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वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान
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आपका धर्म, आपका स्वरूप आदरणीय है, क्योकि निर्दोष और परम उदार स्वामी का शरण किसे प्रिय न होगा? मैं सद्गुरु की कृपा ने स्वसमय-परसमय का एव परमात्मा के धर्म का मत्तत्व समझा है। इसीलिए मैं आपके साथ प्रीति करता हूँ। यद्यपि मेरी प्रीति एकपक्षीय है, तथापि मुझे विश्वास है कि मैं आपके आदर्श का सेवन कर रहा हूँ, वह वारवार मुझे मिला करे, इस प्रकार की कृपा करना । 'मम हज्ज सेवा भवे भवे तह्म चलणाण' ~आपके चरणो की मेवा मुझे भव-भव मिला करे। निश्चयष्टि में मैं आपके जैमा शुद्ध आत्मा हूँ, इसलिए मापसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने चरणकमलो की सेवा अवश्य दें, मेरे जीवन को अपने चरणो (चारित्रगुणो) मे लगाए रख । मैने जव आपको आदश, आपके परमधर्म का स्वीकार किया है , और आपके आदर्श के अनुरूप होने का निश्चय किया है। मैं अभी तक सिद्धदशा मे नहीं आया, साधकदशा मे ही हैं। अत उससे मेरा पतन न हो, इनलिए आप मेरा हाथ पकड कर अपने चरणो मे रखने की कृपा करे, ताकि भविष्य में मैं परमार्थ प्राप्त कर सकें । अगर आप सरीखे समर्थ पुरुष मेरा हाथ पकडेंगे और आपकी चरणसेवा का लाभ मिला करेगा, तो जो इस समय मेरी एकपक्षीय प्रीति या सेवा है, उसका लाभ मुझे जरूर मिलेगा और सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे।
परमात्मा के प्रति एकपक्षीय प्रीति क्यों? कोई यहां सवाल उठा सकता है कि जब परमात्मा किसी से प्रीति नही करना चाहते, तव एकपक्षीय प्रीति करने से क्या लाभ है ? इसका समाधान यो किया जा सकता है कि वर्तमान मे साधक भले ही रागद्वेषादि से लिपटा है, लेकिन अगर वह दोषी वत्ति वालो के साथ ही प्रीति करता रहेगा तो उसके दुखो का कभी अन्त ही नही आएगा । उसके विभावभाव मे परिवर्तन नही होगा, न कभी स्वभावभाव का अनुभव होगा और न आत्मानन्द का ही। काम, क्रोधी, लोभी, रागी और दृषी देवादि के माथ तो इस जीव ने अनन्तवार प्रीति की है, उन्हे अपने वामी माने, लेकिन इससे उसका दुख वटता ही गया, जन्ममरण कम न हुआ। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी पहले अपने आपकी असलियत को स्पष्ट कर देते हैं