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________________ ५०२ अध्यात्म दर्शन भाष्य राजीमती द्वारा श्रीनेमिनाय के जीवन मे विरोधाभास का करारा व्यंग्य इन दोनो गाथाओ मे राजीमती ने श्रीनेमिनाथजी के प्रति अनहोना आक्षेप लगा कर उनके साथ उपहासात्मक व्यग्य किया है-'प्राणेश्वर | कदाचित् आपके मन में यह बात हो कि मैं (आप) तो वैरागी हू, जवकि गजीमती तो स्त्रीम्वभावशाली और रागी है। राग (प्रेम) वाले के माथ ससार मे सभी राग (प्रेम) करते हैं, परन्तु वंगगी के साथ प्रेम (राग) कमे सभव हो सकता है ? अथवा रागी के साथ वैगगी का प्रेम कसे सम्भव है ?" यो कह कर आप अपने को वैरागी ठहरा कर मेरे माथ प्रेम (राग) करने के मार्ग से छिटक रहे हो और अपने साथ प्रेम (राग) करने से रोक रहे हो तो आपकी बात नही मानी जा सकती; क्योकि अगर आप सच्चे माने मे वैगनी हो तो आप अपने भक्तो पर राग (प्रेम) क्यो रखते हैं ? इमी कारण तो उन्हें आप मुक्तिपथ का उपदेश देते हैं । मुक्तिमुन्दरी के पास जाने का मार्ग बताते है । इतना ही नही, आप मेरे माथ का राग (प्रेम) छोड कर मुक्तिरूपी शिवसुन्दरी के प्रति प्रीति (राग) रखते ही हैं, इसलिए आप भी रागी है। अगर आपको मुक्तिमुन्दरी ने प्रेम (गग) करना हो तो मेरे माय भी करिए। मैंने क्या गुनाह किया है ? बल्कि मेरे साथ तो आपका आठ जन्मो तक लगातार राग (प्रेम) न्हा है । अतः जगत् के न्यायानुमार पहले आप मेरे माथ विवाह करके फिर मुक्तिसुन्दरी के माथ प्रीति जोडिए। क्योकि मैं आपकी ही हूं, आपके साथ मेरा पूर्ण अनुराग है। ___अध्यात्मिक दृष्टि से इस गाया का इससे बिलकुल उलटा अर्थ घटित होता है। राजीमती (वाह्यचित्तवृत्ति) सामारिक राग वाली है और नेमिनाथप्रभु सामारिक रागरहित है । इसलिए प्रभु के और राजनीती के बीच अब दुनियादारी का प्रेम जम नही मकता । दुनिया की दृष्टि से मुक्ति के रागी है, इसलिए दुनिया से विरत (वैरागी) हैं। इसीलिए राजीमतीरूपी सासारिक स्त्री के प्रति विराग और मुक्ति के प्रति राग, यह परमात्मा की वीतरागता सिद्ध करता है। फिर राजीमती श्रीनेमिनाथ को उनके जीवन का एक और विरोधाभास बताती है-'देखिये, राजकुमार | आपके प्रत्येक कार्य को सब ज्ञानी लोग
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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