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________________ परमात्म-पथ का दर्शन ३५ होने से मुझे भी परमात्मा-पय का निर्णय करना कठिन हो रहा है । उनका निश्चय ही वियोग हो गया है। दिव्यनयन-पद से यहाँ इन्द्रियो मे न होकर, जिन्हे सीवे आत्मा से होने वाला ज्ञान प्राप्त हो गया है, वे प्रत्यक्षजानी महापुरुष या आत्मप्रत्यक्षज्ञान विवक्षित है। क्योकि वस्तुतत्व का यथार्य पूर्ण निर्णय तो प्रत्यक्ष ज्ञानी या प्रत्यनज्ञान ही कर सकते हैं। परोक्षज्ञानियो के ज्ञान मै कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। मुख्यतया ज्ञान दो प्रकार के हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रियो और मन की उपस्थिति मे जो ज्ञान होते हैं, वे परोक्षज्ञान कहलाते है। जैनदर्शन की दृष्टि से मतिज्ञान और तनान ये दोनो परोक्षजान है । चूकि अन्य दर्शन इन्द्रियो और पदार्थ के सन्निकर्प से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान मानते हैं, इसी कारण जैन दार्शनिक इमे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष और इन्द्रियो और मन के निमित्त के बिना मीधे ही आत्मा में होने वाले ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहने लगे। पारमार्थिक प्रत्यक्ष हो वास्तविक प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसी को ही श्रीआनन्दधनजी ' दिव्यनयन = आत्मप्रत्यक्ष-ज्ञान कहते हैं। -ऐसे आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान से ही वस्तुतत्व का यथार्थ रहम्य समझा जा सकता है। तभी परमात्मा के मार्ग का सच्चा निर्णय हो सकता है, परन्तु इस पचम काल मे इस (भरत) क्षेत्र मे तो ऐमे आत्मप्रत्यक्षज्ञानी या आत्मप्रत्यक्षज्ञान का मयोग नहीं है, उनका इस समय वियोग है। विभिन्न दृष्टियो से तरतमयोग और तरतम वासना के अर्थ तया तद्य क्त बोध वासना का अर्थ है-कपाय, राग-द्वप, या मोह आदि और योगो का अर्थ है-मन-वचन-काया के व्यापार । ज्योज्यो वासनाओ की तरतमता = न्यूनाधिकता होती जाती है, त्यो-त्यो मन-वचन-काया के योगो की तरतमता होती है। अर्थात जिसमें वासनाओ (कपायो, अभिमान, नामना-कामना, पूजामत्कार-लिप्सा, एव विविधि एवणाओ,) की जिननी और जिस अनुपात में तीव्रता या मन्दता होगी, उतनी और उसी अनुपात मे उसमे मन-वचन-काया - के योगो की चपलता (अस्थिरता) या अचपलता (स्थिरता) होगी और उम
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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