SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० अध्यात्म-दर्शन लो। निश्चयदृष्टि मे एकमान आत्मानन्द (स्वस्परमणता का आनन्द) ही आत्मा का फलभोग है । श्रीजिनेश्वरी (वीतरागो) में चन्द्र के समान तोयं करदेव कहते हैं चेतन को चेतनता ही उसके परिणाम हैं, जिन्हे वह पदापि नहीं छोड़ सकता। भाप्य कर्मफलचेतना . म्वरूप और कारण जब आत्मा कर्मफलचेतनारूप होता है तो रागपजनित यमबन्ध का शुभाशुभ फल भी उसे मिलता है। प्राणी सो जव दुख का अनुभव हो, तो उसे भी कर्म फल जानना चाहिए, और मुख का अनुभव हो, तब भी उसे कर्मफल समझना चाहिए। आत्मा के अनुकून (मनोग) वेदन (अनुभव) होना सुख कहलाता है और आत्मा के प्रतिकूल अमनोन वेदन होता है.--दुख । जव कोई रोगी, कगाल या कप्टपीडित होता है तो नहला दुख का अनुभव करता है और जब जीव स्वत्य, धनिया, वैभवविलास से युक्त या माशापालक परिवार से युक्त हो कर मनोन वस्तुओ को पा जाता है तो सुख का अनुभव करता है । परन्तु वै सुख-दु खरूप फल आने हैं-पूर्वकर्मो के फलस्वरूप ही। फिर चाहे वे गुम हो या अशुभ कर्म का फल अवश्य मिलता है। कर्म जव अपना फल देने लगता है, तब उसके साथ अपनी चेतना को अपनी चेतना की परिणति को जोड देना कर्मफलचेतना है। यानी जिसमें जीव अपने शुभ एव लशुभ कर्म के फल का अनुभव करते समय शुभ फल को पा कर प्रसन्न हो उठता है और अशुभ फल को पा कर खिन्न हो उठता है। उसकी दृष्टि प्राय पुण्य, पाप और उसके फल में ही उलझी रहती है। कर्मफलचेतना में जीव को अपने स्वरूप का मान नहीं हो पाता। वह कर्मों के भार से इतना दवा रहता है कि कर्म और कर्मफल के अतिरिक्त अविनाशी शुद्ध आत्मतत्त्व पर उसकी दृष्टि नहीं पहुंच पाती। यह सुख भोग लं, वह सुम्ब 'भोग लूं, यह दुख न भोगू, वह दुख भोगना न पड़े, इस प्रकार भोगने, न भोगने के विकल्पो मे उलझे रहना ही कर्म फलचेतना है। कर्मफलचेतनायुक्त जीव अपने आध्यात्मिक आनन्द को, अपने आतरिक आत्मस्वरूपरमणजन्य शाश्वत अनन्त मुख को भूल जाता है। वह इन्द्रियजन्य भोगो मे सुख मान कर इतना आसक्त हो जाता है कि उसे कर्मपाल के अतिरिक्त किसी वस्तु ना-अपनी आत्मिक
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy