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परमात्म-पथ का दर्शन
कहे, उनके पास जा कर परमात्ममार्ग का निर्णय करू , मगर ऐसे यथार्थवक्ता महापुन्प तो विरले ही है । जो है, वे झटपट पहचाने नहीं जा सकने । ऐसे महान् पुरुपो का समागम अगक्य नही तो दुर्लभ जरूर है , क्योकि वस्तु के स्वरूप में किसी भी प्रकार की न्यूनाधिकना न करके कहना, अपने रागद्वेष, अपनी माम्प्रदायिक एव परम्परागत मान्यताओ, धारणाओ या अपने निजी स्वार्थो , मस्कागे या अह का कथन मे लेशमात्र भी प्रवेश न होने देना, बहुत ही कठिन है । किनी वस्तु के बारे मे जब हम सत्यता खोजने के लिए किनी महान् मे महान् कहलाने वाले महानुभाव के पास जाते हैं, तो वहाँ उनके तत्त्वप्रतिपादन के समय व्यक्तिगत अभाव, माम्प्रदायिकता का पुट, परम्परागत धारणाओ, मान्यताओ या अपने सम्कारो का समावेश, तथा कई बार 'यह सन्य स्वय को ही उपलब्ध हुआ है' इस प्रकार के दावे ही दृष्टिगोचर होंगे। इस प्रकार के प्रतिपादन ने जिज्ञासु वीतराग परमात्मा के असली मार्ग के सत्यदर्शन के बदले उपर्युक्त भूलभुलैया या अधिक उलझन मे पड जाता है। जगत् में ऐसे लोग इनेगिने हैं, जो किसी वस्तु मे निहित वस्तुतत्व या यथार्थ धर्म का यथातथ्यरूप में कथन कर सके। क्योकि वस्तु का यथार्थ कथन करना इसलिए टेढी खीर है कि ऐसा करने वाले प्राय साम्प्रदायिकता, स्वत्वमोह या कालमोह से ग्रस्त अपने कहे जाने वाले लोगो के कोपभाजन बन जाते हैं, प्राय उन्हें नास्तिक, मिध्यात्वी, कृतघ्न आदि नाना गालियो का शिकार वनना पडता है अथवा उनके पूर्वाग्रह, रूठ मिथ्यामम्कार, अहभाव से लिपटे हुए मत ही उन्हें किमी लागलपेट के विना मध्यस्थभाव मे मत्य प्रतिपादन करने मे वाधक बन जाते हैं । इसलिए अपने पूर्वाग्रहो, रूढ सम्कारो, विवेकविकल मान्यताओ या धारणाओ, या अन्धविश्वासो अथवा देव-गुरु-धर्म एव आगम-सम्बन्धी मूढताओ ने ऊपर उठ कर बीतसगपथ के सम्बन्ध मे निप्काम भाव से मत्य प्रगट करने वाले महापुरुप विरले है। शुद्ध सत्यभाषको की विरतना के कारण परमात्ममाग का निश्चय दुर्लभ है। __ वस्तु को यथार्थ व यथारूप मे कहने वाले व इसमे जरा-मी भी अनिमयोक्ति खीचातान, मनाग्रह या पूर्वाग्रह रखे विना जिनामु के आगे प्रगट करन वाले पुरुषों की विरलता देखनी हो तो किसी भी बड़े से बडे नथाकथिन तत्त्वज्ञानी या महान् कहलाने वाले व्यक्ति के नान्निध्य में कुछ दिन रह कर, उनकी दलीलें, तर्क, साम्प्रदायिक झकाव आदि पर से देखी-समझी जा सकती है।