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मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना
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लगाना चाहा, आपके तथा निजात्मा के स्वरूप मे भी लगाना चाहा, लेकिन किसी भी तरह न लगा। मैने इसे स्वाध्याय, शास्त्रचिण्तन, जप, ध्यान आदि साधना में लगाना चाहा, पर यह इनमे किमी तरह भी एकाग्र न हो सका। इमी प्रकार मैने धर्माचरण, विविध स्तुतियो, विविध धर्मक्रियाओ वगैरह मे लगाने का प्रयत्न किया, लेकिन वहां से भी वह उखड गया, मौन रह कर या कायागप्ति से शरीर को कायोत्सर्ग से निश्चेष्ट बना कर भी देख लिया, मगर वहाँ से भी मन भाग छूटा । मेरे सामने एक ओर गुरु का आदेश था, पर दूसरी ओर मन किसी भी तरह काबू मे माने से इन्कार कर रहा था। इसीलिए मुमुक्ष साधक घबरा कर कु थुनाथ के समक्ष उपर्युक्त आत्मनिवेदन करता है । दयालु प्रभो । मैंने चाहे जितने प्रयत्न कर लिये, परन्तु मन एक जगह किसी भी पदार्थ मे एकाग्र होता ही नहीं। यह एक नटखट वालक की तरह किसी एक वस्तु मे अपने को सलग्न नही कर सकता। इधर-उधर दौडधूप किया ही करता है। ऐसे तूफानी शैतान मन को कैसे वश मे करूं ? आप मेरे स्वामी है, परमात्मा है, मुझे आप में अपने मन को एकाग्र करना चाहिए, आपका ध्यान करना चाहिए, उसमें स्थिर होना चाहिए, आपकी सेवाभक्ति करनी चाहिए, परन्तु मेरा यह मन आप मे या कही भी एकाग्र नहीं होता। मैं ज्यो-ज्यो उसे एक जगह बाँध कर रखने का प्रयत्न करता हूं, त्यो त्यो उल्टा वह दूर भागता जाता है, यह मेरे हुक्म मे जरा भी नही चलता, मे ी सभी प्रयासो को निष्फल बना देता है । जब भी मैं इसे एकाग्र करने का प्रयास करता हूं, तब भी यह शैतानी करके दूर चला जाता है । मैं जानता हूं कि आप मेरे तारक है, उद्वारक है, इसलिए आपके सामने यह प्रार्थना कर रहा हूँ,--मन की शिकायत के रूप मे ।
यहां मन को वश मे करने के माध्यम से मोह, कपाय विषय, रागद्वेष आदि को वश करने की बात लक्षणा से गतार्थ हो जाती है । साधारण जनता इन सबको मन का ही पारिवारिक विकार समझती है, इसलिए मन शब्द का
प्रयोग किया गया है। साथ ही मन कु थुआ जैसा वहुत ही वारीक हैं। जन'- दर्शन मे इमे शरीरव्यापी परमाणुओ के जत्ये के रूप में माना गया हैं, जबकि
विश्व के नैयायिक आदि अन्य दर्शन या मत मानते हैं कि अणु-परमाण जितना सूक्ष्म मन अपने विषयो की मोर सर्वव्यापक आत्मा मे दौडवूप करता रहता है । अणु जितने मन की उपमा कुन्थु नामक सूक्ष्म जन्तु के साथ की गई है।