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ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता
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जानते हैं । आपका एक भी कार्य गुप्त नही, जिसे लोग न जानते हो। फिर भी एक बात गुप्त है, वह यह कि आप अनेकान्तदृष्टि (बुद्धिरूपी) स्त्री का सेवन (भोग) प्रतिक्षण करते हैं, फिर भी आप बालब्रह्मचारी कहलाते हैं, यह बहुत ही आश्चर्य की बात है। फिर ताज्जुब यह है कि स्याद्वादबुद्धिस्त्री के भोगी होते भी आपको कोई रोग नही लगा । अन्यथा 'भोगे रोगभयम्' इस नीतिवाक्य के अनुमार आपको रोग होना चाहिए। अथवा अनेकान्तिक न्यायशास्त्रप्रमिद्ध व्यभिचारी दोष का पर्यायवाची है। इसलिए माप ब्रह्मचारी हुए भी व्यभिचार (हेत्वाभास) दोप का सेवन (भोग) करते हैं। इस प्रकार आपके जीवन मे परस्पर विरोधाभास है । हेत्वाभास के ५ भेद हेतु के ५ दोष के रूप मे माने जाते है-असिद्ध, विरुद्ध, सत्प्रतिपक्ष, व्यभिचार=अनेकान्त्रिक और वाघ । यहां ५ मे से चोथा दोष है।
परन्तु दूसरी तरह से अर्थ करने पर यह विरोधाभाम दूर हो जाता है जैसे-अनेकान्तिक का अर्थ जैसे अनेकान्तमतिस्त्री क्यिा है, वैसे अनेकान्तवाद का विश्वप्रसिद्ध रूप मे प्रतिपादन करने वाले है, इस अर्थ के अनुसार अनेकान्त मे अनेकान्त-व्यभिचार नामक दोष नहीं है । इस प्रकार अनेकान्तिक का अर्थ जब अनेकान्तवादी करते हैं तो वह अनेकान्तिक (व्यभिचारी) अर्थ मे हेत्वाभास नही हो सकता । इसलिए भगवान् के बालब्रह्मचारित्व और रोगरहितत्व मे कोई दोप घटित नहीं होता।
अब राजीमनी श्रीनेमिनाथस्वामी को आकृष्ट करने और अपने बनाने मे जब सब तरह से निराश हो गई तो अन्तिम दाव और फेंकती है--
जिण जोगी तुमने जोऊ रे, तिण जोणी जुओ राज; मन० । एक बार मुझ ने जुओ रे, तो सीझे मुझ काज; मन० ॥१३ ।
अर्थ हे नाथ ! जिस दृष्टि से मैं आपको देखती हैं, उसी दृष्टि से, हे राजकुमार । आप मुझे देखिए । सिर्फ एक बार ही आप मुझे देख लें तो मेरे सर्व कार्य सिद्ध हो जाय।