________________
१७४
সমে -ঘন मोहनीय कर्म का नर्वथा क्षय हो जाता है। यही प्रदान की गर्वोत्तम उपलब्धि है, माधक के जीवन में । श्री आनन्मनजीती जागा गे परमात्मा के विशुद्ध मुखचन्द्र का दर्शन करने में लिए उन्गुर। उनको अन्नगत्मा पुकार उठती है कि मोहनीर कम के आय होते ही पाक मनोवांछित (मोक्षरूपी पान पाने का) पूर्ण मनोरय पारने वाले, कामवृक्षावन आनन्धनमय परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। अथवा प्रभवनमा मनोग्य पूर्ण से सफ्न करने वाले वीतराग-परमात्मा के चरण ही मनोरथपत हैं, वे ही गापवृक्षण है, सच्चिदानन्दमय हैं।
मतलब यह है कि परमात्ममुखचन्द्र का दर्णन करने की तमन्ना जिम साधा में होगी, वह तीनो योगो की पूर्ण भरगमा आगधना करने में वीतराग परमात्मा की प्रेरणा उम-उ7 अवगर पर पा ही लेगा, और आगे बटते-बटने वीणमोह-गुणग्यान पर जा पहुँनेगा, जहां उसके उत्त गनोदय के समान होने में कोई सन्देह नहीं है । नयोकि इतनी उच्च-भूमिका पर पहुँचने के बाद जो वह ग्वयमेव पूर्ण गुद्वात्मा वन कर परमात्ममय हो जाता है, ल्वयं कामनापुख कल्पवृक्षरूप व आनन्दवनमय परमात्मपद को प्राप्त कर लेना है।
सारांश उस स्तुति मे श्री आनन्दघनजी ने परमात्मा के मुराचन्द्र का स्वरूप एवं उसको दर्शन की तीव्रता बता कर अब तक विभिन्न गतियो और योनियो में प्रभुदर्शन न मिलने का इतिहास बता र जन्त मे प्रमुमुखदर्शन पाने के लिए आत्मा की अवचकत्रय-साधना बताई तथा भवचकता के अवसर के लिए वीतराग प्रभु को ही प्रेरक मान कर क्षीणमोह-गुणस्थान श्रेणी तक पहुँन कर पूर्ण सच्चिदानन्दमय परमात्मपद को प्राप्त करने की माशा व्यक्त की है।