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अध्यात्म-दर्शन
अपने में कौन-कौन से पदार्थ और उनके पर्याय नहीं हैं। उन सभी पदार्थों को और उनके पर्यायो को उम आत्मा को जानने पड़ते हैं। यो जानने पर ही वह अपने को पूर्णतया जान सकता है। अन्यथा, वह अपने को भी पूरी तौर से नही जान सकता। इसीलिए आचारागसूत्र में कहा है-जे एगं जाणइ, से सब जाणइ, जे सव्व जाणइ से एग जाणइ। इस प्रकार स्व और परपर्यायोभावो की पड्गुण तथा भाग की हानि और वृद्धि जैमी अपने में ही है, वैमी ही दूसरे द्रव्यो मे है। इस तरह की मदृशता के कारण जो अपने को पूर्णतया जानता है, वह समस्त द्रव्य को भलीमांति जान सकता है। इमीलिए कहा है- सक्ल द्रव्य देखंत' केवलज्ञान की मम्पूर्ण ज्ञान करने की शक्ति इतनी अधिक होती है कि उससे तीनो ही काल के सर्वपदार्थों का एक समय मे सम्पूर्ण ज्ञान प्रत्यक्ष हो सकता है। ऐसा न हो तो विश्वस्थिति ही अव्यवस्थित हो जाय । सामान्य मनुष्य के ज्ञान की अपेक्षा एक विद्वान का ज्ञान कितना गुना अधिक होता है ? वह सम्भव है, तो मर्वज्ञ का ज्ञान उससे कई गुना अधिक हो, इसमे मन्देह ही क्या ? विश्व के व्यापक तत्त्वजो को इसमें कोई सन्देह ही नहीं होता।
श्री पारस जिन पारसरससमो, पण इहां पारस नाहि, सुजानी। पूरण रसियो हो निजगुणपरसमां, 'आनन्दधन' मुझ माहि, सु० ॥ध्रु० ७॥
अर्थ श्री (केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी) सहित पारसजिन (रागद्वेषविजेता पार्श्वनाथ परमात्मा) पारसमणि के रस के समान हैं, परन्तु यहाँ मेरे पारस रस नहीं है । सम्पूर्ण (रसपूर्ण) रसिक अपने गणो के प्रतिसमय स्पर्श से आनन्द के घनसमान पारसमणि से भी बढ़कर 'आत्मा' मुझ में है।
१ कही कही 'परसमा' के वदले परसन्नो' शब्द है, जिसका अर्थ है, आत्म
गुणो मे प्रसन।