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वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान
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जिज्ञासा के सन्दर्भ मे स्वसमय-परसमय, द्रव्याथिकपर्यायाथिक व निश्चयव्यवहार की बातें समझाई थी । अत उसी सन्दर्भ मे यहाँ व्यवहारनय की दृष्टि से प्रत्यक्ष मे वीतरागप्रभु के धर्म का दर्शन और उनके स्वीकार का फल बताया गया है । वास्तव मे परमात्मा का धर्म निश्चयनय की दृष्टि से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे सकता, निश्चयदृष्टि मे तो अमूर्त एकत्वस्वरूप अखण्ड अरूपी आत्मा का केवल कथन हो सकता है, या आत्मस्वरूपरमण की बात कही जा सकती है। उसका आचरण तो व्यवहारनय की दृष्टि से प्रत्यक्ष होने पर ही हो सकता है। हा तो, इसी दृष्टिकोण से यहां परमात्मा के तीर्थंकररूप का वर्णन किया गया कि 'चक्रो धरमतीरथतणो ।' वीतरागप्रभु श्रीअरहनाथजी सिद्ध हो गए, तव तो उनके परमधर्म को कोई जान नहीं सकता, सिद्धत्वदशा प्राप्त किए बिना, उस आदर्ग के सम्बन्ध मे यथार्थ कल्पना तो हो सकती है, अनुमान एव आगम प्रमाण से भी वे जाने जा सकते हैं, किन्तु प्रत्यक्षरूप मे नही । प्रत्यक्ष साकार एव सदेहरूप मे भगवान् को जानने के लिए उनका तीर्थकर या उससे पहले का रूप जानना-देखना आवश्यक है। तीर्थकर पद से पहले का उनका गृहस्थजीवन या चक्रवर्तीजीवन खास प्रेरणादायक या धर्म के आदर्शरूप मे प्राय अनुकरणीय नही होता । इसी हेतु से यहां १ धर्मतीर्थ के चक्रवर्ती के रूप में भगवान का निरूपण किया है । यद्यपि दीक्षा लेने से पहले श्रीअरहनाथ प्रभु चक्रवर्ती (राजराजेश्वर) थे, किन्तु उसका इतना मूल्य नही, जितना धर्मचक्रवर्ती का मूल्य है । आप स्वसमयरूप परमधर्म की प्राप्ति जगत् के भव्यजीवो को कराने और उन्हे नसारसागर से पार उतार कर मोक्षप्राप्ति कराने के लिए धर्मतीर्थ के चक्रवर्ती बने । धर्मतीर्थ एक ऐसा तीर्थ है, जो जीव को नरकादि दुर्गति से बचा कर सद्-गति प्राप्त कराता है, अथवा जन्म, जरा, व्याधि और मरणरुप भय से सर्वथा मुक्त करके अजर-अमर सिद्धत्व (मोक्ष) पद को प्राप्त कराता है । धर्मतीर्थ का मतलब ही होता है जो तारे, सामने वाले किनारे जाने का रास्ता बताए, वह तीर्य कहलाता है । भगवान् ने सभी भव्य. जीवो को ससारसमुद्र से तारने के लिए धर्मतीर्थ (धर्ममय सघ) की स्थापना की। धर्म का आसानी से आचरण कर सकने के लिए उसे सघबद्ध किया।
१- 'धम्मवर-चाउरत चक्कवट्टी'- नमोत्युण-शक्रस्तव