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अध्यात्म दर्शन
कर जब मै उसे शुद्ध, एकास, परमात्मपद में तन्मय बनने को करता है, तब वह उन्हें एक दम करा देता है। नत्र में उसे यह शिक्षा ताफिन मुसे सहायता कर, अपने दुविर प छोर दे, और मुबिकापी कां ग्यान दे, मुझे अपने साधम स्थिर होने दे, परन्तु ऐसी बातो में तो यह जग भी ध्यान नहीं देता, व िक मदा-मवंदा से प्रचलित अपनी बदद मति-प्रकृति (आदत) के अनुसार चलता है। उसके मामा हिम को हजारों बाते कहता है, किन्तु वह अपने वज्रमय ही स्वभाव को छोडता नहीं, अपने ही मत में काला (कुविकल्पो मे कानुपित) अथवा मस्त (मदमत्त) या मुन्ध रहता है। वह अपना मनमाना करता है, मेरे, अभिप्राय की जरा भी परवाह नहीं करता। इसे समझाना कोई बच्चो का खेल नहीं है। कोई कह सकता है कि साधारण आदमी मन की भापा और प्रकृति न जानता हो, इस कारण मन शायद न समझता हो, किसी विद्वान् या देवता द्वारा समझाने पर कदाचित् मान जाय, इसी गका का समाधान करते हुए श्रीआनन्दधनजी कहते है-'सुर-नर-पण्डितजन समझाये, समझे न मारो सालो' अर्थात् मन को रेने ही नही, बड़े-बड़े देवो ने, मनुष्यो ने, पण्डितो ने भक्तजनो ने, समज्ञा कर देख लिया, लेकिन यह मेरा साला समझता ही नहीं, इनको दढे-बडे आदमियो ने ठिकाने लाने का प्रयास किया, लेकिन यह किसी को भी नहीं मानता, नही सुनता । सभी इसे समझा-समझा कर थक गए।
यहाँ श्रीआनन्दघनजी ने 'साला' शब्द का प्रयोग किया है, वह भी विशिष्ट अर्थ का द्योतक है । जीवात्मा की दो स्त्रियां मानी गई हैं-एक सुमति और दूसरी कुमति । अथवा निश्चयदृष्टि से आत्मा की दो चेतनाएं-स्त्री के रूप में मानी गई हैं-शुद्धचेतना और अशुद्धचेतना। कुमति का भाई कुमन है, जो कुविकल्प से काले पारकर्म करने के कारण काला है । अथवा मन अशुद्धचेतना का भाई है । इस दृष्टि से मन जीवात्मा का ताला हुआ । इसी कारण यहां उसका प्रयोग किया गया है । यहाँ साना शब्द का प्रयोग तिरस्कारसूचक है। बड़े-बडे पण्डित, ज्ञानी, विद्वान्, भक्त और देव भी इसे समझाते हैं कि तू हठ
१ कहीं कहीं 'माहरो सालो के वदने 'महारोमालो' पाठ भी मिलता है इसका अर्थ होता है-महाकोवी।