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________________ ३५६ अध्यात्म-दर्शन कुन्यु शब्द मे श्लेपालकार का योजन करके कवि ने कुध के समान मन के पति (स्वामी) कु थुनाथ (१७ वें तीर्थकर) के ममक्ष मन को वश करने में। सहायक होने की पुकार की है। श्री आनन्दघनजी को मन ने किन-किन प्रकार ने परेशान कर डाना, यह वे अगली गाथाओ में वीतराग प्रभु के समक्ष निवेदन करते है - रजनी, वासर, वसति, उजड़, गयण, पायाले जाय । सांप खाये ने मुखडु योयु , एह उछागो न्याय हो, कुथु०॥२॥ अर्थ रात हो, चाहे दिन हो, मनुप्यो की बस्ती में हो, निर्जन वीरान प्रदेश में हो, आकाश मे हो या पाताल में, यह सर्वत्र चला जाता है। जैसे सांप जिस फिसी भी भक्ष्य को खाता है, उसे उसमे किसी प्रकार का स्वाद नहीं आता । उसका मुह फोका का फोका (योया) ही रहता है, वैसे ही मन सब जगह भटकता है फिर भी उसके हाथ मे कुछ नहीं आता । अथवा सांप जब पित्तो को खाता है तो उसका मह तो योया का थोया ही रहता है, उसके मुंह पर तून का एक भी दाग नहीं लगता, मन भी 'सांप खाए और मुह थोया' को कहावत की तरह अतृप्त है, वह भोगो से तृप्त नहीं होता। भाष्य मन की दौड़धूप इस गाथा मे श्रीआनन्दघनजी मन की सर्वत्र अवाधगति का अनुभव बताते हुए प्रभु से निवेदन करते हैं कि प्रभो | आर सोचते होगे-मन दिन-दिन मे ही विचरण करता होगा, रात को तो विश्राम ले लेता होगा, यह ऐसा पाजी , है कि रात और दिन का विचार किये विना भटकता रहता है। इसके लिए तो अवेरी रात और उजला दिन एक सरीखे हैं । कुछ लोग दिनभर के काम से थक कर रात को विश्राम ले लेते हैं, पर मन रात को भी विश्राम नहीं लेता । यह तो किसी समय शान्त व स्थिर होकर बैठता ही नही । यह तो मुझे यही .. छोड कर किसी भी वस्ती या उजडे निर्जन प्रदेश में भी घूम आता है । क्षणभर में अमेरिका मे और दूसरे ही क्षण सहारा के रेगिस्तान में घूम आता है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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