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________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना का प्रयोग किया जाय ? इसकी भी कोई सूझ नही पडती। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी प्रभु के दरबार में मन की शिकायत करते हुए अगली गाथा में कहते हैं जे जे कहूँ ते कान न धारे, आप मते रहे कालो। सुर-नर-पडितजन समजावे, समझे न मारी सालो, हो । कुन्यु०॥ मनडु ० ॥६॥ अर्थ मै (किसी समय) जो जो (भक्ति, वैराग्य, या परमात्मसाधना को) बातें कहता हूँ, उन्हे यह कान मे ही नहीं पड़ने देता, सुनता ही नहीं और अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से मतवाला (मस्त) बना रहता है । अथवा कुविकल्प करने से काला (मलिन = दूषित) बना रहता है । हे नाथ ! इस मन को देवता, मनुष्य या पण्डितजन या विद्वान और भक्तजन (अथवा देवों के पण्डित, मनुष्यों के पण्डित) समझाते हैं, पर मेरा साला (कुमतिरूपोस्त्री का भाई) कुछ समझता ही नहीं। (अथवा महाक्रोधी मेरा मन समझता ही नहीं), मेरे सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। भाष्य प्रभु से मन की उद्धतता की शिकायत श्रीमानन्दघनजी ने मन की गतिविधि का रहस्य न समझने की बात कही थी। किन्तु जो ठग भी नही है और साहकार भी नही है, वह सुधर भी सकता है, इस शका का समाधान करते हुए श्रीआनन्दधनजी कहते हैं-कि मन को सुधरने के लिए, उसे अपनी आदत बदलने के लिए जो जो बातें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, जप, तप, परमात्मपद-साधना या आत्मस्वरूप रमण आदि के सम्बन्ध मे' कहता हूँ या समझाता हूँ, उसे वह सुनी-अनसुनी कर देता है, इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देता है। शास्त्रो में कहा है-"एकाग्रतारूप शुद्ध मन, वचन, और काया आदि कारण से (तीनो की एकता से) निश्चय ही परमात्मपद प्राप्त होता है, और ये तीनो जब अशुद्ध बन जाते है, तव अवश्य ही दुर्गति भी प्राप्त होती है। ये बात मन को समझा
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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