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________________ परमात्मा का मुखदर्शन १७३ अर्थ जब प्रेरक (उक्त तीनो योगो मे प्रवृत्त करने का) अवसर आएगा, तब श्रोजिनवर (वीतराग परमात्मा) हो प्रेरणा करेंगे। और साधक क्रमशः अप्रमत्त-गुणस्थान से आगे बढ कर निवृत्तिवादर, अनिवृत्तिवादर, और सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानो को लाघ कर १२वें क्षीणमोहगुणस्थान पर पहुच जायगा, जहाँ उसका सबसे बडा घातीकर्म-मोहनीय सर्वथा नष्ट हो जायगा। और अपने (परमात्मदर्शन के) मनोरथ को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष के समान सच्चिदानन्दमय प्रभु को पा जायगा। यानी उसका परमात्मदशन का मनोरथ पूर्ण हो जायगा । अथवा उस आनन्दमय परमात्मपद को साधक स्वय पा जायगा । भाष्य परमात्ममुखदर्शन के मनोरथ मे सफलता इम अन्तिम गाथा मे श्रीआनन्दघनजी पूर्वोक्त तीनो अवचक-योगो की प्राप्ति के अवसरो को प्रमत्तसाधक न चूक सके, इसके लिए अवसर-प्रेरक वीतराग परमात्मा को ही बता कर उनके चरण-शरण मे जाने की बात पर जोर देते हैं । सचमुच साधक की आत्मा परमात्मा के प्रति पूर्ण वफादार रह कर प्रवृत्ति करे तो उसकी शुद्ध आत्मा ही प्रेरणादायक अवसरो को न चूकने की प्रेरणा दे देती है । शुद्ध आत्मा की आवाज ही परमात्मा की सच्ची प्रेरणा है । परन्तु वहुत-से साधक श्रेयमार्ग को कठिन और दुखमय समझ कर उससे अपने आपको वचित कर देते हैं, प्रेयमार्ग को ही सर्वस्व समझ लेते है, क्योकि उसमे प्राय तात्कालिक फल मिलता है । निश्चयनय की भाषा मे कहे तो शुद्ध आत्मा की आत्मभाव मे रमण की अथवा स्वभाव की प्रेरणा को ऊवा देने या थका देने वाली समझ कर साधक की आत्मा भय-प्रलोभनपूर्ण परभावो या भौतिक भावो अथवा वैभाविक भावो मे रमण की ओर मुड़ जाती है और स्वभावरमण मे प्रमाद कर बैठती है। अत शुद्ध-आत्मभावो मे रमण के अवसरो की सतत प्रेरणा दने वाले परमात्मा- शुद्धात्मा है। उसी प्रेरणा को मजबूती से पकड लेने पर तीनो योगो मे अवचकता से साधक क्रमश उत्तरोत्तर गुणस्थानो को पार करके वारहवें गुणस्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ समस्त कर्मों के मूल
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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