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अध्यात्म-दर्शन
भाष्य
राजीमती का अन्तिम दाव · देखने की प्रार्थना राजीमती अभी मोहबुद्धि मे जकडी हुई है, और वह अपने स्वामी श्रीनेमिनाथ को अपनी ओर खीचना चाहती है। सारी आशाएं निष्फल हो जाने, मारे प्रयत्नो पर पानी फिर जाने के बाद वह अपना अन्तिम दाव फैकती है--हे नेमिराज । मुझे लगता है कि आपने मुझे पहले कभी देखी नही है। इसी कारण मेरे और आपके बीच मे दष्टिभेद की खाई पड गई है। अतः मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि एक बार आप मुझे उसी देखने की पद्धति से जी भरकर देख लें, जिस पद्धति से मैं आपको देखती ह । मेरी आपके प्रति प्रेमभरी (रागयुक्त=सराग) दृष्टि है, उमी रागदृष्टि से आप मुझे एक बार देख लें तो मेरा विश्वास है कि आपको मतोष होगा, आपका दिल वदल जायगा, मेरे प्रति जो पूर्वाग्रह आपके मन में है, वह समाप्त हो जायगा। इसलिए मेरी और प्रार्थनाएं आपने ठुकरा दी तो कोई बात नहीं, अब इस अन्तिम छोटी-सी प्रार्थना को स्वीकार कीजिए और एक वार-सिर्फ एक ही वार मुझे अपनी नजर से जी-भर कर देख लीजिए। मैं निहाल हो जाक गी। इतने से ही मेरे समस्त मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे। मेरे रागभरे हृदय मे अभी तक जो तडफन हैं, वह आपके द्वारा देखने भर से शान्त हो जायगी ।" राजीमती को अपने पर इतना भरोसा है कि अगर नेमिकुमार एक बार मुझे जी-भर कर देख लेंगे, तो फिर मुझ में उनको वाधने की कला है, फिर वे की छटक नही सकेंगे। परन्तु नेमिनाथ स्वामी इस बात को भलीभांति समझते हैं कि एक वार राजीमती पर रागदृष्टि से नजर करने का नतीजा क्या आएगा? इसलिए वे ऐमी उलझन मे स्वय किसी भी मूल्य पर पडते नही ।
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो एक बार नेमिनाथ स्वामी अगर राजीमती के कहे अनुमार रागदृष्टि से उसे देख लें तो उनकी वीतगगता ही समाप्त हो जाय । इमलिए आध्यात्मिक साधक इस प्रकार की मोहदशाप्रेरित बाह्यचित्तवृत्ति की प्रार्थना कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। राजीमती भी इस बात को समझ जाती है, फिर भी वह इस बहाने से श्रीनेमिनाथ की वीतराग की भावना की कसौटी कर लेती है, जिस पर वे पूरे खरे उतरते हैं।