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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
ज्ञानयोग, क्रियायोग और सामर्थ्य योग से भी उच्चकथा का है। क्योकि १ शास्त्र का ज्ञान तो समता की ओर दिशासूचन ही कर सकता है, वह समता के सागर मे ठेठ दूर तक नहीं ले जा सकता, मगर सामर्थ्ययोग नामक स्वानुभव समतासागर के सामने वाले किनारे तक आत्मा को पहुंच सकता है, बशर्ते कि समतारुप नौका पर आत्मा आरुढ हो जाय । बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा जब देश-सर्व विरति की भूमिका से आगे निविकल्पदशा की उच्चभूमिका (सातवा गुणस्थान) पर पहुंच जाता है, तब वह इस प्रकार का समतायोग प्राप्त करता है। इस प्रकार का सामर्थ्य योगी धर्मसन्यस्त होने से परम तृप्त हो कर परम निश्चय मे स्थित हो जाता है। वह रत्नत्रयी का आत्मा के साथ अद्वैत-अभेद करके केवल आत्मद्रव्यमय स्वानुभवमय पर्यायदृष्टिरूप विकल्प से रहित निर्विकल्प ध्यानस्थ (समाधिस्थ = कूटस्थ बन जाता है । वह आत्मस्वभाव का ज्ञाता, आत्मरमणकर्ता आत्मार्थी पुरुप जब सामर्थ्य योग के वल से समता में प्रवेश करता है, तब यदि कोई गुणग्राहकतावश कल्याणकारी, धर्मदेव, ज्ञानी इत्यादि शब्दो द्वारा उसकी प्रशसा करता है, उसका सत्कारसम्मान करता है अथवा कोई द्वेप या पूर्वाग्रहवश उसका अपमान, तिरस्कार या निन्दा करता है, कोई उसका विरोध करता है तो कोई समर्थन, वह दोनो स्थितियो मे हर्प-शोक या तोप-रोष नहीं करता, अपितु दोनो को पौद्गलिक भाव मान कर समता और आत्मशान्ति मे स्थिर रहता है। आत्मार्थी पुरुप तो केवल आत्मगुण मे ही रमण करता है, वह महानिर्जरा करता रहता
१. अध्यात्मसार मे कहा है
दिड् मानदर्शने शास्त्रव्यापार : स्यान्न दूरगः ।।
अस्या. स्वानुभाव. पारं सामर्थ्याख्योऽवगाहते ॥२८॥ २- गीता मे कहा है-समत्व योग उच्यते- समत्व को योग कहा जाता है।
जितात्मन प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित । शीतोष्णसुखदुःखेष तया मानापमानयो ॥७॥ ज्ञान-विज्ञानतृप्तात्मा फूटस्यो विजितेन्द्रिय । युक्त इत्युच्यते योगी, समलोष्ठाश्मकाचन : ॥८॥ सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थ प्यबन्धुषु । साधुस्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिण्यते ॥६॥ भगवद्गीता अ. ६