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________________ वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान ३६७ मन्दधन प्राप्त करूँ, यही मेरी जिज्ञासा है । और मेरा निश्चय है कि मैं अवश्य आनन्दघनमय मोक्षपद या आत्मानन्दमय सिद्धपद प्राप्त करूंगा। इस गाथा में एक वात स्पष्ट ध्वनित कर दी गई है कि जहां तक सर्वोच्च भूमिका प्राप्त न हो जाय, वहां तक व्यवहार-दृष्टि मे तीर्थ का आलम्बन लेना और तीर्थसेवा करना मुख्य आधार है। तीर्थ-निरपेक्षरूप मे बाहुबलिमुनि की तरह चाहे जितनी साधना की जाए, फिर भी तत्व प्राप्त नहीं होता। प्रत्युत कई बार तो विपरीत भाव या तीर्थ या तीर्थंकरो अथवा महापुरुषो या माधको के प्रति घृणाभाव पैदा हो जाने से मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का बन्ध हो जाता है। स्वय तीर्थकर भगवान् भी अपने कल्प का अनुसरण करते हुए तीर्थसापेक्ष होकर प्रवृत्ति करते हैं । सभी भूमिका वाले साधको के लिए जैनशामन मे तीर्थ का आलम्बन लेना आवश्यक होता है । यही कारण है कि श्रीआनन्दधनजी जैसे उच्च आध्यात्मिक साधको ने अपना नया मत, पथ या सम्प्रदाय नहीं चलाया, बल्कि अन्त तक तीर्थ (सघ) का ही आश्रय लिया, तीर्थपति के ही चरणो मे अपना सर्वत्र समर्पण करके अपनी साधना का विकाम किया। इसमे फलित होता है कि साधको को सर्वोच्च भूमिका पर पहुंचने से पहले तक निश्चयदृष्टि को आखो से जरा भी मोझल नही होने देना चाहिए, माथ ही व्यवहारदृष्टि को भी सर्वथा नहीं छोडना चाहिए। - निश्चयनय और व्यवहारनय से सिद्ध आत्मधर्मों का विचार दो तरह से करना चाहिए -~-एक तो ज्ञानदृष्टि से, दूसरा चारित्रदृष्टि । से ज्ञानहष्टि वस्तु का सिर्फ ज्ञान कराने में मुख्य होती है, जबकि चारित्रदृष्टि आचरणप्रधान होती है। किसी जीव के कितने ही कर्म ज्ञानवल से टूटने योग्य होते हैं, जबकि कितने ही कर्म आचरण करने से, तपस्यादि करने से टूटने योग्य | होते हैं । अत ऐसे कर्मों को तोड़ने के लिए आचरण करना पड़ता है । और वह क्रमश ही हो सकता है । प्राथमिक क्रम व्यवहारनयसिद्ध आचरण का आता है, और फिर निश्चयनय सिद्ध आचरण का आता है। इसमे धर्मध्यान और शुक्लध्यान-निर्विकल्प (असग) ध्यान मे समताभाव की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए चिदानन्दमय यात्मा के अनुभव आदि का समावेश होता है। उस स्थिति मे व्यवहारनय की क्रिया छोडनी होती है, जिसे धमसंयाग्ससामर्थ्य योग कहते हैं और वह ८ वे अपूर्वकरण नामक गुणस्थान से ही प्राप्त हो जाता है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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