SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ তামান परमान्मपय के गंन ने छठी माठिनाई इस प्रकार परमात्मपथ के दर्शन में मुय-मुख्य विनायो । पूर्वान गावालों में उल्लेख करके श्रीमानन्दपनगी अन्न परमात्मा के मन में लिए पूर्वोक्त दिनचनम्पी आधार . विषय में दुल मना पारिदन करते है वस्तु विचारे रे दिव्यनयन तणो रे, विरह पडयो निरधार । तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, बामित बोध जाचार ।। पंवडो॥५॥ पदार्य के यथायं स्प का विचार करने में जो दिव्यनेत प्रत्यक्षतानी अतिशयज्ञानी या अतिशय प्रत्यक्ष ज्ञान हैं उनका तो इम (पचम) काल में निचर ही वियोग हो गया है । इमलिये उनके चिन्ह में दमे तो पस्तुतन्त्र के प्रया) ज्ञान का कोई आधार नहीं है। मन-वचन-काया के योगो को तग्रमता बासनाओ (कषायो) को तरतमता के अनुसार होती है। इस दृष्टि से प्रबल वाननाओ (कषायों) से क्रमश मुक्त होने के कारण कई महान् आत्माओं के फपायो के क्षयोपशम की अधिकता होगी, उतनी ही मन बचन-काया के योगों को स्थिरता अधिक होगी । अत ऐसे महापुरुषो के ज्ञान के अधिकाधिक क्षयोपशम से भावित बोघ ही इस काल मे आधारभूत है। भाप्य दिव्यनयन क्या हैं ? उनका वियोग श्यो ? योगी आनन्दधनजी ने परमात्म-पथ के दान के लिए पहले दिव्यनयन की मुख्यता बताई थी। अन्य उपायों से प्रभपथ-दर्गन की दुष्परता का प्रतिपादन के बाद यहाँ वे पुन उसी दिव्यनयन का उल्लेा करते हुए कहते है कि अगर आज इस प्रकार के दिव्यनेत्रधारी या आत्मप्रत्यक्षनान होते तो मुझे प्रभुपथ के दर्शन के लिए पूर्वोक्त कठिनाइयों का सामना न करना पडता । मेरी परमात्म-मार्ग के दर्शन की समस्या बहुत ही आसानी मे हा हो जाती, परन्तु अफसोस है कि आज वे दिवनेत्रधारी महापुरुप इन क्षेन (भन्नक्षेत्र) मे रहे नही अथवा मेरे अपने अदर वे दिव्यनेय (प्रत्यनशान) प्रकट होने दुर्लभ
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy