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आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना
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भाष्य
पार्श्वनाथ के समान पारसमणि क्या और कैसे ? पारसमणि मे यह गुण होता है कि उसके साथ लोह का स्पर्श होते ही वह लोहा मोना बन जाता है। इसी प्रकार श्री पार्श्वनाथ प्रभु भी उसके समान पारस होने से वे भी अपमे सम्पर्क में आने वाले अन्य जीवो को अपने जैसा बना देते हैं। फिर भी पारसनाथ प्रभु पारममणि नही हैं, क्योकि पारसमणि तो जड, पत्थर है अथवा वह पारम रस मेरे मे नही है। मेरे मे अभी तक पा (पाव) रम==चौथाई रस भी नहीं है, तब मैं कैसे ध्रुवपद मे रमण करने वाले पार्श्वनाथ परमात्मा की बराबरी कर सकता हूँ। क्योकि पार्श्वनाथ परमात्मा वीतराग बने है, अपने आत्मस्वरूप मे उनका प्रतिक्षण स्पर्श होने से अथवा अपने गुणो मे सम्पूर्ण प्रसन्न होने से वे अपने गुणो मे सम्पूर्ण रूप से रसपूर्ण बने हैं, आनन्दघनरूप हैं उसी प्रकार का आनन्दधन=आनन्दसमूहमय, पूर्ण रसिक आत्मा अपने निजगुणो के स्पर्श (गुणो से प्रसन्न) होने से मेरे अन्दर भी विराजमान है । उस आत्मा को केवल प्रगट करने की जरूरत है और वह प्रगट हो सकता है-शुद्ध आत्मगुणरूपी पारसमणि के रस का प्रतिक्षण सस्पर्श होने से । ___श्री आनन्दघनजी इस स्तुति का उपसहार करते हैं-प्रभो ! मैं (अन्तरात्मा=मुमुक्षु) आत्म- (पारम) रस का सदैव स्पर्श करके आप (परमात्मा) के साय एकरूप होना चाहता हूँ। जो जड पारसमणि है, वह निजगुण-प्रसन्न, पूर्ण रसिक, एवं आनन्दघन नहीं है, फिर भी अपने स्पर्श से दूसरे मे परिवर्तन कर सकता है, तो पूर्णरसिक, स्वगुणप्रसन्न, आनन्दघन श्रीपार्श्वनाथ परमात्मा अपने स्पर्श से दूसरे का क्या नहीं कर सकते ? मैं आपकी स्तुति, भक्ति, सेवा या स्मरण इसलिए करता हूं कि आप मे जैसा आनन्दसमूह है, वैसा ही मेरे मे हैं, जिस आत्मगुण के सतत स्पर्श से आपने पूर्ण परमात्मरूप आनन्द (परमानन्द) घन प्राप्त किया है, आप पूर्ण ज्ञानचेतनामम हैं, मैं अल्पज्ञानचेतनामय (लोहवत्) हूँ आपके स्पर्श जैसा ही मेरा आत्मस्पर्श हो तो मेरे अन्दर रहे हुए आनन्दसमूह को प्रगट करके मैं भी आपके सारीखा ही वनं । वस, यही मेरी तमन्ना है। मुझ मे तिरोभूत रस आत्मगुणस्पर्श से पूर्ण आविर्भूत हो, यही भावना है।