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________________ अध्यात्म-दर्शन योगसामर्श का एक अर्थ यह भी है कि गुपुर गाव ः अपने मन को व्यर्थ के अनिष्ट चिन्तन मे, व वन को वृथा विवाद मे, निन्दा-चुगली कारों में तथा काया को व्यर्थ की चेष्टामो या फिजूल कामो मे अथवा दुगगे के साथ लडाई-झगडे मे न गा कर शुद्ध आत्म-चिन्तन गे, आत्मगुण नी चर्चा मे, अथवा परमात्म गुणानुवाद ग, तथा दूमरो की सेवाशुश्रूगा, त्याग आदि में लगाए । अपने समय का दुपयोग न करें, अपितु समय का अच्छे विचार, वचन एव कार्य में नदुपयोग अयवा स्वय को जो समय या माधन प्राप्त हए हैं, उनका उपयोग अच्छी प्रवृत्ति में करे। इस प्रकार के योगमामय में स्वन ही शान्ति प्राप्त होती है, आत्मा मे समाधि रहती है। अगली दो गाथाओ मे महाशान्ति के लिए गमतायोग के विषय में कहते है मान-अपमान चित्त सम गरगे, सम गणे पानफ-पापाण रे । वन्दक-निन्दक सम गणे, इस्यो होय तुं जाग रे ।।शा०६ ॥ सर्व जगजन्तु ने सम गणे, सम गणे तृण-मणि भाव रे । मुक्ति-ससार नेऊ सम गणे, मुणे भवजलनिधिनाव रे ॥शा० १०॥ अथ शान्तिवाञ्छुक साधक का कोई सम्मान करे या अपमान करे, दोनो अवस्थाओ को मन मे सम समझे (दोनो मे सम रहे) । सोना और पत्थर दोनो को समान समझे, तथा उसकी वन्दना (भक्ति -पूजा) करने वाले गौर उसकी निन्दा (आलोचना) करने वाले दोनो को सम समझे । जब तू इस प्रकार का समभावी हो जायगा, तभी समझना कि मैं मुमुक्ष या शान्तिपिपासु हूँ। जगत् के समस्त प्राणियो को आत्मद्रव्य की दृष्टि मे समान समझे, तिनके और मणि दोनो को पुद्गल की दृष्टि से समान माने, मुक्ति (कर्मों से मुक्ति) में निवास हो या ससार मे, प्रतिबद्ध [वीतराग] भाव से दोनो को समान समझे, इस प्रकार की समतारूप शान्तिवृत्ति को वह साधक ससारसमुद्र तरने के लिए नौका समझे। भाष्य समतायोग : महाशान्ति का कारण पूर्वगाथाओ मे बताये हुए शान्ति के उपायो से आगे की भूमिका के रूप मे श्रीआनन्दधनजी ममतायोगः बनाते हैं, जो शाम्नयोग,
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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