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अध्यात्म-दर्शन
की दृष्टि से बताये गये हैं। निग्नयन की दृष्टि में नौ स्वभाव, स्वगुणों या स्वम्बम्ग में गणता ही गर्म मुक्ति पा या उपाय है । वही निनाद से सबर और निर्जगई, जो उपादेय। आधर को नलिए हेय बन रायर गया कि इगगे आत्मा को को चंधन में जकरबर निराल तक मसार के जन्ममग्ण के चक में परिभ्रमण करनी रहती है ।नवर घोटाला जगादेय बताया कि यह आत्मा को पार्मों के बन्धन मे पटनं मे गार अपने न्य स्थिर करता है और चिरकालीन जन्ममरण के चर मे मुक्त करता है।
आश्रव और सपर के लक्षण जिस कारण मे प्राणी कर्मों के बन्धन में बंध जाता है, उसे बंध कहते हैं । जीवरूपी तालाब मे कर्मरूपी जल का आना आश्रय है । आयव मे कमों के आगमन के स्रोत (हार) खुले होने है, जबक्ति मंदर में यमो के आगमन के स्रोत (द्वार) वद होते है । जीवस्पी तालाब मे कर्मस्पी जन का आना बन्द हो(क) जाय, उमे मवर कहते हैं । निश्चयनय की दृष्टि से शुद्धभावो के सिवाय आत्मा का गुभ या अगुभ भावो मै बह्ना या प्रवृत्त होना, आश्रव कहनाना है और आत्मा का शुभ-अशुभ भावों में हट कर शुद्ध भावो-~~-आत्मगुणो या स्वम्वरूप में प्रवृत्त होना या स्थिर होना, लीन होना सवर पहनाता है। जिनके नम्बगदर्शन, विरति, अकपाय, अयोग, महाव्रत, जणुव्रत आदि अनेक भेद है।
अलग अलग स्वभाव के कर्मों के अलग-अलग कारण मामान्यतया कर्मवन्ध का पारण आयव और माधव के मूत्र ५ कारण बताये गये है, लेकिन शास्त्रों में पूर्वोक्त ८ कर्मों की प्रकृति के रंग में वन्धने वाले ८ कर्मों में से प्रत्येक के बन्ध के पृथक-पृथक कारण भी बताये गये हैं। जैसे ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के ५ कारण मुग्य है-ज्ञान या ज्ञानी के दोष देखना, ज्ञान या ज्ञानी का नाम छिपाना, ज्ञान या ज्ञानी मे टाह करना, ज्ञान ग्रहण करने मे या ज्ञानी के ज्ञान-प्राप्ति मे विघ्न डालना, नान या ज्ञानी की आणातना-अविनय करना । इसी प्रकार के ५ कारण दर्शनावरणीय कर्म के है । तथा वेदनीय, मोहनीय आदि कर्मों के बन्ध के अलग-अलग कारण शास्त्रो मे वता रखे है। ।
- निष्कर्ष . प्रभुमय बनने के लिए संवर का स्वीकार । यहां आपन और सनर दोनों का म्वरण बना कर, लोगो को कमग हेय