SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३८५ एक तरह से शुद्ध पर्याय की दृष्टि से अलक्ष्य, अरूपी, निरजन, निराकार आत्मा के दर्शनोपयोगयुक्त, ज्ञानोपयोगयुक्त और चारित्रोपयोगयुक्त आदि अनन्त आत्मगुण के विकल्प से आत्मा का ज्ञानावधान करने से वह अनेक प्रकार का अनत पर्याय वाला है, इसके उपरान्त कर्मों के सयोग से अनेक अशुद्ध पर्याय होते हैं। उसके एकेन्द्रिय से ले कर पचेन्द्रिय तक की प्राप्ति तथा देव, मनुष्य तिर्यञ्च, नारक आदि गति की प्राप्ति आदि अनेक पर्याय होते हैं। इसी अलख आत्मा को जब निर्विकल्पभाव से देखते हैं, शान्तभाव से निहारत हैं। तो सोने की तरह अकेला ही प्रतीत होता है । आत्मा के ज्ञानादिभाव से या कर्मसयोग से अनेक पर्याय हो सकते हैं, पर सकल्प-विकल्प छोड कर शान्तभाव से अकेले आत्मा को देखें तो निरावरण ही दीखेगा। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने कहा-"निर्विकल्प रस पीजिये, शुद्ध निरंजन एक रे" अर्थात जब अकेले द्रव्य का ही ध्यान करना होता है, एक निर्विकल्प आत्मा के ध्यान का अमृतरस पाना होता है, उसका आनन्द भी अनोखा होता है। उस समय आत्मा एकरूप शुद्धरूप एव निरजनरूप प्रतिभासित होता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने पातजल योगदर्शन पर टिप्पणी मे भी यही लिखा है-निर्विकल्पध्यान मे शुक्लध्यान के दूसरे पाद में एक स्वात्मद्रव्य का पर्यायरहित द्रव्य का शुद्ध ध्यान होता है । और वह इसलिए वह स्वसमयनिष्ठा है । उस अवस्था मे द्रव्याथिक प्रधान शुद्धनिश्चयनय की मुख्यता होती है। अगली गाथा में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनो दृष्टियो से आत्मा का कथन स्पष्ट करत है परमापथ-पंथ जे कहे, ते रंजे एकतंत रे। व्यवहारे लख जे रहे, तेहना भेद अनन्त रे॥ घरम०॥६॥ अर्थ परमार्थरूप (निश्चयात्मक आत्मद्रव्य की सिद्धि के) मार्ग का जो कोई सत्पुरुष कथन करता है, वह (निश्चयदृष्टिप्रकाशक वक्ता या श्रोता) एक निश्चयात्मक तत्त्व की विचारणा करके (या एक ही तन्त्र मे)-प्रसन्न होता है। किन्तु जो व्यवहारनय की दृष्टि से लक्ष्यरूप-आत्मा में रहते (रमण करते हैं, ..
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy