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अध्यारभन्दशन
नियमो मे भरमक शक्ति लगाना किमावतकयांग है, जो महापापो के क्षय । मे जागता है। तया सद्गुरों के निमिन (सहयोग) में निर्वाणामा धर्म की प्राप्ति करता है। गतो द्वारा सम्मन इस प्रकार के मोक्षानुवन्धी फन की प्राप्ति होते रहना फलावचकयोग है। निरा गह है कि इन तीनो मे खोटे योगो से वच कर प्रलोभन, भय, स्वार्य या कामना के भावो को छोड़ कर सहदेव, गदगुरु एवं मधर्म की पटरहित होकार निकरणशुद्ध मेवाभक्ति करने से परमात्मा के ययास्वरदर्शन की प्रतीनि हो जाती है, जो बान्तक मे प्रभु-मुख चन्द्रदर्शन है। तया पूर्वोक्त विधि में निकाममाय ने मम्यग्ज्ञानपूर्वक मन-वचन-काया की एकाग्रतापूर्वक मोक्षदायिती धनिया की जाती है तो वह क्रिया अवचक हो जाती है। और उसका फन भी शुद्ध मिलता है, कर्ममुक्तिका फल को छोड़ कर जो किसी सांसारिक प्रतिष्ठा, नामवरी, दम्भ, ईष्या, स्वार्थ या प्रलोभन को ले कर निषा करता है, उसका फ़न भी सांसारिक एपणा से लिप्त होने के कारण वचक है, अबंधक नहीं । अतः अवचकभाव से अवचकक्रिया करके अवंचवफल के रूप मे वीतराग-परमात्मा का साक्षात्कार सम्यग्दृष्टि मात्मा कर सकती है।
निश्चयनय की दृष्टि से देखा जाय तो जब निमित्तों को गौण मान कर अपने समक्ष शुद्ध-आत्मभाव मे रमण के योगो के उपस्थित होने पर जब आत्मा से उनका सही शुद्धभाव म उपयोग, आत्मगुण या वन का लक्ष्य होता है, तदनुसार गुद्ध स्वमावरमणस्प क्रिया होती है तथा गुद्धम्वमाव मे मात्मा स्थिर होने के योगो को नही चूकती, तभी वह परमात्मा के शुद्धामचेतनरूपी मुखचन्द्र के दर्शन कर सकती है। अन्यथा गुभ-अशुभभावो में या परभावों मे रमणता और स्थिरता तो अनेक जन्मो और गतियो में की, मगर उससे जरा भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ।
किन्तु उक्त तीनो योगो की अवचकना यानी तीनो योगो का अवसर न चूकने की बात प्रमादी व्यक्ति या प्रमत साधक से कामे निम मकती है ? इसक लिए प्रवल आशावान श्रीआनन्दघनजी अन्तिम गाया मे कहते है-
प्रेरक अवसर जिनवर, स०; मोहनीय क्षय जाय सखी०। कामितपूरण सुरतरू, स०, आनन्दघन-प्रभु पाय सखी०॥७॥