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ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता
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भाष्य
निष्फलता के बाद राजीमती का मथन इतना सब कुछ करने के बावजूद भी जब राजीमती को सफलता नही मिलती है, तो उसके मन मे अन्तर्मथन होता है कि स्वामी नेमिनाथ मेरी भावना को जरूर ममझते हैं, फिर भी वे मेरे मन का समाधान क्यो नही करते? कोई न कोई कारण अवश्य है, जिसे मैं समझ नहीं पा रही हूं। मैं पतिव्रता स्त्री अपने आपको मानती हूँ, तो पति जिस रास्ते से जा रहे हैं, उस रास्ते मे मुझे बाधक नहीं बनना चाहिए, प्रत्युत उनके पदचिन्हो पर चल कर मुझे उनके काम में सहयोग देना चाहिए । अतः वह मोहदशा हटा कर तत्त्वदृष्टि से विचार करके अपने उद्गार प्रगट करती है--
मोहदशा धरी भावना रे चित्त लहे तत्वविचार; मन। वीतरागता आदरी रे, प्राणनाथ निरधार; मन०॥१४॥ सेवक परण ते आदरे, तो रहे सेवक-माम'; मन०॥ आशय साथे चालिए रे, एहीज रुडु काम; मन० ॥१५॥ त्रिविध योग धरी आदर्यो रे, नेमिनाथ भरतार; मन० । धारण-पोषण-तारगो रे, नवरस मुक्ताहार; मन० ॥१६॥
अर्थ मोहनम्त दशा धारण करके मैंने अब तक वैसी स्नेहराग की भावना (विचारणा) ही की। परन्तु अब तत्वज्ञान का विचार आया है कि स्वामीनाथ ने वीतरागता (रागद्वेषरहित अवस्था) अपना ली है, (इसलिए। प्राणनाथ के जैमी अवस्था (वीतरागता। धारण करना निश्चय ही आवश्यक है ॥१४॥
आपका जो सेवक (मैं) हो, वह भी उसे (स्वामी की तरह वीतरागता) अपनाए, तभी सेवक को मानमर्यादा (इज्जत) रह सकती है । अत जिनकी सेवा करनी है, उनके आशय (हृदयगत भावना) के साथ ही चलना चाहिए। सेवक (मुझ सेविका) के लिए यही अच्छा काम है ॥१५॥ ___ अत. राजीमती ने भी त्रिविध योग (मन-वचन-काया के योगो से योग= साधुत्व अथवा इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग या योगावचकयोग,
१ 'माम' के बदले कही-कही 'मान' शब्द भी है।