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________________ ३६४ अध्यात्म-दशन 'एकपखी लय प्रीतनी तुम साये जगनाय रे । अर्थात् यद्यपि आप वीतराग हैं, मैं रागद्वे पवान हूँ, यानि एक वस्तु अवश्य विचारणीय है कि मैं आपके साथ जो प्रीति कर रहा हूं, एकपक्षीय होते हुए भी उसे हरा करके आपको निभानी है । क्योकि भक्त के हृदय में जब भावभक्ति जागृत हो जाती है, तव - भगवान् स्वयं भक्त का हाथ पकड़ कर अपने चरणकमल में रख लेते हैं । मौर आपके चरणकमल मे रहने वाले में रागद्वेष की वृत्तियां रहेगी ही कहाँ ? दुर्वृत्तियां तो अपने आप भाग जाएंगी। राग-द्वेष या तो रागी द्वेषी की सोहबत से बढते हैं या राग द्वेष के कार्यो से बढ़ते हैं । आपके पास तो रागट्टेप का अश भी नही है, और रागद्वेप बढाने वाला कोई पदार्थ भी नही, आप तो परम वीतरागी है, तब रागद्वेप बढेगा ही कैसे ? आपके पास तो निर्फ आत्मानन्द है | भक्त जब वारवार इसी का लक्ष्य रख कर आपके चरण (सामायिकादि चारित्र) का सेवन करेगा तो वह अवश्य ही आपके जैसा बन जाएगा । इसलिए मैं अन्तकरणपूर्वक आपके साथ प्रीति करने की भावना प्रगट कर रहा हूँ । नत हे जगत्पति ! आप मुझे हाथ पकड़ कर अपने चरणकमलो में रख लें. मैं इनसे अवश्य ही कृतकृत्य हो उदूंगा । इसलिए एरपक्षीय प्रेम होते हुए भी निश्चयनव की दृष्टि से शुद्धात्मा का शुद्ध वात्मा के साथ प्रेम है, और वह उचित भी है, वही अन्ततोगत्वा, मेरा कार्य सिद्ध कर सकेगा ।" ? अन्तिम गाया ने श्री आनन्दवनजी परमात्मा का व्यवहारिक रूप कैसा है इसे बताते हुए उनके परम धर्म के सेवन का फल बताते हैंचक्री धरमतीरथतणो, तीरथ फल ततसार रे । तीरथ सेवे ते लहे, 'आनन्दघन' निरधार रे ॥ धरम | ०ई ॥ अर्थ आप तो धर्मतीर्थ के बडे चकवर्ती है। आपके तीर्थ का सर्वकर्म-क्षयरूप मोक्षफल या फल तो सर्वश्रेष्ठ तत्व के साररूप अनन्त चतुष्टय या आत्मस्वरूप की प्राप्ति है । ऐसे सच्चे तीर्य की कोई भक्तिभाव से सेवा करता है, वह आनन्दघनरूप ( आत्मानन्द समूहरूप ) निर्वाणपद को अवश्य ही प्राप्त करेगा । भाष्य वीतरागप्रभु के धर्म को प्राप्ति कैसे और क्यों ? पूर्वगाथाओ मे वीतरागप्रभु श्री अरहनाथ के परमधर्म की प्राप्ति की
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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