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अध्यात्म-दर्शन
है, वह जानता है कि सम्मान या अपमान से मेरे आत्मगुण में कोई बृद्धि या हानि होने वाली नही है । इसलिए किसी के द्वारा बन्दन या सम्मान करने में वह प्रसन्न या तुष्ट नहीं होता, तवैव किसी के द्वारा निन्दा या अपमान करने से वह खिन्न या रुष्ट नहीं होता। अलबत्ता, गुणग्राहकताव पादन, सम्मान करने वाले को शुभ- पुण्य अवश्य मिलता है, तया अज्ञान या द्वे पवण अपमान निन्दा या तिरस्कार करने वाले को अणुभ- पाप लगता है । किन्तु जानी आत्मार्थी सम्मान या अपमान तथा वन्दना और निन्दा दोनो ही अवस्थाओ मे समतारस के सागर पर तैरता रहता है। क्योंकि ऐसा समतायोगी मम्मान और अपमान के नमय दानान्तराय का उदय और उपशम तथा वन्दक और निन्दक के समय उपभोगान्त राय का उदयउपशम समझ कर दोनो ही अवस्थाओ मे मतुलित रह सकता है। इस प्रकार से शान्ति रखना बहुत ही कठिन है । यह कहना जितना भातान है, उतना करना आसान नहीं । बडे-बडे साधक इसमें हार खाजाते हैं। यो कहने का दिखावा तो प्राय. सभी करते हैं, पर जब हजारो आदमी आ कर उनकी प्रशंसा करते हैं, तो मन गुदगुदाने लगता है और जब वे ही उनकी निन्दा करने लगते है तो मन तिलमिला उठता है । प्रशसा और निन्दा सुन कर वे एकरस नही रह सकते । भगवान् पार्श्वनाथ पर एक और कमठ मूसलधार पानी बरसाता है, दूसरी ओर धरणेन्द्र उन पर छन धारण करके उनकी सेवा में हाजिर रहता है, ऐसी स्थिति में दोनो को समान मानने की वृत्ति वनाना बहुत ही कठिन है । परन्तु परम शान्ति के लिए ऐसा अत्यन्त जरूरी है ।
कई लोग ऐसा कह देते है कि जब वन्दक और निन्दक, सम्मानकर्ता और अपमानकर्ता दोनो को जो एक सरीखा मानते है, वे दोनो के साथ एक सरीखा व्यवहार क्यो नही करते? बात यह है कि वे तो अपनी आत्मा मे रमण करते है , ज्ञानी होने से वे दोनो के वस्तुस्वरूप को अवश्य जानते हैं, मगर दोनो मे से किसी के साथ बर्ताव नहीं करते, इसलिए समदर्शी के लिए तद्योग्य बर्ताव या व्यवहार करने का तो सवाल ही नहीं उठता। विद्याविनयसम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता, श्वपाक (चाडाल), इन सबके प्रति पण्डित (ज्ञानी- समतायोगी) समदर्शी होते है, समवर्ती नही। कुत्ते को अपने आत्मतुल्य मान कर क्या ज्ञानीपुरुष कुत्ते के साथ भोजन करने बैठ