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________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३५७ __एक पल में यह आकाश मे (स्वर्ग मे) चला जाता है, दूसरे ही पल पाताल - (अधोलोक नरक) मे दौड जाता है । अथवा लक्षणा से यह अर्थ भी हो सकता है कि क्षणभर में यह उच्चविचार पर आरूढ हो जाता है और दूसरे ही क्षण यह नीच से नीच विचार करने पर उतारू हो जाता है । मैंने मन की गति का अनुभव कर लिया कि यह रात मे, दिन, में, वस्ती मे जगल में स्वर्ग में या पाताल मे, पर्वतशिखरो पर या जल-स्थल-नभ मे सर्वत्र बेखटके भटकता रहता है । इसके लिए कही रोकटोक या किसी भी देश, काल, क्षेत्र या पात्र का प्रतिवन्ध नहीं है । यह सर्वत्र अप्रतिवद्धविहारी है। यह अपनी कल्पना के वल से नाना प्रकार की भोगोपभोग-सामग्री में ललचाता रहता है। इसे किसी भी जगह तृप्ति हुई हो, ऐसा मैंने देखा-जाना नहीं। दुनिया में एक कहावत प्रचलित है कि किसी मनुष्य को सांप ने काट खाया। तब सांप ने कहा कि "मुझे वयो बदनाम करते हो ? मेरा मुह तो जैसा का तंसा खाली है, जरा-सा भी खून का दाग नहीं लगा।" अथवा कई लोग कहते हैं-'जिसे साँप काट खाता है, वह मर जाता है, परन्तु साँप को तो उससे कुछ भी लाभ नही हुआ। इससे उसकी भूख तो मिटती ही नहीं। उसका मुंह तो खाली का खाली रहता है। मेरा मन भी सांप के मुख की तरह जैसा था, वैसा ही अतृप्त रहता है । भोगो से कथमपि तृप्त नहीं होता। न वह आपके चरणो मे लगता है। इतनी जगहो पर यह दौडधूप करता है, मगर किसी भी तरह तप्त नहीं होता, भूखा का भूखा रहता है। बडे-बडे मुमुक्षुजनो एव तपस्वियो के काबू मे भी मन आता नही, मेरी तो विमात ही क्या है ? इसी बात को बताने के लिए अगली गाथा मे कहते हैं मुगतितणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान ने ध्यान-अभ्यासे । वैरीडु कांई एहवु चिते, नाखे अवले पासे; हो कुथु० ॥३॥ अर्थ __ मुक्ति के अभिलापी, तपस्वी, ज्ञानाभ्यास मे रत साधक, ध्यान के अभ्यासी ये सब उच्चसाधक अपनी-अपनी साधना मे प्रवृत्त होने के लिए जब प्रयत्नशील होते हैं तो यह महाशत्र कुछ ऐसा हलका (नीच) चिन्तन करता है कि उन्हे चारों खाने चित्त कर देता है ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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