________________
५०६
अध्यात्म-दर्शन
क्रियावञ्चकयोग, फलावञ्चकयोग) को धारण करके नेमिनाय (वीतराग परमात्मा या शुद्ध आत्मदेव) को सच्चे माने मे पति (स्वामी) के रूप मे स्वीकार कर लिया । मन में यह निश्चय कर लिया कि ये ही मेरे धारण (आत्मगुणों को टिकाए रखने) पोषण (आत्मगुणों को पुष्ट करने) तथा तारण (संसारसमुद्र से आत्मा को तारने वाले हैं)। ये ही मेरे नवरसरूप अथवा नवसेरा मौक्तिक हार-सम हैं । यो राजीमती ने मान लिया ।
भाष्य
राजमती का मोहदशात्याग इससे पूर्व महासती राजमती की इतनी अभ्यर्थना के बाद भी जब श्रीनेमिनाथ प्रभु वापिस न लौटे, तब राजीमती को वास्तविकता का भान हो जाता है। अब तक वह रथ वापिस लौटाने की बात कर रही थी, उसके बदले अब भावना करती है। उसके अन्तर मे परमात्मा (शुद्ध आत्मा) की ओर से अन्त स्फुरणा होती है-"राजीमती ! मोहनीयकर्मवश पराधीन बन कर तू यह क्या कर रही है ? किमको उपालम्भ दे रही है, ताने मार रही है, व्यग कस रही है ? प्रभु नेमीश्वर तो पूर्ण वैराग्यवान बन चुके हैं। उनका निश्चय भटल है। वे वीत गगता को अपना चुके हैं। तेरे शब्द, तेरा मोहक वाह्य भौतिक रूप-सौन्दर्य और तेरे मोहभरे वाक्यवाण उन पर अब कोई असर नहीं कर सक्ते । वे अब सर्वात्मभूत बन गए हैं। ये तेरे-से या तेरे सरीखे न बन सके, इसके पीछे यही रहस्य है। अब तू पदि उनकी सच्ची सेविका--प्रेमिका है तो तुझे उनके जैसी बनना पडेगा। तेरे आठ जन्मो के प्रेम की अव इस जन्म मे सच्ची कसौटी प्रभु कर रहे हैं। अत तू अपने प्राणनाथ भगवान् नेमिनाथ की तरह ही वीतरागभाव को धारण कर।" राजीमती के हृदय मे तीव्र मन्थन हो चुका और उसने मोहदशा छोड दी, नेमिनाथ की वीतरागता को वह आरपार देखती है। वह एकत्वभावना पर चढ कर सोचती है-'अब तक तो मैं मोहदशा धारण करके मोचती थी, परन्तु अब मेरा सन असली वस्तुस्थिति को जान सका है कि 'प्राणनाथ | आपने दृढ़तापूर्वक वीतरागता अपना ली है। पहले आपकी सव वातें मुझे उलटी लगती थी, लेकिन अब सारी ।' बाते सगत जान पडती हैं। पहले मैं मोह के कारण सोमारिक दृष्टि से आपके जीवन की घटनाओ का तालमेल विठाती थी, इसका कारण सब विपरीत
-
-
-