसाली) " है, कुत्ते को जितमा पुचकारेंगे, उतना नजदीक खिचता चला आएगा, वैसे ही ये है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ अध्यात्म-दर्शन हास्यादि ६ नोकपाय प्रत्येक आत्मा का बहुत बडा अहित करते है, वीतराग प्रभु के भी ये शत्र बने छ । हास्य इन सबका अगुआ है। हंसी-मजाक कितना बड़ा नुकसान कर बैठती है, उसने मित्र भी किस प्रकार शत्र वन जाने हैं, और एक दूसरे के प्राण लेने पर उतारू हो जाते हैं, यह किसी से छिपा नही है । इमलिए हास्यकलाय आत्मार्थी के लिए त्याज्य है। रति भी दूपरा नोकपाय है, इससे व्यक्ति अनुकून पोद्गलिक पदार्य या पद, प्रतिष्ठा आदि मिलते ही मन मे प्रसन्न हो उठना है। इससे भी कर्मबन्ध करता है। इसी तरह तीसरा नोकपाय अरति है, जिससे व्यक्ति प्रतिफूल पदार्य, व्यक्ति वा पदादिपा कर घृणा कर बैठता है, घबरा जाता है। चौथा है-जोक, जिसमे प्रियवस्तु या व्यक्ति के वियोग में या अप्रिय के मयोग में व्यक्ति हायतोवा, मचाता है, अफसोस करता है, छाती-माथा कूटना है। इसके बाद का नोकपाय है-भय, जो आत्मा को अपने स्वभाव से बहुत जल्दी विचलित कर देता है । वह भी जव अपने दल बलसहित आता है, तो व्यक्ति की बुद्धि पर हमला कर देता है । इसके बाद छठा नोकपाय है-जुगुप्सा, इमे व्यक्ति किसी गदी, घिनौनी या सवित्र वस्तु को, शरीर को या जगह को देख कर घृणा में मुंह मत्रकोड लेता है। यह भी वस्तुस्वरूप की नासमझी का परिणाम है। परन्तु वीतरागप्रभु को क्षपकगज पर देखते ही ये भाग गए । ज्योज्यो प्रभु सयमस्थान पर चढ़ने गए, त्यो त्यो इन छहो को चले जाना पड़ा। कमजोर को देख कर तो ये उस पर हावी हो जाते हैं। परन्तु भगवान के आगे जब अनन्तानबन्धी मादि वडे बडे दिग्गज हार मान कर चले गए तो इन वेवारों की क्या बिमात थी। इनका चले जाना भगवान के लिए शोभारूप ही हुआ। प्रभो । आपका यह अद्भुत तेजस्वी स्वभाव देख कर मुझे भी यह प्रेरणा मिली है कि मुझे हास्यादि ६ दोपो से सावधान रहना चाहिए, इहें जरा भी मुंह नहीं लगाना चाहिए। आप मेरे आदर्श हैं, इसलिए मुझं मी आपकी तरह गजगति पकड कर इन नोकपायो पर विजय पाना चाहिए। इसके बाद श्रीआनन्दघनजी चारित्रमोहनीय क्रम के दिग्गज सुभेटो को भगवान् के द्वारा पराजित करने की कहानी लिख रहे हैं Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४१३ राग, दोष, अविर तिनी परिणति, ए चरणमोहना योधा। . वीतराग-परिणति परिणमतां, उठी नाठा बोधा, हो ।मल्लि० ॥६॥ अर्थ चारित्रमोहनीय के सबसे बडे योद्धा (दोष) राग, द्वेष और अविरति की परिणति ऊधम मचा रहे थे, लेकिन आपके (आपकी आत्मा के) वीतराग-परिणति मे परिगत होते ही ज्ञानी का दम्भ करने वाले ये बोधक अथवा बोधा या जाग कर, झटपट खडे हो कर भाग गए। भाष्य राग, द्वेष और. अविरति का त्याग आत्मा के सबसे बडे घातक दुश्मन राग, द्वेप और अविरति हैं । ये १२ वें, १३ वें, और १४ वें दोष हैं, वीतराग के लिए। राग मनोज्ञ वस्तु पर प्रीति करने से और द्वेष अमनोज्ञ वस्तु के प्रति तिरस्कार करने से होता है । राग और द्वेष ही वास्तव में कर्मवीज हैं, जो मुक्तिपथ पर आगे बढने से प्रत्येक साधक को रोकते है । ये ऐसे मीठं और कातिल दुश्मन हैं कि इनका पता बडे बडे उच्च कहलाने वाले साधको को नहीं चलता । राग-द्वेष के नशे मे प्राणी मन और इन्द्रियो के अनुकून सयोगो मे इतना मशगूल हो जाता हैं कि बाजदफा तो वह अपना सर्वस्व होमने को तैयार हो जाता है, अपमान सह लेता है, भूख, प्यास और नीद तक को हराम कर बैठता है । इस घातक विषो से साधक की आत्मा अपने स्वभाव से मर जाती है, वह पनप नहीं पाती। बारवार जन्म-मरण के चक्कर मे डाल देते हैं, ये ही हमलावर | मोहनीयकर्म के ये बडे जवर्दस्त लडाकू योद्धा हैं । तीसरा है-अविरति नामक दोष । जब साधक के जीवन और अन्तर्मन मे अविरति पैदा हो जाती है तो वह आत्मा को विरूप बनाने वाले भावो का त्याग नहीं कर पाता, हिंसादि पांचो आश्रवो को वह आत्मघातक समझते हुए भी छोड नहीं पाता, हिंसादि को छोडने का विचार करते ही कभी तो अभिमान बीच मे आ कर रोक देता है, कभी अपनी गलत आदत, दुर्व्यसन, कुटेव या कुप्रकृति उसमे रोडे अटकाती है, कभी कभी क्रोध, कपट और लोभ आ कर विरति का हाथ पकड लेते हैं और उसे पीछे धकेल देते हैं । मोहराजा का आदेश होते ही ये तीनो एकदम आत्मा की स्वभाव Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ अध्यात्म-दर्शन परिणते पर धावा बोल देते हैं । सामान्य माधक को तो ये झटपट पराजित कर बैठते है, उसकी स्वभावपरिणति की साधना को मिनटो में चौपट कर देते हैं, परन्तु वीतरागप्रभु यह सब उपद्रव जानबूझ कर कैसे सह सकते थे ? उन्होने वीतराग-(शुद्ध आत्मभाव) की परिणति पकडी। इनको जरा भी मुंह नहीं लगाया, इन्हे पपोला नही । अत प्रम को वीतरागपरिणति में रमण करते करते देख कर राग, द्वेप और अविरति इन तीनो परिणतियो के कान खडे हुए, वे झटपट जागे और उठ कर ऐसे भागे कि खरगोश के सीग की तरह उनका कोई अतापता ही नही चला । प्रभु ने उन्हें जाते देख कर बुलाए या अपनाए नहीं। प्रभो । आपके इस स्वभाव को देख कर मुझे भी वडी प्रेरणा मिली है कि मापने जिस प्रकार मन मजबून करके हिम्मत के माय इन तीनो महादशेपो की ओर जरा भी नहीं देखा, न इन्हे तरजीह दी, और डट गए अपने शुद्ध आत्मभावो मे, इसी प्रकार में भी अपनी स्वभावपरिणति मे डटा रहूं, अडिग रहूं , वशर्ते कि माप इस सेवक की अवगणना न करें ! __अब श्रीआनन्दघनजी वीतराग परमात्मा के द्वारा त्यक्त काम्यक रसनाम के १५ दें दोप की कथा अकित करते - वेदोदय कामा परिणाम, काम्यकरस१ सह त्यागी। निष्कामी करुणारससागर अनन्त-चतुष्क-पद पागी, होम०॥७॥ अर्थ स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपु सम्वेद के उदय से काम के जो परिणाम होते हैं [राममोग या काम वासना के प्रति विषय को जो लहरें उठती हैं] उन्हे तथा समस्त काम्यकरस काम के अनुकूल विषयास्वाद अथवा कामनाजनित अनुरुल विषयो, कर्मों या पदार्थों के आस्वाद का आपने त्याग कर दिया और निकामी काम-इच्छाकाम-नदनकाम दोनो से रहित हो गए। इन समस्त कामरसो का त्याग करने के बावजब भी आप करुणारस के सागर बन गए। १ 'काम्यकरस' के बदले किसी प्रति मे 'काम्यकरम' शब्द मिलता है, उसका अर्य होता है-कामना (इच्छा) से जनित कर्म का प्रभु ने सर्वया त्यांग कर दिया। । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४१५ निष्काम होने के कारण आप मे अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख वीर्यरूप अनन्तचतुष्टयपद पनपा, प्रगट हुआ। भाष्य काम्यकरसदोष का त्याग क्यो और कैसे ? वीतरागप्रभो । आपने वेदोदयजनित चौदहवें दूषण समस्त काम अथवा काम्यकरस का त्याग कर दिया, परन्तु सवाल यह होता है कि वेद क्या है ? काम क्या है ? उससे आत्मा की क्या हानि होती है ? इस बात को समझ लेने पर काम पर विजय प्राप्त करना आसान होता है। काम का एक मदनकाम के रूप में आविर्भत होना वेद है । कामवासना जव उदित या उत्तेजित होती है तो वडो-वडो के काबू मे नही आती, उस समय मन मे कामभोगो की प्रवल इच्छाओ का वेदन = अनुभव होता है, कामोत्तेजना का मानसिक वेदन ही वेद है, चाहे वह क्रियान्वित हो, चाह न हो। और काम का दायरा तो इससे भी बढकर व्यापक है । जैसे इच्छाए आकाश के समान अनन्त हैं वैसे ही इच्छा काम भी अनन्त हैं। उन सब पर विजय पाना बडी टेढी खीर है। पाँचो इन्द्रियो के विपयो से जनित विकार भी इच्छाकाम के अन्तर्गत है। कोई सुन्दर एव मनोज्ञ वस्तु उपलब्ध न हो, उसकी इच्छा को दवा लेना, फिर भी आसान है, किन्तु वस्तु उपलब्ध हो सकती हो, फिर भी उसकी इच्छा को दवाना ही नही, उत्पन्न ही न होने देना, बहुत ही कठिन काम है। परन्तु वीतराग परमात्मा ने पूर्वोक्त दोनो ही प्रकार के कामो के स्वाद का ही जडमूल से त्याग कर दिया, कामो को पूर्ण करना तो दूर रहा, उनका मन मे परिणाम (भाव) ही नहीं पैदा होने दिया। इसीलिए श्रीनन्दघनजी ने कहा"वेदोदय कामा परिणामा, काम्यकरस सह त्यागी रे।" वास्तव मे वेद मोट्नीर कर्म के अग हैं नोकपायो मे से तीन हैं। इससे पहले हास्यादि छह दोपो के त्याग का वर्णन किया था। एक कामशब्द मे ही इन तीनों वेदो का समावेश हो जाता है। तीन प्रकार के वेद ये हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपु सकवेद । मोहनीय कर्म (वेद) के उदय से जब किसी पुरुष को स्त्री के साथ भोग भोगने की इच्छा पैदा हो, उसे पुरपवेद, स्त्री को पुरुष के साथ रतिसहवास की इच्छा हो, तब स्त्रीवेद एव पुरुष और स्त्री दोनो के साथ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ अध्यात्म-दर्शन सहवास की इच्छा हो, तब नपुमकवेद कहलाता है । इसी प्रकार पांचो इन्द्रियो के विविध विपयो, वस्तुभो या सम्मानादि की कामनामो का उत्पन्न होना इच्छाकाम है। किसी वस्तु, विषय या सम्मान आदि को प्राप्त करने लालगा मन को गुदगुदाने लगती है, मनुष्य इन्धात्री से व्याकुल हो कर उन्हे पूरी करने मे तन, मन, धन सर्वस्व लगा देता है, फिर भी बीमारी विघ्न, इन्द्रियनाश मादि कारणवश उसकी वे इच्छाए पूरी नही हो पानी । इन्छाए मनुष्य को व्याकुल कर देती हैं, उन्हे पूरी करने के लिए मनुष्य उतावला हो उठता है। एक इच्छा पूरी होते न होते, दूमरी आ धमकती है। फिर इच्छा पूरी न होने पर मनुष्य निराश और दुखी होकर कई बार आत्महत्या तक कर बैठता है। दूसरे की इच्छाए पूरी होते देख कर उसके प्रति ईर्ष्या, द्रोह और द्वेष का भाव मनुष्य के मन मे आ जाता है। अभीप्ट इन्छा की पूर्ति हो जाने पर भी उसके वियोग मे मनुष्य तडपता है, फिर उसे पाने की इच्छा बलवती हो उठती है, कनक और कामिनी ये काम के स्थूल प्रतीक हैं, जिसके लिए मनुष्य ने बडेवडे युद्ध किए, और पतगे की तरह अपने प्राणों को होम दिया। वीतराग प्रभु ने इन दोनो प्रकार के कामो को इसलिए मन से भी त्याग दिये कि ये आत्मा का बहुत बडा अहित करते है । जन्म-जन्म में प्राणी को ये रुनाते हैं, दुखी करते है, इनका गुलाम बना हुआ व्यक्ति अपने धर्म, अपना आत्मस्वभाव, अपनी नैतिक मर्यादा, अपनी विकास की सब बातें ताक में रख देता है । जिसमे मदनकाम ((वेदोदय) तो इतना प्रबल है कि बड़े-बडे साधको .. को पछाड़ देता है । वाहर से किसी प्रकार से उपलब्ध न होने या न हो सकने पर भी साधक मन ही मन उसे पाने की धुन मे उवेडवुन करता रहता है । आग मे घी डालने पर से आग शान्त होने के बदले अधिकाधिक भडकती है, वैसे ही काम को भोगने पर वह शात होने के बदले अधिक भडकता है । इसीलिए दशवकालिक सूत्र मे कहना पडा-'जो काम (दोनो प्रकार के काम) का निवारण नहीं कर पाता, वह श्रमणधर्म का कसे पालन कर सकता है ? वह पद-पद "कह नु कुज्जा सामग्ण, जो कामे न निवारए। ' पए-पए विसीयतो, सकप्पस्स वस गो॥ -दशवै० म. २ गा ? Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४१७ पर सकल्पो के वशीभूत होकर दुख पाता रहता है। यही कारण है कि वीतरागप्रभु के (मल्लिनाथ) ने दोनो प्रकार कामो और उनके परिणाम के रसास्वाद को बिलकुल तिलांजलि दे दी और निष्कामी बन गए। . कोई यह प्रश्न उठा सकता है जब भगवान् कामरस से विलकुल खाली हो गए तो सूखे, मनहूस और नीरस बन गए होगे, किन्तु यह वात नही है । वे वीतराग हो जाने पर सर्वथा उदासीन या उपेक्षाग्रस्त नहीं होते। उन्होंने ससारी जीवो को अज्ञानवश दु.ख मे पडे देख कर तीर्थस्थापना की, सधन्यवस्था की, साधु-साध्वियो के विकास के लिए उनके द्वारा पुरुषार्थ हुआ, दया और करुणा से प्रेरित हो कर ही उन्होने उपदेश दिया । इसलिए वे नीरस नही, अपितु करुणारस से परिपूर्ण समुद्र हो गए। उन्होंने अपने अनुभव भव्यजीवो को दिये । स्वय अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य (शक्ति) इन चारो पदरूप मोक्षपद के अधिकारी बने । प्रभो । सचमुच,- आप जब इतने अनन्तचतुष्कवान बने हैं तो अपने इम सेवक को मत भूलिए । ____ अपने आध्यात्मिक विकास के मार्ग मे जो भी विघ्न हैं, उन्हे प्रभु कैसे दूर करते हैं, यह अगली गाथा मे देखिए दान-विधन वारी सह जन ने, अभयदान-पददाता । लाभ-विघन, जग-विधन-निवारक, परमलाभरस-माता, हो। म०॥८॥ वीर्यविधन पंडितवीर्य हरणी, पूरणपदवी' योगी। . भोगोप मोग दोय विघन निवारी, पूरणभोग सुभोगी हो ॥ ___ म॥६॥ । अर्थ दान देने मे विन्न (दानान्तराय) का निवारण करके प्रमो ! आप सबको (दानों मे सर्वश्रेष्ठ) अभयदान (भयनिवारणरूप दान) के पद (अधिकार) अथवा निर्भयपद (स्थान)=मोक्ष के देने वाले वने । लाभ (पदार्थ मिलने) मे -जो अन्तराय (विघ्न ) था, उसके तथा जगत् के जीवो के अन्तराय (सारी दुनिया के लाभ मे जो अन्तराय आए, उसे रोकने वाले हो कर स्वय परमलाम (सर्वोच्च लाभ) के पद-मोक्षप्राप्तिरूपी परमपद मे मस्त (लीन) बने । और Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ अध्यात्म-दर्शन फिर वीर्यान्तराय (आत्मशक्ति की स्फुग्णा-प्रकटीकरण को रोकने वाले विघ्न) को भी पण्डितवीर्य (आत्मज्ञान की शक्ति) से नाश फरके पूर्ण पदवी (मोक्षपद) के साथ जुड गए। यानी मोक्षपदयोगी बन गए । इसी प्रकार भोगान्तराय एवं उपमोगान्तराय इन दोनों अन्तरायकों को निवारण (रोफ) कर पूर्णरूप से आत्मसुख के भोग और उपलक्षण से उपभोग के भोगी (भोगने वाले) बन गए। प्रभु पाच प्रकार के अन्तरायदोष के त्यागी वते वीतराग परमात्मा के लिए जिन दोपो से रहित होना अनिवार्य है, उनमें से पूर्वगाथा तक १४ दोप से रहित होने तक की बात कही गई है । अव इन दो गाथाओ में ४ अन्तरायजनित दोपो में प्रभु के रहित होने की बात बताई गई है। वे चार दोप इस प्रकार हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, [उपलक्षण से उपभोगान्तराय भी] और वीर्यान्तराय । अन्तरायकर्म भी मूल मे घातीकर्म का अग है । उसका लक्षण है-आत्मा द्वारा की जानी वाली दान, लाभ, भोगोपभोग एव वीर्य की उपलब्धि मे अन्तराय (विघ्न) डालना । अभयदान तथा अन्य जो भी आत्मा से सम्बन्धित सपलब्धिया हैं, आत्मगुण हैं, उनमे रुकावट डालना, उनके विकास को रोकना है। ये अन्तरायम पाच प्रकार के हैं, जो सिवाय वीतराग के प्रत्येक ससारी आत्मा के साथ लगे हुए है। दान देने वाला मौजूद है, फिर भी आदाता को दान नहीं दिया जाना, अथवा दान लेने वाला सामने खडा है, दाता भी दान देना चाहता है, लेकिन लेने वाला इस दानान्तरायकर्म के फलस्वरूप दान ले नही सकता, ये दोनो प्रकार दानान्तराय के हैं। वैसे तो दान ५ प्रकार का है-[१] अभयदान, [२] सुपायान, [३] अनुकम्पादान, [४] कीर्तिदान, और [५] उचितदान । इनमे अभयदान सर्वश्रेष्ठ है, सुपात्रदान भी उत्कृष्ट है, अनुकम्पादान भी किसी हद तक उचित है, किन्तु कीर्तिदान [कीति = प्रतिष्ठा के वदले दान देना] और उचितदान [अपने परिवारसमाज आदि मे योग्य व्यक्ति को पुरस्कार आदि देना] ये दोनो दान आत्मा से सम्बन्धित दान की कोटि मे नहीं हैं। इन पांचो प्रकार के दानों में से बहुत Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४१६ से व्यक्तियो को हम देखते हैं कि वे स्वय किसी को नहीं देते मो नही देते, दूसरो को भी देने में भी किसी न किसी इन्कार कर देते है । अथवा गुणवान् व्यक्ति मे दुर्गण का आरोपण करके उसे दान से वचित कर देते है। ऐसा व्यक्ति दानान्तरायकर्म के उदय से देने वाले पर रुष्टा हो कर उससे द्वेष करने लगता है । दानो मे सर्वश्रेष्ठ अभयदान है, उसमें बाहर से कोई वस्तु देतेलेते हुए दिखाई नहीं देती, लेकिन अभयदान वही दे सकता है, जो स्वय निर्भय हो, जिसमे आत्मशक्ति या अन्त प्रेरणा का बल हो, मन मजबूत हो । प्रभु ने देखा कि दानान्तरायकर्म ने मेरी आत्मा का बहुत बड़ा नुकसान किया है, इसलिए पहले दीक्षा लेने के एक वर्ष पहले से लगातार एक वप तक दान दिया, और खूब उमग से, बहुत ही मुक्त मन से दान दिया, और मुनि वनते ही अभयदान की साधना शुरू कर दी, जो वीतरागपद प्राप्त होते ही परिपक्व हो गई। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने कहा-'अभयदानपददाता' अर्थात् प्रभु ने जगत के समस्त जीवो को उपदेश और जान का दान करके उन्हे निर्भयता सिखाई। तया बाद में जो भव्य जीव थे, उन्हे अभयदानपद-निर्भय स्थान (मोक्ष) के दाता (अभयदयाण। बने । इसी प्रकार उपलक्षण से चक्ष, (ज्ञान) दानदाता तथा मार्गदर्शक बने । दानान्तराय के बाद आत्मा के गुणों का घात करने वाला, लाभान्तराय बत्रा, जो आत्मा का बहत वडा अहित करने वाला एव आत्मा को ज्ञान, दर्शन ,चारित्र मोर आत्मसुख का लाभ नही लेने देता था। यह कर्म ऐसा है कि ज्ञानादि का लाभ होता हा तो रोडे अटकता है । प्रभु ने लाभान्तराय कर्म को समूल नष्ट करके जगन् की आत्माओ के लाभ मे जो विघ्न थे, उन्हे मिटाए । और स्वय ससार मे सर्वोच्च लाम के पद (मोक्षप्राप्तिरूप परमपद) मे लीन (मस्त) हो गए। प्रश्न होता है कि वीतरागप्रभु जगत् के लाभान्तराय के निवारक कैसे हो सकते हैं ? उनके द्वारा जगत् के लोगो की सासारिक लाभ की पूर्ति करने का मतलब है उनकी भौतिक इच्छाओ या कामनाओ की पूर्ति करना । जैनधर्म मे वीतराग परमात्मा को इस प्रकार का कर्ता हा या सासारिक लाभदाता नही माना गया है, फिर इस पद की सगति कैसे होगी? इसके उत्तर मे यही निवेदन है कि लाभ दो प्रकार के होते हैं -सासारिक लाभ और Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० अध्यात्म-दर्शन आत्मिक लाभ । वैसे तो प्रभु किसी भी प्राणी के सांमारिक लाभ तो क्या आत्मिक लाभ के भी सीधे कर्ता-धर्ता नहीं बनते, न निसी को हाय प ड कर वे सीधा लाभ देते हैं । परन्तु जहां तक सासारिक जीवो का सवाल है, वे किसी सासारिक व्यक्ति के कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते, न कर सकते हैं। इसलिए सासारिक लाभ में आने वाले विघ्नो को दूर करने मे वे हाथ नहीं डालते । अव रहा आत्मिक लाभ । मासारिक प्राणियो को आत्मिक लाभ होने मे जोजो विघ्न होते हैं, उन्हे वे बता देते हैं, उन विघ्नों को नष्ट करने के लिए जप-तप या अन्य संयमादि साधना का वे निर्देश कर देते हैं, इसमे अर्जुनमाली, चण्डकौशिक, चन्दनवाला नादि को जैसे भगवान् महावीर के निमित्त से आत्मिक लाभ मिल गया, वैसे ही जगत् के भव्य जीवो के विघ्न दूर हो कर उन्हे आत्मिक लाभ मिले । इस प्रकार वीतरागप्रभु जग के जीवो का विघ्न- - निवारण स्वयं नही करते, करते तो वे जीव स्वय ही हैं, परन्तु भगवान् की प्रेरणा या निर्देश से करते हैं इसलिए वीतराग परमात्मा को निमित्तकर्ता कहा जा सकता है। अत. जगत् को आत्मलाभ मिलने मे जो विघ्न हैं, उन्हें मिटाने के लिए भगवान् प्रेरक हैं । हाँ, भगवान ने अपने लिए तो दोनो प्रकार के लाभों के अन्तरायो को दूर कर दिये हैं। स्वस्थ शरीर, इष्टविद्या, वस्तु आदि का लाभ भी आपको मिला है, और सर्वोच्च अनन्तसुखादि का आत्मिक लाभ भी। इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने आपके लिए कह दिया--परमलाम“रसमाता ।' इसी तरह भगवान् ने आत्मशक्ति को नाश करने वाले वीर्यान्तरायकर्म का क्षय पण्डितवीर्य (आत्मज्ञान व आत्मविकास के लिए आत्मबल को जागृत करके तदनुकूल मन-वचनकाया की प्रवृत्ति करके सर्वथा योगरहित होने के बल, तप, संयम आदि के जोर) से करके सम्पूर्ण पदवी जो मोक्ष मे मिलती है, उसका योग आपने साध लिया है, यानी आप उस स्थान पर पहुच गए हैं । उस शक्ति को आपने आत्मकार्य मे लगा दी है । अथवा आपने सम्पूर्ण आत्मवल और आत्मऋद्धिसिद्धि प्राप्त की, और शरीर से ही तीर्थकर बने । इससे अतिरिक्त एक वार भोग्य पदार्थ को भोगने मे रुकावट डालने वाले भोगान्तरायकर्म एव बार-बार भोग्य पदार्थ को पुन -पुन' भोगने मे रुकावट डालने वाले उपभोगान्तराय कर्म को आपने स्व-उपयोग स्वसुखास्वाद से दूर कर दिये । इससे आप अनन्त आत्मसुख के भोक्ता बने । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४२१ वीर्यान्तराय कर्म के उदय से लोग इधर-उधर मटरगश्ती करते फिरेंगे, पर धर्मकार्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि करने में अपनी शक्ति के न होने का बहाना वनाएँगे । तपस्या करने में असमर्थता बताएंगे, किन्तु यो किसी मतलब के लिए भूखे-प्यासे रह लेंगे। धर्म श्रवण के लिए अवकाश नही मिलेगा, किन्तु गप्पें मारने मे घटो बिता देंगे यो मन को कमजोर बना लेते हैं। इस सबसे वीर्यान्तराय कर्म का बन्ध होता है । परन्तु प्रभु ने पूरी शक्ति अजमाकर इस अन्तराय का क्षय किया है। सासारिक जीवो को पोद्गलिक वस्तु न मिले तो भोगान्ताराम समझना चाहिए । यही बात उपभोगान्तराय के सम्बन्ध मे है । दोनो को एक दोष न कर १८ वां दोप भगवान् के द्वारा त्यक्त बताया है। ये दोनो अन्तरायकर्म इन वस्तुमो के देने वाले की “मजाक उड़ाने से, स्वय न देने तथा इसरो को भी न देने की सलाह देने से, देने वाले की निन्दा करने मे बधते हैं । प्रभो । आपने तो आत्मिक और पौद्गलिक दोनो वस्तुओ मे अन्तराय न पडे, इस रूप मे भोग-उपभोगान्तराय कर्मरूप दोष को जीत लिया। मुझे आपके ही आदर्श का अनुसरण करता है। आपने दुनिया को अपने उदाहरण द्वारा सही रास्ता बना दिया है । ए अढारदूषरणजित तनु, मुनिजनवृन्दे गाया अविरति-रूपक-दोष-निवारण निर्दूषण मन भाया हो ॥१०॥ अर्थ इन उपर्युक्त १८ दोषों से रहित आपकी असख्यप्रदेशी आव्मा या काया का पच-महाव्रतधारी गणधराविमुनि वृन्द ने वर्णन किया है। अविरति वगैरह दोषो से आच्छादित आत्मा का रूपक दे कर दयास्वरूप बताफर बोषों का निवारण कराने वाले (आप ही हैं, तथा आप स्वय) सब दोषों से रहित हैं। मेरे मन को आप अच्छे लगे हैं। भाष्य अठारह दोष से रहित भगवद्रूप जव छदमस्थावस्या छोड कर, वीतराग बनते हैं, तब वे स्वतः ही निम्नलिखित १८ दोष से रहित हो जाते है-१ आशा-तृणा, २-अज्ञान, ३ निद्रा या निन्दा), ४ स्वप्नदशा, ५ मिथ्यात्व, हास्य, ७ रति, अरति, ८ शोक ६ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ अध्यात्म-दर्शन भय, १० जुगुप्सा, ११ राग, १२ हप, १३ अविरति १४ काम्यकदशा, १५ दानान्तराय, १६ लाभान्तराय, १७ भोगोपभोगान्तराय और १८ वीर्यान्तराय । प्रभु की काया (अथवा अमध्यप्रदेशी आत्मा) इन १८ दोपो मे सर्वथा रहित है । आत्मा को दूषित बनाने वाले इन बहिरात्मभावो को छोड़ कर प्रत्याख्यान न करने रूप में अविरति (मिथ्यात्म का मयार्थ कथन करने वाले होने से आपके गुणो के कारमा ही त्यागी, वैरागी व तपस्वीवृन्द ने आपका गुणगान किया है। श्रीआनन्दघनजी भी अन्तिम गाया मे इसी दृष्टि मे प्रभु का गुणगान करते हुए इस स्तुति का उपसहार करते हैं इणविध परखी मन विसरामी, जिनवरगुरण जे गावे । दीनबन्धुनी मेहर नजर थी, 'आनन्दधनपद' पावे, हो । म० ११॥ अर्थ इस प्रकार अष्टादशदोषरहित एव अनन्तचतुष्टययुक्त श्रीमल्लिनायमन को भलीमांति देख परख कर उन अन्त करण के विश्राम रूप श्रीजिनवर के ज्ञानादिगुणो का जो पमझ गुणगान करता है, आठ प्रकार के दुःखो से दीन बने हुए जीवो को भाव से आत्मगुणो से समृद्ध करने मे बन्धुसमान श्रीतीपंकरदेव को परमकृपादृष्टि से वह आनन्दघनपद (मोक्षपद) प्राप्त करता है। भाष्य प्रभु का गुणगान और उससे लाभ यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जो जिस पर श्रद्धा रखता है, वह वसा ही हो जाता है, उसके मन पर आने आराध्य आदर्श के गुणो की छार बार-बार गुणगान से अकित हो जाती है। मन ऐमा टेपरिकार्डर है, जिस पर बार-बार उच्चारण एव श्रद्धा के स्पन्दनो की छाप अकित हो जाती है। इसी दृष्टि से श्रीआनन्दधन जी कहते हैं-'जिनवरगुण जे गावे .. . 'आनन्दघन' पद पावे।' " परन्तु प्रभु या भगवान् के नाम पर दुनिया में बहुत-से अन्धविश्वास पनप रहे हैं। बहुत से लोग स्वय जीते-जी भगवान् नीर्थ कर या पैगम्बर के नाम से पूजा-प्रतिष्ठा पा रहे हैं । इमीलिए आनन्दघनजी परीक्षाप्रधानी बन कर बाह्य चमत्कारों या आडम्बरो, से प्रभावित न हो कर कहते हैं-'इणविध परखी Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा ४२३ मन विसरामी' । पूर्वोक्त अठारहदोषो से रहित के रूप मे वीतरागप्रभु या भगवान् कहलाने वाले की भलीभांति परीक्षा करके हृदय को विश्राम दे सकने वाले प्रभु का स्वीकार करें और तब गुणगान करें। जमे जौहरी रत्न की परीक्षा करके ही उमे अपनाना है, सर्राफ सोने की अच्छी तरह परीक्षा करने के बाद खरा उतरने पर अपनाता है इसी तरह भगवान् या प्रभु कहलाने वाले महानुभ वो को १८ दोपरहिनता की कमोटी पर कसना चाहिए। हमारे वाप-दादे या पूर्वज उन्हे मानते-पूजते आए हैं, बहुजन इन्हे मानता है, इसलिए हम भी इन्हे पूजते हैं, यह नो गतानुगतिकता है, अन्धविश्वास है, इससे आत्मा का बहुत बडा अहित होता है । इमलिए परीक्षा करके, अपनी परीक्षा मे जो १८ दोषरहित जचें, उनकी ही पूजा करनी, उनके ही गुणगान करने चाहिए। __परीपूर्वक प्रभु का स्वीकार करने और तदनुरूप उनके गुणगान करने से दीनबन्धु भगवान की कृपादृष्टि हो जाय तो वेडा पार हो जाय, समारमागर को पार करके मुक्ति के परमानन्दघाम मे वह उनकी कृपा से जा विराजता है। मल्लिनाथ प्रभु के स्वरूा (की तरह तमाम वीनरागी पुरुषो का स्वरूप) आगम मे १८ दोपो से रहित और अनन्त-चतुष्टयसहित बताया है । इस प्रकार का स्वरूपकथन नरेन्द्र, देवेन्द्र और मुनियो की परिषद् मे निश्चित किया हुआ है। फिर भी देवागम-स्तोत्र में कथित परीक्षा-प्रधान तरीके को अपना कर तथाकथिन भगवान की परीक्षा से परख कर प्रभुगुणो के प्रति अनुरागपूर्वक का गुणानुवाद करने से मन पर वे सस्कार दृढरूप से जम जाते हैं, इस प्रकार से गुणगान के बाद उन दीनबन्धु की अहैतुकी कृपादृष्टि हो जाने पर अवश्य ही माक्ष प्राप्त हो जाता है । इसका रहस्य यही है कि प्रभु की कृपादृष्टि यानी काल की परिपक्वता ऐमा भव्य एव सम्यग्दृष्टि जीव समय आते ही आवश्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जनदर्शन के पचकारण-समवायी सिद्धान्त की दृष्टि से काल की परिपक्वता बहुत महत्वपूर्ण है । प्रभु हाथ से किसी को कुछ देते लेते नही, न किसी पर कृपादृष्टि डालते हैं, क्योकि वे निरजन-निराकार हैं । स्वय के पुरुषार्थ से ही . मोक्षपद की प्राप्ति करनी चाहिए। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ अध्यात्म-दर्शन सारांश इस स्तुति मे श्रीआनन्दघन जी ने इन दोषो को पुराने तथायित मेवक और साथी के रूप मे गिना कर उनके प्रति प्रभु द्वारा अवगणना के लिए उन्हे मधुर उपालम्भ दिया है, स्वय के प्रति अवगणना का भी उपालम्भ है । परन्तु बाद में स्वत समाधान प्राप्त करके प्रभु के मच्चे स्वरूप को जान कर उन्होंने उनके द्वारा क्रमश. १८ दोपों के निवारण की कथा कह दी है। और अन्त मे समस्त साधको को हिदायत दे दी है कि भगवान या प्रभु आदि के नाम से तथाकथित महानुभावो को केवल 'आडम्बर चमत्कार, या गतानुगतित्व से मत मानो । उनकी १८ दोपो रहित होने की कसौटी करो। पास होने पर ही उन्हे मानो। इस प्रकार यह परीक्षा करके भक्ति या पूजा करने की बात ही फलित होती है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : श्री मुनिसुव्रतजिन-स्तुति परमात्मा से आत्मतत्व की जिज्ञासा (तर्ज-राग काफी 'आधा आम पधारों पूज्य !') , . श्रीमुनिसुव्रत-जिनराज । एक मुझ विनति निसुलो ।। मु० ॥ व॥ आतमतत्व कयु जाण्यु, जगद्गुरु ! एह विचार मुझ कहियो । आतमतत्व जाग्या विरण निर्मल-चित्तसमाधि न वि लहियो॥ श्रीमुनिसुव्रत० ॥१॥ अर्थ इस अवसर्पिणीकाल के वीसवें तीर्य कर श्रीमुनिसुवतदेव ! जिनराज प्रभो। मेरी एक प्रार्थना सुनिये । हे जगद्गुरो | आपने शुद्ध आत्मतत्व (परमात्मस्वरूप) किसे जाना ? अथवा मैं किसे जानू ? यह तत्वज्ञान (विचार) मुझे कहिए । क्योकि शुद्ध आत्मतत्व को जाने बिना में अपने मन को निर्मल निरूपाधिक समाधि, स्थिरता, एकाग्रता या धीरता नहीं प्राप्त कर सकता। , भाष्य आत्मतत्व की जिज्ञासा क्यो और किससे ? पूर्वस्तुति मे सर्वज्ञ वीतरागप्रभु की पहिचान के लिए १८ दोष से रहित होने की कसौटी बताई थी, किन्तु जब तक उस शुद्ध आत्मा की पहिचान न हो, उसका स्वरूप क्या है ? और उसके विषय मे विभिन्न अध्यात्मवादी क्या क्या म नते हैं ? यह प्रश्न हल न हो जाय तव तक सर्वज्ञता और वीतरागता की वात कसे हल हो सकती है ? इसलिए इस स्तुति मे परमात्मा के सामने भक्त योगी ने अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की है-आत्मतत्व कयु जाण्यु ? वीतराग प्रभो आपने आत्मत्तत्व किसे या कैसे समझा ? अथवा मैं उस आत्मतत्व को । १ 'जाण्य' के बदले किसी प्रति मे 'जाणु' शब्द भी मिलता है, उसका अर्थ । होता है-प्रभो ! मैं आत्मतत्व किसे जानूं ? Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ अध्यात्म-दर्शन कमे नमसूं ? अथवा किसे मान ?" कारण यह है कि योगी श्री मानन्दघनजी 'मुखमस्तीति वक्तव्यम्' (मुंह है, इसलिए वो नना ही चाहिए), अपनी उपस्थिति ग्तानी ही चाहिए, इस दृष्टि में नहीं बोल या पछ रहे हैं। उनके अन्तर मे सच्ची लगन लगी है। वे आत्मा की उस अवस्था में विपय मे या उस शुद्ध आत्मा के सम्बन्ध में जानना चाहते हैं, जो मोक्षरूपया परमात्मरूप बन सकती है? - वास्तव में किसी वस्तु की तह तक पहुंचने और उसके सम्बन्ध में जितने भी मुद्दे उपस्थित हो सकते हैं, उसकी छानबीन करके तत्वज्ञान का निरा पाने के लिए शका जिज्ञाना) प्रस्तुत करनी चाहिए। भगवतीसूत्र में भगवान महावीर स्वामी से गणधर इन्द्रभूति गोरम के द्वारा किये हुए ३६ हजार प्रश्नोत्तरी का उल्लेख है । यह तो जनदर्शन की प्राचीन शैली है कि जिजामा का या पृच्छा प्रस्तुत किये बिना उत्तमरुप से तत्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसी तरह किसी भी वस्तु का मागोपाग ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राचीन जैन दानिको ने बताया था-' प्रमागो और नयो से ज्ञान होता है, इसी प्रकार निर्देश, स्वा. मित्व, साधन, अधिकरण, विधान, मत, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व आदि प्रश्नो के द्वारा प्रत्येक वस्तु का तलस्पर्शी ज्ञान हो जाता है। इसलिए इस प्रकार के प्रश्न-प्रतिप्रश्न एव शका-समाधान की पद्धति न्हुत ही उत्तम है, तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए आसान भी है, शिष्य-प्रशिप्य-परम्परा से लाभ के लिए ममीचीन भी है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने आत्मतत्व के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत कर दी है। आत्मतत्व के सम्बन्ध मे हो जिज्ञासा स्यो ? प्रश्न होता है कि योगी श्रीआनन्दघनजी ने आत्मतत्व के विषय मे शका प्रस्तुत क्यो की ? इसका परमात्मा की स्तुति ने क्या ताल्लुक है ? इस जिनामा का एक [ समाधानत्प] कारण तो . स्वय श्रीआनन्दघनत्री ने इमी गाथा के उत्तरार्द्ध में बताया है । परन्तु समाधान का मुख्य मुद्दा यह नहीं है। मुख्य मुद्दा तो यह है कि जैनधर्म की तमाम साधनाओ, व्रतो, -नियमों एवं . १ 'प्रमाणनयंधिाम., निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-विधानतः ।। 'सत्संख्यालेस्पर्शनकालान्तर-भावाल्पबहुत्त्वश्च-तत्वार्यसूत्र Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्व की जिज्ञासा ४२७ क्रियाओ अयवा तत्वज्ञानप्राप्ति या शास्त्रो के अध्ययन आदि के मूल मे आत्मतत्व का ज्ञान होना अनिवार्य है । आत्मा का स्वरूप भलीभांति जाने विना किसी भी धर्मतत्व का आचरण, क्रिया, शास्त्राध्ययन या व्रतनियमपलन का कोई अर्थ नही रहता । अगर आत्मा को जाने बिना ही किमी क्रिया को मात्र देखादेबी या गतानुगतिकता अयवा लकीर के फकीर बन कर परम्परागतरूप से की जाएगी, अयवा अन्धविश्वास या शुभभावना से की जाएगी, तो वह केवल स्वर्गादि शुभफल दे कर समाप्त हो जाएगी, परन्तु वह जन्म-मरण के बंधन काट कर मोक्षफल-दायिनी नही हो सकेगी। इसीलिए आत्मस्वरूप जानने के बाद ही कोई भी साधना या प्रवृत्ति अयवा धर्मक्रिया आदि सार्थक प्रतिफल दे सकती है, और उमी का फल मोक्ष है । इसीलिए भगवान् महावीर ने फरमाया था-'जो आत्मवादी है, वही लोकवादी (लोकपरलोक को मानने वाला) है, जो लोकवादी है, वही कर्मवादी (कर्मों के कर्तृत्व भोक्तृत्व-वन्ध और मोक्ष के सम्बन्ध मे विश्वस्त) है, तथा जो कर्मवादी होता है, वही क्रियावादी (कर्म-बन्धन से वचने और कर्मों से मुक्त होने के लिए आत्मस्वरुप-नक्षी पुरुषार्थ करने वाला) १ होता है । इस दृष्टिकोण से योगी-श्री द्वारा सर्वप्रथम आत्मतत्व की जिनामा प्रस्तुत करना न्यायोचित है। आत्मतत्व की निनासा का दूसरा कारण, जो श्रीआनन्दघनजी के स्वय प्रस्तुत किया है, वह यह है कि आत्मतत्व का जानना सर्वप्रथम इमलिए जरूरी है कि जिनशासन का यह नियम है कि मोक्षप्राप्ति के लिए आत्मतत्व का सर्वप्रथम सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन अनिवार्य है। आत्मतत्व की सम्यक जानकारी और सच्ची तत्वश्रद्धा के विना निर्मल (शुद्ध) वित्तममाधि (मन - स्वस्थता) नही होती । मन स्वस्थता के विना किसी भी प्रवत्ति, क्रिया या ज्ञानप्राप्ति आदि को साधक बिना मन से, गूने मन मे विना भावो का तार जोडे ही करेगा, उससे उस क्रिया या प्रवृत्ति में सजीवता, स्फूर्ति या चेतना नहीं आएगी। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं - आतमतत्त्व जाण्या विण । -- १ "जे आयावाई से लोयावाई, जे लोयावाई से कम्मावाई, जे कम्मावाई से 'किरियावाई। -आचारागसूत्र प्रथम श्रु० Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ अध्यात्म-दर्शन निर्मल चित्त-समाधि न वि तहियो' । निष्कर्ष यह है कि पवित्र चित्त शान्ति के लिए और पवित्रचित्तसमाधि मे शुद्धात्मा (परमात्मा) की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम आत्मतत्व का ज्ञान होना जरूरी है। परमात्मा से आत्मतत्त्व को जिज्ञासा क्यों? अब सवाल यह होता है, कि ठीक है, आत्मतत्त्न का ज्ञान होना सर्वप्रथम जरूरी है, पर किमी धर्मगुह, दार्गनिक या मतपयवादी से ही आत्मतत्व का ज्ञान हो सकता था, परमात्मा से ही आत्मतत्व का ज्ञान पाने की इच्छा क्यो प्रगट की ? इसका समाधान यह है कि धर्मगुरु, दार्शनिक या मतपंथवादी वीतराग या मर्वज्ञ नही हए, तब तक वे छदमस्थ या अल्पज हो कह जा सकते हैं, भने ही वे पद, प्रतिष्ठा और वैभव में कितने ही मह न हो। इसलिए उनके कथन मे, कही जरा-सा भी पथराग, परम्पराराग, गुरुराग आदि आ सकता है, भले ही वह प्रशस्तराग ही क्यो न हो ! इसलिए बदमस्थ द्वारा कथित आत्मतत्त्वज्ञान मे कही स्वत्त्वमोह, परम्परामोह मादि के कारण यथार्थ वस्तुस्वरूप के यथार्थ कथन मे कही दोप आ सकता है। इसलिए पू. स्तुति मे कयित १८ दोपरहित, वीतराग, अपक्षपाती, यथार्थ वक्ता, नाप्नपर्व के समक्ष ही श्री आनन्दघनजी ने अपनी आत्मतत्त्व की जिज्ञासा प्रस्तुत की है, ताकि उन्हें यथातथ्यरूप से आत्मतत्व का सांगोपांग समाधान मिन सके । परमात्मा के समक्ष शुद्ध आत्मतत्व की जिज्ञासा इसलिए भी प्रस्तुत की है कि वीतराग परमात्मा इस मार्ग के ययार्थ अनुभवी हैं । मच्चा मागदर्शक वही हो सकता है । जिसने मार्ग को स्वय ता किया हो । निसने मार्ग का स्वर अनु. भव नहीं किता, वह मार्गज्ञ न होने पर भी विविध धर्मग्रन्यों या शास्त्रो के अध्ययन पर ने उम माग के सम्बन्ध मे जानकारी भी दे देगा, लेक्नि । उसकी वह जानकारी स्वत अनुभूत नही होगी, परतः ग्रन्यो या शास्त्रो से) अनुभूत होगी । वीतराग परमात्मा तो आत्मा के साथ लगे हुए रागद्वेषादि विकारो से जूझ कर एक दिन आत्मा के परमशुद्धस्वरूप (परमात्मतत्त्व को 'पा चुके है, इसलिए आत्मा के शुद्धतत्त्व का उनका ज्ञान उधार लिया हुआ नहीं है, स्वत अनुभूत है, स्वयसाक्षात्कृत है । यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी वीतराग परमात्मा से सीधा ही प्रश्न पूछते हैं--प्रमो ! मापने किस मात्मतत्त्व को यथार्थ जाना है ? अथवा कौन-सा आत्मतत्त्व आपकी दृष्टि मे यथार्थ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४२६० है ? अथवा शुद्ध आत्मतत्त्व को आपने कैसे जाना था ? मैं उसे कैसे जान सकता हूँ ? इस प्रश्न मे 'कयु' शब्द से यह भी द्योतित होता है कि आत्मा के सम्बन्ध मे उस युग मे विभिन्न मान्यताएं (या दर्शन व मत) प्रचलित थी, उन्हे देखते हुए वीतरागप्रभु को निष्पक्ष वक्ता मान कर उन्हे न्यायाधीश के रूप मे समझ कर उनसे निर्णय मांगा गया है कि कौन-सा आत्मतत्त्व यथार्थ है ? यानी आत्मा के सम्बन्ध मे प्रचलित विभिन्न दर्शनो के मतो को देखते हुए आपने कौन-सा मत (तत्त्व) ययार्थ जाना है? वास्तव में श्रीआनन्दधनजी ने तत्त्वज्ञान के एक मूल सिद्धान्त (Fundamental Point) जिज्ञासा के रूप मे प्रस्तुत किया है। इसी के सन्दर्भ में वे अगली माथाओ मे विभिन्न दार्शनिको के मन्तव्य क्रमश प्रस्तुत कर रहे हैं कोई अबन्ध आतमतत माने, किरिया करतो दीसे । किरियातरण फल कहो कुरण भोगवे, इम पूछ्यु चित्त रीसे ।मु०२ जड़चेतन ते आतम एक ज, स्थावरजंगम सरिखो। सुख-दु.ख-संकर दूषरण आवे, चित्त विचार जो परिखो ।मु०॥३॥ एक कहे नित्य ज आतमतत, आतमदरसरण लीनो। कृतविनाश अकृतागम दूषण, नवि देखे मतिहीणो ।मु० ॥४॥ सौगतमतरागी कहे वादी, क्षणिक जे आतम जारणो। बन्ध-मोक्ष, सुख-दुख नवि घट, एह विचार मन आणो ।मु०॥५॥ भूतचतुष्कवजित आतमतत सत्ता अलगी न घटे। अंघ शकट जो नजर न देखे, तो शु कोजे शकटे ? |मु०॥६॥ अर्थ कोई-कोई दार्शनिक (वेदाती और साख्यमतवादी) आत्मतत्त्व को कर्मबन्धरहित (अवन्ध) मानते हैं, फिर भी वे शुभाशुभ मानसिफ आदि क्रियाएँ (जप, तप, दान, सेवा आदि) करते देखे जाते हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि बताइए, जव आमा बन्धरहित है तो, इन क्रियाओ का फल कौन भोगता है ? . तब वे मन मे गुस्से हो (कुढ़) जाते हैं ।।२।। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० अध्यात्म-दर्शन कोई दार्शनिक (अतवादी) यो मानते हैं-पौद्गलिक जड (चैतन्यरहित) पदार्य और चेतन (चैतन्यशक्ति सहित) ये दोनो स्थायर (पृथ्वोकायादि और जगम (चलने फिग्ने त्रसकायादि) के समान हैं, सबमें एक ही सात्मा है। इन सबमे कोई अन्तर नहीं है । फिन्तु ऐसा मानने पर मुख मोर दुफामांकर्य दोष आएगा, (यानी एक दूसरे फा सुक्द.ख एक दूसरे का भोगने का प्रसंग आएगा । अगर इस बात पठडे दिल से विचार करेंगे तो हमारी बात मे सत्यता की परीक्षा कर सकेंगे ॥३॥ एक दार्शनिक (अतवादी देदान्नी) कहता है-आत्मतत्व सदा एकान्त (कूटस्य) नित्य है। इस प्रकार नित्यात्म वादी अपने माने हए आत्मदर्शन में लीन (ओतप्रोत) रहता है। परन्तु अपने कृत (किये हुए कर्म के फल) का विनाश और अकृत (नहीं किये हुए कर्मों का आगम (फल) मिलने लगेगा, इस दोष को मान्यता वाला मदबुद्धि नहीं देखता ॥४॥ सौगत (बौद्ध मत रागी वादी कहते हैं-यह (वेहम्यित) आत्मा क्षणिक है क्षणभर मे उत्पन्न और विनष्ट होता है। ऐसा समझ लो। फिन्तु ऐसा मानने पर मात्मा मे वन्ध-मोक्ष (कर्मपुद्गलों के साथ आत्मा का बन्धन एव कर्मपद्गलो से आत्मा का छुटकारा) तया सुख-दुख आत्मा मे घटित नहीं हो सकते । कम से काम अपने दिल मे यह विचार तो कर लों॥५॥ कुछ भौतिकवादी कहते हैं-पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार मूल भूतो (पदार्थो) के सिवाय बात्मतत्त्व का पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है । अन्धा अगर रास्ते में पड़ी हुई गाड़ी को आंखों से नहीं देख सकता तो इसमें गाडी वेचारी क्या करे ? गाड़ी का क्या दोष है ? |॥६॥ - भाष्य सांख्य और वेदान्त की दृष्टि मे आत्मा पूर्वगाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने वीतराग परमात्मा के सामने आत्म तत्त्व कौन-सा है, जिसे आपने यथार्थ जाना ? इस प्रकार की जिज्ञासा प्रगट की है। उस युग मे आत्मा के बारे मे विभिन्न दार्शनिक अपना-अपना राग अलाप रहे थे, सभी एक दूसरे को मिथ्या और नास्तिक तक कह देते थे। ऐसे विवाद के घनान्धकार में श्रीआनन्दघनजी को रास्ता नहीं सूझ रहा था कि कौन-सा आत्मतत्त्व यथार्थ है, और वह परमात्मा के निकट ले जाता है, किसमे और कद मोक्ष जाने की योग्यता होती है ? इन शकाओ का समाधान पाने की दृष्टि से वे उस युग मे आत्मा के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओ का सारा पुलदा प्रभु के सामने रख देते हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर अपनी द्वातिशत् द्वात्रिंशिका Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४३१ मे जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए कहते हैं-'जो विवेकविकल लोग आत्मा को वन्धरहित, एक, नित्य (एकात, क्षणक्षयी, असद्रूप सर्वथा-एकान्तरूप से मानते हैं उन विवेकमूढ लोगों को समझ मे वह भलीभांति नहीं आया। अत उसे समझने के लिए वही एकमात्र जिनेन्द्र परमात्मा मेरे लिए शरणरूप हो ।" इस स्तुतिपाठ मे विविधरूप से आत्मा को मानने वाले ५ दार्शनिको की मान्यता का जिक्र किया है, यही बात श्रीआनन्दघनजी ने क्रमश दूसरी, तीसरी, चौयी, पांचवी और छठी गाथा मे प्रस्तुत की है । -: मर्वप्रथम आत्मा के सम्बन्ध मे साख्यादि दर्शनो की मान्यता प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं- “कोई अवध आतमतत माने।' अर्थात् सांख्यदर्शन आदि कुछ दर्शन आत्मा को निर्लेप, नि सग एव निर्वन्ध मानते है । वे कहते हैं, 'असगो ह्यय पुरुष' आत्मा कर्मों आदि से बिलकुल निर्लेप, है, इसलिए 'विगुणो न बध्यते, न मच्यते, इस वेदवाक्य के अनुसार आत्मा. सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणो से रहित है, निर्लेप है, वह कुछ करता धरता नही है, सब कर्मों से बिलकुल अलग-थलग असग रहता है । जो असग रहता है, उसके वध भी नहीं होता । प्रकृति ही त्रिगुणात्मिका है, वही सब कार्य करती-धरती है, कर्म का-बन्ध उसी को होता है । इस मान्यता मे दोष बताते हुए योगीश्री कहते हैं-आत्मा को निलेप निर्बन्ध मानने वाले अपने सम्प्रदाय मे प्रचलित विविध क्रियाएं (दान देना, काशी मे जा कर गगास्नान करना आदि) करते हुए प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । अथवा प्रत्यक्ष अनुभव से दिखाई देता है कि वे मानसिक शुभाशुभ विचार, वाचिक सत्यास यवाणी का व्यापार, कायिक हलचल आदि स्पन्दमान क्रियाएँ करते हैं। सवाल होता है कि जब आत्मा अवन्ध है, तो ये क्रियाएँ कौन और किसके लिए करता है ? जो क्रिया की जाती है, उसके करने वाले को फन भी अवश्य मिलता है। उनके शास्त्र का वचन '१ 'अबन्धस्तथैक. स्यितो वा क्षयी वाs- ।। । प्यसद् वा मतो यर्जडेस्सर्वथाऽऽत्मा ।।। - न तेषा-विमूढात्मनां गोचरो यः। . - स.एक परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥२६॥ .. . Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ अध्यात्म-दर्शन है-'फरेगा सो भोगेगा', 'सर्वा क्रिया फलवती प्रसिद्धा' (सभी प्रियाएँ फल देनेवाली होती हैं) तव उनसे पूछा जाता है कि जब आप ये धार्मिक क्रियाएँ करते हैं अयवा आत्मा मन, वाणी और शरीर द्वारा स्थूल-सूक्ष्म क्रियाएँ करता नजर आता है, यह मेरा, आपा और सवका अनुभव है, तब यह वताइये कि इन कियाओ के फलस्वरूप पुण्य और पाप को कौन भोगता है ? इसी प्रकार वेदान्ती भी आत्मा को निर्गुण मानते हैं। निश्चयनय से तो जन-दर्शन भी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय एव अकर्ता मानता है. व्यवहार नय से कर्मों का कर्ता-मोका भी मानता है। परन्तु वेदान्ती तो आत्मा को अवन्ध मानते हैं । तव जप, तप, अनुष्ठान वगैरह क्रियाएं वे किसके लिए किम प्रयोजन से करते हैं ? आत्मा और क्रिया का सम्बन्ध क्या? और फिर उन क्रियामो का फल कोन भोगेगा ? पूर्वोक्त दोनों दार्शनिको के सामने इस प्रकार का प्रतिप्रश्न रखा जाता है कि वेदान्ती या साख्यो की इन क्रियाओ का फल कौन भोगेगा ? आत्मा तो कर्म वांधता या तोडता नहीं, फिर भी आपकी क्रियाएँ चालू हैं, ऐसी परस्पर असगत बाते क्यों करते है ? तव वे निरुत्तर हो कर रोप मे आ जाते हैं और मन मे कुढने लगते हैं। अत. प्रभो! इसका ययार्थ उत्तर आपसे मिलेगा, तभी मुझे सत्यतत्त्व की प्राप्ति होगी। ग्रह्म कत्ववादी फी दृष्टि मे आत्मा ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि जड और चेतन दोनो ही ब्रह्म (आत्मा) रूप हैं। इसी प्रकार पृथ्वीकायादि स्थावर तथा उसकायादि जंगम इन दोनों मे आत्मा की दृष्टि से समानता है। मारा चराचर जगत् ब्रह्म (आत्म) मय है। उनके सूत्र हैं-'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म', 'सर्व खल्विद ब्रह्म नेह नानाऽस्ति किंचन' 'एक ब्रह्म द्वितीयं नास्ति' 'जने विष्णु स्थने विष्णुः विष्णु पर्वतमस्तके' (सारी सृष्टि में एक ही ब्रह्म (आत्मा) है, ब्रह्म के सिवाय और कुछ भी नहीं है । यह सारा चराचर जगत् ब्रह्म है, यहां नाना दिखाई देने वाला कुछ भी नहीं है। आत्मा एक है, वह सर्वत्र व्यापक है, नित्य है। इस चराचर मे सब कुछ ब्रह्म है और कुछ भी नहीं है । जल मे, स्थल मे और पर्वतशिखर पर भी विष्णु (शुद्ध आत्मा) है। इस प्रकार अद्वैतवादी की दृष्टि मे जड और चेतन, चर और अचर समस्त पृथक्-पृयक् जीवो का अस्तित्व नहीं है, तयैव जड 'का अस्तित्व भी Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा अलग नहीं है। सभी जड और समस्त चेतन मिन कर एक ही आत्मा (ब्रह्म) इस जगत् मे है। तथा सभी चराचर आत्माओ का एक ही स्वभाव है, एव सारा जगत् ब्रह्ममय होने से जड भी चेतन मे मिल जाता है और चेतन भी जड मे मिल जाता है, तब दोनो एकमेक हो जाते हैं। इस अद्वैतमत के तीन प्रकार हैं[१] शुद्वाहत, [२] द्वैताद्वैत और [२] विशिष्टाद्वैत । आत्मतत्त्व को अद्वैतमत की दृष्टि से स्वीकार करने पर अनेक आपत्तियां आती हैं । यो मानने पर प्रत्यक्षप्रमाण से पृथक्-पृथक् प्रतीत होने वाले स्थावर और जगम, जड और चेतन दोनो प्रकार के पदार्थ एकसरीखे हो जायेंगे । ऐसा होने पर सकर' (एक दूसरे मे परस्पर मिश्रण] दोष [न्यायशास्त्र का दोष] आएगा। जैसे-जड को सुख-दु ख का अनुभव नही होता, चेतन को दोनो का अनुभव होता है । जड और चेतन के लक्षण और उनकी व्यवस्था में अन्तर है । जडचेतन-एकत्वमत को मानने पर ये लक्षण और व्यवस्था दोनो समाप्त हो जाएगी। क्योकि जह को भी चेतन की तरह सुख-दु ख मानने पड़ेंगे और चेतना को भी जड के तरह सुखदु खरहित मानना पडेगा। और स्थावरजीवो का परिणाम जगमजीवो को और जगमजीवो का परिणाम स्थावरजीवो को भोगना पडेगा, परन्तु वस्तुत ऐसा होता नहीं। जगत् के सभी प्राणियो को ऐसा अनुभव नहीं होता । अत यह सकरदोष भी आएगा। और फिर सुख [साता] का मीठा और दुख [असाता] का कडवा अनुभव सर्वत्र सव जगह एक ब्रह्म मे ही मानने से अच्छे-बुरे अनुभवो का घोटाला हो जाएगा । दोनो प्रकार के अनुभव मिश्र हो जाएंगे। पशु और पक्षी, कीडा और रेंगने वाले सादि सवका लक्षण [साकर्य एक हो जाएगा। यह घोटाला भारी उलझन पैदा करेगा । इसलिए इसमे हेत्वाभास दोष तो स्पष्ट दिखाई देना चाहिए । इसलिए श्रीआनन्दघनजी उन अद्वैतवादियो से कहते हैं-'चित्त विचार जो परिखो' । अर्थात् अपने मत [विचारधारा] पर ठडे शान्त] चित्त T १ सकरदोष वह है, जिसमे अलग-अलग पदार्थों के लक्षण किसी एक ही लक्ष्य मे घटित हो जाय । अत लक्षणो का परस्पर एक दूसरे मे मिल जाना संकरदोष है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ बध्यात्म-दर्शन से विचार करके परखो तो सही। ऊपर बताए हुए तीन प्रकार के पद तमत में से विशिष्टाद्वंत विष्णु-उपासक हैं, वे स्थावरजगम सभी वस्तुओ मे विष्णु को देखते हैं। उनके मत स जीवात्मा कभी परमात्मा नहीं होता । इसी प्रकार द्वैताद्वैत [निम्बार्क] मत मे नुख और दुन्य दोनों को एक माना जाता है। यह वात किमी तरह गले नहीं उतरती नही। इसीलिए श्रीमानन्दधनजो परमात्मा से वास्तविक आत्मतत्त्व को बताने की प्रार्थना करते हैं । यद्यपि द्रव्यत्त्व की दृष्टि में सामान्यधर्म को स्वीकार करने वाले मबह्नय को अपेक्षा से जड और चेतन जरूर एक हैं, परन्तु व्यवहारनय कीअपेक्षा से वे पृथक्-पृथक भी हैं, मगर एकान्तरूप से दोनो को एक मानने पर सांकर्यदोष आता है। आत्मतत्त्व को एकान्त नित्य मानें तो अब श्रीआनन्दघनजी आत्मा को एकान्त कूटम्यनित्य मानने वाले अद्वैतवादी वेदान्त अथवा साल्यदर्शन की परीक्षा करते हैं । अतवादी वेदान्त की एकान्त मान्यता है कि आत्मा सदोदित एक समान रहता है, वह कूटस्थ (घन की तरह स्थिर) है, उसमे कही भी परिवर्तन नहीं होता। इस प्रकार आत्मदर्शन करने मे लीन हुए वेदान्ती अपनी मान्यता मे उपस्थित होने वाले दोपो को मतिहीन वन कर देख नही सकते। इस मान्यता मे दोष ये है-इस जीवन मे प्राणी को सुख-दु ख के कारण मीठे या कड़वे फल का अनुभव होता है। एकान्तरूप से स्वरूप मे लीम कूटस्थनित्य आत्मा तो कुछ भी करणी= त्रिया नहीं कर सकता, तथपि आत्मा तो अच्छे-बुरे परिणाम भोगता है, यह तो म प्रतिदिन देखते हैं। हम मृष्टि में बड़े-बड़े दानकर्ताओ को देखते हैं, तपजपादि अनुष्ठान करते भी देखते हैं। आत्मदर्शन मे लीन आत्मा तो भोक्ता नही हो सकता तथापि हम राजा और रक, धनाढ्य और दरिद्र का अन्तर देखते हैं। ये सब वाते एकान्त नित्य मात्मा मे घटित नही हो सकती। ___आत्मा को एकान्त नित्य मानने से सर्ववादीसम्मत और प्रत्यक्षादि से ज्ञात होने वाला कार्य-कारणभाव कथमपि किसी भी काल मे घटित नहीं हो सकता | क्योकि कार्य-कारणभाव में एक पदार्य कार्यरूप में होता है,जबकि दूसरा पदार्थ कारणरूप होता है । अथवा एक ही पदार्थ की एक पर्याय . (अथवा) कारणरूप और दूसरी पर्याय कार्यरूप बनती है। जैसे लोहे नामक Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४३५ एक पदार्थरूप कारण से ताररूप कार्य उत्पन्न हआ । और उस तार मे से एक कहा बना लिया गया । इस तरह तार अब पर्याय होते हुए भी कारण बन गया और कडा हो गया कार्य । परन्तु मगर लोहा सदैव, नित्य एक अखण्डस्वरूप मे ही रहे तो उसमे से तार या कहा कैसे बन सकते हैं ? इसी प्रकार प्रत्यक्ष भौतिक विज्ञान के अनुसार घटित होने वाले कार्यकारणो को देखते हुए कुछ न कुछ . सगति विठानी ही पडेगी। जिस किसी भी तरह से आप (एकान्त नित्यवा- . दी) कार्यकारणभाव बताएंगे, उसमें आपको अपने एकान्त नित्यवाद की मान्यता को काल्पनिकरूप से, चाहे वास्तविक रूप से बदलना ही होगा। इसके बिना कोई चारा ही नहीं है । आत्मा को नित्य मानने मे हमे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन उनमे जरा भी परिवर्तन किये बगैर एकान्त नित्य मानने में आप सफल नहीं हो सकेंगे । अत विश्व मे प्राणियो मे होने वाले परिवर्तनो की सगति बिठाने के लिए आत्मा को कयचित् अनित्य मानना ही पडेगा । अगर कथचित् अनित्य नही मानेंगे तो कार्यकारणभाव से इन्कार करना पडेगा । यह तो वीज के विना फल पैदा करने के समान होगा। एक जाति के नर और मादाप्राणियो से दूसरे प्राणियो की उत्पत्ति तथा बीज से अन्न वगैरह की उत्पत्ति प्रत्यक्ष होती देखी जाती है, उसके (फल के) बिना ही काम चला लेना होगा। यदि कहे कि ये सब बातें काल्पनिक है, भ्रम हैं, स्वप्नवत् आभास या अविद्याजनित अध्यास है, तव तो सारी दृश्यमान सृष्टि अविद्याभामित भ्रान्ति हो जाएगी। फिर सवाल होगा कि ब्रह्म के सिवाय आपके मत मे और कुछ नही है तो यह भ्रान्ति या माया कहां से आ गई ? यदि कहें कि यह तो मन की भ्रमणा है तो मन की भ्रमणा और मन की शुद्धि ये कहाँ से आ गए, एक ही ब्रह्म होने के बावजूद ? यदि ये सव ब्रह्म (आत्मा) मे आए हैं, तब तो ब्रह्म एक और एकस्वरुप (नित्य) नहीं नहीं रह सका। इसलिए आत्मा परिणामी होते हुए भी नित्य माने विना कोई छुटकारा नही है। इतनी आपत्तियाँ होते हुए भी एकान्त नित्य मानेंगे तो आपके मत मे अविद्या (अज्ञान) का नाश करने के लिए जो वेदान्तविधिशेषत्व का उपयोग करते हैं, विधि भी वताते हैं । अगर ब्रह्म सदा नित्य ही हो तो उसमे अविद्या से जनित अशुद्धि को दूर करने की विधिशेषत्व की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? एकान्तनित्य आत्मा Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन मानने पर जो कुछ भी प्रवृत्ति अविद्यानाशादि के लिए करेंगे, उसका फल तो आपको मिलेगा नही, इस दृष्टि से १ कृत (फल) का नाश होगा और अकृत का आगम (दोप) होगा । आत्मा एकान्त नित्य एकरूप रहेगी, तो शुभाशुभ जो कर्म वेदान्ती करेगा, उसका तो नाश हो जाएगा, और व्रत नियमादि शुद्ध करें य नही करते हुए भी उनका फल मिला करेगा। यानी ऐसी स्थिति में कृतकर्म का फल नष्ट हो जाएगा और अकृतकर्म का फल मिलने लगेगा। अथवा अविद्या का नाश या ही, ब्रह्म ही अकेला था। वह आज भी है। यद्यिा का नाशरूप फल तो विधिशेषत्व किए रिना भी था। इस तरह किये हुए पुरुपार्थ का नाश और नही करे हुए, की प्राप्ति ये दूपण अवश्यमेव आएंगे। आत्मा को नित्य मानने वाले की नजरो मे मनुष्य मनुष्य के बीच मे जो आज राई और पर्वत का-सा अन्तर है, वह क्यो नहीं आता ? क्या ये धनवान-गरीब मदबुद्धि-तीनवुद्धि आदि भेद नित्य आत्मा में हो सकते हैं परन्तु व्यवहार में दोनो ही हैं। अपनी बुद्धि मे इस निष्पक्ष विचार का गज दान कर देखें तो तुरन्त समस्या हल सकती है। अत. एकान्त नित्य आत्मतत्व का विचार दिमाग में जचता ही नहीं है, इसीलिए एभो | मैं आपसे निर्विवाद सत्य शुद्ध आत्मतत्त्व जानना चाहता हूँ। आत्मा क्षणिकवाद की दृष्टि मे क्षणिकमतवादी वौद्धमतानुरागी लोग कहते हैं-आत्मा क्षणविध्वसी है, प्रतिक्षण उत्पन्न-विनष्ट होता रहता है । प्रत्येक का-आत्मा सदा एक समान नहीं रहता, वह प्रतिक्षण बदलता रहता है। पहले क्षण मे जो आत्मा था, वह दूसरे क्षण नहीं रहता। पहले क्षण जो आत्मा विचार करता है, वह अलग और दूसरे क्षण विचार करता है, वह आत्मा अलग है। पृयक प्रयक विचार करने वाला प्रतिक्षण बदलता रहता है। बौद्ध विज्ञानम्कन्ध को आत्मा कहते है , उमसे ज्ञान होता है । अर्थात् अह [मैं ) का ज्ञान जिससे हाता है, वह स्कन्ध और दूसरे स्कन्ध क्षण-क्षण मे बदलते हैं, क्योकि ज्ञान तो क्षण-क्षण मे बदलता १. कृतनाश का अर्थ है -पूर्ण कारण-सामग्री मिलने पर भी कार्योत्पत्ति न होना तथा अकृतागम का अर्थ है-कारण के विना ही कार्य उत्पत्ति होना। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४३७ . . . . है जब आत्मा क्षणिक है तो सुखदु ख का अनुभव जरा-मी देर मे कैसे सम्भव हो सकता है ? जब आत्मा एक ही क्षण टिकती है तो प्रत्येक वौद्ध शुभाशुभ अध्यवसायपूर्वक क्रिया करते हैं, चार आर्यसत्य, अष्टाा सत्य मादि के पालन की बात भी वे करते हैं, तव फिर शुभाशुम कर्मबन्ध कसे घटित होगा? क्योकि कर्म बंधने वाला तो क्षणभर मे नष्ट हो गया, तथा कर्म से छुटकारा पाने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वह प्रत्यत्न करने वाला आत्मा भी नष्ट हो गया, तब कर्मों से मुक्ति किसकी होगी ? पुण्यकर्म या पापकर्म करने वाला आत्मा जब क्षणभर मे नष्ट हो गया तो फिर उसका शुभाशुभ फल कोन भोगेगा? 'बुद्धदेव ने ४६ दिन तक समाधिमुख का उपभोग किया' ऐसा उनके सम्प्रदाय द्वारा मान्य पुस्तको मे है। वह क्षणिक आत्मा मानने वाले के लिए कसे सम्मव हो सकता है ? क्योकि ४६ दिनो मे तो कई आत्माएँ बदल चुकी दूसरी दृष्टि से देखे तो क्रिया से आत्मा के साथ कर्म रज लगते हैं । आत्मा के साथ उन कर्मों का क्षीरनीरन्यायेन बध होता है, आत्मा आत्मा मे स्थिर हो कर ज्ञान-दर्शन-चारित्र, तप आदि क्रिया करता तथा स्वरूपरमण करता है, उससे पूर्वबद्धकर्मों का आत्यन्तिक छुटकारा [मोक्ष] हो जाता है, भला आत्मा को क्षणिक मानने पर वन्ध और मोक्ष कैसे घटित होगे? ___ इस प्रकार एकान्त क्षणिक आत्मा मानने पर उसका बन्ध-मोक्ष, पुण्यजनित कर्मफलस्वरूप सुख या पापजनित अशुभफलरूप दुख उसमे घटित नही हो सकेगा। क्षणिकवादी बौद्ध आत्मा को एक ओर तो 'क्षणिक मानते हैं, दूसरी ओर, आत्मा के वन्ध और मोक्ष को भी मानते हैं। यह वदतो व्याघात जैसी परस्पर विरुद्ध बात है, जो गम्भीरतापूर्वक विचारणीय है, बौद्ध दार्शनिको के लिए। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी प्रभु से प्रार्थना . करते हैं--प्रभो । किस प्रकार का आत्मतत्व सच्चा मानू, यह कृपा करके मुझे बताइए। चतुर्भूतवादियो की दृष्टि मे आत्मतत्व अव श्रीआनन्दघन जी कहते हैं कि दुनिया मे चार भूतवादी भी आत्मा तो मानता है, मगर वह कहता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, इन चार Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ अध्यात्म-दर्शन महाभूतो के सिवाय आत्मा नाम का कोई पदार्थ जगत् में है ही नहीं । इसलिए चार भूतो का समूह हो आत्मा है । यह चार्वाक का मत है। चार्वाक प्रत्यक्ष. वादी है। वह कहता है - आत्मा नाम का कोई पदार्थ प्रत्यक्ष दिखाई तो देता नही । न कोई परलोक वर्गह प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, और उक्त ४ भून तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। जैसे गोवर, गोमूत्र, आदि पदार्थो के एकत्र होते से हो विच्छू वन जाता है, अथवा Chemical Compound के मिलने से एक दवा वन जाती है । वमे ही इन चार भूतो का सयोग होते ही आत्मा का प्रादुर्भाव इन में से होता है । और इन्ही चारभूतों के खत्म होते ही आत्मा भी खत्म हो जाता है। बस, यही आत्मा है। इसके अलावा कोई आत्मा प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता । उनने पूछा जाय कि मात्मा जव भूतो के नष्ट होते ही यही नष्ट हो जाता है तो उसने जो शुमाशुभ कर्म किये है, उनका फल कब, और किसको मिलेगा? अगर कहे कि फन यही मिल जाता है, तव तो मुक्ति के लिए को जाने वाली या असत्यादि से निवृत्त होने और न होने वाले व्यक्तियो का धर्माचरण, जप-तप आदि व्यर्थ हैं, फिर तो पापकर्म करने वाले को भी कोई खटका नहीं रहेगा, क्योकि आत्मा का फिर कुछ खेल है, वह यही पर है, परलोक मे नहीं, ऐना माश्वासन मिल जाने के कारण व्यक्ति क्यो धर्माचरण शुद्धात्मन्मण नादि करेगा? वह नि शक हो कर पापकर्म करेगा । क्योकि चार्वाक की उक्ति उन्हे प्रेरणा देती है-"जब तक जीओ । सुख से जीओ । कर्ज करके घी पीओ। मृत शरीर के राख हो जाने पर उसका पुन, आगमन नही होता, यही वेल खत्म हो जाता इसका खण्डन श्रीआनन्दघनजी इमी गाथा के उत्तरार्द्ध से करते हैं कि मधा आदमी एक गाड़ी पर बैठ कर मुसाफरी कर रहा है। रास्ते मे ही उससे किसी ने पूछा-"क्यो सूरदामजी ! गाडी देख रहे हो न ?" मगर वह गाड़ी से इन्कार करता है, अथवा उसकी नजरो मे गाडी नहीं दिखाई देती तो क्या गाडी नही है ? इसमें गाडी का तो कोई दोय नहीं है। किन्तु तर्क यह है कि उस गाडी को चाहे वह अधा आँखो से न देख सकता हो, परन्तु हाथ के स्पर्श से, गाडी की बह-खड आवाज से, अथवा किसी विश्वस्त यावज्जीवेत् सुख जीवेत्, ऋण कृत्वा घृतं पिवेत् ।' भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत ? " Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४३६ सत्यवादी मनुष्य के द्वारा बतलाने पर कि 'गाडी पास मे ही है, इससे उस अवे को मालूम हो जाता है कि गाडी मेरे पास ही है । क्या वह अधा तब उस गाडी के अस्तित्व मे इन्कार कर सकता है ? कदापि नहीं। क्योकि स्पर्श से, आवाज से, प्रामाणिक पुरुष के वचन से, शाब्दप्रमाण से एव अनुमानप्रमाण से उसने गाडी की जानकारी कर ली है। इसके बावजूद वह आंखो से गाडी न देखने के कारण हठपूर्वक इन्कार करता है, तो उसकी जिद्द ही कही जाएगी। इसी प्रकार चार्वाकमतवादी नास्तिक की नजर मे कदाचित् पचभूतो से अतिरिक्त आत्मा न आए, परन्तु उससे आत्मा के अस्तित्व या उपस्थिति से इन्कार कैसे किया जा सकता है । क्योकि आत्मा अनुमान, आगम, आदि प्रमाणो अनुभव आदि से ज्ञात होता है ? चारभूत को ही आत्मा मानने से अनेक दोष आते हैं । इसलिए मात्मा के लिए चाहे वे हठपूर्वक इन्कार करें, क्या उससे दुनिया मे आत्मतत्त्व अभाव या अतिस्त्व हो जाएगा । मत मनुष्य या पशु मे चारो भूत होते हुए भी वह चलता फिरता क्यो नही ?' इससे मालूम होता है, इन चार भूतो से अतिरिक्त कोई आत्मा नाम का पदार्थ है, जिसकी शक्ति से इन्द्रियाँ, मन या शरीरादि काम करते हैं । वर्तमान भौतिक विज्ञान भी प्राय. प्रत्यक्ष को मान कर चलता है, परन्तु वह पूर्वज आप्तपुरुषो की रची हुई थ्योरी पर से पहले पहले प्रेक्टिकल एक्सपेरिमेंट (प्रयोग) करता है, अनुमानप्रमाण से भी काम लेता है, इसलिए वह आत्मा का सर्वथा इन्कार करे, ऐसा जिद्दी नहीं है । युक्तियो से समझाने पर आधुनिक विज्ञान मात्मतत्त्व के विषय मे मान भी सकता है । अत इन भौतिकवादियो के प्रवाह मे न बह कर प्रत्येक अध्यात्मसाधक को आत्मताव की छानबीन अवश्य करनी चाहिए। इस प्रकार श्रीआनन्दधनजी आत्मा के विपय मे विविध दार्शनिको की . अटपटी मान्यताओ को प्रस्तुत करके उनकी बात क्यो सच नही लगती ? क्यो गले नहीं उतरती ? इसे भी साथ ही साथ निवेदन करके पुनः भगवान् के . चरणो मे प्रार्थना करते है -"आपने जिस प्रकार के आत्मतत्व को सच माना हो, उसके विषय मे बताइए । अव श्रीवीतराग परमात्मा इसके उत्तर में क्या कहते हैं, यह अगली गाथा मे पढिए Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० अध्यात्म-न एम अनेक वादी मतवित्रम सकट पडियो न लहे। चिन्त समाव ते माटे पूर्छ, तुमविण तत कोई न कहे ।मु० ७॥ . अर्थ इस प्रकार अनेक एकान्तवादियो दार्शनिको) ने (मात्मतत्व के विषय मे अपनी-अपनी एकान्त बातें कह कर) मेरी वृद्धि भ्रम मे डाल दी है । इस कारण मे धर्मसकट में पड़ गया हूँ। मेरा चित्त समाधि (समाधान नहीं कर पाया, इसलिए मैं आपसे (अपने मन को, खासतौर से शान्ति के लिए। इसके बारे पूछता हूँ। मुझे विश्वाम है कि आपके विना (निष्पक्षरूप से कोई आत्मा के विषय मे सत्यतत्व क्या है ? इसे नहीं कह सकता। भाष्य श्रीआनन्दधनजी को उलझन और तत्वज्ञान को तीव्र जिज्ञासा श्रीमानन्दघनजी आत्मतत्व के विषय मे परमात्मा के समक्ष इतने दार्थनिको के विविध परस्पर विरोधी मन्तव्यो को प्रस्तुत करके तया उनकी विचार घारा क्यों नहीं जती ?, इस बात का अष्ट निवेदन करने के बाद भी पुन निवेदन कर रहे हैं कि "प्रभो । इस प्रकार में अनेक मनवादियो की एकान्त विचारधारा आत्मतत्व के विषय मे सुन कर वेदान्न, माघ, बौद्ध और चार्वाक आदि दर्शनो के पृथक-पृयक् अभिप्रायो को जानकर मेरी बुद्धि ऐमे भ्रमजाल के सकट में पड़ गई है, कि कोई भी साधक ऐमे सकट में पड कर मन मे निमी प्रकार की समाधि या शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । मैं भी नग्ने मन की शान्ति, स्थिरता और एकाग्रता को खो बैठा हूं अतएव निरुपाय हो कर मुझे आपको पूछना पडा है । क्योकि चित्तसमाधि या आत्मतत्व के सच्चे जिन्नासुओ को आपके मिवाय कोई भी तत्व (यथार्थ स्वरूर कह नही सवता । आप ही आत्मा का यथार्थ नत्व समझाइए और मेरे चित्त का समाधान वीजिए।" । ___ कोर्ट यहां सवाल उठा सकता है कि अध्यात्मयोगी श्रीआनन्दघनजी ने पूवगाथाओ मे आत्मतत्व के सम्बन्ध में प्रतिदिन विविध दार्शनिको का मत प्रस्तुत करके स्वयमेव उनका खण्डन किया है, इस पर से ऐसा प्रतीत नही होता कि श्रीआनन्दघनजी किसी प्रकार के भ्रम में हो और उनकी बुद्धि कुण्ठित हो कर वास्तविकता को न समझ पा रही हो । तव परमात्मा के समक्ष इन गाथाओ में उन्होने जो कहा है-'इम अनेक वादी मतिविभ्रम संकट पडियो न Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्व की जिज्ञासा ४४१ लहे, इस बात के साथ कैसे सगति बैठेगी? इसका समाधान मेरी दृष्टि से यह है कि यहां जो कहा गया है, वह योगीश्री ने अपने लिए नहीं कहा है, ऐसा मालूम होता है । यह उन्होंने आम आध्यात्मजिज्ञासुओ और मुमुक्षुओ के लिए कहा है कि इस प्रकार अनेक अध्यात्मवादियो की आत्मा के सम्बन्ध मे पृथक पृथक् राय सुन कर बुद्धि चकरा जाती है, वह घपले मे पड जाती है। अनेक लोगो की परस्पर विरोधी एव अपनी अपनी युक्तियो की छटा से युक्त बातें मुन कर स्वाभाविक है कि आम (आदमी जिसका विविध दर्शनशास्त्रो का अध्ययन नहीं है, जो जैततत्वज्ञान से अनभिज्ञ है, सहमा सशय में पड जाता है कि यह मत सच्चा है या वह मत ? आज भी पाश्चात्य सस्कृति या कामभोगोत्तेजक विचारधारा सुन कर व डे-बडे प्रभावित हो जाते हैं, वैसे भोगपरायण किन्तु भगवान्, पैगम्बर आदि पदो से विभूषित तथाकथित वाक्पटु लोगो की लच्छेदार और झटपट गले उतर जाने वाली युक्तियो, हेतुओ, दृष्टान्तो तथा डम्बरो को देख कर वे हतप्रभ हो जाते हैं। हजारो-लाखो लोगो की भीड देख कर वे सोचने लगते हैं- इतने लोग इनकी बात सुनते हैं, तो क्या ये सब बुद्ध है ? इस प्रकार उनकी बुद्धि झटपट डावाडोल हो उठती है। उनके दिमाग मे तूफान खडा हो जाता है कि इतने बडे माने जाने वाले व्यक्ति की बातें मिथ्या या सब कुछ असत्य कसे हो सकती है ? जब तक उनके मन का प्रवल , युक्तियो से यथार्थ समाधान न कर दे, तब तक उन्हे शान्ति नही होती। और यथार्थ समाधान तो नि स्पृह, निष्पक्ष, वीतराग आप्तपुरुष ही कर सकता है। पहले कहा जा चुका है कि चाम्थ व्यक्ति चाहे कितने ही महान् पद पर हो, बाहर से क्तिना ही त्यागी कहलाता हो, उसके द्वारा बेलाग और वेराग कहा जाना कठिन है । इसीलिए आनन्दघनजी ने अपनी नम्रता प्रदर्शित करने के साय साथ जगत् के नाम साधको को प्रात्मतत्त्व की सच्ची राह मालूम कराने हेतु अथवा सर्वसाधारण को बुद्धि को ऐसे वाक्पटु लोगो के जाल से निकालने के लिए वीतराग परमात्मा से यथार्थ आत्मतत्व कौन-सा है ? पूर्वोक्त दर्शनो की वातो मे सचाई कितनी है ? यह जिज्ञासा पुन प्रकट की है और यह भी प्रकट कर दिया है कि आपके (वीतराग) के मिवाय आत्मतत्व का यथार्थ ज्ञान कोई नहीं कह सकता । इसका कारण भी पुन उन्होंने दोहगया है कि यथार्थ मात्मतत्व जाने विना चित्तसमाधि मन शान्ति) प्राप्त नहीं हो सकती। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ अध्यात्म-दर्शन मुमुक्षु एवं आत्मार्थी नाधक की मन शन्ति जहाँ तक नहीं होनी, वहाँ तक वह शुद्धात्मस्वरूप में रमणता, या परमात्मा मे तन्मयता कर नहीं सकता। इसलिए श्रीआन दघनजी ने अपनी और नमस्त मुमुक्ष माधको की मन शान्ति के लिए यह जिज्ञासा न्यायोचित ही प्रस्तुत की है । जैनदर्शन के अनुसार यथार्थ आत्मतत्व कौन-सा और कैसा है ? वह कैसे प्राप्त हो सकता हैं ? यह अगली गाथाओ मे पढिए-- वलतुजगगुरु इणि परे :खे, पक्षपात सब छडी। राग-द्वोष-मोह-पखजित, आतपशु रढ मडो ॥श्री मु०॥ आत्मध्यान करे जे कोऊ, सो फिर इण मे ना 5 वे। वाग्जाल वीजु सहु जाणे,' एह तन्द चित्त' चावे ॥श्री म०६॥ जेणे विवेक घरी ए पख नहियो, ते तत(त्व)ज्ञानी कहिये। श्रीमनिसुनत कृपा करो तो, ' आनन्दघन-पद लहिये ।।श्री म०॥१०॥ अर्थ पूर्वोक्त प्रश्न के उत्तर मे जगद्गुरु वीतराग प्रभु इस प्रकार(निम्नलिखित रूप मे) कहते हैं -नब कार का पक्षपान 'एक मत का एकान्त आग्रह) छोड कर गा [मनोऽनुल इप्ट अनात्मपदार्थ के प्रति मोह-आसक्ति]-प मन के प्रतिकूल अनिष्ट अनात्मपदार्य के प्रति घृणा या अरुचि) मोह (ममत्व के कारण होने वाला उत्कट राग) तथा सभी प्रकार के पक्षपात से रहित जो अनन्तगुणमय आत्मा है, यो विचार करके उसके साथ दृढतापूर्वक एकाग्र हो जाओ, जुट जाओ ॥ ८॥ जो कोई साधक उस आत्मा का निर्विकल्प-समाधिरूप-द्रव्याथिक दृष्टि से ध्यान करता है, वह तिर राग-वृष, मोह, पक्षपात आदि के चक्कर मे नहीं १. जाणे' के बदले किमी-किसी प्रति मे 'जाणो' है, तथा 'चावे' के बदले 'लावे पद भी है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४४३ आएगा, वास्तव मे वह आत्ममय बन जाएगा। इससे सिवाय और जो भी वर्णन है, अलग-अलग विचा' है, वह सब वाग्जाल है, वाणीविलास है । मन या आत्मा मे इसी तत्त्व का वार-बार मनन-चिन्तन करे, यही वात हृदय मे भलोमांति जमा ले, इसी मे तन्मय हो जाय III जिसने सत्यासत्य का विवेक करके ऊपर बताए हुए पक्ष (मार्ग या अभिप्राय) का ग्रहण स्वीकार) कर लिया. उसे ही वास्तविक तत्वज्ञानी कहना चाहिए हे मुनि सुर्वतनाथ | आप कृपा करें तो हम [इस आत्मतत्त्व को आपके वतार अनुसार समझ कर ) आनन्दधन [सच्चिदानन्दमय] पद (मोक्षस्थान) प्राप्त कर सकते हैं। भाव्य वीतरागप्रभु का उत्तर यो तो वीतरागप्रभु नि स्पृह और निर्लेप में, वे किसी के प्रश्न का सीधा उत्तर दें, यह वस्तु उनके तीर्य करकाल में तो सम्भव हो सकती है, लेकिन सिद्धत्वकाल मे नही । अत श्रीआनन्दघनजी वीतरागद्वारा प्ररूपित शास्त्री पर से आत्मतत्त्व के विषय मे जो स्फुरणा हई, उसे उन्ही का उत्तर समझ कर उन्ही के श्रीमुख से उत्तर दिलाते हैं, इसमे उनकी नम्रता, समर्पणवृत्ति और जिज्ञामावुद्धिं परिलक्षित होती है। भगवान् वीतराग होने से सब प्रकार का , पक्षपात छोड कर विना किसी लागलपेट, मुलाहिजे अथवा किसी एक ओर ' सुकाव के सबकी समझ मे आ सके, इस प्रकार (वीतराग-मुनिसुव्रतप्रभु) उत्तर देते हैं-भव्य जिज्ञासु | वेदान्त, साख्य, वौद्ध और नास्तिक आदि मभी एकान्तवादियो के पक्ष को छोड कर, साथ ही अपने अन्दर रहे हुए राग, द्वप, मोह (स्वत्वमोह, कालमोह) का त्याग कर अयवा राग-द्वेष-मोह-पक्षरहित शुद्ध (निर्दोष) निजात्मस्वरूप मे तल्लीन (तन्मय) हो कर तीव्रता से जुट जाने से चित्तसमाधि अवश्य प्राप्त होगी । अर्थात् राग-द्वेष-मोह-पक्ष-जनित कर्मपुद्गलो से रहित आत्मस्वरूप मे पूर्ण प्रीति करना आवश्यक है। इसका एक स्पष्ट अर्थ यह भी है कि आत्मा के अनुजीवी गुणो-ज्ञान -दर्शन-चारित्र मे लीन हो जाना चाहिए। यथार्थ आत्मतत्वज्ञान के लिए राग द्वेष-मोह-पक्ष का त्याग जल्री सच्चा आत्मतत्त्वज्ञान कुछ त्याग की अपेक्षा रखता है । वह योवन पोथियो, Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ अध्यात्म-दर्शन अन्यो, शास्त्रो या गुरुओ मे नही हो पाता । उसका कारण यह है कि पोथियां, ग्र थ या शास्त्र अपने आप मे मूक होते हैं, वे किसी को वोल कर कुछ नहीं कहते, परन्तु अपनी निमल प्रजा, जिज्ञासा एव सरलबुद्धि ही सत्यासत्य का निर्णय कर सकती है । जव बुद्धि पर राग, द्वेष, मोह, पक्षपात, स्वार्थ या लोभ का पर्दा पड़ा रहता है, तब तक तत्त्व का सही निर्णय नहीं हो सकता । जैसे वंद्य द्वारा रोगी को रसायण दिये जाने से पहले उसकी मलशुद्धि की जानी भावश्यक होती है, वैसे ही शुद्ध यात्मतत्त्व को जानने के लिए आत्मा, मन एव बुद्धि पर लगे हुए विभिन्न आवरणो-मलो को दूर करना आवश्यक है। आत्मा मे (मन, बुद्धि एव हृदय मे) जब तक गग का जोर रहता है, तब तक व्यक्ति निष्पक्ष निर्णय नहीं कर पाता । राग के कारण वह हर वस्तु पर अपनेपन की या अपने पुरानेपन की छाग लगाने लगता है, अपनेपन मे ममत्त्व, मेरेपन, महत्त्व, अहकार, अपनी जाति आदि का मद, स्वार्य आदि गर्मित होते है । अत उसके कारण बडे बडे साधक यथार्थ तत्त्वनिर्णय नही कर पाते। यह राग की ही कृपा है कि जामाली जैसे उच्च साधक ने अपने मत की अलग प्ररूपणा करके आवेश मे आ कर स्वमत की स्थापना की। यही हाल गोशालक आदि का था । आत्मतत्त्वज्ञान मे दूसरा बडा बाधक कारण द्वेष है। जब व्यक्ति को किसी अमनोन या अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के प्रति एकान्तरूप में घृणा उपेक्षा, उदासीनता या रूखापन अथवा अरुचि हो जाती है अथवा किसी व्यक्ति या सस्या के प्रति ईर्ष्या या पूर्वाग्रह हो जाता है. तो वह उमके प्रति बेरूखी या हे पदृष्टि रखने लगता है, और नहीं तो उसकी तरक्की देख कर तेज प पैदा होता है। इसलिए द्वेष भी आत्मतत्त्व के जानने मे विघ्न है। तीसग वाधक कारण है- मोह । मोहमोहित, मानव कल्याण-अकल्याण भले. बुरे या कर्तव्यावर्तव्य का भाव नहीं कर सकता । वह मोहवश बुराई को भी अच्छाई मानता है, जहर को भी अमृत मानता है, कुरूढि को भी सुरुढिब, अनिष्ट को ईष्ट मानने लगता है । जमे आँन्त्र मे रतोधी हो जाने पर सब चीजें लाल लाल या रगीन दिखाई देती है। वैसे ही आत्मा पर मोह का रोग लग जाता है, उसे आत्मा के विषय मे सीधी और सच्ची वात उलटी लगती है, दुखकारी परिग्रह उसे सुखकारी लगता है, विषयो की आसक्ति, जो दुखकारक है, वह सुखदायक-सी लगती है, कपायो का शत्र ताभरा स्वभाव उसे मंत्री-पूर्ण लगता Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४४५ है। इसलिए आत्मतत्व के जिनासु को मोह से दूर ही रहना चाहिए । पक्षपात भी मोह का ही एक प्रकार है। पानी मे मुह तभी दिखाई दे सकता है, जब वह शान्त हो, चंचल न हो, गदा न हो, मटमला न हो, स्वच्छ हो, स्थिर हो। इसी प्रकार उसी आत्मारूपी दर्पण पर आत्मस्वरूप का यथार्थ चित्र दिख सकता है, जो स्वच्छ हो , मोह, राग द्वेप आदि से मलिन, चचल या पूर्वाग्रह से रहित हो । यही कारण है कि प्रभु ने अपने उत्तर में सीधी-बात कह दी है--जिसे ययार्थ आत्मतत्त्व का ज्ञान करना हो, उसे किसी भी एकान्तवाद का पक्ष नही लेना चाहिए, साथ ही राग, द्वेष, मोह मादि से रहित हो कर निप्पक्षभाव से आत्मस्वरूपरमण मे जुट जाना जाहिए। शास्त्रो, विकल्पों, पक्षों, मतो आदि से इन्कार प्रश्न होता है कि वीतरागप्रभु पक्षो एव राग-द्वेष-मोह आदि को छोडने का कहते हैं, लेकिन अब तक जिन सस्कारो मे पले-पुसे है. जिस सम्प्रदाय से शिक्षा-दीक्षा पाई है, पहले से जिस मत, पथ आदि को स्वीकार कर रखा है, जो विकल्प अब तक सुन-पमझ रखे हैं, उन्हे कहाँ फैक दे ? उन्हे कैसे दफना दें? उन्हे फैके या दफनाए विना तो शुद्ध आत्मा का ज्ञान नहीं होगा, यह तो भारी धर्मसकट आ पडा है, जगद्गुरो। इसका कोई अनुकूल समाधान दीजिए, जिससे मेरे चित्त मे समाधि हो ।" इसका समाधान भगवान् यो करते हैं-आतमध्यान करे जो कोऊ, सो फिर इण मे नावे । वात यह है कि सम्प्रदाय मत, पथ आदि के पूर्वसस्कार या लगाव वैसे तो छूट नही सकता , कोरी बाते करने से या थोयी डीग हाँकने से ये सब नही छूट सकते । इनके छोडने का सी.मा और सच्चा उपाय यही है कि आत्मा को ध्येय बना कर जो व्यक्ति उसी का ध्यान करता है, उसी मे तल्लीन हो जाता है. वाद्य व्यवहारो के समय निखालिस आत्मस्वरूप का ही चिन्तन करने - लगता है, और यो करते-करते जब उसका अभ्याग इतना प्रवल हो जाता है कि आत्मा के सिवाय दूसरी ओर मन-वचन, काया जाते ही नहीं, तब वह फिर राग, द्वेष, मोह आदि के चक्कर में नहीं आएगा । यह स्वाभाविक है कि जव व्यक्ति निखालिस आत्मा की ओर ध्यान देगा तो अपने-आप ही राग-द्वेषादि की ओर से उसकी वृत्ति विमुख हो जायगी। और राग-द्वेपादि को जब मुंह Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] अध्याता-दर्शन नही लगाया जायगा, उनके प्रति उपेक्षाभाव रखा जाएगा, तो वे स्वयमेव उपेक्षित हो कर चले जाएं गा । अब दूसरा एक सवाल यह खडा होता है कि साज, वेदान्त आदि दर्शन जो अपनी-अपनी ओर से वजनदार युक्तियां तक और हेतु दे कर आत्मतत्त्व के विषय में अपना-अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं, क्या राग-द्वे परहित हो कर ममभावपूर्वक उनकी बात को भी यथार्थ मान ली जाए ? इसके उत्तर में प्रभु रहते है - राग परहित होने का अर्थ यह नही है कि विवेक छोड़ दिया जाय और सबकी जीहजूरी की जाय, गगा गए गगादाम और यमुना गए यमुनादास' की तरह सव की हां मे हाँ मिलाई जाए। इसके लिए तो वे साफ कहते हैं-"जेणे विवेक धरी ए पख ग्रहियो, ते 'तत्वज्ञानी फहिए" अर्थात् जो अपने विवेक की आँखे खुली रख कर मेरे (परमात्मा के) बताए हुए इस विचार-परामर्श को ग्रहण करेगा और तदनुसार चलेगा, वही असल मे तत्त्वज्ञानी कहलाएगा) बाकी तो जो समता या वीतरागता की लबी-चौडी बातें करके प्रसिद्धि के चक्कर में पड़े हुए हैं, जिनका मकसद अपनी नामवरी करने के लिए दुनिया की आंखो मे धूल झोंकना है, वे लोग नकली या फसली तत्वज्ञानी हैं। उनसे बहुत ही सावधान रहना चाहिए। रही बात उनके द्वारा प्रतिपादित मन्तव्यो को मानने की, सो हमने पहले ही कह दिया है कि जितने भी एकान्तवादी, मिथ्यानही या कोरी आत्मा की बातें बघारने वाले हैं, उनका पिंड छोडो, उनके चगुल मे मत फसो । उनके मत-पक्ष के घेरे में फंसने से कोई लाभ नहीं है, सिवाय वौद्धिक व्यायाम या वहमवाजी के कुछ भी पल्ले पड़ने वाला नहीं है । साथ ही प्रभु ने एक बात और स्पष्ट कर दी है कि जिसे आत्मतत्त्व को पाना है, उसे दुनियादारो या मत-पक्षवालो की वा ५ वाग्-जाल और चित्तभ्रम का कारण समझनी चाहिए। उनके शब्दजाल मे कतई नही फसना चाहिए। केवल आत्मतत्त्व के ध्यान मे डूब जाओ इससे यह फलित होता है कि जो व्यक्ति आत्मतत्त्व के ध्यान मे-लीन हो जाता है, उसे फिर लम्बे चौडे शास्त्रज्ञान की, पैनी बुद्धि करके तर्क-वितर्क १ ‘शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमगकारणम्'-~-शकराचार्य Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४४७ प्रस्तुत करने की, या बहस-मुवाहिसे की, अथवा किसी सम्प्रदाय, मत, पथ, पक्ष, 'या परम्परा का आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं । उसे इन सवको गौण करके केवल आत्मा के विपय मे चिन्तन-मनन-निदिध्यासन करना चाहिए । फिर यह स्वाभाविक है कि जब उस महाभाग का ध्यान मुख्यतया आत्मतत्त्व की ओर ही होगा तो धन-सम्पत्ति, व्यापार-व्यवसाय, कुटुम्व- परिजन, मित्र, पुत्र, पत्नी, माता, भगिनी, घर, ग्राम, देश, शरीर, अहता-~ममता, मोह, स्वार्थ 'मिथ्यात्व, राग,द्वेप, किसी सम्प्रदाय-मत-पक्ष का पक्षपात, वादविवाद शास्त्रचर्चा, व्यवहारदृष्टि-ज्ञान-चाग्नि, क्रियाकाड, या दुनियादारी की. 'चेलाचेली की या पथ बढाने की सब बातें गौण हो जाएगी। वह आत्मा के ध्यान में ही तल्लीन हो कर गुण-पर्यायो के भेदो को गौण करके एक आत्मा का ही निश्चयदृष्टि से ध्यान करेगा। निश्चयनय (द्रव्याथिक) दृष्टि से आत्मा ही एक तत्त्व है, उसी तत्त्व में चित्त को तन्मय बना लेगा, इसके सिवाय सब वाणीविलास है, शब्दजालवत् हैं, शब्दादि का जाल है ।। निष्कर्ष यह है कि यथार्थ आत्मतत्व को पहिचान के लिए तीन शर्ते हैंउसमें ही [१] राग, द्वेप, मोह और पक्ष का त्याग करना, [२] आत्मा का , ध्यान करना, उसमें ही एकाग्र हो जाना, [३] एक बार रागद्वेपादि का कर्म छोडने के बाद ससार मे कभी लौट कर न आना। __ परमात्मा की कृपा : साधक के लिए महालाभ श्रीआनन्दघन जी ने परमात्मा से आत्मतत्व प्राप्त करने की जिज्ञासा का समाधान पा कर अपने को धन्य और कृतकृत्य समझा। और अपनी नम्रता पूर्वक प्रार्थना भगवच्चरणो में की है-श्रीमुनिसुव्रत | कृपा करो तो, आनन्दघनपद लहीए' । परमात्मा की कृपायाचना भक्ति की भाषा में सीधी प्रार्थना है, इसका तात्पर्यार्थ यह है कि आप मेरे आत्मविकास में परमावलम्बन वन कर प्रवल निमित्त बन जायँ तो मैं आपकी आत्मा के साथ (पूर्वगाथा में कहे अनुसार) अभिन्नभाव से रहूँ। अगर मुझे अपनी आत्मा में स्थिर होने की शक्ति' मिल जाय तो अवश्य ही आनन्दमय शुद्धस्वरूप- वाला शुद्धात्मपद परमात्मपद प्राप्त हो जाय। फिर मैं ऐसे सचिवदानन्दपद में प्रविष्ट हो जाऊँगा कि वहां से फिर लौट कर जन्म-मरण के चक्र में नही आना पडेगा। । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ अध्यात्म-दर्शन सारांश इस स्तुति मे योगीश्री ने सर्वप्रथम प्रभु के सामने जात्मतत्त्व की जिज्ञासा प्रस्तुत की है, प्रभु से इस जिज्ञासा के समाधान का कारण भी उन्होंने बताया है। फिर वेदान्त, साख्य, अद्वैतनित्यवादी एव नास्तिक आदि दर्शनो के मन्तव्य प्रस्तुत करके पुन: प्रभु के मामन अपनी उलझन रखी है। जिसका उत्तर प्रम ने निष्पक्षरूप से दिया कि राग द्वप-मोह आदि से दूर हा कर केवल आत्मतत्त्व मे डुबकी लगाओ, सभी वादविवादो को छोड कर एकमात्र वात्मध्यान मे लीन हो जाओ । अन्त में, धीआनन्दघनजी ने प्रभु से आत्मतत्त्व को पाने की कृपाप्रार्थना की जिस कृपा से सच्चिदानन्दमय शुद्धात्मस्वरूप मोक्षपद का लाभ प्राप्त होने की आशा भी प्रगट की है । N Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प २१ : श्रीनमिजिन-स्तुति-- वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक तर्ज- धन धन सम्प्रति राजा साचो, राग-आशावरी । षड्दर्शन जिन- अंग भरणीजे, न्यास षड्ग जो साधे रे। नर्मिजिनवरना चरण-उपासक, षड्दर्शन आराधे रे ॥षड़० १॥ अर्थ साख्य, योग, बौद्ध,मीमासक, लोकायतिक और जैन आदि ६ दर्शन जिन (वीतराग परमात्मा) के ६ अग हैं, बशर्ते कि छही अगो की स्थापना ठीक ढग से की जाय । जो नमिजिनवर (वीतरागप्रभु) के परम चरण-उपासक हैं, वे छही दर्शनो को ययार्य आराधना करते हैं । उन्हे सत्कारपूर्वक अपनाते हैं । भाष्य वीतराग-उपासक का दर्शन : उदारदृष्टिपूर्ण पूर्वस्तुति मे श्री आनन्दघनजी ने प्रभु से आत्मा के स्वरूप के विषय मे पछा था, उसमे आत्मा के सम्बन्ध मे विविध दार्शनिको के मत बता कर एकान्त मतवादियो के मत में क्या-क्या दोष हैं ? यह बताया था। उसी सिलसिले में एक प्रश्न गमित है फि तो फिर वीतराग-परमात्मा के उपासक का दर्शन कैसा होगा? आत्मा-परमात्मा, जीवन और जगत् के सम्बन्ध मे विचार करने वाले विविध दर्शनो के विषय मे उसका क्या दृष्टिकोण होगा? वीतराग परमात्मा के अनेकान्तवाद का उपासक अपनी दृष्टि से उन छहो दर्शनो मे से किसको कहां स्थान देगा? ये और इन्ही कुछ उठने वाले प्रश्नो के उत्तर मे श्रीआनन्दघनजी ने इक्कीसवें तीर्थकर श्रीनमिजिनवर की स्तुति के माध्यम से परमात्मा के चरण-उपासक के उदार विचारदर्शन को स्पष्ट किया है। साथ ही यहां यह भी ध्वनित कर दिया है कि वीतराग-परमात्मा का सच्चा चरण-उपासक कौन Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० अध्यात्म-दर्शन संमार मे विचार बहुत से लोग करते हैं, पर वे दीर्घदशिता तथा व्यापक दृष्टि से विचार नहीं करते, उनका विचार एकागी, एकपक्षीय होता है, अपने मत-पक्षकी चहारदीवारी मे सीमित होता है । ससार की प्रचलित विचारधाराओ की छानबीन करने में उनकी सत्यग्राही जिज्ञासा नही होती, इसी कारण उनमे मतमहिष्णुता, विचारसहिष्णुता तथा आचारसहिष्णुता नहीं होती, वे वात-बात मे झल्ला उठते हैं, सत्य की तह तक पहुँचने के लिए जो धैर्य, विवेक और अनेकान्तदृष्टि होनी चाहिए, उसकी उनमे कमी होती है । असल मे, जिसमें विशालप्टि, सहिष्णुता, दीर्घदर्शिता और युक्ति एव अनुभूति नहीं होती, वह भगवान् सत्य के चरणो का उपासक नहीं हो सकता । दर्शनविशुद्धि, चारित्रशुद्धि और ज्ञानशुद्धि का प्रथम अग है, उसके बिना कोई भी किया, जप,तप आदि सफल नहीं हो सकते। चूंकि सम्यग्दृष्टि होने पर उसकी दृष्टि मे जादू आ जाता है, वह जिस शास्त्र, मत, विचारधारा या आचारपद्धति को देखता है, उसे जनदृष्टि मे समाविष्ट करने और सत्याश को विनयपूर्वक अपनाने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इसीलिए नदीसूत्र मे कहा है-एमआइ चेव समदिट्ठिस्स समत्तपरिगहतेण सम्मसुयं, मिच्छादिविस्स मिच्छत्तपरिग्गहत्तण मिच्छासुयं ।' ये जो तथाकथित मिथ्याश्रुत मे परिगणित शास्त्र हैं, वे सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यग्रूप से ग्रहण करने के कारण सम्यक्श्रुत हैं और ये ही सम्पक श्रुत मे परिगणित शास्त्र मिथ्या दृष्टि के लिए मिथ्याशास्त्र हैं, क्योकि वह विपरीतरूप मे अपनाता है। वीतरागपरमात्मा का चरण-उपासक कौन, क्यों, कैसे ? यही कारण है कि श्री आनन्दघनजी ने वीतराग परमात्मा के चरणोपासक बनने के लिए इस स्तुति मे कुछ शर्ते प्रस्तुत की हैं , निम्नलिखित मुद्दो में आ जाती हैं१-विविध दर्शनो के सम्बन्ध मे सहिष्णुता और यथायोग्य स्थापना की दृष्टि हो। २-सवको अपने मे समाने की सम्यग्दृष्टि हो। ३- सत्याग्राही जिज्ञासा, धैर्य, विवेक, एव दीर्घदशिता हो । ४-वीतराग की सर्वांगीण आज्ञा का पालन ही सर्वांगसेवा हो । ५-जनदृष्टि मुख्यत अभेदवादी होने से आचारसहिष्णुता हो। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४५१ ६-तथाभव्यता की-सी महाकरुणा हो, ज्ञानादि के प्रति विनयभावना हो। जगत् मे सामान्यतया विविध मत, पथ, दर्शन या धर्मसम्प्रदाय के लोग अपने मतादि को मानने वाले को ही प्रभु का भक्त या भगवान् के चरणो का उपासक कह देते हैं । वे न तो उसकी विचारधारा की यथार्थ छानवीन करते हैं, और न ही उस तथाकथित प्रमुभक्त के आचरण की कोई कसौटी निर्धारित करते है। परन्तु जैनदर्शन मे वीतराग-परमात्मा का भक्त या चरणउपासक वशपरम्परा से, पैतृकपरम्परा से, अन्धभक्ति से, भगवान् की महिमा वढाने के लिए सिर्फ धन खर्च कर देने से, या किसी अमुक उच्च माने जाने वाले कूल, वश, जाति, धर्मसम्प्रदाय या राष्ट्र में पैदा होने से अथवा किसी सत्ता को हथिया लेने से या लौकिक पद को पा लेने मात्र से नही हो सकता । यहाँ तो सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही वीतराग के चरणसेवक, परमात्मा, उपासक या श्रावक के लिए सर्वप्रथम अनिवार्य माने जाते हैं। यहां तो किसी भी जाति कुल, वश आदि की परम्परा से नही, रत्नत्रय के आचरण से ही किसी को भक्त या उपासक माना गया है । हरिकेशीबल-मुनि जाति से चाण्डाल थे, धर्मपरम्परा से भी शायद वे अपने पूर्वजीवन - गृहस्थाश्रम मे जैनधर्म परम्परा के नहीं रहे, किन्तु उनका दर्शन, ज्ञान और चारित्र उज्ज्वल था, अर्जुनमालाकार का पूर्वजीवन भी हिंसक बना हुआ था, न वह जातिपरम्परा से जैन था, लेकिन अपने जीवन मे उसने रत्नत्रय को अपनाया और क्षमाशील बन कर अपूर्व श्रद्धा के साथ चारित्रपालन किया, पिसके कारण वीतराग तीर्थंकर महावीर का वह परमउपासक साधु बना। लेकिन कोणिक सम्राट जैसे व्यक्ति सत्ता, जाति, कुल परम्परा या अन्धभक्तिवश भगवान् वीतराग का भक्त बनने चले, वे सच्चे माने में प्रभुभक्त बनने मे सफल न हुए। इसी प्रकार जिन्होंने ने अपने अहत्व और ममत्व (मेरा धर्म, मेरे भगवान्, मेरा पथ आदि) की दृष्टि से भगवान् का आश्रय लिया, अपने पापो पर पर्दा डालने या अपनी नामबरी या प्रसिद्धि के लिए अथवा जनता में अपनी धाक जमाने के लिए वीतराग प्रभु के नाम और स्यूल चरण को पकडा, वे भी यहां सफल न हो सके। सफल वे ही हुए, जिन्होने सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यक् धर्माचरण (चारित्रपालन) के लिए अपने को तैयार किया , ऐसे महानुभाव चाहे जिस Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ अध्यात्म-दर्शन देश, वेप, जाति, कुन, धर्म-सम्प्रदाय या दर्शन के रहे हो, वे गृहस्थाश्रम में रहे हो, वे स्त्री हो, पुरुप हो, या चाहे नपुंसक, उन्होने अपने आप वोध प्राप्त किया हो, या वे किसी की प्रेरणा से प्रतिबुद्ध हुए हो, जैनदर्शन ने उन सत्य के पुजारियो को कभी पराये नहीं माने और न उन्हे प्रभु के भक्त, श्रावक, उपासक या साधु कहने से इन्कार किया है और न ही उनके मोक्ष (परमात्ममिलन), मुक्ति या कर्मबन्धन से छुटकारे की साधना पर कोई प्रतिवध लगाया है, न किसी प्रकार की अपने माने हुए तथाकथित नामो की ही पावदी लगाई है । यही कारण है कि जनदर्शन मे १५ प्रकार मे से किसी भी प्रकार से मुक्त (परमात्मा) होने को मुक्त माना है, जबकि दूसरे दर्शनो में अपने माने जाने वाले धर्नसम्प्रदाय, भगवान् या प्रवर्तक (मसीहा या पैगम्बर) के मानने वालो या अमुक जाति, कुल या वेप वालो को ही मुक्त, परमात्मभक्त, या साधक माना है, दूसरो को नही । इसलिए थीआनन्दघनजी ने परमात्मा के चरणउपासक की सर्व-प्रथम कसौटी यह बताई है कि परमात्मा-वीतराग के चरण उपासक की दृष्टि इतनी व्यापक, सत्यग्राही, उदार और सहिष्णु हो कि वह रही दर्शनो को वीतराग (परमसत्य) प्रभु के अग माने, कहे और उनका समायोजन या स्थापन इतने सुन्दर ढग से करे कि सबको यथायोग्य स्थान मिल जाय, सवको जिनवर के दर्शन मे समाविष्ट कर सके । कोई भी दर्शन उसके लिए पराया न रहे । और ऐसा तभी हो सकता है, जब मनुष्य अनेकान्त की केवल बातें न करे, अपितु अनेकान्त को जीवन मे आचरित करके बताए। बहुधा ऐसा होता है कि जैन और वीतरागभक्त कहलाने वाले तथाकथित आचाय, धर्मोपदेशक, मुनिपु गव, श्रमणोपासक या जिनभक्त जनता के सामने तो समता और अनेकान्त की वही-बडी बाते करेंगे, किन्तु जहाँ आचरण का प्रश्न आएगा, वहाँ वे पीछे हट जाएंगे, वहाँ वे बगलें झाकने लगेंगे और कहेंगेअपना अपना है, पराया पराया है। जरा से विचारभेद के कारण दूसरे को मिथ्याष्टि, नास्तिक या न जाने क्या क्या घृणासूचक शब्दो से पुकारेंगे, वहां उनका ममतादर्शन या अनेकान्त-दशन छूमतर हो जाएगा। इतना ही नहीं, बल्कि तथाकथित सम्यग्दृष्टि जिनभक्त अदर ही अदर अपने भक्तो या अनुयायियो मे जरा-सी विचार-आचारभिन्नता को ले कर चलने वालो की निन्दा, झूठी आलोचना और व्यर्थ छीछालेदर मे घटो बिता देंगे, अपने समत्व को, Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग-परमात्मा के चरण-उपासक ४५३ मानसिक सन्तुलन को, अपने सम्यग्दर्शन की व्यापक सर्वभूतात्मदृष्टि को ताक मे रख कर जैनधर्म और दर्शन की मिट्टी पलीद करने लगेंगे । इसी कारण वीतराग के चरण-उपासक की कसौटी में योगी श्रीआनन्दघनजी की अनुभूति के स्वर फूट पड़े-पडदर्शनजिन-अंग भणीजे, न्यास षडग जे साधे रे, नमिजिनवरना चरण-उपासक पड्दर्शन आराधे रे ।" तात्पर्य यह है कि इस गाया मे वीतराग-चरण-उपासक की सभी कसौटियां आ जाती है। ___कई तथाकथित जिन भक्त यह तर्क प्रस्तुत किया करते हैं कि ऐसा करने से तो गुड-गोवर सब एक हो जाएगा, कहाँ वीतराग का शासन, धर्म या दर्शन और कहाँ ये क्षुद्राशय मत या दर्शन ! इन सबको एक ही पलडे मे रखना कैसे ठीक रहेगा ? क्या वीतरागभक्त, या सम्यग्दृष्टि के लिए अपना-पराया कुछ नही रहेगा? फिर दूसरी युक्ति यह देते हैं कि इन एकागी और एकान्तवादी मतो या दर्शनों को हम सच्चे दर्शन या वीतराग के अंग कैसे कह सकते हैं ? कदाचित् हम ऐसा कह भी दें तो वे लोग (विभिन्न दर्शनो के अनुयायी या मानने वाले लोग) तो अपने ही धर्म-सम्प्रदाय, मत-पथ या दर्शन को सच्चा और अन्य सवको झूठे मानते हैं, ऐसी दशा मे हम उन्हे जिनवर के अग कैसे कह दे ? कैसे उन्हें अपने दर्शन की तरह मान लें ? इसका समाधान यो किया जा सकता है, जिसे इस स्तुति मे आगे श्रीआनन्दघन जी ने स्पष्टरूप से द्योतित भी किया है कि वीतराग परमात्मा का उपासक सकीर्ण, राग-द्वेषवर्द्धक, ममत्ववर्द्धक दृष्टि का नहीं हो सकता। वह अपना सो सच्चा, इस सिद्धान्त के बदले 'सच्चा सो अपना' इस सिद्धान्त का हिमायती होगा । और इस सिद्धान्त की दृष्टि से वह सत्यग्राही होगा, जिज्ञासु होगा, नम्र होगा, जहां-जहां सत्य (सम्यग्ज्ञान) मिलता होगा, बिना किसी सकोच के छही दर्शनो मे जो सत्य निहित है, उसे नम्र बन कर अपनाएगा, उसकी दृष्टि अनेकान्त की स्पष्ट, उदार, व्यापक, सर्वा गी और सबको अपने में समाने की होगी। उसमे विचार-आचारसहिष्णुता होगी। जव ३६३ पाषण्ड-मतो का का समन्वय जैनधर्म और जैनदर्शन में किया गया है, तब इन छह दर्शनो का का समावेश करना, समन्वय करना कौन-सी बडी बात है ? परन्तु वीतरागप्रभु का चरण-उपासक सबकी जी-हजूरी करने वाला, सवकी हां मे हां Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ अध्यात्म-दर्शन मिलाने वाला, अविवेकी नहीं होगा, वह सबको विविध नयो की दृष्टि मे अपना-अपना उचित स्थान मिले, सबको न्याय मिले, किसी एक के प्रति या अपने माने जाने वाले के ही प्रति पक्षपात न हो, यही समता का यथार्थ अर्य मानना है। इस दृष्टि से समता का अर्थ सवको एक सरीखा मानना और सबकी एक ही दृष्टि समझना, गलत है। ऐसा होना भी असम्भव है । यही कारण है कि तीर्थकरो ने १५ प्रकार से सिद्ध (मुक्त) होने का जो निर्देग किया है , उसमें किसी के प्रति किसी प्रकार का पक्षपात नही किया, अपितु यथायोग्य न्याय दिया है, न कि सबको राजी रखने की नीति अपनाई है। उमी दृष्टिकोण से श्रीआनन्दघनजी नमिजिनवर (वीतराग के चरण-उपासक की दृष्टि, व्यवहार, आचरण और विचार को यहां पूर्णतया स्पष्ट कर देते हैं कि वह छही दर्शनी का आराधक (आदरपूर्वक अपनाने वाला) होगा, सभी दर्शनो को यथायोग्य स्थान पर स्थापित (न्यस्त) करेगा, और यही दर्शनो मे निहित सत्य के कारण उन्हें जिनवर के अग मानेगा । वही नमिजिनवर का चरण-उपासक होगा। ___ अव रहा सवाल, दूसरो के द्वारा अपने दर्शन के सिवाय अन्य सबको झूठे मानने और एकान्त एकपक्षीय मत वाले दर्शन को जिनवर के अग कहने का। हो सकता है कि दूसरे दर्शनो वाले ईर्ष्यावश या अन्य राग-द्वे पादि विकारवश अनेकान्तदृष्टि से हमारी तरह सब दर्शनो को न माने, न समन्वय फरे और एकान्तमत की ही प्ररूपणा करे, परन्तु वीतराग के चरणो का उपासक ऐसा नहीं कर सकता । यहां तो स्पष्ट आराधना-सूत्र बताया गया है-'उवसमसारं सु सामण्ण' श्रमणसस्कृति का सार कषायो [रागद्वे पो] का उपशमन [शान्त, करना है। दूसरा कोई उसकी वात सुने या न सुने, माने या न माने, सत्यवाही दृष्टि वाला अपनी अनेकान्त और नयप्रधान दृष्टि से सवको उचित स्थान देगा, वह दूसरे दर्शनो की देखादेखी अपने मत को ही सच्चा और दूसरे सव मतो को झूठा कहने का पक्षपातपूर्ण, राग-द्वपयूक्त रवैया नही अपनाएगा। जैसे कल्पसूत्र के आज्ञाराधना सूत्र में बताया गया कि दो व्यक्तियो मे परस्पर विवाद, कलह या मनमुटाव खडा हो गया है, तो उनमे से जो माराधक होगा, वह सामने चला कर दूसरे से क्षमायाचना करके, उसका मन समाधान करने का प्रयत्न करेगा, यदि दूसरा व्यक्ति उसके द्वारा की गई क्षमायाचना को स्वीकार नही करता, बात सुनी-अनसुनी कर देता है, तो आराधक को इस बात का ख्याल नही करना चाहिए, उसे अपनी ओर से उपशमन कर लेना चाहिए। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग-परमात्मा के चरण-उपासक ४५५ यही वात वैचारिक क्षेत्र मे वीतराग के चरण-उपासक के लिए समझ लेनी चाहिए। उसे अपनी दृष्टि से प्रत्येक दर्शन के सत्याश को कथचित् रूप मे अमुक नय की दृष्टि से ग्रहण करके उसे यथायोग्य स्थान देना चाहिए, दूसरे चाहे उस रूप में माने या न मानें । सत्यग्रहण करने के लिए वीतराग-उपासक को इतना नम्र, मृदु, और सरल होना चाहिए कि वह चाहे जहां से भी सत्य, मिलता हो, ग्रहण कर ले। भगवती सूत्र आदि आगमो मे अनेक विचारधाराओ एव आचारधाराओ का समन्वय किया गया है. जो वीतरागदर्शन की परम उदारता का सूचक है। यहां भी श्रीआनन्दधनजी ने जैनदर्शन के सिवाय छही दर्शन को वीतराग परमात्मा के अग बता कर यह भी सूचित कर दिया है कि ये समय-पुरुष के अग है। जैसे दो हाथ, दो पर, पेट और मस्तक ये शरीर के ६ अग हैं. वैसे ही छह दर्शन जिनवर के एक-एक अग हैं। जैसे शरीर के इन अगो मे से कोई भी अग काटने पर प्राणी अपाहिज कहलाता है, वैसे ही ६ दर्शनो मे से किसी भी दर्शन को काट डालना-खण्डन करना जिनवर के अग को काटना है । यह यह दुर्भवी का लक्षण है । मुख्यतः दर्शन ये हैं-बौद्ध, नैयायिक, साख्य, वेदात लोकायतिक [चार्वाक ] और जन । इन छही दर्शनो मे से प्रत्येक के मुद्दो को भलीभांति समझ कर उनकी किसी प्रकार की निन्दा, खोटी आलोचना, या व्यर्थ की टीका-टिप्पणी न करना। जितने अशो मे जिस दर्शन ने सत्य की प्ररूपणा की है, उतने अश मे उसे अपना कर उसे उचित स्थान देना । बल्कि वाणी से भी यह प्रगट करना कि ६ दर्शन वीतरागप्रभु के पृथक्-पृथक् अग हैं, और अमुक अग के रूप मे ही उपयोगी हैं, उसे उतने अश सत्य के रूप मे उपयोगी समझ कर उसकी यथायोग्य स्थान पर स्थापना करना और उसे अपनाना उचित है। किन्तु द्वेष-घृणावश अन्य दर्शनो की खोटी आलोचना करना, अथवा उनका खण्डन करना अनुचित है। सत्य दो प्रकार के हैंसर्वसत्य और दृष्टिविन्दुसत्य । जनेतर दर्शनो मे सर्वसत्य नही है, परन्तु दृष्टिविन्दु तक तो वे सच्चे हैं ही, ऐसा मानने में व्यवहारदक्षता है।, वीतरागप्रभु का चरणसेवक इस प्रकार पड्दर्शन को स्वीकार करता है । वीतरागप्रभु की भी परमकारुणिकता है कि वे ६ ही नही, दुनिया की तमाम विचार Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन धाराओ को अपने दर्शन मे समाविष्ट कर लेते हैं । साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि छही दर्शनो की आराधना करने में वीतराग के चरणसेवको (जैनो) को कोई हर्ज नहीं है । इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि नंगमादि सात नयो मे से दूसरे नयो की अपेक्षा रख कर एक नय से कपन करने वाला जैनदर्शन का आराधक है। इसके विपरीत ७ नयो में से सिर्फ एक नय पर आग्रह रख कर अन्य नयो के प्रति उपेक्षादृष्टि रखना, जिनाना से विरुद्ध है। अत. अगली गाथामो मे श्रीआनन्दघनजी यह विवेक बताते हैं, जिनप्रवचनतत्त्वज्ञान के षड्दर्शनरूप मगो में से किस दर्शन का क्सि अवयव पर किस नय की दृष्टि से न्यास [स्थापन] करना चाहिए , जिनसुरपादप पाय बखायो, सांख्य-योग दोय भेदे रे । आतमसत्ता विवरण करतां, लहो दुग अंग अखेदे रे॥ षड्०॥२॥ अर्थ राग-द्वेषविजेता वीतराग परमात्मारूपी या जनदर्शन के समयपुरुषरूपी कल्पवृक्षके दो मूल अथवा वीतराग परमात्मा के कल्पवृक्ष-समान दो पैर के तुल्य सांख्यदर्शन और योगदर्शन इन दोनों को कहना चाहिए । ये दोनो आत्मा की सत्ता [मात्मा के अस्तित्व का विवरण [ब्योरा= विवेचन] करते हैं। इसलिए इन दोनो की जोड़ी को बिना किसी खेद या सकोघ के जिनमत या जिनभगवान के दो अंग(दो पैर) समझो अथवा स्वीकार कर लो। भाष्य जिन-कल्पवृक्ष के दो मूल अथवा दो पैर 'जिन-सुर पादप पाय' पद के दो अर्थ निकलते हैं-एक तो यह कि जिनेश्वररूपी कल्पवृक्ष दो पैर (मूल) और दूसरा अर्थ यह होता है कि जिन-वीत राग के कल्पवृक्षल्प दो पर । कल्पवृक्ष का दोनो के साथ सम्बन्ध है। कल्पवृक्ष वह दिव्यतरु होता है, जिसके नीचे बैठ कर मनोवाछित पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है। जिनभगवान् कल्पवृक्ष के समान हैं, उनमे सभी दर्शनो का अस्तित्व है, अथवा जिन शब्द से यहां उपलक्षण से जिनेश्वर का - अनेकान्त Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४५७ दृष्टियुक्त तत्त्वज्ञान =समयपुरुष अर्थ गृहीत करने पर भी यह अर्थ घटित हो सकता है जिनतत्त्व ज्ञान अनरूप या समयपुरुषरूप इस कल्पवृक्ष मे समस्त प्रमाणो और नयो का समावेश है, सभी द्रव्यो या पदार्थों का सामान्य-विशेषरूप से द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुसार वर्णन समाविष्ट है, क्योकि सभी प्रमाणो और नयों से इसमें आत्मादि तत्त्वो का विवेचन है, सभी पदार्थों का सामान्य, विशेष आदि समी दृष्टियो से कथन है, इसलिए कल्पवृक्ष की तरह यह समस्त पदार्थों के अस्तित्त्व का भडार है। इस दृष्टि से इसे कल्पवृक्ष कहने मे कोई मत्युक्ति नही है। वृक्ष का सर्वश्रेष्ठ या सर्वोपरि आधार मूल [पर होता है । मूल न हो तो कोई भी वृक्ष टिक नही सकता। मून से रहित वृक्ष एक ही हवा के झोके से धराशायी हो जाता है। मगर मूल हो तो ऊपर के पत्ते आदि झड जाते हैं या डालियां काट ली जाती हैं, तो भी एक दिन वह वृक्ष फलदाता बन जाता है। अतः यहाँ मूलभूत वस्तु आत्मा को दोनो दर्शन मानते हैं, दोनो दर्शनो के आत्मवादी होने से दोनो को जिनतत्त्वज्ञान या वीतरागरूपी कल्पवृक्ष के दो मूल उचित ही कहा है। समस्त दर्शनो का मूल आधार आत्मा है, और आत्मा के अस्तित्त्व को माने विना ये दोनो दर्शन आगे नहीं चलते। इस कारण जिनतत्त्वज्ञानरूपी कल्पवृक्ष को स्थायी और मजबूत रखने के लिए दोनो दर्शन वक्ष के मूल की तरह खडे हैं। दूसरे अर्थ की दृष्टि से सोचें तो साख्यदर्शन और योगदर्शन को वीतराग [जनतत्त्वज्ञान या समयपुरुष के कल्पवृक्ष के समान दो पैर कहे हैं। वीत. राग के तत्त्व-ज्ञान को मजबूती से टिकाए रखने के लिए साख्य और योग दोनों दो पैर का काम देते हैं। मनुष्य के पैर हो तो वह स्थिरता एव मजबूती मे खड़ा रह सकता है, इसी प्रकार वीतराग [समय] पुरुष या वीतराग तत्त्वज्ञान के दोनो पैरो को मजबूत और स्थिर रखने के लिए ये दोनो दर्शन हैं। आत्मा को न मानने वालो को आत्मा का अस्तित्त्व समझाने का काम करके ये दोनो दर्शन वीतराग-परमात्मा के या वीरागतत्त्वज्ञान के पैर मजबूत बनाते हैं, उसे स्थिर रखने का काम बखूबी करते हैं। मात्मा के अस्तित्त्व के विना कोई भी आत्मवादी-दर्शन खडा ही नही हो सकता, न खडा रह सकता है। इसलिए Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ अध्यात्म-दर्शन इन दोनो दर्शनो को वीतराग परमात्मा [या उनके तत्त्वज्ञान] के कापवृक्ष के समान दो पर पहने मे कोई अतिशयोक्ति नहीं है। सांत्य और योग वीतरागतत्वज्ञान के मूलाधार साट्यदर्शन और योगदर्शन दोनों को जिनवर-जिनतत्त्वज्ञान-कल्पवृक्ष के दो पर क्यों वताए हैं ? इनका मेल जैनतत्त्वनान के साथ कहां-कहाँ खाता है । इस पर जब तक विचार न कर लिया जाय, तब तक उपयुक्त वात गले नहीं उतरेगी। वीतरागरूप-कल्पवृक्ष के मूल अयवा वीतरागतन्वनान [ममयपुरुष] के पैर के समान ये दोनो अग है। क्रमश हम इन दोनों पर विचार कर लें। वीतराग-परमात्मा ने निश्चयरूप से कहा है-'आत्मा है और वह अनन्त है निश्चयदृष्टि से मात्मा स्वय कर्म का कर्ता नहीं है। अगर नात्मा को का-भोक्ता मानना हो तो वह स्वस्वभाव का कर्ता और भोक्ता माना जा सकता है। यद्यपि शुद्धस्वरूप सिद्धात्मा (परमात्मा) में अनन्तजान. अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख हैं, परन्तु मोक्षदशा में मात्मा अकरणवीयं होने से वह इनका उपयोग नहीं करता, इस अपेक्षा ने उने अकर्ता माना है। साव्यदर्शन भी आत्मा को मानता है, परन्तु उसे कमों मे असग (निर्लेप) एवं अकर्ता मानता है । साख्यदर्शन के अनुसार आत्मा कर्ता नहीं है, भोक्ता भी नहीं है, वह तो सिर्फ द्रप्टा है, साक्षीभाव से सब कुछ जानता-देखता है। कर्ता प्रकृति है, राग-द्वेष वगैरह सब प्रकृति के कार्य हैं । साव्यदर्शन मे मूल २५ तत्त्व माने गए हैं। उनमें से २४ तत्त्व [५ ज्ञानेन्द्रियां, ५ कर्मेन्द्रियां, ५ महाभूत ५ तन्मात्रा, मन, बुद्धि, चित्त, महकार, ये प्रकृतिजन्य हैं और पच्चीसा सबसे भिन्न, आत्मतत्त्व है । आत्मा नि सग, अकर्ता, साक्षीभूत एव चेतनायुक्त है । ज्ञान से ही क्लेश का नाश और ज्ञान से ही मोक्ष [दुखत्रयविनाश होता है। जैनशास्त्रानुसार साख्यदर्शन के प्रणेता (सस्थापक) कपिल-मुनि माने जाते हैं । वर्तमान इतिहासकार आज से लगभग २७०० वर्ष पूर्व, Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक । ४५६ ईस्वीमन्-पूर्व छठी-सातवी शताब्दी मे कपिलमुनि और साख्यदर्शन की स्थापना मानते हैं । परन्तु जैन-आगमानुसार तो कपिल आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव समकालीन माने जाते हैं, इस दृष्टि से तो हजारो लाखो वर्ष पूर्व इनका अस्तित्व सिद्ध होता है । जैन आगमिक कयन पर से प्रतीत होता है-कपिलमनि मरीचि मुनि के शिष्य थे, । मरीचिमुनि निर्ग्रन्थमुनिधर्म के आचार का पालन पूर्णतया न कर सकने के कारण मुनित्य की स्मृति के रूप में पृथक् वेष धारण करके लगभग उन्ही सिद्धान्तो की प्ररूपणा करते हुए भगवान् ऋषभदेव के साथ विचरण करते रहे । अपने द्वारा प्रतिबोधित शिज्यो को भी वे ऋषभदेवप्रभु के पास भेजते थे। किन्तु जब कपिल [शिष्य] आया तो उन्हे मरीचिमुनि का वेश और उपदेश दोनो रुचिकर लगे, इस कारण शिष्यलालसावश कपिल को अपना शिष्य बनाया । गृहस्थाश्रमपक्ष मे मरीचिमुनि श्रीऋषभदेव प्रभ के पुत्र भरतचक्रवर्ती के पुत्र थे और भ० महावीर स्वामी के जीवरूप मे अनेक भवो मे भटकते हुए तीसरे भव मे तीर्थकर नामकर्म बांध कर अन्त मे भ० महावीर स्वामी के रूप मे २४ वे तीर्थकर हुए और मोक्ष मे पधारे । अत जैनागमो के अनुसार साख्यदर्शन-सस्थापक कपिल मरीचिमुनि के शिष्य सिद्ध होते हैं। जो भी हो, हमे इतिहास की गहराई मे न उतर कर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से ही साख्यदर्शन पर विचार करना है । तत्वज्ञान की दृष्टि मे निश्चयनय की अक्षा से जैनतत्त्वज्ञान द्वारा मान्य आत्मा की बात साख्यदर्शन मे हुबहू उनरती है। जैनदर्शन की निश्चयदृष्टि से साख्यदर्शन बहुत ही निकट है। साख्यऔर योग दोनो दर्शन तत्त्वो की दृष्टि से एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं। योगदर्शन एक ईश्वरतत्त्व को अधिक मानता है, जबकि साख्यदर्शन ईश्वर- । तत्त्व को अलग से नहीं मानता, पुरुष [आत्मा] मे ही उसका समावेश कर लेता है। इसी कारण दर्शनशास्त्र के इतिहास मे ये दोनो क्रमश निरीश्वरसाख्य और सेश्वरसाख्य के नाम से प्रसिद्ध हैं ! असली साख्य निरीश्वरवादी है । जैनदर्शन की तरह वह ईश्वरतत्त्व को पृथक् न मान कर आत्मा मे ही समाविष्ट कर देता है, आत्मा की परमशुद्ध-मुक्तदशा को ही वह ईश्वर मानता है, जिसका जनदर्शन से बहुत अधिक साम्य है । जैनहष्टि से मोक्षदशा मे आत्मा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० अध्यात्म-दर्शन मे बनन्तवीर्य माना है, परन्तु मुक्त-मोक्षप्राप्त आत्मा क मी उस वीर्य का प्र. रण - प्रयोग नहीं करते । सान्यदर्शनोक्त पुरुष [मात्मा] भी अवता, निष्क्रिय और नि सग माना गया है, वही भी बीयप्रस्फुरण करके कुछ करना-धला नहीं है, इसलिए अन्ततोगता निश्चयदृष्टि से दोनो दर्शन एक ही लक्ष्य पर पहुंच जाते हैं। ___योगदर्शन के प्रतिपादक प्रवर्तक मर्पि पतजलि हैं। ये भी कपिलमुनि के समकालीन माने जाते हैं । योगदर्शन में भी साख्यदर्शन-प्रतिपादित २५ तत्त्व माने जाते हैं, और २६ वां ईश्वरतत्त्व अधिक माना जाता है। इसके अतिरिक्त योगदर्शन न्यायदर्शन दोनो ने तत्त्व माने हैं-पचमहाभूत, कात, दिशा आत्मा और मन । आत्मा को आठवां वत्त्व माना है । तथाचित्तवृत्ति का सम्पूर्ण निरोध करने मे क्लेश-कर्मरहित नात्मा मुक्ति को प्राप्त करती है। चित्तवृत्ति को जान रा रोकने से मोक्ष होता है, ईश्वर कर्ता है, आत्मा कार्य का कारण है। चित्तवृत्ति के निरोध के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठ अग हैं, जिनका सम्बन्ध हठयोग, जपयोग और राजयोग आदि से है। सांख्य और योग दोनो ही दर्शन आत्मा का अस्तित्व पृथक्-पृयक् मानते है । दोनो ही आत्मा को अकर्ता, द्रष्टा, साक्षी और असग मानते हैं। पतजलिमुनिप्रणीत योगदर्शन का मुख्य अन्य योगदर्शन [योगसूत्र] है। उसमे आत्मा, आत्मा का आध्यात्मिक विकास, उसका क्रम, उसके यम-नियमादि उपाय, आत्मा की विभूतियां-कैवल्य और मोक्ष आदि बातो का स्ववस्थितरूप से विवरण आता है। परन्तु वह कहाँ अपूर्ण है ? उसकी अपेक्षा विशेष क्या-क्या सम्मव है ? अयवा वर्तमान में है ? इस विषय में उपाध्याय यशोविजयजी ने योग-दर्शन के कई सूत्रो पर अपनी टिप्पणी लिख कर तथा द्वात्रिंशत्-द्वात्रिंशिकाओ में से कुछ मे अध्यात्म-योग पर विवेचन लिख कर जैन-दर्शन के साथ योगदर्शन की तुलना की है। यही नहीं, समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि ने पतंजलि ऋपि को आध्यात्मिक विषय के ऐमे व्यवस्थित शास्त्र की रचना की योग्यता के कारण तथा तीर्थकरदेवो के अनेक तत्त्वो के बहुत-से अशो पर निरूपण करने के कारण एव मोक्षामिलापी होने पर ही ऐसे आध्या Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४६१ त्मिक शास्त्र की रचना करने की इच्छा हो सकती है, इत्यादि गुणो से आकपित हो कर सम्पग्यदृष्टि तो [निश्चय से] नहीं, परन्तु सम्यग्दृष्टि के पूर्वाभास के रूप मे मार्गानुसारी तो मान ही लिये हैं। परन्तु इतना निश्चित है कि दोनो दर्शन आत्मा के अस्तित्व (Existance) का स्वीकार करते हैं, जो बुनियादी बात है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने कहा -"आतम-सत्ता-विवरण करतां, लहो दुग अग अखेदे रे " 'अखेदे' को अग के साथ भी जोड कर भी कई लोग अर्थ करते हैं-इन दोनो दर्शनो का खेदरहित अग-पैर को मानो । जो पैर थकान एव खेद से रहित होते हैं, वे ही मजबूती से खडे व जमे रह सकते हैं। 'लहो' के साथ 'अखेद' को जोडने से अर्थ निकलता है-विना किसी खेद [चिन्ता] या सकोच के इन दोनो को अंग [चरणयुगल] मान लो। यह अर्थ विशेष उचित लगता है । सत्ता का अर्थ अस्तित्व भी होता है, शक्ति भो । आत्मा की शक्तियो का विवरण दोनो दर्शन प्रस्तुत करते हैं, यह कहना भी यथार्थ है। किन्तु ये दोनो दर्शन व्यवहार से भी आत्मा को अकर्ता मानते हैं, वहां जैन दर्शन के साथ इनका विरोध आता है। फिर जनदर्शन मे हठयोग का स्थान विल्कुल नगण्य है, जबकि योगदर्शन इसे अधिक महत्व देता है, तथापि राजयोग को दोनो स्वीकार करते हैं। ___इस प्रकार परमतसहिष्ण जैनदर्शन के अनुसार जिनकल्पवृक्ष के एक देशीय तत्व (अमुक दृष्टि से सत्य) को ग्रहण करने वाले आत्मवादी साख्ययोग दर्शनो को जिन भगवान के या वीतराग तत्वज्ञानरूप कल्पवृक्ष के पैर (मूल] के स्थान पर स्थापित किया है । ___ अगली गाथा मे आत्मा के अन्य रूपो के उपासक दो दर्शनो का समन्वय जनतत्वज्ञान के साथ करते हुए कहते हैं भेद-अभेद-सुगत-मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे। . लोकालोक आलम्बन भजिये, गुरूमुखथी अवधारी रे॥ षड्० ॥३॥ अर्थ सुगत=बौद्धदर्शन आत्मा की भेदरूप-(पृथक पृथक्] मानता है, और Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ अध्यात्म-दर्शन मीमासक वेदान्ती आत्मा को अभेदरूप (अभिन्न,एकतत्व) मानते हैं। ये दोनों वीतराग-परमात्मा के तत्वज्ञान (समय पुरुष) के दो बडे-बड़े हाय हैं । लोक और अलोक इन दोनों के अवलम्बन फो यथार्थ तत्ववेत्ता गुर की उपासना गुरुगम) से जान कर (निश्पय करके मानिये, । इसका आश्रय लीजिए। भाष्य जिनेश्वर (समयपुरुष) के दो हाय : बौद्ध और मीमांसक इस गाथा मे श्रीमानन्दघनजी ने आत्मा को भिन्न और अमिनरूप में मानने वाले बौद्ध और मीमामक दर्शन को वीतरागपरमात्मा के तत्वज्ञानरूप व ल्पवृक्ष के दो बडे-बडे हाय माने हैं । जैसे मनृप्य के दोनो हाथ सारे शरीर पर फिरते हैं और शरीर के कार्यों के अलावा अन्य जो भी करने योग्य कार्य हैं, उन्हे भी करते हैं। हाथ पुरुषार्थी और क्रिया करते रहने से वलिष्ठ होते हैं, वैसे ही वीतराग परमात्मा के तत्वज्ञानरूपी पुरुष के दोनो कर (हाय) ल्पी दोनो नय (द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक नय) समस्त लोकालोक के यथार्थ तत्वज्ञान को बनाते हैं। हाय जैसे मार्गदर्शन देते हैं, वैसे ही ये दोनो नय (कर) भी सारे जगत् को मार्गदर्शन देते हैं। इन्हे बडे हाथ इसलिए कहा कि ये केवल एक क्षेत्र या प्रदेश मे नही, सारे विश्व मे और लोक के बाहर अलोक मे भी मागदर्शन वप्रेरणा देते हैं। बौद्धदर्शन आत्मा को भेद रूप (पृथक् पृयक्) मानता है, यानी उसका कहना है कि आत्मा भिन्न-भिन्न है, खण्ड-खण्डरूप है एव क्षणिक है। आत्मा विज्ञान पन है, लेकिन वह प्रति व्यक्ति में भिन्न-भिन्न है तया प्रत्येक क्षण मे बदल ना रहता है। दुनिया की प्रत्येक नाशवान् वस्तु अलग-अलग है। इस क्षण जो घडा है, वही दूसरे क्षग नष्ट हो जाता है, फिर दूसरे ही क्षण वह उत्पन्न हो जाता है, फिर नष्ट होता है, यो उत्पत्ति और नाश की परम्परा चलती है, सामान्य व्यक्ति को ऐसा मालूम होता है कि 'एक ही घडा है, परन्तु कितने ही घडे उत्पन्न हुए और नष्ट हो गए, अत वे अत्पन्न और नष्ट होने वाले घडे अनेक हैं, वे प्रत्येक पृथक्-पृथक् हैं । परन्तु द्रव्य को छोड कर पर्याय भिन्न नहीं है 'जलतरगवत् स्वर्णाकारवत्' यानी पानी और उसकी तरगो की तरह, अयवा सोना और उसके आकार की तरह पहले क्षग जो आत्मा था, वही दूसरे क्षण वदल जाता है, इस प्रकार बौद्धदर्शन भेदवादी पर्यायवादी है, एकान्तपर्यायास्तिक नय के आधार प. चलता है, वह अनित्यवादी है और जनदृष्टि से ऋजुमूत्रनयवादी है। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४६३ जनदर्शन मे अपेक्षा से यह भी बताया है कि ज्ञेय के ज्ञानस्वरूप-स्वभाव है और विभाव मे कर्माश्रित पौद्गलिक देह मे भी, प्रतिक्षण बदलते हुए देह मे पर्यायें बदलती रहती हैं, इस कारण भेद दिखाई देता है। इस प्रकार की जैनमान्यतानुसार बौद्ध दर्शन को भी पर्यायाथिक नय (प्रमाण) की दृष्टि से देखा जाय तो बौद्धदर्शन सत्य है, यो मान कर इसे समयपुरुष के अग (हाथ) के रूप मे समझना चाहिए । मीमासादर्शन को वीतराग परमात्मा के अग का वाया हाथ माना गया है। मीमासा दर्शन के दो भेद हैं—पूर्वमीमासा और उत्तरमीमासा । पूवमीमांसादर्शन के नियमानुसार सस्थापक जैमिनी हैं, जिनका जीवनकाल ई० पू० तीसरी या चौथी शताब्दी मे माना जाता है। पूर्वमीमासादर्शन वेदो को ही सर्वस्व आधार मानता है । इस दर्शन का विषय मुख्यतया वैदिक कर्मकाण्ड है, जिसमे यज्ञादि कर्मकाण्ड द्वारा इस लोक और परलोक मे स्वर्गादि के सुखदुखादि प्राप्त करने का विधान है। इस प्रकार पूर्व-मीमासादर्शन अत्यन्त सूक्ष्मविचार करके वेद के शब्दो पर से ही समग्र आध्यात्मिक जीवन की व्यवस्था का निरूपण करता है। उत्तरीमीमामा का दूसरा नाम 'वेदान्तदर्शन, है वह मुख्यतया ज्ञानवादी और आत्मवादी है। उसके ऋभिक व्यवस्थाका बादरायण (व्यामजी) हैं, जो ई० पू० तीसरी या चीयी शताब्दी मे हुए माने जाते हैं। इसके मुख्यग्रन्य उपनिषद् हैं, ब्रह्मसूत्र है, जिन पर आद्यशकराचार्य ने व्यवस्थितरूप से भाष्य लिखे हैं। इस दर्शन को व्यवस्थितरूप से प्रस्तुत करने का श्रेय भी आद्य शकराचार्य जी को है। वेदान्तदर्शन मानता है कि प्रत्येक पदार्थ व्यष्टि से पृथक्-पृथक होते हुए भी समष्टि से एकतत्वसूत्र मे - पिरोया हुआ है । वह एक. तत्व-ब्रह्मरूप है । ब्रह्य (आत्मा) एक है, वही सर्वत्र व्यापक है-एक. सर्वगतो नित्य विगुणो न वध्यते न मुच्यते' ब्रह्म (आत्मा) एक है, है, सर्वव्यापक है, नित्य है, गुणातीत है, बन्धन-मुक्ततारहित है । वेदान्तदर्शन के सामने जब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि तब फिर जगत् मे भिन्न आत्माएं दृष्टिगोचर होती है, इसका क्या समाधान है ? तब वह कहता है-एक ही आत्मा (ब्रह्म) प्रागिमात्र मे व्यवस्थित है, जैसे एक चन्द्रमा होते हुए भी जल मे अनेक चन्द्रमा दिखाई देता है, वैसे ही आत्मा एक होते हुए भी जलचन्द्र की Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ अध्यात्म-दर्शन की तरह अनेक रूप में दिखाई देता है । तात्पर्य यह है कि एक ही ब्रह्म सकल पदार्थो के रूप मे परिणमित व प्रतिभासित होता है । इस दृष्टि से वेदान्त (उत्तरमीमांसा) दर्शन अभेदवादी है, द्रव्यवादी है, द्रव्याथिक नय की एकान्त दृष्टि रखता है, परमसग्रहवादी और नित्यवादी जैनदर्शन के निश्चयनय (शुद्धसग्रहनय) की दृष्टि से 'एगे आया' आत्मा एक ही है, क्योकि आत्मा के असध्यप्रदेश सर्वप्राणियो मे समान हैं तथा सर्वप्राणियो के आत्मा का लक्षण उपयोग (ज्ञाताद्रण्टा) एक समान है। समस्त आत्माओ की सत्ता एक है, सव आत्माओ मे द्रव्य-गुण-पर्यायरूप धर्म एक ही है। निश्चयनय आत्मा के बन्ध को नही मानता । परन्तु आत्मा मुक्त भी नही होता, यह वात निश्चयदृष्टि से इस प्रकार घटित हो सकती है शुद्ध आत्मा न तो वन्धता है, न मुक्त होता है, क्योकि जो बधता ही नही , उसके मुक्त होने की भी जरूरत नहीं रहती, वस्तुत. आत्मा सर्वथा सर्वदा मुक्त ही है । निश्चयनयानुसार यह वात सत्य है । इसलिए इसे जिनवरतत्त्वज्ञानरूपी कलावृक्ष का एक हाय कहना उचित ही है। यद्यपि वेदान्त की पूर्वोक्त बाते अशसत्य है, अंशसत्य को सर्वसत्य नही समझना चाहिए। भेद और अभेद प्रे लोक- अलोक का आलम्बन कैसे? जैनदर्शन की विश्व-व्यवस्था भेद और अभेद दोनो तत्त्वो पर व्यवस्थित है । जगत् मे कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें भेद और अभेद दोनो न हो। दीपक से ले कर आकाश तक तमाम पदार्थ भेद और अभेद से युक्त हैं । उदाहरणार्थ - नट एक होते हुए भी वह अलग-अलग वेश धारण करता है तब पृथक् -पृयक (भिन्न-भिन्न) वेश मे, भिन्न भिन्न नाम से पहचाना जाता है । इस प्रकार उसमे पृथक्त्व और एकत्व दोनो दिखाई देते हैं। पुस्तक एक होते हुए भी उसके पन्ने अलग-अलग होते हैं। पुस्तक यदि सर्वथा एक ही हो तो अलग अलग पन्ने क्यो पढ़े जाते ? और पन्ने अगर सर्वथा अलग-अलग होते तो एक पन्ने के विषय-सम्बन्ध दूसरे पन्ने के साथ न मिलता, पुस्तक भी एक नही कहलाती। 'एक एव हि भूतात्मा भूते-भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥' Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४६५ दूसरी दृष्टि से देखें तो द्रव्यास्तिकनय जीवादि तत्व का प्रतिपादन करता है। पर्यायास्तिकनय जीवादि तत्व को अनन्तपर्याय से प्रतिादन करता है । द्रव्य और पर्याय पर समस्त लोकालोक का आधार है। १ द्रव्यास्तिकनय का आलम्बन अलोक (आकाशास्तिकाय) है, जबकि पर्यायास्तिकनय का आलम्बन लोक (पच्चास्तिकायात्मक ) है । अथवा लोक रूपीद्रव्यरूप होने से पर्यायाथिकनय का आलम्बन है, जबकि अलोक अरूपी होने से द्रव्याथिकनय का आलम्बन हुआ। इस दृष्टि से भेद का आलम्बन लोक और अभेद का आलम्बन अलोक हआ। अयवा लोक और अलोक के अवलम्बन के साथ श्रीआनन्दघनजी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है - 'गुरुगमयो अवधारीए' अर्थात् तत्वज्ञानी को गुरुदेव की उपासना से इसका रहस्य समझ लेना चाहिए। ___'परमार्थ' के लेखक ने इस पर लिखा है---'ब्रह्मरन्ध्र से नीचे का भाग 'लोक' है और ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर का भाग 'अनोक' है । इस प्रकार लोकालोक की कल्पना करके सालम्बन-निरालम्बन ध्यान सूचित किया गया है। रेचकपूरक-कुम्भक आदि क्रियापूर्वक किया गया ध्यान सालम्बन है, और निरालम्बन ध्यान का विषय गर्भ र एव वेदान्तदर्शन में प्रतिपादित होने से इसमे जहां समझ मे न आए, वहां ध्यान के अभ्यासी महान् योगी तत्वज्ञ गुरुदेव से जान (समझ) लेना चाहिए। अब अगली गाथा मे चार्वाकदर्शन का समावेश जिनेश्वर के तत्वज्ञान के एक अग के रूप मे बताते हैं । लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंशविचार जो कीजे रे। . तत्त्वविचार-सुधारसधारा गुरुगम-विरण किम पीजे रे ? ॥षड्०४॥ अर्थ नास्तिक बृहस्पति-प्रणीत चार्वाक (लोकायतिक) दर्शन वीतरागदेव (समय १ इस विषय मे इस विषय के विशेष विद्वान् गुरु से अथवा जैनन्याय के अनेकान्त-जयपताका, अनेककान्तमतव्यवस्था, स्याद्वादमजरी, स्यावादकल्पलता, आदि ग्रन्थो का अध्ययन करके समझ लेना चाहिए। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ बाध्यात्म-दर्शन पुरुष) की कुक्षि ( उदर ) है । इस दर्शन के एक खास हिस्से पर यदि ध्यान से विचार किया जाय तो इस बात को नाशिक) सत्यता समझ में आ सकती है। लेकिन सद्गुर द्वारा प्रदत्त द्धि-ज्ञानशक्ति के विना तत्वज्ञानविचारस्पो अमृतरस को धारा का पान कैसे हो सकता है ? लोकायतिक को वीतराग को कुक्षि को उपमा क्यों ? लोकायतिक का अर्थ है - लोक मे विस्तृत- फैला हुमा दर्शन। इसे नास्तिक दर्शन या वृहम्पति-आचार्यप्रणीत चार्वाकदर्शन भी कहते हैं। क्योकि इस दर्शन वोले परलोक,स्वग-नरक, पुण्य पाप,धर्म-अधर्म,आत्मा-परमात्मा और बध-मोक्ष को नहीं मानते। वे तो यथाशक्ति इन्द्रियसुख भोग लेने में ही यानी वर्तमान पौद्गलिक सुखो को प्राप्त करने में ही जीवन की इतिथी मानते हैं। क्योकि चार्वाकदर्शन का मूलसूत्र है-'जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके घी पोओ। शीर को राख होने पर फिर पुनरागमन कहां?' वतमानयुग मे इन्हें भौतिकवादी ( Materialists) कह सकते हैं। इस प्रकार नास्तिकदशन वालो ने सिर्फ प्रत्यक्षप्रमाण को पकड लिया, अन्य प्रमाणो को छोड दिया। प्रत्यक्ष मे भी इन्द्रियार्थ प्रत्यक्ष को ही माना, आत्मप्रत्यक्ष प्रमाण को सर्वथा छोड़ दिया है' चार्वाकदर्शन पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन ५ भूतो को मानता है, और इनके सयोग से चेतनायुक्त प्राणी दिखाई देते हैं । आत्मा नाम का स्वतत्र कोई पदार्थ नहीं है। प्रश्न यह होता है कि चार्वाक जैसे नास्तिकदर्शन को श्रीआनन्दघनजी ने जिनवर के उदर का स्थान क्यो दिया ? यानी इमे जनतत्वज्ञानरूप कल्पवृक्ष का उदररूप अग क्यो माना ? इस शंका के समाधान के लिए हमे जरा तत्व की गहराई मे उतरना पड़ेगा। जैनदर्शन में पाच ज्ञान प्रमाण माने हैं-१ प्रत्यक्ष, २ परोक्ष, ३ आगम, ४उपमान, और ५अनुमान । इन पाच प्रमाणो से नयों का सत्यार्थ विवेचन है। "यावज्जीवेत, सुख जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत ।।" Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४६७ चार्वाकदर्शन द्वारा इन्द्रियप्रत्यक्ष ( जैनदर्शनमान्य साव्यवहारिक प्रत्यक्ष) को स्वीकार करने के कारण उसे अशत जिनवर के उदर की उपमा दी। शरीर मे पेट का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वह सारे शरीर मे भोजन पहुंचाता है, विविध अगो को यथायोग्य भोजन पहुंचा कर शक्ति देता है, और मलहरणी नाडी द्वारा मल को धकेल देता है । उदर मे तो भोजन का अशभर ही शेष रहता है । इस दृष्टि से लोकायतिक दर्शन भी दुनिया मे अध्यात्मवाद के नाम पर ठगे गए, अथवा अध्यात्मवाद के नाम पर मचाई गई लूट के कारण ऊबे हुए लोगो को पेट की तरह अपने मे स्थान देता है, तथा उन्हें यह भी आश्वासन देना है कि परलोक का स्वर्ग नरक थोडी देर के लिए न मानो तो भी इहलोक मे जो कुछ प्रत्यक्ष गलत काम करोगे, उसका फल भी प्रत्यक्ष यही पर मिल जाएगा। परलोक मे नरक के डर से और स्वर्ग के प्रलोभन से जो टानादि धर्म या अहिंसादि पालन करते हो, वह भी उचित नहीं है, क्योकि भय और प्रलोमन के कारण हटते ही या भय-प्रलोभन का विचार दिमाग से निकलते ही तुम अधर्म के कार्य करने पर उतारू हो जाओगे । इसलिए हम कहते हैं, समाज, परिवार, सघ या राष्ट्र की व्यवस्था सुचारूरूप से चलाए रखने के लिए विवेकयुक्त सस्कारो -प्रत्यक्षहृदय मे जमे हुए सुसस्कारो से प्रेरित हो कर धर्म या कर्तव्य, नीति या पथ्य (हितकर) वातो का पालन करो। जैसे पेट अपने पास कुछ भी न रख कर बिना किसी बदले की आशा से सारे अगो को दे देता है, वैसे ही तुम अपने पास अधिक न रख कर समाज, राष्ट्र आदि को नि स्वार्थभाव से दे दो। पेट शरीर के दूसरे अवयवो को सब कुछ देने पर जब खाली हो जाता है, तभी तो भोजन की रुचि जागती है, पेट में एक से अधिक दिन भोजन जमा पडा रहे तो कन्ज, अपच आदि अनेक रोग हो जाते हैं, वैसे ही जीवन मे त्याग न करने पर यानी परोक्षज्ञान आदि अधिक जमा होने पर विचारो का अजीर्ण, अहकार, सडान एवं परिग्रह हो जाता - है । अतः परोक्षज्ञान का सग्रह न करके लोकायतिक दर्शन प्रत्यक्षज्ञान पर ही दारोमदार रख कर परोक्ष विचारो को निकाल कर प्रत्यक्ष उपयोगी व्यवहारिक विचारो को रखता है, इसी कारण आध्यात्मिक विचारो की भूख जागती है। यह दर्शन अध्यात्मविचार के भोजन ...रुचि जगाता है। आज अमेरीका, जर्मन आदि भौतिकवादी देशो सुखाभासो एव तजनित रोगो Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ अध्यात्म-दर्शन व दु खो से ऊब (घबरा) कर वहां की जनता में आध्यात्मिक रुचि जगी है। इस कारण यह दर्शन भी जगत् में विस्तृत है जगत के अनेक लोगो को नीति का पाठ पढा कर यह अध्यात्म की भूख जगाता है। इसलिए इस दर्शन को जिनवरतत्व-ज्ञान का उदर कहा है। तत्त्वज्ञान के प्राथमिक अभ्यास के लिए प्रवेश करने वाले जिज्ञासु को शरीर और आत्मा, इन दोनो मे से शरीर ही निकटवर्ती एव प्रत्यक्ष दिखाई देने से इसके पचभौतिक स्थूलरूप का सर्वप्रथम ज्ञान चार्वाकदर्शन करा देता है, इस प्रकार विश्व का सर्वप्रथम तत्वज्ञान होने पर उस पर से जिज्ञासु आगे बढ सकता है, किन्तु प्राथमिक तत्वज्ञान मे ही प्रवेश न हो तो वह आगे कैसे बढ़ सकता है ? इस दृष्टि से चार्वाक दर्शन भी प्राथमिक तत्वज्ञान-प्रवेश मे सहायक होने से जिनवर-दर्शन का उदररूप एक अग माना गया है। भले ही वह अनुमानादि प्रमाणो को न माने, सिर्फ एक प्रत्यक्षप्रमाण को माने, परन्तु एक प्रमाण को भी प्रमाणरूप मे मानेगा तो उसे कभी न कभी दूसरे प्रमाणो को मानने-समझने का मौका मिलेगा, इतना भर यह जनदर्शन का अग माना जाय तो अनुचित नहीं होगा। योगदृष्टि से जब उदर पर विचार करते हैं तो एक महत्वपूर्ण बात प्रतीत होती है । उदर मे नाभि एक ऐसा केन्द्रस्थान है,जहां से कु डलिनी' जागृत होने पर छही चक्रो का भेदन हो सकता है। आत्मा के विकास का साक्षी एव प्रमाण यही स्थान है, जहां से चारो ओर सभी नाडियां फैली हुई हैं। सबको यही से बल, बुद्धि, और विकास की स्फुरणा मिलती है, इसलिए चार्वाकदर्शन को समयपुरुष का उदररूप अग बताना भी उचित है। वह प्रत्यक्षभूत इस साधना के लिए प्रेरणा करता है और कहता है, अगर इस साधना को सिद्ध कर लोगे तो तुम्हारी पाचो इन्द्रियो के विषय की तृप्ति अन्दर ही अन्दर हो जाएगी, अमृत का वह झरना, आनन्द का वह स्रोत तुम्हारे अन्दर ही फूट पडेगा, जिससे तुम्हें फिर बाहर की भूख-प्यास नही सताएगी, और न ही इन्द्रियो के विविध मोहक विषयो की ओर तुम्हारी रुचि रहेगी । तुम अपने अन्तर मे ही तृप्त हो जाओगे। हाला-कि यह सब अनुभव की बातें हैं, लेकिन ये सब परोक्ष नही हैं । इसलिए चार्वाक कहता है-यही और इसी जन्म मे इस साधना के द्वारा Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४६६ आनन्द लूट लो, अन्दर का ही वह खजाना प्राप्त कर के अपने आप मे तृप्त हो जाओ । यही स्वर्ग है, यही से मोक्ष है। ऐसी साधना न करने या मौका चूकने पर (प्रमाद करने पर) यही नरक, तिर्यच आदि दुर्गति है। इस दृष्टि से चार्वाक दर्शन को उदररूप अग बताना बहुत ही अयपूर्ण है। उदर का यह भाग बहुत हं उपेक्षित रहता है, कधे के नीचे दवा रहने से दवा हुआ रहा है, इसलिए इसे भी जैन-तत्वज्ञान के एक व्यवहारिक अग के रूप में स्थान दिया गया है। श्रीआनन्दघनजी ने आगे चल कर इसी गाथा मे इसका स्पष्टीकरण भी कर दिया है-'अंश विचार जो कोजे रे' ___ ३६३ पाखण्डीमतो (क्रियावादी १८०, अक्रियावादी ८४, अज्ञानवादी ६७ और विनयवादी ३२ कुल ३६३) को भी जब जनदर्शन मे उदारतापूर्वक स्थान दिया है, तब चार्वाकदर्शन को पूर्वोक्त कारणो से स्थान देने मे उदारता को हो, इसमे तो कहना ही क्या है ? परन्तु इन सबके तत्वो (रहस्यो) पर विचाररूपी अमृतरसधारा का पान किमी योग्य एव अनुभवी उदारचेता' गुरुवर के विना हो नहीं सकता। इसी कारण श्रीआनन्दघनजी को भी कहना पडा -'तत्वविचार-सुपारमधारा गुरुगम विग किन पोजे रे ? जैन जिनेश्वर उत्तम अग, अन्तरग-बहिरगे रे। अक्षर-न्यास घरा आराधक, आराधे धरी सगे रे॥ ॥षड० ॥ ५॥ अर्थ जिनेश्वर परमामा के तत्वज्ञान द्वारा बताया हुआ दर्शन (जैनदर्शन) ' तोपकर सयोगी केवनी जिनका सर्व श्रेष्ठ अग=मस्तक है । वह अतरग और बहिरंग दोनो रूप मे उत्तमाग है । अथवा अतरग शुद्धि (रागद्वेष की मलिनता से रहित आत्मप्रत्यक्ष से) तया बहिरगशुद्धि (व्यवहार ज्ञानबल वरिप्रवल के शुद्ध अनुमव से प्रदर्शित जनदर्शन को स्थापना करने वाले, अथवा व्यजनाक्षर-सज्ञाक्षर का न्यास =ज्ञानार्य अक्षरस्थापनारूपी धरा=पृष्त्री (अक्षरावली वर्णमाला) का विन्यासया आज्ञाधर्मरूपी धरा के आराधक , आज्ञापालक) का परिचय करके Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० अध्यात्म-दर्शन या प्रत्येक अग को अपनी आत्मा मे रमा कर आराधना करते हैं-आज्ञा पालते हैं । वे ही वास्तव मे जनदर्शन के आराधक होते है। भाष्य जैनदर्शन : वीतराग का उत्तमांग छठे अग के रूप मे जैनदर्शन को वीतराग-परमात्मा का उत्तमाग=मस्तक कहा गया है । वह समयपुरुष के मस्तक के समान कहा है। इसका कारण यह नहीं है कि श्रीआनन्दधनजी जैन थे, इसलिए उन्होंने जनदर्शन को उत्तम अग के रूप में बताया है। अपितु इसका कारण यह है कि जैनदर्शन किसी वस्तु को सिर्फ एक ही, एकागी दृष्टि से नहीं देखता, किसी भी विषय पर उसके सभी दृष्टिविन्दुओ को मद्देनजर रख कर तदनुकूल नयसापेक्ष क्यन करता है, तथा इस दर्शन में सभी विचारधाराओ को यथायोग्य स्थान दिया गया है, सभी पर मत्यप्राही दृष्टि से विचार किया गया है, इस कारण इसे उत्तमाग कहा गया है। शरीर के अवयवो मे मस्तिष्क का स्थान सर्वोपरि, अनिवार्य और उत्तम इसलिए बताया गया है कि वह सभी अवयवो को विचार देता है, शरीर मे मस्तिष्क न हो तो मभी अवयव वेकार हो जाते हैं, इसी प्रकार जनदर्शन सभी दर्शनो को यथायोग्य स्थापन करने वाला है । यह नही होगा तो सभी दर्शन एकागी . व एकान्त वन कर सापेक्षवाद को भूल कर अपनी-अपनी ढपली और अपनाराग अलापने लगेंगे । इसलिए जैनदर्शन उस उच्चस्थान को अपनी योग्यता के कारण ही पा सका है। इस उच्चता को प्राप्त करने में उस पर कोई मेहरवानी नहीं की गई है, अपितु, उसने वास्तविक रूप मे ही इसे प्राप्त किया है। और अपनी महिमा और योग्यता भी सिद्ध कर दी है। जैनदर्शन की यह विशेषता है कि वह सभी दृष्टिबिन्दुओ के उपरान्त प्रमाणसत्य को स्वीकार करता है, इस कारण सर्वथा उत्तम है। जैनदर्शन का अतरग और बहिरग' जैनदर्शन के दो अंग हैं- अन्तरग और बहिरंग 1 रागद्वेष का सर्वथा' त्याग करके आत्मा के गुणो को प्रगट करना इसका अन्तरग है तथा वाह्यक्रियाएं करता, समचारी का ऊपर-ऊपर से पालन करना एव चरणसत्तरी व करणसत्तरी का पालन यह वहिरग है। इसमे अन्तग्गविभाग मे वैराग्य एव आत्मा के Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * . ४७१ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक अनेक गुण कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं ? इस सम्बन्ध मे कारण और परिणाम के साथ बताया गया है । . , ___अथवा जैनदर्शन अन्तरग और वहिरग-शुद्धि से प्रसिद्ध है। अन्तरगशुद्धि का अर्थ है-राग-द्वेष,मोह, अज्ञान और मिथ्यात्व से अशुद्ध हुए विचारो द्वारा आए हुए बुरे परिणामो से रहित शुद्ध आत्मभाव एव समत्वयोग से प्रगट हुमावीतरागभाव । बहिरग शुद्धि का अर्थ है--आरम्भ-पटकायिक जीवो की हिंसा से और व कामभोग विषयसेवन से आए हुए विकारी परिणामो से अशुद्ध बने हुए जगत् के व्यवहार को सामायिकादि यथा ख्यातचारित्राचरण से शुद्ध करना । अक्षर-न्यास धरा-आराधक कौन और क्या ? इस प्रकार बताए हुए अन्तरग और बहिरग दोनो रूप जैनदर्शन का स्थान समयपुरुष के उत्तमाग (मस्तिष्क) के रूप मे समझना और दोनो का विभाग जैसा और जिस प्रकार का बताया गया है, नि शक और निष्काम हो कर, विना किसी अपवाद के उसका अक्षरश अनुसरण करना, यह भी अक्षरन्यास-धरा का एक अर्थ है । अक्षरश न्यास (स्थापन) करने से यह भी तात्पर्य यह है कि, जिस प्रकार वे अक्षर बताए गए हैं,उसी तरीके से ,उसकी स्थापना यानी सेवन, आराधन, आचरण करने का आग्रह रखना अक्षरन्यास है। अमुक मुद्रा से नमोत्युण का पाठ बोलना है, अमुक विधि से 'इच्छामि खमाममणो कहना है, इत्य दि जैसी अक्षर-सत्य की स्थापना है, उसी प्रकार से अक्षरन्यातरूप धरा = पृथ्वी का आराधन करना चाहिए। ___ इसका दूसरा अर्थ यह है-पूर्वोक्त प्रकार से अन्तरग-बहिरग-शुद्धि से प्रगट हुमा तत्त्वज्ञान असरन्यासरूप है। फिर जिनभाषित आचारागादि द्वादशागी आगम, जिन स्वर-व्यजन-अक्षरादि से न्याम किया (रचा) हआ है, उस द्वादशागीमय, जैनदर्शन की धरा (आज्ञा) को अक्षरन्यासधरा कहते हैं। कयोकि द्वादशागीमय जैनदर्शन ही अक्षरन्यासघरा है, वही सवंदर्शनो से ऊपर है मस्तक-स्थानीय है। सारे दार्शनिक विचारो का सपन्वय- सापेक्षदृष्टि से कथन, अनेकान्त,नय, प्रमाण आदि से स्थापन मस्तिष्क से ही होता है । अत द्वादशागामय जैनदर्शनरूप अक्षरन्यासधरा का आराधक-इसी जैनदर्शन की आज्ञा का । पालन है । तात्पर्य यह है कि वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक को द्वादशागीमय जैनदर्शनरुप अक्षरन्यास की आज्ञा की आराधना अन्त करणपूर्वक करनी चाहिए , क्योकि इसमे हेयोपादेय का यथायोग्य विधान हैं, समस्त पदार्थों का Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ अध्यात्म-दर्शन विवेक है । सर्वदर्शनों का समन्वय नयप्रमाणदृष्टि से किया गया है। अतः 'तमेव सच्चं निसंक ज जिहि पवय' इसे ही ययार्य, सत्य, निगंक समझ कर उसकी बाराधना करनी चाहिए। तीसरा एक और अर्थ निकलता है-पूर्वोक गाथाओ मे जिनवर के ६ अगो में ६ दर्शनो के न्यास की बात पूरी करने के माय ही जनदर्शन का परिचय धारण करके 'अक्षरन्यास' की ध्यानप्रदिया यहाँ मूचित की गई है । इस ध्यान-' प्रक्रिया के अनुसार शरीर के अलग-अलग बगो में अक्षगे का न्यास (स्थापना) करके आराधना करनी चाहिए, नभी जिनवर का सर्वांगदर्शन होगा। यानी वीतराग-परमात्मा का सर्वा गमय सम्पूर्ण दर्शन (झाकी) करने के लिए, परमात्मा की दिहक्षा पूर्ण करने हेतु पूर्ववरपुरुषो ने जो यक्षरन्यास के न्य में महाध्यान की प्रक्रिया बताई है, तदनुमार आराधना करनी चाहिए। इसीलिए यन्त में कहा गया-'सागधे घरी संगे रे। यही कारण है कि जनदर्शन को अन्तरंग-वहिरंग दोनों दृष्टियों ने जिनेश्वर का उत्तमांग कहा है। जिनवरमा सघला दर्शन छ, दर्शने जिनवर भजना रे। सागरमां सघली तटिनी सही तटिनीमा सागर भजना रे॥ पड़ ॥६॥ अर्थ जिनवर (बीतराग पुरुष के तत्त्वज्ञानरूप दर्शन) मे समस्त दर्शनों का समावेश हो जाता है, परन्तु दूसरे प्रत्येक दर्शन में जिनवरप्रणीत जनदर्शन का समावेश हो मी सकता है, नहीं भी हो सकता है, निश्चित नहीं है। जैसे समुद्र मे तो सभी नदियों का समावेश हो जाता है, परन्तु किसी एक नदी में सागर का समावेश होना एकान्त निश्चित नहीं होता । हो भी सकता है, नहीं भी। भाष्य नोतरागप्ररूपित जनदर्शन में सवका समावेश पूर्वोक्तगाथाओं में वीतरागपरमात्मा के चरण-उपासक को उदार व एवं सर्वदर्शनसमन्वयी वनने की बात कही गई है । परन्तु जबतक साधक के के मनमस्तिष्क में यह बात न जम जाय कि जिनेश्वर या जिनवर का क्या Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४७३ अर्थ है ? क्या यह कोई व्यक्रिविशेष है या गुणवाचक सज्ञा है ? जिनेश्वर मे सभी दर्शनो का समावेश क्यो किया जाय ? उनकी ऐसी क्या विशेषता है, जिससे उनके द्वारा प्ररूपित दर्शन को उत्तमाग माना जाय ? ये और ऐसे अनेक प्रश्न उठते हैं। इससे पूर्वगाथाओ के विवेचन मे हम जिनवर की चरण-उपासना के सन्दर्भ मे भलीभांति विवेचन कर आए हैं कि जिनवर की च ण-उपासना के लिए कितनी उदारता, परमतसहिष्णुता, विचारकता, समता और व्यापक समन्वयदृष्टि होनी चाहिए। जिनवर कोई एक व्यक्तिविशेष नही है, वह एक गुणवाचक सज्ञा है। जो सर्वोच्च उदार, निरपेक्ष, नि स्पृह, सत्यग्राही है रागद्वेषरहित होकर सवको अपने मे समाने की और महाकारुणिक बन कर जगत् के सामने वस्तुतत्त्व को प्रकाशित करने की व्यापक दृष्टि है, वही जिनवर , हो सकते हैं। चाहे उनका नाम कोई भी हो। जनदर्शन को मानने की बात का समाधान पहले हो चुका है। पूर्वोक्त गाथाओ मे जिनवर के ६ दर्शनो का समावेश किया गया है, उसके अलावा विश्व मे और भी अनेक दर्शन हैं, विभिन्न विचारधाराएं हैं, मत-मतान्तर हैं, उन सबका समावेश जिनवर (सर्वदशनयुक्त वीतरागदर्शन) मे हो सकता है। जैसे अनेक गड्ढो, टीलो, घाटियो आदि को पार करती हुई अनेक नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, परन्तु किसी नदी मे समुद्र कदाचित् ही मिलता है, प्राय नहीं मिलता। जव समुद्र मे ज्वार आता है, तब नदी के मुख मे थोडेबहत अशो मे सागर दिखाई देता है। उसी प्रकार जैनदर्शनरूपी समृद्र इतना विशाल है कि उसमें समस्त दाशनिक विचारधाराएव दृष्टियां समा जाती है, वह अपनी अनेकान्तदृष्टिरूपी राजहसी चोच से समस्त दर्शनो को विभिन्न नयो, प्रमाणो और हेतुओ-युक्तिओ से यथायोग्य स्थान पर स्थापित कर देता है। परन्तु अन्यदर्शन नदी के समान हैं। जनदर्शन मे किसी न किसी एक नय या प्रमाण से सभी दर्शनो का समावेश हो जाता है, जबकि अन्यदर्शनो मे किसी-किसी स्थल. पर जैनदर्शन का एकाध अश दिखाई देता है, वशर्ते कि अनेकान्तदृष्टि से देखा जाय यदि एकान्तदृष्टि से देखा जाय तो अन्य दर्शनों मे जनदर्शन का अश भी नहीं दिखाई देता। इसका कारण यह है कि Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ अध्यात्मादर्शन जैनदर्शन ने अपनी एकदेशीयता मिटा कर सर्वदेशीता स्वीकारी है, जबकि अन्य दर्शनो मे से किमी ने भी इस प्रकार की सर्वदेशीयता स्वीकृत नहीं की। नदियां जमे अनेक गड्ढों, टीलो और घाटियो को पार करती हुई समुद्र में मिलती हैं, वे गड्ढे, टीले और घाटियां विविध क्रियाए. हैं विविधपरम्पराएं हैं । उन्हें छोड देने पर ही नदियां समुद्र मे मिल सकती है, इसी प्रकार अन्य दृष्टियों या विचारधाराएं भी ऊपरी आवरणो, परम्पराओ, क्रियाओ आदि को त्याग करके ही जनदर्शनरूपी समुद्र मे नत्त्वदृष्टि से समाविष्ट होती हैं । जैन दर्शन इतना विशाल और व्यापक है। श्रीआनन्दघनजी इस गाथा के बहाने से सूचित कर देते हैं कि जनदर्शन को इतना विशाल, व्यापक तथा सर्वदर्शनशिरोमणि वताने का यह मतलब नहीं है कि किसी भी अन्य मत, दर्शन की मान्यता का द्वेषभाव से खण्डन या तिरस्कार करें, उसे हीन बता कर निन्दा करें। ऐसा करना वीतरागता और समता के मार्ग से विरुद्ध होगा और कोरा दिखावा होगा-समता का, अनेकान्तवाद का । हां, किसी दर्शन का कोई अंश प्रतिकून हो, तो उसके प्रति माध्यस्थ्यभाव रखना चाहिए । अत जैनदर्शन को भी यथार्थरूम मे समझ कर आत्मीयभाव से यथार्थरूप से उसकी आराधना करनी चाहिए। जिनस्वरूप यई जिना आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भृ गी ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे ।। षड्० ॥७॥ अर्थ जो इस प्रकार राग पविजेता वीतरागपरमात्मा के तुल्य हो कर (यानीरागद्वेष को उपशान्त करके जिनसमान हो कर। जिनभाव की आराधना करता है, वह महान् आत्मा अवश्य (निश्चित) ही वीतरागदेव बन जाता है । जैसे भौरी ईलिका (लट) नामक कोड़े के डंक मारती है, उसके सामने गुंजारव करती है तो वह ईलिका कुछ ही दिनो मे भ्रमरी के रूप मे जगत् के लोग देखते हैं, अनुभव करते हैं: १- उदधाविव सर्वसिन्धव समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टय.) । न च तास भशनुवीक्ष्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधि ॥ , सिद्धसेन दिवाकर चौथी द्वात्रिशिका Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४७५ भाष्य । वीतराग बनने का नुस्खा · वीतराग आराधना ' पूर्व गाथाओ मे जिनवर के चरणोपासक बनने के लिए वैचारिक दृष्टि मे विचार-सहिष्णुता, समता, निष् क्षता, उदारता आदि गुणो को ले कर षड्दर्शन को जिनाग मानने की शर्त थी, परन्तु चरण-उपासक बनने का सुफल क्या है ? इसके उत्तर मे श्री आनन्दधनजी कहते हैं जिनस्वरूप यई जिन आराधे, ते सही जिनवरहोवे रे । अर्थात जिनेश्वर भगवान जैसे बन कर (रागपादि वृत्ति निवारण करके) जो साधक आज्ञापालनसहित मन-वचन काया से निर्वद्य भक्तिपूर्वक तन्मय हो कर आराधना करते हैं, वे अवश्य ही जिन- वीतराग) बन जाता है। . इसके लिए वे लौकिक दृष्टान्त दे कर समझाते हैं-शरद ऋतु मे भौंरी को जव मद चढता है, तब वह मिट्टी का घरोदा बनाती है, फिर हरे घास मे से भारी ईलिका (लट) को ला कर उसे डक मार कर के मिट्टी घरौदे मे डाल देती है, फिर उस घरौंदे के आसपास गंजारव करती है । ईलिका डक की पीडा और भ्रमरी का गुंजाख याद करती-करती प्राण त्याग देती है। और कहते हैं, मोहसज्ञावश वह उसी कलेवर द्वारा भ्रमरीरूप बन जाती है । कम से कम १७ वें दिन बाहर निकालती है-हवह भौरी बन कर यह सब एकाग्रतापूर्वक ध्यान करने का परिणाम है । ज्ञानी पुरुष इसे 'कीटभ्रमरन्याय' कहते हैं । । शास्त्र में बताया गया है-कीटोऽपि भ्रमरी ध्यामन् लभते तादृण वपु' । बस यही न्याय जहाँ जिन-भको के लिए है। यो यच्छद्ध स एव स ।' जिसकी जैसी श्रद्धा, भावना होती है, वह वैमा ही बन जाता है । मु मृक्ष को सर्वप्रथम यह निश्चय होना चाहिए कि मेरी आत्मा सिद्धस्वरूप है, दोनो के बीच केवल रागद्वेषादि के कारण ही मेरी भगवान मे दूरी बढती जा रही है । अब मुझे अपना मूलस्वरूप प्राप्त करना है । यो निश्चय करके स्वात्मा मे जिनेश्रवदेव की प्रतिष्ठा करके उसे ध्येयरूप मे सामने रख कर-स्वात्मा को भी जि श्वररूप मे देखने लमता है, जिनदेव मे एकाग्रता करता है, धर्म-शुक्लध्यान द्वारा एक * ध्यान से स्थिरचित्त हो कर जिन-जिन' यो रटन करता है, वह आत्मा अन्त मे' राग-द्वेप कपाय-मोह से मुक्त हो कर अवश्य ही वीतराग परमात्मा बन जाता - है । तात्पर्य यह है कि निर्विकारो जिनदेव का दत्तचित्त हो कर ध्यान करने से साधक जन्ममरण तथा उससे सम्बन्धित असख्य दुखो का निवारण करके स्वय जिन हो जाता है , . Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यात्म-दर्शन चूरिण, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्ति परम्पर-अनुभव रे। समय पुरुषना अंग कह्या ए, जे छेदे ते दुभंव रे ।। षड् ॥ ८॥ अर्थ पूणि, भाष्य, सूत्र,नियुक्ति,वृक्ति और परम्परा का अनुमत्र; इन सबको समयपुरुष के अग कहे हैं । जो इनका उच्छेद करता है ( इन्हें नहीं मानता ) वह दुर्भव यानी दूरभव्य ( बहुत लम्बे काल वाद मोसगमन के योग्य ) है। भाष्य समयपुरुष के जह अंगो को आराधना जैनदर्शन को वीतरागपरमात्मा का उतमाग कहा है। उत्तमाग मे ही विविध विचारधाराएँ , तत्वज्ञान या दृष्टियां भरी पडी हैं, परन्तु उन विवारधाराओ के परिपक्व बनाने और गहराई मे चिन्तन करके उनका विकाम कर सके, परम्पर सामञ्जस्य व समन्वय विठा सके, इसके लिए जैनदर्शनरूपी उत्तमाग के विविध अवयवरूप इन छह अगो की यथायोग्य आराधना करनी चाहिए। प्रश्न होता है-इन ६ अगो की आराधना करने का क्या उद्देश्य है ? इन ६ अगो की आराधना कसे और किस तरीके से करनी चाहिए? वास्तव मे ये छह अग ज्ञान प्राप्त करने के महत्वपूर्ण अग हैं। मूलसूत्र न होते तो परापूर्व से । तीर्थकरो से ले कर गणधरो, और कुछ प्रभावक आचार्यों का ज्ञान कहां से प्राप्त होता? इसी तरह मूलसूत्रो पर व्याख्या, टीका, नियुक्ति, चूणि और गुरुपरम्परा से प्राप्त अनुभवो की रचना न होती तो इतने आध्यात्मिक ज्ञान का विकास कैसे होता? इसलिए सूत्र से ले कर परम्परानुभव तक का जो ज्ञानवैभव है, बोध की अपूर्व सामग्री है,उमको ठुकराना, उसका अनादर करना, उसके लाभ से वचित रखना कहां की बुद्धिपानी है ? जो व्यक्ति ज्ञान के इन उत्तम निमित्तो की उपेक्षा कर देता है या इनका खण्डन व अमलाप करता है, वह इस जन्म मे तो उस अमूल्य निधि से वचित रहता ही है, अगले अनेक जन्मो मे भी उसे वैसी अभूत पूर्व ज्ञाननिधि नही मिलती । इमोलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं-जे छेदे ते दुर्भदे' । अर्थात् जो समय पुरुष के इन अगो को काटता है ( इनका छेदन करता है । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४७७ वह ज्ञान (सम्यक्वोध) से रहित हो करससार मे दुर्गति मे, परिभ्रमण करता है। इसलिए प्रत्येक वीतराग-चरण-उपासक को इन छह अंगो की विधिवत् आराधना करनी चाहिए। सूत्रादि षडग क्या हैं ? उनकी विशेषता क्या है ? जैनदर्शन को समझने के लिए मूलसूत्रो अगोपागो का पठन-पाठन बहुत ही आवश्यक है। परन्तु मूलसूत्र प्राकृत अर्धमागधी भाषा में है। बिना टीका आदि के वे दुरूह आगम समझ मे नही आ सकते । इसलिए समयपुरुष के ये छहो अंग अत्यन्त उपयोगी हैं, स्वपरहितकारी हैं, और ज्ञानगुण के विकास के लिए प्रवल निमित्त हैं। यद्यपि जैनतत्व-ज्ञान का विपुल अमूल्य साहित्यजिसे ' पूर्व' कहते हैं, कालक्रम से अनुपलब्ध हो गया है, फिर भी जितना सूत्रादि साहित्य उपलब्ध है, उसी का उपयोग किया जाय तो बहुत ज्ञान-लाभ हो सकता है । अव हम क्रमश इन छहो की सक्षेप में परिभाषा दे रहे हैंचूणि-पूर्वधरो द्वारा अर्धमागधी मे किये हुए कठिन प्रकीर्णक पदो के अर्थ, भावार्थ। भाष्य-चौदह पूर्वधरो या गणधरो द्वारा रवित मूलसूत्रो पर अर्धमागधी या वर्तमान प्रचलित भाषामो में सम्पूर्ण पद का विस्तृत अर्थ सूत्र-तीर्थकरो के गणधरो द्वारा रचित मूल सूत्र । ११ अग वर्तमान मे उपलब्ध हैं, जो श्रीसुधर्मास्वामी द्वारा रचित हैं। नियुक्ति - व्युत्पत्ति के द्वारा शब्दो का अर्थ करना। वह प्राय अर्ध-मागधी भापा में होती है। वृत्ति-सूत्र पर सस्कृत टीका, चाहे जिस पूर्वाचार्य द्वारा लिखित हो, बहुत ही प्रकाश डालती है- मूलसूत्रोक्त बातो पर। परम्परागत अनुमत्र-गुरुशिष्यपरम्रा से प्राप्त अनुभवज्ञान, धारणामो का ज्ञान। __ समयपुरुष के ये ६ अंग हैं । अगर जैनदर्शन की आराधना करनी हो तो उपर्युक्त छही अगो को समझना, पठन-पाठन, अध्ययन-मनन करना और उनका आदरपूर्वक अनुसरण करना चाहिए । छही अग अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं, उपयोगी हैं । आध्यात्मिक विज्ञान के लिए इनसे बढकर और कोई धर्मशास्त्र Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ अध्यात्म-दर्शन -संग्रह नजर नहीं जाता । बौद्ध साहित्य में भी प्राय मध्यमकोटि के धर्मोदेिश हैं। वैदिक साहित्य मे उनिपदविमाग महत्वपूर्ण है. उसके सिवाय किसी पदार्थ की व्योरेवार स्पष्टता वेदो, पुगणो आदि में नहीं प्रतीत होती । इसमे कुरान वाइ विल,अवेस्ता, ग्रन्यमाहव आदि अन्य अनेक धर्मों के मूलभूत धर्मग्रन्य प्राय.' अपने-अपने धर्म-सम्प्रदाय तक के मीमित दायरे का ही विचार करके इतिसमाप्ति कर देते हैं। वैसे तो जनदशन इतना उदार है कि उन -उन धर्मग्रन्यो मे जो भी बोडी-बहुत अच्छी आत्महितकारी, यथातथ्य बातें होती हैं, उन्हें आदरपूर्वक स्वीकार करता है, जैमा कि पहले : दर्शनो को जिन-अप बना कर उनका यथायोग्य मूल्याकन करने का जोर, शोर से प्रयल किया गया है। भगवान् की चरण-उपासना के सन्दर्भ मे छही दर्शनो की आलोचना या निन्दा किये बिना तहदिल से अपनाने पर बल दिया है । किन्तु जब तक उसका कोई उच्च सालम्बन ध्यान न बता दिया जाय, तब तक पूर्णतः भगवच्चरणोपासक कोई कैसे बन सकता है ? इसी बात को लक्ष्य में रख कर इस गांचा मे समय पुरुप के अग बता कर उनकी आराधना करने की बात कही गई, अगली गाया मे इसी शास्त्रज्ञान पर सालम्बन पदस्यध्यान की प्रक्रिया वाते हुए कहा है मुद्रा, बीज, धारणा, अक्षर न्यास अविनियोगे रे। जे घ्यावे ते नविवचीजे, क्रिया-अवचक भोगे रे ॥ पड़० ॥६॥ अर्थ मुद्रा (विविध आराधनाओ के लिए शरीर की पृयक् पृथक् आकृति), बीज (मंत्र का मूल बीजाक्षर या वोजक), धारणा (इन्द्रियजय के बाद और ध्यान की पूर्वभूमिकारूप पार्थिवी आदि धारणाएं), अक्षरन्यास (अष्टकमलदल या अन्यत्र क, च, ट, त,प इत्यादि मत्राक्षरो की स्थापना करना), अर्य (अर्थ, भावार्थ का आलम्बन), दिनियोग (स्वय जानी हुई चीज योग्य पात्र को बता कर बोध कराना, गुरुगपूर्वक देना) इस प्रकार इन ६ मालम्बनों द्वारा (श्रीवीतरागदेव रूप या समयपुत्परूप ध्येय का) जो भव्यसाधक ध्यान करता है, वह वचित (ठगाता नहीं होता। और वह फ्रियाऽवचकत्व का उपभोग करता है, अर्थात् उसे वह प्राप्त हो जाता है। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४७६ भाष्य जिनवर या समयपुरुष का सालम्बनपदस्थध्यान जिनवर के चरण-उपासक बनने के लिए समयपुरुष (जैनदर्शनरूप) को ध्येय बना कर ६ या ७ आलम्बनो द्वारा ध्यान करके वीतरागत्व प्राप्त करने की प्रक्रिया इस गाथा मे श्रीमानन्दघनजी ने बताई है। यह गाथा मुख्यतया योगनिया स सम्बन्धित है। योग मे ध्यान की . प्रक्रिया सर्वोत्तम है । 'पदस्थ' ध्यान जिसे करना हो, उसके लिए आलम्वन लेना परम आवश्यक है। प्रत्येक साधक को पहले उसका अर्थ समझ लेना चाहिए । अत सक्षेप मे अर्थ नीचे दिया जाता है। सर्वप्रथम ध्यान, ध्येय और ध्याता तीनो की त्रिपुटी का योग्य होना चाहिए । अगर इस ध्यान के योग्य पात्र न हो तो, उसे पहले पात्र बनने का अभ्यास करना चाहिए। तदनन्तर यह चयन करना चाहिए कि मुझे कौन-सा ध्यान करना है ? ध्यान के ४ .प्रकार हैं-पिण्डस्य, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । इन चारो मे यहाँ निर्दिष्ट ध्यान पिण्डस्थ है। इसलिए ध्याता साधक को मन मे निश्चित कर लेना चाहिए कि मुझे पिण्डस्थ ध्यान करना है, और उपर्युक्त ६ या ७ आलम्बन लेने हैं । तत्तश्चात् उसे ध्येय का भी चुनाव करना चाहिए । ध्येय वही चुनना चाहिए, जो ध्यान द्वारा प्राप्त होना सम्भव हो । यहाँ प्रसगवश जिनदेव के कल्पवृक्षसम पदरूप समयपुरुष को ध्येयरूप मे चुनना है ।, और ध्येय के साथ ही ध्याता को भी तदनुकूल ध्यान मुद्रा आदि मे बैठना आवश्यक है । वे, ६ या ७ अग इस प्रकार हैं - मुद्रा -ध्यान करते करते समय पद्मासन या सिद्धासन, से बैठ कर अपने स्यूलशरीर को शान्त व एकाग्र बनाने के लिए शरीर की विविध आकृतियो (पोज) मे रखना होता है, उसे ही मुद्रा (पोज) कहते है। जैसे शबावर्त, पद्मावर्त, आवर्त, नवपदवर्त हीवर्त, नन्दावर्त, ऊवर्त आदि जप करते समय की मुदाएँ हैं । इसी तरह हाथ, पैर, मुख, सिर आदि की मुद्राएँ भाष्य मे बताई गई है। बीज-प्रत्येक मत्र के कुछ मून वीज या बीजाक्षर होते हैं, उन्ही के आधार पर मत्र सिद्ध होता है, मत्र द्वारा जो साध्य करना होता है, वह बीजमत्र फे द्वारा होता है । जैसे ऊँ ह्री, थीं, क्ली, ब्लू ऐं आदि बीजमत्राक्षर हैं। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० अध्यात्म-दर्शन घारणा-ध्यान करने से पूर्व योग के अप्टागोक्त धारणा व रनी पड़ती है। जो इन्द्रियजय के बाद और ध्यान से पहले ध्यान की पूर्वभूमिकास्प में होती है। ये धारणाएं कई प्रकार की होती हैं जैसे पायिवी, वारुणी आदि । अथवा अपने भावो मे १२ गुणो सहित अन्हिन्त की, या ८ गुणसहित सिद्ध की, ३६ गुणो सहित आचार्य की, २५ गुणो सहित उपाध्याय की अथवा २७ गुणों सहित मुनिवर की धारणा (भावना) करनी चाहिए। अयवा बीजाक्षर-धारणा एक शब्द है, इसके अनुसार कौन-सी मुद्रा धारण कर के कौन-से अक्षर का कैसे ध्यान किया जाय ? इसे वीजाक्षरधारणा कहते हैं । ध्येय पर चित्त को स्थापन करके उसमे एकाग्र करना पातजलयोग के अनुसार धारणा है, जो बाह्य मे सगुण (साकार) ईश्वर का ध्यान तथा आभ्यन्तर मे नासिका, जिह्वा आदि सात चक्रो की व्यवस्था वताई गई है। अक्षर-न्यात-अ, इ, उ, आदि अक्षरो की शास्त्रसम्मत विधि मे स्थापना करना और उन्हीं स्थापित अक्षरो पर चित्त को एकाग्र करना अक्षरन्यात कहलाता है । मन्त्रशास्त्र में इसकी अनेक विधियां बताई गई हैं। अथवा अक्षर और त्यास ये दो शब्द मान कर दोनो के अलग-अलग अर्य किये गए हैं। जैसे अक्षर का अर्थ है- अकारादि अक्षरावली वाले सूत्रसिद्धान्त या किसी. तत्त्वज्ञान पर मनन करना, मन को एकाग्र करना, न्यास का अर्थ है-गुरु की आज्ञानुसार कमल, हृदय आदि पर अक्षर की स्थापना करना, फिर द्रव्यअक्षर से निकल कर भाव अक्षर (आत्मा-परमात्मा, जो क्षर (विनाशी) नही है, उस पर मनन करना, साक्षात्कार करने हेतु मन को जोड़ना। अर्थ-अर्थ या भावार्थ का अवलम्बन लेना। विनियोग-दूसरों (योग्यपात्रो) को ध्यान के अर्थ (ज्ञान) का गुरुगम कराना, अथवा ध्यान मे लगाना । अयवा अर्थ-विनियोग दोनों मिल कर एक शब्द मान , कर अर्थ किया गया है-परम अर्थ यानी ध्यान का विषय पिण्डस्थ हो या पदस्थ हो, रूपस्थ हो या रूपातीत, उसका आत्मार्थ (आत्महित के लिए) ही - चित्तवृत्ति मे विनियोग करना। क्योकि सासारिक या फलाकांक्षाविषयक अर्थ को ले कर अनर्थ की सभावना है। इस प्रकार विधिवत् (६, ७ या ८ प्रकार से युक्त विधि से) ध्यान (चित्त Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४८१ काग्र य) करता है, वह क्रियाऽवचकता प्राप्त कर लेता है। क्रिया-अवचकता कैसे सिद्ध हो सकती है, इस विषय पे आठवें तीर्थकर की स्तुति मे भलीभांति विवेचन किया गया है, वहां से जान लें। इस प्रकार का अवचक-आत्मा कपट, कषाय, मोह, काम, रागद्वेषादि ६ रिपुओ से पराजित नहीं होता, सर्वत्र विजय पाता है और क्रिया-अवचक का यथार्थ उपभोग (आनन्दलाभ) करता है। जो लोग पुत्र, धन, परिवारादि तथा स्वर्गादि सासारिक सुख के लाभ के लिए दम्भयुक्त, प्रदर्शन के लिए, आश्रव एव पापसेवन करते हुए सावध, किन्तु तथाकथित धार्मिक क्रिया करते हैं, वे स्वपरवचना करते हैं, असत्य पदार्थ को ले कर सत्य को खोजते हैं । इसीलिए यहाँ कहा गया-'जे ध्यावे ते नवि वचीजे' जो उपर्युक्त विधि से ध्यान-क्रिया करता है वह वचित नही होता । इसके अतिरिक्त जो दम्भादिपूर्ण क्रिया अपनाता है, वह तो मायिक है ही, वचित होता ही है। श्रत १ अनुसार विचारी बोलु, सुगुरु तथाविध न मिले रे। किरिया करी नवि साधी शकीए, ए विषवाद चित्त सघले रे ॥ ॥षड्० ॥१०॥ अर्थ आचारागादि शास्त्रो (सूत्रो) मे जिस प्रकार कहा है, उसके अनुसार जब विच र करके वोलता हूँ तो तथाविध (जैसे होने चाहिये, वैसे) सुगुरु ढूढने पर भी नहीं मिलते। (सुगुरु के मार्गदर्शन के विना) अपनी इच्छानुसार क्रिया करते रहें तो जिस साध्य को साधना चाहते हैं, उसे साध नहीं सकते । अथवा ऐसे किसी सद्गुरु का योग मिला नहीं है, जिनके सहयोग से पूर्वोक्त क्रियाऽवचकयोग साध सके । यह सब विषवाद (विषाद या दुख) सभी मुमुक्ष ओ के चित्त मे है अथवा मन मे सब जगह ऐसी दुविधा-सी स्थिति रहा करती है । भाष्य क्रियावचकयोग के लिए सुयोग के अभाव का हार्दिक खेद पूर्वगाथा मे जिस क्रियाऽवचकता की प्राप्ति का उल्लेख था, उस पर ___ १ 'श्रुत' के बदले कही कही 'सूत्र' शब्द मिलता है । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ अध्यात्म-दर्शन विचार करते हुए श्रीआनन्दधनजी गहरे विवाद मे डूब गये । वे अपना हार्दिक दुख इस गाथा के द्वारा वीतरागपरमात्मा के सामने व्यक्त करते हैं । स्वच्छसरल-सरसहृदय साधक प्रभु के सामने अपने मन में कोई गाठ नहीं रखता, वह अपने अबोध बालक की तरह प्रभु को माता-पिता समझ कर उनके सामने अपना हृदय खोल कर रख देता है- अपनी जैसी स्थिति, शक्ति, गति, मति है, उसे वह प्रभु के सामने प्रगट कर देता है। श्रीआनन्दघनजी ने जव उपर्युक्त साधना के विषय मे मथन किया तो वे प्रभु के सामने पश्चात्तापपूर्वक पुकार उठे-"प्रभो। व मैंने आचारागादि शास्त्रो का गहराई से अध्ययन किया तथा सम्यक् श्रतज्ञान के सामर्थ्य से जो कुछ मुझे अनुभव हुआ है, उसे देखते हुए उस पर से जब मैं बोलता हूँ तो उक्त साधना के लिए जैसे सुगुरु चाहिए, वैसे अब तक मुझे नही मिले । मार्गदर्शन के बिना क्रियावचकता आदि कोई भी साधना यथार्थरूप से नही हो सकती । विश्वव्यापी ज्ञान की वडी-वडी बातें करने वाले, लच्छेदार भाषण देनेवाले, आत्मज्ञान की हीग हाकने वाले अनेक तथाकथित गुरु मिलते हैं, परन्तु शास्त्रो मे सृगुरुओ का जैसा वर्णन मिलता है, जो लक्षण आगमो मे बताये गए हैं, उनके अनुसार जब मे हृदय की कसौटी पर उन्हे कस कर जाचता-परखता हूं तो मेरी कसौटी मे वे खरे नहीं उतरते । यह मैं कोई अभिम - नवश नही कह रहा हूँ, नम्रतापूर्वक मैं अपने दुर्भाग्य को प्रगट कर रहा हूँ। गुरु तो सबको मिलते हैं, परन्तु शास्त्रो मे बताए (जिनके लक्षण आदि के सम्बन्ध में 'आगमधर गुरु समकिती · आदि के रूप मे शान्तिनाथभगवान् की स्तुति के प्रसग मे हम पर्याप्त विवेचन कर आए है । लक्षणो या गुणो के अनुसार वैसे सुगुरु का योग इस पचम (कलि) काल मे नही मिलता, एक प्रकार से ऐसे सुगुरुओ का तो दुप्काल सा ही है । मालूम होता है, योगी श्रीआनन्दघनजी के समय मे तथाकथित नामधारी सूरी आचार्य,उपाध्याय,गणी, साधु आदि की कमी नही थी, परन्तु उन सबमे उन्हे प्राय धनिकभक्तो की गुलामी, क्रियाकाण्डपरायणता, रूढिग्रस्तता, सत्त्वश्रद्धारहित त्रियाहीनता और आदम्बर, पद, प्रसिद्धि आदि की महत्त्वाकाक्षा दिखाई दी होगी, जिसके कारण अथवा उन्हे स्वय को उस समय के गुरुओ से बहुत ही क्टु अनुभव हुआ होगा। तभी खेद के ये उद्गार निकाले होंगे- "सुगुरु तथाविध न मिले रे Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण उपासक ४८३ प्रश्न होता है - यदि श्रीआनन्दघनजी को अपनी परख के अनुसार वैसे मुगुरु न मिले नो न सही, वे अपने अन्त करण से सत्य समझ कर क्रिया या साधना करने, क्या जरूरत थी. उन्हें मुगुरु की या सुगुरु के सम्बन्ध मे विचार करने की ? आनी मस्ती मे रहते और यथेष्ट साधना करते । इसका उत्तर स्वय वे ही दे देते है-'किरिया करी नवि साधी शकीए' । श्रीआन दधनजी वर्तमानयुग के तथाकथित साधको की तरह उच्छृ खल नही थे, न स्वेछाचारवादी थे, वे योग गुरु के मार्गनिर्देश न मे साधना करने के पक्ष मे थे । सुगुरु के योग्य मार्गदर्शन प साधना करने से समय-समय पर साधना के मार्ग में आई हुई अडचने दूर हो सकती हैं, वे योग्य मार्गदर्शन दे कर मार्गभ्रष्ट साधक को ठिकाने ला सकते हैं । परन्तु श्रीआनन्दघनजी को ऐसे सद्गुरु की ओर से मार्गदर्शन, यथार्थ परम्परानुभव नही मिल सका, इसी बात का खेद वे प्रभु के सामने प्रगट कर रहे हैं । सद्गुरु के अभाव मे योग्य मार्गदशन या प्रेरणा न मिलने से मोक्षफलदायिनी क्रिया करके वे लक्ष्यसिद्धि नहीं कर सके। परिणामस्वरूप साध्य को सिद्ध न करके, बाह्यक्रियाएं करके पुण्यबन्ध मे ससार भ्रमण ही कर पाए । वास्तव मे ऐसी थोथी क्रियायो से सिवाय पुण्यप्राप्ति के अधिक प्राय मिलता नहीं, इसी बात का खेद या विषवाद रहा करता है । ऐसा लगता है कि इतनी मत्र क्रियाएँ करते हुए भी उनसे मोक्षप्राप्तिरूप फल तो सिद्ध नहीं होता, सिर्फ सासारिक पौद्गलिकप्राप्ति मिल जाती है। यानी मेहनत पहाडभर है, फल राई के दानेभर है । इनका कारण सद्गुरुदेव की कृपादृष्टि या सत्प्रेरणा का अभाव है। "ऐसे सद्गुरु के अभाव की खटक केवल मेरे मन मे ही नहीं, मेरे सभी सभी साधकसाथियो या मुमुक्षुओ के दिलमे भी इसकी वही खटक है। प्रभो । आप अन्तर्यामी हैं, आपके सामने अपनी गलती या विषाद की बात का स्वीकार करने में मुझे जरा भी सकोच नही है । मुझं स्वय इस बात का खेद है। अत अब आप ही सुझाइए कि मुझे क्या करना चाहिए ? इस प्रकार की प्रार्थना वे अन्तिम गाथा मे करते हैं ते माटे ऊभो कर जोड़ी, जिनवर आगल कहीए रे। समय-चरणसेवा शुद्ध देजो,जिम आनन्दघन' लहिर रे॥ षड्॥११॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ अध्यात्म दर्शन - अर्थ पूर्वोक्त अभावद्वय के कारण करयुगलवद्ध हो कर हम माप जिनवर के समक्ष (शुद्धहृदय से) निवेदन करते हैं, हमे समयपुरुष की या सिद्धान्तसम्मत (शास्त्रोक्त) रुप जिनवर की शुद्धचरणसेवा देना (पवित्र चारित्रसेवन की कृपा करना, ताकि हम भी आनन्दघन (परमानन्दस्वरूप) पद प्राप्त कर सकें। भाष्य भक्त की प्रभु वीतराग से चरणसेवा की प्रार्थना भक्त के हृदय मे जब विषाद का भार बढ जाता है, तब उसे हलका करने के लिए वह भगवान् ने सामने अपना दिल खोलता है । इस प्रकार भगवान् के सामने हृदय की बात कह डालने से हलकापन तो महसूस होता ही है, कभीकभी हृदय का कालुप्य धुल जाने से निर्मल अन्त करण पर अद्भुत आध्यात्मिक प्रेरणाएं अकित हो जाती है, उस स्वत प्रेरणा को भक्त प्रभुप्रेरणा मान कर शिरोधार्य करता है। यही बात यहां श्रीआनन्दघनजी के सम्बन्ध मे है। वे शुद्ध अन्त करण से करबद्ध हो कर मन मे प्रभु की छवि अकित करके खडे हुए और प्रभु के सामने अपने अन्तर की पुकार करने लगे- मेरे हृदयेश्वर । अव जव कि मुझे सद्गुरु की प्रेरणा मिलने का कोई अवसर (Chance) नहीं दिखता और उसके अभाव मे मेरी साधना शुद्धमोक्षदायक नहीं हो सकती, तव निरुपाय हो कर आपसे नम्रतापूर्वक प्रार्थना करता हूं कि मुझे आपके (वीतरागप्रभु के समयपुरुप के) शुद्ध चरणो (स्वरूपरमणस्प या स्वात्मानुभवरूप चारित्र) की सेवा (आराधना) का अवमर दें, जिससे मैं सच्चिदानन्दरूप (आनन्दघन) प्राप्त कर सकें। यहाँ श्रीआनन्दघनजी ने प्रभु से शुद्ध चारित्र की माग की है, इसके पीछे निम्नोक्त कारण प्रतीत होते हैं एक तो यह कि शुद्ध चारित्र होगा, वहाँ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान अवश्य होंगे ही। परन्तु 'अगर वे सम्यग्ज्ञान मागते तो मम्यक्चारित्र नही प्राप्त होता । इसलिए सम्यक्चारित्र मागने के साथ-साथ उन्होने उक्त दोनो रत्न मांग लिए हैं । दूसरा कारण यह है कि प्राणी को तथाप्रकार के शुद्ध चारित्र की प्राप्ति के लिए अर्धपुद्गलपरावर्तन-काल शेप रहे तव तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। किन्तु प्रभुकृपा हो जाय और अन्त करण मे तीव्र सवेग प्राप्त हो जाय तो इतना लम्बा काल भी झपाटे के साथ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४८५ पार हो जाता है । समय-चारित्र की माग की है, इससे फलितार्थ निकलता है कि वे समयपुरुष की चरणमेवा के पूर्वोक्त उपायो को जानते हैं, केवल तदनुसार आचरण करना ही शेष है, वह आचरण (चारित्र) ही अतल समुद्र को पार करने के समान वहुत दुष्कर है, कोई सद्गुरु भी साथ मे मार्गदशक नहीं है, इसलिए प्रभु का हाथ पकड कर उनके अन्तनिर्देश मे वे चारित्ररूपी महासमुद्र को पार होने के लिए उद्यत है । देखिए, कव उनकी आशा पूर्ण होती है । सारांश इस स्तुति मे वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक के लिए सर्वप्रयम छह दर्शनो को जिनवर के अंग मान कर उनको यथायोग्य स्थान पर स्थापित करना जरूरी बताया है। यहाँ तक कि लोकायतिक दर्शन को भी जिनवर का उदर माना है। इस प्रकार की विवेकपूर्ण श्रद्धा के स्वीकार के बाद छह दर्शनो को नदियो की और जनदर्शन को समुद्र की उपमा दे कर जनदर्शन के उत्तमाग होने की बात को और पुष्ट किया है । इसके बाद चरण-उपासना को नया मोड देकर उपास्य के अनुरूप उपामना की उच्चरीति बताई है। इसके पश्चात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनो की उपासना को चरणोपासना मे गतार्थ करके उसकी उत्तम विधि बताई है । तदनन्तर चारित्र की उच्च कक्षा पर पहुँचने के लिए मार्ग-दर्शक सुगुरु के अमाव का खेद व्यक्त करके प्रार्थना की है। कुल मिला कर वीतरागप्रभु के चरणउपासक बनने का सुन्दर तत्त्व श्रीआनन्दघनजी ने इस स्तुति मे मे प्रगट कर दिया है। - - Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : श्रीनेमिनाथ-जिन-स्तुति ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता (तर्ज धणरा ढोला, राग-मारुणी) अष्टभवान्तर वालही रे, तुं मुझ आतमराम, मनरा व्हाला! मुगति-स्त्रीशु आपणे रे, सगपरण कोई न काम, मनरा०। १॥ अर्थ राजमती श्रीनेमिनायस्गमी से कहती है-"आठ भवों (जन्मों) तक मैं आपकी प्रियतमा पत्नी थी और आप मेरी आत्मा (आत्मा के अन्दर के भाग) मे रमण करने वाले या सतत प्रेमपूर्वक आत्मा मे स्थान = आराम पाये हए नाय थे। हे मेरे मन के प्रियतम ! मुक्तिरूपी स्त्री (शिवसुन्दरी) के साथ अपनी सगाई-सम्बन्ध जोडने (वाधने) से कोई फाम (प्रयोजन) नहीं है। भाष्य इस परमात्म-स्तुति का प्रयोजन और रहस्य इस बावीसवें तीर्थकर श्रीअरिष्टनेमिनाथस्वामी की स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने जो विषय छेडा है, उसे ऊपर से देखने वाले को यही प्रतीत होता है कि सासारिक पति-पत्नी का कोई प्रेम सवाद और खासकर पत्नी की ओर से पति को उपालम्भ और उपदेश दिया जा रहा हो इस प्रकार का दाम्पत्यराग है, इसमे आध्यात्मिकता का एक छोटा भी नही है। परन्तु इस स्तुति का गहराई से अध्ययन करने पर बताया गया है कि इसमे ध्येय (परमात्मा) के साथ ध्याता की एक्ता सततध्यान के कारण जुडती है, लेकिन बहिर्मुखी चित्तवृत्ति की तरफ आत्मारूपी पति के आकर्षित हो जाने पर परमात्मा से दूरी बढती चली जाती है । प्रारम्भ मे १० गाथाओ तक श्रीराजीमती के द्वारा श्रीनेमिनाथ स्व मी को मोहाविष्ट, रागातुर एव सांसारिक प्रीति की ओर आकृष्ट करने के लिए उपालम्भ-वचन आदि युक्तियो से प्रयत्न किया जाता है, फिर एक नया Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ४८७ मोड लिया जाता है, परमात्मा के वीतरागस्वरूप को पहिचानते हुए भी रागाविष्ट करने की कोशिश की जाती है, फिर १४ श्री गाथा से राजीमती की मोहदशा कम हो जाती है, वह परमात्मा की वीतरागदशा का ध्यान करके स्वकर्तव्य का विचार करती है, स्त्रय परमात्मपद का ध्यान करके ध्येय के निकट पहुंच कर परमात्मा मे लीन हो जाती है, भगवान् नेमिनाथ की मुक्ति से ५४ दिन पहले राजीमनो सती मुक्ति मे पहुँच जाती है । अर्थात् ध्याता राजीमती अपने स्वामी नेमिनाथ के चरणो का अनुसरण करके उनसे पहले ही अपने ध्येय-परमात्मा मे विलीन हो जाती है। योगी श्रीआनन्दघनजी इसी प्रकार मोहादि पड्विकारो से पर हो कर मुक्तिपदप्राप्ति के इच्छुक भव्यमुमुक्ष आत्माओ को इस स्तुति द्वारा यही बोध दे रहे हैं कि वाह्य ध्येय तो निमित्त रूप ही होता है, सच्चा और अन्तिम ध्येय तो ध्याता के शरीर मे रहा हुआ आत्मतत्त्व ही है। इसलिए इस निमित्त का नाममात्र को अवलम्बन ले कर भी भव्यात्मा को म्व-आत्मतत्त्व के साथ ही एकता सघनी है । ऐमा होने से ध्याता और ध्येय की एकरूपता हो जाती है, जो इस स्तुति का बास प्रयोजन है। दूसरी एक महत्त्व की वस्तु इम स्तुनि मे गुप्त रहस्य के रूप मे शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से यह मालूम हाती है कि आत्मा जब भौतिक इन्द्रियो के भोगोपभोगो का त्याग क के आत्मदृष्टि मे स्थिर होने का प्रयत्न करता है, वह वहिमुखी इन्द्रियरूपी चित्तवृत्ति उसे अपने में रमण करते रहने के लिए ललचाती है, विविध मोहक प्रलोभनो (वचनो) से उसे खीचने का प्रयास करती है । परन्तु स्थितप्रज्ञ आत्मा जब उन वहिर्मुखी इन्द्रियो के भ्रामक मोह (बाग्) जाल मे नही फेम कर आमदृष्टि मे ही स्थित होने का दृढ प्रयत्न करती है, तब बहिमुखी बनी हई वह चित्तवृत्ति ही अन्तर्मुखी हो जाती है। यह वित्तवृत्ति भी आत्मा के इस ऊध्वगामी पद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो जाती है। फलन वह अन्तर्मुखी चित्तवृत्ति आत्मा के परमानन्द मे मिलने से पहले ही आत्मस्थित वन कर परमानन्द प्राप्त कर लेती है। इस तथ्य को महात्मा आनन्दवन जी ने इस स्तुति मे रूपक के माध्यम से कथ्य के रूप मे बहुन ही सुन्दर ढग से प्रस्तुत किया है । बहिर्मुखीवृत्ति वाली राजीमत्ती के मुख से वहिर्मुखी बनी हुई चित्तवृत्ति सरीखे ही ताने, आक्षेप Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ अध्यात्म-दर्शन भरे उपालम्भ और मोहक एव भ्रामक शब्द कहलाए जाने पर भी श्रीनेमिनाथ स्वामी वापिस नहीं लौटते हैं, तब राजीमती स्वय ही भगवान नेमिनायस्वामी के मार्ग का अनुसरण करके अन्तर्वृत्ति मे स्थिर हो जाती है । ___यहाँ यह शका होनी स्वाभाविक है कि पहले की स्तुतियो मे और इस स्तुति से आगे की स्तुतियो मे किसी भी स्थल पर श्रीआनन्दघनजी ने दूसरे के मुंह मे स्तुति नहीं कराई तो फिर यहां राजीमती के मुख से स्तुति क्यो कराई गई ? इसके समाधान में हम यो कह सकते हैं कि मुमुक्षु भव्यात्मा अथवा श्रीआनन्दघनजी ने स्वय ने ही राजीमती के बहाने से परमात्मा नेमिनाथ के चरित्र का स्मरण करने के लिए ही ऐसा किया है। इन्ही पूर्वोक्त गूढ अर्यों के प्रकाश में इस स्तुति की विभिन्न गाथाओ का अर्थ समझने का प्रयत्न करना चाहिए । राजीमती-बहिर्मुखी चित्तवृत्ति द्वारा स्थितप्रज्ञ आत्मा रूप नेमिनाय को प्रार्थना यह सारी स्तुति स्तुतिकार ने उग्रसेनपुत्री राजीमती के मुख से करवाई है। दसरे तीर्थकगे की अपेक्षा नेमिनाथप्रभु का चरित्र अदभत है। वे आजीवन बालब्रह्मचारी के रूप में ही रहे हैं, किन्तु श्रीकृष्ण जी की प्रेरणा से, विवाह के लिए उन्होंने मौन सम्मति दे दी । लेकिन जब वे राजीमती के साथ विवाह करने के लिए वरात ले कर स्वयं रथारूढ हो कर श्वसुरगृह की ओर प्रस्थान करते हैं, तो रास्ते में ही उन्होने बरातियो को मांसभोज देने के लिए एक वाड़े मे बद पशुपक्षियो को आर्तनाद करते हुए देखे । नेमिनाथ उनकी पुकार को समझ गए और उन सव भद्रप्राणियो को बन्धनमुक्त करवा दिये। उन्हे यह खेद हुआ कि मेरे विवाह के निमित्त से इन सब निर्दोप प्राणियो की हत्या होती, अत वे इस विवाह से ही विरक्त हो कर विवाह किये बिना ही वापिस लौटने लगे । सारे वरातियो मे खलबली मच गई। राजीमती ने जब अपने भावी पति ( वरराज नेमिनाय ) को विवाह किये बिना ही वापिस लौटते देखा तो उसके मन में भूकम्प का-सा झटका लगा । मोहवश एक बार तो वह मूच्छित हो गई. किन्तु फिर होश मे आ कर अपने साथ किये हुए सगाई (वाग्दान) सम्बन्ध को याद दिला कर वह नेमिनाथ मे पुकार करने लगी । इस स्तुति की १३ गाथाओ तक स्तुतिकार ने सती राजीमती के मुत्र से जो पुकार ( प्रार्थना ) Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ४५६ नेमिनाथस्वामी के प्रति कराई है, वह बहुत ही सुन्दर ढग से प्रस्तुत की गई है। खासतौर से श्रीरानीमती के ताने और उपालम्भो ने उस अद्भुतता मे और वृद्धि कर दी है। राजीमती कहती है-'हे स्वामिन् । पिछले आठमवो मैं मे आपकी प्राणवल्लभा थी, आप मेरे प्रियतम थे, मेरी आत्मा के एकमात्र आरामस्थल आप थे । आपने मुझे अपनी प्राणप्यारी समझ कर मेरे मन के तमाम मनोरथ पूर्ण किये। अव इस भव मे आप क्या कर रहे हैं ? मैंने तो जब से आपके साथ मेरा व ग दान हुआ, तभी से आपको अपने आत्माराम समझ लिये हैं। परन्तु गजव की बात है कि आपने मेरे हृदय को न पहिचान कर, मेरी प्रीति को तोड कर मुझे अधवीव मे छटका कर, निष्ठुरतापूर्वक ठुकरा कर मुक्तिरूपी शिवसुन्दरी के साथ विवाह करने चल पडे । मैं तो आपकी प्रतीक्षा मे यहाँ बैठी हूं और आप हैं, जो मेरी पुकार को अनसुनी करके मुक्ति पुन्दरी से सगाई सम्बन्ध जोडने जा रहे हैं, । क्या आपका यह कदम उचित है ? उपयोग की दृष्टि से सोचें तो मेरे साथ आठ-आठ जन्मो का पुराना सम्बन्ध था, उसे छोड कर मुक्तिसुन्दरी के साथ नया सम्बन्ध जोडने मे आपको क्या लाभ होगा ? सगाई सम्बन्ध समानशील वाले के साथ अच्छा होता है। मेरे सरीखी राजकुमारी के साथ सम्बन्ध तो समानता का सम्बन्ध है, लेकिन मुक्तिसुन्दरी के साथ आपकी कौन-सी समानता है ? फिर उसके साथ तो आपकी कोई जान-पहिचान भी नहीं है | मेरे साथ तो इस जन्म की नही, पिछले ८ जन्मो की जानपहिचान है। भला मुझ जानी-मानी और सब तरह से चाहती आपकी प्रिय चरणसेविका को छोड कर आप बिना कुछ सोचे-विवारे, अजातशीला मुक्तिसुन्दरी के साथ सम्बन्ध जोडने जाएं, यह तो अनुचित है । इससे आपका कोई भी प्रयोजन नहीं सिद्ध होगा । अत मेरी ओर देख कर मेरे साथ के सम्बन्धो को याद करिये, और अजानी मुक्तिसुन्दरी के साथ सम्बन्ध जोडने का विचार छोडिये । अगली गाथाओ मे फिर वह प्रार्थना करती है घर आवो हो, वालम ! घर आवो, माी आशाना विशराम ॥ रथ फेरो हो, साजन ! रथ फेरो, मारा मनरा मनोरथ साथ ॥ म०२॥ हे वल्लभ, प्रियतम ! आप मेरे (पिता का घर मेरा घर मेरा घर है, इसलिए) Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० अध्यात्म-दर्शन घर पर पधारो, मेरे रहने के स्थान पर पधागे, क्योकि आप तो मेरी आशा के विश्रामस्थल हैं। है सज्जनपुरुष | मार रथ को वापिस मेरे घर की ओर मोडिा, मेरे मन के मनोरय को साथ ले कर बाप रय वापिस मोड कर घर पधारिए । भाप्य घर पर पधारने और ग्य को मोडने की प्रार्थना अन हे प्रागवल्लम बामिन् । आप मेरे घर (पीहर) पधारें। आपतो मेरी तम म आशाओ के केन्द्रम्यान है आपको पा कर ही मेरे द्वारा सजोई हुई आगामओ के स्वप्न विश्राम पायेंगे, अन्यथा उन सब आशानी पर पानी फिर जागा । आशाओ के महल उजड़ जाएंगे। और फिर आप सज्जन हैं, इमलिए किमी की आशाओ (बेंबी हुई मनोकामनाओ) को ठुकरा कर आप नहीं जा सकते । सज्जन किसी को पहने अभाजन (वाग्दान) दे कर आशा बंधा कर फि उपे तोडते नहीं। इसलिए हे सज्जन | आप को रथ के वापिस मेरे घर की ओर मोडिए और मेरे घर की ओर मोडिए और मेरे मनोरथो को ध्यान में रख कर व पिस लौटिए । आपका रथ चला जा रहा है, साथ में मेरा मनोरथ भी चला जा रहा है । आपके साय ८ भवो के प्रेम के कारण अब जो सगाई. सम्बना हआ, उसके बाद मन मे जो-जो आशा के महल वावे ये वे सब टूट रहे है, आर रथ वापिस मोडेंगे तभी वे टिक सकेंगे। आपके रथ के जाने आने पर मेरे मनोरथो का जाना-आना निर्भर है क्योकि आप ही मेरे मन ने माने हुए विधाम है। भारतीय आयकन्या के लिए बारदान ने ह भावी वर पति हो जाता है, वहीं आजन्म पति रहता है। एक बार प्रियतम स्वीकार कर चुकने के बाद वह जीवनभर के लिए पति हो चुकता है। कु वारी कन्या की समस्त आशाओ का दारोमदार भावी पति पर है। वह जागृत अवस्था मे अनेक सपने सजोती हैं, उन सव स्वप्नो की माकारता पति पर अवलम्बित रहती है। इसीलिए राजीमती नेमिनाथस्वामी से आग्रहपूर्वक उक्त प्रार्थना कर रही है। इस गाथा का अध्यात्मभित अर्य राजीमती को अध्यात्मिक दृष्टि मे बहिर्मुखी चित्तवृनि मान कर इसका अर्थ करते हैं तो यो होता है-“वह कहती है 'मेरे प्रियतम आत्मन् । मेरे यहाँ पधारो ! मैं तो तुम्हारी पुरानी सेविका हूं, मेरी आशा के तुम्ही तो विश्राम (आधार) हो । अगर तुम्हीं (स्थितप्रज्ञ आत्मा) मुझे ठुकरा दोगे, तो मेरा क्या Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ४६१ - हाल होगा ? अत हे सज्जन | रथ (सासारिक भाव-मनोरयरूपीरथ) वापिस मोडो । मेरे अनेकविध मनोरथो के साथ तुम वापिस आओ, और मेरे घर मे, आ कर मेरी सुध लो। नारी का प्रेम क्षणिक मान कर उपेक्षणीय नही है, टसी बात को अगली गाथा मे राजीमती कहती है नारी-पखो श्यो नेहलो रे, साच कहे जगनाथ; मन० ॥ ईश्वर अर्धागे धरी रे तुमुझ झाले न साथ, मन० ।। ३ ।। अर्थ नारीपक्ष का इकतरफी प्रेम (स्नेह) कौन सा प्रेम है ? "हे जगन्नाथ ! अगर आप सचमुच ऐसा कहते हैं तो मुझे सत्य कहना पडेगा कि महादेव जैसे ईश्वर कहलाने वाले बडे देव ने पार्वती को अपने आधे अगों मे धारण की थी, इसलिए वे अधनारीश्वर कहलाए । लेकिन तुम तो मेरा हाथ भी नहीं पकडते, वागगन दे कर भी अब पिंड छुडाते हो? भाष्य नारी के प्रति स्नेह का मूल्य इस गाथा मे राजीमती दूसरा मुद्दा उठाती है । वह कहती है-यदि आप यह कहते हैं कि स्त्रीपक्ष के क्षणिक स्नेह की क्या कीमत है ? "अत स्त्री के साथ प्रेम क्यो किया जाय ? इस प्रश्न मे एक बात और गभित है कि गजीमती यह भी कहना चाहती है कि कदाचित कोई स्त्री अपने पति के साथ स्नेह न करती हो, तब तो उस पति के लिए उचित है कि वह ऐसा प्रश्न उठाए । और ऐसे पति ने कदानित अपनी स्त्री के साय मम्बन्ध विच्छेद किया हो, तव भी ठीक है, लेकिन मेरे और आपके बीच तो ऐी कोई बात नहीं हुई स्वामिन । यदि सच कहूं तो आप मेरे एक जन्म से नही आठ-आठ जन्मो से परिचित नाथ हैं । मेरा तो इस जन्म मे भी आपके प्रति स्नेह अत्यन्त अधिक है। पर वह स्नेह एकपक्षीय है, पत्ती के मन मे स्नेह हो, और पति के मन मे स्नेह जरा भी न हो, तो वह स्नेह कैपे निम मरुना है ? अन मेरे स्नेह के बदले मे आपको भी स्नेह करना चाहिए। आपको भी स्नेह का जवाब म्नेह मे देना चाहिए । जब पति के प्रति पत्नी का प्रेम हो तो पति भी पत्नी के प्रति अवश्य प्रेम करता है, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ अध्यात्म-दर्शन और उसके मनोरथ पूर्ण करता है। अन्यथा एकपक्षी-नारीपक्षीय स्नेह कैसे निभेगा? परन्तु प्राणेश्वर | क्या आप भूल गये है- पार्वता के स्नेहवश शकर ने उसे अपने अधीग मे स्थान दे दिया था। आज भी जगत् उन्हे अर्धनारीश्वरके नाम से पहिचानता है। अत आप तो मेरा हाथ भी नही पकडते, मुझे अर्धागिनी बनाने की बात ही दूर रही । आपको जाना हो तो भले ही जाय पर एक बार मेरा हाथ पकड कर मेरे साथ पाणिग्रहण करके मुझे अपनी अर्धागिनी बना कर फिर जाय । मेरा हाथ छिटका कर न जाएं। मेरे नाथ नही बनते तो आर जगन्नाथ को कहलाएंगे ? मेरी इतनी-मी प्रार्थना नहीं मानेंगे तो क्या लोगो मे आप अच्छे कहलाएंगे? अध्यात्महष्टि से किसके साथ स्नेह ? इस गाथा के आध्यात्मिक दृष्टिपरक अर्थ पर विचार करते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि वहिर्मुखी चित्तवृति (मजानचेतना) स्थितप्रज्ञ वीतराग आत्मा मे कहती है --'मेरे प्रति प्रेम का हाथ बढाओ, मुझे छिटकाओ मत, मेरे साय सम्बन्ध विच्छेद न करो, परन्तु स्थितप्रन उसके बहकावे मे नहीं आता, वह शुद्ध आत्मा मे स्थिर रहता है, स्त्री का स्पर्श तो मुनि करता ही नही है, वहिर्मुवी चित्तवृत्तिरूरी नारी का भी स्पर्श नहीं करता। शकर-पार्वती के दाम्पत्यप्रेम को आध्यात्मिक शुद्ध आत्मप्रेम नही कहा जा सकता। ऐमा वेदोदयजनित रागवर्द्धक प्रेम वीतरागप्रभु मे कैसे हो सकता है ? साधक के लिए सचमुच श्रीनेमिनाथ का यह आदर्श प्रेरणादायक है । राजीमती तो अपने स्वार्थ के कारण उपालम्भ देती है, साधक को वहिर्मुखी चित्तवृत्तियो के के द्वारा दिये जाते हुए प्रलोभन, उपालम्भ आदि को छोड कर आदर्श जीवन जीना हो तो नेमिनाथप्रभु का आदर्श ग्रहण करना चाहिए। फिर उपालम्भ का दौर चलता हैपशुजननी करुणा करी रे, आरपी हृदय विचार ; मन० । माणसनी करुणा नहीं रे, ए कुरण घर आचार ? मन० ॥४॥ प्रेम कल्पतरु छेदियो रे, धरियो योग धत्त र; मन० । चतुराईरो कुरण कहो रे, गुरु मिलियो जगशूर, मन० ॥ ५॥ मारूं तो एमां कई नहीं रे, आप विचारो राज, मन० । राजसभा मां बेसतां रे, किसड़ी वधशी लाज ? मन० ॥६॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ४६३ प्रेम करे जगजन सहु रे, निरवाहे ते और ; मन० । प्रीति करी ने छोड़ी दे रे, तेहशुन चाले जोर; मन० ।। ७ ।। जो मनमां एहवु हतुरे, निसपति करत न जाण; मन० । निसपति करी ने छाड़ता रे, माणस हुवे नुकशान; मन० ॥८॥" देतां दान सवत्सरी रे, सह लहे वांछित पोष, मन० । सेवक वाछित नवि लहे रे, ते सेवकनो दोष; म० ॥६॥ सखी कहे-'ए शामलो रे,' हु कहु लक्षण सेत; मन० । इण लक्षण साची सखी रे, आप विचारो हेत; मन० ॥ १० ।। अर्थ आपने पशुसमूह के प्रति हृदय मे बहुत दीर्घदृष्टि से विचार करके अत्यन्त दया (करुणा) की, परन्तु आपके हृदय मे मनुष्य के (मनुष्यरूप मे मेरे = राजीमती के) प्रति जरा भी दया नहीं है । पता नहीं, यह किस घर (परिवार) का यह आचार (रीति-रिवाज या मर्यादापथ) है ? ॥ ४ ॥ आपने तो प्रेमरूपी कल्पवृक्ष को काट डाला और उसके बदले उदासीनता का प्रतीक योगरूपी धतूरे का पेड पकड़ लिया है; अथवा धतूरे का वृक्षारोपण कर दिया है यह तो बताइए, आपको इस प्रकार के चातुर्य का पाठ पढ़ाने वाला जगत् मे शूर या शूल के समान कौन गुरु मिल गया ॥ ५ । स्वामिन् मेरा तो इसमे कुछ भी नहीं विगडेगा ? मेरी इज्जत इसमे कुछ भी नहीं जाएगी, राजकुमार | आर अपने मन मे विचार करिए ! जब आप राजसमा । मे बैठेंगे, और लोग आपके सामने इस तुच्छ व्यवहार की चर्चा करेंगे, तब आपकी इज्जत कितनी बढेगी ? ॥ ६ ॥ मैं तो यह समझी हूँ कि ससार मे प्रम तो समी लोग करते हैं लेकिन प्रेम करके उसे निबाहने वाले विरले (और) ही होते हैं । जो पुरुष किसी के साथ प्रीति करके छोड़ देते हैं, उन पर प्रेमी का क्या जोर चल सकता है ? ॥ ७॥ अगर आपके मन मे ऐसा (प्रेम जोडने के बाद तोडने का) विचार था, तो मैं पहले से ही इसे समझ कर . सगाई-सम्बन्ध या प्रीति सम्बन्ध न करती । जब कोई सगाई (प्रीति) सम्बन्ध जोड़ कर फिर उसे छोड़ देता है, तब सामने वाले (दूसरे पक्ष) की कितनी हानि या हैरानी होती है ? इस पर आप जरा विचार करके तो देखें ।।। ८ ।। जब आप Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ अध्यात्म-दशन सवत्सरी (एक वर्ष तक लगातार एक करोड आठ लाख सोनेयो का, दान देते हैं, तो उससे सभी अपने-अपने भाग्य या इच्छा के अनुसार पोषण प्राप्त करते हैं लेकिन यह सेवक (आपके चरणो की आठ जन्म तक सेवा करने वाली सेविका राजीमती) विवाहदानरूप मे मनोवांछित दान नहीं पा सका, इसमे आपका तो क्या दोष है, सेवक के ही कर्मों का दोष समझना चाहिए । ॥ ॥ आपको देख कर मेरी सखी ने कहा था कि "यह (नेमिकुमार। तो काले रंग के हैं ।' तब मैंने उसे जवाब दिया कि वे (आप) शरीर से भले ही काले हो लक्षणोगुणो से श्वेत गोरे) हैं । परन्तु आपकी अनुदारता और उदासीनता के इन लक्षणों को देखते हुए मेरी सधी ने जो कहा था, वह सच मालूम होता है। अव आप ही इस क्थन के कारण पर विचार करिये कि वास्तव मे आप कैस है ? ॥१॥ भाव्य राजीमती द्वारा नेमिनाथस्वामी को उपालम्भों का दौर राजीमती नेमिनाथस्वामी को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उपालम्भ के स्वर मे कहती है-"स्वामिन्। आप हैं तो बहुत ही दयालु। जब आप बरात ले कर विवाह के लिए पधार रहे थे तो रास्ते मे बरातियो के भोज के लिए बाडे मे अवरुद्ध पशुओ की करुण पुकार गन कर आपका हृदय दयार्द्र हो उठा 1 आपने तुरत सारथी से कह कर उस वाडे के द्वार खुलटा दिये और तमाम पशुओ की मुक्त करवा दिये । यह आपकी पशुजन पर करुणा तो जगत् मे प्रसिद्ध हो गई, लेकिन आप पशुदया से भी बढकर मनुष्यदया को क्यो भूल गए? जब से आप रथ वापिस मोड कर लौट गए, तब से मैं आपके वियोग मे तडप रही है। मेरा अपमान करके और मुझे अधबिच मे धक्का दे कर आपने मेरे प्रति इतनी क्रूरता वरती, क्या मनुष्य को और उसमे भी मेरे जैसी आपको सेविका को मरने देना, यह कहां का न्याय है ? यह आपकी कैसी करुणा है ? अनेक पशुओ पर दया ला कर भी मुझे छोड कर जाने को तैयार हो गए ? मेरी दुदशा का आपने विचार तक नहीं किया ? कुछ समझ मे नही आता, आपकी दया पा यह कैसा ढग है ? इस वक्र क्ति मे राजामती ने तत्त्वज्ञान का एक महासूत्र स्पष्ट कर दिया है कि शास्त्रानुसार पशुपक्षी या एकेन्द्रिय से ले कर पचेन्द्रिय तियंच तक के जीवो की अपेक्षा मनुष्य का महत्व अधिक है । इसलिए इस क्रमानुसार भी मनुष्यो के प्रतिदया पहले करनी चाहिए थी। "आपकी करुणा का आचार पूर्व Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ४६५ तीर्थंकरो के शिक्षण से विरुद्ध है, अत यह आचार आप को शोभा नहीं देता।" आध्यात्मिक दृष्टि से जब हम इस पर विचार करते हैं तो इसका समाधान तुरन्त हो जाता है कि पशुओ के प्रति भगवान् की जो दया थी, वह किसी राग या मोह से प्रेरित हो कर नही थी, वह तो सर्वजीवहित की दृष्टि से थी, मनुष्य और जिसमे भी रागाविष्ट प्रेमिका के प्रति दाम्पत्यप्रेम के वश हो कर दया करते तो वह रागयुक्त होती। आप राग-द्वप में आसक्त न होन से वीतराग और महाकरुणालु है । तराग स्थितप्रज्ञ पुस्प बाह्यचित्तवृत्ति की ऐसी रागात्मक पुकार को नही सुनते। ।। ४ ।। उससे बाद दूसरा उपालम्भ राजीमती का यह है कि आठ आठ भवो से जिस प्रेमरूपी कल्पवृक्ष को आपने सोच-सोच कर बडा किया था और इस जन्म मे भी मेरे साथ वाग्दान होने एव मेरे साथ विवाह करने की स्वीकृति देने के बाद कई जन्मो से पुष्पित- फलित हुए इस प्रेममय अन्त करणरूपी कल्पतरु को आपको सोचना था, उसके बदले आपने समूल उखाड डाला और उसके बदले उदासीनता के प्रतीक वैराग्य का नशा पैदा करने वाले योगरूपी धतूरे को आप आरोपण करने लगे । बनिहाती है आपकी चतुराई की । आपकी अक्न भला कैसे गुम हो गई ? कौन ऐमा शूरवीर या जगत् का शूल ( काटा) गुरु आपको मिल गया, जिसने इस प्रकार की अक्लमदी आपको दिखाई है ? ऐसी चतुराई की अक्ल देने वाला कौन जगत् के सूर्यसमान गुरु मिल गया ? राजीमती एक व्यवहारचतुर त्री की तरह बात कर रही है, वह वकोक्ति की भापा मे साफ कह रही है, जैसे एक मोहप्रेरित नारी कहती है । कल्पवृक्ष समस्त इच्छाओ को पूर्ण करने वाला होता है। प्रेम को कल्पवृक्ष की उपमा इसलिए दी है कि उससे सभी सासारिक मनोकामनाएँ (पुत्र, धन, परिवार, स्त्री अदि) पूर्ण होती हैं, और नेमिनाथ के मुक्ति-सुन्दरी के प्रति प्रेम को धतूरा बोने की उपमा दी है। उसका कारण यह है कि मुक्तिसुन्दरी से प्रेम करने पर वह • न तो सन्तानसुख दे सकती है, न और कोई सासारिक कामना ही उससे पूरी हो सकती है । उलटे, वह तो वैराग्य का नशा भले ही चढा दे. सो नेमिनाथस्वामी को चढा ही दिया है । उसी नशे मे वे अपनी अष्टजन्मपरिचिता जानी मानी प्रेमदीवानी राजीमती को प्रेम को छोड़ रहे हैं, प्रेमकल्पतरु को उखाड रहे हैं। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ अध्यात्म-दर्शन तत्वज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो दुनियादारी का प्रेम मोहभित तथा संसारवृद्धि करने वाला होने से धतूरे के समान अवश्य हो सकता है, योगधारण करके मुक्ति के प्रति प्रेम धतूरा नही, कल्पवृक्षसम है, वहां किसी प्रकार का रागादि नहीं होता। आप सचमुच वीतराग परमात्मा है, और मुक्तिप्रेम ता रागादिरहित कल्पतरुवत् होता है, जिसके फल ज्ञानादि अनन्तचतुष्टयरूप हैं। इसके अनन्तर फिर राजीमती सासारिक प्रेमिका (पत्नी) की तरह मानो नेमिनाथ के प्रति उसको मेविका के नाते कहने का अधिकार है, इस दृष्टि मे ताने म.रती है-'हे नेमिवु मार | आप मुझे छोड कर चले जायेंगे, इसमें मेग तो कुछ भी बिगडने वाला नही, क्योकि मैं तो आपके प्रति पूर्ण अनुत्ता हूं। आप ही मेरे प्रेम को ठकरा रह हैं। क्योकि आपने मेरे साथ पाणिग्रहण करने की स्वीकृति दे कर गभित प्रतिज्ञा भी कर ली, उसी कारण यादव लोगो की वगत साथ मे ले कर रथारूढ हो कर आप मेरे साथ विवाह करने के लिए (मुझे लेने के लिए) तोरण तक पधारे थे। लगभग तोरण के पास आ कर माप रथ को मांड कर वापिस लौट गए हैं, इसमे मेरा कोई दोष नही था, और न है । इसलिए मुझे किसी प्राार का लाछन नही लगेगा। लेकिन आप तो राजकूमार हैं, जब आप राजा. महाराजाओ की सभा मे बैठेंगे और लोग आपसे स्पष्टीकरण मागेगे कि 'आपने राजीमती को किस कारण छोड दी ? तब आप क्या जवाब देंगे? 'आपको उस समय शमिदा हो कर नीचा मुह करना पडेगा कि क्या राजकुमारी राजीमती कलाहीन थी ? उसके रूप लावण्य में कोई कमी थी " क्या कोई दोष या ऐब था। क्या उसके हृदय में आपके प्रति प्रेम नही था? जिसके कारण सुसज्जित विवाहमडप के पास मे ही वापिस लौट आए और उस कन्या का त्याग कर दिया? उस समय आपको निरुत्तर और सबके सामने लज्जित होना पडेगा । आपकी इज्जत क्या रहेगी उस समय? और जब आपको स्वय ही अपने प्रेम-विच्छेद की याद आएगी, तव आपको अपने इस लज्जाजनक कृत्य से अपने प्रति ग्लानि नहीं आएगी ? क्या अपने कृत्य के प्रति तिरस्कार नहीं पदा होगा? एक और दृष्टिकोण है इसमे कि 'आप जरा विचार तो कीजिए कि जब आप राजसभा मे बैठेंगे तो आप जैसो को पत्नीविहीन देख कर लोग मजाक उडाएंगे बिना पत्नी का व्यक्ति बाडा कहलाता है । वाडे व्यक्ति की न परिवार में कोई इज्जत होती है, न सभ्य समाज मे । अन मैं कहती हूं कि पत्तो से रहित आपकी राजसभा मे Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ४६७ कितनी आवरू बढेगी ? सचमुच आपकी आवरू चली जाएगी। इस पर आप ठडे दिल से विचार करिए। ___ आध्यात्मिक दृष्टि से तो यह बहिर्मुखी चित्तवृत्ति (अशुद्ध चेतना) का मोहक ताना है। आध्यात्मिक वीतरागपुरुष तो आत्मसमाधिस्थ होने के लिए बाल ब्रह्मचारी के रूप मे तीनो लोको मे व्याप्त हो जायगा। ॥६॥ फिर उलाहने भरे स्वर मे वह पुकार उठनी है- इस दुनिया मे सभी मनुष्य प्रेम करते है, इस प्रेम मे जुडने वाले तो सभी होते हैं, परन्तु एक बार प्रेम करने के बाद उसे जिन्दगीभर निभाने वाले विरले ही कोई होते हैं। ऐसे मनुष्यो की संख्या बहुत ही नगण्य है । जो प्रेमपात्र के साथ प्रेम सम्बन्ध जोड कर आजीवन उसे निभाते हैं। क्योकि प्रेम दोनो ओर से पलता है, एकतरफी प्रेम टिकता नहीं, उससे प्रमतरु शीघ्र ही सूख जाता है। अधिकाश लोग तो प्रेम का तार तोडते देर नही लगाते। आप भी उन अधिकाश सामान्यजनो की कोटि मे हैं। आपने जिस प्रेमतरु को आठ-आठ जन्मो तक मींचा, इस जन्म मे भी वाग्दान होने के बाद प्रेम की दिशा मे प्रयाण तो किया था, मगर अचानक ही सनक मे आ कर आपने प्रेमतरु को नष्टभ्रष्ट कर डाला। आपने प्रेम जैसी महत्वपूर्ण वस्तु को वालक का-या खेल समझ कर तोड डाला | अत जो मनुष्य प्रेम बांधने के बाद अकारण ही इस प्रकार प्रेम-भग कर डालता है, उसे क्या कहा जाय ? उसके साथ जबर्दस्ती तो की ही नही जा सकती, न इस काम मे जबर्दस्ती चल ही सकती है। क्योकि प्रेम आन्तरिक कारण है, वही प्रेमपात्रो को जोडना है। इसलिए आपके द्वारा किये गए प्रेमभग के खिलाफ न तो मुकद्दमा किया जा सकता है, न कोई जोर अजमाया जा मकता है। यह तो राजी-राजी का सौदा है। पर आपके खिलाफ कोई जोर नही चल सकता। हाँ, इतनी बात जरूर कहूंगी कि प्रेम बांध कर सहसा अकारण तोडने वाले की जगत् मे कितनी कीमत होती है ? इस पर जरूर विचार करें।, मेरी ओर से आपके प्रति कोई विरुद्ध प्रचार मानहानि करने का नही होगा, मेरे हृदय मे तो वही प्रेम आपके प्रति रहेगा। इसके बावजूद भी आप मेरे प्रेम को नही पहिचान कर उसे ठुकरा देंगे तो मेरा कोई बस नही चल सकता। आप स्वय समर्थ हैं, मैं तो केवल प्रार्थना के शब्दो मे ही निवेदन कर सकती हूं। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ अध्यात्म-दर्शन ___ आध्यात्मिक दृष्टि से सोचा जाय तो मोहप्रेरित चित्तवृत्ति की यह उडान है। नेमिनाथस्वामी ने सिर्फ उदय मे आए हुए कर्मों को खपाने के लिए ही राजीमती के साथ पिछले आठ भवो मे प्रीति जोड रखी थी। परन्तु इस भव मे जब वे कम नष्ट हो गए और प्रभु वीतराग वन गए, तब राजीमतीरूपी चित्तवृत्ति के साथ रागप्रेरित प्रीति कैसे कर सकते हैं ? यही कारण है कि वे मुक्तिस्त्री के साथ वीतरागप्रेरित प्रेम वाध कर उसे सादि-अनन्त भग की दृष्टि से निभाने को तैयार हुए हैं। वास्तव में रागन्ति प्रेमी या प्रेम निभाने वाले तो समार मे बहुत होते हैं, लेकिन वीतरागप्रेरित आत्मस्वभाव मे अखण्ड लगन को निभाने वाले नेमिनाथप्रभु सरीखे जगत् मे विरले ही होते हैं। ॥७॥ ____ अब जरा और कठोर बन कर राजीमती अपने प्रेम का व्यग्यवाण छोडती है- 'यदि आपको प्रीति करके इमी तरह मुझे छोड देना था, यदि आपके मन की गहराई मे इसी प्रकार का दगा था या विचार था कि यह विवाह मुझे नही करना है, तो मुझे आपको पहले से ही बता देना चाहिए था, ताकि मैं ऐमा जान कर आपके साथ प्रेमसम्बन्ध वाधती ही नही। न आपको कुछ शिकायत रहती, न मुझे आपसे कोई शिकायत होती। किन्तु आपने मेरे साथ धोखा ही किया--आप सुसज्जित विवाह-मण्डप के निकट तक बरात ले कर पधारे थे, इससे यह तो स्पष्ट प्रतीत होता था कि आप मेरे साथ विवाह करने पधारे हैं, किन्तु अचानक एक ही झटके मे आप विना कुछ कहे-सुने प्रेमसम्बन्ध को तोड कर चले गए, यह व्यवहार मे कन्यापक्ष के लिए कितना नुकसानदेह होता है ? उस कन्या की हालत कितनी नाजुक हो जाती है ? उस पर कितनी आफ्त उतर आती है ? इस पर जरा गौर करके विचार तो करिए ! इस प्रकार तोरण सक आया हुआ दूल्हा विना विवाह किये वापिस लौट जाय, उसमे कन्यापक्ष के प्रति आम जनता के दिलो मे व्यर्थ की कितनी ही शका-कुशकाएं पैदा हो जाती है कि शायद वह विषकन्या हो, या कन्या पक्ष के लोगो ने वरात का सम्मान न किया हो, दहेज पर्याप्त न मिलने की सम्भावना हो। और एक निर्दोप कन्या को इस प्रकार परित्यक्ता की सज्ञा "मिल जाने से शायद वह आत्महत्या तक भी कर बैठे, धैर्य खो कर पगली हो जाय, यह हानि क्या कम है ? आप मुझ-सी निर्दोप कन्या को दुर्दशा पर तो विचारिए । एक वार प्रेम जुड जाने के बाद उसे तोड़ डालने से दूसरा Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ॥८॥ प्रेमीपात्र जी ही नहीं सकता। इस नुकमान की तो कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो नेमिनाथस्वामी इस जन्म मे रागप्रेरित प्रेम करने मे सभल गए और राजीमती को भी मानो सावधान करना चाहते हो, इसलिए रागजनित प्रेमसम्बन्ध को तोड डाला। ताकि राजीमती के दिल से यह भ्रम निकल जाय कि 'नेमिनाथ मी सासारिक प्रेम करने वाले हैं।' और दिल दिमाग में यह बात भी जम जाय कि मेरा उक्त भ्रम नष्ट हो गया और मैं आपके 'विश्ववात्सल्य' को समझ सकी हूं। दुनियादारी के प्यार से तो ससारपरिभ्रमण का दु.ख सह कर मैंने अपना कितना नुकसान किया है । लेकिन नेमिनाथस्वामी द्वारा गजीमती का परित्याग करने से उसे फायदा यह होने वाला है, कि उमके अन्तश्चक्षु खुल जाते हैं । फिर भी अभी मोह का पर्दा पूरी तौर से हटा नहीं है, इसलिए हताश राजीमतो को जव तीर्थंकरो की परम्परा का पता चला कि स्वामी नेमिनाथ मेरी वात कुछ भी सुने विना सीधे घर पर जाएगे और परोपकारबुद्धि से पूरे एक वर्ष तक लगातार प्रतिदिन एक करोड आठ लाख स्वर्ण मुद्राओ का दान देगे, तब वह अतीव नम्र हो कर मधुर ताना देती हैं-"नाथ । आप जब एक वर्ष तक उदारतापूवक दान देंगे तो उससे सभी अर्थीजन यथेष्ट वाछित वस्तु प्राप्त कर लेंगे, खासतौर से आपके सभी सेवक तो अपनी इच्छानुसार वस्तुएँ पा लेंगे। अतः वे सभी भाग्यशाली होगे, लेकिन अभागी रह गई एकमात्र आपकी यह सेविका, जिसने आठ-आठ जन्मो मे आपकी चरणसेवा की है, और इस जन्म में करने को तैयार है। इस सेविका को अपना मनोवाछित प्रीतिदान आपकी ओर से नहीं मिलेगा, मुझे प्रीतिदान न मिलने का असन्तोष रहेगा ही और जगत् मे आपकी कीर्ति और दानवीर के रूप मे जो प्रसिद्धि है.उममे आच आएगी कि और सब याचको को तो मनोवाछित पदार्थ दे दिया, लेकिन अपनी सेविका को यथेच्छ दान नहीं दिया। इसमे आपकी उदारता की कमी प्रतीत होगी। खैर, अव आपको ज्यादा क्या कहना है, आप यह भी कह सकेंगे कि इसमे मेरा क्या दोष है, लेने वाले के भाग्य (अन्तराय कर्म) का ही दोष है, मैं क्या करूं ? इसलिए मैं अब आपको दोष न दे कर अपने कर्मों को ही दोष देती हूं। मैं ही भाग्यहीन हूँ, कि मुझे मनोवाछित दान नहीं मिल Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० अध्य त्म-दर्शन रहा है । पर तु प्राणेश | आप तो अपनी ओर से उदारता वताएँ, निराश न करें, इम सेविका को। __ यहां राजीमती नेमिनाथ स्वामी पर दोपारोपण न करके पतिव्रतास्त्री की तरह स्वय अपने कर्मों का ही दोष मानती है। इससे कर्मसिद्धान्त का तत्त्वज्ञान राजीमती को हृदयगम हुआ परिलक्षित होता है । आध्यात्मिक दृष्टि में विचार करे तो आत्मा की अशुद्ध चेतना इस प्रकार से अपनी ओर खीचने का प्रयत्न करती ही है। राजीमती की आध्यात्मिक भृमिका की दृष्टि से नेमिनाथ के द्वारा विनति न स्वीकारन से उसे लाभ ही हुमा है । वापिक दान के समय भले ही भ० नेमिनाथ से उसकी इच्छा सन्तुष्ट न हुई हो, लेकिन परोक्षरूप से मोक्ष मे ले जाने वाले आत्मिक धन का दान राजीमती को अवश्य प्राप्त हो गया। इसीलिए आगे चल कर राजीमती के अन्तर से आशीर्वाद निकला-"नाथ ! आपकी मेवा का इतना महान् लाभ हो तो मैं आपकी सेविका होने मे अपने को धन्य मानती हूँ। मच्चे दानेश्वरी आप ही हैं, धन्य हो, आप सरीखे महादानी को " अव मवसे अन्तिम दाव और फैकती है-'हे नेमिकूमार, नाथ | आप की वरात गाजे-बाजे के साथ मेरे पिता के शहर की सीमा मे आ रही थी, तभी आपको देखने के लिए भेजी हुई मेरी मखी ने आपको देख कर आने के बाद मुझे कहा--"सखि । नेमिकुमार तो रग से काले हैं। (उपलक्षण से कहूं तो) वे कुलक्षणी भी मालूम होते हैं। उनसे सावधान रहना ।" मैंने अपनी सखी को डाटते हुए वचाव करने की दृष्टि से कहा-'"भले ही वे काले हो, इससे क्या ? काली चीजें बहुत गुणवाली भी होती हैं। तू भूल रही है। आपका सारा परिवार भी काला है। कृष्ण काले हैं, आप के रिश्तेदार भी काले है। किन्तु उनके आन्तरिक गुणो को देखते हुए वे उज्ज्वल हैं, सफेद हैं।" उस समय मेरी सखी ने कहा--"सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार तो ऊपर से काले दिखाई देने वाले मनुष्य प्राय अन्दर से भी काले सिद्ध हो सकते हैं।" उस समय तो मैं चुप हो गई। फिर भी आपके गुणो का स्मरण मुझे आपकी ओर खींच रहा था। इसलिए मैंने उसके कहने की ओर कोई ध्यान नही दिया । परन्तु कुछ ही समय बाद जब मुझे पता लगा कि नेमिकुमार तो तोरण के पास आ कर अपने रथ को वापिस लौटा ले गए हैं। मेरे किसी दोप के बिना मापने मेरे साथ प्रीति को तोड डाली, तव मुझे मखी का वह कथन याद आया । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के माय ध्याता और ध्यान की एकता ५०१ मैं सोचने लगी कि इस समय के आपके लक्षणो को देखते हुए तथा आप मेरे प्रेम का जवाब नहीं देते, इसलिए मेरी सखी की जो धारणा थी, वह सच्ची मावित हुई। भले ही वह सामुद्रिकशास्त्र नही जानती थी, लेकिन उसकी शका पर से यह माबित हो गया कि आप जैमे ऊपर से काले हैं, वैसे लक्षणो से भी काले है। क्योकि काले आदमियो के काले काम होते हैं। आप स्वयं मेरे कथन के कारण पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे तो आप स्वयमेव मेरी सखी के कयन की सच्चाई को माने विना न रहेगे।" ___ वास्तव मे अध्यात्मदृष्टि मे हम पर सोचा जाय तो ऐमा स्पष्ट प्रतीत होगा कि राजीमती की मखी झूठी थी, वह स्वय सच्ची थी। क्योकि वे तो १००८ उत्तम लक्षणो से सुशोभित, विश्ववन्ध, जगत्पूज्य तीर्थंकर के उत्तम गुणो मे युक्त हैं । राजीमती अपने आपको तीथंकर नेमिनाथ की आध्यात्मिक पथ की सहचरी होने के नाते धन्य मानती है । ___अब अगनी दो गाथाओ मे राजीमती व्यग्यात्मक भाषा मे नेमिनाथ के जीवन मे परस्पर विरोधाभाम स्पष्ट प्रकट करती हैं रागीशु रागी सहु रे, वैरागी श्यो राग ? मन०। राग विना किम दाखवो रे मुगतिसुन्दरी माग; म० ॥११॥ एक गुह्य घटतु नथी रे, सघलो जारणे लोग, म०। अनेकान्तिक भोगवो रे, ब्रह्मचारी गतरोग, म. ॥१२॥ अर्थ राग वाले के साथ तो सभी रागी बन जाते हैं, मगर जो मनुष्य वैरागी हो, वह क्यों किसी के साथ राग करेगा ? (आप अपने भापको वैरागी मानते हो;) परन्तु अगर राग नहीं है, तो आप (अपने भक्तो को) मुक्तिसुन्दरी (को पाने) का मार्ग कैसे बताते हो ? दूसरो को मार्ग बता कर तो माप स्वयं उसके प्रति राग रखते मालूम होते है ।"॥११॥ हे नाथ | आपकी एक गुप्त बात सगति नहीं लगती। उसे सारी दुनिया जानती है । वह यह कि आप अनेकान्त-बुद्धिरूपी नारी का उपभोग करते हैं, जबकि आप रोगरहित बाल-ब्रह्मचारी कहलाते हैं। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ अध्यात्म दर्शन भाष्य राजीमती द्वारा श्रीनेमिनाय के जीवन मे विरोधाभास का करारा व्यंग्य इन दोनो गाथाओ मे राजीमती ने श्रीनेमिनाथजी के प्रति अनहोना आक्षेप लगा कर उनके साथ उपहासात्मक व्यग्य किया है-'प्राणेश्वर | कदाचित् आपके मन में यह बात हो कि मैं (आप) तो वैरागी हू, जवकि गजीमती तो स्त्रीम्वभावशाली और रागी है। राग (प्रेम) वाले के माथ ससार मे सभी राग (प्रेम) करते हैं, परन्तु वंगगी के साथ प्रेम (राग) कमे सभव हो सकता है ? अथवा रागी के साथ वैगगी का प्रेम कसे सम्भव है ?" यो कह कर आप अपने को वैरागी ठहरा कर मेरे माथ प्रेम (राग) करने के मार्ग से छिटक रहे हो और अपने साथ प्रेम (राग) करने से रोक रहे हो तो आपकी बात नही मानी जा सकती; क्योकि अगर आप सच्चे माने मे वैगनी हो तो आप अपने भक्तो पर राग (प्रेम) क्यो रखते हैं ? इमी कारण तो उन्हें आप मुक्तिपथ का उपदेश देते हैं । मुक्तिमुन्दरी के पास जाने का मार्ग बताते है । इतना ही नही, आप मेरे माथ का राग (प्रेम) छोड कर मुक्तिरूपी शिवसुन्दरी के प्रति प्रीति (राग) रखते ही हैं, इसलिए आप भी रागी है। अगर आपको मुक्तिमुन्दरी ने प्रेम (गग) करना हो तो मेरे माय भी करिए। मैंने क्या गुनाह किया है ? बल्कि मेरे साथ तो आपका आठ जन्मो तक लगातार राग (प्रेम) न्हा है । अतः जगत् के न्यायानुमार पहले आप मेरे माथ विवाह करके फिर मुक्तिसुन्दरी के माथ प्रीति जोडिए। क्योकि मैं आपकी ही हूं, आपके साथ मेरा पूर्ण अनुराग है। ___अध्यात्मिक दृष्टि से इस गाया का इससे बिलकुल उलटा अर्थ घटित होता है। राजीमती (वाह्यचित्तवृत्ति) सामारिक राग वाली है और नेमिनाथप्रभु सामारिक रागरहित है । इसलिए प्रभु के और राजनीती के बीच अब दुनियादारी का प्रेम जम नही मकता । दुनिया की दृष्टि से मुक्ति के रागी है, इसलिए दुनिया से विरत (वैरागी) हैं। इसीलिए राजीमतीरूपी सासारिक स्त्री के प्रति विराग और मुक्ति के प्रति राग, यह परमात्मा की वीतरागता सिद्ध करता है। फिर राजीमती श्रीनेमिनाथ को उनके जीवन का एक और विरोधाभास बताती है-'देखिये, राजकुमार | आपके प्रत्येक कार्य को सब ज्ञानी लोग Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ५०३ जानते हैं । आपका एक भी कार्य गुप्त नही, जिसे लोग न जानते हो। फिर भी एक बात गुप्त है, वह यह कि आप अनेकान्तदृष्टि (बुद्धिरूपी) स्त्री का सेवन (भोग) प्रतिक्षण करते हैं, फिर भी आप बालब्रह्मचारी कहलाते हैं, यह बहुत ही आश्चर्य की बात है। फिर ताज्जुब यह है कि स्याद्वादबुद्धिस्त्री के भोगी होते भी आपको कोई रोग नही लगा । अन्यथा 'भोगे रोगभयम्' इस नीतिवाक्य के अनुमार आपको रोग होना चाहिए। अथवा अनेकान्तिक न्यायशास्त्रप्रमिद्ध व्यभिचारी दोष का पर्यायवाची है। इसलिए माप ब्रह्मचारी हुए भी व्यभिचार (हेत्वाभास) दोप का सेवन (भोग) करते हैं। इस प्रकार आपके जीवन मे परस्पर विरोधाभास है । हेत्वाभास के ५ भेद हेतु के ५ दोष के रूप मे माने जाते है-असिद्ध, विरुद्ध, सत्प्रतिपक्ष, व्यभिचार=अनेकान्त्रिक और वाघ । यहां ५ मे से चोथा दोष है। परन्तु दूसरी तरह से अर्थ करने पर यह विरोधाभाम दूर हो जाता है जैसे-अनेकान्तिक का अर्थ जैसे अनेकान्तमतिस्त्री क्यिा है, वैसे अनेकान्तवाद का विश्वप्रसिद्ध रूप मे प्रतिपादन करने वाले है, इस अर्थ के अनुसार अनेकान्त मे अनेकान्त-व्यभिचार नामक दोष नहीं है । इस प्रकार अनेकान्तिक का अर्थ जब अनेकान्तवादी करते हैं तो वह अनेकान्तिक (व्यभिचारी) अर्थ मे हेत्वाभास नही हो सकता । इसलिए भगवान् के बालब्रह्मचारित्व और रोगरहितत्व मे कोई दोप घटित नहीं होता। अब राजीमनी श्रीनेमिनाथस्वामी को आकृष्ट करने और अपने बनाने मे जब सब तरह से निराश हो गई तो अन्तिम दाव और फेंकती है-- जिण जोगी तुमने जोऊ रे, तिण जोणी जुओ राज; मन० । एक बार मुझ ने जुओ रे, तो सीझे मुझ काज; मन० ॥१३ । अर्थ हे नाथ ! जिस दृष्टि से मैं आपको देखती हैं, उसी दृष्टि से, हे राजकुमार । आप मुझे देखिए । सिर्फ एक बार ही आप मुझे देख लें तो मेरे सर्व कार्य सिद्ध हो जाय। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ अध्यात्म-दर्शन भाष्य राजीमती का अन्तिम दाव · देखने की प्रार्थना राजीमती अभी मोहबुद्धि मे जकडी हुई है, और वह अपने स्वामी श्रीनेमिनाथ को अपनी ओर खीचना चाहती है। सारी आशाएं निष्फल हो जाने, मारे प्रयत्नो पर पानी फिर जाने के बाद वह अपना अन्तिम दाव फैकती है--हे नेमिराज । मुझे लगता है कि आपने मुझे पहले कभी देखी नही है। इसी कारण मेरे और आपके बीच मे दष्टिभेद की खाई पड गई है। अतः मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि एक बार आप मुझे उसी देखने की पद्धति से जी भरकर देख लें, जिस पद्धति से मैं आपको देखती ह । मेरी आपके प्रति प्रेमभरी (रागयुक्त=सराग) दृष्टि है, उमी रागदृष्टि से आप मुझे एक बार देख लें तो मेरा विश्वास है कि आपको मतोष होगा, आपका दिल वदल जायगा, मेरे प्रति जो पूर्वाग्रह आपके मन में है, वह समाप्त हो जायगा। इसलिए मेरी और प्रार्थनाएं आपने ठुकरा दी तो कोई बात नहीं, अब इस अन्तिम छोटी-सी प्रार्थना को स्वीकार कीजिए और एक वार-सिर्फ एक ही वार मुझे अपनी नजर से जी-भर कर देख लीजिए। मैं निहाल हो जाक गी। इतने से ही मेरे समस्त मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे। मेरे रागभरे हृदय मे अभी तक जो तडफन हैं, वह आपके द्वारा देखने भर से शान्त हो जायगी ।" राजीमती को अपने पर इतना भरोसा है कि अगर नेमिकुमार एक बार मुझे जी-भर कर देख लेंगे, तो फिर मुझ में उनको वाधने की कला है, फिर वे की छटक नही सकेंगे। परन्तु नेमिनाथ स्वामी इस बात को भलीभांति समझते हैं कि एक वार राजीमती पर रागदृष्टि से नजर करने का नतीजा क्या आएगा? इसलिए वे ऐमी उलझन मे स्वय किसी भी मूल्य पर पडते नही । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो एक बार नेमिनाथ स्वामी अगर राजीमती के कहे अनुमार रागदृष्टि से उसे देख लें तो उनकी वीतगगता ही समाप्त हो जाय । इमलिए आध्यात्मिक साधक इस प्रकार की मोहदशाप्रेरित बाह्यचित्तवृत्ति की प्रार्थना कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। राजीमती भी इस बात को समझ जाती है, फिर भी वह इस बहाने से श्रीनेमिनाथ की वीतराग की भावना की कसौटी कर लेती है, जिस पर वे पूरे खरे उतरते हैं। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ५०५ भाष्य निष्फलता के बाद राजीमती का मथन इतना सब कुछ करने के बावजूद भी जब राजीमती को सफलता नही मिलती है, तो उसके मन मे अन्तर्मथन होता है कि स्वामी नेमिनाथ मेरी भावना को जरूर ममझते हैं, फिर भी वे मेरे मन का समाधान क्यो नही करते? कोई न कोई कारण अवश्य है, जिसे मैं समझ नहीं पा रही हूं। मैं पतिव्रता स्त्री अपने आपको मानती हूँ, तो पति जिस रास्ते से जा रहे हैं, उस रास्ते मे मुझे बाधक नहीं बनना चाहिए, प्रत्युत उनके पदचिन्हो पर चल कर मुझे उनके काम में सहयोग देना चाहिए । अतः वह मोहदशा हटा कर तत्त्वदृष्टि से विचार करके अपने उद्गार प्रगट करती है-- मोहदशा धरी भावना रे चित्त लहे तत्वविचार; मन। वीतरागता आदरी रे, प्राणनाथ निरधार; मन०॥१४॥ सेवक परण ते आदरे, तो रहे सेवक-माम'; मन०॥ आशय साथे चालिए रे, एहीज रुडु काम; मन० ॥१५॥ त्रिविध योग धरी आदर्यो रे, नेमिनाथ भरतार; मन० । धारण-पोषण-तारगो रे, नवरस मुक्ताहार; मन० ॥१६॥ अर्थ मोहनम्त दशा धारण करके मैंने अब तक वैसी स्नेहराग की भावना (विचारणा) ही की। परन्तु अब तत्वज्ञान का विचार आया है कि स्वामीनाथ ने वीतरागता (रागद्वेषरहित अवस्था) अपना ली है, (इसलिए। प्राणनाथ के जैमी अवस्था (वीतरागता। धारण करना निश्चय ही आवश्यक है ॥१४॥ आपका जो सेवक (मैं) हो, वह भी उसे (स्वामी की तरह वीतरागता) अपनाए, तभी सेवक को मानमर्यादा (इज्जत) रह सकती है । अत जिनकी सेवा करनी है, उनके आशय (हृदयगत भावना) के साथ ही चलना चाहिए। सेवक (मुझ सेविका) के लिए यही अच्छा काम है ॥१५॥ ___ अत. राजीमती ने भी त्रिविध योग (मन-वचन-काया के योगो से योग= साधुत्व अथवा इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग या योगावचकयोग, १ 'माम' के बदले कही-कही 'मान' शब्द भी है। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ अध्यात्म-दर्शन क्रियावञ्चकयोग, फलावञ्चकयोग) को धारण करके नेमिनाय (वीतराग परमात्मा या शुद्ध आत्मदेव) को सच्चे माने मे पति (स्वामी) के रूप मे स्वीकार कर लिया । मन में यह निश्चय कर लिया कि ये ही मेरे धारण (आत्मगुणों को टिकाए रखने) पोषण (आत्मगुणों को पुष्ट करने) तथा तारण (संसारसमुद्र से आत्मा को तारने वाले हैं)। ये ही मेरे नवरसरूप अथवा नवसेरा मौक्तिक हार-सम हैं । यो राजीमती ने मान लिया । भाष्य राजमती का मोहदशात्याग इससे पूर्व महासती राजमती की इतनी अभ्यर्थना के बाद भी जब श्रीनेमिनाथ प्रभु वापिस न लौटे, तब राजीमती को वास्तविकता का भान हो जाता है। अब तक वह रथ वापिस लौटाने की बात कर रही थी, उसके बदले अब भावना करती है। उसके अन्तर मे परमात्मा (शुद्ध आत्मा) की ओर से अन्त स्फुरणा होती है-"राजीमती ! मोहनीयकर्मवश पराधीन बन कर तू यह क्या कर रही है ? किमको उपालम्भ दे रही है, ताने मार रही है, व्यग कस रही है ? प्रभु नेमीश्वर तो पूर्ण वैराग्यवान बन चुके हैं। उनका निश्चय भटल है। वे वीत गगता को अपना चुके हैं। तेरे शब्द, तेरा मोहक वाह्य भौतिक रूप-सौन्दर्य और तेरे मोहभरे वाक्यवाण उन पर अब कोई असर नहीं कर सक्ते । वे अब सर्वात्मभूत बन गए हैं। ये तेरे-से या तेरे सरीखे न बन सके, इसके पीछे यही रहस्य है। अब तू पदि उनकी सच्ची सेविका--प्रेमिका है तो तुझे उनके जैसी बनना पडेगा। तेरे आठ जन्मो के प्रेम की अव इस जन्म मे सच्ची कसौटी प्रभु कर रहे हैं। अत तू अपने प्राणनाथ भगवान् नेमिनाथ की तरह ही वीतरागभाव को धारण कर।" राजीमती के हृदय मे तीव्र मन्थन हो चुका और उसने मोहदशा छोड दी, नेमिनाथ की वीतरागता को वह आरपार देखती है। वह एकत्वभावना पर चढ कर सोचती है-'अब तक तो मैं मोहदशा धारण करके मोचती थी, परन्तु अब मेरा सन असली वस्तुस्थिति को जान सका है कि 'प्राणनाथ | आपने दृढ़तापूर्वक वीतरागता अपना ली है। पहले आपकी सव वातें मुझे उलटी लगती थी, लेकिन अब सारी ।' बाते सगत जान पडती हैं। पहले मैं मोह के कारण सोमारिक दृष्टि से आपके जीवन की घटनाओ का तालमेल विठाती थी, इसका कारण सब विपरीत - - - Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के माथ ध्याता और ध्यान की एकता ५०७ प्रतीत होता था, लेकिन अब सभी बातें भलीभांति दिमाग मे जम गई हैं। मेरे चित्त मे अब आपका तत्वविचार जाग्रत हो चुका है। आप अपनी भूमिका मे जो कर रहे हैं, वह विलकुल ठीक है । इम प्रकार पक्का निश्चय कर लिया कि प्राणनाथ ने जब वीतरागता का मार्ग अपना लिया, तो मैं उनकी पतिव्रता स्त्री तभी कहला सकती हूं, जब उनके मार्ग का अनुसरण करू । प्राणनाथ ने तो वीतराग द्वारा अपनाने योग्य मार्ग ही अपनाया है। मुझे भी उनके मार्ग पर ही चलना चाहिए।" इस प्रकार वह नेमिनाथ स्वामी के वीनरागता के मार्ग को समझ कर अपनाती है। स्वय उस रास्ते पर चलने का निश्चय करती है। वह नेमिनाथ को छोड़ कर दूमरे के साथ शादी करने का विचार नहीं करती। वह यो नही सोचती कि मेरी तो केवल सगाई ही हई है, अत नेमिनाथ नहीं चाहते तो दूमरा वर पसद कर लू। वह अपने आपको वाग्दत्ता मानती है और नेमिनाथ स्वामी द्वारा गृहीत मार्ग को ही अपने लिए ठीक समझ कर अपनाती है। इम निर्णय में राजीमती की सहज सरलता और कृतनिश्चयता है। राजकुमारी होते हुए भी भौतिक विवाह के बदले नेमिनाथ के आत्मिक विचारो को अपना कर सर्वत्याग के मार्ग पर जाने का निश्चय कर चुकी, यह उसके निर्णय की भव्यता है। ज्यो-ज्यो राजीमती आत्मा की आवाज सुनती गई, त्यो-त्यो वह एकत्वभावना मे तल्लीन हो कर गहरी उतरती गई.--'यह जीव अकेला ही आया है, अकेला ही जाएगा, कोई किमी के साथ नहीं जाता। भगवान् ने जो मार्ग लिया है, वह वीतराग के लिए उचित व शोभास्पद है। वही मेरे लिए अनूकरणीय है। क्योकि मैं प्रभु की सेविका--अनुचरी है। मेरे प्राणेश्वर श्रीनेमिनाथ की प्रेमिका हूँ। आट-आठ जन्मो का हम दोनो का पुराना प्रेम है। परन्तु मेरे और उनके दर्जे मे जो अन्तर है, उम पर मैंने विचार नहीं किया। मेरे भौतिक मोहनीय भावो ने मुझे ऐसा मोचने भी नहीं दिया। सचमुच मोह का कितना जबर्दस्त कुप्रभाव है | सत्यस्वरूप को छिपा कर यह दुष्ट मोह असत्स्वरूप को ही समक्ष प्रस्तुत करता है। हाँ, मुझे याद आ गया, मैं तो इन प्राणनाथ की जन्म-जन्मान्तर से सेविका रही हूँ। स्वामी की इच्छा ही मेरी इच्छा रही है। पूर्वजन्मो मे भी मैं स्वामी की इच्छा के अधीन थी। और . Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ अध्यात्म-दर्शन फिर सेवक का धर्म भी यही है कि स्वामी की इच्छा मे ही अपनी इच्छा को मिला देना । सेवक को स्वामी की इच्छा का सम्मान करना चाहिए । इमी से सेवक की प्रतिष्ठा बढ़ती है। स्वामी के अभिप्राय के अनुसार चलना ही मेवक का मतकर्तव्य है। मेरे स्वामी जव अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत और वीतरागभाव धारण कर चुके हैं, तब मुझे भी इनसे विरुद्ध नहीं जाना चाहिए। मुझे मच्चे माने मे इन्हे वररूप मे स्वीकार करना हो तो इनके भौतिक शरीर को नहीं, अपितु इनके वीतरागभाव- शुद्धात्मभाव का वरण करना चाहिए । आत्मा के साथ आत्मा का ऐक्य ही वास्तव मे लग्न है, विवाह है, पाणिग्रहण है और यही अब मेरे लिए सर्वोत्तम कार्य है। जब मैंने अपने आपको इन की सेविका रूप मे निश्चित कर लिया है, तब स्वामी द्वारा स्वीकृत वीतरागता का स्वीकार करना ही मेरे लिए इष्ट कर्तव्य है। इसके सिवाय अब मेरे लिए अन्य कोई मार्ग ही नहीं है। _ अब श्रीनेमिनाथ भगवान् को पति के रूप मे अपनाने के लिए राजीमती के मन-वचन-काया के (योग) शुद्धप्रणिधानपूर्वक, अथवा इच्छादि तीन योगो में श्रीनेमिनाथ प्रभु का सच्चे माने मे स्वामी के रूप मे आदरपूर्वक स्वीकार कर लिया है। अर्थात् जैसे नेमिनाथप्रभु ने विकरण-त्रियोग से माधुता एव मन-वचन-काया मे वीतरागता धारण की है, वैसे ही राजीमती ने भी त्रिकरण योग से या त्रियोग से माधुता एव वीतरागता का स्वीकार करके उन (नेमिनाथ प्रभु) की आराधना शुरू कर दी। राजीमती ने दृढ विश्वास कर लिया कि मेरे आराध्य (ध्येय) वीतरागदेव ही मेरे आत्मगुणो का धारण, पोषण करने एव आत्मा को ससारसागर से पार उतारने वाले है। मुझे भी इन्हीं गुणो को धारण करना चाहिए । अथवा ज्ञानदशा से प्रभु धारणकर्ता हैं, भक्तिदशा से पोषणकर्ता हैं तथा वैराग्यदशा से तारणकर्ता हैं। __ जैसे मोतियो का हार हृदय पर धारण करने पर आनन्द और शोभा देता है,वैसे ही राजीमती ने नेमिनाथ भर्ता (पति) को तीन योगो से हृदय में आदरपूर्वक धारण कर लिया। उसने हृदय मे निश्चय कर लिया कि स्वामी के हाथ से ही दीक्षा प्राप्त करने से मेरा योगावचक योग सफल हुआ, स्वामी की आज्ञानुमार दीक्षा (साधुता) का यथार्थ पालन करने से मेग क्रियावचकयोग मफल हुआ और स्वामी से पहले ही मोक्ष मे जाना सभव होने से मेरा फलावचक Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ५०६ योग भी सफल होगा । अथवा प्रभु नेमिनाथ नवरसरूपी मुक्ताहार के समान है । भगवान के सान्निध्य से नौ ही रमो का अपूर्व सगम मिलता है, नौ रस ये हैं-- गार, वीर, करण, रोद्र, हाम्य, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और गान्त । विरक्त एव वीतराग के लिए ये नौ रस शान्तरम मे परिणत हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि राजीमती ने मवंविरत माधुधर्म का अगीकार करके यीतराग परमात्मा नेमिनाय वा मागोपागरूप से सर्वतोभावेन हृदय मे धारण कर लिया। आत्मार्थी एव मुमुक्ष की आत्मा के लिए भी वायचित्तवृत्ति का त्याग करके अन्तर्मुखी बन कर परमात्मा वीतराग के पथ का अनुमरण करना और वीतरागता प्राप्त करना अभीष्ट है, यही मार्ग उपादेय है । अब श्रीआनन्दधनजी इस स्तुति का उपमहार करते हुए कहते है-- करुणारूपी प्रभु भज्यो रे, गण्यो न काज-अकाज, मन । कृपा करी मुझ दीजिए रे, आनन्दधन-पद-राज; मन० ॥१७॥ अर्थ रानीमती प्रभु से अन्तिम प्रार्थना करते हुए कहती है - "फरणारूप (दयामय) प्रभु श्रीनेमिनाय को मैंने भक्ति=आराधना (ध्यानपूर्वक) की है। मैंने ऐसा करने में कार्य (कर्तव्य) कार्य (अपर्तव्य) का विचार नहीं किया। अत दया करके मुझे आप आनन्द के समूह प्रभु का राज्य (मुक्तिधाम) दीजिए। ___ भाष्य राजीमती (शुद्ध यात्मा) की प्रभु से अन्तिम प्रार्थना महामती राजीमती शुद्धभाव मे आ कर जन्तरात्मा के बोध के कारण परमात्मा श्री नेमिनाय से प्रार्थना करती हुई कहती हैं- "मेरे आत्मज्ञान के प्रबोधक परमात्मन् । मैंने अब आपको पूर्णरूप से परख लिया है। आप करुणा के सागर हैं, क्योकि आपने लोकव्यवहार नौर लोगो की जरा भी परवाह नही की, और अन्त करण से मूक पशुओ पर दया करके तत्काल ससारमात्र १. किमी किसी प्रति मे 'करुणारूपी' के बदले 'कारणरूपी' शब्द है, वहां अर्थ होता है, मैने प्रवल निमित्तकारणरूप परमात्मा का सेवन किया है। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० अध्यात्म-दर्शन का त्याग कर दिया, इसी घटना को ले कर आप मेरे प्रवल निमित्त कारण वने, मेरे उपादान को शुद्ध वनाने मे, उसे जगाने मे आप ही प्रवल कारण बने है। मुझे शुद्ध-आत्मस्वरूप को प्राप्त कराने मे आप निमित्तरूप बने । जब सत्यस्वरूप का दाता वास्तविक निमित्त बन जाता है, तव उसकी हृदय से भक्ति-सेवा करनी चाहिए। इमलिए मैं कार्य-अकर्म या सफलता-निष्फलता का विचार किये बिना ही पूरी शक्ति लगा कर आपको प्रवल निमित्तरूप मान कर आपकी सेवा करने में जुट गई हूँ। आपके चरणो की सेवा कर रही हूं। अत हे करुणासागर | अब आप मुझे मच्चिदानन्दघनरूप मोक्षपद का साम्राज्य दीजिए। ध्याता राजीमती अपने उपादान को शुद्ध और सर्वोच्च पदारूढ करने के लिए प्रवलनिमित्तरूप परमात्मा (नेमिनाथ प्रभु) को ध्येय मान कर एकाग्रतापूर्वक उन्ही के ध्यान मे तल्लीन हो गई। एकाग्र ध्यान के परिणामस्वरूप उसने प्रभु से पहले मोक्षगमन किया। इसी तरह मुमुक्ष ध्याता भी ध्येयनिष्ठ बने महात्मा आनन्दधनजी कहते है कि जिस तरह सती राजमती ने मोहभाव से एकदम पलटा खा कर वीतराग परमात्मा के मार्ग का अनुसरण किया, कामभावना से देखने वाली राजीमती आत्मदृष्टि मे स्थिर होकर भव्यातिभव्य आत्मा के रूप मे अमर हो गई। भगवान् नेमिनाथ का एकनिष्ठापूर्वक ध्यान करते-करते वह ध्येयरूप=आत्मरूप तदाकार बन गई। जैसे राजीमती मे एक स्वामिनिष्ठा और वाग्दत्ता का स्वत्व था, और उसी के फलस्वरूप वह नेमिनाथ प्रभु से ५४ दिन पहले मोक्षपद को प्राप्त कर चुकी । इसी तरह मैं (मुमुक्ष साधक) भी दयानिधि नेमिनाथ प्रभु का एकनिष्ठा या एकस्वामिनिष्ठा से ध्यान करता हूं, उनके मार्ग का अनुसरण करता हू और राजीमती की तरह कार्य-अकार्य की परवाह किये विना मैं भी उनका सेवन करता हू । इसलिए मुझे और सब साधको को भी राजीमती की तरह आनन्द के समूहरूप मोक्षपद का राज्य प्रदान करें। साराश इस समग्र स्तुति मे राजीमती के जीवन में परमात्मप्रीति के तीन मोड आते है, पहले मोड मे वह सासारिक मोहदशा से प्रेरित हो कर घर पर Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता पधारने और रथ को वापिस मोड़ने के लिए विभिन्न वक्रोक्तियो, युक्तियो, प्रयुक्तियों, हेतुओ, व्यंग्यो, आदि का प्रयोग करती है, वैरागी नेमिनाथ को अपनी ओर खींचने के लिए। परन्तु उसमे मफलता नहीं मिलती है तो वह सीधे उनको वीतरागता और ब्रह्मचर्य पर आक्षेप करती है, लेकिन नेमिनाथ की अपने ध्येय मे अटलदशा (आत्मनिष्ठा) देख कर वह हताश हो कर आत्ममन्थन करती है, जिसके फलस्वरूप उसके मोह का पर्दा दूर हो जाता है, वह नेमिनाथप्रभु के वीतरागता ऐव साधुना के मार्ग का अनुसरण करती है और एकनिष्ठ ध्यान से ध्येयाकार हो जाती है। अन्त मे ध्याता के लिए राजीमती की तरह एक स्वामित्वनिष्ठा से ध्येय का ध्यान करना आवश्यक बताया है, जिसका सकेत श्रीआनन्दघनजी ने अन्तिम गाथा में किया है। इस सम्पूर्ण स्तुति का उद्देश्य और सार है-सच्ची एकनिष्ठा, ध्येय के प्रति ध्याता की एकाग्रता। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ : श्रीपार्श्वनाथ-जिन-स्तवनआत्मा के सर्वोच्च गुणों की आराधना (तर्ज-राग सारंग, रसियानी देशी) ध्रवपदरामी हो स्वामी माहरा, नि कामी गुणराय, सुज्ञानी । निजगुणकामी हो पामी तु धरणी, ध्रुव आरामी हो थाय, सुज्ञानी ॥१॥ अर्थ हे पार्श्वनाथ भागवन् । आप हमारे स्वामी हैं। आप ध्रुव (अचल) पद (आत्मपद या मोक्षस्थान) मे सतत रमण करने वाले हैं। आप निष्काम (कामना या काम से रहित) हैं, गुणों (शुद्ध आत्मा के दर्शन, ज्ञान, वीर्य = शक्ति और सुख आदि अनन्त गुणो) से विराजित-सुशोभित हैं । या गुणो के राजा हैं। आप निज (आत्मा के) गुणो=ज्ञानादि गुणो के ही इच्छुक हैं या ज्ञानादि गुणो से कमनीय हैं। अथवा मैं निजगुणकामी आप जैसे को स्वामी (पति =अन्तर्यामी) बनाने वाले या आपको पा कर सुज्ञानी-भव्यजीव आपके समान ध्रुव पद (अचल स्थान) पाते हैं अथवा अचल पद मे आरामी=(आराम करते) हैं अथवा आत्मा के अनन्त गुणों में रमण करने वाले बनते हैं । भाष्य सर्वोच्च आत्मिक गुणो के पुज परमात्मा इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी आत्मा के सर्वोत्तम गुणो को परमात्मा मे वता कर परमात्मा के उपासक को आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना के लिए प्रेरित कर रहे हैं। परमात्मा का नाम पार्श्वनाथ है। पाश्वमणि, एक प्रकार का स्पर्शमणि होता है। जिसके साथ लोहे का स्पर्श होते ही वह सोना वन जाता है। इसी प्रकार शुद्ध और सर्वोच्च आत्मगुणो का परमात्मा से स्पर्श होते ही वह व्यक्ति भी परमात्मा बन जाता है। बात्मगुण शुद्ध होने चाहिए, अन्यथा अगर वे पूर्ण विकसित न हो, उन गुणो मे कुछ दोषो का पुट हो तो मलिनता के कारण परमात्मारूपी पारस से उन मलिनतायुक्त आत्मगुणो का स्पर्श होने पर भी वह व्यक्ति शुद्ध स्वर्णसम परमात्मा नही बन सकेगा। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना इन्ही सब कारणकलापो को ले कर वीतराग-परमात्मा बनने के लिए शुद्ध आत्मगुणो का अपने में विकाम करके प्रभु पार्श्वनाथरूपी पारसमणि के साथ स्पर्श कराना होगा। परमात्मा किन-किन सर्वोच्च आत्मगुणो से ओतप्रोत हैं ? इसे क्रमशः बताते हैं । सर्वप्रथम उनके लिए कहा गया है--ध्रुवपदरामी--यानी वीतराग पार्श्वपरमात्मा ध्रवपद यानी निश्चल आत्मपद अथा शैलेशीकरणरूप आत्मा की सर्वथा निश्चलस्थिति प्राप्त होने के बाद मोक्षपद मे आप सतत रमण करने वाले हैं । स्वामी माहरा--आप मेरे स्वामी हैं। जब कोई प्रभु को अपना स्वामी बनाता है, तव स्वाभाविक ही वह सेवक बन गया । सेवक को अपने सेव्य (स्वामी) की सेवा में तैनात रहना चाहिए। इससे काव्यरचयिता ने अपनी नम्रता भी आत्मगुणो की सेवा मे सतत जागृत रहने की बात से सूचित कर दो है। जो आत्म गुणो को प्रगट करना चाहते हैं, वे आपको अपना स्वामी बना कर मोक्षरूप शाश्वतस्थान मे आराम (शान्ति, पाने वाले बन जाते हैं। आप नि:कामी हैं। आपको किसी वस्तु या प्राणी से किसी प्रकार की कामना नहीं है। फिर भी आपका सम्पर्क भव्यजीवो एव आत्माथियो को अपने समान वना देता है। आप ज्ञानादि अचिन्त्य भनेक गुणो के राजा है। गुणो का गजा वही हो सकता है, जो उन गुणो पर अपना आधिपत्य रखता हो । आपका आधिपत्य ज्ञानादिगुणो पर है। इसलिए कहा गया—'गुणराय' परमात्मा की आराधना : गुणो की आराधना से प्रश्न होता है, उपयुक्त पक्तियों में परमात्मा के सर्वोच्च गुणो का वर्णन किया गया, उससे क्या लाभ ? कोरा गुणगान करने में अपना समय और शक्ति क्यो लगाई जाय ? इमी के उत्तर मे श्रीआनन्दघनजी ने कहा है--"निजगुणकामी हो, पामी तु धणी, ध्रुव-आरामी हो थाय, सुज्ञानि ।' अर्थात् जो साधक अपने गणो का विकास करने के इच्छुक हैं । वे आप जैसे गुणो के सर्वोच्च शिखर को पा कर या आप सरीखे गुणरूपी पारसमणि (धनी) का स्पर्श पा कर शाश्वतरूप से आत्मा मे रमण करने वाले या शाश्वतशान्ति के उपभोक्ता बन जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि पार्श्वनाथस्वामी जैसे सर्वोच्च गुणसम्पन्न वीतराग को तो अपने गुणगान या अपनी प्रशसा से कोई मतलब नहीं Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ अध्यात्म-दर्शन है, वे तो परमसमभावी है, परन्तु जो साधक आदर्श गुणी बनना चाहता है, उसके लिए सर्वोच्च गुणो का आदर्श (Model) सामने होना चाहिए। ताकि आदर्श को देख कर स्वय भी अपने जीवन को आत्ममुणो से सजा मके, अथवा आप जैसे गुणस्पी पारसमणि के धनी का स्पर्श करके या आपका ध्यान, जप, गुणगान आदि करके अपने जीवन को गुणरूपी स्वर्ण से जटित कर सके । अगर साधक आपके गुणो का क्रमश स्मरण करता है, उन गुणो को प्राप्त करने का उपाय, उन गुणो की प्राप्ति के मार्ग में आने वाले विघ्न, उन गुणो की स्थिरता का मापदण्ड आदि पर मतत तलस्पर्शी चिंतन करता है और तदनुमार अपने जीवन को ढालता है तो नि मन्देह एक दिन वह भी मात्मगुणो के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाता है। साधक को परमात्मा मे निहित सर्वोच्च गुणो पर इस प्रकार चिन्तन-मनन-निदिध्यामन, ध्यान, जप, गुणगान आदि करने से जव वे सर्वोच्च हस्तगत हो जाते हैं तो उनके बार-बार ससार मे जन्म-मरण का दुख, साथ ही गुणो के अधूरे विकास के कारण राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि प्रवल दुगुणो का सामना करने मे हार खानी पडती थी, हर बार उनका गुलाम बनना पडता था, अपनी दुर्बलताओ के कारण उन दुर्गुणो का शिकार बन जाता था, किन्तु उन सर्वोच्च गुणो पर आधिपत्य प्राप्त हो जाने पर ये सव दुख, द्वन्द्व, व्यथाएँ, बाधाएं और पोडाएं काफूर हो जाती हैं, माधक परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, गुणो में परमात्मा के ममान बन जाता है तो परमात्मा के साथ वह निकटता स्थापित कर लेता है, जो उनका स्थान है, वही शाश्वत शान्ति का धाम उसे प्राप्त हो जाता है। इमीलिए योगीश्री के अन्तर से स्वर फूट पडा-"निजगुणकामी हो, पामी तुं भणी, ध्रुव-आरामी हो याय, सुज्ञानी ।' वह ध्रुव-आरामी बन जाता है, सदा के लिए जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, शोक, शारीरिक-मानसिक सताप आदि सभी झझटो से वह बच जाता है, मदा के लिए आराम पा जाता है, अपनी आत्मा मे ही रमण का अनन्त ध्र व आनन्द उसे मिल जाता है। यह कितना बडा लाभ है, वीतराग पार्श्वनाथ के गुणानानुवाद से सर्वोच्च गुणो की उपलब्धि का । श्री आनन्दघनजी ने इसी उद्देश्य से पार्श्वनाथ-जिनस्तुति मे इन सूत्रो को ग्रथित किया है। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना __ अगली गाथाओ मे परमात्मा में सबसे मुख्य गुण-जिसे गुणशिरोमणि या गुण पारसमणि कहा जा सकता है, जिसके स्पर्श से सर्वगुणसम्पन्नता प्राप्त हो सकती है, उस ज्ञानगुण के विषय मे कहते हैं सर्वव्यापी कहे सर्वजारगपरणे, परपरिणमनस्वरूप, सुज्ञानी ! पररूपे करी तत्त्वपणु नहीं, स्वसत्ताचिद्रूप, सुज्ञानी ! । ध्रु०॥२॥ अर्थ हे स्वामी ! आपको (परमात्मा के दूसरे दर्शन या धर्म वालो की ईश्वरीय मान्यता की तरह) लो7 सर्वव्यापी (सर्वपदार्थों मे सर्वत्र व्यापक) कहें तो समस्त चराचर के ज्ञाता के रूप में आप सर्वव्यापी हैं, लेकिन सर्वपदार्थों मे व्याप्त मानें तो आप परपरिणमन रूप हो जायेंगे। अगर आप (शुद्ध चेतन) परपदार्थरूप बन जायेंगे तो आपका वस्तुतत्वरूप (चेतनत्व) नहीं रहेगा। अत. तत्वत आप सर्वव्यापी नहीं हैं क्योकि आपकी सत्ता चित्स्वरूप है। भाष्य परमात्मा की सर्वव्यापकता क्या, किस गुण से, और कैसे ? पूर्वगाथा में प्रभु के सर्वोच्च गुण और उनकी आराधना का परम लाभ बताया गया था, अब इस गाथा मे पारसमणिरूप ज्ञानगुण और उसके कारण उनकी सर्वव्यापकता के मम्बन्ध मे गम्भीर चर्चा की गई है। सर्वप्रथम हम ज्ञानगुण के महत्त्व के सम्बन्ध मे समझ लें। दूसरे द्रव्यो से आत्मा को अलग करना हो तो ज्ञानगुण को ही लेना पडेगा, ज्ञान ही एक ऐसा गुण है, जो आत्मा को अन्य द्रव्यो से पृथक् करता है । ज्ञान-गुण प्रत्येक ज्ञयपदार्थ के साथ जुड़ कर प्रत्येक ज्ञेय को जानता है, ज्ञात हुए को दूसरो को ज्ञात करा कर उन्हे भी सर्वज्ञाता बना डालता है । अगर आत्मा मे ज्ञानगण न होता तो जगत् मे कौन-कौन-से द्रव्य हैं ? कौन-कौन से तत्त्व है ? कौन-से पदार्थ है ? उनका क्या-क्या स्वरूप है ? यह किह तरह से है ? कैसे है ? कौन स्वगण है, कौन परमाणु है ? स्वभाव क्या है, परभाव क्या है ? मात्मा मे कितनी शक्तियां हैं ? कौन-कौन से गुण हैं ? उनके विकास में साधक-बाधक कौन-से तत्त्व हैं ? हमारी आत्मिक शक्तियो को कौन-कौन-मे पदार्थ कसे-कमे रोकते हैं ? उस रुकावट को कैसे दूर किया जा सकता है ? इन सवका ज्ञान-यथार्थ वोध Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ अध्यात्म-दर्शन कैसे होता? पदार्थों का यथाव स्थित स्वरूप ज्ञान के विना कैसे जाना जाता ? इसलिए जान को नात्मा का सर्वोपरि गुण माना जाता है। परमात्मा में ज्ञानगुण मर्वोच्चरूप से विकसित होता है, समस्त ज्ञेयपदार्थ उनके ज्ञान मे झलकते हैं, प्रतिविम्बित होते हैं। परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के इमी ज्ञानगुण को ले कर एक चर्चा प्रस्तुत की गई है-'सर्वव्यापी कहे' प्रभो आपको लोग मर्वव्यापी कहते हैं, जैसे कई धर्मों और दर्शनो वाले लोग ईश्वर को सर्वव्यापी=सर्वपदार्थ मे व्याप्त कहते हैं, निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा भी सर्वव्यापक है। यहां यह सवाल खडा होता है कि परमात्मा को मर्वव्यापी अन्यदर्शनी लोगो की मान्यता की तरह ही माना जायगा, या और किमी रूप मे ? जहाँ तक जैनदर्शन का मवाल है, श्रीआनन्दघनजी ने वस्तुस्वरूप पर गहराई से सोच कर यहाँ उत्तर दिया है-'सर्वव्यापी कहे सर्वजाणगपणे' अर्थात् परमात्मा को सर्वव्यापी कहा जाय तो कयचित् सत्य माना जा सकता है। परमात्मा (शुद्ध आत्मा) का ज्ञान सकल चराचरपदार्थ और गुणपर्याय को जानता है, इस सर्वज्ञानता की अपेक्षा परमात्मा या मात्मा मर्वव्यापक विभु है। क्योकि जब जान सवको जानेगा सो सव ज्ञेयो का स्पर्श या प्रतिविम्व उस पर पडेगा ही। मवको जो जानता है, वह सर्वव्यापी है। परन्तु यदि सर्वव्यापक का अर्थ यह किया जाय कि परमात्मा मर्वत्र सव पदार्थों में व्याप्त होते हैं, तब तो परमात्मा या आत्मा परद्रव्य मे परिणमनरूप या रमणकर्ता बन जाएगा, जो उसके स्वभाव के विरुद्ध है। इसलिए परमात्मा या मात्मा सर्वपदार्थव्यापी नहीं हो सकता। एक प्रश्न और खडा होता है-सर्वज्ञानता के कारण जब परमात्मा सर्वव्यापक विभु है, तब वे ज्ञानगुण से जिसे-जिसे जानेंगे, उस-उस ज्ञेय के रूप मे जान और आत्मा परिणित हो जायेंगे, उस पदार्थ को वे (शुद्ध आत्मा) पूर्ण. तया जान सकेंगे। जरा भी जानना शेप रह जायगा तो उनकी सर्वज्ञानता मे कमी रह जायगी। क्योकि वह पदार्थ, सम्पूर्णरूप से उनके ज्ञान मे प्रतिविम्बित हो जाता है, अथवा ज्ञान उस रूप मे (तदाकार) सम्पूर्ण बन जाता है, तभी वे उसे पूरी तरह से जान सकते हैं। कोई भी गुण-स्वभाव अपने आप मे पूर्ण होता है, अपूर्ण तो सम्मव ही नहीं है । रुपया अपने आप मे पूर्ण है, पैसा अपने रूप मे पूर्ण है । अत शुद्ध परमात्मा) की सर्वज्ञानता समस्त ज्ञेयो मे तद्रूप Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना ५१७ परिणमन होने पर ही पूर्णता के शिखर पर पहुंची कही जाएगी।" इसीलिए कहा गया-~'परपरिणमनस्वरूप' इसका समाधान यह है कि यह सच है कि 'आत्मा कचित् परिणामी है', परन्तु यह अनन्त ज्ञानमय होते हुए भी परपरिणति से अबाधित है । आत्मा का आत्मत्व जिम तत्व के रूप मे है, वह परपरिणतिरूप मे नही दिखना । अगर परमात्मा के ज्ञान को पूरी तौर से ज्ञेयाकार होना माना जायगा तो फिर ज्ञानगण का आश्रयभूत आत्मा-द्रव्य भी ज्ञयरूप वन जायगा। ऐमा होने पर सर्वज्ञ आत्मा अन्य-सर्वपदार्थरूप हो जायगा, और परमात्मा इस तरह का सर्वव्यापक (विभु) माना जाए तो उसे परपदार्थ के रूप मे परिणत होना पडेगा। इस प्रकार परत्व प्राप्त हो जाने पर उस आत्मपदार्थ का अपना जो म्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप स्वरूप है, वह रह न सकेगा, क्योकि परद्रव्य-क्षेत्रकाल-भावरूपता उसमे आ जाय तब तो स्वतत्वता या स्वस्वरूपता उसमे रहती ही नहीं। जगत् मे प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से स्वस्वरूप मे है, और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से परपदार्थ रूप है। प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव मे परिणत होता रहता है। और पररूप (परत्व) से पर के द्रव्यादि मे रहित होता है, यही उसकी सत्ता है यही उसका स्वरूप है, उसी रूप में वह यथाथ पदार्थ है । निष्कर्ष यह है कि आत्मा का स्वभाव परद्रव्य मे रमण करने का नही है, सथैव दूसरे पदार्थ भी आत्मा (परमात्मा) के स्वरूप मे नही होते । अत शुद्ध आत्मा (परमात्मा) को सर्वव्यापक के नाम पर यदि परपदार्थरूप मे बनना मान लिया जाय तो वह परपदार्थ जैमा बन कर उमी मे रमण करने लगेगा। फिर न्मा (परमात्मा) का अपना स्वातत्र्य कहाँ रहा ? फिर आत्मा को स्वतत्र, स्वात्मसुखभोक्ता कसे कहा जा सकेगा? जब वह पररूप (दूसरे पदार्थ के रूप) मे बन जाता है, तो उमका अपनापन (स्वत्व या आत्मत्व) नही रहता। इसीलिए कहा है-'पररूपे करी तत्वपणु नहीं' अर्थात् किसी एक आत्मद्रव्य का सचेतन दूसरे आत्माओ के स्प मे या अचेतनद्रव्य पुद्गलादि के रूप मे परिणमन होने पर अपना आत्मत्व नही रहता । आत्मा के पररूप बन जाने पर उसका आत्मत्व (स्वम्वरूपत्व) नहीं रहता। तथा परपदार्थ के नाश के साथ ही उसका भी नाश मानना पडेगा । आत्मा की सत्ता स्वस्वरूप मे अस्तित्व चिद्रूप-ज्ञान । (चेतना) रूप है । उसके पररूप होने पर वह अचेतनामय अज्ञानमय बन जाएगा। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ अध्यात्म-दर्शन फिर यह नहीं कहा जा सकेगा- "आत्मा का स्वरूप चिद्रूप-चेतनारुप है। यही बात इस गाथा में कही गई है-'स्वसत्ताचिद्रूप' । अगर आत्मा पर मे परिणत होने लगे तो वह अमव्य और अस्थिरस्वभावी हो जायगा। इसलिए द्रव्यायिक नय से आत्मा सर्वव्यापी है, परन्तु पर्यायाथिक नय से वह मर्वव्यापी नही है । परमात्मा की परपदार्थ मे परिणमन करने के अर्थ मे सर्वव्यापी नही अपितु सर्वज्ञानत्व के अर्थ मे सवव्यापी समझना चाहिए । क्योकि आत्मा की सत्ता-स्वरूपास्तित्व समस्त पदार्थों को जानने की है, तद्र पपरिणमन करने की नही, क्योकि उसका स्वभाव ज्ञानमय है। अगली ४ गाथाओ मे क्रमश. द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से आत्मा का परत्व बताया गया है ज्ञेय अनेके हो ज्ञान अनेकता, जलभानन रवि जेम, सुज्ञानी ! द्रव्य एकत्वपणे गुण-कता, निजपद रमतां खेम; सुज्ञानी ! J०३।। अर्थ जय अनेक होने पर ज्ञान भी अनेकत्व को प्राप्त करता है। जैसे जल से भरे अनेक वर्तनो मे एक सूर्य होते हुए भी अनेक सूर्य दिखाई देते हैं । सूर्य की तरह आत्मद्रव्य एक होते हुए भी गुणो का भी एकत्व होता है। मुक्त (सिद्ध) परमात्मा तो अपने अनेकगुणात्मक पदस्थान मे आनन्दपूर्वक रमण करते हैं । भाष्य द्रव्य से आत्मा का ज्ञानगुण एव ज्ञेय इस गाथा मे परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के मुख्य गुण-ज्ञान के सम्बन्ध मे द्रव्य से विचारणा की गई है कि जानने की चीजें (ज्ञेय) अनेक होने पर ज्ञान भी अनेक हो जाते हैं। इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-जैसे सूर्य एक ही होता है, परन्तु पानी स लबालब भरे हुए अनेक बर्तनो मे प्रत्येक मे उम सूर्य का प्रतिविम्ब पडने से पृथक्-पृथक् अनेक सूर्य दिखाई देते हैं, उसी प्रकार ज्ञान होते हुए भी अनेक ज्ञ यो मे पृथक्-पयक ज्ञयाकार में परिणत हो जाने पर (वे ज्ञेय) जैसे अनेक हैं, वैसे ज्ञान भी अनेक हो जाता है। वास्तव में यह बात पर्यायदृष्टि से यथार्थ है कि ज्ञेय अनेक हैं तो ज्ञान भी अनेक है, यानी अलग-अलग आविर्भाव की दृष्टि मे उन ज्ञेयो का ज्ञान Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना ५१६ (जानकारी) भी अनेक प्रकार का होता है। प्रत्येक वस्तु अपनी विशेषता के अनुमार पर्याय की अपेक्षा से अलग-अलग प्रकार की मालूम होती है। प्रत्येक वस्तु मे उसकी अपनी विशेषता तो होती ही है। पर्यायान्तरगत व्यक्तित्व भी प्रत्येक वस्तु मे जरूर होता है। इसलिए पर्यायदृष्टि से ज्ञान अनन्त कहा गया है। जैसे वस्तुएं अनन्त हैं तो उनके पर्याय भी अनन्त हैं। वे पर्याय अलग-अलग नजर भी आते हैं। दूसरी ओर मात्मद्रव्य एक है, इसलिए उमका अपना ज्ञानगुण भी एक ही होना चाहिए । द्रव्य गुण का घर=आश्रयस्थान है। इस दृष्टि से गुण को अपने घर मे ही रमण करने मे क्षेमकूशन है, पर-घर जाने से क्षेमक्रूशलता नहीं रहती। जान अनेक होने से एक आत्मा के भी अनेक हो जाने की आपत्ति आती है। अत एकद्रव्यरूप अपने घर मे एक ज्ञान की ही स्वरूपरमणता मानी जाय, तभी क्षेमकुशलता रह सकती हैं और उसका अपना स्वरूप भी पूरा सुरक्षित रह सकता है। अन्यथा एक आत्मा अनेकरूप हो जाने से वह अपने एकत्वरूप-स्वरूप मे क्षेमकुशल नही रह सकती। फिर बहुत से ज्ञय तो परपदार्थ हैं, उनके साथ ज्ञानगुण द्वारा आत्मा जब पराये घर रमण करने जायगा तो ज्ञेयो की तरह ज्ञान और आत्मा को भी अनेकत्व प्राप्त करना पडेगा, जो उनके लिए मार है, अपमान है, स्वरूपच्युति है। प्रश्न होता है-ज्ञान का स्वरूप एकत्व ही है, तब द्रव्य का ज्ञानत्व उसमे कैसे घटित होगा, क्योकि वह सब तक पहुंच न सकेगा? इसलिए अनन्तज्ञ य से अनन्तज्ञानरूप ज्ञानमय एक आत्मा अनन्त आत्मस्वरूप हो जाता है। गुण सहभावी होता है, पर्याय क्रमभावी होता है। सहभावी गण, (धर्म) की अपेक्षा से तीर्थ कर या सिद्ध अपने-अपने आत्मिक गणो मे निजपद मे आनन्दपूर्वक रमण करते हैं । इस प्रकार यहां द्रव्य का स्थायित्व और पर्याय मे परिवर्तन बताया। परक्षेत्रगत ज्ञयने जाणवे, परक्षत्रे थयु ज्ञान, सुजानी ! अस्तिपणु निजक्षेत्रे तुमे कह्यो निर्मलता गुण मान, सुज्ञानी ! ॥४॥ अर्थ पर (अन्य) के क्षेत्र में रहे हुए जानने योग्य (ज्ञ य) पदार्थ को जानने से ज्ञान परक्षेत्री हुआ । आपने ही कहा था--ज्ञान का निजक्षेत्र मे हो अस्तित्व है, यानी ज्ञान तो स्वक्षेत्र में रहने वाले आत्मा को ही होता है । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० अध्यात्म-दर्शन निर्मलता का अभिमान यानी शुद्धस्वस्वरूप की स्वतंत्रता या स्वस्वरूप की पूर्णता का अभिमान स्वक्षेत्र में ही हो सकता है । भाष्य क्षेत्र से ज्ञानगुण एव ज्ञेय पर विचार इस गाथा मे ज्ञान के दो प्रकार किये गए है-स्वक्षेत्रीय और परक्षेत्रीय । अपनी (ज्ञान की) अवगाहना से अन्य क्षेत्र मे रहे हुए जीव या अजीव द्रव्य का ज्ञान हो, उसे परक्षेत्रीय ज्ञान कहा जाता है। शं यपदार्थ अपनी अवगाहना मे न हो तो उसे परक्षेत्रीय ज्ञान कहते हैं। परन्तु गुण और गुणी का अभेद है, इस कारण ज्ञान तो अपने अनन्त आत्मप्रदेश मे रहा हुआ है। यहां शका उठाई गई है कि दूसरे क्षेत्र में रहे हुए शेयो को ( यरूप परक्षेत्र को) जानने से ज्ञान भी परक्षेत्र मे हुआ कहना चाहिए। ज्ञान दूसरे के क्षेत्र मे हो उसके लिए आपने कहा था-~-अपने क्षेत्र मे ही अस्तित्त्व है। परक्षेत्र मे स्वत्व नहीं है, अपितु परत्व है। क्योकि अनन्त परक्ष प्रगत जय रूपज्ञान, अनन्त हो जाने से एक आत्मा भी अनन्त ज्ञानरूप होने से आत्मा स्वय अनन्तरूप बन जाती है। ऐसी हालत में आत्मा अपना एकक्षेत्ररूप एकत्व कैसे रख सकती है २ इमके उत्तर मे श्रीआनन्दघनजी कहते है- 'निर्मलता अभिमान' गुण और गुणी के अभेद के कारण आत्मा का निर्मल ज्ञानगुण अपने अनन्त आत्मप्रदेश मे रहा हुआ है। अपने क्षेत्र मे ही ज्ञान का अस्तित्व बताया गया है। ज्ञान का स्वभाव निर्मलता है, इस कारण शीशे के समान निर्मल ज्ञानदर्पण मे शेयपदार्थ दिखाई देता है, पर उममेज्ञान के क्षेत्र मे, ज्ञेय जाता नही और न ज्ञान ज्ञेय मे आता है। इसमे गुण-गुणी मे अभेद होने से सहभावी ज्ञायकधर्म एक ही और साथ रहता है, वह ध्र व है, निर्मल है। ज्ञान की निर्मलता के कारण शंयपदार्थ ज्ञान के पास माता नही, तथापि वह परस्त्रीय ज्ञान भी निजक्षेत्रीय-सा स्पष्ट हो जाता है। जय विनाशे हो, ज्ञान विनश्वरू, कालप्रमाणे थाय ।सु०॥ स्वकाले करी स्वसत्ता सदा, ते पररीते न जाय, सुज्ञानी ॥५॥ अर्थ ज्ञेय पदार्थ नष्ट होने से ज्ञान भी नष्ट हो जाता है , क्योकि काल के अनुसार ऐसा (किसी न किसी समय नाश) होता हीहै । स्वकाल (अपने आत्मा Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना ५२१ के अनंतपर्यायी काल) को ले कर आत्मा की सत्ता स्वत्व कभी परानुयायी नहीं होती। आत्मा का स्वकाल अपनी सत्ता को ले कर होता है। भाष्य काल से आत्मा का ज्ञान एव ज्ञेय आत्मा का परपरिणमनरूप मे सर्वव्यापित्व मानने पर दूसरे दोष भी आते हैं, उनमे से कालगत दोष भी है। अतः ज्ञेय का नाश होने पर ज्ञान का भी माश होता है, यानी ज्ञान नाशवान हुआ। समय-समय पर परिवर्तनशील काल की तरह ज्ञेयपदार्थ भी परिवर्तित होते रहते है, उनके भी उत्पत्तिविनाश होते रहते है और इस कारण ज्ञान नाशवान सिद्ध होता है। ऐसा होगा तो प्रारम्भ मे परमात्मा को हमने 'ध्रुवपदरामी' कहा था, वह घटिल नही होगा, क्योकि गुण-गुणी का अभेद है। ऐमा विचित्र परिणाम आए, तब तो जानने वाले ज्ञाता-आत्मा का भी नाश होने की सम्भावना है। ज्ञानी ज्ञान का नाश होने से उमके ज्ञाता आत्मा का भी नाश हो जायगा। इस प्रकार आत्मा भी क्षणिक सिद्ध होगा। परन्तु ऐसा होता नहीं। इसका ममाधान करते हुए गाथा के उत्तरार्ध मे कहा है- 'स्वकाले करी स्वसत्ता सवा, ते पररीते न जाय' अर्थात्-पदार्थ की स्वसत्ता अपने काल की अपेक्षा से सदा-सर्वदा होती है। यानी वह स्वकाल की सत्ता दुमरे काल के रूप मे नही जाती, स्वय भी दूसरे रूप में नहीं जाती। यदि पर का काल म्व का काल बन जाय तो फिर स्व और पर मे कोई भेद ही नहीं रहेगा। इसलिए अपनी सत्ता अपने-अपने काल की अपेक्षा से है । यदि ऐसा नहीं माना जाएगा, तो घटादि अनित्य ज्ञेयपदार्थों का नाश होते ही ज्ञान भी नष्ट हो जायगा। इस तरह ज्ञान और ज्ञान का आश्रयभूत आत्मा भी नाशवान सिद्ध होता है। इमलिए यह माना गया कि स्वकाल में आत्मा का अनादि-अनन्तत्व होने से स्वसत्ता से चैतन्य ज्ञानगुण का रूपान्तर होता है। वास्तव मे ज्ञेय का सर्वथा नाश नहीं होता है, केवल पर्याय-परिवर्तन होता है, उस समय उसका ज्ञान भी बदल जाता है, सर्वथा नष्ट नहीं होता। मतलब यह है-ज्ञेयपदार्थ के पूर्वपर्याय का नाश हो कर वह अपरपर्याय धारण करता है, तव पूर्वपर्याय का झान भी परपर्यायरूप बन जाता है। इस दृष्टि से आत्मा का और आत्मा के ज्ञानगुण का नाश नहीं होता। काल की अपेक्षा से ज्ञेय की अतीत और Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ अध्यात्म-दर्शन अनागतपर्याय पलट जाती है, तव अतीतपर्याय वर्तमान पर्याय को धारण करती है। इन सर्वपर्यायो का भासनधर्म ज्ञान मे है। सिर्फ यह भासनधर्म दूमरे रूप में परिणत होता है। इममे ऐमा मामास होता है कि ज्ञान में विनाशी धर्म हैं। यद्यपि वह स्वकाल की अपेक्षा से अपने उत्पाद-व्ययरूप परिणमन को देखते हुए ज्ञान उत्पादव्ययरूप है तथापि उसका धर्म (ध्र वत्व) स्वसत्ता है, वह कदापि परमत्तारूप नही होता। इस तरह मिद्ध हुमा कि जीवद्रव्य स्वकाल से स्वमत्ता मे मदा अखण्ड पदार्थ है। स्वकाल ही स्वरूप है, परकाल परस्वरूप है। इसलिए स्वस्वरूपी पदार्थ पररूप बन नही सकता । परभावे करी परता पामतां स्वसत्ता थिर ठाण , सु०॥ आत्मचतुष्कमयी परमां नहि, तो किम सहुनो रे जाण ॥सु०॥ध्रु०॥६॥ अर्थ परपदार्थों का ज्ञान करने वाला आत्मा अपने सिवाय (पर) पदार्थों के भावो (पर्यायों) की अपेक्षा से परतत्व (परपदार्थ) को प्राप्त होने से स्व-आत्मा अपनी सत्ता (अस्तित्व) से कैसे स्थिर रह सकता है ? आत्मचतुष्क (अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनंतचारित्र और अनतवीर्य, ये आत्मा के चार गुण) परमेपरपदार्थ में नहीं होते, तो यह (पर मे मिला हुआ) किस प्रकार सकल पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) हो सकेगा ? भाष्य भाव से आत्मा का परत्व . ज्ञान-ज्ञय की अपेक्षा से पूर्वगाथाओ मे द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा से आत्मा के ज्ञान और शय का विचार किया गया था, अब इस गाथा में भाव से ज्ञान-ज्ञेय का विचार किया गया है। प्रतिवादी शका प्रस्तुत करते हैं कि आत्मा जव पर पदार्थों का ज्ञान करता है, यानी वह अपने से भिन्न परमाणु, आकाश आदि का ज्ञान करता है तो उन परपदार्थों के भावो-पर्यायो का ज्ञान भी वह करता ही है, तव ज्ञान पर्यायभावमय हो जाता है, ऐसा होने से वह परत्व को प्राप्त हो जाय, यह स्वाभाविक है। इसी का समाधान करते हुए कहा है.-'स्वसत्ता थिर ठाण' अर्थात् परवम्नु ज्ञेयादि को जानने से परवस्तु को प्राप्त करने पर भी आत्मा की अपनी जानने की सत्ता स्वस्थान मे ही स्थिर समझनी चाहिए । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गणो की आराधना ५२३ यहाँ ईश्वर (आत्मा) को सर्वव्यापी मानने वाले वादी फिर शका उठाते हैं कि क्या आत्मा परपदार्थत्व (परस्वरूप) को प्राप्त होता है ? उत्तर मे कहते हैंनही, मात्मा के अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव दूसरे पदार्थ मे सभव नहीं हो सकते और न दूसरे मात्मा मे सभव हो सकते हैं। इसलिए आत्मा परपदार्थ को प्राप्त नहीं होता। परन्तु आत्मा का जो निर्मल ज्ञान है, वह ज्ञेय के माकार मे परिणमन हो जाता है। किन्तु ज्ञान ज्ञेयाकार परिणत (ऐसा परभावप्राप्त) होने पर भी आत्मा दर्पण की तरह अपनी आत्मसत्ता मे स्थिर रहता है । यहाँ फिर यह शका होती है-यदि आत्मा परपदार्थ मे परिणमन नहीं पाता, स्वय अपनी आत्मा मे ही स्थिर रहता है और अन्य पदार्थों मे आत्मा के गुणचतुष्टय नहीं है, तब आत्मा अन्य सव पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार की शका 'वीसवीसी' ग्रन्थ मे उठाई गई है कि 1 "जीव यदि सर्वव्यापक नहीं है तो उसका जो धर्म-ज्ञान है, वह आत्मा से बाहर कैसे हो सकता है ? और धर्मास्तिकायादि से रहित' अलोक मे वह (ज्ञान और ज्ञानात्मा) कैसे जा सकता है ? "मतलब यह है कि किसी भी एक सर्वज्ञ आत्मा का ज्ञान लोकगत अनन्तपदार्थ, अनन्तद्रव्य व उनके अनन्तक्षेत्रो, अनन्तकालो और अनन्तभावो को तथा अनन्तपर्यायमय अनन्त-अलोकाका शगत को भी जानता है, तो किसी एक नियत स्थल में स्थित एक ही आत्मा का ज्ञानगुण उस आत्मा के बाहर तथा लोक के नाहर (जहाँ धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय नही हैं।) अलोकाकाश मे कैसे जा सकता है ? कैसे गति कर सकता है ? पूर्वोक्त शका का ममाधान अगली गाथा मे श्रीआनन्दघनजी कन्ते हैअगुरुल घ निजगुरगने देखतां द्रव्य सकल देखत । सु०॥ साधारण गुणनी साधर्म्यता, दर्पणजलदृष्टान्त; सु० ।।ध्रु० ॥७॥ अर्थ आत्मा के अगुरुलघु (षड्गुणहानिवृद्धि रूप) गुण को देखते हुए वह समस्त द्रव्यो (पदार्थों) को देखता है। इस अगुरुलघु नामक साधारण एक १ 'जीवो य ण सध्वगओ तो तद्धमो कह भवइ बाही" कह वाऽलोए धम्माइविरहिए गच्छइ अणते ? ॥१८॥१८॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ अध्यात्म-दर्शन समान) गण को द्रव्य-पदार्थमानमा साधयंता=समानमित्व है, इस कारण एक पदार्थ दूसरे पदार्थ मे मिल नहीं जाता, जिस तरह दर्पण या जल मे सामने जलती हुई अग्नि की ज्वाला का प्रतिविम्ब हूबहू पड़ता है, लेकिन दर्पण और जल में वह ज्वाला, घुस नहीं सकती, न ज्वाला में ये दोनो घुस मकने है । दर्पण, जल तथा ज्वाला तीनों में से कोई अपना धर्म (स्वभाव) नहीं छोडता । न ज्वाला से दर्पण व जल गर्म होते हैं और न जल से आग ठी होती है । इस दर्पण-जल के दृष्टान्त से एक दूसरे के पदार्यत्व में एक दूसरे पदार्थ परिणत नहीं होते। भाष्य एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य ने न मिलने का कारण अगुरुलघुगण पूर्वगाथा मे जो 'श का उठाई गई थी, उसका समाधान इस गाथा मे दिया गया है कि अगुरुलघु नाम का एक गुण ऐमा है, जिसके कारण आत्मा हवा से उड जाय, ऐमा हलका भी नहीं होता और न ही वह पहाड जैसा भारी होता है। जैसे शीशे मे वस्तु घुमती नही, फिर भी हूबहू दिखाई देती है, अथवा जल मे वन्तु प्रविष्ट होती नहीं, फिर भी उसका पूरा-पूरा प्रतिविम्ब पडता है, इमी प्रकार अगुगलपन के कारण आत्मा जयवस्तु मे प्रविष्ट हुए विना समस्त वस्तुओ को हूबहू देख लेता है। अगुरुनघुनामकर्म के उदय से आत्मा वस्तु मे प्रवेश नहीं करता, नथापि उसमे उसका प्रतिविम्ब पडता है, इमलिए परवस्तु का नाश होने पर भी आत्मा के ज्ञानगुण का नाश नहीं होता। जिस प्रकार दर्पण मे और पानी में प्रतिविम्ब या याया को झेलने की योग्यता (शक्ति) रूप समानता है,उसी प्रकार पद्गुणहानि-वृद्धिरूप अपने अगुरुलघुपर्याय गुण को जैसे आत्मा अपने सम्पूर्ण ज्ञान से जान सकता है, वैसे ही यह सामान्य गण प्रत्येक द्रव्य मे एक सरीखा होने से यात्मा अपने से अतिरिक्त अन्य सब पदार्थों को जान-देख सकता है। आत्मा की सर्वज्ञता के बारे में विशेष स्पष्टीकरण उपर्युक्त उत्तर बहुत ही सक्षिप्त है। इसलिए यहाँ हम ब्योरेवार इस वात को बताने का प्रयत्न कर रह हैं कि 'एक आत्मा का ज्ञान दूसरे सर्वपदार्थों को कैसे जान सकता है ? Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना ५२५ (१) आत्मा अपने सर्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावो को अपने सम्पूर्ण ज्ञान से जान-देख सकता है। इसमे कोई शका नहीं है, क्योकि स्वय तो स्वय को जानता ही है (आत्मा का अस्तित्व अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर ही है। (२) परन्तु आत्मा मे जैसे अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव हैं, वैसे ही दूसरे पदार्थो के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नहीं हैं, यह भी मानना पडेगा। अर्थात किसी एक प्रस्तुत आत्मा के सिवाय जगत् मे जितने जडचेतन अन्य पदार्थ हैं, उनके जो द्रव्यादि चारो हैं, उन सबका नास्तित्व (अभाव) भी आत्मा मे विद्यमान है। तभी वह आत्मा दूसरे पदार्थों से अलग होता है। (३) अगर ऐसा न हो तो वह आत्मा और दूसरे पदार्थ एकाकार हो जाय, सारा जगत् एकरूप ही प्रतीत हो, कोई भी पदार्थ अलग-अलग प्रतिभासित ही न हो। किन्तु पदार्थ अलग-अलग होते हैं, उसका कारण हैप्रत्येक पदार्थ अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अस्तित्व के कारण उस-उस द्रव्यादिरूप है, साथ ही दूसरे पदार्थों के द्रव्यादि चारो उसमे नही है, उन सबका नास्तित्व उसमे है। इसलिए प्रत्येक पदार्थ के पृथक्-पृथक् होने की प्रतीति हो हो जाती है । (४) जैसे स्वद्रव्य मे पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव नहीं है, वैसे ही स्वद्रव्य के अपने एक प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव मे दूसरे प्रकार के द्रव्यादिचारो नही हैं, उनका उसमे अभाव होता है। उदाहरणार्थ-एक आत्मा नारकभाव मे था, तब उसमे जो द्रव्यादि चारो उस समय वर्तमानरूप मे थे, वे उस आत्मा के मानवभव मे आज वर्तमानरूप मे नही हैं, अपितु भूतकालीन पर्याय रूप हैं। वर्तमानरूप मे उन पर्यायो का अभाव है। उसी प्रकार वर्तमान पर्याय उस समय इस आत्मा मे भविष्य के पर्याय रूप मे थे, पर वर्तमानरूप मे नही थे । अर्थात एक ही पदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, काल भावो मे भी परस्पर स्बद्र व्यादि का अस्तित्व और परद्रव्यादि का नास्तित्व होता है। (५) किसी ज्ञानादि एक गुण के स्वपर्याय दूसरे सुखादिगुणो की अपेक्षा से परपर्याय हैं। तथा एक-एक गुण के अनन्त-अनन्त पर्याय होते हैं, इस दृष्टि से एक ही आत्मा मे एक-एक गुण के प्रत्येक पर्याय मे स्वपर्यायो का अस्तित्व और परपर्यायो का नास्तित्व होता है। (६) यो अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनो ही पर्यायो का अस्तित्व प्रत्येक पदार्थ मे होता है। (७) इमलिए जो आत्मा अपने पर्यायो का अस्तित्व जानता है, उसी प्रकार वह अपने मे रहे हुए परपर्यायो के न स्तित्व के अस्तित्व को भी जानता है। अर्थात वह यह भी जानता है कि Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ अध्यात्म-दर्शन अपने में कौन-कौन से पदार्थ और उनके पर्याय नहीं हैं। उन सभी पदार्थों को और उनके पर्यायो को उम आत्मा को जानने पड़ते हैं। यो जानने पर ही वह अपने को पूर्णतया जान सकता है। अन्यथा, वह अपने को भी पूरी तौर से नही जान सकता। इसीलिए आचारागसूत्र में कहा है-जे एगं जाणइ, से सब जाणइ, जे सव्व जाणइ से एग जाणइ। इस प्रकार स्व और परपर्यायोभावो की पड्गुण तथा भाग की हानि और वृद्धि जैमी अपने में ही है, वैमी ही दूसरे द्रव्यो मे है। इस तरह की मदृशता के कारण जो अपने को पूर्णतया जानता है, वह समस्त द्रव्य को भलीमांति जान सकता है। इमीलिए कहा है- सक्ल द्रव्य देखंत' केवलज्ञान की मम्पूर्ण ज्ञान करने की शक्ति इतनी अधिक होती है कि उससे तीनो ही काल के सर्वपदार्थों का एक समय मे सम्पूर्ण ज्ञान प्रत्यक्ष हो सकता है। ऐसा न हो तो विश्वस्थिति ही अव्यवस्थित हो जाय । सामान्य मनुष्य के ज्ञान की अपेक्षा एक विद्वान का ज्ञान कितना गुना अधिक होता है ? वह सम्भव है, तो मर्वज्ञ का ज्ञान उससे कई गुना अधिक हो, इसमे मन्देह ही क्या ? विश्व के व्यापक तत्त्वजो को इसमें कोई सन्देह ही नहीं होता। श्री पारस जिन पारसरससमो, पण इहां पारस नाहि, सुजानी। पूरण रसियो हो निजगुणपरसमां, 'आनन्दधन' मुझ माहि, सु० ॥ध्रु० ७॥ अर्थ श्री (केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी) सहित पारसजिन (रागद्वेषविजेता पार्श्वनाथ परमात्मा) पारसमणि के रस के समान हैं, परन्तु यहाँ मेरे पारस रस नहीं है । सम्पूर्ण (रसपूर्ण) रसिक अपने गणो के प्रतिसमय स्पर्श से आनन्द के घनसमान पारसमणि से भी बढ़कर 'आत्मा' मुझ में है। १ कही कही 'परसमा' के वदले परसन्नो' शब्द है, जिसका अर्थ है, आत्म गुणो मे प्रसन। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना ५२७ भाष्य पार्श्वनाथ के समान पारसमणि क्या और कैसे ? पारसमणि मे यह गुण होता है कि उसके साथ लोह का स्पर्श होते ही वह लोहा मोना बन जाता है। इसी प्रकार श्री पार्श्वनाथ प्रभु भी उसके समान पारस होने से वे भी अपमे सम्पर्क में आने वाले अन्य जीवो को अपने जैसा बना देते हैं। फिर भी पारसनाथ प्रभु पारममणि नही हैं, क्योकि पारसमणि तो जड, पत्थर है अथवा वह पारम रस मेरे मे नही है। मेरे मे अभी तक पा (पाव) रम==चौथाई रस भी नहीं है, तब मैं कैसे ध्रुवपद मे रमण करने वाले पार्श्वनाथ परमात्मा की बराबरी कर सकता हूँ। क्योकि पार्श्वनाथ परमात्मा वीतराग बने है, अपने आत्मस्वरूप मे उनका प्रतिक्षण स्पर्श होने से अथवा अपने गुणो मे सम्पूर्ण प्रसन्न होने से वे अपने गुणो मे सम्पूर्ण रूप से रसपूर्ण बने हैं, आनन्दघनरूप हैं उसी प्रकार का आनन्दधन=आनन्दसमूहमय, पूर्ण रसिक आत्मा अपने निजगुणो के स्पर्श (गुणो से प्रसन्न) होने से मेरे अन्दर भी विराजमान है । उस आत्मा को केवल प्रगट करने की जरूरत है और वह प्रगट हो सकता है-शुद्ध आत्मगुणरूपी पारसमणि के रस का प्रतिक्षण सस्पर्श होने से । ___श्री आनन्दघनजी इस स्तुति का उपसहार करते हैं-प्रभो ! मैं (अन्तरात्मा=मुमुक्षु) आत्म- (पारम) रस का सदैव स्पर्श करके आप (परमात्मा) के साय एकरूप होना चाहता हूँ। जो जड पारसमणि है, वह निजगुण-प्रसन्न, पूर्ण रसिक, एवं आनन्दघन नहीं है, फिर भी अपने स्पर्श से दूसरे मे परिवर्तन कर सकता है, तो पूर्णरसिक, स्वगुणप्रसन्न, आनन्दघन श्रीपार्श्वनाथ परमात्मा अपने स्पर्श से दूसरे का क्या नहीं कर सकते ? मैं आपकी स्तुति, भक्ति, सेवा या स्मरण इसलिए करता हूं कि आप मे जैसा आनन्दसमूह है, वैसा ही मेरे मे हैं, जिस आत्मगुण के सतत स्पर्श से आपने पूर्ण परमात्मरूप आनन्द (परमानन्द) घन प्राप्त किया है, आप पूर्ण ज्ञानचेतनामम हैं, मैं अल्पज्ञानचेतनामय (लोहवत्) हूँ आपके स्पर्श जैसा ही मेरा आत्मस्पर्श हो तो मेरे अन्दर रहे हुए आनन्दसमूह को प्रगट करके मैं भी आपके सारीखा ही वनं । वस, यही मेरी तमन्ना है। मुझ मे तिरोभूत रस आत्मगुणस्पर्श से पूर्ण आविर्भूत हो, यही भावना है। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ अध्यात्म-दर्शन सारांश इम स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने मर्वोच्च आत्मिक गुणो के पुज एव आत्मा के ज्ञानगुण की पूर्णता को प्राप्त श्रीपार्श्वनाथ परमात्मा के गुणो के माध्यम से आत्मा के मर्वोच्च गुणो की आराधना कैसे हो मकती है ? परमात्मा (शुद्ध आत्मा) किस गुण से सर्वव्यापक, द्रव्यक्षेत्रकाल-भाव की अपेक्षा से कहा जा मकता है, वह अन्यदर्शनीय मत की तरह सर्वद्रव्यव्यापी क्यो नही है, इसकी विशद चर्चा की है। फिर शुद्ध आत्मा (परमात्मा) की सर्वज्ञता अकाट्य युक्ति द्वारा सिद्ध की है। अन्त मे, पार्श्वनाथप्रभु की पारसमणि के पूर्णरस से तुलना करके आनन्दधनजी ने अपनी आत्मा मे भी प्रतिक्षण आत्मगुणस्पर्श से वैसी शक्ति वाले पारस की कल्पना की है। और पार्श्वनाथ के समान पारम बनने की कामना की है। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : श्री महावीर-जिन स्तुतिपरमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना (तर्ज-धनाश्री ) वीरजिनेश्वर चरणे लागु वीरपणु ते मागुरे । मिथ्यामोह-तिमिर-भय भाग्यु , जीत नगारू वाग्युरे॥वीर० १॥ अर्थ इस अवसर्पिणी काल के चौवीसवें तीर्थ कर धमण भगवान महावीर स्वामी (परमात्मा) के चरण (सामायिक आदि चारित्र) का स्पर्श करके नमस्कार करता हूँ अथवा अपना अन्तःकरण चारित्र में लगाता हूँ और उनके द्वारा बताई हुई या उनके जैसी वीरता मांगता हूँ, जिस वीरत्व के प्रभाव से प्रभु का मिथ्यात्व-मोहनीय एव अज्ञानरूपी अन्धकार से उत्पन्न होने वाला एवं मात्मा को विह्वल बनाने वाला भय भाग गया था और केवलज्ञान प्राप्त करके कृतकृत्य होने से विजय का उका (नगारा) बज उठा था। भाष्य वीरता को प्रार्थना . किससे, क्यो और कैसी ? पूर्वस्तुति मे द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से परत्व का त्याग करके परमात्मा से आत्मा के सर्वोच्च गुण-शुद्धज्ञान का पारमरत्न प्राप्त करने की उत्कण्ठा प्रकट की थी। परन्तु आत्मा के अनुजीवी स्वगुणो या स्वशक्तियो को प्राप्त करने के लिए जब तक आत्मा मे वीरता प्रकट न हो जाय अथवा आत्मा आत्मशक्ति या आत्मवीर्य से परिपूर्ण न हो जाय, तब तक स्वगुण या स्वशक्ति का प्रकटीकरण नही हो सकता। अतएव इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने वीतराग परमात्मा से वीरता की याचना की है। इस सन्दर्भ मे सर्वप्रथम सवाल यह होता है कि आम आदमी वीरता की मांग किसी बहादुर से या किसी साहसी पुरुष से करता है, अथवा जो शस्त्र-अस्त्र चलाने मे निपुण हो अथवा युद्ध करने मे फुर्तीला बांका वीर हो, Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० अध्यात्म-दर्शन उससे वीरता सिखाने की प्रार्थना करता है, परन्तु यहां जिनपे योगीश्री वीरता की याचना या प्रार्थना कर रहे है, वे तो वीतराग है, उनके न तो कोई शत्रु है, न उन्हें शस्त्र-अस्त्र से किसी से लडना है, न वे किसी प्रकार का युद्धकौशल दिखते हैं और न ही ये वातें (शस्त्रास्त्र-सचालन आदि) किसी को सिखाते हैं, उनका मार्ग ही इन सबको छोडने और छुडाने का है, वे तो हथियारो को छुडा कर निहत्था बनाते हैं, हिंसाजनक युद्ध, शस्त्रास्त्रसचालन, शत्रुता, मारकाट करने मे बहादुरी आदि सबका स्वय त्याग कर बैठे हैं और ठूमरो से त्याग कराते हैं, तब फिर ऐसे महात्यागियो और जगत् से सर्वथा उदासीन, निरपेक्ष वीतराग से वीरता की माग करना क्या उचित है, क्या युक्तिसगत है ? इसके उत्तर के लिए हमे वीरता की यथार्थ परिभाषा और इसके वास्तविक अधिकारी को समझना होगा। क्योकि वीरता की याचना उसे करना न्यायोचित है, जो सच्चे माने मे वीर हो, जिसने अपने जीवन मे पूर्णवीरता प्राप्त की हो, जो युद्धवीर, दानवीर और धर्मबीर से भी ऊपर उठ कर अध्यात्मवीर वन कर आत्मा पर लगे हुए राग-द्वे प-मोह आदि रिपुओ या कर्मशन ओ के साथ वीरतापूर्वक जूझ कर पूर्ण केवलदर्शन एव अन तवीर्य प्राप्त कर चुके हो, जो वीरता के मार्ग मे गया है, पूर्णवीरत्व की मजिल पर पहुंच चुका है, उमीसे ही वीरता की याचना करना उचित है। इस दृष्टि से देखा जाय तो भ० महावीर स्वय आदि से ले कर अन्त तक वीरता के आग्नेयपथ से गुजरे हैं उन्हे वीरता प्राप्त करने के कारण, साधन, वीरता के मार्ग मे आने वाली विघ्न-बाधाओ, उपसर्गों और परिपहो का परिपक्व अनुभव है, इसलिए उनसे इस प्रकार की वीरता की प्रार्थना करना कोई अनुचित नही है । और वास्तव मे देखा जाय तो ऐसे अध्यात्मवीरो से ही वीरता की तालीम ली जा सकती है। ____ जो व्यक्ति संग्राम में बडे-बडे सुभटो से साहसपूर्वक जूझते हैं, जो प्राणो की वाजी लगा कर युद्ध मे अपने को झौंक देते हैं, जिनके पास हजारो-लाखो योद्धाओ की की सेना है, प्रचुर शस्त्र-अस्त्र हैं, जिनका शरीरबल बहुत ही चढावढा है, जो इन्द्रिय-विपयो के गुलाम हो जाते हैं, काम और कामिनी के कटाक्ष के आगे पराजित हो जाते हैं, कषायो और मोह के सामने भीगी विल्ली बन जाते हैं, मन को वासना-नरगो के सामने नतमस्तक हो जाते हैं, इच्छाओ के Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५३१ समक्ष दास वन जाते हैं, वे युद्धवीर हो, चाहे दामवीर, मच्चे माने मे वीर नहीं है । वे आध्यात्मिक दृष्टि से कायर है, आत्मवलहीन हैं, क्लीब है। ____ अव प्रश्न यह उठना है कि श्रीमानन्दघनजी ने प्रभु से वीरता की ही माँग क्यो की ? और कोई चीज मांग लेते ? प्रभु तो औढरदानी हैं, उनसे धनसम्पत्ति, सन्तान, घर, स्त्री, वैभव, हथियार, यश, मुकद्दमे मे जीत आदि मे से किसी चीज की याचना क्यो नही की ? इसका उत्तर यह है कि दीर्घदर्शी, सयमी, और आत्मार्थी व्यक्ति इन शरीर से सम्बन्धित वस्तुओ की मांग नहीं करता, वह यह मोचता है कि पैसा, स्त्रीपुत्र, घर आदि चीजे तो इसी जन्म मे काम आती हैं, फिर वीतरागप्रभु से तो वही चीज मांगी जाती है, जो प्रकागन्तर से प्राप्त न हो सकती हो। अथवा जिस महानुभाव से जो चीज़ मांगना उचित न हो, उसे उनसे मांगना भी व्यर्थ है। इसी दृष्टि से श्रीआनन्दघनजी ने इस गाथा मे सूचित किया है- 'वीरपण ते माग रे। वीर प्रभो | आप महावीर हैं, आपने जिस तरीके से महावीरत्व प्राप्त किया है, वही महावीरत्व मैं आपसे चाहता हूँ। मै भौतिक वीरता या बाह्य शूरवीरता नही चाहता, जो एक जन्म तक ही सीमित हो, या जिससे आत्मिक शत्रुओ के सामने दुम दबा कर भाग जाऊँ; बल्कि ऐसी शूरवीरता चाहता है, जो जन्म-जन्मान्तर से मुझं धोखे मे डालने वाले, मेरे दिमाग मे भ्रान्ति पैदा करने वाले और मेरी अनन्तशक्ति को राग, द्वेप, मोह, काम, क्रोध आदि दुर्गुणो मे लगा कर छिन्नभिन्न करने वाले हैं, उनसे निपट सकू , उनसे जूझ सकू और उन्हे खदेड सकू। मैं आपसे वैसी वीरता इमलिए चाहता हूं कि अगर मुझमे वह आध्यात्मिक वीरता, विविध आत्मशक्ति-सम्पन्नता, या वीर्याचारपरायणता होगी तो मैं आत्म-विकास के लिए जो कुछ करना चाहता हूँ, स्वरूपरमणता मे अखण्ड टिके रहने के लिए जिस प्रकार का पुरुषार्थ करना चाहता हूं तथा सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की भरसक साधना करके एक दिन अनन्त-ज्ञान, अनन्तदर्शन अनन्त-अव्यावाधसूख और अनन्तवीर्य प्राप्त करना चाहता हूँ, वह कर सकूगा। इसीलिए मैं आपसे और किसी भी सासारिक वस्तु की याचना न करके सिर्फ आध्यात्मिकवीरता की याचना करता हूँ, इस वीरता के प्राप्त करने से क्या होगा ? इस शका के समाधानार्थ स्वय श्रोआनन्दधनजी कहते हैं-'मिथ्या मोह मोह-तिमिर-भय भाग्य , जीत नगारूं वाग्यु रे।' इसका भावार्थ यह है कि प्रभो । महावीर | जिस प्रकार आपके द्वारा महावीरता प्राप्त होते ही Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ अध्यात्म-दर्शन मिथ्यात्व, मोहनीयकर्म, अज्ञानान्धकार आदि आपकी आत्मा के प्रवल शमो का भय नष्ट हो गया, अथवा मिथ्यात्व, मोहनीयकर्म, अज्ञानान्धकार और भय ये चारो प्रवल शत्रु भाग गए, आपने अरिहन्तपद को चरितार्थ कर लिया, और जब ये शत्रु रणक्षेत्र छोड कर भाग खड़े हुए तो वीरता के परिणामस्वरूप आपकी जीत का नगाडा बज उठा, लोग आपको रागढ पविजेता कह उठे, सर्वत्र आपकी विजयदुन्दुभि बज उठी, लोग जय-जयकार करने लगे, उसी प्रकार में भी आपके पावन चरणकमलो मे नमस्कार करके उसी आत्मिक वीर्य से परिपूर्ण वीरता की याचना करता हूं। समस्त कर्मों और उनसे उत्पन्न हुए कषायो आदि समस्त विभावो का नाश होता है तव आत्मा पूर्णरूप से खिल उठता है और आत्मा का वीर्य भी सम्पूर्णत खिल उठता है। इस प्रकार की सर्वोच्च विजय होने से जीत का नगाडा वज उठता है। सचमुच एक वीरता की याचना करने से उसके अन्तर्गत उपर्युक्त आत्मिक शत्रुओ का भयनिवारण, कर्मशत्रुओ पर विजय का डका, अरिहन्तपद, साहस, मनोबल, धैर्य, गाम्भीर्य, आदि समस्त अनिवार्य वस्तुएं आ जाती हैं। जैसे एक अधे ने देव से वरदान मांगा था कि मेरी पौत्रवधू को मैं सातवी मजिल पर सोने के घडे मे छाछ विलोते देखू, इस वरदान की याचना मे दीर्घ आयुष्य, अघत्वनिवारण, सात मजला मकान, सोना, पुत्र, पौत्र, पौत्रवधू, गाय मादि बहुत-सी वस्तुएं आ गई , वैसे ही योगीश्री ने महावीरप्रभु से वीरता माग कर उपयुक्त सन अध्यात्मयोग्य वस्तुएं मांग ली हैं। वीरत्व से यहां तात्पर्य है-आत्मवीर्य से। नामवीरत्व, स्थापनावीरत्व, द्रव्यवीरत्व, को छोड कर यहां भगवान् से भाववीरत्व को प्राप्त करने का लक्ष्य है। अगली गाथामो मे उसी आत्मवीर्य (आध्यात्मिक वीरता के प्राप्त करने का क्रम बताते हैं छउमत्थ वीरज (वीर्य) लेश्या-सगे, अभिसंधिज मति अंगेरे। सूक्ष्मस्थूल-त्रिया ने रगे, योगी थयो उमगे रे ॥वीर० ॥२॥ अर्थ छमस्थ (मन्दकषाययुक्त) वीर्य (पण्डितवीर्य) के साथ शुभलेश्या (उत्तम परिणामवाली धर्म-शुक्ललेश्या) के सग (सगति) से अभिसन्धिज (आत्मा Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५३३ का शुद्ध स्वरूप प्रकट करने की अभिलाषा) स्वयबद्धता-स्वयप्रज्ञारूप मति से स्वयबोध के अग=प्रभाव से सूक्ष्म (आत्मा मे रमण करने की सूक्ष्म) क्रिया, तथा स्थूल (आत्मा की पूर्ण तथा शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के हेतुरूप चारित्र, अहिंसा पंचमहावतादि या ज्ञानादि पचाचार-पालन की अवश्य आचरणीय) क्रिया के रंग (अभिलाषा) से परम उत्साह (उमग) पूर्वक पोगी (द्रव्य-भाव से साधु) बना है। भाष्य छद्मस्थवीर्य : सूक्ष्मस्थूलक्रिया का उत्साह इस गांथा मे वीर्य के क्रमिक विकास का लक्षण बताया गया है। सर्वप्रथम वीर्य क्या है ? उसका क्रमशः विकास कैसे होता है ? इस बात को भलीभांति समझ लेना चाहिए। यद्यपि पिछली गाथा मे आत्मिक-वीरता की ध्याख्या की गई थी। परन्तु आत्मिक वीरता मे भी वीर्य मुख्य वस्तु है । उसके विना वीर और वीरता सभव नहीं होती, क्योकि वीर्यवान् हो, वही वीर कहलाता है और जो वीर्य से परिपूर्ण हो, वह वीरता कहलाती है। १. रस, २ रक्त, ३ मास, ४. मेद (चर्बी) ५ हड्डी, ६ मगज और ७ वीर्य ये सप्त धातु हैं। ओजस् को कोई-कोई धातु कहते हैं, वह भी वीर्य के परिपाक के रूप मे है। इन सात धातुओ मे से वीर्य अन्तिम धातु है। आहार पचने लगता है, तब उसमे से रसभाग और मलभाग अलग-अलग हो जाते हैं। मलभाग मलद्वार द्वारा बाहर फेंक दिया जाता है, किन्तु रसभाग मे रस से सर्वप्रथम रक्त बनता है, फिर उसमे से माम, चर्वी और हड्डियां बनती हैं, अमुक हड्डियो मे मगज (दिमाग) भर जाता है, उसमे से वीर्य बन कर वीर्याशय मे चला जाता है। फिर वह शरीर मे फैल जाता है, उससे शरीर में एक प्रकार की चमक-तेजस्विता या लावण्य, स्फूर्ति, सौन्दर्य और उत्साह आदि प्रतीत होने लगते हैं, इसे ही 'मोजस्' कहते हैं । निरोगी (स्वस्थ) मानवशरीर मे ओजस् चमकता है। सामान्यजनता की समझ ऐसी है कि उपयुक्त ७ धातुओ मे से सातवी धातु, जो वीर्य है, उसी के कारण वीरता, पराक्रम और शौर्य प्रकट होता है, परन्तु यथार्थ वस्तुस्थिति ऐमी नहीं है। सचाई यह है कि शरीर का सब प्रकार का संचालक आत्मा शरीर मे व्याप्त रहता है, उसका एक गुण वीर्य है। इस वीर्यगुण के कारण ही शरीर मे धातुओ का क्रमिक निर्माण ऐमा होता है कि शरीर मे वह Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ अध्यात्म-दर्शन नातवें धातु के रूप मे प्रतीत होता है। शरीरस्य वीर्य पुद्गलवर्षणा मे बना हुआ होता है। परन्तु उसके निर्माण मे आत्मा का वीर्यगुण जितना प्रकट होता है, उतना ही, उतने वल वाला हो पोद्गलिक वीर्य प्रगट हो सकता है। यही कारण है कि शरीर छोटा होते हुए भी हाथी की अपेक्षा सिंह मे वीर्य (शक्तिशालिता) अधिक होता है । वीर्य (शक्ति, बल, स्थाम, पराक्रम, शौर्य, उत्साह आदिरूप) मूल मे आत्मा की वस्तु है , यह बात जनदर्शन बहुत ही स्पष्टतापूर्वक समझाता है । जनदर्शन का कथन है कि छोटे-बडे कोई भी जन्तु, कीट, पशु, पक्षी, मानव या देव वगैरह मन, वचन और शरीर से जो कुछ भी सूक्ष्म या स्थूल हलचल, स्पन्दन या प्रवृत्ति करते हैं, उन मवमे आत्मा का वीर्य ही काम आता है। उस वीर्य के बिना जड मन-वचन-काय कुछ भी नहीं कर सकते। आत्मा मे वीर्यशक्ति के दो भाग है। केवलज्ञानी प्रभु की ज्ञानशक्ति से भी उसके दो भाग न हो सकें, ऐमा एक भाग लें। उसका नाम वीर्य का एक अविभाग कहलाता है। ऐसे बनन्त वीर्य-अविभाग प्रत्येक आत्मा मे होते हैं। परन्तु प्रत्येक आत्मा के मारे के सारे वीर्या श-विभाग खुले नहीं होते। अपितु न्यूनाधिक अशो मे खुले रहते हैं। वाकी के कम से ढके हुए (आवृत) रहते हैं । कम से कम खुली वीर्यशक्ति वाले जीवो से ले कर ठेठ सारी की सारी पूर्णवीर्यशक्ति खुली हो, वहां तक के भी जीव (आत्मा) मिन सकते हैं। यह न्यूनाधिक वीर्य शक्तियो की एक तालिका दी गई है। किस जीव मे कितने हद तक का आत्मिक वीर्य खुला होता है, इसका भी अल्पत्व-बहुत्व बताया गया है। आत्मा मे जो स्फूरणा हुआ करती है, वह कर्म के सम्बन्ध के कारण होती है। जब तक आत्मा का वीर्य स्थिर नहीं होता, तब तक प्रकम्पित रहता है। ज्यो ज्यो कर्म कम होते जाते हैं, त्यों-त्यो वीर्य मे स्थिरता नाती जाती है। अन्त मे, शैलेशीकरण के समय आत्मा मेरुपर्वत (गैलेश) की तरह स्थिर हो जाता है। मेरु का तो दृष्टान्त है; परन्तु मेरु की अपेक्षा भी आत्मा अधिक दृढ, स्थिर, निप्कम्प बन जाता है । तथा तुरन्त एक ही समय मे मोक्षस्थान में पहुंच जाता है।' योगीश्री ने सक्षेप मे मुद्दो सहित वीर्य के सम्बन्ध मे बहुत-मी बातें समझा दी हैं। १ जनशास्त्रो में तथा कम्मपयडी, कर्मग्रन्थ वगैरह ग्रन्यो मे इसका विस्तृत वर्णन है। उसका गहराई से अध्ययन करने से जनदर्शनसम्मत आत्मिक वीर्य का स्वरूप समझा जा सकता है। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्ण वीरता की प्रार्थना ५३५ वीर्य के दो प्रकार है-छद्मस्थवीर्य और मुक्तवीर्य । जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता, तब तक जीव छद्मस्थ कहलाता है। छद्मस्य से यहाँ तात्पर्य है-मज्ञान मे फैमा हआ जीव । उसका वीर्य कर्मों के कारण ढका रहता है, पूरा पूरा खुला नहीं होता। लेश्या का अर्थ है-आत्मिक अध्यवसाय= कृष्णादिद्रव्यो के सहयोग से आत्मा मे उत्पन्न हुए अलग-अलग माव-मनोव्यापार। मदकपाय हो, तभी शुभलेश्या-धर्मलेश्या आती है और शुभलेश्या के साथ (लेश्या से मग=)सम्बन्ध हो, वहाँ पण्डिनवीर्य ज्ञानपूर्वक आत्मभावोल्लाम हो, तव तक अभिसन्धिज योग कहलाता है। लेश्यायुक्त छद्मस्थ जीव की समझबूझ कर इरादतन कायादि योग से होने वाली आत्मा की सूक्ष्मस्थूल प्रवृत्तियो के आनन्द (रग) मे आ कर उत्साहपूर्वक आत्मा योगी (मनवचन काया के योगो वाला) हो जाता है, वह 'अभिमधिज योग कहलाता है। और म्वास प्रकार के प्रयत्न आत्मा मे होने वाले सहज स्फुरण-से शरीर मे जो प्रवृत्ति सहजरूप से चलती है। रक्त वगैरह धातुओ मे अनेक प्रकार की प्रवृत्तियो-(कम्पन, स्फुरण--एक मे से दूमरे मे होने वाला रूपान्तर चलता रहता है) से आत्मा में होने वाला स्फुरण-'अनभिसन्धिजयोग' कहलाता है। इन दोनो को सरलता से समझते हैं- हम नीद लेते हैं, उस समय भी शरीर के प्रत्येक घातू मे कुछ न कुछ प्रवृत्ति चलती रहती है, उस समय आत्मप्रदेशो मे भी कर्मों के कारण-खोनते हए पानी के बर्तन मे जैसे पानी उछलता रहता है, वैसे सतत प्रवृत्ति चालू रहती है, उसे अनभिसधियोग कहते हैं । तथा जब हम चलते हैं या हाथ से कुछ उठाते हैं, तब कुछ अलग ही किस्म की ताकत लगानी पडती है, उस समय शरीर तथा आत्मा मे-मन-वचन-काया मे-प्रयत्नपूर्वक जो प्रवृत्ति चलती है, उस समय मन-वचन-काया मे जो योग उत्पन्न होता है, उमका नाम अभिसाधेज योग है। १ वीरियऽन्तराय-देसक्खरण सव्वक्खएण वा लद्धी। अभिसधिजमियर वा तत्तावीरिय सलेसस्स ॥३॥ कर्मप्रकृति वीर्यान्तराय कर्म के देश से या सर्व से क्षय होने से प्राणियो को जो लब्धि उत्पन्न होती है, उसके कारण छद्मस्थलेश्यावाले सर्वजीवो को जो वीर्य होता है, वह अभिस धिज (या अनभिसधिज) वीर्य कहलाता है, (बाको के केवलज्ञानी या सिद्ध भगवान् का वीर्य क्षायिकवीर्य कहलाता है) Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ अध्यात्म-दर्शन निष्कर्ष यह हुआ कि पण्डितवीर्य (ज्ञानपूर्वक आत्मभावोल्लास) होता है, तभी अभिसधिज (प्रयत्नपूर्वक कर्म ग्रहण करने योग्य) मति (स्वयप्रज्ञता या स्वयवुद्धता-शुद्धमति) प्राप्त होती है और उस शुभमति के सग से समार के कारण-कार्य का त्याग होता है, और साघु वनने के बाद भी ५ महाव्रतादि की स्थूलक्रिया और निज आत्मा को निज आत्मा मे स्थिर करने का-आत्मरमण करने की सूक्ष्मक्रिया का रग (भाव) उत्पन्न होता है। ___ यह सब देख कर श्रीवीरप्रभु को स्थूल और मूक्ष्म क्रिया करने का ऐसा मौका मिल गया कि समार से विरक्ति हो गई और अत्यन्त उत्साह से वे ससारत्यागी योगी हो गए। यानी छद्मस्थवीर्य और लेश्या के कारण कर्म ग्रहण होता है, यह सब देख कर वीरपरमात्मा अतीव उमग से योगी हो गए। असख्यप्रदेशे वीर्य असंखो योग असखित कखे रे। पुद्गलगण तेणे लेशु विशेष यथाशक्ति मति लेखेरे ॥ वी० ३॥ अर्थ आत्मा के असंख्य प्रदेशो में से प्रत्येक प्रदेश में क्षयोपशमिक असंख्य-असख्य आत्मवीर्य के अविभाग=अंश होते हैं और उनको ले कर आत्मा उनके समूहरूप असंख्य मन-वचन-काया के योगो-योगस्थानो को चाहता है, समर्थ बनता है और उससे पुद्गलों के समूह से (कारण से) उसकी मदद (योग) से ग्रहण अथवा पुद्गलसमूह तया लेश्या अनेक प्रकार की होने के कारण विशेषरूप से लेश्याओ के परिणामवल से वृद्धि प्राप्त हो जाती है, ऐसा जान लेना चाहिए । भाष्य मात्मा मे वीर्य का स्थान प्रत्येक आत्मा के मसत्य आत्मप्रदेश होते हैं। उनमे से प्रत्येक प्रदेश में असख्य वीर्य के अविभाग अंश होते हैं। वह वीर्य प्राय. क्षायोपशमिक वीर्य होता है। श्रीआनन्दघनजी इस विचार पर एकदम ठिठक गए, उन्होंने आत्मा की वीरता पर मनन-चिन्तन किया तो उन्हें याद माया कि अपनी आत्मा मे कितनी १. किसी किसी प्रति मे 'लेशं विशेषे' के वदले 'ले सुविशेषे' है, अर्थ होता है-"पुद्गल समूह उसकी मदद से लेता है ग्रहण करता है।" Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५३७ वीर्यशक्ति है, वह कहां-कहाँ है ? मैंने प्रभु से वीरता मांगी, यह उचित तो नहीं लगता । जब अपने पास असख्य आत्मप्रदेश हैं और प्रत्येक आत्मप्रदेश मे असख्य अविभाग वीर्याश (आत्मबल) होते हैं। यह बल (वीय श) जब वहिर्मुखी बन कर कंपन करता है, तव मनोयोग के लायक मनोवर्गणा के पुद्गलो का ग्रहण करता है और उनसे मनोयोग बनता है। इसी प्रकार वचनयोग के लायक भाषावर्गणा के पुद्गलो को ग्रहण करने से वाणीयोग बनता है और इसी तरह कायायोग के लायक कायावर्गणा के पुद्गलो का ग्रहण करने से कायायोग वनता है । इन योगो के सामर्थ्य से लेश्या का परिणाम बनता है, और लेश्या की परिणाम शक्ति से बुद्धि प्राप्त होती है। यहाँ आत्मवीर्य की मुख्यता है । आत्मा इन मव शक्तियो तथा मुख्यतः वीर्यशक्ति का पावरहाउस है । अतः जो वीरता मैंने भगवान् से मागी थी, वह तो मेरे अपने अन्दर है। इसके ब द उन्हे यह खयाल आया कि शरीर मेरा अपना ही पुद्गलसमूह है, जो लेश्याविशेष के द्वारा आत्मिक अध्यवमाय के योग से अपनी बुद्धि के अनुमार उसे ग्रहण करता है। मनुष्यगति मे तो आत्मिक अध्यवसायरूप लेश्या का जोर है, योगो का भी जोर है अत. शुभ उत्तम लेश्या के माध्यम से अगर छदमस्थवीर्य भी अपने मे बढाए तो बहुत है। फिर यह दृढ आत्मविश्वास भी हो गया कि जिस वीरता को मांग तू भगवान् से कर रहा है, वह तो अपने मे भरा है, सिर्फ उमे क्रमश प्रगट करने की जरूरत है। प्रभु से उस वीरता को मांगने की जरूरत नहीं थी। वह तो चाहे जिम गति मे जीव जाए, अपने अन्दर ही पडी है। जो वस्तु अपने अन्दर पडी है, उसे बाहर से मांगने की जरूरत नहीं है। वीर-प्रभु ने भी किसी दूसरे से नही मागी, स्वय पर आत्मविश्वास रख कर वे अपने वलबूते पर टिके रहे, मुसीवतो का सामना किया, इसलिए वीरता के मार्ग मे आने वाले विघ्नो का जाल तोड सके । अगली गाथा मे वीर्य (वीरता) के स्थायित्व की बात श्रीआनन्दघनजी कहते हैं उत्कृष्टे वीरज ने वेसे, योगक्रिया नवि पेसे रे। योगतणी ध्रुवताने लेशे, आतमशक्ति न खेसे रे ॥ वीर० ॥४॥ १. कही कही 'वीरज ने वैसे' की नगह 'वीर्य निवेशे' भी पाठ है। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ अध्यात्म-दर्शन अर्थ उत्कृष्ट (सर्वोच्च) वीर्य (आत्मशक्ति) के वश-प्रभाव से या आचार से अथवा आत्म वीर्य के उत्कष्ट निर्देश (विकास) होने पर, मन-वचन-काया के योगो की क्रिया अथवा पुद्गलो को समय-समय पर प्रहण करने वाली योगो की चपलत वश शुभाशुभ अध्यवसायजनित क्रिया (आत्मा मे) प्रविष्ट नहीं होती। इस प्रकार योगों को निश्चलता (स्थिरता) के कारण (लश्यारूप पद्गल नष्ट हो जाने से) आत्मशक्ति (आत्मा की अनन्तशक्ति) जरा भो डिग नहीं सकती अयवा डिगा नहीं सकती। भाष्य वीर्य को उत्कृष्टता योगो को स्थिरता इस गाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने अपने मे आत्मवीर्य (वीरता) प्रगट करने और क्रमज मर्वोच्चमीमा तक विकसित करने की बात म त्मविश्वास के साथ अभिव्यक्त की है। वे कहते हैं- आत्मा के प्रत्येक प्रदेश मे अनन्तवीर्य (आत्मशक्ति) है । जब आत्मा अपने उत्कृष्ट आत्मवीर्य को सर्वोच्चमीमा तक (प्रयोग करके) विकसित कर लेता है, यानी जब आत्मा में उत्कृष्ट वीर्य (वीरत्व) खिल उठता है, तब मन-वचन-काया के योगो की प्रवृत्ति उसमे प्रविष्ट नहीं हो सक्ती, अर्थात् उच्न-गुणस्थानक प्राप्त हो जाता है, तब तीनो योग मन्द पड़ जाते हैं और अन्त मे स्थिर हो जाते हैं, आत्मा मे वीर्य (वीरता-शक्ति) बहुत बढता जाता है, विकसित होता जाता है, अनावृत हो कर सर्वोच्चसीमा तक पहुंच जाता है । इस प्रकार योगो की स्थिरता हो जाने पर कमपुद्गलो को ग्रहण करने के रूप मे तमाम क्रिया वद हो जानी है, लेश्या भी नष्ट हो जाती है । उत्कष्ट आत्म-वीर्य से आत्मा अयोगी, अक्रिय और अलेशी बन जाती है। आत्मवीर्य स्वतत्र बन जाता है । तात्पर्य यह है कि उत्कष्ट वीर्य पर योग अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते । योगो की स्थिरता के साथ आत्मा भी उत्कृष्ट 'रूप से स्थिर होता जाता है। ऐसी दशा मे त्रियोगो के पुद्गल आत्मा पर कुछ भी असर नही कर सकते । पुद्गलो का ग्रहण करना भी बद हो जाता है और योगत्रय छूट जाते हैं, तब आत्मा भी उनसे कोई प्रवृत्ति करा नही सकता । अर्थात् उनकी मदद मे नये कर्म या अन्य कर्मवर्गणाएं ले या लिवा नहीं सकता । पुद्गल और आत्मा दोनो अलग-अलग द्रव्य के रूप मे अलग-अलग और स्वतन्त्र हो जाते हैं। दोनो का कोई सम्बन्ध नही रहता, दोनो एक दूसरे Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५३६ का कुछ भी भला या बुरा नहीं कर सकते। योगो की ध्रवता (स्थिरता या निरोध) का लक्षण यह है कि वह जव पराकाष्ठा पर होता है, तब मन चाहे जो काम करे, वचन चाहे जो वोले, काया भी यथेच्छ काम करे, किसी प्रकार का कर्मबन्धन नही कराते, न होता है, सर्वक्रियाएं रुक जाती हैं। जैसे आठ रूचकप्रदेशो को कर्म लगते नही, वैसे ही आत्मा जव उत्कृष्ट वीर्य प्रस्फुटित करता है, उस समय उक्त त्रियोग किसी प्रकार का कर्मवन्ध नहीं करते । यह उत्कृष्ट वीय का ही परिणाम है कि आत्मा जव उत्कृष्ट वीर्य-स्फोट करता है, तव किमी प्रकार का कर्मबन्धन नहीं होता। आत्मशक्ति जरा भी घटती नही। निष्कर्ष यह है कि पूर्ण वीरता की प्राप्ति के लिए आत्मा को उत्कृष्ट वीर्य प्रस्फुटित करना चाहिए, ताकि योगो की स्थिरता हो जाय और आत्मा कर्मबन्धन से रहित हो कर अपने में आत्मवीर्य को स्वतन्त्र और स्वाभाविक होने से अनन्त आत्मसुख का उपभोग कर सके। श्रीआनन्दधनजी उपयुक्त विवरण द्वारा वीतरागप्रभु से अपनी हार्दिक प्रार्थना ध्वनित कर देते है कि "प्रभो । ऐमा उत्कृष्ट वीरत्व (आत्मवीर्य) मुझ मे प्रगट हो, मैं अपने उत्कृष्ट वीर्य का उपयोग कर सकू, ऐसी स्फुरणा या प्रेरणा अथवा अन्त शक्ति दीजिए।" कामवीर्य-वशे जेम भोगी, तेम आतम थयो भोगी रे । शूरपरणे आतम उपयोगी, थाय तेह अयोगी रे ॥वीर० ५॥ अर्थ जिस प्रकार इन्द्रिय विषयासक्त कामभोग करने वाला भोगी कामोर्यकामभोग स्पद्रियसुखभोग मे उपयोगी शारीरिक वीर्य (शुक्रनाम के धातु से प्राप्त शारीरिक शक्ति) के वश हो जाता है, आत्मा मैथुनसुसा भोगने में उत्कटता से तत्पर हो जाता है। उसी प्रकार यात्मा (अपना आत्मगुण) भी उतनी ही वीरता के साथ (आत्मा की अनन्तशक्तिपूर्वक) आत्मा के ज्ञाताद्रष्टीरूप गुण अथवा उपयोग में जुट कर पूरे आत्मवल के साथ अपने शुद्ध स्वभाव का भोगी बन जाता है। वही आत्मा मन वचन-काया के योगों से रहित (अयोगी), शुद्ध आरमस्वरूपी होता है । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० अध्यात्म-दर्शन भाष्य कामवीर्य की तरह मात्मवीर्य का जवर्दस्त प्रयोगी ही अयोगी होता है जिम प्रकार मोहनीय कर्म के उदय मे वालवीयं वाले इन्द्रियासक्त विषयसुख नोलुप कामी स्त्री-पुरुपो को कामोत्तेजना होती है। जैसे खाने-पीने के शौकीन स्वादलोलुप चटोरे लोग पथ्यकुपथ्य का विचार किये विना चाहे जैसी चटपटी, गरिष्ठ, मसालेदार, तामसी या मिष्टान्न पर हाथ साफ करने को टूट पडने हैं, वैसे ही काम (मैथुन) जन्य सुख में लुब्ध लोग किसी प्रकार का आघा-पीछा विचार किये बिना कामभोग मे उपयोगी शारीरिक वीर्य (बलवीर्य) के कारण कामभोगो (मैथुन) के सेवन मे शीघ्र प्रवृत्त हो जाते हैं। वास्तव मे कामवीर्य एक प्रकार का शारीरिक वीर्य है और उसका उपयोग बालवीर्य की तरह होता है । बालवीर्य से कामभोगो की उत्तेजना होती है, जबकि पुष्टवीर्यपावित उत्तेजना वाली नही होती, अपितु वल, वीर्य और मेधाशक्ति को वढाती है। । कहने का तात्पर्य यह है, कि जैसे वालवीर्य वाला कामभोग की तीव्रता के कारण अपने कामवीर्य के प्रभाव से इन्द्रियविषयासक्तिवश कामभोगो मे जोरशोर से प्रवृत्त होता है, वैसे ही पण्डितवीर्य (आत्मवीर्य =आत्मशक्ति) के प्रभाव से आत्मा जव शुद्धात्मभाव या आत्मगुण अथवा आत्मा के उपयोग मे शूरवीरता रख कर प्रवृत्त होता है, यानी त्रियोगरूप वीर्य के कारण अथवा उनमे प्रवर्तमान आत्मवीयं के कारण जो वीरतापूर्वक अतीव तीव्रता मे आत्मस्वभाव मे-आत्मा के उपयोग मे प्रवृत्त हो जाता है, वह आत्मगुण का या आत्मा का भोगी बनता है। और आत्मगुण को भोगने से यानी आत्मा मे रमण करने से आत्मा मे वीरता आती है, आत्मवीरत्व के गुण से आत्मा के गुणो 'ज्ञान-दर्शन या ज तृत्व-द्रष्टुत्व) का उपयोगी हो जाता है। और 'आत्मगुण में मतत वीरतापूर्वक (तीव्रतापूर्वक) उपयोग से आत्मा अयोगी (मन-वचन काया के योग-व्य.पार से रहित) हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि आत्मा अगर शूरवीरता रख कर अपने (आत्मा के) मूलगणो मे ही उपयोगवान् बने तो वह अयोगी बन सकता है । विरोधाभास का स्पष्टीकरण इस गाथा में कुछ शब्द विरोधामास पैदा करने वाले हैं, उनका स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है। आत्मा उपयोगी (जान-दर्शन-चारित्र मे उपयोगवान्) Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५४१ ___ हो, वह योगी तो हो सकता है, मगर अ-योगी कैसे ? इस विरोध का समाधान यह है कि यहां अ-योगी का अर्थ अध्यात्मयोग से रहित नहीं, अपितु मन-वचनकाया के योग से रहित है । दूसरा प्रश्न है-अयोगी होने से पहले योगी था, वह भोगी कैसे हो सकता है ? इस विरोधाभास का समाधान यह है कि यहां योगी अध्यात्म-योगसम्पन्न के अर्थ मे नहीं, अपितु मन-वचन-काया की प्रवृत्ति से युक्त होने के कारण है। इस प्रकार का योगी होने से कर्म वाध कर-सासारिक भाव प्राप्त करने से आत्मा को अपने किये हुए समस्त कर्म भोगने पडते हैं। इस कारण उसे भोक्ता=भोगी कहते हैं, अथवा यहाँ आत्मभाव मे रमण करने वाला होने से साधक को आत्म-भोगी कहा गया है। क्या सव वीर्य एक समान नहीं हैं ? पहले भी हम कह आए है कि शरीरज धातुनिष्पन्न वीर्य और आत्म वीर्य दोनो मे रात-दिन का अन्तर है। फिर भी कई लोगो की शका यह है कि मशीनो आदि मे या कई वस्तुओ मे बहुत शक्ति होती है, उसे क्या कहेगे ? यह स्पष्ट है कि यह आत्मा का वीर्य तो है नहीं ? पौद्गलिक वीर्य है। अमुकअमक वस्तुओ के सयोग से अमक प्रकार की शक्ति यन्त्र आदि मे पैदा हो जाती है, पर यह सव सयोगज है और परप्रेरित है। वे पदार्थ चेतन की तरह स्वतः उस वीर्य को प्रगट नहीं कर सकते। दूसरा कोई चेतन उनको परस्पर जोडता है, या सयोग करता है, तब जा कर उनमे विद्युत् आदि की शक्ति पैदा होती है। दूसरी शका यह है कि शरीरान्त हो जाने के बाद एक गति से दुसरी गति मे, एक योनि से दूसरी योनि मे जीव को कौन ले जाता है, क्योकि शरीर और शरीर से सम्बन्धित शक्ति तो शरीर के खत्म होते ही खत्म हो जाती है । आत्मा को शक्ति निखालिस तो है नही, तब कौन-सी शक्ति है ? वह आत्मा की ही विकृत शक्ति है। इसका समाधान करने के लिए हम वीर्य के तीन प्रकार अकित कर रहे हैं, ताकि इन सब शकाओ का यथार्थ समाधान हो जाय। १ शारीरिकवीर्य-मथुनसुख (वर्षायकसुख) भोगने मे जो उपयोगी है, और जो सप्तम-धातु (शुक्र) रूप माना जाता है, जिसके कारण प्राणी कामवासना से उत्तेजित हो कर मैथुनसुख भोगता है, भोगी बनता है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ अध्यात्म-दर्शन २ सासारिक वीर्य-मन-वचन-काया के योगो के मारफत भोगा जाने वाला आत्मा का बल-जिसके कारण क्मं वध जाने से आत्मा को मामारिक अवस्था भोगनी पडती है, अनादिकाल से--मोक्षगमन न हो, वहां तक देव, नारक, मनुष्य और तियंत्र, स्त्री, पुरुप और नपु मक वगैरह का रूप प्राप्त करना पड़ता है और विविधरूप से समार-परिभ्रमण करना पड़ता है समार भोगना पडता है, इस दृष्टि में आत्मा भोगी वनता है। ३. शैलेशीवीर्य या क्षायिकवीर्य-जो रत्नत्रयी की आराधना से, योगो की चपलता कम होने मे, वीर्यान्तरायकम के सवथा क्षय होने से, मेरुपर्वत या सारे विश्व को हिला देने मरीखे क्षायिकभाव से अक्षय आत्मिक वीर्य प्रगट होता है, जिसके कारण आत्मा शैलेश=मेरुपर्वत जैसा स्थिर और सुदृढ हो जाता है, मन-वचन-काया के योगो से रहित अयोगी एव स्थिर हो कर वीर्यवान वन जाता है। इन तीनो मे से पहला वीर्य काममोगी बनाता है, दूसरा ससार का भोगी बनाता है और तोमग आत्मा को अयोगी बना कर मुक्त और सदा स्थिर अनन्त वीर्यवान बनाता है। 'वीरपणु ते आतम-ठाणे, जाण्यु तुमची वारणे रे ।। ध्यान-विन्नारणे, शक्ति प्रमारणे, निजनवपद पहिचारणे रे॥ वीर०॥६॥ अर्थ वीरत्व, जिसे मैं आपसे मांगता था, उसका स्थान (निवास) तो मेरी आत्मा मे ही है, यह हकीकत मैंने आपकी वाणी से ही जानी है। इसका आधार तो मेरे (आत्मा के) ध्यान, विज्ञान अथवा ध्यान के शास्त्रीय ज्ञान और शक्ति की अभिव्यक्ति (वीर्योल्लास) पर निर्भर है। और इसी प्रकार आत्मा अपने वीर्य की स्थिरता, ध्रुवता, वीर्यवल, आत्मशक्ति अथवा अपने ध्रुवपद (मोक्षस्थान) को पहिचान लेता है। भाष्य वीरता का मूल स्थान : अपनी आत्मा ही पूर्वगाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने बताया कि 'वीरतापूर्वक आत्मा स्व-स्व-भाव या नात्मगुण में उपयोगी बनी रहे तो एक दिन आयोगी वन Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५४३ जाता है, इस पर मे शका हुई कि वह 'वीरता' है कहाँ ? क्या वह किमी दूसरे के पाम है ? अथवा वह इन वाह्य भौतिक पदार्थों मे है ? इसी के समाधानार्थ यह गाथा प्रस्तुत की गई है-'वीरपणु ते आतम-ठाणे' अर्थात् वह वीरता, जिसकी याचना मैं वीरप्रभु से कर रहा था, वह मेरी आत्मा मे ही है । वीरत्व के प्रेरक (प्रयोजक) वीर्य का यथार्थ मूल स्थान, मूलभूत अधिष्ठान या आधार (Power house) तो बात्मा ही है। प्रश्न होता है कि यह बात कैसे और किससे जानी कि आत्मा ही वीरता का उद्गमस्थान है, मूलस्रोत है या अधिष्ठान है ? इसके उत्तर मे वे कहते है-'जाण्यु तुमची वाण रे।' यह बात मैंने आप (वीतराग परमात्मा) के सिवाय अन्य किसी से नही जानी। आपकी रागद्वेषरहित नि स्वार्थ, निष्पक्ष वाणी (आगमोक्त वचनो तथा गुरु-उपदेश) से जानी है। भावार्थ यह है कि दुमरे दर्शन या घम सम्प्रदाय के प्रवर्तको मे से किमी ने कहा- "वीरता की प्राप्ति मेरे देने से ही हो सकती है या ईश्वर की कृपा होगी, तभी वह देगा।' परन्तु आपकी वाणी से यह बात स्पष्ट हो गई कि वीरत्व कोई मागने की या किमी को देने-लेने की चीज नही है, वह तो अपने ही अन्दर है, उसका अधिष्ठान तो आत्मा ही है। इस पर से मुझे यह भी निश्चित हो गया कि वीर्य शरीर की नही, आत्मा को वस्तु है । और आत्मा मे वीर्य की स्थिरता भी आप ही ने जगत् को नवीन ढग से समझाई है। वीरत्व की स्थिरता की पहिचान इमी सन्दर्भ मे एक और प्रश्न उठता है कि वीरत्व की स्थिरता की पहिचान क्या है, किसी आत्मा मे वीरत्व कसे स्थिर हो सकता है ? यह भी कैसे जाना जा सकता है कि किस आत्मा मे कितना वीर्य स्थिर हआ है ? इसी के उत्तर में इस गाथा का उत्तगद्ध है- "ध्यान-विन्नाणं, शक्ति-प्रमाणे, निजध्रुवपद पहिचाणे रे ।' अर्थात् शास्त्रीय धर्म-शुक्लध्यान के विज्ञान का आधार ले कर अपनी शक्ति के अनुसार आत्मा ज्यो-ज्यो ध्यान मे आगे बढ़ता है. त्यो-यो अपनी आत्मा मे वीर्य की कितनी स्थिरता, कितना सामर्थ्य, कितनी ध्र वता प्राप्त हुई है, यह अपने ध्यान के ज्ञान से जीव पहिचान सकता है, क्योकि वीर्य की स्थिरता और ध्यान ये दोनो लगभग एकार्थक - Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-दर्शन शब्द हैं । वास्तव मे ध्यान आत्मवीर्य की स्थिरता- एकाग्रता का नाम ही है। घ्यान केवल शरीर या मन की एकाग्रता ही नही, मुस्यतया आत्मा की स्थिरता है । शरीर, मन और पवन (श्वासोच्छ वास) की स्थिरता को उपचार से ध्यान कहा जाता है, पर वास्तव में ऐमा है नही। इसीलिए कहा गया है कि ध्यान (एकाग्रता) और विज्ञान से अपनी आत्मा में निहित वीरत्व या वीर्य की स्थिरता को व्यक्ति पहचान सकता है। ध्यान और विज्ञान की शक्ति पर से ही आत्मस्थिरता=मात्मशक्ति के सामश्य को जाना-परखा जा सकता है। कई टीकाकार 'ध्र वपद' का अर्थ 'आत्मा का निश्चल स्थान' करते हैं, ऐसा अर्थ म्वीकार करने पर सगति इस प्रकार होगी-धर्मव्यान-शुवलध्यान से, विज्ञान विशिष्ट श्रु तज्ञानपूर्वक विवेक से एव शक्तिप्रमाण यानी सम्यग्दर्शन पूर्वक चारित्रवल के अनुपात मे अपनी आत्मा के ध्रवपद (स्थिरपद) को व्यक्ति पहचान सकता है। अन्तिम गाया मे अपनी शक्ति (वीरता) को प्रगट करने का उल्लेख श्री मानन्दघनजी करते हैं आलम्बन साधन जे त्यागे, परपरिणति ने भागे रे। अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे 'आनन्दघन' प्रभु जागे रे ॥वीर०७॥ अर्थ धर्मध्यानादि आलम्बनो, मन-वचन-काया के त्रियोगरूप साधनो या धर्मोपकरणादि साधनो का पूर्णवीरता प्राप्त करने वाले जो महात्मा त्याग कर देते हैं, मात्मा से भिन्न-अनात्म=पौद्गलिक भावो पर परिणति, अपवा परस्प= वैभाविक भाव मे परिणति जव भग=नष्ट हो जाती है अथवा साध्य प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक साधक अनेक अवलम्बनों (सामायिक-प्रतिक्रमणादि तपजपादि) तथा अनेक साधनों (साधुवेश, धर्मोपकरण, भिक्षाचर्यादि एव) परभावों में परिपति को अपनाता है, मगर ये सब आत्मबाह्य, परभाव, परावलम्बन, परसाधन, एवं परपरिणति आदि आखिरकार परवस्तु हैं, त्याज्य हैं, अत: इन्हे जो साधक . छोड़ देता है, दूर कर देता है, वह अक्षय(अविनाशी) दर्शन (केवलदर्शन), ज्ञान , Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५४५ (केवलज्ञान). वैराग्य (क्षपक यथाख्यातचारित्र) होने पर वीतराग से आनन्दघन रूप प्रभु (परम समर्थ) बन कर जागृत रहता है, शैलेशी अवस्थारूप चारित्रमय रूप से सदा जागृत रहता है। उसकी ज्ञानज्योति जगमगाती रहती है। भाष्य पूर्णवीरता को प्राप्ति के लिए परवस्तु का त्याग अनिवार्य माधक को जब तक माध्य प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक वह अनेक आलम्बनो और साधनो को अपनाता है, अनेक परभावो और परपरिणतियो को भी अगीकार करता है, कई महायको से सहायता लेता है, परन्तु ये मव चीजें, या आत्मा से अतिरिक्त जो भी साधन, मालम्बन या परिणति आदि है, वे मव मनुष्य मे परावलम्बिता बढाने वाले है, जितना-जितना दूमरो का सहारा, सहयोग, सहायता या साधन मनुण्य लेता है, उतना ही उतना वह अधिकाधिक दुर्वल होता जाता है, ज्ञान के मामले मे देखो, चाहे दर्शन के मामले मे अथवा चारित्र के मामले मे देखो, सर्वत्र पराश्रितता साधक के जीवन को मन-वचन-काया मे दुर्बल मन और बल से पराधीन, परमुखापेक्षी और परभाग्योपजीवी बना देता है। वीरता, शौर्य, पराक्रम, साहस, धैर्य और आत्मशक्ति को बढाने वाले के मार्ग मे तो ये मब बहुत ही अधिक बाधक वस्तुएं हैं। फिर तो मनुष्य ज्यो-ज्यो धन, सम्पत्ति, वस्त्र, उपकरण, भोजन, पेय, अथवा अन्य जो भो । मनोज, इप्ट और मनोहर पदार्थ देखता है, त्यो-त्यो उसके मन मे उसके पाने की लालसा जागती है, वह नही मिल जाता है, तब तक वेचैनी रहती है, मिल जाने पर कोई छीन लेता है या चुरा लेता है तो कष्ट होता है, वियोग होने पर दुःख होता है, इस प्रकार बहुत ही ममय, शक्ति, दिमाग, आदि इसमे (परवस्तुओ के पीछे) खर्च होता है। इसीलिए जिनेन्द्र भगवान् दूसरे को सहायता, सेवा और सहयोग की आकाक्षा या अपेक्षा नहीं रखते, वे अपने ही बलबूते पर साधना के आग्नेयपथ पर चलते हैं, जो भी कठिनाइयां आती हैं, उनमे जूझते हुए चलते हैं। मघर्ष से उनमे शक्ति प्रगट होती है। इसीलिए कहा है १ 'स्ववीय णव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परम पदम् ।" Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ अध्यात्म-दर्शन "जिनेन्द्र अपने आन्मवीर्य (आत्मबल) के आधार पर ही परम (वीतगग) पद को प्राप्त करते हैं। भ महावीर ने भी बताया है कि "सभोग (माधर्मी साधु के साथ महयोग व्यवहार, के प्रत्यारयान में आत्मा आलम्बनो की अपेक्षा खत्म कर देता है, निरावलम्बी साधक के योग आत्मस्थित हो जाते हैं, वह स्वलाभ मे मन्तुष्ट रहता है, दूमरे मे लाम को पाने की अपेक्षा नहीं रखता, न ताकता है, न लालना रखता है, न किसी से याचना करता है, न अमिलापा रखता है। ऐसा करने पर वह मुखशय्या को प्राप्त करके निश्चिन्तता से विचरण करता है।" इसी प्रकार भ० महावीर ने कहा है-"उपधि (धर्मो करण) के प्रत्याख्यान (त्याग) कर देने से जीव अपरिवहभाव प्राप्त करता है निरुपधिक और निष्काम हो कर वह उपधि के विना मन मे क्लेश (बेचेनी) नहीं पाता।" "सहायक का त्याग (प्रत्याख्यान) कर देने पर जीव एकीभाव को प्राप्त करता है, एकीभावभूत जीव एकत्व का चिन्तन करता हुआ अल्पभापी, थोडी झंझटो वाला, अल्पकलह, अल्पकपाय, अल्पसहकारी, मंयमबहुल, सवरवहुल एव समाहित हो जाता है।" इसी तरह आहार, कपाय, योग, शरीर, अशन आदि के प्रत्याख्यान (न्याग) के सम्बन्ध मे भी भगवान् महावीर का बहुत ही सुन्दर १ 'समोगपच्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ? सभोगपच्चक्खाणेण जीवे बालवणाइ खवेइ । निरालवणस्स य आययव्यिा जोगा भवति । सएण लाभेण सतुस्मइ परलाभ नो आसादेइ, नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नौ अभिलसइ । परलाम अणस्साएमाणे, अतक्केमाणे, अपीहेमाणे, अपत्थेमाणे, अणभिलममाणे, दुज्ज सुहसेज्ज उवसाज्जित्ताणं विहरइ ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ० २६ सू ३३ २ उवहिपच्चक्खाणेण जीवे अपलिमथं जणयइ। निरुवहिएण जीवे निवकंखी उवहिमतरेण य न मकिलिसिज्जई । ३७॥ ३. महायपच्चक्खाणेण जीवे एगीभाव जाणयइ। एगीभावभूए य ल जीवे एगलै भावेमाणे-अप्पसद्दे अप्पयझे, अप्पकलहे, अप्पकसाए, अप्पतुमतुमे, सनमबहुले, संवरवहुले, समाहिए यावि भव ॥३६- -उत्तराध्ययन सूत्र म० २६, सू० ३७,३६ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५४७ मार्गदर्शन है। इन सबके प्रकाश मे जब हम श्रीआनन्दघनजी द्वारा निर्दिष्ट आलम्बन, साधन, परपरिणति आदि आत्मा से भिन्न परवस्तु के त्याग पर विचार करते हैं तो वात सोलहो आने सही मालूम होती है। वास्तव मे साधक जितने ही अधिक साधनो, आलम्बनो, सहायको, धर्मोरकरणो या आहारादि परवस्तुओ या परभावो को अधिक अपनाता है, उतनी ही अधिक परिग्रहवृत्ति बढती है, राग-द्वेष, अहकार, लोभ, इच्छाएँ आदि वढती जाता है और मनुष्य अशान्त, बेचैन, सक्लिष्ट, अस्वस्थ और असतुष्ट रहता है। उसकी भौतिक और आत्मिक दोनो प्रकार की वीर्य शक्ति का ह्रास हो जाता हैं, जो उसके तन, मन और आत्मा पर परिलक्षित हो जाता है। इमलिए पूर्ण आत्मवीरता के अभिलाषी साधक को परभावो एव परवस्तुओ से जितना नाता तोड सके, तोडना चाहिए, तभी उसमे वीरता जागृत और स्थिर होगी। सारांश भ० महावीर परमात्मा की इस स्तुति मे वीरप्रभु से आध्यात्मिक वीरता की माग की गई है, परन्तु आगे चल कर श्रीआनन्दघनजी ने वीर्य की आत्मप्रदेशो मे व्यापकता, वीर्य की स्थिरता, वीरतापूर्वक आत्मोपयोग का फल, वीरता का मूल अधिष्ठान, वीरता की अभिव्यक्ति मे विघ्नकारक आलम्बनादि का त्याग आदि की सागोपाग और अभिनव विचारधारा जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य मे प्रस्तुत की है । मतलब यह है कि शारीरिक वीर्य की अपेक्षा आत्मिक वीर्य का महत्व कई गुना अधिक है । ससार के दूसरे दर्शन जहां सप्तधातुओ मे से अन्तिम धातु वीर्य को ही सर्वस्व मानते हैं, वहां वीतरागदर्शन आत्मिक वीर्य को महत्व देता है, शारीरिक बल, उत्साह, साहस आदि सबका आधार आत्मवीर्य है । यद्यपि शरीर, मन, बुद्धि, वीर्य (शुक्र) आदि जरूर मदद करते हैं, लेकिन इन सबका प्रेरणास्रोत केन्द्र तो आत्मा ही है। बहुत-से लोग शरीर से दुर्बल होते हुए भी बडे-बडे साहसपूर्ण काम कर बैठते हैं, जबकि शरीर से सशक्त हृष्टपुष्ट लोग साहस के काम करने से डरते हैं, हिम्मत हार जाते हैं, इसमे मूल कारण आत्मवीरता की कमी है, इसी चीज की परमात्मा से श्रीआनन्दघनजी ने याचना की है। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा अभिमत जिन-शासन मे श्वेतावर सप्रदाय के महात्माओ मे योगी श्रीआनन्दधनजी का एक विशिष्ट स्थान है। कवितारूप मे उनका चतुर्विशतिस्तव बहुत प्रसिद्ध और ज्ञान-प्रधान होने से विद्वज्जनो मे सम्मान्य है। ___अनेक मुनियो ने इस पर व्य स्याएं भी लिखी हैं । श्रावको को भी भक्तिरस उपलब्ध हुआ है। बडे-बडे पहुंचे हुए सभ्रात पटित भी आपकी स्तुति से बोध प्राप्त करते हैं। तपस्वी मुनिश्रीमगनमुनिजी म सा की प्रेरणा से प रत्न मुनिश्री नेमिचन्द्रजी म. सा ने परिश्रमपूर्वक हिन्दी भाषा मे साधारण जनता के लिए उपयोगी, उत्तम विस्तृत भाष्य लिखा है। प मुनिश्री का यह प्रयत्न स्तुत्य है। इस नवीन भाष्य को पढ कर भव्य आत्माएं सम्यग्दर्शन की ओर बढेगी तो भाष्यप्रेरक तपस्वी श्रीमगनमुनिजी एव भाष्यकार ५० मुनि श्रीनेमिचन्द्रजी का श्रम मफल होगा। सूरजचन्द डांगी (सत्यप्रेमी) बडे मंदिर के पास वडीसादडी (राज) term दात मारती पुस्तक प्राप्ति स्थान (महाराष्ट्र में) राजेन्द्र कुमार मोहनलाल मुथा अर्वन कॉ ऑपरेटिव बैक ___ गांधीरोड अहमदनगर (महाराष्ट्र) Page #571 -------------------------------------------------------------------------- _