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________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध में समाधान जाएगा? या गाय को आत्मतुल्य मान कर उसका दूध नही दूहेगा या पीएगा? इसी प्रकार समतायोगी आत्मार्थी को ऋद्धि-सिद्धि आदि अनेक लब्धियाँ प्राप्त होना सम्भव है, वह परन्तु आत्मगुणलीन के लिए तो सोना और पत्थर दोनो समान हैं । वह वस्तुस्वरूप जानता है कि सोना पृथ्वी का शुभविकार है और पत्थर पृथ्वी का अशुभ विकार है । अत ज्ञानी की दृष्टि मे दोनो एकसरीखे है। इसी तरह तिनका, जो एक तुच्छ नगण्य चीज है, उससे घृणा नही होती, और रत्न, जो बहुमूल्य पदार्थ है, उसे देख कर मोह-ममता नहीं होती । ज्ञानी की दृष्टि मे दोनो पोद्गलिक है । इससे भी एक कदम और आगे बढती है कि वह शत्र मित्र पर ही नही, ससार के समस्त प्राणियो के प्रति आत्मौपम्य भाव आत्मतुल्य दृष्टि रखता है। आत्मद्रव्य के एकत्व की दृष्टि से वह समस्त आत्माओ को अपनी आत्मा के समान एकसरीखे मानता है। इससे भी आगे बढकर आत्मार्थी ज्ञानीपुरुप समता की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। २ उसकी दृष्टि मे मुक्तिनिवास या ससार निवास दोनो बराबर हैं। क्योकि वह समझता है कि मैं मुक्ति मे रह कर जो स्वरूपरमण वहाँ रखू गा वह स्वरूपरमण यहाँ (ससार मे ) रह कर कर भी रखूगा। इसलिए मेरे लिए कोई फर्क नही पडता- मुक्ति और ससार का । साधक कई वार मुक्ति के लिए उतावला हो उठता है, कई कच्चे साधक तो सांसारिक पद-प्रतिष्ठा, सम्मान-सत्कार एव बढिया खानपान एव विषयसुखो मे प्रलुब्ध हो कर मुक्ति की साधना छोड कर ससारनिवास की कामना करने लगते हैं । परन्तु समतायोगी साधक ज्ञानदशा में रहना है, इसलिए वह न तो शीघ्र मुक्तिप्राप्ति की १. इसीलिए गीता में कहा है विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्यणे गवि हस्तिनि । शूनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ निममो निरहकारो नि सगो चत्तगारवो। समो य सन्वभूएसु तसेसु थावरेसु य ।। लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा । समो निदापसंसासु तहा माणावमाणओ।।-उत्तराध्ययन-२८
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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