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ध्येय के माथ ध्याता और ध्यान की एकता
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प्रतीत होता था, लेकिन अब सभी बातें भलीभांति दिमाग मे जम गई हैं। मेरे चित्त मे अब आपका तत्वविचार जाग्रत हो चुका है। आप अपनी भूमिका मे जो कर रहे हैं, वह विलकुल ठीक है ।
इम प्रकार पक्का निश्चय कर लिया कि प्राणनाथ ने जब वीतरागता का मार्ग अपना लिया, तो मैं उनकी पतिव्रता स्त्री तभी कहला सकती हूं, जब उनके मार्ग का अनुसरण करू । प्राणनाथ ने तो वीतराग द्वारा अपनाने योग्य मार्ग ही अपनाया है। मुझे भी उनके मार्ग पर ही चलना चाहिए।" इस प्रकार वह नेमिनाथ स्वामी के वीनरागता के मार्ग को समझ कर अपनाती है। स्वय उस रास्ते पर चलने का निश्चय करती है। वह नेमिनाथ को छोड़ कर दूमरे के साथ शादी करने का विचार नहीं करती। वह यो नही सोचती कि मेरी तो केवल सगाई ही हई है, अत नेमिनाथ नहीं चाहते तो दूमरा वर पसद कर लू। वह अपने आपको वाग्दत्ता मानती है और नेमिनाथ स्वामी द्वारा गृहीत मार्ग को ही अपने लिए ठीक समझ कर अपनाती है। इम निर्णय में राजीमती की सहज सरलता और कृतनिश्चयता है। राजकुमारी होते हुए भी भौतिक विवाह के बदले नेमिनाथ के आत्मिक विचारो को अपना कर सर्वत्याग के मार्ग पर जाने का निश्चय कर चुकी, यह उसके निर्णय की भव्यता है।
ज्यो-ज्यो राजीमती आत्मा की आवाज सुनती गई, त्यो-त्यो वह एकत्वभावना मे तल्लीन हो कर गहरी उतरती गई.--'यह जीव अकेला ही आया है, अकेला ही जाएगा, कोई किमी के साथ नहीं जाता। भगवान् ने जो मार्ग लिया है, वह वीतराग के लिए उचित व शोभास्पद है। वही मेरे लिए अनूकरणीय है। क्योकि मैं प्रभु की सेविका--अनुचरी है। मेरे प्राणेश्वर श्रीनेमिनाथ की प्रेमिका हूँ। आट-आठ जन्मो का हम दोनो का पुराना प्रेम है। परन्तु मेरे और उनके दर्जे मे जो अन्तर है, उम पर मैंने विचार नहीं किया। मेरे भौतिक मोहनीय भावो ने मुझे ऐसा मोचने भी नहीं दिया। सचमुच मोह का कितना जबर्दस्त कुप्रभाव है | सत्यस्वरूप को छिपा कर यह दुष्ट मोह असत्स्वरूप को ही समक्ष प्रस्तुत करता है। हाँ, मुझे याद आ गया, मैं तो इन प्राणनाथ की जन्म-जन्मान्तर से सेविका रही हूँ। स्वामी की इच्छा ही मेरी इच्छा रही है। पूर्वजन्मो मे भी मैं स्वामी की इच्छा के अधीन थी। और .