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अध्यात्म-दर्शन
होने के साथ इनके कर्तव्य भी अलग अलग हैं। इस तत्व पर विचार करते हुए तो मन को सहसा ठग नहीं कहा जा सकता; किन्तु जब हम देखने है कि मन धूर्त की तरह इन्द्रियो को उलटे रास्ते ले जाता है विपरीत और अहितकर पथ की ओर प्रेरित करता है या गुमराह कर देता है वठे-बढ़े साधको को, तब इने साहुकार को कोटि में भी नहीं गिना जा सकता।
तव यह सवाल होता है कि मन को किस कोटि मे समझा जाय? इसका स्थान कहाँ माना जाय ? इसी का रहस्योद्घाटन श्रीमानन्दघनजी करते हैं-'सर्वमाह ने सहुयी अलगु, आश्चर्य इस बात का है कि मन के लिए कोई खास विशेषण प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। यह नव मे है और सव से दूर भी रहता है । यह इन्द्रियो द्वारा सब काम करता है, इसलिए सर्वत्र सव मे है, और वैसे किसी में प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। यही इनकी विचित्रता है। कई व्यक्ति ऐसे होते हैं कि उन्हें पूछे वगैर या उनके हुक्म के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, परन्तु वे अपने आढतिये या एजेंट के द्वारा ऐसी सिपत से काम लेते हैं कि यह पता नहीं लगता कि अमुक नाम उसने किया है। इसी प्रकार मेरा मन भी ऐसा ही युक्तिवाज है कि वह इन्दियो द्वारा सब काम करा लेता है, पर खुद अलग का अलग रहता है। नाम इन्द्रियो का होता है, काम होता है, सव मन का। अमुक वन्तु मीठी है या नहीं? अमुक पदार्थ दर्शनीय है या नहीं ? अमुक चीज कर्णप्रिय या सुगन्धयुक्त है या नहीं ? इन मवका निर्णय मन करता है, पर काम सब इन्द्रियो के मारफत लेता है। इसीलिए मद को तत्वज्ञो ने 'नो इन्द्रिय' कहा है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि विपयो में मन सभी इन्द्रियों को प्रेरित करता है। जब इन्द्रियाँ शब्दादि काम-मोगो का उपभोग करती हैं, तव मन उनके साथ मिल कर उनका अनुभव करता है। ज्योज्यो मन अनुकूल विषयो का अनुभव. क्षणिक रसास्वाद लेता है, त्यो त्यो इन्द्रियो को अधिकाधिक प्रेरणा देता रहता है । यो इन्द्रियों के साथ मिल कर मन चेतन को हेगन कर देता है। इसीलिए कहना कि मन सव मे है, फिर भी सवसे दूर रहता है, ठीक है। आश्चर्य होता है कि मन सभी इन्द्रियो का प्रेरक भी बना रहता है और सबसे अलग भी है। यानी यह प्रत्येक कार्य में भाग लेता है, फिर भी सबसे अलग रहता है। इसलिए मन को क्या कहा जाय ?, इसके सम्बन्ध में कौन-से विशेषण