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________________ २४६ अध्यात्म-दर्शन है। शास्त्र में जह कर्मी को द्रव्यकर्म और चेतनकों को भापकर्म कहा है। अत भावकर्म से द्रव्यकर्म का और द्रव्यकम मे भावकम का वध होता रहता है। यह निमित्तनैमित्तिक-सम्बन्वर गावकर्ग ही वारना म नना है। इस दृष्टि से जब हम विचार करते है तो फर्म चेतना के भी दो भेद हो जात है-पुण्यकर्मचेतना, और पापकर्म-नेतना । किमी दुनी व्यक्ति को देख कर उसके दुख दूर करने की भावना में जो दान दिया जाता है या गुमक्ति, या सेगा की जाती है, वह पुण्यकर्म चेतना है। जब मात्मा मे शुभकार्य करने का विकल्प __उठता है, तब पुण्यकर्मचेतना होती है। वह चेतना जिममे पुण्य की धारा शुभ दान मे प्रवाहित होती रहती है, वह पुण्यकर्मनना है। इसमे गुम. योग में स्थित आत्मा पुण्यकर्मवन्ध करती है। दूगरी कर्मनतना पापकर्मचेतना है। जो पुण्यकर्मचेतना में विपरीत है, उगमे पार की धारा प्रवाहित होती रहती है। उन समग आत्मा बगुमयोग मे रियत हो कर गारप्रतियो का वन्ध करती है। किसी को काट देने, दुप देने का विचार काम, नोध आदि का अगुभ विकल्प पापकर्मचेनना है । किमी की वस्तु छीनना, किमी के साथ मारपीट करना, किसी को गाली देना बादि पापकर्मचेतना के उदाहरण है। मिथ्यादृष्टि आत्मा ही नही, गम्यग्दृष्टि मात्मा भी जर ऐसी अशुभयोग की क्रियाएँ करती है, तो उगे भी पापप्रकृतियो का बन्ध होना है। आत्मा निश्चयनय की दृष्टि में चैतन्यरूप लक्षण के कारण एक है। साथ ही व्यवहारनय की दृष्टि से जीवात्माएँ अनन्त है। किसी अपेक्षा से ज्ञानात्मा आदि आठ आत्माएँ भी है। इसीलिए श्रीमानन्दधनजी ने कहा'एक-अनेक-रूप नयवादे । निष्कर्ष यह है कि आत्मा के साथ रागद्वेषादि विकलो के कारण कार्माणवर्गणामो का सश्लेप-सयोगसम्बन्ध होता है। इस कारण वे कार्माण-वर्गणाएँ ही आत्मा के साथ चिपकने के समय कर्म कहलाती है। आत्मा कार्माणवर्गणा को कर्मरूप से करता है। वह करने वाला आत्मा का एक परिणाम है। १ कहा भी है-'एगे आया'-~-ठाणागमूय २ 'अणंता जीवा'---गवतीगून
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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