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________________ विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान २४७ वह भी भावकर्म है, जो आत्मा के रागद्वेपादि परिणाम रूप हैं। वही वास्तव मे कर्मचेतना है। अनुपचारित असद्मूत व्यवहारनय मे आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता कहलाता है। यद्यपि आत्मा चैतन्यरूप के कारण एक ; प्रतीत होती है, परन्तु कर्म के कारण उसके अनेक भेद हो जाते हैं। विविध गतियो और योनियो में आत्मा के परिणमन के कारण उसके अनेक रूप दिखाई देते है। परमात्मा मे कर्मचेतना व कर्मफलचेतना नहीं होती , क्योकि वे घाती कर्मो एव रागद्वेप से रहित होते है। वे शुद्ध ज्ञानचेतना या ज्ञानदर्शन-चारित्ररूप मुक्तिमार्ग मे स्थिर होते हैं। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ,भव्यसाधको से कहते है-'नियते नर । अनुसरिए रे' अर्थात्-साधकपुरुष । कर्मचेतना का स्वरूप समझ कर तथा आत्मा के विविध रूप देख कर विकल्पो के जाल (भले ही वे शुभ हो) मे लुभा मत जाना। तू एकमात्र ध्रुव, शाश्वत आत्मतत्त्व मे या आत्मस्वरूप मे स्थिर हो कर उसका अनुसरण करना। .. चंकि द्रव्याथिक-निश्चयनय के अनुसार आत्मा स्वभावारिणति से निजस्वरूप की अथवा स्वगुणो की ही क्रिया का कर्ता है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-स्वज्ञान से आत्मा स्वपरपदार्थ को जानती है, दर्शन' से श्रद्धा करती है, चारित्र से कर्मपरमाणु रोकने की क्रिया (सवर) करती है और आत्मानन्द-परमानन्द ,स्वभाव को भोगती है, उसमे रमण करती है। अब अगली गाथा मे कर्मफलचेतना के सम्बन्ध मे श्रीआनन्दवनजी कहते हैं। सुखदु खरूप कर्मफल जारगो, निश्चै एक आनन्दो रे। . चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे ।। वासुपूज्य० ॥४॥ अर्थ कर्म के फल सुखरूम भी हैं, और दु खल्प भी हैं, इसे भलीमाति समझ १ कहा है-"नाणेण जाणइ भावे, दसणेण च सरहे । चरितण निगिण्याई, तयेण परिसराई ॥" । । ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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